विवेक की व्याख्या
सनातनपुत्र देवीदास विपुल "खोजी"
विवेक का शाब्दिक अर्थ होता है।
1. भले बुरे का ज्ञान
2. समझ (जैसे—विवेक से काम करना)।
3. सत्यज्ञान
विवेक संस्कृत का एक आम शब्द है जिसका प्रयोग असंस्कृतभाषी भी प्रतिदिन करते हैं। कई भाषाओं में इसका अर्थ बुद्धि होता है किन्तु व्यापक रूप मैं इसका अर्थ भेद करने की शक्ति मन जाता है, परन्तु इस शब्द की व्युत्पत्ति और अन्य अर्थ भी जानने चाहिए। संस्कृत में, अन्य शास्त्रीय भाषाओं, जैसे फ़ारसी, ग्रीक, लैटिन, की तरह हैं धातु से शब्द बनते हैं|
विवेक विच धातु में 'वि. उपसर्ग को जोड़कर बनाया गया है। विच का अर्थ है परे, पृथक, वंचित, भेद, विचार या न्याय। अतः विवेका का अर्थ है भेद करना, निर्णय करना, प्रभेद करना, बुद्धि, विचार, चर्चा, जांच, भेद, अंतर, सच्चा ज्ञान, जलपात्र, घाटी, जलाशय, सही निर्णय और एक जल कुंड। विवेक का एक अर्थ वास्तविक गुणों के आधार पर वस्तुओं का वर्गीकरण करने की क्षमता भी है।
वेदांत में, विवेक का अर्थ अदृश्य ब्राह्मण को दृश्य जगत से, पदार्थ से आत्मा, असत्य से सत्य, मात्र भोग या भ्रम से वास्तविकता को पृथक करने की क्षमता है।
वास्तविकता और भ्र्म एक दूसरे की ऊपर उसी तरह अद्यारोपित हैं जैसे पुरुष और प्रकृति, इनके बीच भेद करना विवेक है।
यह अनुभवजन्य दुनिया से स्वयं या आत्मान का भेद करने की क्षमता है। विवेक, वास्तविक और असत्य के बीच की समझ है जो इस बात को समझती है कि ब्राह्मण वास्तविक है और ब्राह्मण के अलावा सब कुछ असत्य है। इसका अर्थ धर्म अनुरूप और धर्म प्रतिकूल कार्यों के बीच अंतर करने की क्षमता भी है। यह वास्तविकता की समझ है।
यहां ब्राह्मण का अर्थ जाति से नहीं है। यद्यपि ब्रह्म को वरण करने का कार्य। पातांजलि के शब्दों में योग का अनुभव कर योगी बनना। वेद महावाक्यों का अनुभव ही सत्य ज्ञान देता है। अर्थात योग के मार्ग पर चलने हेतु। ब्रह्म का वरण करने हेतु बुद्दी को मोडने का कार्य करना ही विवेक है।
मेरे विचार से मैं विवेक को तीन प्रकार में विभाजित कर सकता हूं। ब्रह्म का वरण यानि ब्रह्ममण कार्य करना तो अंतिम और सत्य विवेक हुआ। जो मनुष्य का प्रथम कर्तव्य होना चाहिये और जिसके लिये मानव देह मिली है। किंतु जगत के कार्यों हेतु बुद्धि को प्रेरित करना वह भी समाज विरोधी और दुष्कर्म की ओर प्रेरित करना असत्य विवेक या अविवेक कहलायेगा। वहीं जगत की ओर अग्रसरित होकर जन सेवा और समाज सेवा हेतु प्रेरित होना। सत्यासत्य विवेक कह सकते हैं। जो असत्य है किंतु सत्य भी है।
आध्यात्म की मार्ग के लिए आवश्यक चार गुणों में से एक विवेक है। इन गुणों को साधना-चतुष्टय या साधना की चौपाई कहा जाता है| अन्य तीन गुण है वैराग्य, शमा-अदि-षट्का-संपत्तिः।
छह गुणों की संपत्ति - जिसका आरम्भ सम यानि मन को शांत करना, और मुक्षत्व यानि मोक्ष की कामना|
विवेक की महत्ता आध्यात्मिक या धार्मिक जीवन की प्रस्थान बिंदु मानने के कारण भी है। विवेक उस गहन चिंतन को धारण करता है जो किसी भी व्यक्ति को सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड की क्षणभंगुरता की समझ देता है| एक बार जब किसी व्यक्ति को दुःख की पुनरावृतिए एवं चक्रीय प्रकृति का भान हो जाता है जिससे जीवन पर्यन्त भोगना होता है, तो व्यक्ति बुरी तरह से दुख के इस चक्र से निकलने का रास्ता ढूंढ़ता है।
विवेका एक बार की प्रक्रिया नहीं है। व्यक्ति को जीवनपर्यन्त विभेद में लगा रहने पड़ता है | विवेक के इस निरंतर अभ्यास की आवश्यकता अविद्या है, मौलिक अज्ञान है, जो हमारे दिमाग पर छा जाता है और यह विश्वास करवाता है कि असत्य सत्य है और वास्तव में सत्य है, अर्थात आत्मान है वो असत्य है|
