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Wednesday, October 31, 2018

परमार्थ की व्याख्या



परमार्थ की व्याख्या 

सनातनपुत्र देवीदास विपुल "खोजी"

 विपुल सेन उर्फ विपुल लखनवी,
(एम . टेक. केमिकल इंजीनियर) वैज्ञानिक एवं कवि
सम्पादक : विज्ञान त्रैमासिक हिन्दी जर्नल “वैज्ञनिक” ISSN 2456-4818
 वेब:  vipkavi.info वेब चैनलvipkavi
फेस बुक:   vipul luckhnavi “bullet"


यदि आप परमार्थ के शाब्दिक संसारी अर्थ देखें तो पायेगें। उत्कृष्ट पदार्थ। सबसे बढ़कर वस्तु। सार वस्तु। वास्तव सत्ता। नाम रूपादि से परे यथार्थ तत्व। मोक्ष। दुःख का सर्वथा अभावरूप सुख (न्याय)। सत्य को जानना। बह्म को जानना। दान। त्याग। जन सेवा। परहित सहित तमाम अर्थ।

एक चिंतनीय दार्शनिक वाक्य है।
“परमार्थ में जब अर्थ का महत्त्व बढ़ जाता है, तब हम स्वार्थी बन कर अनर्थ की ओर बढ़ जाते हैं।“

महाराज भर्तृहरि के अनुसार
कृमिकुलचितं लालाक्लिन्नं विगन्धिजुगुप्सितम्, निरुपमरसं प्रीत्या खादन्नस्थि निरामिषम्।
सुरपतिमपि श्वा पाश्र्वस्थं विलोक्य न शंकते, न हि गणयति क्षुद्रो जन्तुः परिग्रहफल्गुताम्।
(भावार्थ: कीड़ों, लार, दुर्गंध और देखने में गंदी रसहीन हड्डी को कुत्ता बहुत शौक से चबाता है। उस समय इंद्रदेव के अपने आने की परवाह भी नहीं होती। यही हालत स्वार्थी और नीच प्राणी की भी होती है। वह जो वस्तु प्राप्त कर लेता है उसे उपभोग में इतना लीन हो जाता है कि उसे उसकी अच्छाई बुराई का पता भी नहीं चलता)  

परमार्थ = परम + अर्थ
अर्थ के दो अर्थ पहला क्या कथन है दूसरा धन।

स्वार्थ और परमार्थ। परमार्थ और अर्थ। ये दो तुलायें हैं जिन पर मानव अपनी बुद्धि के अनुसार परमार्थ को तौलता है। जिसका जो स्तर जिसकी जो सोंच वैसे ही अर्थ है परमार्थ के। चलिये इसके अर्थों पर चर्चा की जाये।

संसार स्वार्थ और परमार्थ दो तरह के मार्गों का समागम स्थल है। अधिकतर संख्या स्वार्थियों की है जो अपने देहाभिमान वश केवल अपना और परिवार का भरण भोषण कर यह संसार चला रहे हैं। उनके लिये परिवार और पेट भरना ही संसार का मूल नियम हैं।

दूसरी तरफ परमार्थी लोग भी होते हैं जो यह सोचकर दूसरो कें हित में सलंग्न रहते हैं कि इंसान होने के नाते यह उनका कर्तव्य है। सच तो यह है कि हम अपने हित पूर्ण करते हुए अपना पूरा जीवन इस विचार में गुजार देते हैं कि यही भगवान की इच्छा है और परमार्थ करने का विचार नहीं करते।

स्वार्थ या प्रतिष्ठा पाने के लिये दूसरे का काम करना कोई परमार्थ नहीं होता।

निष्प्रयोजन दया ही वास्तविक पुण्य है। अगर हम सोचते हैं कि सारे लोग अपने स्वार्थ पूरे कर काम कर लें तो संसार स्वतः ही चलता जायेगा तो गलती कर रहे हैं। कई बार हमारे जीवन में ऐसा अवसर आता है जब कोई हमारी निष्प्रयोजन सहायता करता है पर हम अपना कठिन समय बीत जाने पर उसे भूल जाते हैं और जब किसी अन्य को हमारी सहायता की जरूरत होती है तब मुंह फेर जाते हैं। यह श्वान की प्रवृत्ति का परिचायक है। भगवान ने हमें यह मनुष्य योनि इसलिये दी है कि हम अन्य जीवों की सहायता कर उसकी सार्थकता सिद्ध करें। यह सार्थकता स्वार्थ सिद्धि में नहीं परमार्थ करने में है। अत: जहां तक हो सके दूसरों का भला भी करें।

