तप का अर्थ
सनातनपुत्र देवीदास विपुल
"खोजी"
विपुल सेन उर्फ विपुल “लखनवी”,
(एम . टेक. केमिकल इंजीनियर) वैज्ञानिक
एवं कवि
सम्पादक : विज्ञान त्रैमासिक हिन्दी जर्नल
“वैज्ञनिक” ISSN
2456-4818
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फेस बुक: vipul luckhnavi
“bullet"
प्राय: हमारे
देश में तप को एक कौतूहल के रूप में प्रचारित किया जाता है। आग में बैठकर जाप करना, तमाम तरह से शरीर को कष्ट देना, काटों पर लेटना इत्यादि।
मेले ठेलों में ऐसे लोगों के चारों तरफ भीड जुटी रहती है और मीडिया भी भारत देश को
मदारियों और अजूबों का देश बनाने में जुटा रहता है। अत: आज आवश्यक है तप के वास्तविक
अर्थ समझें जायें।
आप सोंचे बाबा आम्टे
जो कुष्ठ रोगियों की सेवा में लगे रहते हैं। क्या वह तप नहीं। एक सैनिक अपने देश की
रक्षा हेतु सीमा पर कितने कष्ट झेलकर डटा रहता है क्या यह तप नहीं। देश में तमाम जन
सेवा हेतु अपना सब कुछ झोंक देते हैं क्या वह तप नहीं। वर्तमान में देश का प्रधानमंत्री
श्री नरेंद्र मोदी घर परिवार सब छोडकर 24 घंटे में 18 घंटे देश के विकास हेतु खपा रहता
है क्या वो तप नहीं। अरे तप तो राहुल गांधी भी कर रहा है। लगातार लगा रहता है कि कैसे
सत्ता हासिल करें। चाहें देश तोडना पडे या देश में आग लगानी पडे।
मित्रों मैं समझता हूं कि तप का अर्थ
होता है अभीष्ट की प्राप्ति हेतु निरन्तर प्रयास और मार्ग की सभी बाधाओं को झेलते हुये
प्रयत्नशील रहना। अब अभीष्ट अलग अलग हैं। संन्यासी हेतु आत्म ज्ञान, प्रभु मिलं। मोदी हेतु देश का विकास। सैनिक हेतु देश की रक्षा। राहुल गांधी
हेतु सत्ता प्राप्ति।
वास्तव में यदि आप
तप को समझें तो मैं उसको और बांट सकता हूं।
सत्वगुणी तप / देवत्व तप: तन और मन यदि है तो धन से निरन्तर वह
कार्य जिसमें समाज का कल्याण और वह सामाजिक कार्य जिससे किसी की हानि न हो। इस कार्य
हेतु निरंतर प्रयास और हर बाधा से लडना।
अब सत्वगुणी तप का
उदाहरण देखें एक दोहा:
“साँच बराबर तप नहीं,
झूठ बराबर पाप।
जाके हिरदे साँच है,
ताके हिरदे आप।।”
सत्य भाषण
सबसे बड़ी तपस्या
है। सत्य भाषण मानवजीवन के सभी
आदर्श गुणों में शिरोमणि है। सत्य बोलने
से मनुष्य को
अनेक लाभ होते
हैं। जीत भी उसी की होती
है जो सत्य के पथ पर
होता है। झूठ बोलने वाले की
कभी विजय नहीं
होती, यदि थोढ़ी
देर के लिये
हो भी जाए, तो
यह चिरस्थायी नहीं होती। सच्चरित्र व्यक्ति ही समाज
में प्रतिष्ठा प्राप्त करता है।
इसी भांति ज्ञानियो
ने संयम, त्याग, अहिंसा जैसे सत्व गुणों मे
निरंतर लिप्तता और उनका पालन करना सत्व गुणी तप कहलायेगा।
आध्यात्मिक दृष्टिकोण
के लिये तप का अर्थ है- पीड़ा सहना, घोर कड़ी साधना करना
और मन का संयम रखना आदि। जिस प्रकार सोने को अग्नि में डालकर इसके मैल को दूर किया