परम-हंस, पौराणिक हंस, की दूध और पानी में भेद करने की क्षमता (नीर-क्षीर विवेक) के कारण उसके विवेक को उच्चतम माना जाता है। विवेक का अभ्यास निरंतर प्रश्न एवं समालोचनात्मक विचार-विमर्श से किया जाता है।
विवेक का अर्थ होता है ये देखना कि कौन सी चीज़ है जो मन के आयाम की है, और कौन सी चीज़ है जो मनातीत है। इनमें अंतर कर पाए तो विवेक है।
आदिशंकर, जो अद्वैत के आचार्य हुए हैं, उन्होंने विवेक की परिभाषा दी है – नित्य और अनित्य में भेद करना विवेक है। नित्य और अनित्य में भेद। नित्य माने वो जो है भी, होगा भी, जिसका समय से कोई लेना ही देना नहीं है, जो समय के पार है| ठीक है? और दूसरी चीज़ें, वस्तुएं, व्यक्ति, विचार होते हैं, जो समय में आते हैं और चले जाते हैं, उनको अनित्य कहते हैं। नित्य वो जिसका समय से कोई लेना देना नहीं है, जो कालातीत सत्य है, वो नित्य है। और वो सब कुछ जो समय की धार में है, अभी है, अभी नहीं होगा, यानि कि मानसिक है; वो सब अनित्य है।
तो एक तरीका ये है उसको देखने का, कि दो अलग-अलग आयाम हो गए, एक आयाम हुआ मन का कि क्या ये सब मानसिक है, जो बातें अभी हो रही हैं| मानसिक क्या है? मानसिक वो सब कुछ है जो द्वैतात्मक है, जहाँ पर आँखों से देखा जा रहा है, कानों से सुना जा रहा है और फिर मन से उसका विश्लेषण किया जा रहा है, यही द्वैत है | जो कुछ भी इन्द्रियों से पकड़ते हो, उसी का नाम द्वैत है|
विवेक का अर्थ हुआ ये देखना कि मैं जिन बातों को महत्वपूर्ण माने बैठा हूँ, वो सब इन्द्रियगत हैं, मानसिक हैं, समय की धारा की हैं या फिर वो सत्य हैं| और ये दो अलग-अलग आयाम हैं। यहाँ एक ही आयाम में भेद नहीं किया जा रहा है। यहाँ कहा जा रहा है कि तुम चाहे काले को महत्व दो, चाहे सफ़ेद को महत्व दो, बात एक ही है क्योंकि दोनों एक ही आयाम के हैं। ठीक है? तुम चाहे पकड़ने को महत्व दो, चाहे छोड़ने को महत्व दो, बात एक ही है क्योंकि वो एक ही आयाम के हैं। तो ये विवेक का प्रश्न ही नहीं है| क्योंकि विवेक का अर्थ है वास्तविक रूप से अंतर कर पाना और वास्तविक रूप से अंतर ये होता है कि जो बात मेरे सामने है, वो मानसिक है या सत्य है।
सत्य क्या? सत्य वो जो स्वयं अपने पर निर्भर है| सत्य में और द्वैत में यहीं अंतर है| कि द्वैत में जो कुछ है उसे अपने विपरीत पर निर्भर होना पड़ता है| काले को सफ़ेद पर निर्भर होना पड़ेगा| अगर सफ़ेद न हो तो काला नहीं दिखाई दे सकता| काला न हो तो सफ़ेद नहीं दिखाई दे सकता| अगर सब सफ़ेद ही सफ़ेद हो जाए तो तुम्हें सफ़ेद दिखना बंद हो जाएगा| तुम जो लिखते हो ब्लैक-बोर्ड पर वो इसी कारण दिखाई देता है क्योंकि पीछे काला है।
ये द्वैत की दुनिया है| यहाँ पर कुछ भी सत्य नहीं है, क्योंकि काला वो जो सफ़ेद का विपरीत है, सफ़ेद वो जो काले का विपरीत है। और पूछो कि काला और सफ़ेद दोनों क्या, तो इसका कोई उत्तर ही नहीं मिलेगा| इन्द्रियां हमें जो भी कुछ दिखाती हैं, वो द्वैत की दुनिया का ही होता है| उसको जानने वालों ने सत्य नहीं माना है। इसलिए उन्होंने इन्द्रियों और मन की दुनिया को एक आयाम में रखा है और सत्य को दूसरे आयाम में रखा है।
