समर्पण, भक्ति
और और सिद्धियां : कुछ उत्तर
सनातन पुत्र देवीदास विपुल "खोजी"
सनातनपुत्र देवीदास विपुल
"खोजी"
विपुल सेन उर्फ विपुल “लखनवी”,
(एम . टेक. केमिकल इंजीनियर) वैज्ञानिक
एवं कवि
सम्पादक : विज्ञान त्रैमासिक हिन्दी जर्नल
“वैज्ञनिक” ISSN
2456-4818
वेब: vipkavi.info वेब चैनल: vipkavi
फेस बुक: vipul luckhnavi
“bullet"
एक सुंदर कट पेस्ट। श्रेष्ठ सन्देश। *दिल को छू गयी यह कथा*
*प्रेरक कथा*
एक बार एक ग्वालन दूध
बेच रही थी और सबको दूध नाप नाप कर दे रही थी । उसी समय एक नौजवान दूध लेने आया तो
ग्वालन ने बिना नापे ही उस नौजवान का बरतन दूध से भर दिया।
वही थोड़ी दूर पर एक
साधु हाथ में माला लेकर मनको को गिन गिन कर माल फेर था। तभी उसकी नजर ग्वालन पर
पड़ी और उसने ये सब देखा और पास ही बैठे व्यक्ति से सारी बात बताकर इसका कारण पूछा
।
उस व्यक्ति ने बताया
कि जिस नौजवान को उस ग्वालन ने बिना नाप के दूध दिया है वह उस नौजवान से प्रेम
करती है इसलिए उसने उसे बिना नाप के दूध दे दिया ।
यह बात साधु के दिल
को छू गयी और उसने सोचा कि एक दूध बेचने वाली ग्वालन जिससे प्रेम करती है तो उसका
हिसाब नही रखती और मैं अपने जिस ईश्वर से प्रेम करता हुँ, उसके लिए सुबह से शाम तक मनके गिनगिन कर माला फेरता हुँ। मुझसे
तो अच्छी यह ग्वालन ही है और उसने माला तोड़कर फेंक दी।
जीवन भी ऐसा ही है।
जहाँ प्रेम होता है वहाँ हिसाब किताब नही होता है, और जहाँ हिसाब किताब होता है वहाँ प्रेम नही होता है,
सिर्फ व्यापार होता ।
अतः प्रेम भलेही वो
पत्नी से हो , भाई से हो , बहन से हो , रिश्तेदार से हो, पडोसी
से हो , दोस्त से हो या फिर भगवान से । निस्वार्थ प्रेम
कीजिये जहाँ कोई गिनती न हो , बस प्रेम हो ।
कुछ मत मांगो कुछ मत
बोलो। सब स्वतः मिल जाता है। माँगनेवाला तो भिखारी होता है। प्रभु से भीख नही
प्रभु को मांगो। बल्कि मांगना तो प्रभु पर सन्देह करना होता है।
मांगत है संसार सब, निज अभिलाषा मान।
जो ना मांगे न कछु, सब कुछ मिलता जान।।
आज मेरा मन व्यथित
हुआ। मतलब अच्छा नही लगा। ग्रुप के एक सदस्य को क्रिया हो रही है। पर उनके पास
इतना धन नही कि वे रेलवे टिकट ले सके और दीक्षा के लिए जा सके। उनको सहायता की
पेशकश मैने नही की। क्योकि उनको बुरा न लगे। अतः मैंने उनकी माँ जिनको माता जी का
सायुज्य प्राप्त है। पर वे गुरू नही है। उन्ही को गुरू मानने को बोल दिया। ताकि
इनकी शक्ति अपनी माता जी की शक्ति से जुड़ जाये और इनकी क्रिया नियंत्रित हो सके।
कारण इनकी माँ को कोई
ऐसी क्रिया या आवेग नही होता है जो अनियंत्रित हो। मतलब वह माँ जगदम्बे की शक्ति
को संभाल पा रही है।
उनकी माता बिना पढ़ी
लिखी है। बचपन से माता का जाप करती आ रही है। अनिको अनुभव और दर्शनाभूति कर चुकी
है। याबी उनको कृष्ण दिखते है। मतलब वे निराकार का भी अनुभव करनेवाली है मुझे ऐसा
लगता है।
कभी कभी स्वतः ज्ञान
प्राप्त बिना गुरू के भी भक्ति की पराकाष्ठा में पहुँच कर उस स्तर पर पहुँच जाते
