प्राचीन भारतीय विज्ञान तथा प्रौद्योगिकी
भारत ने खोजा पश्चिम ने चुराया
विपुल सेन उर्फ विपुल “लखनवी”,
(एम . टेक. केमिकल इंजीनियर) वैज्ञानिक एवं कवि
सम्पादक : विज्ञान त्रैमासिक हिन्दी जर्नल “वैज्ञनिक” ISSN 2456-4818
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प्राचीन समय में
ताडपत्र पर लिखकर भारतीय मनीषियों ने प्रकृति प्रेम का उदाहरण तो दिया ही साथ ही
जब न आधुनिक मुद्रण यंत्र थे और न किसी भी विषय पर असंख्य सूचनाएं उपलब्ध होती थी फिर
भी प्राचीन काल के भारतीय ऋषि-मुनियों ने अपने पुरुषार्थ, ज्ञान
और ध्यान से शोध की और कई शास्त्रों की रचना की और उसे विकसित भी किया। इनमें से
कुछ प्रमुख शास्त्रों का विवेचन प्रस्तुत है-
प्राचीन भारत के प्रमुख शास्त्र
1. आयुर्वेदशास्त्र, 2, रसायनशास्त्र, 3. ज्योतिषशास्त्र, 4. गणितशास्त्र, 5. कामशास्त्र, 6. संगीतशास्त्र, 7. धर्मशास्त्र, 8. अर्थशास्त्र, 9. प्रौद्योगिकी ग्रन्थ, 10. विमानन शास्त्र
11. अन्य शास्त्र जैसे न्यायशास्त्र, योगशास्त्र, वास्तुशास्त्र, नाट्यशास्त्र, काव्यशास्त्र, अलंकारशास्त्र, नीतिशास्त्र आदि।
प्राचीन भारतीय
विज्ञान तथा तकनीक को जानने के लिये पुरातत्व और
प्राचीन साहित्य का
सहारा लेना पडता है। प्राचीन भारत का साहित्य अत्यन्त विपुल एवं विविधतासम्पन्न
है। इसमें धर्म, दर्शन, भाषा, व्याकरण आदि
के अतिरिक्त गणित, ज्योतिष, आयुर्वेद, रसायन, धातुकर्म, सैन्य
विज्ञान आदि भी विषय रहे हैं। परंतु देशी और विदेशी षडयंत्रो के
कारण य्ह नष्ट हो गये या इन्हे लूटा गया।
आधुनिक विज्ञान एवं
प्रौद्योगिकी को में प्राचीन भारत की देन के कुछ उदाहरण:
गणित - वैदिक
साहित्य शून्य की
अवधारणा, बीजगणित की
तकनीकों तथा कलन-पद्धति, वर्गमूल, घनमूल की
अवधारणायें।
खगोल विज्ञान - ऋग्वेद (2000 ईसापूर्व) में खगोलविज्ञान का उल्लेख है।
भौतिकी - ६००
ईसापूर्व के भारतीय दार्शनिकों ने परमाणु एवं आपेक्षिकता
के सिद्धान्त का स्पष्ट उल्लेख किया है।
रसायन
विज्ञान - इत्र का आसवन, गन्धक
युक्त द्रव, वर्ण एवं रंजकों (dyes and pigments) का निर्माण, शर्करा का
निर्माण।
आयुर्विज्ञान एवं शल्यकर्म - लगभग
८०० ईसापूर्व भारत में चिकित्सा एवं शल्यकर्म पर पहला ग्रन्थ का निर्माण हुआ था।
ललित कला - वेदों
का पाठ किया जाता था जो सस्वर एवं शुद्ध होना आवश्यक था। इसके फलस्वरूप वैदिक काल
में ही ध्वनि एवं ध्वनिकी का
सूक्ष्म अध्ययन आरम्भ हुआ।
यांत्रिक एवं उत्पादन
प्रौद्योगिकी - ग्रीक इतिहासकारों ने लिखा है कि चौथी शताब्दी ईसापूर्व
में भारत में कुछ धातुओं का
