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Thursday, May 3, 2018

क्या होते हैं बीज मंत्र



क्या होते हैं बीज मंत्र


विपुल सेन उर्फ विपुल लखनवी,
(एम . टेक. केमिकल इंजीनियर) वैज्ञानिक एवं कवि
सम्पादक : विज्ञान त्रैमासिक हिन्दी जर्नल वैज्ञनिक ISSN 2456-4818
 वेब:   vipkavi.info , वेब चैनल:  vipkavi
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परमपिता परमेश्वर की कृपा से इस संसार में हर जीव की उत्पत्ति बीज के द्वारा ही होती है चाहे वह पेड़-पौधे हो, कीडे – मकोडे, जानवर या फिर मनुष्य योनी | चित्त में भी कर्मफल बीज के रूप संचित होते हैं। यानी बीज को जीवन की उत्पत्ति का कारक माना गया है | बीज मंत्र भी कुछ इस तरह ही कार्य करते है | हिन्दू धरम में सभी देवी-देवताओं के सम्पूर्ण मन्त्रों के प्रतिनिधित्व करने वाले शब्द को बीज मंत्र कहा गया है |

 वस्तुतः बीजमंत्रों के अक्षर उनकी गूढ़ शक्तियों के संकेत होते हैं। इनमें से प्रत्येक की स्वतंत्र एवं दिव्य शक्ति होती है। और यह समग्र शक्ति मिलकर समवेत रूप में किसी एक देवता के स्वरूप का संकेत देती है। जैसे बरगद के बीज को बोने और सींचने के बाद वह वट वृक्ष के रूप में प्रकट हो जाता है, उसी प्रकार बीजमंत्र भी जप एवं अनुष्ठान के बाद अपने देवता का साक्षात्कार करा देता है।



योग शास्त्र के अनुसार मनुष्य के शरीर में उपस्थित षट चक्रों की पंखुडियों पर भी बीज मंत्र ही अनाहत होते हैं। सभी वैदिक मंत्रो का सार बीज मंत्रो को माना गया है | बीज मंत्रों को सभी मन्त्रों के प्राण के रूप में जाना जा सकता है जिनके प्रयोग से मन्त्रों में प्रबलता और अधिक हो जाती है |



विकास की दृष्टि से "संस्कृत" का अर्थ है - संस् (सांस् या श्वासों) से बनी (कृत्)। आध्यात्म एवं सम्प्रक-विकास की दृष्टि से "संस्कृत" का अर्थ है - स्वयं से कृत् या जो आरम्भिक लोगों को स्वयं ध्यान लगाने एवं परसपर सम्प्रक से आ गई। कुछ लोग संस्कृत को एक संस्कार (सांसों का कार्य) भी मानते हैं।



किंवदंती के अनुसार संस्कृत भाषा पहले अव्याकृत थी, अर्थात उसकी प्रकृति एवं प्रत्ययादि का विश्लिष्ट विवेचन नहीं हुआ था। देवों द्वारा प्रार्थना करने पर देवराज इंद्र ने प्रकृति, प्रत्यय आदि के विश्लेषण विवेचन का उपायात्मक विधान प्रस्तुत किया। इसी "संस्कार" विधान के कारण भारत की प्राचीनतम आर्यभाषा का नाम "संस्कृत" पड़ा। ऋक्संहिताकालीन "साधुभाषा" तथा 'ब्राह्मण', 'आरण्यक' और 'दशोपनिषद्' नामक ग्रंथों की साहित्यिक "वैदिक भाषा" का अनंतर विकसित स्वरूप ही "लौकिक संस्कृत" या "पाणिनीय संस्कृत" कहलाया। इसी भाषा को "संस्कृत","संस्कृत भाषा" या "साहित्यिक संस्कृत" नामों से जाना जाता है।



