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Wednesday, July 31, 2019

क्या है षट-अंग, सप्तांग और अष्टांग योग

क्या है षट-अंग,  सप्तांग और अष्टांग योग


सनातनपुत्र देवीदास विपुल "खोजी"

 विपुल सेन उर्फ विपुल लखनवी,
(एम . टेक. केमिकल इंजीनियर) वैज्ञानिक एवं कवि
पूर्व सम्पादक : विज्ञान त्रैमासिक हिन्दी जर्नल “वैज्ञनिक” ISSN 2456-4818
 vipkavi.info वेब चैनलvipkavi
ब्लाग: freedhyan.blogspot.com,  फेस बुक:   vipul luckhnavi “bullet


एक बात समझिये।

वेद का सार और उद्देश्य कि मनुष्य अपने आत्म स्वरूप को जानकर योगी बनें।

इन वेदों पर शोध ग्रंथ हजारों लिखे गये जिन्होने वेदों की बात अरक्षत: मानकर लिखा गया। वे कहलाये उपनिषद। समय के साथ अनेकों नष्ट हो गये।

वेदों की बात के प्रमाणों और तर्क के साथ जो लिखे गये। मतलब अपनी सोंच और बात का मसाला लगाकर जो शोध ग्रन्थ लिखे गये वे कहलाये दर्शन।


अंग्रेज़ी विचारक जब किसी तथ्य का विशलेषण करते हैं तो उस का तीन विमाओं का आंकलन करते हैं। लम्बाई, चौड़ाई और ऊँचाई। किन्तु सही अनुमान लगाने के लिये लक्ष्य के लिये इनके विपरीत विमाओं को भी समझना होगा। जैसे आगे, पीछे, दाहिने, बाँयें, ऊपर और नीचे भी देखना पडता है।


दर्शन शास्त्रों ने आज से हजारों वर्ष पूर्व ऐसा ही किया था और विश्व में तर्क विज्ञान लोजिक की नींव डाली थी। तथ्यों की सच्चाई को देखना ही उन का दर्शन करना है अतः इस क्रिया को दर्शन ज्ञान की संज्ञा दी गयी है। सनातन धर्म विचारधारा केवल एक ही परम सत्य में विश्वास रखती है किन्तु उसी सत्य का छः प्रथक -प्रथक दृष्टिकोणों से आंकलन किया गया है। यही छः वैचारिक आंकलन  सनातन धर्म की दार्शनिकता पद्धति का आधार हैं। इन षट् दर्शनों में बहुत सी समानतायें भी हैं क्यों कि सभी विचारधारायें वेद और उपनिषद से ही उपजी हैं,  हलांकि विशलेषण की पद्धति में भिन्नता है।


षट्दर्शन यानि दार्शनिकता  के छः मुख्य स्त्रोत्र मीसांसा, वेदान्त, न्याय, वैशेषिक, सांख्य और योग वेदों के उपांग कहलाते हैं। उपनिषद के साथ इनका भी उद्देश्य “अपने आत्म स्वरूप को जानने का अनुभव करना” ही है।


यहां पर योगशास्त्र दर्शन पातांजलि महाराज की देन है जो बताता है अष्टांग योग।

अब वेदांत के अनुसार “आत्मा में परमात्मा की एकात्मकता का अनुभव” ही योग है। कुल मिलाकर जब मनुष्य को वेद महावाक्यों का अनुभव होता है तो योग घटित होता है।

जिस प्रकार महाराज पातांजलि ने अष्ट अंग वाले अष्टांग योग की बात कही है वहीं अमृतनादोपनिषद में योग के षट अंग यानि छह अंग बता कर ईश प्राप्ति की बात की है। साथ ही भक्ति को योग की बहन बताया है। वहीं घेरण्डसंहिता में,  जो हठयोग के तीन प्रमुख ग्रन्थों में से एक है। इसकी रचना १७वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में की गयी थी। हठयोग के तीनों ग्रन्थों में यह सर्वाधिक विशाल एवं परिपूर्ण है। इसमें सप्तांग योग की व्यावहारिक शिक्षा दी गयी है। अन्य दो ग्रंथ हैं - हठयोग प्रदीपिका तथा शिवसंहिता।


अमृतनादोपनिषद कृष्ण यजुर्वेदीय शाखा के अन्तर्गत एक उपनिषद है। यह उपनिषद संस्कृत भाषा में लिखित है। इसके रचियता वैदिक काल के ऋषियों को माना जाता है परन्तु मुख्यत वेदव्यास जी को कई उपनिषदों का लेखक माना जाता है।