प्रगलन (स्मेल्टिंग) की जाती थी। महरोली, दिल्ली का स्तम्भ
तो आज भी कौतूहल है।
सिविल
इंजीनियरी एवं वास्तुशास्त्र - मोहनजोदड़ो एवं हड़प्पा से
प्राप्त नगरीय सभ्यातायें उस समय में उन्नत सिविल इंजीनियरी एवं आर्किटेक्चर के
अस्तित्व को प्रमाणित करती है। साथ ही
कितने रहस्यमयी अद्भुत मंदिर इत्यादि तो आज भी मौजूद हैं।
जलयान-निर्माण एवं
नौवहन (Shipbuilding & navigation) - संस्कृत एवं पालि ग्रन्थों
में सामुद्रिक क्रियाकलापों के अनेक उल्लेख मिलते हैं।
खेल (Sports &
games) - शतरंज, लुडो, साँप-सीढ़ी एवं ताश के खेलों का जन्म प्राचीन भारत में ही
हुआ।
प्राचीन भारत के
प्रमुख शास्त्र
आयुर्वेदशास्त्र : आयुर्वेद की मुख्य
तीन परम्पराएं हैं- भारद्वाज, धनवन्तरि और काश्यप। आयुर्वेद विज्ञान के आठ अंग हैं- शल्य,
शालाक्य, कायचिकित्सा, भूतविधा,
कौमारमृत्य, अगदतन्त्रा, रसायन और वाजीकरण। चरक संहिता, सुश्रुत संहिता,
काश्यप संहिता इसके प्रमुख ग्रंथ हैं जिन पर बाद में अनेक विद्वानों
द्वारा व्याख्याएं लिखी गईं।
आयुर्वेद के सबसे
महत्वपूर्ण ग्रन्थ चरकसंहिता के बारे में ऐसा माना जाता है कि मूल रूप से यह
ग्रन्थ आत्रेय पुनर्वसु के शिष्य अग्निवेश ने लिखा था। चरक ऋषि ने इस ग्रन्थ को संस्कृत
में रूपांतरित किया। इस कारण इसका नाम चरक संहिता पड़ गया। बताया जाता है कि
पतंजलि ही चरक थे। इस ग्रन्थ का रचनाकाल ईं. पू. पांचवी शताब्दी माना जाता है।
रसायनशास्त्र: रसायनशास्त्र का
प्रारंभ वैदिक युग से माना गया है। प्राचीन ग्रंथों में रसायनशास्त्र के ‘रस’ का
अर्थ होता था-पारद। पारद को भगवान शिव का वीर्य माना गया है। रसायनशास्त्र के
अंतर्गत विभिन्न प्रकार के खनिजों का अध्ययन किया जाता था। इस क्षेत्र में सबसे ज्यादा काम नागार्जुन नामक बौद्ध
विद्वान ने किया। उनका काल लगभग 280-320 ई. था। उन्होंने एक नई खोज की जिसमें पारे के प्रयोग
से तांबा इत्यादि धातुओं को सोने में बदला जा सकता था। रसायनशास्त्र के कुछ
प्रसिद्ध ग्रंथों में एक है रसरत्नाकर। इसके रचयिता नागार्जुन थे। इसके कुल आठ
अध्याय थे परंतु चार ही हमें प्राप्त होते हैं। इसमें मुख्यत: धातुओं के शोधन,
मारण, शुद्ध पारद प्राप्ति तथा भस्म बनाने की
विधियों का वर्णन मिलता है।
प्रसिद्ध
रसायनशास्त्री श्री गोविन्द भगवतपाद जो शंकराचार्य के गुरु थे, द्वारा
रचित ‘रसहृदयतन्त्र’ ग्रंथ भी काफी लोकप्रिय है। इसके अलावा रसेन्द्रचूड़ामणि,
रसप्रकासुधाकर रसार्णव, रससार आदि ग्रन्थ भी रसायनशास्त्र
के ग्रन्थों में ही गिने जाते हैं।
