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Sunday, January 27, 2019

रामकथा के हनुमान : फादर कामिल बुल्के



रामकथा के हनुमान : फादर कामिल बुल्के

 विपुल सेन उर्फ विपुल लखनवी,
(एम . टेक. केमिकल इंजीनियर) वैज्ञानिक एवं कवि
सम्पादक : विज्ञान त्रैमासिक हिन्दी जर्नल “वैज्ञनिक” ISSN 2456-4818
वेब:  vipkavi.info वेब चैनलvipkavi
ब्लाग: freedhyan.blogspot.com,

छ्तीस गढ की ऊषा राजे सक्सेना के लेख के अनुसार डा फामिल बुल्के बेल्जियम में जन्में महान भारत के महान सपूत थे। वहीं कवि केदारनाथ सिंह उन्हे आधुनिक हनुमान कहते हैं। आइये जाने इनके बारे में ।

 
भारत का गौरवपूर्ण इतिहास जिन ग्रंथों में आज भी सुरक्षित है, उनमें रामायण और महाभारत मुख्य हैं। जितना प्राचीन यह देश है उतना ही प्राचीन और विस्तृत इस देश का साहित्य और यहाँ का सांस्कृतिक वैभव है। सहज भाव से समझा जा सकता है कि जिन दो महापुरुषों के जीवन ने भारत के इतिहास, संस्कृति, साहित्य और उसकी परम्पराओं को सबसे अधिक प्रभावित किया है, वे थे मर्यादा पुरुषोत्तम राम और योगेश्वर कृष्ण।

 
बेल्जियम की धरती पर पैदा होनेवाला कोई शख्स हिंदी को अपनी मां माने, भगवान राम को अपना आदर्श पुरुष.... यह सहसा विश्वास कर पाना बहुत आसान नहीं है। लेकिन हकीकत है फादर डॉ. कामिल बुल्के का। 17 अगस्त 1982 में एम्स दिल्ली में उनकी मौत के बाद दिल्ली में ही उन्हें दफनाया गया था।

 
फादर बुल्के को नजदीक से देखने, जानने, समझने वाले रांची यूनिवर्सिटी के पूर्व प्रोवीसी प्रो वीपी शरण तब संत जेवियर कॉलेज में लेक्चरर थे। प्रो. शरण बताते हैं कि फादर बुल्के को हिंदी बहुत प्यारी थी। वो बोलते थे कि हिंदी मेरी मां है। प्रो. शरण बताते हैं कि फादर बुल्के को अंग्रेजी बोलते उन्होंने कभी नहीं देखा। इसके विपरीत यदि कोई उनके सामने अंग्रेजी बोलता था, तो वे नाराज हो जाते थे। अव्वल तो जवाब ही नहीं देते थे, यदि देते भी थे, तो हिंदी में उसका जवाब देते थे।


फादर बुल्के यूं तो सिविल इंजीनियर की पढ़ाई कर भारत आए थे, पर यहां आकर हिन्दी भाषा व साहित्य से उनको प्यार हो गया। उन्होंने रामकथा, उदभव और विकास विषय पर डिलीट की थिसिस लिखी थी, जिसे बाद में पुस्तक के रूप में छपवायी। इस पुस्तक में रामायण का बड़ा प्रैक्टिकल विवरण है, जो किसी के दिल को छू जाए। तुलसी दास पर लिखा उनका आर्टिकल मेरे तुलसी आज भी भगवान राम और तुलसी जी के प्रति उनकी अगाध श्रद्धा का जीता-जागता प्रमाण है।


फादर बुल्के की कोई प्रशंसा करें, यह उनको पसंद नहीं था। पदमश्री सम्मान के बाद जेवियर्स कॉलेज में समारोह रखा गया। समारोह में अपनी तारीफ सुनने के बाद जब उनके संबोधन का समय आया, तो उन्होंने एक लाइन में यह कहकर अपना वक्तव्य समाप्त कर दिया कि खाना हमारा इंतजार कर रहा है, चलिए, चलकर खाना खाया जाए।