संस्कृत भाषा को देवभाषा भाषा भी कहा जाता है और इसकी लिपि को देवनागरी। भारतीय दर्शन और शास्त्रों के अनुसार संस्कृत का जन्म देवों के मुख से हुआ है जो वास्तव में एक प्रतीक ही है और बताता है  कि इसका जन्म वाहिक नही अपितु आंतरिक ज्ञान से हुआ है। जब हमारे मनीषियों ने शरीर के विभिन्न ऊर्जा केंद्रो अथवा चक्रों पर ध्यान लगाया तो उनको जो ध्वनियां सुनाई दी उसे लिपिबद्ध्य किया गया। जिससे संस्कृत भाषा का जन्म हुआ अत: आधुनिक विज्ञान कहता है कि कम्प्यूटर प्रोगामिंग के लिये संस्कृत सम्पूर्ण भाषा है। यानि यह एक शुद्द गणात्मक और गणितिय व्याकरण से परिपूर्ण भाषा है।



मूलाधार चक्र :  अनाहत ध्वनि: वं, शं; षं; सं; लं वर्णों की अनाहत ध्वनि गूंजायमान रहती है। लं बीच में होता है। अत: ॐ लं लम्बोदराय नम:  जाप कर इसको उद्देलित किया जा सकता है। जहां मां काली का वास है जो मां दुर्गा का रूप है और कुंडलनी शक्ति है। देखें दुर्गा सप्तशती की आरती (मूलाधार निवासनी यह पर सिद्दी प्रदे) और सिद्धी कुंजिका स्रोत्र जहां विभिन्न बीज मंत्र दिय हैं।



स्वाधिष्ठान चक्र : यह चक्र नाभि के नीचे योनी के कुछ ऊपर होता है। त्रिक चक्र (अंडाशय/पुरःस्थ ग्रंथि), जल तत्व की प्रधानता। बं, भं, मं, थं, रं, लं, वं वर्णों की अनाहत ध्वनि गूंजायमान रहती है। यहां बम बम महादेव बोला जा सकता  है। क्योकि बं बीच में होता है। इस मंत्र को सिद्ध  करने  से  आप  जल  पर नियंत्रण  कर सकते  हैं।



मणिपूर, सौर स्नायुजाल चक्र (नाभि क्षेत्र)। जहां डं, ढं, णं, तं, दं, धं, नं, पं, यं, फं, रं वर्णों की अनाहत ध्वनि गूंजायमान रहती है। यहां अग्नि तत्व रं माध्य में है। अत: ॐ रं रामाय नम: या रं रमाय नम: जाप किया जा सकता है।



अनाहत यानी ह्रदय चक्र (ह्रदय क्षेत्र)। अन आहत यानी बिना चोट की आवाज। वायु तत्व जहां कं, खं, , घं, ड़ं, चं, छं, जं, झं, त्रं, टं, ठं, यं वर्णों की अनाहत ध्वनि गूंजायमान रहती है। यहां यम है। अतं इसका मंत्र ॐ यं यामाय नम: हो सकता है। इसको सिद्ध करने पर आप निराहार जी सकते हैं।



विशुद् / कंठ चक्र (कंठ और गर्दन क्षेत्र)। यहां हं है यानि आकाश तत्व अब यहां तक हमारे शरीर के पांचो तत्व पूरे हो गये। क्योकि इसके आगे की यात्रा शरीर के बाह्र और भीतर दोनो तर है। जहां अ, , , , , , , ज्ञ, लृ; , , , अं; अः ह वर्णों की अनाहत ध्वनि गूंजायमान रहती है।यहां पर ॐ हं हनुमंतये नम: मंत्र जप किया जा सकता है। यह  आपको  आकाशिय  शक्तियां  देता  है।



आज्ञा, ललाट या ध्यान या तृतीय नेत्र । जहां स्त्रियां बिन्दी लगाती हैं। जहां हं, क्षं, ॐ वर्णों की अनाहत ध्वनि गूंजायमान रहती है। यहां ॐ बीच में हैं। अत: ॐ का जाप लाभकारी होता है।



सहस्रार, शीर्ष चक्र (सिर का शिखर; एक नवजात शिशु के सिर का 'मुलायम स्थान (तालू)। जहां दल के वर्णों की अनाहत ध्वनि गूंजायमान रहती है।


           अब सीधी सी बात आप समझ गये होंगे यदि आप बीज मंत्र का जाप करते हैं तो सीधे सीधे चक्रों की पंखुडियों को उद्देलित कर रहे हैं। और यहीं से सिद्दियों का जन्म होता है। 


