Search This Blog

Tuesday, October 30, 2018

ब्रह्मचर्य के वास्तविक अर्थ



ब्रह्मचर्य के वास्तविक अर्थ

सनातनपुत्र देवीदास विपुल "खोजी"

 विपुल सेन उर्फ विपुल लखनवी,
(एम . टेक. केमिकल इंजीनियर) वैज्ञानिक एवं कवि
सम्पादक : विज्ञान त्रैमासिक हिन्दी जर्नल “वैज्ञनिक” ISSN 2456-4818
  vipkavi.info वेब चैनलvipkavi
फेस बुक:   vipul luckhnavi “bullet"

ब्रह्मचर्य एक ऐसा विषय है जिस पर आज तक उतनी ही तीव्र बहस चलती है, जितनी प्राचीन काल में चला करती थी। कौन ब्रह्मचारी है और कौन नहीं इस पर बहुत ज्यादा भ्रम की स्थिति भी बनी रहती है। आम इंसान  इस संदर्भ में अपनी एक स्पष्ट मान्यता लेकर चलता है कि जिसने विवाह किया उसे ब्रह्मचारी कदापि नहीं कहा जा सकता है। यानि साधारण व्यक्ति की नज़र में ब्रह्मचारी की परिभाषा बड़ी ही सीधी-सादी है कि विवाह नहीं किया तो ब्रह्मचारी और विवाह कर लिया तो ब्रह्मचर्य खंडित। जबकि वास्तविक परिभाषा पूर्णतया अलग है। एक विवाहित भी ब्रह्मचारी हो सकता है। जबकि अविवाहित नहीं भी। 


हमें ध्यान देना होगा कि राजा जनक का एक नाम विदेह भी था। अब वो देहयुक्त होते हुए भी विदेह यानि बिना शरीर के कैसे हुए? सीता जी के पिताश्री एक सम्राट थे, विवाहित थे, राज-पाट युक्त होते हुए भी समाधि की अवस्था में थे। राजा जनक को वास्तविक रूप में वीतरागी कहा गया क्योंकि उनकी दृष्टि सबके लिए समान हो चुकी थी, उनकी साधना इतनी ऊर्ज़स्वी थी कि उनके सभी चक्र जाग्रत हो चुके थे तथा वे मन के सबसे आखिरी तल पर जी रहे थे। यानि महाराज जनक देहधारी होते हुए भी देहरहित के समान हो चुके थे। सभी इंद्रियों को वश में कर लेने के कारण सम्राट होकर भी वे एक संन्यासी के समान थे। विवाहित होकर भी ब्रह्मचारी थे क्योंकि आत्मलीन होकर उन्होंने ब्रह्म का साक्षात्कार कर लिया था।


वहीं शामा चरण लाहिडी महाशय पारिवारिक थे। घर बार छोडा था पर सन्यास दीक्षा नहीं ली। उनको नागा सन्यासी सिद्ध तैलंग स्वामी खुद सम्मानित करते थे। अपने शिष्यों को लाहिडी महाराज की बडाई करते थे। शक्तिपात गुरू योगेंद्र विज्ञानी महाराज ने विवाह अधिक उम्र में किया ताकि वह तंत्र पर शोध कर सकें। पहले ब्रह्मचारी थे। आप पारद वज्रोली करते थे। “महायोग विज्ञान” जैसी पुस्तक शायद ही किसी ने लिखी हो। महऋषि अमर सप्तऋषियों के सम्पर्क में थे पर न सन्यास दीक्षा ली न ब्रह्मचारी।  
ठीक इसी प्रकार सप्तर्षियों को भी ब्रह्मचर्य सिद्ध था क्योंकि उनमें से अधिकांश विवाहित होकर भी पूर्णतया ब्रह्मलीन थे और इस प्रकार विवाह से कभी भी उनका ब्रह्मचर्य खंडित नहीं हुआ।


वास्तव में ब्रह्मचर्य का अर्थ है ब्रह्म व्यवहार यानि ब्रह्म में लीन होना। अब ब्रह्म में लीन होने की अवस्था किसी को भी हासिल हो सकती है। इसके लिए उसे वीतरागी होना होगा, समस्त इंद्रियों पर नियंत्रण करना होगा और चक्रीय जागरण की स्थिति भी पार कर लेनी होगी। जब मनुष्य की आंतरिक यात्रा आरंभ होती है तभी वो ब्रह्म में लीन होने की अवस्था प्राप्त कर सकता है।


