12 जनवरी युवा दिवस और स्वामी विवेकानंद
विपुल सेन उर्फ विपुल “लखनवी”,
(एम . टेक. केमिकल इंजीनियर) वैज्ञानिक
एवं कवि
सम्पादक : विज्ञान त्रैमासिक हिन्दी जर्नल
“वैज्ञनिक” ISSN
2456-4818
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स्वामी विवेकानंद जयंती हर साल 12 जनवरी को मनाई जाती है। उनका जन्म 12 जनवरी 1863 को हुआ था। भारत में उनके जन्मदिन को युवा दिवस के तौर
हर साल
मनाया जाता है। स्वामी
विवेकानन्द ने अपने विचारों से दुनिया में भारत का नाम रौशन किया था। उनके द्वारा सन 1893 में अमेरिका के शिकागो शहर में विश्व धर्म सम्मेलन में दुनिया को हिंदुत्व और आध्यात्म
का पाठ पढ़ाया था। शिकागो में स्वामी विवेकानंद ने आध्यात्मिकता से परिपूर्ण भारतीय
वेदांत
दर्शन को अमेरिका और यूरोप
के क्षितिज में फैलाया था। स्वामी विवेकानन्द ने रामकृष्ण मठ, रामकृष्ण मिशन और वेदांत सोसाइटी जैसे महत्वपूर्ण संस्थानो की नींव रखी थी।
12 जनवरी 2019 को स्वामी विवेकानंद की जयंती है। इस अवसर पर ऊर्जा से
भर देने वाले स्वामी विवेकानंद के 10 ओजपूर्ण विचार...
1- जब तक आप खुद पे विश्वास नहीं करते तब तक आप भागवान पे विश्वास नहीं कर सकते।
2- बस वही जीते हैं, जो दूसरों के लिए जीते हैं।
3- हम वो हैं जो हमें हमारी सोच ने बनाया है, इसलिए इस बात का ध्यान रखिए कि आप क्या सोचते हैं। शब्द गौण हैं। विचार रहते हैं। वे दूर तक यात्रा करते हैं।
4- जो तुम सोचते हो वो हो जाओगे। यदि तुम खुद को कमजोर सोचते हो, तुम कमजोर हो जाओगे, अगर खुद को ताकतवर सोचते हो, तुम ताकतवर हो जाओगे।
5- जितना बड़ा संघर्ष होगा जीत उतनी ही शानदार होगी।
6- उठो, जागो और तब तक नहीं रुको, जब तक लक्ष्य ना प्राप्त हो जाए।
7- किसी दिन, जब आपके सामने कोई समस्या ना आए, आप सुनिश्चित हो सकते हैं कि आप गलत मार्ग पर चल रहे हैं।
8- सबसे बड़ा धर्म है अपने स्वभाव के प्रति सच्चा होना। स्वयं पर विश्वास करो।
9- एक समय में एक काम करो, और ऐसा करते समय अपनी पूरी आत्मा उसमें डाल दो और बाकी सब कुछ भूल जाओ।
10- ब्रह्मांड की सारी शक्तियां पहले से हमारी हैं। वो हमीं हैं जो अपनी आंखों पर हाथ रख लेते हैं और फिर रोते हैं कि कितना अंधकार है।
'उठो, जागो और तब तक रुको नहीं,
जब तक मंजिल प्राप्त न हो जाए',
'यह
जीवन अल्पकालीन है,
संसार की विलासिता क्षणिक है,
लेकिन जो दूसरों के लिए
जीते हैं,
वे वास्तव में जीते हैं.'
गुलाम भारत में ये बातें स्वामी
विवेकानंद ने कही थी. उनकी इन बातों पर
देश के लाखों युवा फिदा हो गए थे. बाद में अमेरिका भी स्वामी विवेकानंद का कायल हो गया.
12
जनवरी,
1863 में कोलकाता के एक कायस्थ परिवार में एक
बच्चे का जन्म हुआ था. विश्वनाथ दत्त के घर में जन्मे नरेंद्रनाथ दत्त
(स्वामी विवेकानंद) को हिंदू धर्म के मुख्य प्रचारक के रूप में जाना जाता
है. नरेंद्र के पिता पाश्चात्य सभ्यता में विश्वास रखते थे. वह चाहते थे
कि उनका पुत्र भी पाश्चात्य सभ्यता के मार्ग पर चले. मगर नरेंद्र ने 25
साल की उम्र में घर-परिवार छोड़कर संन्यासी का जीवन अपना लिया.