शास्त्रों में कहा गया है - जब तक व्यक्ति भौतिकता में फंसा रहता है तब तक उसे जीव या अणु मन कहकर पुकारते हैं। ब्रह्म की कृपा से जो इस बंधन को तोड़कर अपने आपको मुक्त कर सकते हैं वे ही शिवत्व को प्राप्त कर सकते हैं।

इस तरह हम देखते हैं कि शिव व जीव में केवल अंतर एक ही है - शिव बंधनमुक्त हैं, जीव बंधनयुक्त है।

हर मनुष्य स्वाधीनता चाहता है-बंधन से मुक्ति चाहता है। उसे कोई मनुष्य सामयिक तौर पर कुछ बंधनों से मुक्त कर सकता है, परंतु वे बंधन पुन: उसे जकड़ लेते हैं। इस अवस्था को एक पक्षी को पिंजरे से कुछ काल के लिए बाहर निकालकर उसे पुन: पिंजरे में ही बंद कर दिया गया। इस मुक्ति से क्या जीव को कोई लाभ मिला? इस तरह की सामयिक बंधनमुक्ति को ही अर्थ कहा जाता है। जैसे-किसी को भूख लगी है। भूख के कारण उसे खाद्य के संग्रह की जरूरत है। खाद्य मिला कहां से? रुपयों की सहायता से, तो इस प्रकार रुपया ही दूसरे शब्दों में अर्थ कहा जाता है।

अर्थ शब्द का अर्थ करने से दो शब्द मिलते हैं। एक है माने और दूसरा है रुपया। रुपये सामयिक तौर पर बंधनमुक्ति ला देते हैं। आज जो व्यक्ति भूखा है उसने रुपयों की सहायता से भूख को मिटाया, पर कल फिर उसे भूख सताएगी और उसे खाद्य की जरूरत पड़ेगी। इस प्रकार रुपयों की बदौलत जो मुक्ति मिलती है वह किसी भी स्थिति में स्थायी नहीं हो सकती है।

जीवन के सम्बंध में हमारी दृष्टि क्या होनी चाहिए, आपेक्षिक जगत के साथ सामंजस्य परमसत्ता की ओर अग्रसर होना। बाहरी जगत को हम अस्वीकार नहीं कर सकते। अर्थ या रुपयों के महत्व को भी अस्वीकार नहीं किया जा सकता। सामयिक दु:खों व यंत्रणाओं से स्थायी मुक्ति पाने के लिए अर्थ की जरूरत है, परंतु दु:खों से, यंत्रणा से जो स्थायी मुक्ति मिलती है उसे कहते हैं परमार्थ। अर्थ और परमार्थ के बीच यही अंतर है और मनुष्य की क्षमता सीमित है, इस तथ्य को हम अस्वीकार नहीं कर सकते।

जहाँ शरीर का सुख अर्थ है वहाँ आत्मा का सुख परमार्थ है।
ऐसे मनुष्यों का सर्वथा अभाव नहीं है कि जिन्होंने अपनी पहुँच, पुरुषार्थ, प्रयत्न एवं प्रारब्ध तक साँसारिक सुख जैसे स्वास्थ्य सुख, सन्तान-सुख, सामाजिक एवं पारिवारिक सुख, न प्राप्त कर लिया हो। अनेकों ऐसे व्यक्ति मिलेंगे जिन्हें कोई विशेष दुःख न हो और किसी हद तक उन्हें सुखी ही कहा जा सकता है। किन्तु ऐसे सुखियों से भी यदि सच्चाई के साथ बतलाने का अनुरोध किया जाये तो निश्चय ही वे यही कहेंगे कि उन्हें कोई दुःख तो अवश्य नहीं है, फिर भी इस सुख में एक अभाव, एक अतृप्ति खटकती रहती है। कुछ ऐसा अनुभव होता रहता है जैसे हमें वह सुख, वह तृप्ति नहीं मिल रही है जो मिलनी चाहिये और मिल भी सकती है। इस अभाव, इस खटक और इस अतृप्ति का कारण खोजने में पर भी नहीं मिलता है।

निःसन्देह इस प्रकार की अतृप्ति बड़े से बड़े सुखी व्यक्ति में रहा करती है। यह अभाव, यह अतृप्ति उसकी आत्मा की माँग होती है जो पूरी नहीं की जाती है। संसार के सारे सुख इन्द्रिय-जन्य शारीरिक ही होते हैं। शरीर का अंश न होने से आत्मा की तृप्ति उस से नहीं होती। आत्मा की यही अतृप्ति सुखी व्यक्ति को भी अभाव बनकर खटकती रहती है।

