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Thursday, October 11, 2018

अष्टांग-योग-धारणा और अव-धारणा के अर्थ



अष्टांग-योग-धारणा और अव-धारणा के अर्थ

सनातनपुत्र देवीदास विपुल "खोजी"

 विपुल सेन उर्फ विपुल लखनवी,
(एम . टेक. केमिकल इंजीनियर) वैज्ञानिक एवं कवि
सम्पादक : विज्ञान त्रैमासिक हिन्दी जर्नल “वैज्ञनिक” ISSN 2456-4818
 वेब:  vipkavi.info वेब चैनलvipkavi
फेस बुक:   vipul luckhnavi “bullet"



मित्रो धारणा का उल्लेख महऋषि पतांजलि ने योग शास्त्र के अष्टांग योग में प्रयोग किया है। जो सबसे अधिक सुनने को मिलता है। जहां उन्होने योग प्राप्ति या अनुभव हेतु आठ अंग बतायें हैं। जिसमें पांच वाहिक और तीन आंतरिक हैं। जिनमें 1. यम (क्या करें)  2. नियम (क्या न करें)  3. आसन (शरीर को कैसे निरोगी और उपयुक्त बनायें)  4. प्राणायाम (श्वासोंश्वास का प्रयोग कैसे करें शरीर की नाडियों को शुद्ध करें और खोलें)  5.  प्रत्याहार (जगत की वासनात्मक वस्तुओं को छोडने की आदत) यह सब वाहिक हैं मतलब वाहिक जगत में आप क्या कर्म करें या न करें यह समझातें हैं।

जबकि 1. धारणा 2. ध्यान और 3. समाधि आंतरिक अवस्था की बात करते हैं। जहां वाहिक को तो सब देख सकते है पर आंतरिक का आप वर्णन भी नहीं कर सकते सिर्फ अनुभव ही कर सकते हैं। मतलब यह अंदर की बात है। 

मैंनें अपने ब्लाग: freedhyan.blogspot.com पर ध्यान और समाधि को कई लेखों के द्वारा समझाने की कोशिश की है और अपनी धारणा के द्वारा सहस्त्रसार चक्र और ब्रम्हांड की उत्पत्ति का अनुभव कर वैज्ञानिक व्याख्या करने का प्रयास किया है।

इस लेख में आगे बढने के पूर्व आप एक बार योग को समझ लें।
वेदांत महावाक्य के अनुसार आत्मा में परमात्मा की एकात्मकता का अनुभव ही योग है। (ध्यान दे अनुभव है, अध्ययन या तर्क कुतर्क नहीं)। वहीं श्री कृष्ण और पातंजली ने तुलसीदास ने योगी के लक्षण और कर्म कैसे होते है जिनके द्वारा आप उनको पहिचान सकते हैं। यह बताये है।

गीता के अनुसार: जिसमें समत्व की भावना हो, स्थिरबुद्धि और स्थितप्रज्ञ हो और किसी भी कार्य को कुशलतापूर्वक लगन से करता हो वह योगी है।

पातंजलि महाराज के अनुसार: जिसके चित्त में कार्य के फल के प्रति मोह न हो। मतलब निष्काम कर्म करे। जिसके कारण चित्त में किसी प्रकार की वृत्ति न पैदा हो।

तुलसी दास: नवधा के अतिरिक्त कहा है।
गौ धन गजधन बाज धन और रतन धन खान।
जब आवे संतोष धन सब धन धूरि समान॥