परमात्मा को पाने की लालसा के साथ तेज दिमाग ने युवक नरेंद्र को देश के साथ-साथ
दुनिया में विख्यात बना दिया.
आपके पिता पाश्चात्य सभ्यता में विश्वास रखते थे। वे
अपने पुत्र
नरेन्द्र को भी अँग्रेजी
पढ़ाकर पाश्चात्य सभ्यता के ढर्रे पर चलाना चाहते थे। नरेन्द्र की बुद्धि बचपन से तीव्र थी और परमात्मा
में व अध्यात्म में ध्यान था। इस हेतु आप पहले ‘ब्रह्म समाज' में गये किन्तु वहाँ आपके चित्त संतुष्ट न हुआ। इस बीच आपने कलकत्ता विश्वविद्यालय से
बी.ए उत्तीर्ण कर ली और कानून की परीक्षा की तैयारी करने लगे। इसी समय में आप अपने
धार्मिक व
अध्यात्मिक संशयों की
निवारण हेतु अनेक लोगों से मिले लेकिन कहीं भी आपकी शंकाओं का समाधान न मिला। एक दिन आपके एक संबंधी आपको
रामकृष्ण परमहंस के पास ले गये।
स्वामी रामकृष्ण परमहंस ने नरेन्द्रदत्त को देखते ही
पूछा,
"क्या तुम धर्म विषयक कुछ
भजन गा सकते हो?"
नरेन्द्रदत्त ने कहा, "हाँ, गा सकता हूँ।"
फिर नरेन ने दो-तीन
भजन अपने मधुर स्वरों में गाए। आपके भजन से स्वामी परमहंस अत्यंत प्रसन्न हुए।
तभी से नरेन्द्रदत्त स्वामी परमहंस का सत्संग करने लगे और उनके शिष्य बन
गए। अब आप वेदान्त मत के दृढ़ अनुयायी बन गए थे।
यहीं से नरेंद्र का 'स्वामी विवेकानंद' बनने का सफर शुरू हुआ।
नरेंद्रनाथ दत्त के 9 भाई-बहन थे, पिता विश्वनाथ कलकत्ता हाईकोर्ट में वकील हुआ करते थे और दादा दुर्गाचरण
दत्त संस्कृत और पारसी के विद्वान थे.
अपने युवा दिनों में नरेंद्र को अध्यात्म में रुचि हो
गई थी. उन्हें साधुओं और संन्यासियों
के प्रवचन और उनकी कही बातें हमेशा प्रेरित करती थीं. पिता विश्वनाथ ने नरेंद्र की रुचि
को देखते हुए आठ साल की आयु में उनका दाखिला ईश्वर चंद्र विद्यासागर
मेट्रोपोलिटन इंस्टीट्यूट में कराया, जहां से उन्होंने अपनी प्राथमिक शिक्षा ग्रहण की। 1879
में
कलकत्ता के प्रेसीडेंसी कॉलेज की
एंट्रेंस परीक्षा में प्रथम श्रेणी में
आने वाले वे पहले विद्यार्थी थे.
उन्होंने दर्शनशास्त्र, धर्म, इतिहास, सामाजिक विज्ञान, कला और साहित्य जैसे विभिन्न
विषयों को काफी पढ़ा. साथ ही हिंदू
धर्मग्रंथों में भी उनकी रुचि थी. उन्होंने वेद, उपनिषद, भगवत गीता, रामायण, महाभारत और पुराण को भी पढ़ा.
उन्होंने 1881 में ललित कला की परीक्षा पास
की और 1884 में कला स्नातक की डिग्री
प्राप्त की.