जहाँ शरीर का सुख अर्थ है वहाँ आत्मा का सुख परमार्थ है। जब तक परमार्थ द्वारा आत्मा को संतुष्ट न किया जायेगा, उसकी माँग पूरी न की जायेगी तब तक सर्व सुखों के बीच भी मनुष्य को एक अभाव एक अतृप्ति व्यग्र करती ही रहेगी। शरीर अथवा मन को, संतुष्ट कर लेना भर ही वास्तव में सुख नहीं है। वास्तविक सुख है—आत्मा का संतुष्ट करना, उसे प्रसन्न करना।

साँसारिक भोग भोगने और मनभाई परिस्थितियाँ पा लेने से शारीरिक सुख मिलता है, किन्तु आत्मा सुखी होती है—परोपकार एवं पर सेवा रूपी परमार्थ कार्यों से, अपने को जानकर। अतएव विवेकशील व्यक्ति सच्चा सुख पाने के लिये स्वार्थ सुख की अपेक्षा परमार्थ सुख को अधिक महत्व देते हैं। वे परमार्थ सुख के लिये स्वार्थ सुख का भी त्याग कर देते हैं क्योंकि वे जानते हैं कि शारीरिक सुख छाया है और आत्मिक सुख सत्य है, यथार्थ है। जिसके प्रति हमारी इतनी जिज्ञासा है, इतना आकर्षण है उसके बिम्ब को क्यों प्राप्त किया जाये, क्यों न चन्द्रमा की ही उपलब्धि की जाये।

एक किस्सा मीरजाफर द्वारा विश्वासघात का है। सन् 1757 की बात है—अंग्रेज बंगाल पर अपना कब्जा करने का प्रयत्न कर रहे थे। किन्तु नवाब सिराजुद्दौला की नीतिमयी वीरता से उनकी दाल न गलती थी। बार-बार मुँह की खाने पर अंग्रेजों ने कूटनीति से काम लिया। उन्होंने सिराजुद्दौला के सेनापति मीरजाफर पर डोरे डालने शुरू किये। अंग्रेजों ने उसे बंगाल का नवाब बना देने का लालच देकर अपनी ओर मिला लिया। इधर अंग्रेजों ने नई तैयारी करके बंगाल पर फिर आक्रमण किया। सिराजुद्दौला ने सेनापति मीरजाफर को मोर्चे पर भेजा। नवाब के मन बढ़े सिपाही बड़ी वीरता से लड़े किन्तु गद्दार मीरजाफर ने उन्हें हतोत्साहित करके अस्त-व्यस्त कर दिया। अंग्रेजों की जीत हो गई जिसके फलस्वरूप बंगाल पर उनका अधिकार हो गया।

जब मीरजाफर ने जब अपना वचन पूरा करने को कहा—तो अंग्रेज सेनापति ने घृणा से यह कहकर उसे तलवार के घाट उतार दिया— ”कि ऐ विश्वास घाती कुत्ते! तू बंगाल का सुलतान होने का स्वप्न देख रहा है। तेरे जैसे गद्दार को दुनिया में जीवित रहने का कोई अधिकार नहीं है। जब तू अपने मालिक और मुल्क का न हुआ, तो हमारा ही क्या होगा?”
यह सत्य घटना हमें अपने शरीर में घटती दिखाई देती है। जब मीर जाफर रूपी बुद्धि आत्म स्वरूप से विद्रोह कर जगत की वासनाओं में लिप्त हुई तो इसी जगत ने उसे नष्ट कर दिया।

कुछ ने माना है परोपकार अथवा पर-सेवा ही परमार्थ का सच्चा एवं सक्रिय स्वरूप है। मेरे विचार से यह पूर्ण परमार्थ नहीं बल्कि परमार्थ का एक आवश्यक अंग है। योग, ध्यान, साधना अथवा आराधना में परोपकार भी शामिल होना चाहिये। ये पूर्ण परमार्थ होगा। पर सेवा निस्वार्थ हो।

आध्यात्मिक उद्योग अथवा परमार्थ साधना का प्रतिफल क्या है —आत्म-बोध। आत्म-बोध, आत्मतोष, आत्म प्रसाद अथवा आत्म सुख।

