समर्पण से सम्पूर्णता
विपुल सेन उर्फ विपुल “लखनवी”,
(एम . टेक. केमिकल इंजीनियर) वैज्ञानिक एवं कवि
सम्पादक : विज्ञान त्रैमासिक हिन्दी जर्नल “वैज्ञनिक” ISSN 2456-4818
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जगत की वार्ताये
बहुत कुछ भ्रमित कर रही है। समाधि को निश्चयात्मक बुद्दी शायद बताना गलत है। और घण्टो बैठे रहने पर दर्द इत्यादि नही भी समझ से परे है। यह सत्य है जिस वक्त देहभान
चला जाता है उस समय शरीर का
ध्यान नही रहता तो मस्तिष्क कोई भी सिग्नल नही लेता। पर जब आप वापिस चेतना में आते है और आपको योगाभ्यास द्वारा
बैठने का अभ्यास नही है तो आपको पेन
किलर खाने के साथ मालिश भी करनी पड़ जाएगी। अतः यह सब लेटकर किया जाता है। ताकि शरीर में भी तकलीफ न हो।
दूसरी बात
इस तरह की समाधि लोग प्रायः मृत्यु के समय ही लेते है। हा सिद्दियों के समय भी कुछ समय के लिए यह सब कर
लेते है।
मित्र हमारा
उद्दार किसमे है। किसमे नही है। हमें क्या पता। अतः बस एक ही रास्ता है कि प्रभु को समर्पित हो जाओ। वो ही जो मार्ग दिखायेगा वो ही उद्दार का मार्ग होगा। हमारी बुद्दी
भृमित हो सकती है पर आत्मरूपी
प्रभु नही। प्रभु समझदार कौन मूर्ख कौन यह कैसे ज्ञात होगा। अपने को
समझदार समझनेवाले तो सबसे बड़ा
मूर्ख होता है। समय से बड़ा गुरु भी नही होता तो प्रत्यक्ष रूप में अनुभव करवा देता है। अब यह शिष्य पर ग्रहण करे या न
करे। गुरु ने अपना काम कर दिया।
यह एकदम से आनेवाली वस्तु नही है। प्रायः मनुष्य की जब मनमानी
इच्छा पूरी होने लगती है तो वह प्रभु
को मानने लगता है और सोंचता है कि मैं समर्पित हो
गया हूँ। पर जरा सी बात मन के विपरीत हो तो
भगवान को कोसना चालू।
समर्पण का
अर्थ है । सम धन अपर्ण अर्थात जो भी मुझे प्राप्त है सुख दुख अच्छा बुरा ऊंचा नीचा वह सब मेरे लिये एक समान है। और वह सब तुझको समर्पित।
तेरा तुझको अर्पण क्या लागे मेरा। इस तरह की भावना आने में बहुत समय लगता है। प्रायः यह प्रभु कृपा से ही होता है।
तेरा तुझको अर्पण क्या लागे मेरा। इस तरह की भावना आने में बहुत समय लगता है। प्रायः यह प्रभु कृपा से ही होता है।
प्रभु कृपा
हेतु हमे पहले अपने को जानना होगा। हम कौन है।
हम कौन है
यह जानने हेतु हमें अंतर्मुखी होना होगा। तब धीरे धीरे जब हम अनुभवों से जान पाएंगे हम क्या है।
आत्मा क्या है। तब जान पाएंगे
प्रभु क्या है।
यह सब प्रभु
कृपा से ही होता है। जिसके लिए और नाम पर जगत में तमाम दुकाने खुली है। कुछ सही पर अधिकतर गलत।
अतः इसका
सबसे सुंदर सस्ता टिकाऊ आरम्भिक मार्ग है। गुरु के चक्कर हेतु भटको मत।
अपने ही घर
में सब करो। मन्त्र जप करो। जो तुमको आवश्यकता पड़ने पर गुरु तक आत्मज्ञान तक और अनन्त तक ले जाने की क्षमता रखता है।
मैं तुमको
लिंक देता हूँ। पहले वह पढो। ताकि तुम्हारी कुछ जिज्ञासा शांत हो।
साथ ही mmst भी देता हूँ। जिसे घर पर करो। कही भटको नही। अपने
अनुभव शेयर करो।
क्या अच्छा
क्या बुरा। गायत्री अच्छी या कोई भी अच्छी क्यो। जो देव अच्छा लगे उसको mmst के साथ चालू करो। सब मन्त्र अच्छे सब देव अच्छे। क्या सन्मार्ग है क्या नही है
हमको नही पता। मार्ग ढूढ़ने के चक्कर मे घन चक्कर बन कर विपत्ति में भी फंस जाते है। अतः भटको मत।
घर मे जोग