सन् 1884 में पिता की अचानक मृत्यु से नरेंद्र को मानसिक आघात
पहुंचा. उनका विचलित
मन देख उनकी मदद रामकृष्ण परमहंस ने की. उन्होंने नरेंद्र को अपना ध्यान अध्यात्म में लगाने को कहा. मोह-माया से संन्यास
लेने के बाद उनका नाम
स्वामी विवेकानंद पड़ा. 1887 से 1892 के बीच स्वामी विवेकानन्द अज्ञातवास में एकान्तवास में
साधनारत रहने के बाद भारत-भ्रमण पर रहे। आप वेदान्त और योग को पश्चिम संस्कृति में
प्रचलित करने के लिए महत्वपूर्ण योगदान देना चाहते थे।
सन् 1885 में रामकृष्ण को गले का कैंसर हुआ,
जिसके बाद उन्हें जगह-जगह इलाज के
लिए जाना पड़ा। उनके अंतिम दिनों में
नरेंद्र और उनके अन्य साथियों ने रामकृष्ण की खूब सेवा की. इसी दौरान नरेंद्र की
आध्यात्मिक शिक्षा भी शुरू हो गई थी. रामकृष्ण के अंतिम दिनों के दौरान 25
वर्षीय नरेंद्र और उनके
अन्य शिष्यों ने भगवा पोशाक धारण कर ली
थी. रामकृष्ण ने अपने अंतिम दिनों में नरेंद्र को ज्ञान का पाठ दिया और सिखाया कि
मनुष्य की सेवा करना ही भगवान की सबसे बड़ी पूजा है. रामकृष्ण ने उन्हें अपने
मठवासियों का ध्यान रखने को कहा. साथ ही उन्होंने कहा कि वे नरेंद्र को
एक गुरु के रूप में देखना चाहते हैं.
16 अगस्त, 1886 को रामकृष्ण का निधन हो गया.
सन् 1893 में अमेरिका के शिकागो में हुई विश्व धर्म परिषद में स्वामी विवेकानंद भारत
के प्रतिनिधि के रूप से पहुंचे थे. जहां यूरोप-अमेरिका
के लोगों द्वारा गुलामी झेल रहे भारतीयों को हीन दृष्टि से देखा जाता था. परिषद में मौजूद
लोगों की बहुत कोशिशों के बावजूद एक अमेरिकी प्रोफेसर
के प्रयास से स्वामी विवेकानंद को बोलने के लिए थोड़ा समय मिला. उनके विचार सुनकर वहां मौजूद सभी
विद्वान चकित रह गए और उसके बाद वह तीन वर्ष तक
अमेरिका में रहे और लोगों को भारतीय तत्वज्ञान प्रदान करते रहे।
स्वामी विवेकानंद ने 11 सितंबर 1893 को शिकागो (अमेरिका)
में हुए विश्व धर्म सम्मेलन में एक
बेहद चर्चित भाषण दिया था। विवेकानंद का जब भी जि़क्र आता है उनके इस भाषण की
चर्चा जरूर होती है। पढ़ें विवेकानंद का यह भाषण...
अमेरिका के बहनो और
भाइयो, आपके इस स्नेहपूर्ण
और जोरदार स्वागत से मेरा हृदय अपार
हर्ष से भर गया है। मैं आपको दुनिया की सबसे प्राचीन संत परंपरा की तरफ से धन्यवाद
देता हूं। मैं आपको सभी धर्मों की जननी की तरफ से धन्यवाद देता हूं और सभी
जाति, संप्रदाय के लाखों, करोड़ों हिन्दुओं की तरफ से आपका आभार व्यक्त
करता हूं। मेरा धन्यवाद कुछ उन वक्ताओं को भी जिन्होंने इस मंच से यह कहा
कि दुनिया में सहनशीलता का विचार सुदूर पूरब के देशों से फैला है। मुझे गर्व
है कि मैं एक ऐसे धर्म से हूं, जिसने दुनिया को सहनशीलता और सार्वभौमिक
स्वीकृति का पाठ पढ़ाया है। हम सिर्फ सार्वभौमिक सहनशीलता में ही विश्वास
नहीं रखते, बल्कि हम विश्व के
सभी धर्मों को सत्य के रूप में स्वीकार
करते हैं।
मुझे गर्व है कि मैं एक ऐसे देश
से हूं, जिसने इस धरती के सभी देशों और
धर्मों
के परेशान और सताए गए लोगों को शरण दी है। मुझे यह बताते हुए गर्व
हो
रहा है कि हमने अपने हृदय में उन इस्त्राइलियों की पवित्र स्मृतियां
संजोकर
रखी हैं, जिनके धर्म स्थलों को रोमन हमलावरों ने
तोड़-तोड़कर खंडहर बना दिया था। और तब उन्होंने
