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Monday, January 7, 2019

कृष्ण आंदोलन के आधुनिक जनक : भक्तिवेदान्त स्वामी प्रभुपाद


कृष्ण आंदोलन के आधुनिक जनक :  
भक्तिवेदान्त स्वामी प्रभुपाद
 विपुल सेन उर्फ विपुल लखनवी,
(एम . टेक. केमिकल इंजीनियर) वैज्ञानिक एवं कवि
सम्पादक : विज्ञान त्रैमासिक हिन्दी जर्नल “वैज्ञनिक” ISSN 2456-4818
वेब:  vipkavi.info वेब चैनलvipkavi
ब्लाग: freedhyan.blogspot.com,


भारत से बाहर विदेशों में हजारों महिलाओं को साड़ी पहने चंदन की बिंदी लगाए व पुरुषों को धोती कुर्ता और गले में तुलसी की माला पहने देखा जा सकता है। लाखों ने मांसाहार तो क्या चाय, कॉफी, प्याज, लहसुन जैसे तामसी पदार्थों का सेवन छोड़कर शाकाहार शुरू कर दिया है। वे लगातार ‘हरे राम-हरे कृष्ण’ का कीर्तन भी करते रहते हैं। इसका श्रेय काफी हद तक इस्कॉन को ही जाता है। इस्कॉन की ही देन है कि पूरब की गीता पश्चिम के लोगों के सिर चढ़कर बोलने लगी है। इस्कॉन ने पश्चिमी देशों में अनेक भव्य मन्दिर और विद्यालय बनवाये हैं। इस्कॉन के अनुयायी विश्वभर में गीता और हिन्दू धर्म एवं संस्कृति का प्रचार-प्रसार करते हैं।


हिंदू धर्म में तो जन्माष्टमी का काफी महत्व है। इस दिन भारत तो क्या बल्कि दुनियाभर के कृष्ण मंदिरों को दुल्हन की तरह सजाया जाता है। यूं तो दुनिया में कृष्ण भगवान के हजारों मंदिर हैं, लेकिन इनमें से एकऐतिहासिक मंदिर है इस्कॉन मंदिर। इस मंदिर के बारे में तो आपने खूब सुना होगा कि इसे अंग्रेजों ने बनवाया है। ये सच भी है । दुनिया में पहला इस्कॉन मंदिर न्यूयॉर्क में 1966 में बनाया गया था। इस अध्यात्मिक संस्थान की स्थापना श्रीकृष्णकृपा श्रीमूर्ति श्री अभयचरणारविन्द भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपादजी ने की थी।

वहीं शंकराचार्य स्वरूपानंद ने आस्था के प्रतीक इस्कान मंदिर पर विवादित बयान दिया है। उनका कहना है कि इस्कॉन मंदिर केवल कमाई का अड्डा है। इस्कान में पैसों की लूट मची है और वहां चढ़ने वाले पैसे सीधे अमेरिका भेजे जाते हैं क्योंकि इस्कॉन भारत में नहीं बल्कि अमेरिका में पंजीकृत संस्था है इसलिए मेरी मांग है कि इस बात की जांच की जाये।


स्वामी प्रभुपाद जी महाराज ने कृष्ण के उपदेशों को नयी दुनिया में फैलाने के दृढ़ संकल्प के साथ सन् 1965 में 96 साल की आयु में अमेरिका गये। शुरूआत में इनके संगठन को आर्थिक कठिनाईयों का सामना करना पड़ा लेकिन शीघ्र ही यह बहुत लोगों को हरे कृष्णा आन्दोलन के साथ जोड़ने में सफल रहे और उन्होंने इनमें लाखों भक्तों को शामिल कर विश्वव्यापी संगठन का रूप दिया।
स्वामी प्रभुपाद ने बहुत सी किताबें लिखीं और भागवत के तीस अध्यायों का अंग्रेजी में अनुवाद किया।
कृष्ण भक्ति में लीन इस्कॉन सोसायटी की स्थापना भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद जी ने की थी। इस अंतरराष्ट्रीय सोसायटी का पूरा नाम इंटरनेशनल सोसायटी फॉर कृष्णा कांशसनेस है। न्यूयॉर्क से शुरू हुई कृष्ण भक्ति की यह निर्मल धारा जल्द ही विश्व के कोने-कोने में बहने लगी। अकेले अमेरिका में कुल 40 इस्कॉन मंदिर हैं। सभी मंदिरों की बनावट एक समान रखने की कोशिश की जाती है। हर इस्कॉन मंदिर में तुलसी बगीचा भी होता है। इस सोसायटी द्वारा बनवाये गये कृष्ण जी के मंदिर दुनिया भर में इस्कॉन मंदिर के नाम से विख्यात हैं। जहां, भक्त- जन हरे रामा-हरे कृष्णा भजन में लीन रहते हैं।

