Search This Blog

Wednesday, October 31, 2018

परमार्थ की व्याख्या



परमार्थ की व्याख्या 

सनातनपुत्र देवीदास विपुल "खोजी"

 विपुल सेन उर्फ विपुल लखनवी,
(एम . टेक. केमिकल इंजीनियर) वैज्ञानिक एवं कवि
सम्पादक : विज्ञान त्रैमासिक हिन्दी जर्नल “वैज्ञनिक” ISSN 2456-4818
 वेब:  vipkavi.info वेब चैनलvipkavi
फेस बुक:   vipul luckhnavi “bullet"


यदि आप परमार्थ के शाब्दिक संसारी अर्थ देखें तो पायेगें। उत्कृष्ट पदार्थ। सबसे बढ़कर वस्तु। सार वस्तु। वास्तव सत्ता। नाम रूपादि से परे यथार्थ तत्व। मोक्ष। दुःख का सर्वथा अभावरूप सुख (न्याय)। सत्य को जानना। बह्म को जानना। दान। त्याग। जन सेवा। परहित सहित तमाम अर्थ।

एक चिंतनीय दार्शनिक वाक्य है।
“परमार्थ में जब अर्थ का महत्त्व बढ़ जाता है, तब हम स्वार्थी बन कर अनर्थ की ओर बढ़ जाते हैं।“

महाराज भर्तृहरि के अनुसार
कृमिकुलचितं लालाक्लिन्नं विगन्धिजुगुप्सितम्, निरुपमरसं प्रीत्या खादन्नस्थि निरामिषम्।
सुरपतिमपि श्वा पाश्र्वस्थं विलोक्य न शंकते, न हि गणयति क्षुद्रो जन्तुः परिग्रहफल्गुताम्।
(भावार्थ: कीड़ों, लार, दुर्गंध और देखने में गंदी रसहीन हड्डी को कुत्ता बहुत शौक से चबाता है। उस समय इंद्रदेव के अपने आने की परवाह भी नहीं होती। यही हालत स्वार्थी और नीच प्राणी की भी होती है। वह जो वस्तु प्राप्त कर लेता है उसे उपभोग में इतना लीन हो जाता है कि उसे उसकी अच्छाई बुराई का पता भी नहीं चलता)  

परमार्थ = परम + अर्थ
अर्थ के दो अर्थ पहला क्या कथन है दूसरा धन।

स्वार्थ और परमार्थ। परमार्थ और अर्थ। ये दो तुलायें हैं जिन पर मानव अपनी बुद्धि के अनुसार परमार्थ को तौलता है। जिसका जो स्तर जिसकी जो सोंच वैसे ही अर्थ है परमार्थ के। चलिये इसके अर्थों पर चर्चा की जाये।

संसार स्वार्थ और परमार्थ दो तरह के मार्गों का समागम स्थल है। अधिकतर संख्या स्वार्थियों की है जो अपने देहाभिमान वश केवल अपना और परिवार का भरण भोषण कर यह संसार चला रहे हैं। उनके लिये परिवार और पेट भरना ही संसार का मूल नियम हैं।

दूसरी तरफ परमार्थी लोग भी होते हैं जो यह सोचकर दूसरो कें हित में सलंग्न रहते हैं कि इंसान होने के नाते यह उनका कर्तव्य है। सच तो यह है कि हम अपने हित पूर्ण करते हुए अपना पूरा जीवन इस विचार में गुजार देते हैं कि यही भगवान की इच्छा है और परमार्थ करने का विचार नहीं करते।

स्वार्थ या प्रतिष्ठा पाने के लिये दूसरे का काम करना कोई परमार्थ नहीं होता।

निष्प्रयोजन दया ही वास्तविक पुण्य है। अगर हम सोचते हैं कि सारे लोग अपने स्वार्थ पूरे कर काम कर लें तो संसार स्वतः ही चलता जायेगा तो गलती कर रहे हैं। कई बार हमारे जीवन में ऐसा अवसर आता है जब कोई हमारी निष्प्रयोजन सहायता करता है पर हम अपना कठिन समय बीत जाने पर उसे भूल जाते हैं और जब किसी अन्य को हमारी सहायता की जरूरत होती है तब मुंह फेर जाते हैं। यह श्वान की प्रवृत्ति का परिचायक है। भगवान ने हमें यह मनुष्य योनि इसलिये दी है कि हम अन्य जीवों की सहायता कर उसकी सार्थकता सिद्ध करें। यह सार्थकता स्वार्थ सिद्धि में नहीं परमार्थ करने में है। अत: जहां तक हो सके दूसरों का भला भी करें।

शास्त्रों में कहा गया है - जब तक व्यक्ति भौतिकता में फंसा रहता है तब तक उसे जीव या अणु मन कहकर पुकारते हैं। ब्रह्म की कृपा से जो इस बंधन को तोड़कर अपने आपको मुक्त कर सकते हैं वे ही शिवत्व को प्राप्त कर सकते हैं।

इस तरह हम देखते हैं कि शिव व जीव में केवल अंतर एक ही है - शिव बंधनमुक्त हैं, जीव बंधनयुक्त है।

हर मनुष्य स्वाधीनता चाहता है-बंधन से मुक्ति चाहता है। उसे कोई मनुष्य सामयिक तौर पर कुछ बंधनों से मुक्त कर सकता है, परंतु वे बंधन पुन: उसे जकड़ लेते हैं। इस अवस्था को एक पक्षी को पिंजरे से कुछ काल के लिए बाहर निकालकर उसे पुन: पिंजरे में ही बंद कर दिया गया। इस मुक्ति से क्या जीव को कोई लाभ मिला? इस तरह की सामयिक बंधनमुक्ति को ही अर्थ कहा जाता है। जैसे-किसी को भूख लगी है। भूख के कारण उसे खाद्य के संग्रह की जरूरत है। खाद्य मिला कहां से? रुपयों की सहायता से, तो इस प्रकार रुपया ही दूसरे शब्दों में अर्थ कहा जाता है।

अर्थ शब्द का अर्थ करने से दो शब्द मिलते हैं। एक है माने और दूसरा है रुपया। रुपये सामयिक तौर पर बंधनमुक्ति ला देते हैं। आज जो व्यक्ति भूखा है उसने रुपयों की सहायता से भूख को मिटाया, पर कल फिर उसे भूख सताएगी और उसे खाद्य की जरूरत पड़ेगी। इस प्रकार रुपयों की बदौलत जो मुक्ति मिलती है वह किसी भी स्थिति में स्थायी नहीं हो सकती है।