धारणा संज्ञा है  स्त्रीलिंग है। धारणा के कई अर्थ हो सकते हैं।

१. धारण करने की क्रिया या भाव ।
२. वह शक्ति जिसमें कोई बात मन में धारण की जाती है । समझने या मन में धारण करने की वृत्ति । बुद्धि । अक्ल । समझ ।
३. दृढ़ निश्चय । पक्का विचार ।
४. मर्यादा । जैसे,— नीति की यह धारणा है कि पानी में मुँह न देखा जाय ।
५. मन या ध्यान में रखने की वृत्ति । याद । स्मृति ।
६. योग के आठ अंगों में से एक । मन की वह स्थिति जिसमें कोई और भाव विचार नहीं रह जाता केवल ब्रह्म का ही़ ध्यान रहता है । विशेष— उस समय मनुष्य केवल ईश्वर का चिंतन करता है, उसमें किसी प्रकार की वासना नहीं उत्पन्न होती और न उसकी इंद्रियाँ विचलित होती हैं । यही धारण पीछे स्थायी होकर 'ध्यान' में परिणात हो जाती है ।
७. बृहत्संहिता के अनुसार एक योग जो ज्येष्ट शुक्ला अष्टमी से एकादशी तक एक विशिष्ट प्रकार की वायु चलने पर होता है । विशेष— इससे इस बात का पता लगाता है कि आगामी वर्षा ऋतु में यथेष्ट पानी बरसेगा या नहीं । यह वर्षा के गर्भधारण का योग माना जाता है, इसीलिये इसे धारण कहते हैं ।

अवधारणा या संकल्पना भाषा दर्शन का शब्द है जो संज्ञात्मक विज्ञान, तत्त्वमीमांसा एवं मस्तिष्क के दर्शन से सम्बन्धित है। इसे 'अर्थ' की संज्ञात्मक ईकाई; एक अमूर्त विचार या मानसिक प्रतीक के तौर पर समझा जाता है। अवधारणा के अंतर्गत यथार्थ की वस्तुओं तथा परिघटनाओं का संवेदनात्मक सामान्यीकृत बिंब, जो वस्तुओं तथा परिघटनाओं की ज्ञानेंद्रियों पर प्रत्यक्ष संक्रिया के बिना चेतना में बना रहता है तथा पुनर्सृजित होता है। यद्यपि अवधारणा व्यष्टिगत संवेदनात्मक परावर्तन का एक रूप है फिर भी मनुष्य में सामाजिक रूप से निर्मित मूल्यों से उसका अविच्छेद्य संबंध रहता है। अवधारणा भाषा के माध्यम से अभिव्यक्त होती है, उसका सामाजिक महत्व होता है और उसका सदैव बोध किया जाता है। अवधारणा चेतना का आवश्यक तत्व है, क्योंकि वह संकल्पनाओं के वस्तु-अर्थ तथा अर्थ को वस्तुओं के बिम्बों के साथ जोड़ती है और हमारी चेतना को वस्तुओं के संवेदनात्मक बिम्बों को स्वतंत्र रूप से परिचालित करने की संभावना प्रदान करती है।

धारणा का आध्यात्मिक पहलू:
परिभाषा: अपने मन को अपनी इच्छा से अपने ही शरीर के अन्दर किसी एक स्थान में बांधने, रोकने या टिका देने को धारणा कहते हैं।

धारणा शब्द की व्युत्पत्ति संस्कृत के ‘धृ’ धातु से हुर्इ है जिसका अर्थ होता है- आधार, नींव।’’ धारणा अर्थात ध्यान की नींव, ध्यान की आधारशिला। धारणा परिपक्व होने पर ही ध्यान में प्रवेश मिलता है।  

 धारणा मन की एकाग्रता है, एक बिन्दु, एक वस्तु या एक स्थान पर मन की सजगता को अविचल बनाए रखने की क्षमता है। ‘‘योग में धारणा का अर्थ होता है मन को किसी एक बिन्दु पर लगाए रखना, टिकाए रखना। किसी एक बिन्दु पर मन को लगाए रखना ही धारणा है।  

शरीर में मन को टिकाने के स्थान: वैसे तो शरीर में मन को टिकाने के मुख्य स्थान मस्तक, भ्रूमध्य, नाक का अग्रभाग, जिह्वा का अग्रभाग, कण्ठ, हृदय, नाभि आदि हैं परन्तु इनमें से सर्वोत्तम स्थान हृदय प्रदेश को माना गया है। हृदय प्रदेश का अभिप्राय शरीर के हृदय नामक अंग के स्थान से न हो कर छाती के बीचों बीच जो गड्डा होता है उससे है।