फादर देखने में बिल्कुल संत जैसे लगते थे। चेहरे पर दिव्य आभा व ओज झलकता था। लगभग 6 फीट की हाइट वाले फादर हमेशा सफेद चोंगा पहनते थे। उनकी लंबी सफेद दाढी संतों जैसी दिखती थी। धीरे-धीरे चलना, धीरे-धीरे बोलना उनका स्वभाव था। वे मनरेसा हाऊस में रहते थे। वहां अक्सर वे बेत की कुर्सी पर बैठकर पढते रहते थे। अध्ययन के प्रति उनका गहरा लगाव था। उनकी लिखी हिन्दी-अंग्रेजी डिक्शनरी आज भी स्टूडेंट्स के बीच काफी लोकप्रिय है। अपने जीवन काल में हर साल फादर उसे रिवाइज करते थे। हर बार नए शब्दों को जोड़ते थे। इस काम में उनका साथ देते थे हिंदी के हेड डॉ. दिनेश्वर प्रसाद।

 
1950 -1977 तक कॉलेज के हिंदी-संस्कृत के विभागाध्यक्ष रहे थे
फादर कामिल बुल्के का जन्म बेल्जियम के फ्लैंडस में एक सितंबर 1909 को हुआ था। अपने जीवन में ईश्वरीय बुलाहट को सुन कामिल बुल्के 1930 में येसु धर्मसमाज में प्रवेश किए। 1932 में जर्मनी के जेसुईट कॉलेज में दर्शनशास्त्र में एमए किया। 1935 में वह भारत आए। 1939 में कर्सियोंग कॉलेज से उन्होंने कर्सियोंग से ईशशास्त्र किया। 1941 में पवित्र पुरोहिताभिषेक संस्कार लिया। 1947 में एमए और डी फिल इलाहाबाद विश्वविद्यालय से किया। 1951 में उन्होंने भारत की नागरिकता प्राप्त की। 1950-1977 तक 27 साल संत जेवियर कॉलेज के हिंदी-संस्कृत के विभागाध्यक्ष रहे। 1955 में उन्होंने ए टेक्निकल इंग्लिश-हिंदी ग्लोसरी प्रकाशन किया। 1968 में लोकप्रिय कोश अंग्रेजी-हिंदी तैयार किया। 1973 में बेल्जियम की राय अकादमी के सदस्य बने, 1974 में उनकी हिंदी सेवाओं के लिए पद्मभूषण से सम्मानित किया गया। 17 अगस्त 1982 को फादर बुल्के का निधन हो गया। 13 मार्च 2018 को उनके पार्थिव शरीर का अवशेष दिल्ली से रांची लाया गया14 अप्रैल को संत जेवियर काॅलेज परिसर में पवित्र मिस्सा आराधना हुई। इसके बाद संत जेवियर कॉलेज परिसर में उनका पवित्र पार्थिव अवशेष और पवित्र मिट्‌टी को स्थापित किया गया

श्रीराम को माध्यम बनाकर रचा गया भारतीय साहित्य तो विशाल है ही, विदेशी साहित्य का भी अलग महत्त्व है। उस सबका उपजीव्य है महर्षि वाल्मीकि द्वारा रचित रामायण। इस प्रकार रामकथा भारत ही नहीं, विश्व साहित्य की धरोहर है। यही कारण है कि रामायण और रामचरित की गणना विश्व स्तर पर साहित्य के अतुल्य सारस्वत-गौरव के रूप में की जाती है। रामकथा का विस्तार रामायण से लेकर महाभारत तक, अचंभित कर देने वाले वैशिष्ट्य के साथ विद्यमान है। बौद्ध साहित्य में भी रामकथा का वर्णन मिलता है। विविध भारतीय भाषाओं यथा मराठी, तेलगू, हिंदी, बँगला, उड़िया आदि में भी रामकथा लिखी गई है। सर्व विदित है कि गोस्वामी तुलसीदास रचित रामचरितमानस का विशेष स्थान है। श्री विद्यानंद सरस्वती ठीक ही लिखते हैं – ” रामकथा की लोकप्रियता का श्रेय, उतना उसके लेखकों को नहीं, जितना स्वयं राम को है। राम का नाम प्रत्येक भारतीय के मन में ओत-प्रोत है।” राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त जी ने तो जैसे घोषित ही कर दिया – राम तुम्हारा वृत्त स्वयं ही काव्य है कोई कवि बन जाए सहज सम्भाव्य है। 


