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Monday, September 17, 2018

नवार्ण मंत्र में समाहित हैं गायत्री और महामृत्युंजय मंत्र


नवार्ण मंत्र में समाहित हैं गायत्री और महामृत्युंजय मंत्र 

सनातनपुत्र देवीदास विपुल "खोजी"
"

मित्रो कुछ सनातन के अनुभवी और प्रेमी प्राय: इस बात पर तर्क करते है कि गायत्री मंत्र सर्वश्रेष्ठ है तो कोई महामृत्युंजय मंत्र तो कोई नवार्ण मंत्र। मेरे विचार से यह तीनों मंत्र अदीक्षित हेतु सर्वश्रेष्ठ हैं। यद्यपि मुझे जो कुछ भी मिला सिर्फ नवार्ण मंत्र के जप से मिला अत: मेरे लिये नवार्ण मंत्र ही सर्वश्रेष्ठ होगा। पर मुझे इन तीनों मंत्रों के जाप में आनंद आता है। मैं समझता हूं कि कौन अच्छा कौन कम अच्छा यह बात करना बेहद आरम्भिक और बचकाना है। मेरे विचार से यह तीनों तंत्र के मंत्र हैं और यह साधक पर निर्भर करता है कि उसके लिये क्या श्रेष्ठ है।

मेरा अनुभव है और मानना है कि आप कोई भी मंत्र करें। कोई भी नाम जप करें। कोई भी शब्द का जाप करें। सब श्रेष्ठ हैं। बस समय आगे पीछे हो सकता है। कारण अक्षर ही ब्रह्म है। और आपके समर्थ गुरु के मुख से आपको दिया गया मंत्र, नाम, शब्द जो भी वह आपके लिये किसी भी मंत्र से श्रेष्ठ है।

 
कारण स्पष्ट है कि लगभग सभी मंत्र, नाम या शब्द कितने सिद्धों द्वारा जपित होकर सिद्ध हो चुके हैं। अत: सब बराबर ही हैं। न कोई आगे न कोई पीछे। जैसे राम नाम को कितने लोगों को तार दिया। अब आप कहें यह बेकार। ठीक है यह मंत्र नही पर यह प्रचलित सिद्ध मंत्र है। जिसको स्वयं हनुमान जपते हैं। अत: यह कमजोर कैसे हुआ। वहीं बिठठल तो तुकाराम नामदेव गोरा कुभार, राखू बाई सहित कितनों को तारने वाला तो यह राम से छोटा क्यों। मेरा मानना है छोटी आपकी सोंच है जो संकुचित होकर सनातन की धरोहर को निम्न बनाती है।कितने नारायण बोलकर तर गये। 

परंतु कुछ गायत्री के उपासकों के पूर्वाग्रह के कारण मुझे इन मंत्रों पर ध्यान कर इनकी व्याख्या समझने को विवश होना पडा। जिसमें मुझे ज्ञात हुआ कि नवार्ण मंत्र ब्रह्मांड का सबसे शक्तिशाली मंत्र है। यह भी सत्य है कि ये उनके लिये तुलनात्मक है जो आध्यात्म के शून्य स्तर पर है मतलब जीरो स्तर पर हैं। तुलना तो तब ही हो पायेगी। सिद्ध पुरूष और समर्थ गुरूओं हेतु कोई साधारण शब्द ही शक्तिशाली है। मैं यहां पर मां गायत्री या भोलेनाथ का अपमान या छोटा दिखाने हेतु यह व्याख्या नहीं कर रहा हूं और न ही मेरे अंतस में किसी के लिये छोटे बडे का भाव है पर कुछ पूर्वाग्रहित अधूरे ज्ञानियों हेतु यह व्याख्या कर रहा हूं। जिसका विवरण स्वयं मां जगदम्बे ने ध्यान में समझाया।

नवार्ण मंत्र:

सबसे पहले हम नवार्ण मन्त्र देखते हैं। जो शक्ति मंत्र है। 
ऋग्वेद, (१०।१२५।३) में आदिशक्ति का कथन है-'मैं ही निखिल ब्रह्माण्ड की ईश्वरी हूँ, उपासकगण को धन आदि इष्टफल देती हूँ। मैं सर्वदा सबको ईक्षण (देखती) करती हूँ, उपास्य देवताओं में मैं ही प्रधान हूँ, मैं ही सर्वत्र सब जीवदेह में विराजमान हूँ, अनन्त ब्रह्माण्डवासी देवतागण जहां कहीं रहकर जो कुछ करते हैं, वे सब मेरी ही आराधना करते हैं।'

सूक्तं १२५
अहं रुद्रेभिर्वसुभिश्चराम्यहमादित्यैरुत विश्वदेवैः ।
अहं मित्रावरुणोभा बिभर्म्यहमिन्द्राग्नी अहमश्विनोभा ॥१॥
अहं सोममाहनसं बिभर्म्यहं त्वष्टारमुत पूषणं भगम् ।
अहं दधामि द्रविणं हविष्मते सुप्राव्ये यजमानाय सुन्वते ॥२॥
अहं राष्ट्री संगमनी वसूनां चिकितुषी प्रथमा यज्ञियानाम् ।
तां मा देवा व्यदधुः पुरुत्रा भूरिस्थात्रां भूर्यावेशयन्तीम् ॥३॥
मया सो अन्नमत्ति यो विपश्यति यः प्राणिति य ईं शृणोत्युक्तम् ।
अमन्तवो मां त उप क्षियन्ति श्रुधि श्रुत श्रद्धिवं ते वदामि ॥४॥
अहमेव स्वयमिदं वदामि जुष्टं देवेभिरुत मानुषेभिः ।
यं कामये तंतमुग्रं कृणोमि तं ब्रह्माणं तमृषिं तं सुमेधाम् ॥५॥
अहं रुद्राय धनुरा तनोमि ब्रह्मद्विषे शरवे हन्तवा उ ।
अहं जनाय समदं कृणोम्यहं द्यावापृथिवी आ विवेश ॥६॥
अहं सुवे पितरमस्य मूर्धन्मम योनिरप्स्वन्तः समुद्रे ।
ततो वि तिष्ठे भुवनानु विश्वोतामूं द्यां वर्ष्मणोप स्पृशामि ॥७॥
अहमेव वात इव प्र वाम्यारभमाणा भुवनानि विश्वा ।
परो दिवा पर एना पृथिव्यैतावती महिना सं बभूव ॥८॥


नवार्ण/नवाक्षर मन्त्र
इसका स्वरूप है- 'ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे।'

नवार्ण मन्त्र में तीन बीज मन्त्र
मां दुर्गा के तीन चरित्र हैं। प्रथम चरित्र में दुर्गा का महाकाली रूप है। मध्यम चरित्र में महालक्ष्मी तथा उत्तर चरित्र में वह महासरस्वती हैं। इन तीन चरित्रों से बीज वर्णों को चुनकर नवार्ण मन्त्र का निर्माण हुआ है।

नवार्ण मन्त्र में तीन बीज मन्त्र हैं-
'ऐं'-यह सरस्वती बीज है। '' का अर्थ सरस्वती है और 'बिन्दु' का अर्थ है दु:खनाशक। अर्थात् सरस्वती हमारे दु:ख को दूर करें।

अब यहां देखें सरस्वती ब्रह्मा के साथ सत्व गुणी होकर सृष्टि का निमार्ण करती हैं। मतलब हमारे जन्म के पहले का जीवन जो इस बीज मंत्र द्वारा रक्षित होता है।

'ह्रीं'-भुवनेश्वरी बीज है महामाया का जिसमें महालक्ष्मी का बीज मन्त्र श्रीं भी समाहित है।