बहुत से साधक धारणा का अभ्यास लम्बे काल तक करते हुए धारणा को ही ध्यान मान लेते हैं, ऐसा न करें। क्योंकि धारणा बनाकर आगे ध्यान का विधान किया है। अतः धारणा का अर्थ केवल मन को टिकाए रखना ही लेना है। धारणा से मन को टिका कर अगली प्रक्रिया में ध्यान प्रारम्भ किया जाता है। जहां धारणा की जाती है वहीं ध्यान करने का विधान है। ध्यान के बाद समाधि के माध्यम से आत्मा प्रभु का दर्शन करता है और दर्शन वहीं हो सकता है जहां आत्मा और प्रभु दोनों उपस्थित हों। प्रभु तो शरीर के अन्दर भी है और बाहर भी परन्तु आत्मा केवल शरीर के अन्दर ही विद्यमान है। इसलिए शरीर से बाहर धारणा नहीं करनी चाहिए।
बिना गुरू आज्ञा के शरीर के बाहर धारणा घातक भी हो सकता है।

धारणा के लाभ
1. मन एकाग्र होता है। 2. मन प्रसन्न, शान्त, तृप्त रहता है। 3. मन की मलिनता का बोध (परिज्ञान) होता है। 4. मन के विकारों को दूर करने में सफलता मिलती है। 5. ध्यान की पूर्व तैयारी होती है। 6. ध्यान अच्छा लगता है।

निम्नलिखित कारणों से प्राय: हम मन को लम्बे समय तक एक स्थान पर नहीं टिका पाते :
1. मन जड़ है को भूले रहना 2. भोजन में सात्विकता की कमी 3. संसारिक पदार्थों व संसारिक-संबंन्धों में मोह रहना 4. ‘र्इश्वर कण – कण में व्याप्त है’ को भूले रहना 
5. बार-बार मन को टिकाकर रखने का संकल्प नहीं करना 6. मन के शान्त भाव को भुलाकर उसे चंचल मानना

इस प्रकार अनेकों कारण हैं, जिन से मन धारणा स्थल पर टिका हुआ नहीं रह पाता। इन कारणों को प्रथम अच्छी तरह जान लेना चाहिए, फिर उनको दूर करने के लिए निरन्तर अभ्यास करते रहने से मन एक स्थान पर लम्बी अवधि तक टिक सकता है।

बहुत से योग साधक बिना धारणा बनाए ध्यान करते रहते हैं। जिससे मन की स्थिरता नहीं बन पाने से भी भटकाव अधिक होने लगता है। फिर अनेक बार उस भटकाव को रोकने में ही सारा समय व्यतीत होता है। अतः अच्छा तो यही है कि ध्यान करने वाले योग-साधक योग-विधि के अनुसार धारणा बना कर ही ध्यान करें।

प्रारम्भिक योग साधक को चाहिए कि वह ध्यान के काल में बीच-बीच में धारणा स्थल का बोध बनाए रखे। जिससे भटकना न हो पाये। योग-साधक को यह भी चाहिए कि जितने धारणा स्थल हैं उनमें धारणा करने का अभ्यास बना लेवे, जिससे यदि कभी एक धारणा स्थल पर सफलता न मिले तो अन्य धारणा स्थल पर सफलता पूर्वक धारणा लगा सके।