 कृष्ण यजुर्वेद शाखा के इस अमृतनादोपनिषद,   उपनिषद में 'प्रणवोपासना' के साथ योग के छह अंगों- प्रत्याहार, धारणा, ध्यान, प्राणायाम, तर्क और समाधि आदि- का वर्णन किया गया है। योग-साधना के अन्तर्गत 'प्राणायाम' विधि, ॐकार की मात्राओं का ध्यान, पंच प्राणों का स्वरूप, योग करने वाले साधक की प्रवृत्तियां तथा निर्वाण-प्राप्ति से ब्रह्मलोक तक जाने वाले मार्ग का दिग्दर्शन कराया गया है। इस उपनिषद में उन्तालीस मन्त्र हैं।


 

प्राणोपासना


'प्रणव,' अर्थात् 'ॐकार' का चिन्तन समस्त सुखों को देने वाला है।


ॐकार के रथ पर आरूढ़ होकर ही 'ब्रह्मलोक' पहुंचा जा सकता है-ॐकार-रूपी रथ पर आरूढ़ होकर और भगवान विष्णु को सारथि बनाकर ब्रह्मलोक का चिन्तन करते हुए ज्ञानी पुरुष देवाधिदेव भगवान रुद्र की उपासना में निरन्तर तल्लीन रहें। तब ज्ञानी पुरुष का प्राण निश्चित रूप से 'परब्रह्म' तक पहुंच जाता है।


 योग-साधना (प्राणायाम)


जब मन अथवा प्राण नियन्त्रण में नहीं होता, तब विषय-वासनाओं की ओर भटकता है। विषयी व्यक्ति पापकर्मों में लिप्त हो जाता है। यदि 'प्राणयाम' विधि से प्राण का नियन्त्रण कर लिया जाये, तो पाप की सम्भावना नष्ट हो जाती है।


आसन, मुद्रा, प्रत्याहार, प्राणायाम, ध्यान और समाधि हठयोग के छह कर्म माने गये हैं। इनके प्रयोग से शरीर का शोधन हो जाता है। स्थिरता, धैर्य, हलकापन, संसार-आसक्तिविहीन और आत्मा का अनुभव होने लगता है। सामान्य व्यक्ति 'प्राणायाम' का अर्थ वायु को अन्दर खींचना, रोकना और निकालना मात्र समझते हैं। यह भ्रामक स्थिति है।


प्राण-शक्ति संसार के कण-कण में व्याप्त है। वायु में भी प्राण-शक्ति है। इसीलिए प्राणायाम द्वारा वायु में स्थित प्राण-शक्ति को नियन्त्रित किया जाता है प्राण पर नियन्त्रण होते ही शरीर और मन पर नियन्त्रण हो जाता है। प्राणायाम करने वाला साधक बाह्य वायु के द्वारा आरोग्य, बल, उत्साह और जीवनी-शक्ति को श्वास द्वारा अपने भीतर ले जाता है, उसे कुछ देर भीतर रोकता है और फिर उसी वायु को बाहर की ओर निकालकर अन्दर के अनेक रोगों और निर्बलताओं को बाहर फेंक देता है।


'प्राणायाम' के लिए साधक को स्थान, काल, आहार, आदि का पूरा ध्यान रखना चाहिए। 'शुद्धता' इसकी सबसे बड़ी शर्त है। 'प्राणायाम' करते समय तीन स्थितियां- 'पूरक, कुम्भक' और 'रेचक' होती हैं।


    'पूरक' का अर्थ है- वायु को नासिका द्वारा शरीर में भरना,

    'कुम्भक' का अर्थ है- वायु को भीतर रोकना और

    'रेचक' का अर्थ है- उसे नासिका छिद्रों द्वारा शरीर से बाहर निकालना।


सीधे हाथ के अंगूठे से नासिका के सीधे छिद्र को बन्द करें और बाएं छिद्र से श्वास खींचें, बायां छिद्र भी अंगुली से बन्द करके श्वास को रोकें, फिर दाहिने छिद्र से वायु को बाहर निकाल दें। इस बीच 'ओंकार' का स्मरण करते रहें। धीरे-धीरे अभ्यास से समय बढ़ाते जायें। इसी प्रकार बायां छिद्र बन्द करके दाहिने छिद्र से श्वास खींचें, रोकें और बाएं छिद्र से निकाल दें। अभ्यास द्वारा इसे घण्टों तक किया जा सकता है। शनै:-शनै: आत्मा में ध्यान केन्द्रित हो जाता है।


 षट अंग :


1. आसन: शरीर की वह अवस्था जिस में बैठकर ह्म स्थिरता के साथ ध्यान कर सकें।


2. मुद्रा: शरीर की उंगलियों को और हथेली को किस प्रकार एक दुसरे के सम्पर्क में रखा जाये कि हमारे शरीर में व्याप्त विभिन्न वायु चक्र सुव्यवस्थित रहकर ध्यान में सहायक हों।