अब यहां देखें आप जब इस शरीर में तब ही तक आपको लक्ष्मी की आवश्यकता है और महामाया के अज्ञान का पर्दा भी आप इस शरीर में रहकर हटा सकते हैं और ज्ञान प्राप्त कर सकते हैं। लक्ष्मी विष्णु के साथ आपके जीवन का पालन करती हैं।

'क्लीं'-यह कृष्णबीज, महाकालीबीज एवं कामबीज माना गया है। परंतु यहां यह सिर्फ महाकाली से अर्थित है।

अब यहां देखें महाकाली शिव की शक्ति श्मशान विहारिणी मतलब मृत्यु की अधिष्ढात्री। मतलब यह आपके जीवन के पश्चात आपकी रक्षित शक्ति।

चामुन्डा इन सबकी सम्मिलित शक्ति जो दुर्गा है।

मतलब इस मंत्र में आप जन्म, जीवन और मृत्यु तीनों की शक्तियों की आराधना करते हैं।
यानि आप पूर्ण रूपेण सुरक्षित होने की प्रार्थना करते हैं

वैसे नवार्ण मन्त्र का वैदिक भावार्थ
'हे चित्स्वरूपिणी महासरस्वती! हे सद्रूपिणी महालक्ष्मी! हे आनन्दरूपिणी महाकाली! ब्रह्मविद्या पाने के लिए हम हर समय तुम्हारा ध्यान करते हैं। हे महाकाली महालक्ष्मी महासरस्वतीस्वरूपिणी चण्डिके! तुम्हे नमस्कार है। अविद्यारूपी रज्जु की दृढ़ ग्रन्थि खोलकर मुझे मुक्त करो।'


सरल शब्दों में-महाकाली, महालक्ष्मी और महासरस्वती नामक तीन रूपों में सच्चिदानन्दमयी आदिशक्ति योगमाया को हम अविद्या (मन की चंचलता और विक्षेप) दूरकर प्राप्त करें।


एक बात और देखें
नवार्ण मंत्र के नौ अक्षरों में पहला अक्षर ऐं है, जो सूर्य ग्रह को नियंत्रित करता है। ऐं का संबंध दुर्गा की पहली शक्ति शैल पुत्री से है, जिसकी उपासना 'प्रथम नवरात्र' को की जाती है। 
दूसरा अक्षर ह्रीं है, जो चंद्रमा ग्रह को नियंत्रित करता है। इसका संबंध दुर्गा की दूसरी शक्ति ब्रह्मचारिणी से है, जिसकी पूजा दूसरे नवरात्रि को होती है। 

तीसरा अक्षर क्लीं है, चौथा अक्षर चा, पांचवां अक्षर मुं, छठा अक्षर डा, सातवां अक्षर यै, आठवां अक्षर वि तथा नौवा अक्षर चै है। जो क्रमशः मंगल, बुध, बृहस्पति, शुक्र, शनि, राहु तथा केतु ग्रहों को नियंत्रित करता है। 

मतलब आप सकल विश्व की शक्तियों की आराधना इस मंत्र से करते हैं।
सवाल है अब फिर बचा क्या?? यह आप बतायें।

अब आप पूरा मंत्र छंद देखें।

ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे।
ॐ ग्लौ हू क्लीं जूं स: ज्वालय ज्वालय ज्वल ज्वल प्रज्वल प्रज्वल
ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे ज्वल हं सं लं क्षं फट् स्वाहा।'

इस पूरे मंत्र के अर्थ कहीं नहीं दिये हैं। यहां तक कुछ सिद्ध पूरुष जान गये थे पर उन्होने दुनिया को नहीं बताया क्योकि गलत लोग इसका दुरूपयोग कर सकते हैं। इसके कुछ अर्थ जो मैं समझ पाया।  

ग्लौं—– ग=गणेश ल=व्यापक औ =तेज बिंदु=दुःख हरण मतलब व्यापक रूप विध्नहर्ता अपने तेज से मेरे दुखों का नाश करें!

