गो रक्षक धर्म सम्राट स्वामी करपात्री जी महाराज
विपुल सेन उर्फ विपुल “लखनवी”,
(एम . टेक. केमिकल इंजीनियर) वैज्ञानिक
एवं कवि
वैज्ञानिक अधिकारी, भाभा परमाणु अनुसंधान
केन्द्र, मुम्बई
सम्पादक : विज्ञान त्रैमासिक हिन्दी जर्नल
“वैज्ञनिक” ISSN
2456-4818
फोन : (नि.) 022 2754 9553 (का) 022 25591154
मो. 09969680093
ई - मेल: vipkavi@gmail.com वेब: vipkavi.info वेब चैनल: vipkavi
ब्लाग: freedhyan.blogspot.com, फेस बुक: vipul luckhnavi
“bullet"
धर्म
सम्राट स्वामी करपात्री जी महाराज एक प्रख्यात भारतीय संत एवं संन्यासी राजनेता थे।
धर्मसंघ व अखिल भारतीय राम राज्य परिषद नामक राजनीतिक पार्टी के
संस्थापक महामहिम स्वामी करपात्री को "हिन्दू धर्म सम्राट" की उपाधि
मिली। स्वामी करपात्री एक सच्चे स्वदेशप्रेमी व हिन्दू धर्म प्रवर्तक थे। इनका
वास्तविक नाम 'हर नारायण
ओझा'
था।
स्वामी श्री का जन्म संवत 1964 विक्रमी
(सन 1907 ईस्वी) में श्रावण मास, शुक्ल पक्ष, द्वितीया
को ग्राम भटनी, ज़िला प्रतापगढ़ उत्तर प्रदेश में सनातन धर्मी सरयूपारीण
ब्राह्मण स्व. श्री रामनिधि ओझा एवं परमधार्मिक सुसंस्क्रिता स्व.
श्रीमती शिवरानी जी के आँगन में हुआ। बचपन में उनका नाम 'हरि
नारायण' रखा गया। सन 1982 को केदारघाट वाराणसी में स्वेच्छा से उनके
पंच प्राण महाप्राण में विलीन हो गए। उनके निर्देशानुसार उनके नश्वर पार्थिव शरीर का केदारघाट
स्थित श्री गंगा महारानी को पावन गोद में जल समाधी दी गई।
17 वर्ष की आयु से हिमालय गमन
प्रारंभ कर अखंड साधना, आत्मदर्शन, धर्म सेवा का संकल्प लिया। काशी धाम
में शिखासूत्र परित्याग के बाद विद्वत, सन्न्यास प्राप्त किया। एक ढाई गज़
कपड़ा एवं दो लंगोटी मात्र रखकर भयंकर शीतोष्ण वर्षा का सहन करना इनका 18 वर्ष
की आयु में ही स्वभाव बन गया था। त्रिकाल स्नान, ध्यान, भजन, पूजन, तो
चलता ही था। विद्याध्ययन की गति इतनी तीव्र थी कि संपूर्ण वर्ष का पाठ्यक्रम
घंटों और दिनों में हृदयंगम कर लेते। गंगातट पर फूंस की झोंपड़ी में
एकाकी निवास, घरों में भिक्षाग्रहण करनी, चौबीस घंटों में एक बार। भूमिशयन, निरावण चरण (पद) यात्रा। गंगातट नखर
में प्रत्येक प्रतिपदा को
धूप में एक लकड़ी की किल गाड कर एक टांग से खड़े होकर तपस्या रत रहते। चौबीस घंटे
व्यतीत होने पर जब सूर्य की
धूप से कील की छाया उसी स्थान पर पड़ती, जहाँ 24 घंटे पूर्व थी, तब दूसरे पैर का आसन बदलते। ऐसी कठोर साधना और घरों में भिक्षा के कारण "करपात्री"
कहलाए।
24 वर्ष की आयु में परम तपस्वी 1008 श्री स्वामी ब्रह्मानंद सरस्वती जी महाराज से विधिवत दण्ड
ग्रहण कर "अभिनवशंकर" के रूप में प्राकट्य हुआ। एक सुन्दर आश्रम की संरचना कर पूर्ण रूप से संन्यासी
बन कर "परमहंस परिब्राजकाचार्य 1008 श्री स्वामी हरिहरानंद
सरस्वती श्री करपात्री जी महाराज" कहलाए।
अखिल
भारतीय राम राज्य परिषद भारत की एक परम्परावादी हिन्दू पार्टी थी। इसकी स्थापना
स्वामी करपात्री ने सन् 1948 में की थी। इस दल ने सन् 1952
के प्रथम लोकसभा चुनाव में 3
सीटें
प्राप्त की थी। सन् 1952,
1957 एवम् 1962