गहराई से निरीक्षण करें तो ब्रह्मचर्य एक परमानंद की स्थिति है, जो किसी भी इंसान को प्राप्त हो सकती है। परमात्मा से साक्षात्कार के लिए मनुष्यत्व की स्थिति से ऊपर उठकर देवत्व की स्थिति का आरोपण करना होता है। तपस्चर्या के द्वारा ये अवस्था हासिल होती है और एक गृहस्थ के लिए भी ये उतनी ही सुलभ है जितनी की संन्यस्थ के लिए। यानि ब्रह्मचारी और ब्रह्मचर्य के बारे में लोगों को भ्रमित नहीं होना चाहिए वरन् ये स्पष्ट होना चाहिए कि ब्रह्म के आचार में प्रवृत्त होने की अवस्था ही वास्तविक ब्रह्मचर्य है।
आयुर्वेद में कहा गया है कि ब्रह्मचर्य शरीर के तीन स्तम्भों में से एक प्रमुख स्तम्भ (आधार) है।
त्रयः उपस्तम्भाः । आहारः स्वप्नो ब्रह्मचर्यं च सति ।
(तीन उपस्तम्भ हैं। आहार, निद्रा और ब्रह्मचर्य।)


ब्रह्मचर्य योग के भी आधारभूत स्तंभों में से एक है। ये वैदिक वर्णाश्रम का पहला आश्रम भी है, जिसके अनुसार ये ०-२५ वर्ष तक की आयु का होता है और जिस आश्रम का पालन करते हुए विद्यार्थियों को भावी जीवन के लिये शिक्षा ग्रहण करनी होती है।


ये शब्द दो शब्दों से मिलकर बना है:- ब्रह्म + चर्य। जिसका अर्थ है ब्रह्म में विचरण अथवा इस दिशा में भौतिक अपरिग्रह के साथ निरंतर ब्रह्म ज्ञान प्राप्ति के लिए जीवन बिताना। वहीं यदि भग्वदगीता को देखें। “हे अर्जुन जो समत्व रखता है। स्थिर बुद्धि और स्थितप्रज्ञ है वह योगी है। यानि ब्रह्मचर्य योगी होने की दिशा में किया एक प्रयास दर्शाता है। जबकि भौतिक जगत में यह कुछ सामाजिक बंधन और मर्यादायें देता है। जिसमें योग में ब्रह्मचर्य का अर्थ अधिकतर यौन संयम समझा जाता है। यौन संयम का अर्थ अलग-अलग संदर्भों में अलग-अलग समझा जाता है, जैसे विवाहितों का एक-दूसरे के प्रति निष्ठावान रहना, या आध्यात्मिक आकांक्षी के लिये पूर्ण ब्रह्मचर्य।


ब्रह्मचर्य का पालन करने वालों को ब्रह्मचारी कहते हैं। महाभारत के रचयिता व्यासजी ने विशेयेन्द्रिय द्वारा प्राप्त होने वाले सुख के सन्यमपूर्वक त्याग करने को ब्रह्मचर्य कहा है।

 
शतपथ ब्राह्मण में ब्रह्मचारी की चार प्रकार की शक्तियों का उल्लेख आता है-
1.  अग्नि के समान तेजस्वी,
2.  मृत्यु के समान दोष एवं दुर्गुणों के मारण की शक्ति,
3.  आचार्य के समान दूसरों को शिक्षा देने की शक्ति,
4.  संसार के किसी भी स्थान, वस्तु, व्यक्ति आदि की अपेक्षा रखे बिना आत्माराम होकर रहना।


महावीर स्वामी ने बताएं हैं ब्रह्मचर्य की रक्षा के ये 10 उपाय
बंभचेर-उत्तमतव-नियम-नाण-दंसण-चरित्त-सम्मत-विणयमूलं।
ब्रह्मचर्य उत्तम तपस्या, नियम, ज्ञान, दर्शन, चारित्र, संयम और विनय की जड़ है।
तवेसु वा उत्तम बंभचेरं। महावीर स्वामी कहते हैं कि तपस्या में ब्रह्मचर्य श्रेष्ठ तपस्या है।
इत्थिओ जे न सेवन्ति, आइमोक्खा हु ते जणा॥ जो पुरुष स्त्रियों से संबंध नहीं रखते, वे मोक्ष मार्ग की ओर बढ़ते हैं।