जीवन के सम्बंध में हमारी दृष्टि क्या होनी चाहिए, आपेक्षिक जगत के साथ सामंजस्य परमसत्ता की ओर अग्रसर होना। बाहरी जगत को हम अस्वीकार नहीं कर सकते। अर्थ या रुपयों के महत्व को भी अस्वीकार नहीं किया जा सकता। सामयिक दु:खों व यंत्रणाओं से स्थायी मुक्ति पाने के लिए अर्थ की जरूरत है, परंतु दु:खों से, यंत्रणा से जो स्थायी मुक्ति मिलती है उसे कहते हैं परमार्थ। अर्थ और परमार्थ के बीच यही अंतर है और मनुष्य की क्षमता सीमित है, इस तथ्य को हम अस्वीकार नहीं कर सकते।

जहाँ शरीर का सुख अर्थ है वहाँ आत्मा का सुख परमार्थ है।
ऐसे मनुष्यों का सर्वथा अभाव नहीं है कि जिन्होंने अपनी पहुँच, पुरुषार्थ, प्रयत्न एवं प्रारब्ध तक साँसारिक सुख जैसे स्वास्थ्य सुख, सन्तान-सुख, सामाजिक एवं पारिवारिक सुख, न प्राप्त कर लिया हो। अनेकों ऐसे व्यक्ति मिलेंगे जिन्हें कोई विशेष दुःख न हो और किसी हद तक उन्हें सुखी ही कहा जा सकता है। किन्तु ऐसे सुखियों से भी यदि सच्चाई के साथ बतलाने का अनुरोध किया जाये तो निश्चय ही वे यही कहेंगे कि उन्हें कोई दुःख तो अवश्य नहीं है, फिर भी इस सुख में एक अभाव, एक अतृप्ति खटकती रहती है। कुछ ऐसा अनुभव होता रहता है जैसे हमें वह सुख, वह तृप्ति नहीं मिल रही है जो मिलनी चाहिये और मिल भी सकती है। इस अभाव, इस खटक और इस अतृप्ति का कारण खोजने में पर भी नहीं मिलता है।

निःसन्देह इस प्रकार की अतृप्ति बड़े से बड़े सुखी व्यक्ति में रहा करती है। यह अभाव, यह अतृप्ति उसकी आत्मा की माँग होती है जो पूरी नहीं की जाती है। संसार के सारे सुख इन्द्रिय-जन्य शारीरिक ही होते हैं। शरीर का अंश न होने से आत्मा की तृप्ति उस से नहीं होती। आत्मा की यही अतृप्ति सुखी व्यक्ति को भी अभाव बनकर खटकती रहती है।

जहाँ शरीर का सुख अर्थ है वहाँ आत्मा का सुख परमार्थ है। जब तक परमार्थ द्वारा आत्मा को संतुष्ट न किया जायेगा, उसकी माँग पूरी न की जायेगी तब तक सर्व सुखों के बीच भी मनुष्य को एक अभाव एक अतृप्ति व्यग्र करती ही रहेगी। शरीर अथवा मन को, संतुष्ट कर लेना भर ही वास्तव में सुख नहीं है। वास्तविक सुख है—आत्मा का संतुष्ट करना, उसे प्रसन्न करना।

साँसारिक भोग भोगने और मनभाई परिस्थितियाँ पा लेने से शारीरिक सुख मिलता है, किन्तु आत्मा सुखी होती है—परोपकार एवं पर सेवा रूपी परमार्थ कार्यों से, अपने को जानकर। अतएव विवेकशील व्यक्ति सच्चा सुख पाने के लिये स्वार्थ सुख की अपेक्षा परमार्थ सुख को अधिक महत्व देते हैं। वे परमार्थ सुख के लिये स्वार्थ सुख का भी त्याग कर देते हैं क्योंकि वे जानते हैं कि शारीरिक सुख छाया है और आत्मिक सुख सत्य है, यथार्थ है। जिसके प्रति हमारी इतनी जिज्ञासा है, इतना आकर्षण है उसके बिम्ब को क्यों प्राप्त किया जाये, क्यों न चन्द्रमा की ही उपलब्धि की जाये।

एक किस्सा मीरजाफर द्वारा विश्वासघात का है। सन् 1757 की बात है—अंग्रेज बंगाल पर अपना कब्जा करने का प्रयत्न कर रहे थे। किन्तु नवाब सिराजुद्दौला की नीतिमयी वीरता से उनकी दाल न गलती थी। बार-बार मुँह की खाने पर अंग्रेजों ने कूटनीति से काम लिया। उन्होंने सिराजुद्दौला के सेनापति मीरजाफर पर डोरे डालने शुरू किये। अंग्रेजों ने उसे बंगाल का नवाब बना देने का लालच देकर अपनी ओर मिला लिया। इधर अंग्रेजों ने नई तैयारी करके बंगाल पर फिर आक्रमण किया। सिराजुद्दौला ने सेनापति मीरजाफर को मोर्चे पर भेजा। नवाब के मन बढ़े सिपाही बड़ी वीरता से लड़े किन्तु गद्दार मीरजाफर ने उन्हें हतोत्साहित करके अस्त-व्यस्त कर दिया। अंग्रेजों की जीत हो गई जिसके फलस्वरूप बंगाल पर उनका अधिकार हो गया।

जब मीरजाफर ने जब अपना वचन पूरा करने को कहा—तो अंग्रेज सेनापति ने घृणा से यह कहकर उसे तलवार के घाट उतार दिया— ”कि ऐ विश्वास घाती कुत्ते! तू बंगाल का सुलतान होने का स्वप्न देख रहा है। तेरे जैसे गद्दार को दुनिया में जीवित रहने का कोई अधिकार नहीं है। जब तू अपने मालिक और मुल्क का न हुआ, तो हमारा ही क्या होगा?”
यह सत्य घटना हमें अपने शरीर में घटती दिखाई देती है। जब मीर जाफर रूपी बुद्धि आत्म स्वरूप से विद्रोह कर जगत की वासनाओं में लिप्त हुई तो इसी जगत ने उसे नष्ट कर दिया।