है जहाँ शक्ति स्वयं गुरु बन जाती है। ऐसा कम होता है पर होता है।
जैसे रमण महृषि, अरविंद घोष इत्यादि।
वेदों द्वारा सिर्फ
मार्ग दर्शन हो सकता है। ज्ञान प्राप्त नही हो सकता सब मात्र शब्द है।
ज्ञान तो तब ही होता
है जब हम अपने अंदर से होकर अपने को पढ़ने लगते है।
पर यू समझो। एक समय
था कि सँस्कृत मात्र जन्मने ब्राह्मण ही पढ़ सकते थे। उस समय जन्मे गोरखनाथ ने
पूर्वी भाषा मे शक्ति देकर कुछ शब्दों को मन्त्र का रूप दे दिया। जो शाबरी मन्त्र
कहलाते है।
देखो जब कोई सिद्ध
अपनी शक्ति से किसी शब्द को जागृत कर देता है तो वह जागृत ही रहता है।
जैसे आज के समय सारे
मन्त्र सारे शब्द नाम जप सब सिद्ध हो चुके है क्योंकि इतने सन्तो ने इनको जपा की
ये जागृत ही हो गए है।
भाई यदि उनका मन होगा
तो वह स्वयम आपसे व्यक्तिगत सम्पर्क कर लेंगे। मैं किसी के मान को ठेस नही पहुंचा
सकता।
नहीं। यह इशारा है
तुम्हारी सोंच में बदलाव का। अब नशा छोड़ो और तैयार हो नए अनुभव के लिए।
वैसे यह किसी मातृ
तुल्य रिश्तेदार की मृत्यु का भी संकेत हो सकता है।
चलो एक प्रसंग और कथा का:
चांगदेव महाराज
सिद्धिके बलपर १४०० वर्ष जीए थे ।उन्होंने मृत्युको ४२ बार लौटा दिया था । उन्हें
प्रतिष्ठाका बडा मोह था । उन्होंने सन्त ज्ञानेश्वरकी कीर्ति सुनी; उन्हें सर्वत्र सम्मान मिल रहा था । चांगदेवसे यह सब सहा न
गया । वे ज्ञानेश्वरसे जलने लगे । चांगदेवको लगा, ज्ञानेश्वरजीको
पत्र लिखूं । परन्तु उन्हें समझ नहीं रहा था कि पत्रका आरम्भ कैंसे करें । क्योंकि,
उस समय ज्ञानेश्वरकी आयुकेवल सोलह वर्ष थी । अतः, उन्हें पूज्य कैंसे लिखा जाए ? चिरंजीव कैंसे लिखा
जाए; क्योंकि वे महात्मा हैं । क्या लिखेंं, उन्हें कुछ समझ नहीं रहा था । इसलिए, कोरा ही पत्र
भेज दिया ।
सन्तोंकी भाषा सन्त
ही जानते हैं । मुक्ताबाईने पत्रका उत्तर दिया – आपकी अवस्था १४०० वर्ष है । फिर
भी, आप इस पत्रकी भांति कोरे
हैं ! यह पत्र पढकर चांगदेवको लगा कि ऐसे ज्ञानी पुरुषसे मिलना चाहिए । चांगदेवको सिद्धिका
गर्व था । इसलिए, वे बाघपर बैठकर और उस बाघको सर्पकी लगाम
लगाकर ज्ञानेश्वरजीसे मिलनेके लिए निकले । जब ज्ञानेश्वरजीको ज्ञात हुआ कि चांगदेव
मिलने आ रहे हैं, तब उन्हें लगा कि आगे बढकर उनका
स्वागत-सत्कार करना चाहिए । उस समय सन्त ज्ञानेश्वर जिस भीतपर बैठे थे, उस भीतको उन्होंने
चलनेका आदेश दिया । भीत चलने लगी । जब चांगदेवने भीतको चलते देखा, तो उन्हें विश्वास हो गया कि ज्ञानेश्वर मुझसे श्रेष्ठ हैं । क्योंकि,
उनका निर्जीव वस्तुओंपर भी अधिकार है । मेरा तो केवल प्राणियोंपर
अधिकार है । उसी पल चांगदेव ज्ञानेश्वरजीके शिष्य बन गए ।
तात्पर्य
: सिद्धियां आत्मज्ञानकी प्राप्तिमें बाधक होती हैं ।
एक बात समझ लो। यदि
ध्यान के आगे के अनुभव चाहिए तो श्वास द्वार बिलकुल खुला होना चाहिए। मेरे विचार
से। प्रणायाम। यानी रेचक कुम्भक और पूरक बहुत आवश्यक है। कम से कम 11 बार।
मात्र प्राणायाम कुछ
नही कर सकता।
हम कम से कम बुद्दीमय
कोष तक तो पहुचे।
तुम तो अभी अन्नमय