स्थैर्य तप ( प्राणायाम प्राणस्थैर्य की साधना है। इसके अभ्यास से प्राण में स्थिरता आती है और साधक अपने मन की स्थिरता के लिए अग्रसर होता है। अंतिम तीनों अंग मन:स्थैर्य का साधना है। प्राणस्थैर्य और मन:स्थैर्य की मध्यवर्ती साधना का नाम ‘प्रत्याहार’ है) के नियम नितान्त वैज्ञानिक एवं विलक्षण हैं। यह तलवार की धार से भी अधिक तीक्ष्ण तथा मृणाल-तन्तु से भी अधिक कोमल होते हैं। एक तो इनका सम्पूर्ण निर्वाह ही कठिन है दूसरे यदि इनका निर्वाह भी किये जाने का प्रयत्न किया जाये तो यह तनिक सी मानसिक छलन से टूट जाते हैं। एक लम्बे समय की साधना क्षण मात्र में भंग हो जाती है। वर्षों के साधे हुये संकल्प चारित्रिक विकल्प से नष्ट हो जाते हैं और तब बहुधा साधक को पुनः ‘अ’ ‘आ’ से यात्रा प्रारम्भ करनी पड़ती है। इस प्रकार के संकल्प-विकल्पों का क्रम न जाने कब तक चलता रहता है। यह मनः मार्गीय अध्यात्म साधना जन्म जन्मान्तरों तक की अवधि ले सकती है। सेवा मार्ग से जिस मनःशाँति के लिये मनुष्य को एक जीवन ही काफी है उसके लिये हठ पूर्वक जन्म जन्मान्तरों का मूल्य चुकाना महंगा ही कहा जायेगा। वैसे जो सामर्थ्यवान हैं वे चुकाते भी हैं और एक लम्बी यात्रा का श्रम करके अपना लक्ष्य प्राप्त भी कर लेते हैं। किन्तु जनसामान्य के लिये यह व्यवहार-सम्मत कहा जाना उपयुक्त नहीं जान पड़ता। मन बड़ा दुराग्रही, चंचल तथा बलवान है। यह बिना रज्जु-संयोजन अथवा योजना के यों ही शून्य में पकड़ने से वश में नहीं आता। इसको वश में लाने, अनुद्धत राहगीर बनाने के लिये परोपकार पथ पर जोतना ही होगा—इसे सत्कर्मों में नियोजित करना ही होगा— सेवा एक कठोर लगाम की भांति है। सेवा के सत्कर्म में नियोजित मन को इधर उधर भागने का अवकाश ही नहीं मिलता। सेवा कार्य के साथ सम्बंधित दया, करुणा, सहानुभूति तथा आत्मीयता आदि इतने शीतल गुण होते हैं कि इनके स्पर्श सुख से मन स्वयं ही एकाग्र होने लगता है और इस प्रकार धीरे-धीरे शिव संकल्पी स्वाधीन मन स्वतः ही निर्मल होकर आत्मा को एक स्थायी सुख, एक अक्षय प्रसन्नता प्रदान करता है। यही है परमार्थ और यही है मनुष्य का साध्य।

इसके अतिरिक्त स्वयं भी ठीक-ठीक नैतिक नागरिक तथा आचरणवान बनना, अपनी विकृतियों, विकार तथा असभ्यता को दूर करके सभ्य, शिष्ट तथा अनुशासित बनना भी एक परोपकार ही है। 



क्योंकि ऐसा बनने से आप समाज में एक सभ्य नागरिक बनेंगे, अपने संतुलित व्यवहार से दूसरों को शीतल एवं प्रसन्न करेंगे और अपने उदाहरण से दूसरों को सभ्य, शिष्ट तथा सदाचारी बनने की प्रेरणा देंगे। अपने अधिकार तथा कर्तव्यों को ठीक-ठीक समझना और उनका सुधारना सामाजिक ही नहीं सार्वदेशिक सत्कर्म है। इस प्रकार के अन्य न जाने कितने छोटे-छोटे सेवा कार्य हो सकते हैं जिनको सामान्य से सामान्यजन भी प्रतिपादित करके परमार्थ लाभ कर सकता है। दिन भर की व्यस्त जिन्दगी में किया हुआ एक छोटा-सा सेवा कार्य उस दिन को स्वर्गीय सुख-संतोष से भर देगा। उस दिन की कोई भी निराशा, असफलता अथवा विषाद जैसी तीव्र स्थिति आपको व्यग्र अथवा त्रस्त नहीं रख सकती। इस प्रकार आप बिना किसी विशेष श्रम के प्रतिदिन एक छोटा-सा सेवा कार्य करके अपनी पूरी जिन्दगी को हर्ष, उल्लास, सुख और संतोष को आगार बना सकते हैं जो कि आपको एक स्थायी आत्मिक सुख देने में सर्वथा समर्थ होगी। जब साधारण से साधारण जन इस प्रकार निःस्वार्थ सेवा से परमार्थ लाभ कर सकता है, तब धनी मानी तथा साधन सम्पन्न व्यक्ति तो न जाने क्या क्या कर सकते हैं। और यदि प्रत्येक व्यक्ति अपने प्रत्येक कार्य को राष्ट्र, समाज, संसार अथवा ईश्वर का सेवा कार्य समझकर करने लगे तब तो यह संसार ही स्वर्ग बन जाये। न शारीरिक सुख का अभाव रहे और न आत्मिक सुख का अभाव खटके। मनुष्य सम्पूर्ण रूप से सुखी तथा संतुष्ट हो जाये।