योग-साधक को अपनी बुद्धि में यह बात भी अवश्य बिठा लेनी चाहिए कि बिना धारणा बनाये ध्यान समुचित रूप में नहीं हो सकता। जितनी मात्रा में हमने योग के पहले पांच अंगो को सिद्ध किया होता है। उसी अनुपात में हमें धारणा में सफलता मिलती है। धारणा के महत्त्व व आवश्यकता को निम्नलिखित उदाहरण से समझाया जा सकता है। जिस तरह किसी लक्ष्य पर बन्दूक से निशाना साधने के लिए बन्दूक की स्थिरता परमावश्यक है। ठीक उसी तरह र्इश्वर पर निशाना लगाने (र्इश्वर को पाने) के लिए हमारे मन को एक स्थान पर टिका देना अति आवश्यक है|
  

धारणा की अनेक परिभाषाएँ मिलती हैं। इनमें से कुछ इस प्रकार हैं-
महर्षि पतंजलि- देशबन्धश्चित्तस्य धारणा।। पा.यो.सू. 3/1 

यानि देश विशेष में चित्त को स्थिर करना धारणा कहलाता है। स्पष्ट है कि महर्षि ने भी मन को एकाग्र करने की प्रक्रिया को ही धारणा कहा है जिसमें मन या चित्त को किसी स्थान विशेष में बांधकर रखने की प्रक्रिया ही धारणा है। यहाँ देश के दो भेद किए गए हैं- बाह्य देश जैसे किसी मूर्ति, सूर्य, चन्द्रमा आदि तथा अंतर देश जैसे शरीर के अंदर के कुछ विशिष्ट स्थान जैसे ट्चक्र आदि। धारणा से संबंधित विभिन्न व्याख्याकारों ने जो व्याख्या की है वह इस प्रकार है:  

महर्षि व्यास- नाभिचक्र, हृदयपुण्डरीक, मूर्धिन ज्योतिषि, नासिकाग्रे, जिव्हाग्र इत्यादि देशों में अथवा बाह्य विषय में वृत्ति मात्र से बंधना स्थिर करना धारणा कहलाता है।

इस सूत्र में देश बन्ध पद का अभिप्राय यह है कि चित्तवृत्ति को शरीर के अंदर किसी स्थान विशेष जैसे नाभिचक्र, हृदय कमल, नासिका का अग्रभाग, भृकुटि, जिव्हाग्र में अथवा आकाश, सूर्य, चन्द्रमा आदि देवता में से किसी एक में अन्य सभी जगह के विषयों से विरक्त हो एक ही विषय पर चित्त की वृत्ति को स्थिर करने का नाम ही धारणा है।

कुछ अन्य ग्रंथों में धारणा की परिभाषा इस प्रकार है:

त्रिशिखिब्राह्मणोपनिषद्-
पंचभूतमये देहे भूतेष्वेतेषु वंचषु। मनसो धारणं एतद युक्तस्य च यमादिभि:। 
अर्थात चित्त का निश्चलीकरण भाव होना ही धारणा है। शरीरगत पंचमहाभूतों में मनोधारण रूप धारणा भवसागर को पार कराने वाली है।

योगतत्वोपनिषद (69/72)- पंचज्ञानेन्द्रियों के विष्ज्ञय में ब्रह्म या आत्मा की भावना होना ही धारणा है।

दर्शनोपनिषद्- शरीरगत पंचभूतांश का बाह्य पंचभूतों में धारण करना ही यथार्थ धारणा है। 

तेजोबिन्दूपनिषद्- मन के विषयों में ब्रह्मभाव का अवस्थित होना ही धारणा है। 

कठोपनिषद्- तां योगमिति मन्यते स्थिरामिन्दिय धारणम्। 2/3/11 
अर्थात मन और इंद्रियों का दृढ़ नियंत्रण ही धारणा योग है।
वसिष्ठ संहिता- इसमें धारणा की चार परिभाषाएँ दी गयी हैं। अर्थात योगशास्त्र के ज्ञाता योगी लोग यम आदि गुणों से युक्त अपने में मन की स्थिरता को धारणा कहते हैं। अन्य तीन परिभाषाओं में क्रमश: एक में बाह्याकाश एवं अंतराकाश का हृदय में चिंतन करने को धारणा कहा गया है। एक में पंचमहाभूतों का बीज मंत्रों के साथ और एक में पांच देवताओं का चिंतन करना धारणा कहा गयाहै।
स्वामी विवेकानन्द- धारणा का अर्थ है मन को देह के भीतर या उसके बाहर किसी स्थान में धारण या स्थापन करना। मन को स्थान विशेष में धारण करने का अर्थ है मन को शरीर के अन्य स्थानों से हटाकर किसी एक विशेष अंश के अनुभव में बलपूर्वक लगाए रखना।