          बीज मंत्र कुछ इस प्रकार होते है जो अलग-अलग देवी-देवताओं के प्रतिनिधत्व करते है

 , क्रीं, श्रीं, ह्रौं, ह्रीं, ऐं, गं, फ्रौं, दं, भ्रं, धूं, ह्लीं, त्रीं, क्ष्रौं, धं, हं, रां, यं, क्षं, तं , 
ये दिखने में छोटे से बीज मंत्र अपने अन्दर बहुत से शब्दों को समाये हुए है | उपरोक्त सभी बीज मंत्र अत्यंत कल्याणकारी है | इन्ही के साथ कुछ और बीज ध्वनियों की खोज विज्ञानी ऋषि मार्कण्डेय ने की जो श्रीमददुर्गा सप्तशती में देखी जा सकती हैं। अं कं चं टं तं पं यं वं शं हं, ठां, ठी ठूं,  इत्यादि। 

           बीज मंत्र हमें हर प्रकार की बीमारी, किसी भी प्रकार के भय, किसी भी प्रकार की चिंता और हर तरह की मोह-माया से मुक्त करता हैं। अगर हम किसी प्रकार की बाधा हेतु, बाधा शांति हेतु, विपत्ति विनाश हेतु, भय या पाप से मुक्त होना चाहते है तो बीज मंत्र का जाप करना चाहिए। 
ह्रीं (मायाबीज) इस मायाबीज में ह् = शिव, र् = प्रकृति, नाद = विश्वमाता एवं बिंदु = दुखहरण है। इस प्रकार इस मायाबीज का अर्थ है ‘शिवयुक्त जननी आद्याशक्ति, मेरे दुखों को दूर करे।’


श्रीं (श्रीबीज या लक्ष्मीबीज) इस लक्ष्मीबीज में श् = महालक्ष्मी, र् = धन संपत्ति , ई = महामाया, नाद = विश्वमाता एवं बिंदु = दुखहरण है। इस प्रकार इस श्रीबीज का अर्थ है धनसंपत्ति की अधिष्ठात्री जगज्जननी मां लक्ष्मी मेरे दुख दूर करें।’ 
                

ऐं (वागभवबीज या सारस्वत बीज) इस वाग्भवबीज में- ऐं = सरस्वती, नाद = जगन्माता और बिंदु = दुखहरण है। इस प्रकार इस बीज का अर्थ है- ‘जगन्माता सरस्वती मेरे दुख दूर करें।’ 
                  

क्लीं (कामबीज या कृष्णबीज) इस कामबीज में क = योगस्त या श्रीकृष्ण, ल = दिव्यतेज, ई = योगीश्वरी या योगेश्वर एवं बिंदु = दुखहरण। इस प्रकार इस कामबीज का अर्थ है- ‘राजराजेश्वरी योगमाया मेरे दुख दूर करें।’ और इसी कृष्णबीज का अर्थ है योगेश्वर श्रीकृष्ण मेरे दुख दूर करें।
                            

क्रीं (कालीबीज या कर्पूरबीज) इस बीज में- क् = काली, र् = प्रकृति, ई = महामाया, नाद = विश्वमाता एवं बिंदु = दुखहरण है। इस प्रकार इस बीज का अर्थ है ‘जगन्माता महाकाली मेरे दुख दूर करें।’ 
                
दुं (दुर्गाबीज) इस दुर्गाबीज में द् = दुर्गतिनाशिनी दुर्गा, ¬ = सुरक्षा एवं बिंदु = दुखहरण है। इस प्रकार इसका अर्थ 1. है ‘दुर्गतिनाशिनी दुर्गा मेरी रक्षा करें और मेरे दुख दूर करें।’ 
                         

स्त्रीं (वधूबीज या ताराबीज) इस वधूबीज में स् = दुर्गा, त् = तारा, र् = प्रकृति, ई = महामाया, नाद = विश्वमाता एवं बिंदु = दुखहरण है। इस प्रकार इस बीज का अर्थ है ‘जगन्माता महामाया तारा मेरे दुख दूर करें।’ 
हौं (प्रासादबीज या शिवबीज) इस प्रासादबीज में ह् = शिव, औ = सदाशिव एवं बिंदु = दुखहरण है। इस प्रकार इस बीज का अर्थ है ‘भगवान् शिव एवं सदाशिव मेरे दुखों को दूर करें।’ 
                              