कुछ ने माना है परोपकार अथवा पर-सेवा ही परमार्थ का सच्चा एवं सक्रिय स्वरूप है। मेरे विचार से यह पूर्ण परमार्थ नहीं बल्कि परमार्थ का एक आवश्यक अंग है। योग, ध्यान, साधना अथवा आराधना में परोपकार भी शामिल होना चाहिये। ये पूर्ण परमार्थ होगा। पर सेवा निस्वार्थ हो।

आध्यात्मिक उद्योग अथवा परमार्थ साधना का प्रतिफल क्या है —आत्म-बोध। आत्म-बोध, आत्मतोष, आत्म प्रसाद अथवा आत्म सुख।

स्थैर्य तप ( प्राणायाम प्राणस्थैर्य की साधना है। इसके अभ्यास से प्राण में स्थिरता आती है और साधक अपने मन की स्थिरता के लिए अग्रसर होता है। अंतिम तीनों अंग मन:स्थैर्य का साधना है। प्राणस्थैर्य और मन:स्थैर्य की मध्यवर्ती साधना का नाम ‘प्रत्याहार’ है) के नियम नितान्त वैज्ञानिक एवं विलक्षण हैं। यह तलवार की धार से भी अधिक तीक्ष्ण तथा मृणाल-तन्तु से भी अधिक कोमल होते हैं। एक तो इनका सम्पूर्ण निर्वाह ही कठिन है दूसरे यदि इनका निर्वाह भी किये जाने का प्रयत्न किया जाये तो यह तनिक सी मानसिक छलन से टूट जाते हैं। एक लम्बे समय की साधना क्षण मात्र में भंग हो जाती है। वर्षों के साधे हुये संकल्प चारित्रिक विकल्प से नष्ट हो जाते हैं और तब बहुधा साधक को पुनः ‘अ’ ‘आ’ से यात्रा प्रारम्भ करनी पड़ती है। इस प्रकार के संकल्प-विकल्पों का क्रम न जाने कब तक चलता रहता है। यह मनः मार्गीय अध्यात्म साधना जन्म जन्मान्तरों तक की अवधि ले सकती है। सेवा मार्ग से जिस मनःशाँति के लिये मनुष्य को एक जीवन ही काफी है उसके लिये हठ पूर्वक जन्म जन्मान्तरों का मूल्य चुकाना महंगा ही कहा जायेगा। वैसे जो सामर्थ्यवान हैं वे चुकाते भी हैं और एक लम्बी यात्रा का श्रम करके अपना लक्ष्य प्राप्त भी कर लेते हैं। किन्तु जनसामान्य के लिये यह व्यवहार-सम्मत कहा जाना उपयुक्त नहीं जान पड़ता। मन बड़ा दुराग्रही, चंचल तथा बलवान है। यह बिना रज्जु-संयोजन अथवा योजना के यों ही शून्य में पकड़ने से वश में नहीं आता। इसको वश में लाने, अनुद्धत राहगीर बनाने के लिये परोपकार पथ पर जोतना ही होगा—इसे सत्कर्मों में नियोजित करना ही होगा— सेवा एक कठोर लगाम की भांति है। सेवा के सत्कर्म में नियोजित मन को इधर उधर भागने का अवकाश ही नहीं मिलता। सेवा कार्य के साथ सम्बंधित दया, करुणा, सहानुभूति तथा आत्मीयता आदि इतने शीतल गुण होते हैं कि इनके स्पर्श सुख से मन स्वयं ही एकाग्र होने लगता है और इस प्रकार धीरे-धीरे शिव संकल्पी स्वाधीन मन स्वतः ही निर्मल होकर आत्मा को एक स्थायी सुख, एक अक्षय प्रसन्नता प्रदान करता है। यही है परमार्थ और यही है मनुष्य का साध्य।

इसके अतिरिक्त स्वयं भी ठीक-ठीक नैतिक नागरिक तथा आचरणवान बनना, अपनी विकृतियों, विकार तथा असभ्यता को दूर करके सभ्य, शिष्ट तथा अनुशासित बनना भी एक परोपकार ही है। 



क्योंकि ऐसा बनने से आप समाज में एक सभ्य नागरिक बनेंगे, अपने संतुलित व्यवहार से दूसरों को शीतल एवं प्रसन्न करेंगे और अपने उदाहरण से दूसरों को सभ्य, शिष्ट तथा सदाचारी बनने की प्रेरणा देंगे। अपने अधिकार तथा कर्तव्यों को ठीक-ठीक समझना और उनका सुधारना सामाजिक ही नहीं सार्वदेशिक सत्कर्म है। इस प्रकार के अन्य न जाने कितने छोटे-छोटे सेवा कार्य हो सकते हैं जिनको सामान्य से सामान्यजन भी प्रतिपादित करके परमार्थ लाभ कर सकता है। दिन भर की व्यस्त जिन्दगी में किया हुआ एक छोटा-सा सेवा कार्य उस दिन को स्वर्गीय सुख-संतोष से भर देगा। उस दिन की कोई भी निराशा, असफलता अथवा विषाद जैसी तीव्र स्थिति आपको व्यग्र अथवा त्रस्त नहीं रख सकती। इस प्रकार आप बिना किसी विशेष श्रम के प्रतिदिन एक छोटा-सा सेवा कार्य करके अपनी पूरी जिन्दगी को हर्ष, उल्लास, सुख और संतोष को आगार बना सकते हैं जो कि आपको एक स्थायी आत्मिक सुख देने में सर्वथा समर्थ होगी। जब साधारण से साधारण जन इस प्रकार निःस्वार्थ सेवा से परमार्थ लाभ कर सकता है, तब धनी मानी तथा साधन सम्पन्न व्यक्ति तो न जाने क्या क्या कर सकते हैं। और यदि प्रत्येक व्यक्ति अपने प्रत्येक कार्य को राष्ट्र, समाज, संसार अथवा ईश्वर का सेवा कार्य समझकर करने लगे तब तो यह संसार ही स्वर्ग बन जाये। न शारीरिक सुख का अभाव रहे और न आत्मिक सुख का अभाव खटके। मनुष्य सम्पूर्ण रूप से सुखी तथा संतुष्ट हो जाये।