विदेशों में भी रामकथा के लेखक और अध्येता रहे हैं और अब भी हैं, किन्तु उनमें जिस राममय जीवन के धनी विद्वान का नाम अत्यंत सम्मानपूर्वक लिया जाता है, वे हैं फादर कामिल बुल्के, जिनके लिए राम के प्रभाव से ही, रामकथा का लेखक होना भी जैसे सहज सम्भाव्य था। उन्होंने उससे भी आगे असंभव को भी संभव कर दिखाया। क्योंकि पुराने समय में भारत यात्रा पर आये विश्व के अनेक विद्वानों में फादर कामिल बुल्के ही ऐसे थे जो भारत आए तो यहीं के हो गए और हिन्दी के लिए वह काम कर गए, जो शायद तब कोई भारतीय भी नहीं कर सकता था। डॉ कामिल बुल्के बेल्जियम से आये और भारत में कार्य करना उन्हें इतना प्रेरणादायक लगा कि वे भारत में ही बस गए। स्मरणीय है कि आरंभिक जीवन में उन्होंने दार्जिलिंग के एक स्कूल में गणित पढ़ाते हुए खड़ी बोली, ब्रज और अवधी सीखी। सन् 1938 में सीतागढ़, हजारीबाग में पंडित बदरीदत्त शास्त्री से हिंदी और संस्कृत सीखी। सन् 1940 में प्रयाग से विशारद की परीक्षा पास की और फिर सन् 1942-44 में उन्होंने कोलकाता विश्वविद्यालय से संस्कृत में एम.ए किया।


डॉ. बुल्के ने लिखा है,”मैं जब 1935 में भारत आया तो अचंभित और दुखी हुआ। मैंने महसूस किया कि यहाँ पर बहुत से पढ़े-लिखे लोग भी अपनी सांस्कृतिक परंपराओं के प्रति जागरूक नहीं हैं। यह भी देखा कि लोग अँगरेजी बोलकर गर्व का अनुभव करते हैं। तब मैंने निश्चय किया कि आम लोगों की इस भाषा में महारत हासिल करूँगा।” उन्होंने कलकत्ता विश्वविद्यालय से संस्कृत में मास्टर्स डिग्री हासिल की।भारतीय संस्कृति एवं साहित्य के अध्ययन की गहनता को और अधिक गहनतम करने के लिए उन्होंने इलाहाबाद विश्वविद्यालय से सन् 1949 में ‘रामकथा’ पर डी.फिल. किया। बाद में तुलसी दास के रामचरित मानस का गहन अध्ययन कर, सन् 1950 में उन्होंने ‘राम कथा की उत्पत्ति और विकास’ पर पी.एचडी. की।

 
डॉ. कामिल बुल्के कभी-कभी धार्मिक ग्रंथों का गहराई से अध्ययन के लिए दार्जीलिंग में रुकते थे। उनके पास दर्शन का गहरा ज्ञान तो था, लेकिन वे भारतीय दर्शन और साहित्य का व्यवस्थित अध्ययन करना चाहते थे। इसी दौरान उनका साक्षात्कार तुलसीदास की रामचरित मानस से हुआ। रामचरित मानस ने उन्हें बहुत अधिक प्रभावित किया। उन्होंने इसका गहराई से अध्ययन किया। इस ग्रंथ की अनिर्वचनीय काव्यात्मक उत्कृष्टता के कारण वे इस ग्रंथ की पूजा करने लगे। उन्हें इसमें नैतिक और व्यावहारिक बातों का चित्ताकर्षक समन्वय देखने को मिला। उनकी यह थीसिस भारत सहित पूरे विश्व में प्रकाशित हुई जिसके बाद सारी दुनिया बुल्के को जानने लगी।

 
जिस समय फादर बुल्के इलाहाबाद में शोध कर रहे थे, उस समय यह नियम था कि सभी विषयों में शोध प्रबंध केवल अँगरेजी में ही प्रस्तुत किए जा सकते हैं। फादर बुल्के के लिए अँगरेजी में यह कार्य अधिक आसान होता पर यह उनके हिन्दी स्वाभिमान के खिलाफ था। उन्होंने आग्रह किया कि उन्हें हिन्दी में शोध प्रबंध प्रस्तुत करने की अनुमति दी जाए। इसके लिए शोध संबंधी नियमावली में परिवर्तन किया गया। वे ‘यामिनी’ और ‘दीप शिखा’ की रचयिता कवयित्री ‘महादेवी वर्मा’ का इसीलिए विशेष आदर करते थे क्योंकि वे अंग्रेजी में प्रवीण होते हुए भी, उनसे सदा अपनी मातृ भाषा में संवाद करती थीं। महादेवी वर्मा पर एक संस्मरण लिखते हुए डा. कामिल बुल्के एक जगह कहते हैं, ‘‘अंग्रेजी भाषा के कारण ही राजनीतिक परतंत्रता के साथ भारतीयों में मानसिक दासता भी आ गई है।’