ज्योतिषशास्त्र : ज्योतिष वैदिक
साहित्य का ही एक अंग है। इसमें सूर्य, चन्द्र, पृथ्वी, नक्षत्र, ऋतु, मास, अयन आदि की स्थितियों पर गंभीर अध्ययन किया गया
है। इस विषय में हमें ‘वेदांग ज्योतिष’ नामक ग्रंथ प्राप्त होता है। इसके रचना का
समय 1200 ई. पू. माना गया है। आर्यभट्ट ज्योतिष
गणित के सबसे बड़े विद्वान के रूप में माने जाते हैं। एक अनुमान के अनुसार इनका
जन्म 476 ई. में पटना (कुसुमपुर)
में हुआ था। मात्र 23 वर्ष की उम्र में इन्होंने ‘आर्यभट्टीय’ नामक प्रसिद्ध ज्योतिष
ग्रंथ की रचना की। इस ग्रंथ में पूरे 121 श्लोक हैं। इसे चार
खण्डों में बांटा गया है- गीतिकापाद, गणितपाद, कालक्रियापाद और गोलपाद।
वराहमिहिर के
उल्लेख के बिना तो भारतीय ज्योतिष की चर्चा अधूरी है। इनका समय छठी शताब्दी ई. के
आरम्भ का है। इन्होंने चार प्रसिद्ध ग्रंथों की रचना की- पंचसिद्धान्तिका, वृहज्जातक, वृहदयात्रा तथा वृहत्संहिता जो ज्योतिष को समझने में मदद करती हैं।
गणितशास्त्र : यह सभी जानते हैं कि
शून्य एवं दशमलव की खोज भारत में ही हुई। यह भारत के द्वारा विश्व को दी गई अनमोल
देन है। इस खोज ने गणितीय जटिलताओं को खत्म कर दिया। गणितशास्त्र को मुख्यत: तीन
भागों में बांटा गया है। अंकगणित, बीजगणित और रेखागणित। वैदिक काल में अंकगणित अपने विकसित
स्वरूप में स्थापित था। ‘यजुर्वेद’ में एक से लेकर 10 खरब तक
की संख्याओं का उल्लेख मिलता है। इन अंकों को वर्णों में भी लिखा जा सकता था।
बीजगणित का साधारण
अर्थ है, अज्ञात संख्या का ज्ञात संख्या के साथ समीकरण करके अज्ञात
संख्या को जानना। अंग्रेजी में इसे ही अलजेब्रा कहा गया है और इसका श्रेय भारतीय
विद्वान आर्यभट्ट (446 ई.)
को जाता है।
रेखागणित का अविष्कार
भी वैदिक युग में ही हो गया था। इस विद्या का प्राचीन नाम है- शुल्वविद्या या
शुल्वविज्ञान। अनेक पुरातात्विक स्थलों की खुदाई में प्राप्त यज्ञशालाएं, वेदिकाएं,
कुण्ड इत्यादि को देखने तथा इनके अध्ययन करने पर हम पाते हैं कि
इनका निर्माण रेखागणित के सिद्धांत पर किया गया है। ब्रह्मस्फुट सिद्धांत, नवशती, गणिततिलक, बीजगणित,
गणितसारसंग्रह, गणित कौमुदी इत्यादि गणित
शास्त्र के प्रमुख ग्रन्थ हैं।
कामशास्त्र : भारतीय समाज में
पुरुषार्थ का काफी महत्व है। पुरुषार्थ चार हैं- धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष। काम का इसमें तीसरा
स्थान है। सर्वप्रथम नन्दी ने 1000
अध्यायों का ‘कामशास्त्र’ लिखा जिसे बाभ्रव्य ने 150 अध्यायों में संक्षिप्त रूप में लिखा। कामशास्त्र से संबंधित सबसे