भोग घर ही में। घर तज कही न जाऊ।
सब अपने आप
मिल जाता है हो जाता है। जहाँ अपनी बुद्दी लगाई। काम बिगड़ा प्रभु भक्ति में। देखो भाई भगवान श्री कृष्ण में
श्रीमद्भगवद्गीता में कहा कही पाप
पुण्य की व्याख्या नही की है। बस यह कहा
" हे अर्जुन जो कर्म समाज के अनुकूल नही वह तेरे अनुकूल कैसे हो सकता है" अर्थात जो कार्य
समाज के हित में वह पुण्य जो प्रतिकूल
वह पाप ।
यह परिभाषा सही भी है। भारतीय समाज मे बहुत से कार्य पाप माने
जाते है पर विदेशो में कोई हर्ज
नही। ऐसे सनातन बहुत वस्तुओं को निषेध करता है अर्थात सनातनी हेतु वह
करना पाप परन्तु कुछ धर्म उसको सही ठहराते है उनके लिए पुण्य।
इस आधार पर
पाप पुण्य की सही गलत की व्याख्या कैसे करोगे। कैसे सोंचोगे।
अब देखो ओशो ने फ्री सेक्स की वकालत की जो भारत मे पाप। विदेशो
में कुछ नही जीने का तरीका। तो क्या सही क्या गलत।
प्रश्न यह
है कि क्या हमारे चाहने से हमको हमको योग और ज्ञान मिल जाएगा क्या। और जब समय होगा प्रभु कृपा
होगी तब ही हमको अचानक योग हो
जाएगा। हमको पता भी चलेगा। बाद में समझ मे आएगा अरे यार यह तो योग था क्षणिक पर जो अनुभूति जीवन भर की दे गया। अरे सुनो
कल यार अपने को दर्शन हुए और बाद
में अहम ब्रह्मास्मि की अनुभूति। अरे यह तो वेदांत महावाक्य के अनुसार योग था।
अब क्या।
मित्र इस अनुभूति को 24 घण्टे मिलना चाहिए तब ही होगा
सांख्य योग। वाह भाई जरा सी अनुभूति में ऐसा लगता है सारा ज्ञान स्वतः मिल गया। अपने अंदर
आत्मगुरु खुल गया। सारे प्रश्नों के
उत्तर मिल रहे है। नही भाई जान यह आत्म गुरु नही कुरान में अल्लह की बोली लिखा है।
अरे कुछ भी
हो पर आनन्द है।
देखो बच्चों यह अच्छी बात है पर ध्यान देना जब तक यह वाणी
आत्मा की वाणी है। पर याद रखना मन
बहुत शैतान है। वह भी अल्लह की बोली बोलकर बहका सकता है। तुमसे मनमानी करवा सकता है। अब तुमको और अधिक सतर्क
रहना होगा।
भाई यह सब हुआ कैसे। कुछ नही यार मालूम नही अपने आप। मैं
तो केवल मन्त्र जप ही करता था।
सुबह शाम दोपहर हर समय। भाई यही करो यह तुम योग ज्ञान सब अपने आप दे देगा। और हा स्वप्न में कोई महापुरुष दिखे और आवाज
आई यह तुम्हारे गुरु है। साथ ही
बगल में रहनेवाले अंकल दिखाई दिए। चलो उनसे पूछकर गुरु को भी ढूढे।
मित्रो दुनिया
में बड़ी बड़ी बातें। ज्ञानियों के शब्द है
सिर्फ। इनसे कुछ मिलना नही है बस दुनिया पर रॉब गाँठने के लिए है। मैं कहता हूं कुछ मत करो कुछ मत पढो। सिर्फ और
सिर्फ प्रभु भक्ति में मन्त्र जाप में लीन हो। सतत निरन्तर और हमेशा। यही सब दे
देगा।
मित्रो यह अच्छी बात है कि आप भगवान की फोटो भेजते है पर मित्र इन फोटो से भी बाहर निकलो। कब तक बच बच्चों की तरह फोटो से खुश होते
रहोगे।
सरल शब्दों में समर्पण का अर्थ है अपने
आपको मन व बुद्धि से पूर्णरूपेण किसी ऐसे ईष्ट को नि:स्वार्थपूर्वक
सौंप देना, जिस
पर पूर्ण श्रद्धा व विश्वास हो अथवा बिना किसी तर्क व संदेह किए
बराबर किसी भी उपयोग हेतु ज्यों का त्यों स्वयं को किसी के हवाले
कर देना। समर्पण में संदेह व तर्क की कोई गुंजाइश नहीं होती। जिसको
समर्पण किया जाता है यदि उस पर संदेह व स्वार्थ है तो वहां समर्पण नहीं होता,
बल्कि वह केवल
नाम मात्र दिखावा है जो सच्चे समर्पण से कोसों दूर होता है।