सेवा कार्यों में एक बात का विशेष ध्यान रखने की आवश्यकता यह है कि जो भी सेवा की जाये वह सत्पात्र की ही की जाये। अपात्र की सेवा पुण्य के स्थान पर पाप वाहिका ही सिद्ध होगी। न जाने कितने वंचक, अपंग, अन्ध आवश्यकता ग्रस्त समाज में भोले, भाले और परोपकारी व्यक्तियों की दया, करुणा तथा सहानुभूति ठगने के साथ अपना आर्थिक उल्लू भी सीधा करते घूमते हैं। ऐसे वंचकों की सेवा अथवा सहायता करने से एक तो बेचारे अधिकारी पात्र वंचित रह जायेंगे दूसरे यह ठग और वंचक समाज में बिना श्रम के जीते हुये विकृतियाँ उत्पन्न करेंगे। सस्ती अथवा अनियंत्रित सहायता सहानुभूति समाज में वंचकों को बढ़ा देती है और उनकी संख्या में वृद्धि करती है। इसलिए इस बात का भी विशेष ध्यान रखना है कि हमारी व्यावहारिक, भावनात्मक, मौन अथवा मुखर सेवा का दुरुपयोग न हो।

इस प्रकार का विवेक विचार रखते हुये आज से ही सेवा कार्य में लगकर लगे रहिये, आपका आत्मिक अभाव दूर होगा, आपको सच्ची तथा स्थायी सुख-शाँति प्राप्त होगी।

कहने का अर्थ संक्षेप में परमार्थ और पूर्ण परमार्थ के कुछ आवश्यक अंग होने चाहिये तो क्या उनको एक नया नाम पूर्ण परमार्थांग बोला जाये। जिसमें कुछ बातें आवश्यक कर दी जायें।

     पातांजलि महाराज के यम और नियम में कुछ जोड जैसे
1. यम : पांच की जगह सात सामाजिक नैतिकता : (क) अहिंसा, (ख) सत्य (ग) अस्तेय (घ) ब्रह्मचर्य – 1. चेतना को ब्रह्म के ज्ञान में स्थिर करना और 2. सभी इन्द्रिय-जनित सुखों में संयम बरतना। (च) अपरिग्रह (छ) सेवा (ज) परोपकार।
सेवा: माता, पिता, गुरू की प्रथम सेवा। यदि यह न हों तो किसी रोगी की सेवा। नहीं तो जीव जानवर सेवा।
परोपकार: सहायता हेतु पडे मानव या जीव की निस्वार्थ सेवा।

2. नियम

पाँच की जगह छह व्यक्तिगत नैतिकता
(क) शौच (ख) संतोष (ग) तप (घ) स्वाध्याय (च) ईश्वर-प्रणिधान
(छ) परहित दान देना चाहे वो तन हो मन हो या धन हो। जैसे आधुनिक युग में मृत्यु के पश्चात शरीर या अंगो का दान देना।
3. आसन । 4. प्राणायाम। 5. प्रत्याहार। 6. धारणा। 7. ध्यान। 8. समाधि

कहो कैसी रही यह प्रयोग और शब्द कैसा लगा। जरूर बतायें।
जय गुरूदेव महाकाली। महाकाल


(तथ्य कथन गूगल साइट्स इत्यादि से साभार)


"MMSTM समवैध्यावि ध्यान की वह आधुनिक विधि है। कोई चाहे नास्तिक हो आस्तिक हो, साकार, निराकार कुछ भी हो बस पागल और हठी न हो तो उसको ईश अनुभव होकर रहेगा बस समयावधि कुछ बढ सकती है। आपको प्रतिदिन लगभग 40 मिनट देने होंगे और आपको 1 दिन से लेकर 10 वर्ष का समय लग सकता है। 1 दिन उनके लिये जो सत्वगुणी और ईश भक्त हैं। 10 साल बगदादी जैसे हत्यारे के लिये। वैसे 6 महीने बहुत है किसी आम आदमी के लिये।"  सनातन पुत्र देवीदास विपुल खोजी
ब्लाग :  https://freedhyan.blogspot.com/

बुद्ध अष्टांगिक मार्ग बनाम पातांजलि अष्टांग योग


बुद्ध अष्टांगिक मार्ग बनाम पातांजलि अष्टांग योग

सनातनपुत्र देवीदास विपुल "खोजी"

 विपुल सेन उर्फ विपुल लखनवी,
(एम . टेक. केमिकल इंजीनियर) वैज्ञानिक एवं कवि
सम्पादक : विज्ञान त्रैमासिक हिन्दी जर्नल “वैज्ञनिक” ISSN 2456-4818
 वेब:  vipkavi.info वेब चैनलvipkavi
फेस बुक:   vipul luckhnavi “bullet"



पहले आप प्रयुक्त होनेवाले शब्द “सम्यक” के हिंदी अर्थ देखें। पुल्लिंग में अर्थ होते है समुदाय, समूह। विशेषण में अर्थ होते है पूरा, सब, समस्त। उचित, उपयुक्त। मनोनुकूल। क्रिया विशेषण में अर्थ होते है पूरी तरह से। अच्छी तरह, भली–भाँति। मतलब साफ है किसी भी वस्तु व्यक्ति अथवा स्थान को जैसे का तैसा स्वीकार कर लेना। और कहूं तो न लेना न देना मगन रहना। यह अर्थ हैं सम्यक के।

अब महात्मा बुद्ध ने चार आर्य सत्य बताए हैं – 1. दुख,  दुख की उत्पत्ति,  2. दुख से मुक्ति और 3. मुक्तिगामी 4. आर्य-आष्टांगिक मार्ग।

अब आर्य क्यों?? पहले आर्य का अर्थ जानें: विशेषण में उत्तम, श्रेष्ठ। पूज्य, मान्य। कुलीन। उपयुक्त, योग्य। और पुल्लिंग में प्रतिष्ठित व्यक्ति। धर्म एवं नियमों के प्रति निष्ठावान व्यक्ति। आर्य समस्त हिन्दुओं तथा उनके मनुकुलीय पूर्वजों का वैदिक सम्बोधन है। इसका सरलार्थ है श्रेष्ठ अथवा कुलीन। आर्य शब्द का अन्य अर्थ है प्रगतिशील। आर्य धर्म प्राचीन आर्यों का धर्म और श्रेष्ठ धर्म दोनों समझे जाते हैं। प्राचीन आर्यों के धर्म में प्रथमत: प्राकृतिक देवमण्डल की कल्पना है जो भारत, में पाई जाती रही है। इसमें द्यौस् (आकाश) और पृथ्वी के बीच में अनेक देवताओं की सृष्टि हुई है। भारतीय आर्यों का मूल धर्म ऋग्वेद में अभिव्यक्त है, देवमंडल के साथ आर्य कर्मकांड का विकास हुआ जिसमें मंत्र, यज्ञ, श्राद्ध (पितरों की पूजा), अतिथि सत्कार आदि मुख्यत: सम्मिलित थे। आर्य आध्यात्मिक दर्शन (ब्राहृ, आत्मा, विश्व, मोक्ष आदि) और आर्य नीति (सामान्य, विशेष आदि) का विकास भी समानांतर हुआ। शुद्ध नैतिक आधार पर अवलंबित परंपरा विरोधी अवैदिक संप्रदायों - बौद्ध, जैन आदि ने भी अपने धर्म को आर्य  धर्म अथवा सद्धर्म कहा। सामाजिक अर्थ में "आर्य' का प्रयोग पहले संपूर्ण मानव के अर्थ में होता था।