ISKCON का पूरा नाम International Society for Krishna Consciousness है जिसे हिंदी में अंतर्राष्ट्रीय कृष्णभावनामृत संघ या इस्कान कहते हैं। स्वामी प्रभुपादजी नें पूरे विश्व में भगवान कृष्ण के संदेश को पहुंचाने के लिए इस मंदिर की स्थापना की थी।

इस मंदिर का पावन भजन है हरे-कृष्ण हरे राम। जिसे आप कई अंग्रेजों को भी गाते बजाते हुए सुन सकते हैं। मात्र 55 बरस की उम्र में संन्यास लेकर पूरे विश्व में स्वामी जी ने हरे रामा हरे कृष्णा का प्रचार किया।

अपने साधारण नियम और सभी जाति-धर्म के प्रति समभाव के चलते इस मंदिर के अनुयायियों की संख्या लगातार बढ़ती जा रही है। हर वह व्यक्ति जो कृष्ण में लीन होना चाहता है, उनका यह मंदिर स्वागत करता है।

आज दुनियाभर में इस्कॉन के 107 से ज्यादा मंदिर हैं। इस्कॉन के संस्थापक प्रभुपद पुरे भारत में भगवान श्री कृष्ण के मंदिर बनवाना चाहते थे। इसीलिए दिल्ली में जो इस्कॉन का मंदिर बनाया गया उसका असली नाम श्री श्री राधा पार्थसारथी मंदिर है और इसकी स्थापना 1995 में की गयी थी ताकी भक्त को सीधा भगवान कृष्ण के साथ जोड़ा जा सके।
बैंगलोर में स्थित इस्कॉन मंदर विश्व में सबसे बड़ा मंदिर है। इसका निर्माण 1977 में किया गया था।

वर्तमान में इस्कॉन ग्रुप के 77 देशों में लगभग 600 से ज्यादा मंदिर हैं। साथ ही 30 एजुकेशनल इंस्टीट्यूट्स और कई रेस्टोरेंट्स भी हैं।

 

अभय चरणारविन्द भक्तिवेदान्त स्वामी प्रभुपाद (सिद्ध गौड़ीय वैष्णव गुरु तथा धर्मप्रचारक थे। वेदान्त, कृष्ण भक्ति और इससे संबंधित क्षेत्रों पर आपने विचार रखे और कृष्णभावना को पश्चिमी जगत् में पहुँचाने का कार्य किया। ये भक्तिसिद्धांत ठाकुर सरस्वती के शिष्य थे, जिन्होंने इनको अंग्रेज़ी के माध्यम से वैदिक ज्ञान के प्रसार के लिए प्रेरित और उत्साहित किया।

स्वामी प्रभुपाद का जन्म 1896 ईं. में भारत के कोलकाता नगर में हुआ था। इनके बचपन का नाम अभय चरण था। पिता का नाम गौर मोहन डे और माता का नाम रजनी था। इनके पिता एक कपड़ा व्यापारी थे। उन्होने स्कॉटिश चर्च कॉलेज कोलकाता से पढाई पूरी की। सन्यास अपनाने से पहले स्वामी जी वैवाहिक जीवन से बंधे थे, जिससे उन्हें बच्चे भी थे। उनका फार्मास्यूटिकल का छोटा सा व्यवसाय भी था। उनका घर उत्तरी कोलकाता में 151, हैरिसन मार्ग पर स्थित था। गौर मोहन डे ने अपने बेटे अभय चरण का पालन पोषण एक कृष्ण भक्त के रूप में किया। अभय चरण ने 1922 में अपने गुरु महाराज श्रील भक्ति सिद्धांत सरस्वती गोस्वामी से भेंट की। इसके ग्यारह वर्ष बाद 1933 में वे प्रयाग में उनके विधिवत दीक्षा प्राप्त शिष्य हो गए।

स्वामी प्रभुपाद से उनके गुरु श्रील भक्तिसिद्धांत सरस्वती ठाकुर ने कहा था कि वे अंग्रेज़ी भाषा के माध्यम से वैदिक ज्ञान का प्रसार करें। आगामी वर्षों में श्रील प्रभुपाद ने 'श्रीमद्भगवद्गीता' पर एक टीका लिखी, गौड़ीय मठ के कार्य में सहयोग दिया। 1944 में श्रील प्रभुपाद ने बिना किसी की सहायता के एक अंग्रेज़ी पाक्षिक पत्रिका आरंभ की, जिसका संपादन, पाण्डुलिपि का टंकण और मुद्रित सामग्री के शोधन का सारा कार्य वे स्वयं करते थे। बेहद संघर्ष और अभावों के बावजूद श्रील प्रभुपाद ने इस पत्रिका को बंद नहीं होने दिया। अब यह पत्रिका "बैक टू गॉडहैड" पश्चिमी देशों में भी चलाई जा रही है और तीस से अधिक भाषाओं में छप रही है।