के विधानसभा चुनावों में हिन्दी
क्षेत्रों (मुख्यत:
राजस्थान) में इस दल ने दर्जनों सीटें हासिल की थी।
सम्पूर्ण
देश में पैदल यात्राएँ करते धर्म प्रचार के लिए सन 1940
ई. में
"अखिल भारतीए धर्म संघ" की स्थापना
की जिसका दायरा संकुचित नहीं किन्तु वह
आज भी प्राणी मात्र में सुख शांति के
लिए प्रयत्नशील हैं। उसकी दृष्टि में
समस्त जगत और उसके प्राणी सर्वेश्वर,
भगवान के अंश हैं या रूप हैं। उसके
सिद्धांत में अधार्मिकों का नहीं अधर्म
के नाश को ही प्राथमिकता दी गई है। यदि मनुष्य स्वयं शांत और सुखी रहना चाहता है तो औरों
को भी शांत और सुखी बनाने का प्रयत्न आवश्यक है। इसलिए धर्म संघ के हर
कार्य को आदि अंत में धर्म की जय हो, अधर्म का नाश हो,
प्राणियों में सद्भावना हो,
विश्व का
कल्याण हो,
ऐसे पवित्र जयकारों का प्रयोग होना
चाहिए।
1966 के
गो-हत्या बंदी आंदोलन में जब संसद के सामने रोते और साधुओं की लाशें उठाते हुए करपात्री महाराज ने दिया था श्राप- मैं
कांग्रेस को श्राप देता हूं कि एक दिन हिमालय मे तपश्चर्या कर रहा एक साधू आधुनिक वेशभूषा
मे इसी संसद को कब्जा करेगा और कांग्रेसी विचारधारा को नष्ट कर
देगा। यह एक सच्चे
औऱ असली ब्राह्मण का श्राप है।
स्वाधीन भारत में विनोबाजी ने
पूर्ण
गोवध बंदी की मांग रखी। उसके लिए कानून बनाने का आग्रह नेहरू से
किया।
वे अपनी पदयात्रा में यह सवाल उठाते रहे। कुछ राज्यों ने गोवध बंदी
के
कानून बनाए।
इसी बीच हिन्दू महासभा के अध्यक्ष निर्मल चंद्र चटर्जी (लोकसभा के पूर्व अध्यक्ष सोमनाथ चटर्जी के पिता) ने
एक विधेयक 1955
में प्रस्तुत किया। उस पर जवाहरलाल नेहरू ने लोकसभा में घोषणा की कि 'मैं गोवध बंदी के विरुद्ध हूं। सदन इस विधेयक को रद्द कर दे। राज्य सरकारों
से मेरा अनुरोध है कि ऐसे विधेयक पर न तो विचार करें और न कोई
कार्यवाही।' लेकिन 1956 में कसाईयों ने उसे सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी। उस पर 1960 में सुप्रीम कोर्ट का फैसला आया।
धीरे-धीरे समय निकलता जा रहा था। लोगों को लगा कि अपनी सरकार अंग्रेजों की राह पर है। वह
आश्वासन देती है,
लेकिन आचरण उसका गोवध के
नाश का होता है।
इससे ही गोरक्षा का प्रश्न पिछली सदी के छठे दशक में राष्ट्रीय सवाल बन गया।
प्रभुदत्त ब्रह्मचारी, स्वामी करपात्रीजी और देश के तमाम संतों ने इसे आंदोलन का रूप
दिया।
गोरक्षा का अभियान शुरू
हुआ। वह अभियान जैसे-जैसे बढ़ा उसके महत्व को राजनीतिक नेताओं ने समझा। सबसे पहले लोकनायक जयप्रकाश
नारायण ने
प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी
को पत्र लिखा। वह 21
सितंबर, 1966 का है। उन्होंने लिखा कि 'गो-वध बंदी के लिए लंबे समय से चल रहे आंदोलन के बारे में आप जानतीं ही हैं। संसद के पिछले सत्र में भी यह मुद्दा सामने
आया था।-
और जहां तक मेरा सवाल है
मैं यह समझ नहीं पाता कि भारत जैसे एक हिन्दू-बहुल देश में, जहां गलत हो या सही, गोवध के विरुद्ध ऐसा तीव्र जन-संवेग है, गोवध पर कानूनन प्रतिबंध क्यों नहीं लगाया जा सकता।'
इंदिरा गांधी ने जे.पी. की सलाह नहीं मानी। परिणाम हुआ कि सर्वदलीय गोरक्षा