जाता है, उसी प्रकार सद्गुणों और उत्तम आचरणों से अपने हृदय,
मन और आत्मा के मैल को दूर किया जाना ही तप है। इस प्रकार व्यष्टिक उत्थान
हेतु प्रयास रत रहना। विभिन्न विधियों द्वारा अपने को जानने का प्रयास करना,
जाप करना, किसी संकल्प का पालन ईश प्राप्ति हेतु
वह कहलायेगा देवगुणी तप।
गर्ग संहिता के रचयिता महर्षि गार्गेय धर्मशास्त्रों के प्रकांड ज्ञाता थे।
वह घोर तपस्वी एवं परम विरक्त थे। ऋषि-महर्षि और श्रद्धालुजन समय-समय पर अपनी
जिज्ञासाओं का समाधान करने उनके पास आया करते थे। एक बार शौनकादि ऋषि उनके सत्संग
के लिए पहुंचे।
गर्ग संहिता के रचयिता महर्षि गार्गेय धर्मशास्त्रों के प्रकांड ज्ञाता थे।
वह घोर तपस्वी एवं परम विरक्त थे। ऋषि-महर्षि और श्रद्धालुजन समय-समय पर अपनी
जिज्ञासाओं का समाधान करने उनके पास आया करते थे। एक बार शौनकादि ऋषि उनके सत्संग
के लिए पहुंचे।
उन्होंने प्रश्न किया, धर्म का सार क्या है? महर्षि गार्गेय ने बताया, सत्य, अहिंसा और सदाचार का पालन करते हुए कर्तव्य करने
वाला ही धर्मात्मा है।
शौनकादि ऋषि ने दूसरा प्रश्न किया, महर्षि तपस्या का अर्थ क्या है?महर्षि ने उत्तर दिया, तप का असली अर्थ है त्याग। मनुष्य यदि अपनी सांसारिक आकांक्षाओं और अपने दुर्गुणों का त्याग कर दे, तो वह सच्चा तपस्वी है। सदाचार और सद्गुणों से मन निर्मल बन जाता है। जिसका मन और हृदय पवित्र हो जाता है, वह स्वतः ही भक्ति के मार्ग पर चल पड़ता है। उस पर भगवान कृपा करने को आतुर हो उठते हैं।
ऋषि ने तीसरा प्रश्न किया, असली भक्ति क्या है?
महर्षि का जवाब था, केवल भगवान की कृपा की प्राप्ति के उद्देश्य से की गई उपासना को निष्काम भक्ति कहा गया है। सच्चा भक्त भगवान से धन-संपत्ति, सुख-सुविधाएं न मांगकर केवल उसकी प्रीति की याचना करता है। वह प्रभु से सद्बुद्धि मांगता है, ताकि वह धर्म के मार्ग से विपत्तियों में भी नहीं भटके।
उन्होंने प्रश्न किया, धर्म का सार क्या है? महर्षि गार्गेय ने बताया, सत्य, अहिंसा और सदाचार का पालन करते हुए कर्तव्य करने
वाला ही धर्मात्मा है।
दूसरा मानवीय तप: वह संकल्प जो मानव की क्षमता के अंतर्गत हो। जैसे
कबीरा खडा बाजार
में, मांगे सबकी खैर।
न काहू से दोस्ती, न काहू से बैर॥
मतलब बिना सामाजिक
सेवा किये एक साधु पुरूष की भांति जीवन यापन करना। न पूजा न पाठ। न जाप न आत्मज्ञान
की इच्छा।
जैसे दास कबीर ने
ऐसी ओढी। ज्यों की त्यों रख दीनी॥
जैसे आये वैसे ही
वापिस।
तीसरा राक्षसी तप:
जिसमें समाज को, किसी व्यक्ति
विशेष को नुक्सान पहुंचाने के उद्देश्य से, अपनी लालसा और कामना
को पूरा करने के उद्देशय से हेतु सिर्फ अपना सुख प्राप्त करने हेतु प्रयासरत रहना। मतलब
समाज को भी मारकाट कर अपने भौतिक सुख हेतु प्रयत्नशील रहना। जैसे आजकल हो रहा है। यह