विवेक का अर्थ है- इन दोनों आयामों को अलग-अलग देख पाना। साफ-साफ देख पाना कि क्या है जो बस अभी है, अभी नहीं रहेगा, क्या है जो अपने होने के लिए, अपने विपरीत पर निर्भर करता है| सत्य अपने होने के लिए अपने विपरीत पर निर्भर नहीं करता। सत्य का कोई विपरीत होता ही नहीं है। सत्य पराश्रित नहीं होता। सत्य है। उसे किसी दूसरे के समर्थन की, सहारे की, प्रमाण की, कोई आवश्यकता नहीं होती है, वो बस होता है। बात समझ में आ रही है? तो विवेक ये हैं कि मैं जानूं कि क्या सत्य है और क्या सत्य नहीं है। मैं जानूं, क्या है जो मात्र मन में उठ रहा है, कल्पना है, विचारणा है और क्या है जो उस कल्पना का आधारभूत सत्य है, स्रोत ही है समस्त कल्पनाओं का।
अब इसको अगर और सपाट शब्दों में कहूं तो, ‘ब्रह्म को जगत से पृथक जानना ही विवेक है, सत्य को असत्य से अलग जानना ही विवेक है’।
बहक न जाना। हम कब असत्य को सत्य मान लेते हैं? महत्व दे कर। तुम्हारे सामने कुछ है, वो तुम्हें बहुत आकर्षित कर रहा है, तुमने उसे खूब महत्व दे दिया। जब तुम किसी चीज़ को बहुत महत्व दे रहे हो, खिंचे चले जा रहे हो, आकर्षित हुए जा रहे हो, तो इसका अर्थ क्या है? तुम उसको क्या मान रहे हो? सत्य मान रहे हो| ये अविवेक है कि जो सत्य है नहीं, तुम उसकी ओर खिंचे जा रहे हो, तुम उसको महत्व दे रहे हो। तुमने उसको बड़ी जगह दे दी। ये अविवेक है। विवेक का अर्थ है, जो सत्य नहीं है, उसको जानूँगा कि सत्य नहीं है। सत्य क्या? जिसका समय कुछ नहीं बिगाड़ सकता। सत्य क्या? जो अपने होने के लिए अपने विपरीत पर आश्रित नहीं है।
जब ज्ञानी कहते हैं कि विवेक से खाओ, विवेक से चलो, तो क्या आशय हुआ उनका? उनका आशय हुआ कि तुम्हारा चलना सत्य की दिशा में रहे, तुम्हारा बोलना सत्य की दिशा में रहे। और सत्य की दिशा कैसे पता चलेगी? कहना तो ठीक है कि कह दिया कि सत्य की दिशा में चलो।
विवेक का अर्थ हुआ- सत्य की दिशा में चलो| पर बतायेगा कौन कि सत्य की क्या दिशा है? स्वयं सत्य बताएगा। क्योंकि सत्य के अलावा और कोई बताने के लिए है ही नहीं कि उसकी दिशा क्या है| विवेक इसलिए आता है, श्रद्धा से। स्वयं सत्य से पूछना पड़ता है कि अपने आने का, अपने तक पहुँचने का रास्ता बता दो, क्योंकि मन तो सत्य तक का रास्ता नहीं जान पायेगा। बताओ क्यों? क्योंकि मन द्वैत के आयाम पर, मान लो X एक्सिस पर है और सत्य का कोई और ही आयाम| जिसने अपने आप को X,Y के तल पर कैद कर रखा हो, वो किसी और आयाम में कैसे पहुँचेगा? समझ रहे हो बात को? तो विवेक बहुत गहरी बात है। विवेक का अर्थ ये नहीं है कि ज़रा देख कर पांव रखना कि कहीं गड्ढा न हो, कि पानी कहाँ है और ज़मीन कहाँ है। इसमें अंतर करने का नाम विवेक नहीं है। विवेक में अंतर निश्चित रूप से किया जाता है, पर वो अंतर इस बात का नहीं होता है कि तुम्हारे सामने जो खाना रखा है वो घी से बना है या तेल से बना है। वो अंतर बहुत सूक्ष्म अंतर है। बहुत महत्वपूर्ण चीज़ है वो अंतर करना, वो ये छोटी-मोटी बातों में नहीं है।
वो अंतर क्या है? नित्य और अनित्य का भेद करना, सत्य और असत्य का भेद करना, वास्तविक और छवि में भेद कर पाना। जो ये कर पाए, वो विवेकी कहलाता है, कि बड़ा विवेकवान आदमी है। आम आदमी कल्पनाओं में जीता है। जो कल्पनाओं में जिये, वो विवेकी नहीं है। जो छविओं में जिये, वो विवेकी नहीं है। जो अपने मतों में जिये, धारणाओं में कैद रहे, वो विवेकी नहीं हो सकता। जो किसी भी ऐसी वस्तु, ऐसी ऑब्जेक्ट से आकर्षित है या तादात्मय बैठा लिया है, जिसका आना-जाना पक्का है, अभी है, अभी नहीं है, जो कल्पना का विषय है, जिसने किसी भी ऐसी वस्तु से आकर्षण या तादात्मय बैठा लिया है, वो व्यक्ति विवेकी नहीं हो सकता। ये बात समझ में आ रही है? तो ये सामने एक कार जा रही है हमारे, हम हाईवे पर हैं| तुम्हें वो कार खींच रही है अपनी ओर, नया मॉडल है, खूबसूरत रंग है और तुम खिंचे चले जा रहे हो। ये क्या हुआ?