 
प्राचीन भारत के समान ही आधुनिक यूरोप ज्ञान सम्बन्धी खोज के क्षेत्र में अग्रसर रहा है। यूरोपीय विद्वान ज्ञान तथा विज्ञान के रहस्यों के उद्घाटन में निरंतर यत्नशील रहे हैं। उनकी इस खोज क्षेत्र यूरोप तक ही सीमित नहीं रहा बल्कि संसार के समस्त भागों पर उनकी दृष्टि पड़ी। इस महत्त्वपूर्ण ग्रंथ के लेखक फादर बुल्के को हम इन्हीं विद्याव्यसनी यूरोपीय अन्वेषकों की श्रेणी में रख सकते हैं। भारतीय विचारधारा समझने के लिए इन्होंने संस्कृत तथा हिन्दी भाषा और साहित्य का पूर्ण परिश्रम के साथ अध्ययन किया। उनकी रामकथा की बड़ी विशिष्ट यह है कि उन्होंने रामकथा से सम्बन्ध रखने वाली किसी भी सामग्री को छोड़ा नहीं है।


डॉ. कामिल बुल्के का ग्रन्थ ग्रंथ चार भागों में विभक्त है। प्रथम भाग में ‘प्राचीन रामकथा साहित्य’ का विवेचन है। इसके अन्तर्गत पाँच अध्यायों में वैदिक साहित्य और रामकथा, वाल्मीकिकृत रामायण, महाभारत की रामकथा, बौद्ध रामकथा तथा जैन रामकथा संबंधी सामग्री की पूर्ण परीक्षा की गई है। द्वितीय भाग का संबंध रामकथा की उत्पत्ति से है और इसके चार अध्यायों में दशरथ जातक की समस्या, रामकथा के मूल स्रोत के सम्बन्ध में विद्वानों के मत, प्रचलित वाल्मीकीय रामायण के मुख्य प्रक्षेपों तथा रामकथा के प्रारंभिक विकास पर विचार किया गया है। ग्रंथ के तृतीय भाग में ‘अर्वाचीन रामकथा साहित्य का सिंहावलोकन’ है। इसमें भी चार अध्याय हैं। पहले और दूसरे अध्याय में संस्कृत के धार्मिक तथा ललित साहित्य में पाई जाने वाली रामकथा सम्बन्धी सामग्री की परीक्षा है। तीसरे अध्याय में आधुनिक भारतीय भाषाओं के रामकथा सम्बन्धी साहित्य का विवेचन है। इससे हिंदी के अतिरिक्त तमिल, तेलुगु, मलायालम, कन्नड़, बंगाली, काश्मीरी, सिंहली आदि समस्त भाषाओं के साहित्य की छान-बीन की गई है। चौथे अध्याय में विदेश में पाये जाने वाले रामकथा के रूप में सार दिया गया है और इस सम्बन्ध में तिब्बत, खोतान, हिंदेशिया, हिंदचीन, श्याम, ब्रह्मदेश आदि में उपलब्ध सामग्री का पूर्ण परिचय एक ही स्थान पर मिल जाता है। अंतिम तथा चतुर्थ भाग में रामकथा सम्बन्धी एक-एक घटना को लेकर उसका पृथक-पृथक विकास दिखलाया गया है। घटनाएँ कांडक्रम से ली गई हैं अतः यह भाग सात कांडों के अनुसार सात अध्यायों में विभक्त है। उपसंगार में रामकथा की व्यापकता, विभिन्न रामकथाओं की मौलिक एकता, प्रक्षिप्त सामग्री की सामान्य विशेषताएँ, विविध प्रभाव तथा विकास का सिंहावलोकन है।

 
डॉ. धीरेन्द्र शर्मा के मतानुसार ” यह ग्रंथ वास्तव में रामकथा सम्बन्धी समस्त सामग्री का विश्वकोष कहा जा सकता है। सामग्री की पूर्णता के अतिरिक्त विद्वान लेखक ने अन्य विद्वानों के मत की यथास्थान परीक्षा की है तथा कथा के विकास के सम्बन्ध में अपना तर्कपूर्ण मत भी दिया है। वास्तव में यह खोजपूर्ण रचना अपने ढंग की पहली ही है और अनूठी भी है। हिन्दी क्या किसी भी यूरोपीय अथवा भारतीय भाषा में इस प्रकार का कोई दूसरा अध्ययन उपलब्ध नहीं है। अतः हिंदी में इस लोकप्रिय विषय पर ऐसे वैज्ञानिक अन्वेषण के प्रस्तुत करने के लिए विद्वान लेखक बधाई के पात्र हैं।” 