अर्थात इसका अर्थ हुआ सनातन सत्य है। जिस प्रकार सनातन सत्य है उसी प्रकार जीवन में चार अटल सत्य हैं। अत: प्रयोग हुआ आर्य सत्य।  

अब आप यह देखें बुद्ध ने यह कब बताया जब उन्होने ज्ञान प्राप्त कर लिया। पहले वे भी एक साधारण मानव थे जिन्होने जीवन की तीन दुखद घटनाओं को देखकर दुख से निवारण की सोंची। उनके ज्ञान प्राप्त करने का मूल कारण था उनका दुखी मन। अवचेतन में दुख की अनूभूति साथ थी। अत: उनके ज्ञान का आरम्भ दुख से हुआ। मतलब जो बीज वही ज्ञान का बृक्ष बना। उससे अधिक दुखद यह है कि उनकी व्याख्या स्वार्थी और बिन अनुभव के लोग शब्दों में कर के अर्थ के अनर्थ लगाकर दुकान चला रहें हैं।

जैसे आधा गिलास पानी को बोलना कि आधा गिलास भरा है। यह सकारात्मक। आधा गिलास खाली है यह नकारात्मक। बुद्ध ने कहा जीवन दु:ख है। दु:ख दूर करो तो सुख। नकारात्मक सोंच को बताता है। वहीं सनातन कहता है मनुष्य का मूल स्वभाव आनंद है। उसको प्राप्त करो। यानि सकारात्मक सोंच। बात एक पर शब्दों का फेर जो आम आदमी न समझ कर अपने जीवन में नकारात्मक होकर कार्य करता है। वास्तव में चार आर्य सत्य चार अवस्थायें अवधियां हैं। जैसे जीवन में दुख ही दुख है। दुख का कारण या उत्पत्ति क्या है। दुख से मुक्ति कैसे हो। दुख से मुक्ति का मार्ग क्या है? कैसे हो मुक्तगामी। साथ ही दुख से मुक्ति के आठ उपायों को बुद्ध ने आष्टांगिक मार्ग कहा है। ये हैं- सम्यक दृष्टि, सम्यक संकल्प, सम्यक वाणी, सम्यक कर्मात, सम्यक आजीविका, सम्यक व्यायाम, सम्यक स्मृति और सम्यक समाधि। 

अब आप देखें कि गीता में कहा गया है कि समत्व, स्थिर बुद्धि, स्थित प्रज्ञ योगी के लक्षण हैं। बुद्ध ने जो हम देखते हैं, जो संकल्प करते हैं, या सोंचते हैं जो बोलते हैं, जो कर्म करते हैं,  जो नौकरी या आजीविका हेतु कर्म करते हैं, जो कसरत या व्यायाम करते हैं, जो पुरानी बातों को सोंचते है मतलब किसी को पुरानी बातों को बताते है बिना नमक मिर्च लगाये और जो स्वत: हो जाये वह समाधि मतलब जबरिया नहीं। यानि हमारे शरीर का जो भी सम्बंध है उसमें मिलावट नहीं। जो है वैसा ही स्वीकार करना। यह जगत से सम्यक लेन देन हुआ। इनके प्रत्येक शब्द की व्याख्या आप खुद सोंच सकते हैं पर याद रहे ये वाक्य बुद्ध ने ज्ञान प्राप्ति के बाद के स्तर पर जाकर कहे। आम मानव इस अवस्था पर पहुंच कर ही यह स्थिति प्राप्त कर सकता है। मात्र रटने या तर्क कुतर्क करने से काम न चलेगा।

अब आप अष्टांग योग देखें जो पातांजलि महाराज ने कहा। 1. यम यानि क्या करें। (क) अहिंसा - शब्दों से, विचारों से और कर्मों से किसी को अकारण हानि नहीं पहुँचाना। (ख) सत्य - विचारों में सत्यता, परम-सत्य में स्थित रहना, जैसा विचार मन में है वैसा ही प्रामाणिक बातें वाणी से बोलना। (ग) अस्तेय - चोर-प्रवृति का न होना। (घ) ब्रह्मचर्य - दो अर्थ हैं: चेतना को ब्रह्म के ज्ञान में स्थिर करना। सभी इन्द्रिय-जनित सुखों में संयम बरतना। (च) अपरिग्रह - आवश्यकता से अधिक संचय नहीं करना और दूसरों की वस्तुओं की इच्छा नहीं करना। 2. नियम यानि क्या न करें या न करें। पाँच व्यक्तिगत नैतिकता: (क) शौच - शरीर और मन की शुद्धि (ख) संतोष - संतुष्ट और प्रसन्न रहना (ग) तप - स्वयं से अनुशाषित रहना (घ) स्वाध्याय - आत्मचिंतन करना (च) ईश्वर-प्रणिधान - ईश्वर के प्रति पूर्ण समर्पण, पूर्ण श्रद्धा  4. आसन: आसन योगासनों द्वारा शरीरिक नियंत्रण 5. प्रणायाम: प्राणायाम श्वास-लेने सम्बन्धी खास तकनीकों द्वारा प्राण पर नियंत्रण  3. प्रत्याहार यानि त्याग की आदत। प्रत्याहार इन्द्रियों को अंतर्मुखी करना महर्षि पतंजलि के अनुसार जो इन्द्रियां चित्त को चंचल कर रही हैं, उन इन्द्रियों का विषयों से हट कर एकाग्र हुए चित्त के स्वरूप का अनुकरण करना प्रत्याहार है। प्रत्याहार से इन्द्रियां वश में रहती हैं और उन पर पूर्ण विजय प्राप्त हो जाती है। अत: चित्त के निरुद्ध हो जाने पर इन्द्रियां भी उसी प्रकार निरुद्ध हो जाती हैं, जिस प्रकार रानी मधुमक्खी के एक स्थान पर रुक जाने पर अन्य मधुमक्खियां भी उसी स्थान पर रुक जाती हैं। 6. धारणा: धारणा एकाग्रचित्त होना अपने मन को वश में करना। 7. ध्यान:  ध्यान निरंतर ध्यान  8.  समाधि: समाधि आत्मा से जुड़ना: शब्दों से परे परम-चैतन्य की अवस्था हम सभी समाधि का अनुभव करें !!!