तप है पर राक्षसी है। जैसे बगदादी भी तप कर रहा था पर राक्षसी।
वैसे, गीता में सात्विक या दैविक तप भी तीन प्रकार के बताए गए हैं।
शारीरिक, जो शरीर से किया जाए।
वाचिक, जो वाणी से किया जाए और
मानसिक, जो मन से किया जाए। देवताओं, गुरुओं और विद्वानों की
पूजा और इन लोगों की यथायोग्य सेवा-सुश्रषा करना, ब्रह्मचर्य
और अहिंसा शारीरिक तप हैं।
ब्रह्मचर्य का
अर्थ है- शरीर के बीजभूत तत्व की रक्षा करना और ब्रह्म में विचरना या अपने को सदा
परमात्मा की गोद में महसूस करना।
किसी को मन, वाणी और शरीर से हानि न पहुंचाना अहिंसा है।
हिंसा और अहिंसा
केवल शारीरिक ही नहीं, बल्कि वाचिक और मानसिक भी होती
हैं।
वाणी के तप से
अभिप्राय है ऐसी वाणी बोलना जिससे किसी को हानि न पहुंचे। सत्य, प्रिय और हितकारक वाणी का प्रयोग करना चाहिए।
वाणी के तप के
साथ ही स्वाध्याय की बात भी कही गयी है। वेद, उपनिषद आदि सद्ग्रंथों
का नित्य पाठ करना और अपने द्वारा किए जा रहे नित्य कर्मो पर भी विचार करना
स्वाध्याय है। मन को प्रसन्न रखना, सौम्यता, मौन, आत्मसंयम और चित्त की शुद्ध भावना ये सब मन के
तप हैं।
वहीं गुणवत्ता
के आधार पर अन्य विद्वानों ने तप तीन प्रकार के बतायें है।
सात्विक तप यानी
जो परम श्रद्धा से किया जाता है, जिसमें फल के भोग की आकांक्षा
नहीं होती है और सबके हित के लिए किया जाता है।
अपना सत्कार
चारों ओर बढ़ाने की इच्छा से किया जाने वाला तप राजस तप कहलाता है।
तामस तप का अर्थ
है पंचाग्नियों के बीच शरीर को कष्ट देना। शरीर के किसी अंग को वर्षो निष्क्रिय
करके रखना आदि कर्म जिनसे करने वालों और देखने वालों दोनों को कष्ट हो और किसी का
भी कोई हित न हो उन्हें तामस तप कहा जाता है।
शास्त्र कहते है
तप से मन का मैल दूर होता है और पाप का नाश होता है। अपने व्यक्तित्व को ऊपर उठाना
है, तो तपस्वी बनें।
इतिहास के अनुसार वास्तव में तपस् की भावना का विकास चार पुरुषार्थो और
चार आश्रमों के सिद्धांत के विकास का परिणाम था। ये सभी विचार उत्तर वैदिक युग की
ही देन हैं। तपस् का वह स्वरूप, जो तांत्रिक और गुह्यक होता है तथा जिसका उद्देश्य दूसरे को हानि पहुँचाना
अथवा दूसरे के आक्रमण से अपने को बचाना होता है।
मूलत: मोक्ष की प्राप्ति का इच्छुक सन्यासी ही
तपश्चर्या में रत हुआ। ब्राहम्णों और उपनिषदों में
उसकी चर्चाएँ मिलने लगती हैं और ब्रह्म की
प्राप्ति उसका उद्देश्य हो जाता है। सर्वस्वत्याग उसके लिये आवश्यक माना गया और यह
समझा जाने लगा कि संसार में आवागमन के बंधनों से मुक्त होने के लिये वैराग्य ही
नहीं नैतिक जीवन भी आवश्यक है। अत: जीवन के सभी सुखों का त्याग ही नहीं, शरीर को अनेक प्रकार से जलाना (तपस्) अथवा कष्ट देना भी प्रारंभ हो गया।
कुछ विदेशी विद्वान (यथा-गेडेन, इंसाइक्लोपीडिया