3. प्रत्याहार: प्रति  आहार मतलब सांसारिक भोग विलास व अन्य को त्यागने की आदत।


4. प्रणायाम: प्राण वायु का आयाम।


5. ध्यान


6 समाधि


उसके बाद घटित हो सकता है योग। वेदांत के अनुसार “आत्मा में परमात्मा की एकात्मकता का अनुभव” ही योग है।

वहीं घेरण्डसंहिता सबसे प्राचीन और प्रथम ग्रन्थ है , जिसमे योग की आसन , मुद्रा , प्राणायाम, नेति , धौति आदि क्रियाओं का विशद वर्णन है। इस ग्रन्थ के उपदेशक घेरण्ड मुनि हैं जिन्होंने अपने शिष्य चंड कपालि को योग विषयक प्रश्न पूछने पर उपदेश दिया था।

योग आसन , मुद्रा , बंध , प्राणायाम , योग की विभिन्न क्रियाओं का वर्णन आदि का जैसा वर्णन इस ग्रन्थ में है , ऐसा वर्णन अन्य कही उपलब्ध नहीं होता। पतंजलि मुनि को भले ही योग दर्शन के प्रवर्तक माना जाता हो परन्तु महर्षि पतंजलि कृत योगसूत्र में भी आसन , प्राणायाम , मुद्रा, नेति , धौति, बंध आदि क्रियाओं कहीं भी वर्णन नहीं आया है। आज योग के जिन आसन , प्राणायाम , मुद्रा, नेति, धौति, बंध आदि क्रियाओं का प्रचलन योग के नाम पर हो रहा है , उसका मुख्य स्रोत यह घेरण्ड संहिता नामक प्राचीन ग्रन्थ ही है। उनके बाद गुरु गोरखनाथ जी ने शिव संहिता ग्रन्थ में तथा उनके उपरांत उसके शिष्य स्वामी स्वात्माराम जी ने हठयोग प्रदीपिका में आसन , प्राणायाम , मुद्रा, नेति , धौति बंध आदि क्रियाओं का वर्णन किया है , परन्तु इन सब आसन , प्राणायाम , मुद्रा, नेति , धौति बंध आदि क्रियाओं का मुख्य स्रोत यह प्राचीन ग्रन्थ घेरण्ड संहिता ही है।


 


घेरण्ड संहिता में कुल ३५० श्लोक हैं, जिसमे ७ अध्याय (सप्तोपदेश) |  जिनसे बनता है सप्तांग योग। षटकर्म आसन प्रकरणं, मुद्रा कथनं, प्रत्याहार, प्राणायाम, ध्यानयोग, समाधियोग) का विशद वर्णन है। इस ग्रन्थ में प्राणायाम के साधना को प्रधानता दी गयी है।

पातंजलि योग दर्शन से घेरंड संहिता का राजयोग भिन्न है। महर्षि का मत द्वैतवादी है एवं यह घेरंड संहिता अद्वैतवादी है। जीव की सत्ता ब्रह्म सत्ता से सर्वथा भिन्न नहीं है। अहं ब्रह्मास्मि का भाव इस संहिता का मूल सिद्धांत है। इसी सिद्धांत को श्री गुरु गोरक्षनाथ जी ने अपने ग्रन्थ योगबीज एवं महार्थमंजरी नामक ग्रन्थ में स्वीकार किया है। कश्मीर के शैव दर्शन में भी यह सिद्धांत माना गया है।


घेरंड संहिता ग्रन्थ में सात उपदेशों द्वारा योग विषयक सभी बातों का उपदेश दिया गया है। पहले उपदेश में महर्षि घेरंड ने अपने शिष्य चंडकपाली को योग के षटकर्म का उपदेश दिया है।

पहला है षट्कर्म प्रकरणं: षट कर्म को शास्त्रों में छह वर्गों में बांटा गया है।


 १. शास्त्रों के अनुसार ब्राह्मणों के ये छः कर्म-यजन, याजन, अध्ययन, अध्यापन, दान और प्रतिग्रह।


२. स्मृतियों के अनुसार ये छः कर्म जिनके द्वारा आपातकाल में ब्राह्मण अपना निर्वाह कर सकते हैं- उछवृत्ति, दान लेका, भिक्षा, कृषि, वाणिज्य और महाजनी (लेन-देन)।


३. तंत्र-शास्त्र के अनुसार मारण, मोहन (या वशीकरण) उच्चारण, स्तंभन, विदूषण और शांति के छः कर्म।


४. योगशास्त्र में, धौति, वस्ति, नेती, नौलिक, त्राटक और कपाल भाती ये छः कर्म।


५. साधारण लोगों के लिए विहित ये छः काम जो उन्हें नित्य करने चाहिए-स्नान, संध्या, तर्पण, पूजन जप और होम।