श्रील प्रभुपाद के दार्शनिक ज्ञान एवं भक्ति की महत्ता पहचान कर गौड़ीय वैष्णव समाज ने 1947 में उन्हें भक्ति वेदान्त की उपाधि से सम्मानित किया।

सन 1959 में सन्यास ग्रहण के बाद भक्ति वेदान्त स्वामी प्रभुपाद ने वृन्दावन, मथुरा में 'श्रीमद्भागवत पुराण' का अनेक खंडों में अंग्रेज़ी में अनुवाद किया। आरंभिक तीन खंड प्रकाशित करने के बाद सन 1965 में अपने गुरुदेव के अनुष्ठान को संपन्न करने अमेरिका को निकले। जब वे मालवाहक जलयान द्वारा पहली बार न्यूयॉर्क नगर में आए तो उनके पास एक पैसा भी नहीं था। अत्यंत कठिनाई भरे करीब एक वर्ष के बाद जुलाई, 1966 में उन्होंने अंतर्राष्ट्रीय कृष्णभावनामृत संघ ('इस्कॉन' ISKCON) की स्थापना की। सन 1968 में प्रयोग के तौर पर वर्जीनिया, अमेरिका की पहाड़ियों में नव-वृन्दावन की स्थापना की। दो हज़ार एकड़ के इस समृद्ध कृषि क्षेत्र से प्रभावित होकर उनके शिष्यों ने अन्य जगहों पर भी ऐसे समुदायों की स्थापना की। 1972 में टेक्सस के डलास में गुरुकुल की स्थापना कर प्राथमिक और माध्यमिक शिक्षा की वैदिक प्रणाली का सूत्रपात किया।

14 नवंबर, 1977 ईं को 'कृष्ण-बलराम मंदिर', वृन्दावन धाम में अप्रकट होने के पूर्व तक श्रील प्रभुपाल ने अपने कुशल मार्ग निर्देशन के कारण 'इस्कॉन' को विश्व भर में सौ से अधिक मंदिरों के रूप में विद्यालयों, मंदिरों, संस्थानों और कृषि समुदायों का वृहद संगठन बना दिया। उन्होंने 'अंतर्राष्ट्रीय कृष्ण भावनामृत संघ' अर्थात्‌ 'इस्कॉन' की स्थापना कर संसार को कृष्ण भक्ति का अनुपम उपचार प्रदान किया। आज विश्व भर में इस्कॉन के आठ सौ से ज्यादा केंद्र, मंदिर, गुरुकुल एवं अस्पताल आदि प्रभुपाद की दूरदर्शिता और अद्वितीय प्रबंधन क्षमता के जीते जागते साक्ष्य हैं।

श्रील प्रभुपाद के ग्रंथों की प्रामाणिकता, गहराई और उनमें झलकता उनका अध्ययन अत्यंत मान्य है। कृष्ण को सृष्टि के सर्वेसर्वा के रूप में स्थापित करना और अनुयायियों के मुख पर "हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे, हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे" का उच्चारण सदैव रखने की प्रथा इनके द्वारा स्थापित हुई। 1950 ईं. में श्रील प्रभुपाद ने गृहस्थ जीवन से अवकाश लिया और फिर वानप्रस्थ जीवन व्यतीत करने लगे, जिससे वे अपने अध्ययन और लेखन के लिए अधिक समय दे सके। वे वृन्दावन धाम आकर बड़ी ही सात्विक परिस्थितियों में मध्यकालीन ऐतिहासिक श्रीराधा दामोदर मन्दिर में रहे। वहाँ वे अनेक वर्षों तक गंभीर अध्ययन एवं लेखन में संलग्न रहे। 1959 ई. में उन्होंने संन्यास ग्रहण कर लिया था। श्रीराधा दामोदर मन्दिर में श्रील प्रभुपाद ने अपने जीवन के सबसे श्रेष्ठ और महत्वपूर्ण ग्रंथ का आरंभ किया। यह ग्रंथ था- "अठारह हज़ार श्लोक संख्या के श्रीमद्भागवत पुराण का अनेक खण्डों में अंग्रेज़ी में अनुवाद और व्याख्या"।

श्रील प्रभुपाद जी का निधन 14 नवम्बर, 1977 में प्रसिद्ध धार्मिक नगरी मथुरा के वृन्दावन धाम में हुआ।

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