उल्लेखनीय है कि रामकथा की अद्वितीय व्यापकता हमारे सांस्कृतिक इतिहास का एक अत्यन्त महत्त्वपूर्ण तत्त्व है। इसे डॉ. बुल्के ने गहराई से समझा ही नहीं, आत्मसात भी किया। उन्होंने स्वयं लिखा – ” राम-भक्ति के पल्लवित होने के साथ-साथ रामकथा का विकास अपनी अंतिम परिणति पर पहुँच गया था। अतः पन्द्रहवीं शताब्दी के बाद के संस्कृत साहित्य का पूरा निरूपण अनावश्यक था। इसी प्रकार आधुनिक आर्य भाषाओं का रामकथा साहित्य प्रस्तुत निबन्ध के दृष्टिकोण से अपेक्षाकृत कम महत्त्व रखता है। वास्तव में यह साहित्य प्रधानता रामकथा न होकर राम साहित्य सिद्ध होता है। इसका ‘विशेषकर हिन्दी राम-साहित्य का) समुचित अध्ययन राम-भक्ति की उत्पत्ति और विकास के पूरे विश्लेषण के पश्चात् ही संभव हो सकेगा।”

 
डा. कामिल बुल्के लैटिन, ग्रीक, फ्रेंच , फ्लेमिश , अंग्रेजी, हिंदी, संस्कृत जैसी विश्व की कई भाषाओं के ज्ञाता थे। गहन खोज, शोध, अध्ययन और मीमांसा आदि उनकी विशेषताएं थीं। डा. कामिल बुल्के एक लंबे समय तक रांची के सेंट जेवियर्स कालेज में संस्कृत तथा हिंदी के विभागाध्यक्ष रहे। डा.बुल्के का अपने समय के हिंदी भाषा के सभी चोटी के विद्वानों से संपर्क था। डा. धर्मवीर भारती, डा. जगदीश गुप्त, डा. रामस्वरूप, डा. रघुवंश, महादेवी वर्मा आदि से उनका विचार-विमर्श और संवाद होता रहता था। महादेवी वर्मा को वे बहन मानते थे। बुल्के जी अपने समय के प्रति सजग एवं सचेत थे। गोस्वामी तुलसीदास की राम भक्ति के सात्विक और आध्यात्मिक आयाम के प्रति उनके मन में बहुत आदर था। उनका कहना था, ‘‘जब मैं अपने जीवन पर विचार करता हूं, तो मुझे लगता है ईसा, हिंदी और तुलसीदास- ये वास्तव में मेरी साधना के तीन प्रमुख घटक हैं और मेरे लिए इन तीन तत्वों में कोई विरोध नहीं है, बल्कि गहरा संबंध है। जहां तक विद्या तथा आस्था के पारस्परिक संबंध का प्रश्न है, तो मैं उन तीनों में कोई विरोध नहीं पाता। मैं तो समझता हूं कि भौतिकतावाद, मानव जीवन की समस्या का हल करने में असमर्थ है। मैं यह भी मानता हूं कि ‘धार्मिक विश्वास’ तर्क-वितर्क का विषय नहीं है।’


डा. कामिल बुल्के का कहना था कि कला और साहित्य मानव जाति की गहन उपलब्धियां हैं, मनुष्य की उच्च कल्पनाएं तथा गहरी अनुभूतियां उनमें अभिव्यक्त होती हैं। सन् 1950 में उन्होंने खुद को और अधिक परिमार्जित एवं परिष्कृत करने के लिए इलाहाबाद विश्वविद्यालय से ‘राम कथा उत्पत्ति और विकास’ पर शोध किया। 600 पृष्ठों में लिखा गया यह शोधग्रंथ चार भागों में विभक्त है। हिंदी भाषा-साहित्य पर काम करते-करते हिंदी भाषा की शब्द-संपदा से डा. कामिल बुल्के कुछ इस तरह प्रभावित हुए कि उन्होंने एक शब्दकोश ही बना डाला। इस शब्दकोश का इतना स्वागत हुआ कि बाद में उन्होंने अथक परिश्रम कर एक ‘संपूर्ण अंग्रेजी-हिंदी’ कोश बनाया जो आज भी हिंदी भाषा का प्रामाणिक शब्दकोश माना जाता है।