आचार्य श्रीराम शर्मा- धारणा का तात्पर्य उस प्रकार के विश्वासों की धारणा करने से है जिनके द्वारा मनोवांछित स्थिति को प्राप्त किया जा सकता है। भौतिक संपदायें कुपात्रों को भी मिल जाती हैं परंतु आत्मिक संपदाओं में एक भी ऐसी नहीं है जो अनाधिकारी को मिल सके।

स्वामी निरंजनानंद सरस्वती- वह वस्तु या प्रत्यय जिस पर मन दृढ़तापूर्वक आधारित होता है, योग की परंपराओं में धारणा राजयोग का अंतरंग अभ्यास है जो मानसिक अनुशासन का मार्ग है।


स्वामी शिवानंद- विचारों के सामुदायीकरण को धारणा कहते हैं। मानसिक प्रवृत्तियों को केवल एक पदार्थ पर स्थिर और प्रतिष्ठापित करना धारणा है। जिस विधि में मन और मन की प्रवृत्तियाँ एकाग्र कर दी जाती हैं। उनमें चंचलता और विक्षेप नहीं रहता उसे (या उस विधि को) धारणा कहा जाता है।

धारणा के प्रकार- 
धारणा के प्रकारों का वर्णन विभिन्न ग्रंथों एवं विभिन्न विद्वानों ने अलग-अलग प्रकारों का वर्णन किया है-

स्वामी निरंजनानंद सरस्वती के अनुसार - इन्होंने चार प्रकार की धारणा बतायी है जिनके कर्इ उपभेद हैं जो क्रमश: इस प्रकार हैं।  

1. औपनिषदिक धारणा-  इसमें स्वामी जी ने 6 प्रकार की धारणा बतार्इ है- 1. बाह्याकाश 2. अंतराकाश 3. चिदाकाश 4. आज्ञाचक्र धारणा 5. हृदयाकाश धारणा 6. दहराकाश धारणा 

2. लय धारणा- यह दो प्रकार की है- मूलाधार एवं विशुद्धि दृष्टि 2. लोक दृष्टि।  

3. व्योम पंचक धारणा- इसमें पांचों सूक्ष्म आकाशों की अनुभूति अवचेतन तथा उसके परे जगत की होती है। ये पांच हैं: 1. गुणरहित आकाश 2. परमाकाश 3. महाकाश 4. तत्वाकाश 5. सूर्याकाश 

4. नादानुसंधान धारणा- स्थूल से सूक्ष्म आकाशों की अनुभूति अवचेतन तथा उसके परे ध्वनि कंपन की खोज धारणा का संपूर्ण भाग है जिसे नादानुसंधान कहते हैं। (धारणा दर्शन, पृ.423)

वसिष्ठ संहिता में वर्णित धारणा - इसमें पांच तत्वों की धारणा बतायी गयी है-
भूमिरापस्तथा तेजो वायुराकाशमेव च।
एतेशु पंचवर्णानि धारण धारणा स्मृता:।। 4/4

अर्थात पृथ्वी, जल, तेज, वायु एवं आकाश इनमें पांच बीज वर्णों (ल, , , , ह) का चिंतन करना धारणा है। इसे इस प्रकार समझ सकते हैं- महाभूत स्थान बीजाक्षर देवता पृथ्वी पांव से जानु तक लं । ब्रह्म जल जानु से मूलाधार तक वं। विष्णु अग्नि मूलाधार से हृदय तक रं।  रूद्र वायु हृदय से भू्रमध्य तक यं।  महत् आकाश भू्रमध्य से ब्रह्मरंध्र तक हं।  