दक्षिण भारत में शरण ली थी। मुझे इस बात का गर्व है कि मैं एक ऐसे धर्म से
हूं, जिसने महान पारसी धर्म के लोगों को शरण
दी
और अभी भी उन्हें पाल-पोस रहा है। भाइयो, मैं आपको एक श्लोक की कुछ
पंक्तियां
सुनाना चाहूंगा जिसे मैंने बचपन से स्मरण किया और दोहराया है और
जो
रोज करोड़ों लोगों द्वारा हर दिन दोहराया जाता है: जिस तरह अलग-अलग
स्त्रोतों
से निकली विभिन्न नदियां अंत में समुद में जाकर मिलती हैं, उसी
तरह
मनुष्य अपनी इच्छा के अनुरूप अलग-अलग मार्ग चुनता है। वे देखने में भले
ही
सीधे या टेढ़े-मेढ़े लगें, पर सभी भगवान तक ही जाते हैं। वर्तमान
सम्मेलन
जो कि आज तक की सबसे पवित्र सभाओं में से है, गीता में बताए गए इस
सिद्धांत
का प्रमाण है: जो भी मुझ तक आता है, चाहे वह कैसा भी हो, मैं उस
तक
पहुंचता हूं। लोग चाहे कोई भी रास्ता चुनें, आखिर में मुझ तक ही पहुंचते
हैं।
सांप्रदायिकताएं, कट्टरताएं और इसके भयानक वंशज हठधमिर्ता लंबे समय से पृथ्वी को अपने शिकंजों में जकड़े हुए हैं। इन्होंने
पृथ्वी को हिंसा से भर दिया है। कितनी बार ही यह धरती खून से लाल हुई है। कितनी ही सभ्यताओं
का
विनाश हुआ है और न जाने
कितने देश नष्ट हुए हैं।
अगर ये भयानक राक्षस नहीं होते तो आज मानव समाज कहीं
ज्यादा उन्नत होता,
लेकिन अब उनका समय पूरा हो चुका है। मुझे पूरी उम्मीद
है कि आज इस सम्मेलन का शंखनाद सभी हठधर्मिताओं, हर तरह के क्लेश, चाहे वे तलवार से हों या कलम से और सभी मनुष्यों के बीच की दुर्भावनाओं का विनाश
करेगा।
"उत्तिष्ठत जाग्रत प्राप्य वरान्निबोधत।" अर्थात्
उठो, जागो, और ध्येय की प्राप्ति तक रूको मत।
मैं
सिर्फ और सिर्फ प्रेम की शिक्षा देता हूं और मेरी सारी शिक्षा वेदों
के उन महान सत्यों पर आधारित है जो हमें समानता और आत्मा की सर्वत्रता
का ज्ञान देती है।
सफलता के तीन आवश्यक अंग हैं-शुद्धता,धैर्य और दृढ़ता। लेकिन, इन सबसे बढ़कर जो आवश्यक है वह है प्रेम।
हम ऐसी शिक्षा चाहते हैं जिससे चरित्र निर्माण हो।
मानसिक शक्ति का विकास हो। ज्ञान का विस्तार हो और जिससे हम खुद के
पैरों पर खड़े होने में सक्षम बन जाएं।
खुद को समझाएं, दूसरों को समझाएं। सोई हुई आत्मा को आवाज दें और
देखें कि यह कैसे जागृत होती है। सोई हुई आत्मा के का जागृत
होने पर ताकत, उन्नति, अच्छाई, सब कुछ आ जाएगा।
मेरे आदर्श को सिर्फ इन शब्दों में व्यक्त किया जा
सकता हैः मानव जाति देवत्व की सीख का इस्तेमाल अपने जीवन में हर कदम पर करे।
शक्ति की वजह से ही हम जीवन में ज्यादा पाने की
चेष्टा करते हैं। इसी की वजह से हम पाप कर बैठते हैं और दुख को आमंत्रित
करते हैं। पाप और दुख का कारण कमजोरी होता है। कमजोरी से अज्ञानता आती है और
अज्ञानता से दुख।
अगर आपको तैतीस करोड़
देवी-देवताओं पर भरोसा है लेकिन खुद पर नहीं तो आप को मुक्ति नहीं मिल सकती। खुद पर भरोसा रखें, अडिग रहें और मजबूत बनें। हमें इसकी ही जरूरत है।
अपने गुरु के दिखाए मार्ग से लोगों को अवगत कराने के लिए उन्होंने सन् 1897
में रामकृष्ण मिशन की स्थापना की. इसके साथ
ही उन्होंने दुनिया में जगह-जगह रामकृष्ण मिशन की शाखाएं
स्थापित कीं. रामकृष्ण मिशन की शिक्षा थी कि दुनिया के सभी धर्म
सत्य हैं और वे एक ही ध्येय की तरफ जाने के अलग-अलग रास्ते हैं.