बुद्ध ने जो कहा उसका स्तर आता है पातांजलि महाराज के अष्टांग योग को प्राप्त करने के बाद मनुष्य में जो परिवर्तन आता है वह है सम्यक। पतांनजलि महाराज सम्यक यानि “चित्त में वृत्ति का निरोध है योग” यानि योग का लक्षन यानि सम्यक होना। वही बुद्ध का सम्यक साधारण मानव नही प्राप्त कर सकता। पर अष्टांग योग एक साधारण मानव को योगी बनाने की प्रक्रिया बताता है। वहीं गीता ने जो कहा वह भी योगी के गुण में सम्यक की अवस्था है। जैसे समत्व यानि जो सबको बराबर देखता हो। यानि जैसे के तैसा पर समानता के साथ। जिसकी बुद्धि स्थिर बुद्धि यानि सुख दुख से अविचलित यानि सम्यक जो है सो है। मेरे लिये सब बराबर। न कोई मित्र न शत्रु न निकट न दूर।  स्थित प्रज्ञ यानि जिसकी बुद्धि व्यहार मुझमें आत्म स्वरूप में स्थित मतलब सर्व समाधि की अवस्था। मतलब सबने आगे पीछे एक ही बात कहीं। आत्माराम होना, उसके लक्षण और उसके गुण।

अंतर कुछ नहीं बुद्ध कहते हैं, चार आर्य सत्य हैं- दुख है, दुख की उत्पत्ति है, दुख से मुक्ति है और मुक्तिगामी आर्य-आष्टांगिक मार्ग हैं। ये आठ अंग हैं उस दुख-मुक्ति के लिए। बुद्ध ने आर्य-आष्टांगिक मार्ग कहा है, उस संबंध में थोड़ी-सी बात समझ लेनी चाहिए।

पहला सूत्र है आठ अंगों में- सम्यक दृष्टि। जो है, वही देखना। जैसा है, वैसा ही देखना। अन्यथा न करना। कोई धारणा बीच में न लाना। कामना, वासना, धारणा को बीच में न लाना। जो है, वैसा ही देखना। चार आर्य सत्यों को मानना, जीव हिंसा नहीं करना (हिंसा और मांसाहार मे अंतर है), चोरी नहीं करना, व्यभिचार( पर-स्त्रीगमन) नहीं करना, ये शारीरिक सदाचरण हैं। झूठ नहीं बोलना, चुगली नहीं करना, कठोर वचन नहीं बोलना, बकवास नहीं करना, ये वाणी के सदाचरण हैं। लालच नहीं करना, द्वेष नहीं करना, सम्यक दृष्टि रखना ये मन के सदाचरण है। धम्म आचरण का विषय है, आचरण करोगे तभी फल मिलेगा, और तुरंत फल मिलेगा और इसके लिए ईश्वर मानने या ना मानने के लिए आप स्वतंत्र है, कोई पाबंदी नहीं है, आँख, कान, नाक, मुख, त्वचा(पाँच इंद्रियाँ) के आनंद से बड़ा सुख है मन(छठी इंद्री) का सुख ये जानना और निर्वाण (सास्वत खुशी, परमानंद एवं विश्राम की स्थिति) को परम सुख जानना, धम्म के लिए परा-प्राकृतिक बातों की कोई आवश्यकता नहीं है, ऐसा जानना, दुनिया मे सब कुछ प्रतित्य-समुत्पाद (कार्य-कारण का सिद्धान्त) से हो रहा है, ये जानना।

दूसरा है- सम्यक संकल्प। जिसमें आता है, चित्त से राग-द्वेष नहीं करना, ये जानना की राग-द्वेष रहित मन ही एकाग्र हो सकता है, करुणा, मैत्री, मुदिता, समता रखना, दुराचरण(सदाचरण के विपरीत कार्य) ना करने का संकल्प लेना, सदाचरण करने का संकल्प लेना, धम्म पर चलने का संकल्प लेना।हठ मत करना। अक्सर लोग हठ को संकल्प मान लेते हैं और हठी आदमी को कहते हैं, यह संकल्पवान है। जिद तो अहंकार है। संकल्प में कोई अहंकार नहीं होता। हठ और संकल्प में यही फर्क है। बुद्ध कहते हैं, सम्यक संकल्प का अर्थ होता है, जो करने योग्य है, वह करना। और जो करने योग्य है, उस पर पूरा जीवन दांव पर लगा देना है।

तीसरा है- सम्यक वाणी। इसमें आता है, सत्य बोलने का अभ्यास करना, मधुर बोलने का अभ्यास करना, टूटे हुओ को मिलने का अभ्यास करना, धम्म चर्चा करने का अभ्यास करना। जो है, वही कहना। जैसा है, वैसा ही कहना। ऊपर कुछ, भीतर कुछ, ऐसा नहीं, क्योंकि अगर तुम सत्य की खोज में चले हो तो पहली शर्त तो पूरी करनी ही पड़ेगी कि तुम सच्चे हो जाओ। जो झूठा है, उससे सत्य का संबंध न जुड़ सकेगा। अगर कोई बात पसंद नहीं पड़ती तो निवेदन कर देना कि पसंद नहीं पड़ती है। झुठलाना मत। तुम अपने जीवन में थोड़ा देखना, तुम कुछ हो भीतर, बाहर कुछ बताए चले जाते हो। धीरे-धीरे यह बाहर की पर्त इतनी मजबूत हो जाती है कि तुम भूल ही जाते हो कि तुम भीतर क्या हो। सम्यक वाणी का अर्थ है- धीरे-धीरे सभी अर्थों में, दृष्टि में, संकल्प में, वाणी में हृदय की अंतरतम अवस्था को झलकने देना।