घेरण्ड संहिता के अनुसार - इसमें पंचतत्वों के आधार पांच प्रकारों की धारणा का उल्लेख है- 1. पार्थिवी धारणा, 2. आम्भसी धारणा, 3. अग्नि धारणा, 4. वायवीय धारणा व 5. आकाशी धारणा। शिव संहिता तथा अन्य कर्इ उपनिषदों में भी पंच तत्व के आधार पर पांच प्रकार की धारणा बतायी गयी है।

धारणा का परिणाम एवं महत्व- 
धारणा से एकाग्रता बढ़ती है और एकाग्रता से अनेक कार्य संपन्न होते हैं क्योंकि हमारी मानसिक ऊर्जा एक बिन्दु पर होती है। आध्यात्मिक एवं लौकिक दोनों प्रकार के कार्यों के लिए धारणा आवश्यक है। स्वामी निरंजनानंद सरस्वती के अनुसार कोर्इ भी छोटा से छोटा कार्य हो, उसे एकाग्रता से करने की आवश्यकता होती है।
बिना एकाग्रता के हम कुछ भी प्राप्त नहीं कर सकते। जबकि एकाग्र मन वाला व्यक्ति कोर्इ भी कार्य अधिक दक्षतापूर्वक कर सकता है।
अत: दैनिक जीवन के साथ ही साथ आध्यात्मिक साधना के लिए धारणा आवश्यक है। मन में प्रच्छन्न रूप में अपरिमित शक्ति है परन्तु यह सभी दिशाओं में बिखरी हुर्इ है जो धारणा से केन्द्रित होती है।

वसिष्ठ संहिता (4/11-15) में धारणा की महत्ता के सन्दर्भ में बताया गया है कि
पृथ्वी तत्व की धारणा से पृथ्वी तत्व पर विजय प्राप्त कर सकते हैं। 
जल तत्व की धारणा से रोगों से छुटकारा मिलता है। 
अग्नि तत्व की धारणा करने वाला अग्नि से नहीं जलता। 
वायु तत्व की धारणा से वायु के समान आकाश विहारी होता है। 
आकाश तत्व में पांच पल की धारणा से जीव मुक्त होगा और एक वर्ष में ही मल-मूल की अल्पता होगी।



मित्रो अब आप समझ गये होंगे कि मैंनें जो ब्लाग में अंतर्मुखी होने की विधियों पर लेख लिखा है वास्तव में वह धारणा का ही अभ्यास है। जैसे त्राटक जो नेत्रों की दृष्टि के द्वारा वाहि से आंतरिक धारणा का अभ्यास। इसी भांति श्वासोश्वास यानि विपासना, शब्द, नाद, अक्षर योग, कर्ण सिद्धि, नासिका, सुगंध,  मंत्र जप, खेचरी इत्यादि।


जय गुरूदेव महाकाली। तेरी लीला निराली॥
शिष्य को दे अमृत। खुद ले जहर की प्याली॥ 


(तथ्य, कथन गूगल से साभार) 



"MMSTM समवैध्यावि ध्यान की वह आधुनिक विधि है। कोई चाहे नास्तिक हो आस्तिक हो, साकार, निराकार कुछ भी हो बस पागल और हठी न हो तो उसको ईश अनुभव होकर रहेगा बस समयावधि कुछ बढ सकती है। आपको प्रतिदिन लगभग 40 मिनट देने होंगे और आपको 1 दिन से लेकर 10 वर्ष का समय लग सकता है। 1 दिन उनके लिये जो सत्वगुणी और ईश भक्त हैं। 10 साल बगदादी जैसे हत्यारे के लिये। वैसे 6 महीने बहुत है किसी आम आदमी के लिये।"  सनातन पुत्र देवीदास विपुल खोजी
ब्लाग :  https://freedhyan.blogspot.com/

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