ब्रह्मचर्य की रक्षा के दस उपाय :
महावीर स्वामी ने ब्रह्मचर्य की रक्षा के दस उपाय भी सुझाए हैं-
जं विवित्तमणाइन्नं रहियं थीजणेण य। बम्भचेरस्स रक्खट्ठा आलयं तु निसेवए॥
(1) ब्रह्मचारी ऐसी जगह रहे, जहां एकान्त हो, बस्ती कम हो, जहां पर स्त्रियां न रहती हों।
मणपल्हायजणणी का मरागविवड्ढणी। बम्भचेररओ भिक्खू थीकहं तु विवज्जए॥
(2) ब्रह्मचारी को स्त्रियों संबंधी ऐसी सारी बातें छोड़ देनी चाहिए, जो चित्त में आनंद पैदा करती हों और विषय वासना को बढ़ाती हों। समं च संथवं थीहिं संकहं च अभिक्खणं।
बम्भचेररओ भिक्खू निच्चसो परिवज्जए॥
(3) ब्रह्मचारी ऐसे सभी प्रसंग टाले, जिनमें स्त्रियों से परिचय होता हो और बार-बार बातचीत करने का मौका आता हो।
अंगपच्चंगसंठाणं चारुल्लवियपेहियं। बम्भचेररओ थीणं चक्खुगिज्झं विवज्जए॥
(4) ब्रह्मचारी स्त्रियों के अंगों को, उनके हावभावों और कटाक्षों को न देखे।
कूइयं रुइयं गीयं हसियं थणियकन्दियं। बम्भचेररओ थीणं सोयगेज्झं विवज्जए॥
(5) ब्रह्मचारी न तो स्त्रियों का कूजना सुने, न रोना, न गाना सुने, न हंसना, न सीत्कार करना सुने, न क्रंदन करना।
हासं किड्डं रइं दप्पं सदृसा वित्तासियाणि य। बम्भचेररओ थीणं नानुचिन्ते कयाटू वि॥
(6) ब्रह्मचारी ने पिछले जीवन में स्त्रियों के साथ जो भोग भोगे हों, जो हंसी-मसखरी की हो, ताश-चौपड़ खेली हो, उनके शरीर का स्पर्श किया हो, उनके मानमर्दन के लिए गर्व किया हो, उनके साथ जो विनोद आदि किया हो, उसका मन में विचार तक न करे।
पणीयं भत्तपाणं तु खिप्पं मयविवड्ढणं। बम्भचेररओ भिक्खू निच्चसो परिवज्जए॥
(7) ब्रह्मचारी को रसीली चिकनी चीजों- घी, दूध, दही, तेल, गुड़, मिठाई आदि को सदा के लिए छोड़ देना चाहिए। ऐसे भोजन से विषय वासना को शीघ्र उत्तेजना मिलती है।
रसा पगामं न निसेवियव्वा पायं रसा दित्तिकरा नराणं। दित्तं च कामा समभिद्दवन्ति, दुमं जहा साउफल व मक्खी॥
ब्रह्मचारी को दूध, दही, घी आदि चिकने, खट्टे, मीठे, चरपरे आदि रसों वाले स्वादिष्ट पदार्थों का सेवना नहीं करना चाहिए। इनसे वीर्य की वृद्धि होती है, उत्तेजना होती है। जैसे दल के दल पक्षी स्वादिष्ट फलों वाले वृक्ष की ओर दौड़ते जाते हैं, उसी तरह वीर्य वाले पुरुष को कामवासना सताने लगती है।
धम्मलद्धं मियं काले जत्तत्थं पणिहाणव। नाइमत्तं तु भुंजेज्जा बम्भचेररओ सया॥
(8) ब्रह्मचारी को वही भोजन करना चाहिए जो धर्म से मिला हो। उसे परिमित भोजन करना चाहिए। समय पर करना चाहिए। संयम के निर्वाह के लिए जितना जरूरी हो, उतना ही करना चाहिए। न कम न ज्यादा।
विभूसं परिवजेज्जा सरीरपरिमण्डण। बम्भचेररओ भिक्खू सिगारत्थं न धारए॥
(9) ब्रह्मचारी को शरीर के श्रृंगार के लिए न तो गहने पहनने चाहिए और न शोभा या सजावट के लिए और कोई मान करना चाहिए।
सद्दे रूवे य गंधे य रसे फासे तहेव य। पंचविहे कामगुणे निच्चसो परिवज्जए॥
(10) ब्रह्मचारी को शब्द, रूप, गंध, रस और स्पर्श- इन पांच तरह के कामगुणों को सदा के लिए छोड़ देना चाहिए। जो शब्द, जो रूप, जो गंध, जो रस और जो स्पर्श मन में कामवासना भड़काते हैं, उन्हें बिलकुल त्याग दें।
जलकुंभे जहा उवज्जोई संवासं विसीएज्जा॥ आग के पास रहने से जैसे लाख का घड़ा पिघल जाता है, वैसे ही स्त्री के सहवास से विद्वान का मन भी विचलित हो जाता है।
मनुष्यों को विषय के परिणाम और ब्रह्मचर्य से होनेवाले फायदों को समझना चाहिए। मात्र एक बार के ही विषय में,  भले ही वह अपनी पत्नी के साथ हो, करोड़ों जीव मर जाते हैं। अत: जैन परम्परा इसका पूर्णतया विरोध करती है। अपने जीवन साथी कि जिन के साथ आपने शादी की है उनके अलावा किसी अन्य के साथ विषय संबंध रखने का परिणाम तो नर्क है।
अत: ब्रह्मचर्य स्वास्थ्य और आध्यात्मिक प्रगति के लिए अत्यंत सहायक है। ब्रह्मचर्य की सही और संपूर्ण समझ अंत में मोक्ष तक ले जाती है। ब्रह्मचर्य को सही तरह से समझने के बाद ही किसी व्यक्ति को ब्रह्मचर्य के रास्ते पर चलने की प्रेरणा मिलेगी और वह हर प्रकार से विषय का विरोध करेगा।