हूं (वर्मबीज या कूर्चबीज) इस बीज में ह् = शिव, ¬ = भैरव, नाद = सर्वोत्कृष्ट एवं बिंदु = दुखहरण है। इस प्रकार इस बीज का अर्थ है ‘असुर भयंकर एवं सर्वश्रेष्ठ भगवान शिव मेरे दुख दूर करें।’ 
                                                      
हं (हनुमद्बीज) इस बीज में ह् = अनुमान, अ् = संकटमोचन एवं बिंदु = दुखहरण है। इस प्रकार इस बीज का अर्थ हैसंकटमोचन हनुमान मेरे दुख दूर करें।’ 
                     

गं (गणपति बीज) इस बीज में ग् = गणेश, अ् = विघ्ननाशक एवं बिंदु = दुखहरण है। इस प्रकार इस बीज का अर्थ है ‘‘विघ्ननाशक श्रीगणेश मेरे दुख दूर करें।’’ 
                           

क्ष्रौं (नृसिंहबीज) इस बीज में क्ष् = नृसिंह, र् = ब्रह्म, औ = दिव्यतेजस्वी, एवं बिंदु = दुखहरण है। इस प्रकार इस बीज का अर्थ है ‘दिव्यतेजस्वी ब्रह्म स्वरूप श्री नृसिंह मेरे दुख दूर करें।’ 
                       



इसी प्रकार नव ग्रहों के बीज मंत्र जैसे

सूर्यॐ ह्रां ह्रीं ह्रौं स: सूर्याय नमः
चंद्रमाॐ श्रां श्रीं श्रौं स: चंद्राय नमः
मंगलॐ क्रां क्रीं क्रौं स: भौमाय नमः
बुधॐ ब्रां ब्रीं ब्रौं स: बुधाय नमः
बृहस्पतिॐ ग्रां ग्रीं ग्रौं स: गुरवे नमः
शुक्रॐ द्रां द्रीं द्रौं स: शुक्राय नमः
शनिॐ प्रां प्रीं प्रौं स: शनैश्चराय नमः
राहुॐ भ्रां भ्रीं भ्रौं स: राहवे नमः
केतुॐ स्रां स्रीं स्रौं स: केतवे नमः




"MMSTM सवैध्यावि ध्यान की वह आधुनिक विधि है। कोई चाहे नास्तिक हो आस्तिक हो, साकार, निराकार कुछ भी हो बस पागल और हठी न हो तो उसको ईश अनुभव होकर रहेगा बस समयावधि कुछ बढ सकती है। आपको प्रतिदिन लगभग 40 मिनट देने होंगे और आपको 1 दिन से लेकर 10 वर्ष का समय लग सकता है। 1 दिन उनके लिये जो सत्वगुणी और ईश भक्त हैं। 10 साल बगदादी जैसे हत्यारे के लिये। वैसे 6 महीने बहुत है किसी आम आदमी के लिये।"  देवीदास विपुल