कोष में ही फंसे हो।
देखो जब हम बुद्दीमय
कोष तक पहुचते है। किसी भी अंतर्मुखी विधि द्वारा। तब हमको प्रणायाम फलित होता है
सहायक होता है। अन्यथा वह केवल स्वास्थ्य हेतु एक कसरत ही होता है।
भक्ति में जब हम परम्
प्रेमा भक्ति में पहुच जाए तो समझो हम बुद्दीमय कोष तक आ गए। वहीं विपश्यना में और
शब्द योग में जब हम तीव्र प्रकाश के साथ उड़ने की अनुभूति करें तो समझो बुद्दीमय
कोष तक आ गए। त्राटक में जब हम सनकर्षित दर्शन कर पाए कम से कम 2 मिनट तक तब हम बुद्दीमय कोष तक पहुचे।
इस अवस्था के बाद
प्राणायाम फलित होने लगता है।
सर बिना गुरु मर
जाऊंगा पर आपके सिवाय दीक्षा नही लूंगा
देखो मैं गुरू
परम्परा में हूँ। बिना गुरू आज्ञा के कुछ नही कर सकता। जब काली माँ और परम गुरू
देव बोलेगे तो मैं सोंच सकता हूँ। उसके पहले नही। मेरी मजबूरी आप समझे। मैं
परम्परा में हूँ। स्वतन्त्र नही।
मैं न अपनी ओर से कुछ
इच्छुक हूँ। और न किसी से पूछूंगा। मैं मुक्त रहना चाहता हूँ सारे बन्धनों से।
प्रभु जी, दीक्षा क्या है, क्या गुरु द्वारा
कान में मंत्र फूंकना या छू देना दीक्षा है, क्या केवल मानव
ही गुरु बन सकता है, यदि नहीं तो अन्य प्राणी हमें कैसे
दीक्षित करते है,
दीक्षा यानी दी
इच्छा। यह इच्छा क्या। यह है कि हम जान सके हम क्या परमात्मा क्या। हम अनुभव कर सके द्वैत अद्वैत साकार निराकार निर्गुण
सगुण सहित तमाम ज्ञान जो हमको होना है आगे। है गुरू देव हमारी यही इच्छा से आया
हूँ। आप दया करे। हमें वह सामर्थ्य प्रदान करे। कि मुझ अज्ञानी को भव सागर का
ज्ञान हो कैसे उतर पाऊँ वह नौका आप प्रदान करे।
देखो ईश प्रत्येक के
साथ है पास है। प्रत्येक के साथ है पर हमारी सामर्थ्य और भाव नही अतः प्रभु ने
गुरू रूप में स्वयं को प्रतिष्ठित किया है। मैं नकली दुकानदार बनावटी गुरुओ की बात
नहीं कर रहा हूँ। मैं अपने आत्म कथा में गुरुओ की सामर्थ्य भी बताई है कि किस
प्रकार शिवोम तीर्थ जी महाराज ने माँ काली की शक्ति को 25 वर्षो तक के सुला दिया था ताकि मैं अपने कर्म फल और परिवार
को भोग सकू। प्रथम गुरू तो शिव पर उनकी शक्तियों को उठाने वाले कम से कम से मेरी
परम्परा के गुरू।
इसी भावना को गुरू
किसी प्रकार से माध्यम से पूरी करता है। वह होती है दीक्षा। कोई अंतर्मुखी होने का
साधन जैसे विपश्यना नाम मन्त्र शब्द इत्यादि देता है तो कोई इसके आगे। तो कोई सबसे
आगे जाकर सीधे कुण्डलनी को ही छेड़ कर जगा देता है। यही शक्तिपात परम्परा है। शिष्य
की अवस्था के अनुसार उसकी दशा और दिशा देखकर गुरू नियंत्रण करना सीखाता है इसी लिए
हमारी परम्परा में शिष्य को तीन दिन आश्रम में रहना पड़ता है। क्योंकि वाहीक जगत के
लिए एक तो पागलपन और मनोवैज्ञानिक दौरा।
जब गुरु आदेश से गुरू
बनते है तो परम्परा के गुरू अपनी शक्तियों को देने के अतिरिक्त उस गुरू की सहायता
करते है।
अतः बिना गुरू आदेश
के गुरू बनना खतरनाक होने के साथ उस गुरू को भी अहितकर होता है।
अब आप मेरा बन्धन समझ
सकते हैं। अतः मुझे गुरू बनने हेतु जोर न दे।