चौथा- सम्यक कर्मात। इसमें आता है, प्राणियों के जीवन की रक्षा का अभ्यास करना, चोरी ना करना, पर-स्त्रीगमन नहीं करना। बुद्ध ने सत्य और न्याय के लिए हिंसा को, यदि आवश्यक हो तो जायज ठहराया। वही करना, जो वस्तुत: तुम्हारा हृदय करने को कहता है। व्यर्थ की बातें मत किए चले जाना। किसी ने कह दिया तो कर लिया। सम्यक कर्मात का अर्थ होता है, वही करना है, जो तुम्हें करने योग्य लगता है। ऐसे हर किसी की बात में मत पड़ जाना, नहीं तो तुम्हारी छीछालेदर हो जाएगी। सम्यक कर्मात का अर्थ है, एक दिशा पर नजर रखना। जो तुम्हें करना है, वही करना।

पांचवां है- सम्यक आजीविका में आता है, मेहनत से आजीविका अर्जन करना, पाँच प्रकार के व्यापार नहीं करना, जिनमे आते हैं, शस्त्रों का व्यापार, जानवरों का व्यापार, मांस का व्यापार, मद्य का व्यापार, विष का व्यापार, इनके व्यापार से आप दूसरों की हानि का कारण बनते हो।बुद्ध कहते हैं, हर किसी चीज को आजीविका मत बना लेना। अब कोई आदमी कसाई बन कर अपनी रोटी कमा रहा है। यह भी कोई कमाना हुआ! रोटी ही कमानी थी, हजार ढंग से कमा सकते थे, कसाई होने की क्या जरूरत थी? रोटी तो कमानी ही है, यह बात सच है, लेकिन सम्यक खोजना। अगर तुम्हारी आजीविका सम्यक हो तो तुम्हारे जीवन में शांति होगी।

छठवां है- सम्यक व्यायाम। जिसमें आता है, आष्टांगिक मार्ग का पालन करने का अभ्यास करना, शुभ विचार पैदा करने वाली चीजो/बातों को मन मे रखना, पापमय विचारो के दुष्परिणाम को सोचना, उन वितर्कों को मन मे जगह ना देना, उन वितर्कों को संस्कार स्वरूप मानना, गलत वितर्क मन मे आए तो निग्रह करना, दबाना, संताप करना। अति न करना, बुद्ध कहते हैं। कुछ लोग हैं आलसी और कुछ लोग हैं अति कर्मठ। दोनों ही नुकसान में पड़ जाते हैं। आलसी उठता ही नहीं, तो पहुंचे कैसे! कर्मठ मंजिल के सामने से भी निकल जाता है दौडता  हुआ, रुके कैसे, वह रुक ही नहीं सकता। रुकने की उसे आदत नहीं है। जब तुम तीर को चलाओ, तब प्रत्यंचा सम्यक खिंचनी चाहिए। अगर थोड़ी कम खिंची तो पहले ही गिर जाएगा तीर। थोड़ी ज्यादा खिंच गयी तो आगे निकल जाएगा तीर। इसलिए बुद्ध का जोर अति वर्जित करने पर है।

सातवां- सम्यक् स्मृति में आता है, कायानुपस्सना, वेदनानुपस्सना, चित्तानुपस्सना, धम्मानुपस्सना, ये सब मिलकर विपस्सना साधना कहलाता है, जिसका अर्थ है, स्वयं को ठीक प्रकार से देखना। ये जानना की राग-द्वेष रहित मन ही एकाग्र हो सकता है। किसी भी मनुष्य को, जिसे स्वयं को जानने की इच्छा हो, को विपस्सना जरूर करनी चाहिए, इसी से दुख-निवारण के पथ की शुरुआत होगी। व्यर्थ को भूलना और सार्थक को सम्हालना। तुम अक्सर उल्टा करते हो। सार्थक तो भूल जाते हो, व्यर्थ को याद रखते हो। जीवन में जो भी बहुमूल्य है, उसको तो बिसार देते हो। सबसे ज्यादा बहुमूल्य तो तुम्हारी चेतना है, उसको तो तुम बिल्कुल बिसार कर बैठ गए हो और ठीकरे इकट्ठे कर रहे हो और उनका हिसाब लगा रहे हो। इसको बुद्ध ने कहा, सम्यक् स्मृति। बुद्ध के स्मृति शब्द से ही संतों का सुरति शब्द आया। सुरति स्मृति का ही अपभ्रंश है। जिसे कबीर सुरति कहते हैं, वह बुद्ध की स्मृति ही है। उसे थोड़ा मीठा कर लिया- सुरति, अपनी याद, अपनी पहचान।

आठवां है- सम्यक समाधि में आता है, अनुत्पन्न पाप धर्मो को ना उत्पन्न होने देना, उत्पन्न पाप धर्मो के विनाश मे रुचि लेना, अनुत्पन्न कुशल धर्मो के उत्पत्ति मे रुचि, उत्पन्न कुशल धर्मो के वृद्धि मे रुचि। इन सबको शब्दशः पालन करने से जीवन सुखमय होगा, निर्वाण (सास्वत खुशी, परमानंद एवं विश्राम की स्थिति) की प्राप्ति होगी।
नशीली चीजों से हमेशा दूर रहें क्योंकि ये दुराचार(बुराई) की जननी है, इससे मन का भटकाव होता है, मन को जो भी दिमाग मे आता है, वो ही अच्छा लगता है, सही और गलत की पहचान खत्म हो जाती है।