Wednesday, May 2, 2018

समर्पण से सम्पूर्णता



समर्पण से सम्पूर्णता


विपुल सेन उर्फ विपुल लखनवी,
(एम . टेक. केमिकल इंजीनियर) वैज्ञानिक एवं कवि
सम्पादक : विज्ञान त्रैमासिक हिन्दी जर्नल वैज्ञनिक ISSN 2456-4818
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जगत की वार्ताये बहुत कुछ भ्रमित कर रही है। समाधि को निश्चयात्मक बुद्दी शायद बताना गलत है। और घण्टो बैठे रहने पर दर्द इत्यादि नही भी समझ से परे है। यह सत्य है जिस वक्त देहभान चला जाता है उस समय शरीर का ध्यान नही रहता तो मस्तिष्क कोई भी सिग्नल नही लेता। पर जब आप वापिस चेतना में आते है और आपको योगाभ्यास द्वारा बैठने का अभ्यास नही है तो आपको पेन किलर खाने के साथ मालिश भी करनी पड़ जाएगी। अतः यह सब लेटकर किया जाता है। ताकि शरीर में भी तकलीफ न हो
                    दूसरी बात इस तरह की समाधि लोग प्रायः मृत्यु के समय ही लेते है। हा सिद्दियों के समय भी कुछ समय के लिए यह सब कर लेते है
मित्र हमारा उद्दार किसमे है। किसमे नही है। हमें क्या पता। अतः बस एक ही रास्ता है कि प्रभु को समर्पित हो जाओ। वो ही जो मार्ग दिखायेगा वो ही उद्दार का मार्ग होगा। हमारी बुद्दी भृमित हो सकती है पर आत्मरूपी प्रभु नहीप्रभु समझदार कौन मूर्ख कौन यह कैसे ज्ञात होगा। अपने को समझदार समझनेवाले तो सबसे बड़ा मूर्ख होता है। समय से बड़ा गुरु भी नही होता तो प्रत्यक्ष रूप में अनुभव करवा देता है। अब यह शिष्य पर ग्रहण करे या न करे। गुरु ने अपना काम कर दिया
                       यह एकदम से आनेवाली वस्तु नही है। प्रायः मनुष्य की जब मनमानी इच्छा पूरी होने लगती है तो वह प्रभु को मानने लगता है  और सोंचता है कि मैं समर्पित हो गया हूँ। पर जरा सी बात मन के विपरीत हो तो भगवान को कोसना चालू
समर्पण का अर्थ है । सम धन अपर्ण अर्थात जो भी मुझे प्राप्त है सुख दुख अच्छा बुरा ऊंचा नीचा वह सब मेरे लिये एक समान है। और वह सब तुझको समर्पित। 
तेरा तुझको अर्पण क्या लागे मेरा इस तरह की भावना आने में बहुत समय लगता है प्रायः यह प्रभु कृपा से ही होता है
प्रभु कृपा हेतु हमे पहले अपने को जानना होगा। हम कौन है
हम कौन है यह जानने हेतु हमें अंतर्मुखी होना होगा। तब धीरे धीरे जब हम अनुभवों से जान पाएंगे हम क्या है। आत्मा क्या है। तब जान पाएंगे प्रभु क्या है
यह सब प्रभु कृपा से ही होता है। जिसके लिए और नाम पर जगत में तमाम दुकाने खुली हैकुछ सही पर अधिकतर गलत
अतः इसका सबसे सुंदर सस्ता टिकाऊ आरम्भिक मार्ग हैगुरु के चक्कर हेतु भटको मत
अपने ही घर में सब करो। मन्त्र जप करो। जो तुमको आवश्यकता पड़ने पर गुरु तक आत्मज्ञान तक और अनन्त तक ले जाने की क्षमता रखता है
मैं तुमको लिंक देता हूँ। पहले वह पढो। ताकि तुम्हारी कुछ जिज्ञासा शांत हो
साथ ही mmst भी देता हूँ। जिसे घर पर करो। कही भटको नही। अपने अनुभव शेयर करो