महा
अभियान ने दिल्ली में
विराट प्रदर्शन किया। दिल्ली के इतिहास का वह सबसे बड़ा प्रदर्शन था।
गोरक्षा के लिए तब प्रभुदत्त ब्रह्मचारी, पुरी के शंकराचार्य निरंजन देव तीर्थ ने गोरक्षा के लिए प्रदर्शनकारियों पर
पुलिस
जुल्म के विरोध में और
गो-वध बंदी की मांग के लिए 20 नवंबर, 1966 को अनशन प्रारंभ कर दिया। वे गिरफ्तार किए गए। प्रभुदत्त ब्रह्मचारी का
अनशन 30
जनवरी, 1967 तक चला। 73वें दिन डॉ. राममनोहर लोहिया ने अनशन तुड़वाया। अगले दिन पुरी के शंकराचार्य ने भी अनशन तोड़ा। उसी समय जैन
संत मुनि सुशील कुमार
ने भी लंबा अनशन किया था। ऐसे संकल्प तो संत अपनी सभ्यता और संस्कृति की रक्षा के लिए ही करते हैं।
ऐसा नहीं है कि गोरक्षा का प्रश्न उस
आंदोलन के बाद बंद हो गया। वह दस साल
बाद फिर शुरू हुआ। उसे संत विनोबा ने उठाया। 12 अप्रैल, 1978 को डॉ. रामजी सिंह ने एक निजी
विधेयक रखा। जिसमें संविधान की धारा 48 के निर्देश पर अमल के लिए कानून
बनाने की मांग थी। 21 अप्रैल, 1979 को विनोबा ने अनशन शुरू कर
दिया। पांच दिन बाद प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई ने
कानून बनाने का आश्वासन दिया और विनोबा ने उपवास तोड़ा।
10 मई, 1979 को एक संविधान संशोधन
विधेयक पेश किया गया। जो लोकसभा के
विघटित होने के कारण अपने आप समाप्त हो गया। इंदिरा गांधी के दोबारा शासन में
आने के बाद 1981 में पवनार में गोसेवा
सम्मेलन हुआ। उसके
निर्णयानुसार 30 जनवरी, 1982 के सुबह विनोबा ने
उपवास रखकर गोरक्षा के लिए सौम्य
सत्याग्रह की शुरुआत की। वह सत्याग्रह 18 साल तक चलता रहा।
गोवध बंदी आंदोलन और सत्याग्रहों का ही प्रभाव था कि अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार ने धर्मपाल की अध्यक्षता में
गो-पशु आयोग बनाया। धर्मपाल ने जल्दी ही आयोग की सीमाएं पहचान लीं। वे समझ गए कि मसले
को टालने
के लिए आयोग बनाया गया है।
सरकार गोवंश की रक्षा के प्रति ईमानदार नहीं थी। उन्होंने यह अनुभव करते ही आयोग से इस्तीफा दे
दिया। धर्मपाल मानते
थे और यही सच भी है कि गोवध पर पूरा प्रतिबंध लगना चाहिए। इसके लिए कानून हो। नेहरू के जमाने में सुप्रीम कोर्ट से थोड़ी अड़चन
थी। तत्कालीन प्रधानमंत्री
को आंदोलन का बहाना भी मिल जाता था।
गोवध बंदी आंदोलन और सत्याग्रहों का ही प्रभाव था कि स्वामी करपात्री
जी ने
कांग्रेस की नीतियों और
साधुओं पर अत्याचार को लेकर श्राप दिया था।
(तथ्य कथन गूगल साइट्स इत्यादि से साभार)
"MMSTM समवैध्यावि ध्यान की वह आधुनिक
विधि है। कोई चाहे नास्तिक हो आस्तिक हो, साकार, निराकार कुछ भी हो बस पागल और हठी
न हो तो उसको ईश अनुभव होकर रहेगा बस समयावधि कुछ बढ सकती है। आपको प्रतिदिन लगभग
40 मिनट देने होंगे और आपको 1 दिन से लेकर 10 वर्ष का समय लग सकता है। 1 दिन उनके
लिये जो सत्वगुणी और ईश भक्त हैं। 10 साल बगदादी जैसे हत्यारे के लिये। वैसे 6
महीने बहुत है किसी आम आदमी के लिये।" सनातन पुत्र देवीदास विपुल खोजी
ब्लाग :
https://freedhyan.blogspot.com/
No comments:
Post a Comment