ऑव रेलिजन ऐंड इथिक्स्, जिल्द 2, पृष्ठ
88) तपस्या में निहित विचारों को आर्य और वैदिक न मानकर
अवैदिक आदिवासियों की देन मानते हैं। किंतु यह सही नहीं प्रतीत होता। अनार्य और
अवैदिक तत्व धीरे-धीरे वैदिक समाज के शूद्र वर्ग में समाहित हो गए, जिन्हें तपस्या का अधिकार प्राचीन धर्म और समाज के नेताओं ने दिया ही नहीं।
विपरीत आचरण करने वाले शंबूक जैसे तपस्वी शूद्र तो दंडित भी हुए। यदि तपस् की
विचारधारा का प्रारंभ उन अनार्य (शूद्र) तत्वों से हुआ होता तो यह परिस्थिति असंभव
होती। अत: उनकी बात गलत है।
उद्देश्यों की भिन्नता से तपस्या के अनेक प्रकार और रूप माने गए। विद्याध्यायी
ब्रह्मचारी, पुत्रकलत्र,
धनसंपत्ति तथा ऐहिक सुखों के इच्छुक गृहस्थ, परमात्मा
की प्राप्ति, ब्रह्म से लीन और मोक्षलाभ की इच्छा से प्रेरित
संन्यासी मनोभिलषित वर अथवा स्त्री चाहनेवाले व्यक्ति, भगवान
में लीन भक्त एवं देवीदेवताओं की कृपा चाहनेवाले सर्वसाधारण स्त्रीपुरुष, स्वधर्म और साधारण धर्म का पालन करने वाले साधारण जन आदि अनेक प्रकार के लोग
भिन्न भिन्न रूपों में तपस का सिंद्धांत मानते और उसका प्रयोग करते। तपस् की
प्रवृति का केंद्र था शरीर को कष्ट देना। उसके जितने ही बहुविध रूप हुए अथवा
कठोरता बढ़ी, तपस का उतना ही चरमोत्कर्ष माना गया।
साधारण तपस्वी वो वत्कलदसन, भूतिशैया,
अल्पाहार, जटाजूटधारण, नखवृद्धि,
वेदोच्चारण, यज्ञक्रियात्मकता और दयालुता के
अभ्यास मात्र तक सीमित रहता था, किन्तु उग्र तपस्वी गर्मी की
ऋतु में पंचाग्नि (ऊपर से सूर्य और चारों ओर प्रज्जवलित
अग्नि के ताप का सहन), वर्षा में खुलावास, जाड़े में जलनिवास अथवा भीगे कपड़ों को पहिनकर बाहर रहना, तीन समय स्नान, कंदमूलाशन, भिक्षाटन,
बस्ती से दूर निवास और शरीर के सभी सुखों को त्याग कर उसे कष्ट देना
तपस्या का लक्षण माना जाने लगा। शिव को प्राप्त करने के लिये पार्वती की
तपस्या इसका प्रमुख उदाहरण है।
यही नहीं, एक मुद्रा से,
यथा--हाथों को उठाए रखना, चलते रहना अथवा इसी
प्रकार के अन्य रूपकों का धारण- कुछ दिनों अथवा जीवन भर बनाए रखना तम की पराकाष्ठा
समझी जाने लगी। आज भी ऐसे अनेक तपस्वी और हठयोगी भारतवर्ष के सभी कोनों, विशेषत: तीर्थों, आश्रमों, नदी
के किनारों और पर्वतों की कंदराओं में मिलेंगे। सर्वसाधारण वर्ग और कभी कभी तो
सुबोध किंतु विश्वासी और श्रद्धालु समाज भी, ऐसे तपस्वियों
का आदर करता रहा है तथा उनमें किसी अतिमानवीय अथवा आध्यात्मिक शक्ति के प्रतिष्ठित
होने में विश्वास भी करता रहा है। किंतु समालोचक बुद्धि से युक्त बुद्धिजीवी वर्ग
ने उसपर कितनी आस्था रखी है यह कह सकना कठिन है।
पाश्चात्य देशों के लोग यह मान लेते हैं कि पौर्वात्यों में कष्टसहन और