हूँ—- ह=शिव ऊ=भैरव अनुस्वार=दुःख हर्ता यह कूर्च यानी कुंजी है बीज है! इसका तात्पर्य यह है असुर-संहारक शिव मेरे दुखों का नाश करें!

क्लीं — क= कृष्ण या काली ल=इंद्र ई=तुष्टिभाव अनुस्वार=सुखदाता कामदेव रूप श्रीकृष्ण / काली मुझे सुख-सौभाग्य दें!

जूं एक कुंजी है। स: श्वास प्रक्रिया है। मतलब तुम सब खुलो। कार्यशील हो।

ज्वालय ज्वालय ज्वल ज्वल प्रज्वल प्रज्वल । मतलब जो बाधायें हैं और सिद्धियों के पुष्पदल हमारे चक्रों पर अनाहत है वह जले। तीव्र जलें और तीव्रतम तरीके से प्रकाशित हो।

अब दुबारा आपकी अराधना आपके जो अन्य अर्थ हों बीज मंत्र हों वह इसमें समाहित हो।
हं–आकाश बीज । मतलब आकाश तत्व। सं, स =दुर्गा यानि शक्ति, बिंदु=दुःख हर्ता । लं–पृथ्वी बीज । क्षं, क्ष= नृसिंह, बिंदु=दुःख हरण । नृसिंह मतलब जानवर जो शेर है और मानव की शक्ति। फ़ट : विस्फोटक रूप में बिखरो स्वाहा : जल कर खाक हो।  

अब आप इस भीषण शक्तिशाली मंत्र के अर्थ स्वयं लगा लें। पर चलिये कुछ यूं होगे सीधे अर्थ
'हे चित्स्वरूपिणी महासरस्वती! हे सद्रूपिणी  महालक्ष्मी, आनन्दरूपिणी महाकाली! महासरस्वती ब्रह्मविद्या पाने के लिए हम हर समय तुम्हारा ध्यान करते हैं। हे महाकाली महालक्ष्मी स्वरूपिणी चण्डिके! तुम्हे नमस्कार है। अविद्यारूपी रज्जु की दृढ़ ग्रन्थि खोलकर मुझे मुक्त करो।'  
मेरे दुखों का नाश करें जो गणेश है। असुर-संहारक शिव है। शक्तिदाताकाली, इच्छा पूर्ति कर्ता कृष्ण और कामदेव आप सब जब तक मुझमें श्वांस है सदैव क्रियाशील रहें। 

पुन: हे  महासरस्वती महालक्ष्मी महाकाली स्वरूपिणी चण्डिके! तुम्हे नमस्कार है। और आप तीनों पृथ्वी से आकाश तक, मेरे जीवन के पहले और बाद में, मेरे मूलाधार से आकाशत्व के चक्र सिंह की भांति दहाडकर वीर भद्र की भांति शक्तियुक्त हों और बाधायें दूर हो, सिद्धियों के पुष्पदल हमारे चक्रों पर अनाहत है वह जले। तीव्र जलें और तीव्रतम तरीके से प्रकाशित हो। अनन्त शक्ति के साथ विस्फोटक रूप में बिखरे और जल कर खाक हो। (यानि मुझे सर्व सिद्धियां प्रदान करें)। 

यह अर्थ मैनें लगाये हैं। इसके अर्थ कहीं दिये नहीं हैं। आप भी अर्थ बताने का प्रयास करें।

अब आप स्वयं देखेक्या इससे शक्तिशाली कोई प्रार्थना है???  