वास्तव में ब्रह्मचर्य मात्र वीर्य रक्षण नहीं है। यह मन की अवस्था है। आपने किस्सा तो सुनो होगा कि एक व्यभिचारी परम शिव भक्त था। प्रतिदिन वह तीन बार शिव पूजन जरूर करता था। एक बार वह एक वेश्या के पास लेटकर देर हो गया तो उसने वेश्या के स्तन को शिवलिंग मानकर पूजा सम्पन्न की। इस भक्ति से शिव प्रसन्न होकर प्रकट हो गये। यह कथा नियमितता बताती है। जैसे शिवलिंग पर एक व्यक्ति रोज जाकर अपने हाथों से प्रहार करता था। एक बार गांव में भयंकर बाढ आई पर वह व्यक्ति पत्थर मारने पहुंच ही गया। जब पत्थर मारा तो शिव जी प्रकट हो गये। बोले तू सच्चा। तेरी घृणा सच्ची। 


1. वीर्य  के  बारें  में   जानकारी: आयुर्वेद के अनुसार मनुष्य के शरीर में सात धातु होते हैं- जिनमें अन्तिम धातु वीर्य (शुक्र) है। वीर्य ही मानव शरीर का सारतत्व है।
40 बूंद रक्त से 1 बूंद वीर्य होता है।
एक बार के वीर्य स्खलन से लगभग 15 ग्राम वीर्य का नाश होता है । जिस प्रकार पूरे गन्ने में शर्करा व्याप्त रहता है उसी प्रकार वीर्य पूरे शरीर में सूक्ष्म रूप से व्याप्त रहता है। सर्व अवस्थाओं में मन, वचन और कर्म तीनों से मैथुन का सदैव त्याग हो, उसे ब्रह्मचर्य कहते है ।। यह बात  पूर्णतया सत्य  है क्योकिं वीर्य  के द्वारा  ही शरीर  का  निर्माण  होता है।

2. वीर्य  को पानी  की  तरह  
रोज बहा देने से नुकसान: शरीर के अन्दर विद्यमान ‘वीर्य’ ही जीवन शक्ति का भण्डार है। शारीरिक एवं मानसिक दुराचर तथा प्राकृतिक एवं अप्राकृतिक मैथुन से इसका क्षरण होता है। कामुक चिंतन से भी इसका नुकसान होता है। मैथून के द्वारा पूरे शरीर में मंथन चलता है और शरीर का सार तत्व कुछ ही समय में बाहर आ जाता है। रस निकाल लेने पर जैसे गन्ना छूंट हो जाता है कुछ वैसे ही स्थित वीर्यहीन मनुष्य की हो जाती है।  ऐसे मनुष्य की तुलना मणिहीन नाग से भी की जा सकती है। खोखला होता जाता  है  इन्सान । इसके अतिरिक्त विकृत यौनाचार से भी वीर्य की भारी क्षति हो जाती है। हस्तक्रिया  आदि इसमें शामिल है। शरीर में व्याप्त वीर्य कामुक विचारों के चलते अपना स्थान छोडऩे लगते हैं और अन्तत: स्वप्रदोष आदि के द्वारा बाहर आ जाता है।