विवेकानंद
द्वारा स्थापित रामकृष्ण मिशन ने धर्म
के साथ-साथ सामाजिक सुधार के लिए विशेष अभियान चलाए. इसके अलावा उन्होंने जगह-जगह
अनाथाश्रम, अस्पताल, छात्रावास की स्थापना की. मिशन के तहत उन्होंने
अंधश्रद्धा छोड़ विवेक बुद्धि से धर्म का अभ्यास करने को कहा. उन्होंने
इंसान की सेवा को सच्चा धर्म करार दिया. जाति व्यवस्था को दरकिनार कर
उन्होंने मानवतावाद और विश्व-बंधुत्व का प्रचार-प्रसार किया.
उन्होंने युवाओं
में चेतना भरने के लिए कहा था कि आज के युवकों को शारीरिक प्रगति से
ज्यादा आंतरिक प्रगति करने की जरूरत है. आज के युवाओं को अलग-अलग दिशा में
भटकने की बजाय एक ही दिशा में ध्यान केंद्रित करना चाहिए. और अंत तक अपने
लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए प्रयास करते रहना चाहिए. युवाओं को अपने
प्रत्येक कार्य में अपनी समस्त शक्ति का प्रयोग करना चाहिए.
स्वामी विवेकानंद की कम उम्र में मृत्यु को लकेर मशहूर
बांग्ला लेखक शंकर ने अपनी किताब 'द मॉन्क ऐज मैन' में लिखा था कि स्वामी अनिद्रा,
मलेरिया,
माइग्रेन,
डायबिटीज समेत दिल,
किडनी और लिवर से जुड़ी 31
बीमारियों के
शिकार थे. इसी वजह से उनका सिर्फ 39
साल की उम्र में चार जुलाई,
1902 को
निधन हो गया.
अध्यात्म के क्षेत्र में किए गए उनके कार्यो को देखते
हुए हर साल उनकी जयंती 12 जनवरी को 'युवा दिवस' के रूप में मनाया जाता है.
वामी विवेकानन्द ने अपने भाषणों व लेखन में कई स्थानों पर
पवहारी बाबा का
उल्लेख किया है। 'पवहारी' यानी पवन का आहार करने वाला। पवहारी बाबा के बारे में प्रसिद्ध था कि वे कुछ आहार नहीं लेते थे। स्वामी
विवेकानंद इस विचित्र
साधु से बहुत प्रभावित हुए और उन्होंने पवहारी बाबा की जीवनी भी लिखी।
'पवहारी बाबा एक गुफा में रहते थे। गुफा के भीतर दिनों-महीनों तक
निरंतर
साधना में डूबे रहते थे।
इतने लंबे समय में वह क्या खाया करते थे कोई नहीं जानता था। इसलिए लोगों ने उनका नाम रख दिया था पवहारी
बाबा। पवहारी शब्द का यहां अर्थ 'पवन का आहार' करने वाला अर्थात् जो केवल मात्र वायु पान करके ही जीवन का निर्वाह करते थे।'
स्वामीजी के उपदेशों का
सूत्रवाक्य, "उत्तिष्ठत जाग्रत प्राप्य
वरान्निबोधत" कठोपनिषद् के एक मंत्र से प्रेरित है: कठोपनिषद्, अध्याय १, वल्ली ३, मंत्र १४।
उत्तिष्ठत जाग्रत प्राप्य वरान्निबोधत।
क्षुरस्य धारा निशिता दुरत्यया दुर्गं पथस्तत्कवयो
वदन्ति॥
जिसका अर्थ है - उठो,
जागो,
और जानकार श्रेष्ठ पुरुषों के
सान्निध्य में ज्ञान प्राप्त करो । विद्वान् मनीषी जनों का कहना है
कि ज्ञान प्राप्ति का मार्ग उसी प्रकार दुर्गम है जिस प्रकार छुरे के पैना
किये गये धार पर चलना ।
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