६. लोक व्यवहार और बोल-चाल में व्यर्थ के झगड़े-बखेड़े या प्रपंच।

सप्त अंग


पहलावाला ही योग हेतु प्रयासरत मानव के लिये है। छः कर्म-यजन, याजन, अध्ययन, अध्यापन, दान और प्रतिग्रह।


दूसरे में आसन और उसके भिन्न-भिन्न प्रकार का विशद वर्णन किया है। घेरण्ड ऋषि द्वारा 32 आसनों के बारे में बताया गया है | वह आसान इस प्रकार है।


1. सिद्धासन  2. पद्मासन 3. भद्रासन 4. मुक्तासन 5. वज्रासन 6. स्वस्तिकासन 7. सिंहासन 8.गोमुखासन 9. वीरासन 10. धनुरासन 11. शवासन 12. गुप्तासन 13. मत्स्यासन 14. अर्ध मत्स्येन्द्रासन `5. गोरक्षासन 16. पश्चिमोत्तासन 17. उत्कटासन 18. संकटासन 19. मयूरासन 20. कुक्कुटासन 21. कूर्मासन 22. उत्तान कूर्मासन 23, मण्डूकासन 24. उत्तान मण्डूकासन 25. वृक्षासन 26. गरुडासन 27. त्रिशासन 28. शलभासन 29. मकरासन 30. ऊष्ट्रासन 31. भुजंगासन 32. योगासन


यह 32 आसन ही मृत्युलोक अर्थात पृथ्वी लोक में सिद्धि प्राप्त करने के लिए पर्याप्त है|


इन सभी आसनों के बारे में घेरण्ड संहिता मैं आपको विस्तृत जानकारी मिल जाएगी


तीसरे में मुद्रा के स्वरुप, लक्षण एवं उपयोग बताया गया है।


चौथे में प्रत्याहार का विषय है।


पांचवे में स्थान, काल मिताहार और नाडी सुद्धि के पश्चात प्राणायाम की विधि बताई गयी है।


छठे में ध्यान करने की विधि और उपदेश बताये गए हैं।

सातवें में समाधी-योग और उसके प्रकार (ध्यान-योग, नाद-योग, रसानंद-योग, लय-सिद्धि-योग, राजयोग) के भेद बताएं गए हैं। इस प्रकार ३५० श्लोकों वाले इस छोटे से ग्रन्थ में योग के सभी विषयों का वर्णन आया है। इस ग्रन्थ की प्रतिपादन शैली सरल, सुबोध एवं साधक के लिए अत्यंत उपयोगी है।

अष्टांग योग:

इस के आठ अंग हैं।

सदाचार तथा नैतिकता के सिद्धान्तों को “यम”  कहते हैं। यह पांच हैं। अहिंसा,  सत्य,  अस्तेय,  ब्रह्मचर्य,  अपरिग्रह। जिन्हे उपांग कहते हैं।


बिना स्वस्थ, स्वच्छ और निर्मल शरीर के योग मार्ग की प्रथम  सीढी पर पग धरना दुर्गम है।  स्वयं के प्रति अनुशासित और स्वच्छ रहना “नियम”  हैं। यह भी पांच हैं। शौच,  सन्तोष,  तपस,  स्वाध्याय,  ईश्वरप्रणिधान।  जिन्हे उपांग कहते हैं।


शरीर के समस्त अंगों को क्रियात्मिक रखना आसन के अन्तर्गत आता है।


प्राणायाम श्वासों को नियमित और स्वेच्छानुसार संचालित करना है। हर प्राणायाम शरीर और मन पर  अलग तरह के प्रभाव डालता है।


पंचेन्द्रियों को संसार से हटा कर आत्म केन्द्रित करने की कला प्रत्याहार है। वह नियन्त्रित ना हों तो उन की अंतहीन माँगे कभी पूरी नहीं हो सकतीं।


धारणा का अर्थ है मन का स्थिर केन्द्रण।


ध्यान में व्यक्ति शरीर और संसार से विलग हो कर आद्यात्मा में खो जाता है।


समाधि का अर्थ है साथ यानि जुडाव या योग हो जाना। यह परम जागृति है। यही योग का लक्ष्य है।

 

 

MMSTM समवैध्यावि ध्यान की वह आधुनिक विधि है। कोई चाहे नास्तिक हो आस्तिक हो, साकार, निराकार कुछ भी हो बस पागल और हठी न हो तो उसको ईश अनुभव होकर रहेगा बस समयावधि कुछ बढ सकती है। आपको प्रतिदिन लगभग 40 मिनट देने होंगे और आपको 1 दिन से लेकर 10 वर्ष का समय लग सकता है। 1 दिन उनके लिये जो सत्वगुणी और ईश भक्त हैं। 10 साल बगदादी जैसे हत्यारे के लिये। वैसे 6 महीने बहुत है किसी आम आदमी के लिये।"  सनातन पुत्र देवीदास विपुल खोजी
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