प्रसिद्ध ग्रंथ है ‘कामसूत्र’ जिसकी रचना वात्स्यायन ने की
थी। इस ग्रंथ में 36 अध्याय हैं जिसमें भारतीय जीवन पद्धति
के बारे में बताया गया है। इसमें 64 कलाओं का रोचक वर्णन है। इसके अलावा एक और प्रसिद्ध ग्रंथ है
‘कुहनीमत’ जो एक लघुकाव्य के रूप में है। कोक्कक पंडित द्वारा रचित रतिरहस्य को भी
बेहद पसंद किया जाता है।
संगीतशास्त्र : भारतीय परंपरा में
भगवान शिव को संगीत तथा नृत्य का प्रथम अचार्य कहा गया है। कहा जाता है के नारद ने
भगवान शिव से ही संगीत का ज्ञान प्राप्त किया था। इस विषय पर अनेक ग्रंथ प्राप्त
होते हैं जैसे नारदशिक्षा, रागनिरूपण, पंचमसारसंहिता, संगीतमकरन्द आदि। संगीतशास्त्र के प्रसिद्ध आचार्यों में मुख्यत:
उमामहेश्वर, भरत, नन्दी, वासुकि, नारद, व्यास आदि की
गिनती होती है। भरत के नाटयशास्त्र के अनुसार गीत की उत्पत्ति जहां सामवेद से हुई
है, वहीं यजुर्वेद ने अभिनय (नृत्य) का प्रारंभ किया।
धर्मशास्त्र : प्राचीन काल में शासन
व्यवस्था धर्म आधारित थी। प्रमुख धर्म मर्मज्ञों वैरवानस, अत्रि,
उशना, कण्व, कश्यप,
गार्ग्य, च्यवन, बृहस्पति,
भारद्वाज आदि ने धर्म के विभिन्न सिद्धांतों एवं रूपों की विवेचना
की है। पुरुषार्थ के चारों चरणों में इसका स्थान पहला है।उत्तर काल में लिखे गये
संग्रह ग्रंथों में तत्कालीन समय की सम्पूर्ण धार्मिक व्यवस्था का वर्णन मिलता है।
स्मृतिग्रंथों में मनुस्मृति, याज्ञवल्कय स्मृति, पराशर स्मृति, नारदस्मृति, बृहस्पतिस्मृति
में लोकजीवन के सभी पक्षों की धार्मिक दृष्टिकोण से व्याख्या की गई है तथा कुछ
नियम भी प्रतिपादित किये गये हैं।
अर्थशास्त्र : चार पुरुषार्थो में
अर्थ का दूसरा स्थान है। अर्थशास्त्र के अंतर्गत केवल वित्त संबंधी चर्चा का ही
उल्लेख नहीं किया गया है। वरन राजनीति, दण्डनीति और नैतिक उपदेशों का भी
वृहद वर्णन मिलता है। अर्थशास्त्र का सबसे प्रसिद्ध ग्रंथ है कौटिल्य का अर्थशास्त्र। इसकी रचना चाणक्य
ने की थी। चाणक्य का जीवन काल चतुर्थ शताब्दी के आस-पास माना जाता है। कौटिल्य
अर्थशास्त्र में धर्म, अर्थ, राजनीति, दण्डनीति आदि का विस्तृत उपदेश है। इसे 15 अधिकरणों
में बांटा गया है। इसमें वेद, वेदांग, इतिहास,
पुराण, धार्मशास्त्र, अर्थशास्त्र,
ज्योतिष आदि विद्याओं के साथ अनेक प्राचीन अर्थशास्त्रियों के मतों
के साथ विषय को प्रतिपादित किया गया है। इसके अलावा अन्य महत्वपूर्ण ग्रंथ है
कामन्दकीय नीतिसार, नीतिवाक्यामृत, लघुअर्थनीति इत्यादि।
प्रौद्योगिकी ग्रन्थ: 'भृगुशिल्पसंहिता' में १६ विज्ञान तथा ६४