क्या अच्छा क्या बुरा। गायत्री अच्छी या कोई भी अच्छी क्यो। जो देव अच्छा लगे उसको mmst के साथ चालू करो। सब मन्त्र अच्छे सब देव अच्छेक्या सन्मार्ग है क्या नही है हमको नही पता। मार्ग ढूढ़ने के चक्कर मे घन चक्कर बन कर विपत्ति में भी फंस जाते है। अतः भटको मत।
घर मे जोग भोग घर ही में। घर तज कही न जाऊ
सब अपने आप मिल जाता है हो जाता है। जहाँ अपनी बुद्दी लगाई। काम बिगड़ा प्रभु भक्ति में देखो भाई भगवान श्री कृष्ण में श्रीमद्भगवद्गीता में कहा कही पाप पुण्य की व्याख्या नही की है।  बस यह कहा " हे अर्जुन जो कर्म समाज के अनुकूल नही वह तेरे अनुकूल कैसे हो सकता है" अर्थात जो कार्य समाज के हित में वह पुण्य जो प्रतिकूल वह पाप
यह परिभाषा सही भी है। भारतीय समाज मे बहुत से कार्य पाप माने जाते है पर विदेशो में कोई हर्ज नही। ऐसे सनातन बहुत वस्तुओं को निषेध करता है  अर्थात सनातनी हेतु वह करना पाप परन्तु कुछ धर्म उसको सही ठहराते है उनके लिए पुण्य
इस आधार पर पाप पुण्य की सही गलत की व्याख्या कैसे करोगे। कैसे सोंचोगे
अब देखो ओशो ने फ्री सेक्स की वकालत की जो भारत मे पाप। विदेशो में कुछ नही जीने का तरीकातो क्या सही क्या गलत
प्रश्न यह है कि क्या हमारे चाहने से हमको हमको योग और ज्ञान मिल जाएगा क्या। और जब समय होगा प्रभु कृपा होगी तब ही हमको अचानक योग हो जाएगा। हमको पता भी चलेगा। बाद में समझ मे आएगा अरे यार यह तो योग था क्षणिक पर जो अनुभूति जीवन भर की दे गया। अरे सुनो कल यार अपने को दर्शन हुए और बाद में अहम ब्रह्मास्मि की अनुभूति। अरे यह तो वेदांत महावाक्य के अनुसार योग था। 
अब क्या। मित्र इस अनुभूति को 24 घण्टे मिलना चाहिए तब ही होगा सांख्य योग। वाह भाई जरा सी अनुभूति में ऐसा लगता है सारा ज्ञान स्वतः मिल गया। अपने अंदर आत्मगुरु खुल गया। सारे प्रश्नों के उत्तर मिल रहे है। नही भाई जान यह आत्म गुरु नही कुरान में अल्लह की बोली लिखा है
अरे कुछ भी हो पर आनन्द है
देखो बच्चों यह अच्छी बात है पर ध्यान देना जब तक यह वाणी आत्मा की वाणी है। पर याद रखना मन बहुत शैतान है। वह भी अल्लह की बोली बोलकर बहका सकता है। तुमसे मनमानी करवा सकता है। अब तुमको और अधिक सतर्क रहना होगा
भाई यह सब हुआ कैसे। कुछ नही यार मालूम नही अपने आप। मैं तो केवल मन्त्र जप ही करता था। सुबह शाम दोपहर हर समय। भाई यही करो यह तुम योग ज्ञान सब अपने आप दे देगा। और हा स्वप्न में कोई महापुरुष दिखे और आवाज आई यह तुम्हारे गुरु है। साथ ही बगल में रहनेवाले अंकल दिखाई दिए। चलो उनसे पूछकर गुरु को भी ढूढे
मित्रो दुनिया में  बड़ी बड़ी बातें। ज्ञानियों के शब्द है सिर्फ। इनसे कुछ मिलना नही है बस दुनिया पर रॉब गाँठने के लिए है। मैं कहता हूं कुछ मत करो कुछ मत पढो। सिर्फ और सिर्फ प्रभु भक्ति में मन्त्र जाप में लीन हो। सतत निरन्तर और हमेशा। यही सब दे देगा
मित्रो यह अच्छी बात है कि आप भगवान की फोटो भेजते है  पर मित्र इन फोटो से भी बाहर निकलो। कब तक बच बच्चों की तरह फोटो से खुश होते रहोगे
सरल शब्दों में समर्पण का अर्थ है अपने आपको मन व बुद्धि से पूर्णरूपेण किसी ऐसे ईष्ट को नि:स्वार्थपूर्वक सौंप देना, जिस पर पूर्ण श्रद्धा व विश्वास हो अथवा बिना किसी तर्क व संदेह किए बराबर किसी भी उपयोग हेतु ज्यों का त्यों स्वयं को किसी के हवाले कर देना। समर्पण में संदेह व तर्क की कोई गुंजाइश नहीं होती। जिसको समर्पण किया जाता है यदि उस पर संदेह व स्वार्थ है तो वहां समर्पण नहीं होता, बल्कि वह केवल नाम मात्र दिखावा है जो सच्चे समर्पण से कोसों दूर होता है।