 
ब्रह्मचर्य का तात्पर्य वीर्य रक्षा से है। यह ध्यान रखने की बात है कि ब्रह्मचर्य शारीरिक व मानसिक दोनों प्रकार से होना जरूरी है। अविवाहित रहना मात्र ब्रह्मचर्य नहीं कहलाता।
धर्म कर्तव्य के रूप में सन्तानोत्पत्ति और बात है और कामुकता के फेर में पडक़र अंधाधुंध वीर्य नाश करना बिलकुल भिन्न है।


मैथुन क्रिया से होने वाले नुकसान निम्रानुसार है:
* शरीर की जीवनी शक्ति घट जाती है, जिससे शरीर की रोग प्रतिरोधक क्षमता कम हो जाती है।
* आँखो की रोशनी कम हो जाती है।
* शारीरिक एवं मानसिक बल कमजोर हो जाता है।
* जिस तरह जीने के लिये ऑक्सीजन चाहिए वैसे ही ‘निरोग’ रहने के लिये ‘वीर्य’।
* ऑक्सीजन प्राणवायु है तो वीर्य जीवनी शक्ति है।
* अधिक मैथुन से स्मरण शक्ति कमजोर हो जाता  है।
* चिंतन विकृत हो जाता है।


वीर्यक्षय से विशेषकर तरूणावस्था में अनेक रोग उत्पन्न होते हैं: चेहरे पर मुँहासे , नेत्रों के चतुर्दिक नीली रेखाएँ, दाढ़ी का अभाव, धँसे हुए नेत्र, रक्तक्षीणता से पीला चेहरा, स्मृतिनाश, दृष्टि की क्षीणता, मूत्र के साथ वीर्यस्खलन, दुर्बलताआलस्य, उदासी, हृदय-कम्प, शिरोवेदना, संधि-पीड़ा, दुर्बल वृक्क, निद्रा में मूत्र निकल जाना, मानसिक अस्थिरता, विचारशक्ति का अभाव, दुःस्वप्न, स्वप्नदोष व मानसिक अशांति।


लेटकर श्वास बाहर निकालें और अश्विनी मुद्रा अर्थात् 30-35 बार गुदाद्वार का आकुंचन-प्रसरण श्वास रोककर करें। ऐसे एक बार में 30-35 बार संकोचन विस्तरण करें। तीन चार बार श्वास रोकने में 100 से 120 बार हो जायेगा। यह ब्रह्मचर्य की रक्षा में खूब मदद करेगी। इससे व्यक्तित्व का विकास होगा ही, व ये  रोग भी दूर होंगे समय के साथ।।


3. वीर्य  रक्षण  से  लाभ: शरीर में वीर्य संरक्षित होने पर आँखों में तेज, वाणी में प्रभावकार्य में उत्साह एवं प्राण ऊर्जा में अभिवृद्धि होती है। ऐसे  व्यक्ति  को जल्दी  से कोई  रोग नहीं  होता है  उसमें  रोग प्रतिरोधक क्षमता आ जाती है। पहले के जमाने में हमारे गुरुकुल शिक्षा पद्धति में ब्रह्मचर्य अनिवार्य हुआ करता था। और  उस वक्त में  यहाँ वीर योद्धा, ज्ञानी, तपस्वी व ऋषि स्तर के लोग हुए|


ऋषि दयानंद ने कहा ब्रह्मचर्य ब्रत का पालन करने बाले ब्यक्ति का अपरिमित शक्तिप्राप्त होता है एक ब्रह्मचारी संसार का जितना उपकार कर सकता है दूसरा कोई नही कर सकता


भगवान बुद्ध  ने कहा है –  ‘‘भोग और रोग साथी है और ब्रह्मचर्य आरोग्य का मूल है।’’
स्वामी रामतीर्थ  ने कहा है – ‘‘जैसे दीपक का तेल-बत्ती के द्वारा ऊपर चढक़र प्रकाश  के रूप में परिणित होता है, वैसे ही ब्रह्मचारी के अन्दर का वीर्य सुषुम्रा नाड़ी द्वारा प्राण बनकर ऊपर चढ़ता हुआ ज्ञान-दीप्ति में परिणित हो जाता है।


पति के वियोग में कामिनी तड़पती है और वीर्यपतन होने पर योगी पश्चाताप करता है।
भगवान शंकर ने  कहा  है-
इस ब्रह्मचर्य के प्रताप से ही मेरी ऐसी महान महिमा हुई है।’