अन्य बात यह है गुरू पद
कम से कम अपनी परम्परा में बेहद बन्धनों दिनचर्यायों और कर्मो से बंधा है। मेरा
लेख देखे। जिसमे मैंने देखा है गुरू पड़ बेहद दुष्कर कटीला और कष्टकारी है। मेरी
निगाह में यह एक सत्वगुणी दण्ड या भोग है। जो हर मनुष्य नही भोग सकता।
यह सत्य है पर हमेशा
नही। क्योकि मनुष्य के संस्कार और कर्म फल बाधक होते है।
यह मनुष्य पर निर्भर
होता है कि वह किस तरफ भागे। प्रायः इसके बाद लोग गुरू बनने पर्वचक बनने अपनी पूजा
करवाने जैसी भौतिक इच्छाकर फंस जाते है। कोई कोई तो सिद्दी प्राप्त कर प्रसिध्दी
हेतु प्रेरित हो जाता है। जो पतन का कारण बन जाता है। इच्छा न पूरी होने पर अहंकार
के कारण कुपित होकर कुछ भी कर जाते है। जो बच जाते है जिनकी ईश कृपा होती है वे
आगे की यात्रा कर जाते है।
यहाँ पर सगुण देव और
मन्त्र जप प्रभावी होकर सद्बुध्दि भी देता है। अतः प्रत्येक साधक को गनेश और माँ
सरस्वती का चित्र अपने पूजा स्थान अवश्य लगाना चाहिए। माँ सरस्वती बेहद भोली शान्त
और सदैव सत्मार्ग बताने वाली है। श्री गणेश मार्ग पर क्या करे यह बतानेवाले है।
अर्थात श्री गणेश चतुराई और माँ सरस्वती सत्मार्ग का ज्ञान देती है।
यह मन का भरम है। जरा
कल्पना करो। मृत्यु के पूर्व कोई 15 दिन बिस्तर पर गू गोजता है। सब देख रहा है कुछ कर सकता नही। चीटीं काट रही
है खुजा सकता नही। वह मौत मांगता है पर डॉक्टर जिला रहे है। यह क्या होता है।
मित्र हम इस जगत में ही अपनी करनी का फल भोगते है। बस दुनिया को सुख दिखता है दुख
नही। क्योकि दुख केवल शरीर भोगता है। जबकि भोग में वाहीक वस्तुएं होती है जो संसार
देखता है।
अब बताओ भय्यू जी जो
दुनिया को जीवन संघर्ष सीखा रहे थे। क्यो आत्महत्या कर बैठे।
यह सत्य है पर हमेशा
नही। क्योकि मनुष्य के संस्कार और कर्म फल बाधक होते है।
यह मनुष्य पर निर्भर
होता है कि वह किस तरफ भागे। प्रायः इसके बाद लोग गुरू बनने पर्वचक बनने अपनी पूजा
करवाने जैसी भौतिक इच्छाकर फंस जाते है। कोई कोई तो सिद्दी प्राप्त कर प्रसिध्दी
हेतु प्रेरित हो जाता है। जो पतन का कारण बन जाता है। इच्छा न पूरी होने पर अहंकार
के कारण कुपित होकर कुछ भी कर जाते है। जो बच जाते है जिनकी ईश कृपा होती है वे
आगे की यात्रा कर जाते है।
यहाँ पर सगुण देव और
मन्त्र जप प्रभावी होकर सद्बुध्दि भी देता है। अतः प्रत्येक साधक को गनेश और माँ
सरस्वती का चित्र अपने पूजा स्थान अवश्य लगाना चाहिए। माँ सरस्वती बेहद भोली शान्त
और सदैव सत्मार्ग बताने वाली है। श्री गणेश मार्ग पर क्या करे यह बतानेवाले है।
अर्थात श्री गणेश चतुराई और माँ सरस्वती सत्मार्ग का ज्ञान देती है।
इसका मतलब दुनिया सुख
वैभव देख रही थी पर वह मन मे कितने दुखी थे।
यही इस जगत का है
कब्र का हाल मुर्दा जानता है।
जब यह फल नही भोग
पाते और बीच मे ही मर जाते है तो पुनः जन्म लेकर वह कर्मफल भोगने पड़ते है।
जूती बाहर से चमकदार
सवर्ण जड़ित है पर जब पहना तो काटती है। यही जगत है।
अब देखो श्री