प्रौद्योगिकियों का वर्णन है। इंजीनियरी प्रौद्योगिकियों के तीन 'खण्ड' होते थे। 'हिन्दी
शिल्पशास्त्र' नामक ग्रन्थ में कृष्णाजी
दामोदर वझे ने ४०० प्रौद्योगिकी-विषयक
ग्रन्थों की सूची दी है, जिसमें से कुछ निम्नलिखित हैं-
विश्वमेदिनीकोश, शंखस्मृति,
शिल्पदीपिका, वास्तुराजवल्लभ, भृगुसंहिता, मयमतम्, मानसार, अपराजितपृच्छा, समरांगणसूत्रधार,
कश्यपसंहिता, वृहतपराशरीय-कृषि, निसारः, शिगृ, सौरसूक्त,
मनुष्यालयचंद्रिका, राजगृहनिर्माण, दुर्गविधान, वास्तुविद्या, युद्धजयार्णव।
प्रौद्योगिकी से सम्बन्धित १८ प्राचीन संस्कृत ग्रन्थों में से 'कश्यपशिल्पम्' सर्वाधिक प्राचीन मानी
जाती है।
प्राचीन खनन एवं खनिकी से सम्बन्धित ग्रन्थ हैं- 'रत्नपरीक्षा', लोहार्णणव, धातुकल्प,
लोहप्रदीप, महावज्रभैरवतंत्र तथा पाषाणविचार।
'नारदशिल्पशास्त्रम' शिल्पशास्त्र का ग्रन्थ है।
वैमानिक शास्त्र : संस्कृत पद्य
में महर्षि भारद्वाज द्वारा रचित वैमानिकी शास्त्र पर सबसे ज्यादा प्रमाणिक
पुस्तक मानी जाती है। यह निबंध के तौर पर लिखी गई। इसमें रामायण काल के दौर के
करीब 120 विमानों का उल्लेख किया गया है। साथ ही इन्हें
अलग-अलग समय और जमीन से उड़ाने के बारे में भी बताया गया है। इसके अलावा इसमें प्रयोग
होने वाले ईधन, एयरोनॉटिक्स, हवाई जहाज,
धातु-विज्ञान, परिचालन का भी उल्लेख है।
इस पुस्तक के
अस्तित्व की घोषणा सन् 1952 में आर जी जोसयर (G. R. Josyer) द्वारा की गयी। जोसयर ने बताया कि यह ग्रन्थ
पण्डित सुब्बाराय शास्त्री (1866–1940) द्वारा रचित है जिन्होने इसे 1918–1923 के बीच बोलकर
लिखवाया। इसका एक हिन्दी अनुवाद
1959 में प्रकाशित हुआ जबकि संस्कृत पाठ
के साथ अंग्रेजी अनुवाद 1973 में प्रकाशित हुआ। इसमें कुल ८
अध्याय और 3000 श्लोक हैं। इसका हिंदी अनुवाद प्रकाशन
गुरूकुल कांग़डी, हरिद्वार द्वारा 1959 में क्या गया।
भारद्वाज ने 'विमान'
की परिभाषा इस प्रकार की है-
वेग-संयत् विमानो
अण्डजानाम्
( पक्षियों के समान वेग होने के कारण
इसे 'विमान' कहते हैं।)
(तथ्य-कथन गूगल से साभार)
"MMSTM समवैध्यावि ध्यान की वह आधुनिक विधि है। कोई
चाहे नास्तिक हो आस्तिक हो, साकार, निराकार कुछ भी हो बस
पागल और हठी न हो तो उसको ईश अनुभव होकर रहेगा बस समयावधि कुछ बढ सकती है। आपको
प्रतिदिन लगभग 40 मिनट देने होंगे और आपको 1 दिन से लेकर 10 वर्ष का समय लग सकता
है। 1 दिन उनके लिये जो सत्वगुणी और ईश भक्त हैं। 10 साल बगदादी जैसे हत्यारे के
लिये। वैसे 6 महीने बहुत है किसी आम आदमी के लिये।" देवीदास विपुल
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