सेवा कार्यों में एक बात का विशेष ध्यान रखने की आवश्यकता यह है कि जो भी सेवा की जाये वह सत्पात्र की ही की जाये। अपात्र की सेवा पुण्य के स्थान पर पाप वाहिका ही सिद्ध होगी। न जाने कितने वंचक, अपंग, अन्ध आवश्यकता ग्रस्त समाज में भोले, भाले और परोपकारी व्यक्तियों की दया, करुणा तथा सहानुभूति ठगने के साथ अपना आर्थिक उल्लू भी सीधा करते घूमते हैं। ऐसे वंचकों की सेवा अथवा सहायता करने से एक तो बेचारे अधिकारी पात्र वंचित रह जायेंगे दूसरे यह ठग और वंचक समाज में बिना श्रम के जीते हुये विकृतियाँ उत्पन्न करेंगे। सस्ती अथवा अनियंत्रित सहायता सहानुभूति समाज में वंचकों को बढ़ा देती है और उनकी संख्या में वृद्धि करती है। इसलिए इस बात का भी विशेष ध्यान रखना है कि हमारी व्यावहारिक, भावनात्मक, मौन अथवा मुखर सेवा का दुरुपयोग न हो।

इस प्रकार का विवेक विचार रखते हुये आज से ही सेवा कार्य में लगकर लगे रहिये, आपका आत्मिक अभाव दूर होगा, आपको सच्ची तथा स्थायी सुख-शाँति प्राप्त होगी।

कहने का अर्थ संक्षेप में परमार्थ और पूर्ण परमार्थ के कुछ आवश्यक अंग होने चाहिये तो क्या उनको एक नया नाम पूर्ण परमार्थांग बोला जाये। जिसमें कुछ बातें आवश्यक कर दी जायें।

     पातांजलि महाराज के यम और नियम में कुछ जोड जैसे
1. यम : पांच की जगह सात सामाजिक नैतिकता : (क) अहिंसा, (ख) सत्य (ग) अस्तेय (घ) ब्रह्मचर्य – 1. चेतना को ब्रह्म के ज्ञान में स्थिर करना और 2. सभी इन्द्रिय-जनित सुखों में संयम बरतना। (च) अपरिग्रह (छ) सेवा (ज) परोपकार।
सेवा: माता, पिता, गुरू की प्रथम सेवा। यदि यह न हों तो किसी रोगी की सेवा। नहीं तो जीव जानवर सेवा।
परोपकार: सहायता हेतु पडे मानव या जीव की निस्वार्थ सेवा।

2. नियम

पाँच की जगह छह व्यक्तिगत नैतिकता
(क) शौच (ख) संतोष (ग) तप (घ) स्वाध्याय (च) ईश्वर-प्रणिधान
(छ) परहित दान देना चाहे वो तन हो मन हो या धन हो। जैसे आधुनिक युग में मृत्यु के पश्चात शरीर या अंगो का दान देना।
3. आसन । 4. प्राणायाम। 5. प्रत्याहार। 6. धारणा। 7. ध्यान। 8. समाधि

कहो कैसी रही यह प्रयोग और शब्द कैसा लगा। जरूर बतायें।
जय गुरूदेव महाकाली। महाकाल


(तथ्य कथन गूगल साइट्स इत्यादि से साभार)


"MMSTM समवैध्यावि ध्यान की वह आधुनिक विधि है। कोई चाहे नास्तिक हो आस्तिक हो, साकार, निराकार कुछ भी हो बस पागल और हठी न हो तो उसको ईश अनुभव होकर रहेगा बस समयावधि कुछ बढ सकती है। आपको प्रतिदिन लगभग 40 मिनट देने होंगे और आपको 1 दिन से लेकर 10 वर्ष का समय लग सकता है। 1 दिन उनके लिये जो सत्वगुणी और ईश भक्त हैं। 10 साल बगदादी जैसे हत्यारे के लिये। वैसे 6 महीने बहुत है किसी आम आदमी के लिये।"  सनातन पुत्र देवीदास विपुल खोजी
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