उपाध्याय केरल पुलिस के डी जी है सबके लिए। रुतबा और हनक है सबके लिए। पर इस पद पर
क्या क्या काँटे है क्या और कोई जानेगा क्या। अर्थात नही जानेगा। घायल की गति घायल
जाने।
बिना लहसुन प्याज के
वो केरल में रहना कितना मुश्किल आपको क्या पता।
प्रभु जी, पुनर्जन्म में स्मृति का लोप हो जाता है, हमें पिछले जन्म का कुछ भी याद नहीं रहता, ऐसे मै हम
किस कर्म का फल भोग रहे है, ये प्रश्न पैदा होता है, क्योंकि प्रस्तुत जन्म के क्रिया कलाप हमें मालूम होते है, उसी के अनुसार फल मिले समझ आता है, लेकिन जब फल और
कर्म में सामंजस्य न हो तो अविश्वास और कष्ट उत्प्न होता है
यदि हम जान जाए तो
कर्ता नही हो जायेगे।
ठीक उम्र क्या तय
करोगे। कर्म फल कब भोगेंगे। यह सब पुस्तको में लिखा है। क्या हर धान बाइस पसेरी
बिकता है
गुणवत्ता गिरने के
अनुसार ही युग तय होते है
अर्थात
यानी
आदमी की क्वालिटी
सतयुग 100 से 75 प्रतिशत
द्वापर 75 से 50
त्रेता 50 से 25
कलियुग 25 से 0
मोक्ष यानी निर्वाण
यानी ऊर्जा के अंतिम स्वरूप में ऊर्जा के रूप में विलीन होकर जेवन के जन्म मरण से
छूट जाना। लेकिन यह नही हो पाता है। किसी न किसी सत्व गुणी कर्मफल के कारण किसी
सत्वगुणी इच्छा के कारण ऊर्जा स्वरूप शुध्द रूप में नही मिल पाता है। प्रायः गुरू
पद तो सबसे बड़ा बन्धन हो जाता है। क्योंकि गुरू लोक में भी जाकर वापिस आना पड़ जाता
है।
प्रयास यह हो हमें
कोई गुण न रहे। एक पत्थर की भांति हो जाये। कर्म सिर्फ कर्म ही रहे फल न बने। इसी
लिए सहन शीलता को योगी का अंतिम गुण या पहिचान बताया गया है।
शक्तिपात परम्परा भी
सिर्फ संस्कार विहीन होने के लिए प्रयोग हो। किसी सिद्दी का चक्कर कभी मुक्त न
होने देगा।
आत्मा। शरीर माध्यम
है।
शक्ति आत्मा।
मार्गदर्शन बुद्दी। कर्म गुण मन। करन इंद्री। कर्म शरीर
फल मन। फल विचार
बुद्दी। नियोक्ता आत्मा।संचय चित्त।
ये ही चित्त अगले
जन्म का कारक। यह आत्मा के शुध्द ऊर्जा रूप को कलुषित करता है। कर्म के गुण के
अनुसार। पर प्रदूषण तो प्रदूषण।
इस ऊर्जा को पुनः शुध्द
होने हेतु अनेको तप साधनाये इत्यादि। यह करने में फिर कर्म फल पैदा हो जाते
है।शक्तिपात परम्परा में गुरू प्रदत्त साधन है साधना नही। यह साधन संस्कार नष्ट कर
चित्त शुध्दि करता है। इस प्रकम मे जो होता है वह क्रिया। यानी ऊर्जा के संग लिप्त
जो गन्दगी।
अतः साधन आवश्यक है।
पर मन्त्र जप पुनः गन्दगी को आने से रोकता है। मन्त्र जप भी संस्कार बन जाता है पर
सत्व गुणी जो बाद में खुद को विलीन कर सहायक होता है। अतः मन्त्र जप एक आदत बनाओ।
सांस लेने की तरह ताकि कर्मफल न पैदा हो।
इनको कोष से भी समझ
सकते है।
अन्नमय कोष फिर प्राण
मय, मनोमय, बुद्दीमय, आत्ममय, कुछ ज्ञान
मय मानते है, आनन्दमय कोष। उसी प्रकार आत्ममय कोष में और
अधिक प्याज की तरह घुसते जाना छीलते जाना इस शरीर से दूर होते जाना दूरी में नही
क्या बोलू गहराई सही है । और वहां पर बुद्दी को भी लेते जाना ।
मतलब यह स्थूल शरीर
को छोड़कर पांचवे तत्व यानी आकाश तत्व का सब कुछ ले जाना और इसी शरीर की तरह बहुत