शारीकिक ताप को अंगीकृत कर लेने की असीम क्षमता है और वे पराधीनता, भौतिक अत्याचार और अन्याय के प्रतिकार में अपने को कष्ट
देकर उससे ऊपर उठने अथवा बचने की कोशिश करते हैं। शोपेनहार के मन से इसी कारण
पूर्व के देशों में एक निराशावाद और दुखवाद का जन्म हुआ, जिसके
परिलक्षण थे संसार का त्याग, संन्यास, साधु
जीवन, शरीर को कष्ट देना और इच्छाओं के दमन की अप्राकृतिक और
अमनोवैज्ञानिक प्रवृति। किंतु ऐसा लगता है कि ये विचारक भारतीय जीवन के लक्ष्यों
में अर्थ काम की सिद्धि के पीछे उस प्रवृत्तिमूलक
मनोवैज्ञानिक और शुद्ध भौतिक विश्लेषण का उतना ध्यान नहीं करते,
जितना निवृत्तिमूलक
मोक्ष के भाव और उसकी प्राप्ति के उपायों का।
इसी दृष्टि से तप का जो सामाजिक विश्लेषण मनुस्मृति में
मिलता है वह चिंत्य है। तदनुसार (11-56) चातुर्वर्ण्यों का
तप धर्मशास्त्र विहित
उनका कर्ममात्र है, यथा ब्राह्मण के
द्वारा ज्ञान की प्राप्ति, क्षत्रिय के
द्वारा समाज की रक्षा, वैश्य के द्वारा कृषि, गोरक्षा और वाणिज्य तथा शूद्र के द्वारा द्विजातियों
की सेवा। सामाजिक दष्टि से यह स्वधर्म-
अपने कर्तव्यों का पालन - ही सबमें महत्वपूर्ण तप था।
संक्षेप में भगवद्गीता में
(17-14-19) तो तप और संन्यास के दार्शनिक पक्ष का सर्वात्तम
स्वरूप दिखाई देता है और उसके शरीरिक, वाचिक और मानसिक तथा
सात्विक, राजसी और तामसी प्रकार बताए गए हैं। शारीरिक तप देव,
द्विज, गुरु और अहिंसा में निहित होता है,
वाचिक तप अनुद्वेगकर वाणी, सत्य और प्रियभाषण
तथा स्वाध्याय से होता है और मानसिक तप मन की प्रसन्नता, सौम्यता,
आत्मनिग्रह और भावसंशुद्धि से सिद्ध होता है। इसके साथ ही उत्तम तम
तो है सात्विक जो श्रद्धापूर्वक फल की इच्छा से विरक्त होकर किया जाता है। इसके
विपरीत सत्कार, मान और पूजा के लिये दंभपूर्वक किया जानेवाला
राजस तप अथवा मूढ़तावश अपने को अनेक कष्ट देकर दूसरे को कष्ट पहुँचाने के लिये जो
भी तप किया जाता है, वह आदर्श नहीं। स्पष्ट है, भारतीय तपस् में जीवन के शाश्वत मूल्यों की प्राप्ति को ही सर्वोच्च स्थान
दिया गया है और निष्काम कर्म
उसका सबसे बड़ा मार्ग माना गया है।
(तथ्य,
कथन गूगल से साभार)
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"MMSTM समवैध्यावि ध्यान की
वह आधुनिक विधि है। कोई चाहे नास्तिक हो आस्तिक हो, साकार, निराकार कुछ भी हो बस
पागल और हठी न हो तो उसको ईश अनुभव होकर रहेगा बस समयावधि कुछ बढ सकती है। आपको
प्रतिदिन लगभग 40 मिनट देने होंगे और आपको 1 दिन से लेकर 10 वर्ष का समय लग सकता
है। 1 दिन उनके लिये जो सत्वगुणी और ईश भक्त हैं। 10 साल बगदादी जैसे हत्यारे के
लिये। वैसे 6 महीने बहुत है किसी आम आदमी के लिये।" सनातन पुत्र देवीदास
विपुल खोजी
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