समर्पण में छल छिद्र व कपट का कोई स्थान नहीं होता।
रामचरितमानस में तुलसीदास जी ने जैसे संकेत भी दिया है कि भगवान को छलिया, छिद्रान्वेषी बिलकुल भी पसंद नहीं हैं
क्योंकि ये विकार
समर्पण में बाधक हैं। समर्पण में श्रद्धा का महत्व ज्यादा होता है। जिस पर श्रद्धा
होती है, उसी पर समर्पण होता
है। जिस पर श्रद्धा नहीं होती, उस
पर समर्पण भी नहीं होता। जब श्रद्धा किसी व्यक्ति पर होती है और उसके प्रति
समर्पण होता है तो समर्पण करने वाले को विशेष सुख मिलता है। जब श्रद्धा भगवान के
प्रति होती है
और व्यक्ति भगवान के प्रति पूर्ण समर्पण कर देता है तो उसे विशेष आनंद मिलता है। इसीलिए
योगी आदमी भगवान से योग लगाते हैं और अपने आप को पूर्ण समर्पित कर देते हैं तो वे सुख, शांति और परमात्मा का आनंद लेते हैं।
जब तक समर्पण नहीं होता, तब तक सच्चा सुख नहीं मिलता। सच्चे सुख की
प्राप्ति के लिए समर्पण किया जाता है। समर्पण यदि कपटपूर्ण है तो सुख भी दिखावा मात्र ही
होगा। समर्पण से ही परमात्मा सहाय बनते हैं। मीरा ने समर्पण यह कहकर कि
‘मेरो तो गिरधर गोपाल बस दूसरो न कोई’ किया तो मीरा को पिलाया जाने वाला जहर
परमात्मा ने अमृत में बदल दिया। द्रौपदी ने हार थक कर जब अंत में केवल
और केवल श्रीकृष्ण को समर्पण किया तो भगवान श्रीकृष्ण ने उनका चीर हरण नहीं
होने दिया और द्रौपदी की लाज की रक्षा की। द्रौपदी का कुछ काम नहीं आया।
काम आया केवल भगवान के प्रति समर्पण। राजा जनक ने अष्टावक्र ऋषि के
प्रति समर्पण किया तो राजा जनक को तत्क्षण ज्ञान हो गया। रामकृष्ण परमहंस के
प्रति बालक नरेंद्र का, जो
कि बाद
में स्वामी विवेकानंद के नाम से जाने गए, समर्पण हुआ तो काली मां उनके हृदय में प्रकट हो गई। महात्मा बुद्ध को
कोई भी शास्त्र बुद्ध न बना पाया। अंत में बालक सिद्धार्थ परम सत्ता के
प्रति एक वट वृक्ष के नीचे बैठे पूर्णरूपेण समर्पित हुए तो वे तत्क्षण
बुद्ध हो गए और यही बालक सिद्धार्थ कालांतर में महात्मा बुद्ध कहलाए।
त्रेतायुग के अवतार भगवान श्रीरामचंद्र
के प्रति भक्त हनुमान के समर्पण से हनुमान को इतनी शक्ति
प्राप्त हो गई थी कि उन्होंने समुद्र पर पुल का निर्माण कर दिया था। समर्पण से
महान उपलब्धि मिलती है। अपने श्रद्धेय के प्रति समर्पण से सुख मिलता
है। परमात्मा सबके परम श्रद्धेय हैं। इसलिए परमात्मा के प्रति समर्पण से
परम सुख मिलता है। शांति का संचार होता है। जीवन सुखी तथा आनंदमय बनता है।
मनुष्यात्मा अपूर्ण है। परमात्मा पूर्ण है। अत: मनुष्य को परम श्रद्धेय परमात्मा के
प्रति ही पूर्ण समर्पित होकर अपने जीवन को सरस तथा मधुर बनाने का
पुरुषार्थ अवश्य करना चाहिए जो मनुष्य को पूर्णता की ओर भी ले जाता है और पूर्णता
की अनुभूति भी कराता है|
"MMSTM समवैध्यावि ध्यान की वह आधुनिक विधि है। कोई
चाहे नास्तिक हो आस्तिक हो, साकार, निराकार कुछ भी हो बस
पागल और हठी न हो तो उसको ईश अनुभव होकर रहेगा बस समयावधि कुछ बढ सकती है। आपको
प्रतिदिन लगभग 40 मिनट देने होंगे और आपको 1 दिन से लेकर 10 वर्ष का समय लग सकता
है। 1 दिन उनके लिये जो सत्वगुणी और ईश भक्त हैं। 10 साल बगदादी जैसे हत्यारे के
लिये। वैसे 6 महीने बहुत है किसी आम आदमी के लिये।" देवीदास विपुल
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