कुछ अनुभव करते जाना। उनको विभिन्न शरीर बोला जाता है।
मृत्यु के समय आत्मा
किस क्रम से निकलती है । यह बताया है प्रश्न में। तो आत्मा पिछली लेयर यानी शरीर
को त्याग कर निकल जाती है।
जैसे आत्ममय कोष से
निकली फिर बुद्दीमय मनोमय होती हुई प्राणमय कोष में आई। फिर वहॉ से निकली और
पांचवे तत्व यानी आकाश तत्व जो शरीर मे ही है वहाँ गई। फिर वह आकाश तत्व इस शरीर
से निकला। चार तत्व रह गए। जो भी क्रमशः निकलते जाते है।
सबकी बुद्दी सबका
ज्ञान। सबका अनुभव एक सा नही होता है।
यह सही है। कलियुग
इसी का नाम है।
दरवाजे पर भगवान बैठा है।
जरा सा द्वार खोलो। पर कोई विश्वास नही करता ।
देखे कलियुग में यदि
अनपढ़ बनकर कृष्ण भी आएंगे कोई यकीन न करेगा।
बिल्कुल नही।
कर्तव्यों को त्यागना गलत है । पर कर्तव्य क्या यह जानना ज्ञान है।
भाई मेरे विचार से हर
आध्यात्मिक कर्म हरेक के लिए नही होता है। हर मर्ज की एक दवा नही होती है। अतः एक
ही डंडे से हांकना उचित नहीं।
सबसे सुंदर सस्ता
टिकाऊ मार्ग है प्रभु स्मरण, प्रभु समर्पण। न योग न भोग न कुछ भी नही जानो। सिर्फ और सिरफ प्रभु को
मानो और जानो। वह जो मार्ग दिखाए। तुमको जो अनुभव कराए वो ही सही। बाकी सब तुम्हारे
लिए व्यर्थ।
न रिद्धि न सिद्धि।
सब कुछ व्यर्थ यदि प्रभु को अर्पण समर्पण और स्मरण न किया।
मीरा सूर तुलसी कबीर
नानक किस हिमालय में गए थे। सन्सार में रहो कमल की भांति। यही परीक्षा स्थली है।
यही है कुरुक्षेत्र।
ईश का अंतिम स्वरूप
निराकार है। समय आने पर प्रभु की इच्छा से वह भी मिल जाता है। बस तुम साकार का
आनन्द लेते रहो। सगुन से निर्गुण की यात्रा सुहावनी होती है। द्वैत से अद्वैत का
अनुभव मनोहर होता है। साकार से निराकार आश्चर्य भरा।
किसी के लिए न प्रयास
करो। न सोंचो। न मानो न जानो। बस एक बात याद रखो तुम और तुम्हारा इष्ट। नही तो
गुरु। दोनो एक ही है।
भटको मत ज्ञान में।
अज्ञान में। दुनिया के प्रलोभन में बातो में।
बस चले चलो अपनी
साधना, मन्त्र जप के साथ प्रभु
समर्पण और स्मरण। अर्पण भी स्वतः हो जाएगा।
मन विचार मत करो, क्या पाप या पुण्य।
बस केवल कर याद रख, इष्ट तेरा अक्षुण्य।।
भाई मुझे कुछ नही
पता। बस प्रभु स्मरण और समर्पण।
आप जो कहे सब सही।
कोई टिप्पणी नही।
मित्रो mmstm इतनी अधिक पावरफुल होगी। मैं सोंच भी नही सकता था। ईश
दर्शनों के आगे भी कुछ लोग निकल गए।
मुझे एक सन्यास
दीक्षा देखने का सौभाग्य प्राप्त हुआ।
साथ मे थे अंशुमन
द्विवेदी और पर्व मित्तल।
सन्यास में मनुष्य की
शिव के रूप में पूजा होती है। जल चढ़ाने का मौका मुझे मिला।
अपने ही परिवार के
सदस्यों से सबसे पहले भिक्षा मांगनी पड़ती है। माम भिक्षाम देही। सन्यास दीक्षा
सनातन के अनुसार हुई।
सबसे पहले जिस गुरू
ने दीक्षा दी। वोही उस शिष्य के शिव तत्व को प्रणाम करता है फिर बाकी सन्यासी।
सबसे पहले नदी पर
स्नान कराया गया। उस अवसर पर सभी सन्यासियों के साथ जुड़ने का मौका मिला।
कुछ भी करो। साकार
सगुण आरम्भ करो। सरलतम है मन्त्र जप। साथ मे ध्यान भी मन्त्र जप के साथ। या सगुण