कुछ  उपाय:
ब्रह्मचर्य जीवन जीने के लिये सबसे पहले ‘मन’ का साधने की आवश्यकता है।
भोजन पवित्र एवं सादा होना चाहिए, सात्विक होना चाहिए।





1. प्रात: ब्रह्ममुहूर्त में उठ जाएँ। 2. तेज मिर्च मसालों से बचें। शुद्ध सात्विक शाकाहारी भोजन करें। 3. सभी नशीले पदार्थों से बचें। 4. गायत्री मन्त्र या अपने ईष्ट मन्त्र का जप व लेखन करें। 5. नित्य ध्यान (मेडिटेशन) का अभ्यास करें। 6. मन को खाली न छोड़ें किसी रचनात्मक कार्य व लक्ष्य से जोड़ रखें। 7. नित्य योगाभ्यास करें। निम्न आसन व प्राणायाम अनिवार्यत: करें- आसन-पश्चिमोत्तासन, सर्वांगासन, भद्रासन प्राणायाम- भस्त्रिका, कपालभाति, अनुलोम विलोम।
जो हम खाना खाते हैं उससे वीर्य बनने की काफी लम्बी प्रक्रिया है। खाना खाने के बाद रस बनता है जो कि नाड़ीयों में चलता है। फिर बाद में खून बनता है।इस प्रकार से यह क्रम चलता है और अंत में वीर्य बनता है।


वीर्य में अनेक गुण होतें हैं।
क्या आपने कभी यह सोचा है कि शेर इतना ताकतवर क्यों होता है? वह अपने जीवन में केवल एक बार बच्चॉ के लिये मैथुन करता है।  जिस वजह से उसमें वीर्य बचा रहता है और वह इतना ताकतवर होता है। जो वीर्य इक्कठा होता है वह जरूरी नहीं है कि धारण क्षमता कम होने से वीर्य बाहर आ जायेगा। वीर्य जहाँ इक्कठा होता है वहाँ से वह नब्बे दिनों बाद पूरे शरीर में चला जाता है। फिर उससे जो सुंदरता, शक्ति, रोग प्रतिरोधक क्षमता आदि बढती हैं उसका कोई पारावार नहीं होता है।


4.  पत्नी  का त्याग  नहीं  करना है:  ब्रह्मचर्य में स्त्री और पुरुष का कोई लेना देना ही नहीं है। प्राचीन काल में ऋषि मुनि गृहस्थ जीवन व्यतीत करते थे, ऋषि पत्नियां भी बहुत जागृत और ग्यानी होती थी। आत्मसाक्षात्कार का जितना अधिकार पुरुषो को था उतना ही स्त्रियों को भी था। ब्रह्मचर्य को पूर्ण गरिमा प्राचीन काल में ही मिली थी। मैंने एक कथा सुनी थी, एक ऋषि ने अपने पुत्र को दुसरे ऋषि के पास सन्देश लेकर भेजा था, पुत्र ने पिता से कहा की राह में एक नदी पड़ती है, कैसे पार करूँगा। ऋषि ने कहा जाकर नदी से कहना, अगर मेरे पिता ने एक पल भी ब्रह्मचर्य का व्रत न त्यागा हो, स्वप्न में भी नहीं, तो हे नदी तू मुझे रास्ता दे दे। कथा कहती है की नदी ने रास्ता दे दिया। कैसा विरोधाभास हैएक पुत्र का पिता और ब्रह्मचारी , कैसे ? जाहिर  है  कि संभोग एक बार  सन्तानोपत्ति  के  लिए  किया गया था, आनंद के लिए  नहीं।


बुद्ध और महावीर के बाद हज़ारों युवक अपनी पत्नियों को घर को छोड़ कर भिक्षु बन गए, तब ब्रह्मचर्य का अर्थ सिर्फ स्त्री निषेध बन गया।

नर और नारी के घनिष्ठ सहयोग के बिना सृष्टि का व्यवस्थाक्रम नहीं चल सकता।
दोनों का मिलन कामतृप्ति एवं प्रजनन जैसे पशु प्रयोजन के लिए नहीं होता, वरन घर बसाने से लेकर व्यक्तियों के विकास और सामाजिक प्रगति तक समस्त सत्प्रवित्तियों का ढांचा दोनों के सहयोग से ही सम्भव होता है।