समर्पण में छल छिद्र व कपट का कोई स्थान नहीं होता। रामचरितमानस में तुलसीदास जी ने जैसे संकेत भी दिया है कि भगवान को छलिया, छिद्रान्वेषी बिलकुल भी पसंद नहीं हैं क्योंकि ये विकार समर्पण में बाधक हैं। समर्पण में श्रद्धा का महत्व ज्यादा होता है। जिस पर श्रद्धा होती है, उसी पर समर्पण होता है। जिस पर श्रद्धा नहीं होती, उस पर समर्पण भी नहीं होता। जब श्रद्धा किसी व्यक्ति पर होती है और उसके प्रति समर्पण होता है तो समर्पण करने वाले को विशेष सुख मिलता है। जब श्रद्धा भगवान के प्रति होती है और व्यक्ति भगवान के प्रति पूर्ण समर्पण कर देता है तो उसे विशेष आनंद मिलता है। इसीलिए योगी आदमी भगवान से योग लगाते हैं और अपने आप को पूर्ण समर्पित कर देते हैं तो वे सुख, शांति और परमात्मा का आनंद लेते हैं।
जब तक समर्पण नहीं होता, तब तक सच्चा सुख नहीं मिलता। सच्चे सुख की प्राप्ति के लिए समर्पण किया जाता है। समर्पण यदि कपटपूर्ण है तो सुख भी दिखावा मात्र ही होगा। समर्पण से ही परमात्मा सहाय बनते हैं। मीरा ने समर्पण यह कहकर कि ‘मेरो तो गिरधर गोपाल बस दूसरो न कोई’ किया तो मीरा को पिलाया जाने वाला जहर परमात्मा ने अमृत में बदल दिया। द्रौपदी ने हार थक कर जब अंत में केवल और केवल श्रीकृष्ण को समर्पण किया तो भगवान श्रीकृष्ण ने उनका चीर हरण नहीं होने दिया और द्रौपदी की लाज की रक्षा की। द्रौपदी का कुछ काम नहीं आया। काम आया केवल भगवान के प्रति समर्पण। राजा जनक ने अष्टावक्र ऋषि के प्रति समर्पण किया तो राजा जनक को तत्क्षण ज्ञान हो गया। रामकृष्ण परमहंस के प्रति बालक नरेंद्र का, जो कि बाद में स्वामी विवेकानंद के नाम से जाने गए, समर्पण हुआ तो काली मां उनके हृदय में प्रकट हो गई। महात्मा बुद्ध को कोई भी शास्त्र बुद्ध न बना पाया। अंत में बालक सिद्धार्थ परम सत्ता के प्रति एक वट वृक्ष के नीचे बैठे पूर्णरूपेण समर्पित हुए तो वे तत्क्षण बुद्ध हो गए और यही बालक सिद्धार्थ कालांतर में महात्मा बुद्ध कहलाए।
त्रेतायुग के अवतार भगवान श्रीरामचंद्र के प्रति भक्त हनुमान के समर्पण से हनुमान को इतनी शक्ति प्राप्त हो गई थी कि उन्होंने समुद्र पर पुल का निर्माण कर दिया था। समर्पण से महान उपलब्धि मिलती है। अपने श्रद्धेय के प्रति समर्पण से सुख मिलता है। परमात्मा सबके परम श्रद्धेय हैं। इसलिए परमात्मा के प्रति समर्पण से परम सुख मिलता है। शांति का संचार होता है। जीवन सुखी तथा आनंदमय बनता है। मनुष्यात्मा अपूर्ण है। परमात्मा पूर्ण है। अत: मनुष्य को परम श्रद्धेय परमात्मा के प्रति ही पूर्ण समर्पित होकर अपने जीवन को सरस तथा मधुर बनाने का पुरुषार्थ अवश्य करना चाहिए जो मनुष्य को पूर्णता की ओर भी ले जाता है और पूर्णता की अनुभूति भी कराता है|


"MMSTM सवैध्यावि ध्यान की वह आधुनिक विधि है। कोई चाहे नास्तिक हो आस्तिक हो, साकार, निराकार कुछ भी हो बस पागल और हठी न हो तो उसको ईश अनुभव होकर रहेगा बस समयावधि कुछ बढ सकती है। आपको प्रतिदिन लगभग 40 मिनट देने होंगे और आपको 1 दिन से लेकर 10 वर्ष का समय लग सकता है। 1 दिन उनके लिये जो सत्वगुणी और ईश भक्त हैं। 10 साल बगदादी जैसे हत्यारे के लिये। वैसे 6 महीने बहुत है किसी आम आदमी के लिये।"  देवीदास विपुल
 

 गुरु की क्या पहचान है? आर्य टीवी से साभार गुरु कैसा हो ! गुरु की क्या पहचान है? यह प्रश्न हर धार्मिक मनुष्य के दिमाग में घूमता रहता है। क...