त्राटक के साथ।
अरे क्या बात है।
एकदम सौ टके सही और खरी।
यह भी सही।
देखो भक्त बनो। भक्त
को चक्रो से क्या चक्कर। सच बोलूं सब गया तेल लेने। अपने बस प्रभु स्मरण, समर्पण और अर्पण ।
इस ग्रुप में शिष्यों
में पर्व मित्तल को मैं नम्बर भक्तो में एक स्थान पर ही रखना चाहूंगा। जो सदैव
कृष्ण के ध्यान में लीन रहने के साथ अपना गुरु प्रदत्त साधन करता रहता है।
अनिल को अनुभव बहुत
पर भटकता बहुत है।
देखो यह वह ऊपर क्या
नीचे क्या सब ज्ञानियों की बाते। जब तक न करो सब व्यर्थ। मात्र चर्चा और वृथा
परिश्रम।
लोकेशानन्द जी भक्ति
को कितना समझाते है। किंतने विस्तार से और सुंदर तरीके से।
पर ग्रुप में किंतने
समझे होंगे। शायद इक्का दुक्का।
मैने अपने सारे
वस्त्र उतार दिए। सारे गोपनीय खजाने समझाने के लिए लुटा दिए। पर ग्रुप में शायद
किसी ने ढंग से पढ़ा भी न होगा।
लेकिन हम अपना लोक
कल्याण का कार्य करते रहेंगे।
सब माँ जगदंबे की
कृपा और गुरु शक्ति की दया।
बस चलते रहो। चलते
रहो।
सुंदर अति सुंदर। यही
होना चाहिए।
एक बात मेरी समझ मे आ
रही है। जिस प्रकार जानवरो की संख्या सीमित रहे हिंसक पशु होते है। जो जानवर खाते
है। घास फूस सीमित रहे अतः अन्य शाकाहारी जानवर होते है।
उसी प्रकार मानव जाती
में विभिन्न धर्म होते है जो जन संख्या नियंत्रित करते है। हिन्दू सबसे साफ्ट गाय बकरी की तरह शाकाहारी सिर्फ
शिकार बनने रूपी मानव जानवर है। आपस मे लड़ते भिड़ते है फिर ग्रास बन जाते है।
इतिहास गवाह है। बाकी कुछ उदासीन पर मांस भक्षी और कुछ इनको खाने वाले धर्म है जो
इनका शिकार करते है।
आप मेरी व्याख्या से
सहमत है क्या।
मुझे तो यह प्रकृति
चक्र ही लगता है। यह तब तक चलता रहेगा जब तक सभी घास फूस वाले समाप्त न होंगे।
मित्र आपकी कुछ बातें
सत्य है किंतु कुछ से मैं सहमत नही क्योकि मेरे अनुभव कुछ और है। कारण प्रत्येक
मनुष्य के कर्म अलग होते है अतः अनुभव अलग हो सकता है।
मित्र मैं ग्रुप में
सिर्फ अनुभव की बाते चाहते हूँ। किसने क्या बोला सब गूगल पर दिया है। बार बात वही।
आकर देखा 355 पोस्ट।
इनको तीन बार निकाला
है। इनको ज्ञान की भड़ास है। अनुभव की बात नही। बकवास के उपदेश।
अरे अपने अनुभव लिखकर
पोस्ट कर दो। फिर कोई कुछ पूछे तो समझाओ।
यार तुम बहुत अनुभवी
हो। अपने गुरू प्रदत्त साधन को करो। मूर्खो से बात क्यो करते हो। तुम्हारी बातो
में दम होती है पर बेसमय। जब समय हो तब अपनी बात रखो। किसी नए को अनुभव से समझा
दो।
माता जी मेरा प्रयास
रहता है कि मैं मात्र अनुभव की बातों को स्थान दू। बाकी कहानी हेतु गूगल गुरू है।
पर कुछ लोगो की ज्ञान की भड़ास असमय निकलती है। तो अजीब लगता है। शाम तक 355 पोस्ट। बताइए क्या यह उचित है।
मेरा निवेदन है गीता
ज्ञान गूगल गुरू से समझे। यदि कोई नई शोध हो अर्थ हो तो समझाए। जो बात हजारों साल
से ज्ञानी बोल रहे है। उसको पोस्ट करने से क्या फायदा।
सही है। यह आपकी
मर्जी आप क्या ग्रहण करते है। सत्य भी होता है गूगल गुरू के पास।