बुद्ध समाधि में भी कहते हैं सम्यक ख्याल रखना। क्यों? क्योंकि ऐसी भी समाधियां हैं, जो सम्यक नहीं हैं। जड़ समाधि। एक आदमी मूर्छित पड़ जाता है, इसको बुद्ध सम्यक समाधि नहीं कहते। ऐसा आदमी गहरी निद्रा में पड़ गया, बेहोशी। मन के तो पार चला गया है, लेकिन ऊपर नहीं गया, नीचे चला गया। मन तो बंद हो गया, क्योंकि गहरी मूच्र्छा में मन तो बंद हो जाएगा, लेकिन यह बंद होना कुछ काम का न हुआ। मन बंद हो जाए और होश भी बना रहे। मन तो चुप हो जाए, विचार तो बंद हो जाएं, लेकिन बोध न खो जाए। तीन स्थितियां हैं मन की। स्वप्न, जागृति, सुषुप्ति। स्वप्न तो बंद होना चाहिए- चाहे सम्यक समाधि हो, चाहे असम्यक समाधि हो, स्वप्न तो दोनों में बंद हो जाएगा। विचार की तरंगें बंद हो जाएंगी। लेकिन जड़ समाधि में आदमी गहरी मूच्र्छा में पड़ गया, सुषुप्ति में डूब गया, उसे होश ही नहीं है। जब वापस लौटेगा तो निश्चित ही शांत लौटेगा, बड़ा प्रसन्न लौटेगा, क्योंकि इतना विश्राम मिल गया। लेकिन यह कोई बात न हुई! यह तो नींद का ही प्रयोग हुआ। यह तो योगतंद्रा हुई। असली बात तो तब घटेगी, जब तुम भीतर जाओ और होशपूर्वक जाओ। तब तुम प्रसन्न भी लौटोगे, आनंदित भी लौटोगे और प्रज्ञावान होकर भी लौटोगे। तुम बाहर आओगे, तुम्हारी ज्योति और होगी। तुम्हारी प्रभा और होगी। दो तरह की समाधियां हैं। जड़ समाधि, आदमी गांजा पीकर जड़ समाधि में चला जाता है, अफीम खाकर जड़ समाधि में चला जाता है।

बुद्ध ने उनका बड़ा विरोध किया। बुद्ध ने कहा, यह भी कोई बात है! माना कि सुख मिलता है, इसमें कोई शक नहीं है। गांजे का दम लगा लिया तो डूब गए, एक तरह का सुख मिलता है। मगर यह डुबकी नींद की है। यह कुछ मनुष्य योग्य हुआ! ऊपर उठो, जागते हुए भीतर जाओ। मशाल लेकर भीतर जाओ, ताकि सब रास्ता भी उजाला हो जाए और तुम्हें पता भी हो जाए, तो जब जाना हो, तब चले जाओ। और तुम फिर किसी चीज पर निर्भर भी न रहोगे। असली बात है, जाग्रत होकर आनंद को उपलब्ध हो जाना। उसको उन्होंने सम्यक समाधि कहा।


 
यह हैं आर्य-आष्टांगिक मार्ग।
सम्यक दृष्टि, सम्यक संकल्प को ‘प्रज्ञा’ कहा गया है।
सम्यक वाणी, सम्यक कर्मांत, सम्यक आजीविका, सम्यक व्यायाम को ‘शील’ कहा गया है।
सम्यक स्मृति और सम्यक समाधि को ‘समाधि’ कहा गया है।
इस प्रकार प्रज्ञा, शील समाधि मे आष्टांगिक मार्ग शामिल हो जाता है।

अंतिम अवस्था है निर्वाण जिसका सुख  बड़ा है और ये सबको प्राप्त हो सकता है, इसके लिए गृह-त्याग की आवश्यकता नहीं है। बस माध्यम मार्ग के पालन की आवश्यकता है। बहुत लोगों को गलतफहमी है की बुद्ध का धम्म भिक्षुओं का धम्म है। पर ऐसा नहीं है, बुद्ध का धम्म भिक्षुओं, भिक्षुणियों, उपासक और उपासिकाओ से पूर्ण होता है।

अब आप स्वयं ही सोंचे कि अष्टांग मार्ग और अष्टांग योग एक ही सिक्के के दो पहलू है कुछ इस तरह:

आठ अंग तब योग घटित (अष्टांग योग) ---à  अष्टांग मार्ग (सम्यक अवस्था) ----à चित्त में वृत्ति का निरोध यानि निष्काम कर्म -------à समत्व, स्थिर बुद्धि, स्थित प्रज्ञ।

जब योग घटित तो निम्न अनुभव (ध्यान दें अनुभव किताबी कीडी ज्ञान नहीं) जो वेदांत महावाक्य समझाते हैं।
1.  अहं ब्रह्मास्मि - "मैं ब्रह्म हुँ" (बृहदारण्यक उपनिषद १/४/१० - यजुर्वेद)
2.  तत्वमसि - "वह ब्रह्म तू है" (छान्दोग्य उपनिषद ६/८/७- सामवेद )
3.  अयम् आत्मा ब्रह्म - "यह आत्मा ब्रह्म है" (माण्डूक्य उपनिषद १/२ - अथर्ववेद )
4.  प्रज्ञानं ब्रह्म - "वह प्रज्ञानं ही ब्रह्म है" (ऐतरेय उपनिषद १/२ - ऋग्वेद)
5.  सर्वं खल्विदं ब्रह्मम् - "सर्वत्र ब्रह्म ही है" (छान्दोग्य उपनिषद ३/१४/१- सामवेद )
कुल मिलाकर आप पायेगें हर ज्ञानी वेदांत और सनातन की ही व्याख्या करता है। अत: मै6 उनको मूर्ख ही कहूंगा जो कहते हैं कि बुद्ध सनातन विरोधी थे। 

महावाक्यों को और समझने के लिये लिंक देखें। 

"योग की व्याख्यायें"

https://freedhyan.blogspot.com/2018/10/normal-0-false-false-false-en-in-x-none.html



(तथ्य कथन गूगल साइट्स इत्यादि से साभार)


"MMSTM समवैध्यावि ध्यान की वह आधुनिक विधि है। कोई चाहे नास्तिक हो आस्तिक हो, साकार, निराकार कुछ भी हो बस पागल और हठी न हो तो उसको ईश अनुभव होकर रहेगा बस समयावधि कुछ बढ सकती है। आपको प्रतिदिन लगभग 40 मिनट देने होंगे और आपको 1 दिन से लेकर 10 वर्ष का समय लग सकता है। 1 दिन उनके लिये जो सत्वगुणी और ईश भक्त हैं। 10 साल बगदादी जैसे हत्यारे के लिये। वैसे 6 महीने बहुत है किसी आम आदमी के लिये।"  सनातन पुत्र देवीदास विपुल खोजी
ब्लाग :  https://freedhyan.blogspot.com/




 

 गुरु की क्या पहचान है? आर्य टीवी से साभार गुरु कैसा हो ! गुरु की क्या पहचान है? यह प्रश्न हर धार्मिक मनुष्य के दिमाग में घूमता रहता है। क...