 
अध्यात्म के मंच से एक और बेसुरा राग अलापा गया कि नारी ही दोष दुर्गुणों की, पाप-पतन की जड़ है। इसलिए उससे सर्वथा दूर रहकर ही स्वर्ग मुक्ति और सिद्धि प्राप्त की जा सकती है। इस सनक में लोग घर छोडक़र भागने में, स्त्री बच्चे को बिलखता छोडक़र भीख माँगने और दर-दर भटकने के लिए निकल पड़े।



  तंत्र के पथिको ने आज्ञा चक्र में अर्ध नारीश्वर की कल्पना की है, यह कल्पना नहीं यथार्थ है, विज्ञान भी स्वीकारता है, की, हर स्त्री में एक पुरुष विद्यमान है और हर पुरुष में एक स्त्री। क्यों कि  पुरूष में  एक एक्स  एक  वाई शुक्राणु होते हैं।  स्त्री  मात्र  वाहक  है  अत: उसमें  दो  एक्स  शुक्राणु होते  है।  अत:  बालक या  बालिका  का  जन्म  पुरूष के  शुक्राणु  पर  निर्भर  करता  है  स्त्री   पर  नहीं। 


जब साधक या साधिका की चेतना आज्ञा चक्र में प्रवेश करती है, जब कुण्डलिनी आज्ञा चक्र का भेदन करती है तो काम ऊर्जा राम ऊर्जा में रूपांतरित हो जाती है, साधक जीव संज्ञा से शिव संज्ञा में प्रविष्ट हो जाता है। आज्ञा चक्र में पुरुष साधक को अपने भीतर की स्त्री का दर्शन होता है और स्त्री साधक को अपने भीतर के पुरुष का, जैसे ही यह दर्शन मिलता है, वैसे ही बाहर की स्त्री या पुरुष विलीन हो जाता है, खो जाता है। बाहर की स्त्री या पुरुष में रस ख़त्म हो जाता है, आप अपने भीतर के पुरुष या स्त्री को पा लेते हैं, और साथ ही आप आतंरिक या आध्यात्मिक सम्भोग के रहस्य को जान लेते हैं, जो पंचमकार का एक सूक्ष्म मकार है। स्वामी  विष्णु  तीर्थ  जी  महाराज  के  अनुसार  एक  अवस्था के  बाद  स्त्री  पुरूष  का  विभेद  समाप्त  हो  जाता है। यह  साधक  की  उच्च  स्थिति  है।


यह बिलकुल उसी तरह होता है , जैसे खेचरी मुद्रा में साधक ललना चक्र से टपकने वाली मदिरा का पान करके आनंद में रहता है। जैसे ही आपको भीतर का सौंदर्य मिलता है, बाहर का सौंदर्य खो जाता है । संसार की स्त्री या पुरुष में कोई आकर्षण नहीं रह जाता है, कोई रस नहीं रह जाता है, यही वो घड़ी है, जब ब्रह्मचर्य आपके भीतर से प्रस्फूटित होता है. अब आप वो नहीं रहे आप रूपांतरित हो जाते हैं, यही वो जगह है जहाँ शिवत्व घटता है।



एक बात  ध्यान  रखना है  चर्चा  में  कि हाँ  माता-बहने  भी  हैं  तो शब्दों  का ख्याल  रखना हैकामुक या गंदे  शब्दों  से परहेज  करना है  जहां  तक हो सके ।

शादी शुदा व्यक्ति पूर्ण ब्रह्मचर्य न रख सकें तो संयमित  जीवन  अवश्य  व्यतीत  करना चाहिए। अगर कोई  कहता है  कि  यौन इच्छाओं  को दबाने  से नपुंसकता  आ जाएगी  या  दबाने  से अच्छा  है  भोग लोतो  भाई  ऐसा  है  कि उपर  लिखी  दिनचर्या  अपनाओगे तो यौन इच्छाएँ  पैदा  ही  नहीं  होगी,  मन निर्मल  तो तन निर्मल।।


अगर  कोई  कहे  कि  संभोग    8-10  दिन  इतना ज्यादा  करो  कि घृणा  हो जाए , तो भाई  ऐसा  है  कि  नसें उभर आएंगी, पीड़ा  भी  महसूस  करोगे, संभोग  से  मन उचट भी  जाएगा परन्तु  ….. महिने 2-3   में  वीर्य  बनने पर, कामुक  साहित्य, नेट पर अशलील चीजें  देखने पर, नारी  को गलत भावना  से देखने पर फिर  से काम वेग उठेगा, तुम फिर  बह जाओगे।