मित्रो। जो ज्ञानी जन
है। उनसे अनुरोध है कुछ इस प्रकार की नई सोंच के साथ गीता का श्लोक पोस्ट कर
व्याख्या करें। अनावश्यक चर्चा व्यक्तिगत पोस्ट पर ही करे।
यह ग्रुप अनुभव वर्णन
को अधिक मान्यता देता है।
साधना लेट कर कर ले।
कोई बात नही यह ध्यान
निद्रा कहलाएगी।
बेहतर है आप ब्लाग पर
कुछ लेख पढ़ ले।
इस पर जाए आपके लगभग
हर सम्भावित प्रश्नों के उत्तर लेखों के रूप में दिए है।
जी नही पा गल ही कर सकता है।
शुभ है। गुरू के
प्रति आपकी श्रध्दा का द्योतक है।
ईश का वास्तविक
स्वरूप निराकार है । मन्त्र दर्शन अनुभूतिया सब पीछे रह जाती है। आपकी transition state है । पर शिव का साकार का मन्त्र जप किसी भी
कीमत पर न छोड़े। शक्ति हमे बहलाकर कैसे भी पीछे भेजने
का प्रयास करती है। साकार निराकार द्वैत से अद्वैत और सगुण से निरगन ही वास्तविक
ज्ञान देता है
मनुष्य बहुत
शक्तिशाली होता है। वह सगुन साकार रूप में शक्ति को आने के लिए विवश कर सकता है।
आप मन्त्र जप करे। माँ काली दर्शन देती है। नही तो mmstm करे। ग्रुप कितनो को दर्शनाभूति और वार्ता तक हुई है।
शक न करे। ईश का साकार रूप है हैं और है।
नही किसी को नकारो
नही। अपना मन्त्र जप नही तो mmstm कर लो। मन्त्र जप सघन सतत और निरन्तर करो । ये ही आगे की यात्रा निराकार
तक कराने की क्षमता रखता है।
बिल्कुल होंगे। वे
होते है। प्रायः बजरंग बली सबसे पहले शयक होते है । अतः बजरंग बली की भी फोटो रखे
पूजा स्थल पर।
महादेव के मन्त्र और
संकल्प के साथ करो।
यह आपकी भृमित अवस्था
है जो सबको आती है। घबराए नहीँ mmstm के साथ मन्त्र जप करते रहे। प्रतिदिन एक निश्चित संख्या में न्यूनतम। अधिक
की सीमा नही।
शुभ है यह आपकी
बुद्दी की एकाग्रता और त्राटक की क्षमता बताता है। जप में लगी रहे निस्वार्थ
निरन्तर और सतत।
यह रीढ़ की हड्डियां
है। मतलब आपको शुभ समाचार मिल सकता है। mmstm करे।
इन चक्करों में न पड़े।
बिना अर्थ के भी चिन्ह देखते है अपना ध्यान चालू रखे। घबराए नही।
रूप है भी और नही भी।
आप पूर्व जन्म में
किसान थे।
व्यर्थ की बात। ईजाद
मनुष्य ने की। कृपया मेरे लेख लिंक पर पढ़े। सब उत्तर मिल जायेंगे।
आपकी
शक्ति उठने का प्रयास करती है पर आपके शरीर इस लायक नही। अतः प्रणायाम और मन्त्र
जप करके अपने को मजबूत बनाये।
आप ध्यान निराकार
करते है या साकार या विपश्यना।
आप साकार विपश्यना
करे। रोना एक क्रिया है जो अचानक शक्ति की क्रियाशीलता से होता है।
वास्तव में नींद के
पहले ध्यान करे ताकि नींद को योगनिद्रा का दर्जा मिल जाये।
ओह कुण्डलनी जागृत
होने की कोशिश में है। किसी कौल गुरू की शरण मे जाए। अनिल सहायता कर देगा।
यह क्रिया का अंग है।
अच्छा है। जप और तेज
कीजिये। मजा लीजिए।
जी यह भी कई प्रकार
से की जा सकती है।
कृपया नए सदस्य लिंक
पर जाकर कुछ लेख और mmstm यानी
समवैध्यावि की विधि देख ले।
अंतर्मुखी होने की
विधियों को भी ध्यान से पढ़ ले।
आपके सभी संभावित
प्रश्नों के उत्तर मिल जायेंगे।
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