उत्तर मिलेगा खिंचे चले जा रहे हैं तो ये असत्य है। फिर यदि वो कार न दिखती तो क्या खिंचते उसकी ओर ? उत्तर मिलेगा नहीं। तो फिर वो कार तुम तक कैसे पहुँची? इन्द्रियों के माध्यम से। उत्तर मिलेगा मन से |
यानि जब भी कुछ तुम तक इन्द्रियों के माध्यम से पहुँचे और तुम्हें जकड़ ले, तो समझ लेना कि क्या हो रहा है, अविवेक| ‘ये विवेक की बात नहीं हो सकती, ये इन्द्रियों तक ही तो पहुँचा है मुझ तक’।
एक अन्य प्रश्न अगर तुम्हारे मन में प्रेम किसी व्यक्ति को देख कर उठता है, तो क्या वो वास्तविक प्रेम है? क्या ये विवेक है?
उत्तर मिलेगा, देख के अगर प्रेम होता है, तो नहीं है। तो अब नहीं है ना। क्योंकि ये बात पूरी तरह से अब इन्द्रियगत हो गई है। दिखा, तो मन मचल उठा, या कि उसकी याद आई तो मन मचल उठा। दोनों ही स्थितियों में हुआ क्या है? एक मानसिक तरंग है ये, एक प्रकार का ये विचलन ही है कि या तो स्मृति ने, या दिखने ने, या सुनने ने मन में एक हलचल पैदा कर दी।
उत्तर है विचार गया और सब ख़त्म यानि ये विवेक नहीं हो सकता, इसको प्रेम मत समझ लेना। समझ में आ रही है बात? विवेक का अर्थ है उसके साथ रहना, लगातार, जिसको आँखें देख नहीं सकती, जिसको कान सुन नहीं सकते, जिसकी बात ज़बान नहीं कर सकती। लगातार उस आयाम से जुड़े रहने का नाम विवेक है कि मुझे तो बस वही पसंद है। फिर प्रश्न है कौन?
‘जो मन का विषय नहीं है, जो आँखों का विषय नहीं है, जो ज़बान का या छूने का विषय नहीं है, पर फिर भी वो सबका स्रोत है, मुझे तो वो ही पसंद है, मैं उसी के साथ रहता हूँ’; ये है विवेक। और उसके अलावा कुछ और आता है, तो हमें नहीं भाता है। सत्य के अलावा तुम हमारे सामने कुछ भी लाओगे, हमें रुचता ही नहीं है’, ये विवेक हुआ।
यही अविवेक कहलाता है कि जो मुझसे समय छीन लेगा मैं फालतू ही उसके साथ जुड़ गया| और एक दूसरा तरीका भी है कि मन के आयाम से हट कर के किसी ऐसी जगह की तुमको कुछ झलक सी मिल जाए, कुछ इशारा सा मिल जाए, जो पक्की है, जो कभी हिलती ही नहीं। जहाँ कुछ परिवर्तनीय नहीं है, जिसको एक बार जान लिया, एक बार पा लिया, तो बदल ही गए। तब समझो कि तुम्हारे लिए ये चार दिन किसी काम के रहे। दो तरह के लोग लौटेंगे वहाँ से। एक वो जो अपने साथ कुछ ले कर के आयेंगे, और अपने साथ क्या ले कर के आते हैं लोग, लोग अपने साथ बहुत सारा ज्ञान ले कर के आयेंगे, जितनी वहाँ किताबें दी जायेंगी, उन किताबों का पूरा इतना ढेर ले कर के आयेंगे, बहुत सारी यादें और बहुत सारे नये फ़ोन नंबर ले कर के आयेंगे, और दो-दो सौ, चार-चार सौ फोटोग्राफ्स ले कर के आयेंगे। तो एक तो तरीका ये है कि तुम अपने साथ कुछ ले कर के आ रहे हो और दूसरा तरीका ये है कि तुम स्वयं ही बदल कर आ रहे हो। इसमें से क्या है जो तुम्हारे साथ रहेगा और क्या है जो नहीं रहेगा? यह जानना ही विवेक है।
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