डा. कामिल बुल्के का कहना था कि कला और साहित्य मानव जाति की गहन उपलब्धियां हैं, मनुष्य की उच्च कल्पनाएं तथा गहरी अनुभूतियां उनमें अभिव्यक्त होती हैं- इसलिए आस्तिक भी उन्हें मानव जीवन के उद्देश्य से अलग नहीं कर सकता। डा. कामिल बुल्के मानते हैं कि सृष्टि, कला और साहित्य का लक्ष्य सौंदर्य है, किंतु यह सीमित नहीं बल्कि अनंत है।”
तमेव भान्तमनुभाति सर्वम् तस्य भाषा सर्वमिदमं विभाति’


उन्होंने कठोपनिषद से उपरोक्त संदर्भ लेते हुए अपनी जीवनी में एक स्थान पर लिखा है, ‘‘मनुष्य के हृदय में उस अनंत सौंदर्य की अभिलाषा बनी रहती है और इस कारण वह उसके प्रतिबिम्ब के प्रति, सीमित सौंदर्य के प्रति अनिवार्य रूप से आकर्षित हो जाता है। कलाकार तथा साहित्यकार को मनुष्य की इस स्वाभाविक सौंदर्य-पिपासा को बनाए रखना तथा इसका उदारीकरण करना चाहिए, उसी में उसकी कला की सार्थकता है।’’ इस कसौटी पर तुलसीदास का साहित्य खरा उतरता है। तुलसीदास मानस को ‘स्वांतः सुखाय’ रघुनाथ गाथा मानते हैं किंतु ‘कला, कला के लिए’ आदि कला की उद्देश्यहीनता विषयक सिद्धांत उनके मानस से कोसों दूर हैं। उनकी धारणा है कि
‘‘कीरति भनति भूति भलि सोई|  सुरसरि सम सब कर हित होई’’



कामिल बुल्के का कहना था, ‘‘तुलसीदास के कारण मैंने वर्षों तक राम कथा साहित्य का अध्ययन किया है। लोक संग्रह उस महान् साहित्यिक परंपरा की एक प्रमुख विशेषता है और उस दृष्टि से तुलसीदास रामकथा-परंपरा के सर्वोत्तम प्रतिनिधि हैं। उन्होंने रामचरित के माध्यम से जिस भक्ति-मार्ग का प्रतिपादन किया है, उसमें नैतिकता तथा भक्ति के अनिवार्य संबंध पर बहुत बल दिया है।’’ अपनी और तुलसी की तुलना करते हुए डा. कामिल लिखते हैं, ‘‘तुलसी के इष्देव राम हैं और मैं ईसा को अपना इष्देव मानता हूं, फिर दोनों के भक्तिभाव में बहुत कुछ समानता पाता हूं। अंतर अवश्य है- इसका एक कारण यह भी है कि मुझमें तुलसी की चातक टेक का अभाव है।’’


 “वस्तुतः देखा जाए तो डा. कामिल बुल्के में भी तुलसी जैसा ही भक्ति-भाव है, प्रेम है, विनती है, समर्पण है। दोनों एक ही भक्ति-भाव और एक ही भातृ-भाव से जुड़े हए हैं। डा. कामिल बुल्के का कहना है कि मनुष्य ईश्वर का प्रतिरूप है। यदि हम मनुष्य को प्यार नहीं कर सकते तो हम ईश्वर को भी प्यार नहीं कर सकते हैं। हिंदी भाषा और साहित्य सदा डा. बुल्के का आभारी रहेगा।

(तथ्य कथन गूगल साइट्स इत्यादि से साभार)


"MMSTM समवैध्यावि ध्यान की वह आधुनिक विधि है। कोई चाहे नास्तिक हो आस्तिक हो, साकार, निराकार कुछ भी हो बस पागल और हठी न हो तो उसको ईश अनुभव होकर रहेगा बस समयावधि कुछ बढ सकती है। आपको प्रतिदिन लगभग 40 मिनट देने होंगे और आपको 1 दिन से लेकर 10 वर्ष का समय लग सकता है। 1 दिन उनके लिये जो सत्वगुणी और ईश भक्त हैं। 10 साल बगदादी जैसे हत्यारे के लिये। वैसे 6 महीने बहुत है किसी आम आदमी के लिये।"  सनातन पुत्र देवीदास विपुल खोजी
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