इसलिए  ये  सोचना  बिल्कुल  गलत होगा कि  8-10  दिन  जमकर करो तो घृणा  हो जाएगी  सदा के लिए॥ 


ब्रह्मचर्य का अर्थ हैं , मन-वचन से समस्त इन्द्रियो का संयम । इस संयम के लिए ऊपर बताये गये त्यागो की आवश्यकता हैं त्याग के क्षेत्र की सीमा ही नही हैं,   जैसे ब्रह्मचर्य की महिमा की कोई सीमा नही हैं । ऐसा ब्रह्मचर्य अल्प प्रयत्न से सिद्ध नही होता। करोड़ो लोगो के लिए वह सदा केवल आदर्श रुप ही रहेगा । क्योकि प्रयत्नशील ब्रह्मचारी अपनी त्रुटियों का नित्य दर्शन करेगा, अपने अन्दर ओने-कोने में छिपकर बैठे हुए विकारो को पहचान लेगा और उन्हे निकालने का सतत प्रयत्न करेगा।  जब ते विचारो का इतना अंकुश प्राप्त नही होता कि इच्छा के बिना एक भी विचार मन मे न आये, तब तक ब्रह्मचर्य सम्पूर्ण नही कहा जा सकता। विचार-मात्र विकार हैं,   मन को वश मे करना और मन को वश वायु को वश मे करने से भी कठिन हैं। फिर भी यदि आत्मा हैं, तो यह वस्तु भी साध्य है ही। हमारे मार्ग मे कठिनाइयाँ आकर बाधा डालती हैं, इससे कोई यह न माने कि वह असाध्य हैं। परम अर्थ के लिए परम प्रयत्न की आवश्यकता हो तो उसमे आश्चर्य ही क्या। 


महात्मा गांधी के अनुसार “परन्तु ऐसा ब्रह्मचर्य केवल प्रयत्न- साध्य नही हैं, इसे मैने हिन्दुस्तान मे आने के बाद अनुभव किया। कहा जा सकता है कि तब तक मैं मूर्च्छावश था। मैने यह मान लिया था कि फलाहार से विकार समूल नष्ट हो जाते हैं और मै अभिमान-पूर्वक यह मानता था कि अब मेरे लिए कुछ करना बाकी नही हैं। पर इस विचार के प्रकरण तक पहुँचने मे अभी देर हैं। इस बीच इतना कह देना आवश्यक हैं कि ईश्वर-साक्षात्कार के लिए जो लोग मेरी व्याख्या वाले ब्रह्मचर्य का पालन करना चाहते हैंवे यदि अपने प्रयत्न के साथ ही ईश्वर पर श्रद्धा रखने वाले हो, तो उनके निराशा का कोई कारण नही रहेगा । 

विषया विनिवर्तन्ते निराहारस्य देहिनः । रसवजै रसो प्यस्य परं दृष्ट्वा निवर्तते ।। गीता 2, 51।। (निराहारी के विषय तो शान्त हो जाते है, पर उसकी वासना का शमन नही होता । ईश्वर-दर्शन से वासना भी शान्त हो जाती हैं ।)

 
अतएव आत्मार्थी के लिए रामनाम और रामकृपा ही अन्तिम साधन हैं, इस वस्तु का साक्षात्कार मैने हिन्दुस्तान मे ही किया।


(तथ्य कथन गूगल साइट्स इत्यादि से साभार)


"MMSTM समवैध्यावि ध्यान की वह आधुनिक विधि है। कोई चाहे नास्तिक हो आस्तिक हो, साकार, निराकार कुछ भी हो बस पागल और हठी न हो तो उसको ईश अनुभव होकर रहेगा बस समयावधि कुछ बढ सकती है। आपको प्रतिदिन लगभग 40 मिनट देने होंगे और आपको 1 दिन से लेकर 10 वर्ष का समय लग सकता है। 1 दिन उनके लिये जो सत्वगुणी और ईश भक्त हैं। 10 साल बगदादी जैसे हत्यारे के लिये। वैसे 6 महीने बहुत है किसी आम आदमी के लिये।"  सनातन पुत्र देवीदास विपुल खोजी
ब्लाग :  https://freedhyan.blogspot.com/

No comments:

Post a Comment

 गुरु की क्या पहचान है? आर्य टीवी से साभार गुरु कैसा हो ! गुरु की क्या पहचान है? यह प्रश्न हर धार्मिक मनुष्य के दिमाग में घूमता रहता है। क...