गायत्री मंत्र:

गायत्री मंत्र व उसका अर्थ:  ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्।

ऊँ - ईश्वर । भू: - प्राणस्वरूप । भुव: - दु:खनाशक। स्व: - सुख स्वरूप । तत् - उस । सवितु: - तेजस्वी । वरेण्यं - श्रेष्ठ । भर्ग: - पापनाशक । देवस्य – दिव्य । धीमहि - धारण करे । धियो – बुद्धि । यो - जो न: - हमारी । प्रचोदयात् - प्रेरित करे।

सभी को जोड़ने पर अर्थ है - उस प्राणस्वरूप, दु:ख नाशक, सुख स्वरूप, श्रेष्ठ, तेजस्वी, पापनाशक, देव स्वरूप परमात्मा को हम अन्तरात्मा में धारण करें। वह ईश्वर हमारी बुद्धि को सन्मार्ग पर प्रेरित करे।

आप देखें यह ज्ञान और सन्मार्ग की प्रार्थना करता है। मतलब एक सीमित आराधना। जो अर्थ रूप में नवार्ण मंत्र में भी दिख जाती है।

हे महाकाली महालक्ष्मी महासरस्वतीस्वरूपिणी चण्डिके! तुम्हे नमस्कार है। अविद्यारूपी रज्जु की दृढ़ ग्रन्थि खोलकर मुझे मुक्त करो।'


महामृत्युंजय मंत्र ( दो तरह से दिये हैं)

प्रथम प्रकार : ॐ हौं जूं सः ॐ भूर्भुवः स्वः ॐ त्र्यम्‍बकं यजामहे सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम् उर्वारुकमिव बन्‍धनान् मृत्‍योर्मुक्षीय मामृतात् ॐ स्वः भुवः भूः ॐ सः जूं हौं ॐ !!

दिव्तीय प्रकार: ॐ हौं ॐ जूं सः भूर्भुवः स्वः त्र्यम्‍बकं यजामहे सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम् उर्वारुकमिव बन्‍धनान् मृत्‍योर्मुक्षीय मामृतात् भूर्भुवः स्वरों जूं सः हौं ॐ !!

मुझे दूसरा वाला याद है और मैं जाप करता हूं। मुझे यही सही लगता है। आप बता सकते हैं। मुझे विवाद में न पडकर आगे बढना है।

त्र्यंबकम् = त्रि-नेत्रों वाला (कर्मकारक)
यजामहे = हम पूजते हैं, सम्मान करते हैं, हमारे श्रद्देय
सुगंधिम = मीठी महक वाला, सुगंधित (कर्मकारक)
पुष्टिः = एक सुपोषित स्थिति, फलने-फूलने वाली, समृद्ध जीवन की परिपूर्णता
वर्धनम् = वह जो पोषण करता है, शक्ति देता है, (स्वास्थ्य, धन, सुख में) वृद्धिकारक; जो हर्षित करता है, आनन्दित करता है और स्वास्थ्य प्रदान करता है, एक अच्छा माली
उर्वारुकम् = ककड़ी (कर्मकारक)
इव = जैसे, इस तरह
बन्धनात् = तना (लौकी का); ("तने से" पंचम विभक्ति - वास्तव में समाप्ति -द से अधिक लंबी है जो संधि के माध्यम से न/अनुस्वार में परिवर्तित होती है)
मृत्योः = मृत्यु से
मुक्षीय = हमें स्वतंत्र करें, मुक्ति दें
मा =
अमृतात् = अमरता, मोक्ष


महा मृत्‍युंजय मंत्र का अर्थ  
समस्‍त संसार के पालनहार, तीन नेत्र वाले शिव की हम अराधना करते हैं। विश्‍व में सुरभि फैलाने वाले भगवान शिव मृत्‍यु न कि मोक्ष से हमें मुक्ति दिलाएं।

महामृत्युंजय मंत्र के वर्णो (अक्षरों) का अर्थ महामृत्युंघजय मंत्र के वर्ण पद वाक्यक चरण आधी ऋचा और सम्पुतर्ण ऋचा-इन छ: अंगों के अलग-अलग अभिप्राय हैं।

ओम त्र्यंबकम् मंत्र के 33 अक्षर हैं जो महर्षि वशिष्ठ के अनुसार 33 कोटि यानि प्रकार के देवताओं के घोतक हैं। उन तैंतीस देवताओं में 8 वसु 11 रुद्र और 12 आदित्य 1 प्रजापति तथा 1 षटकार हैं। इन तैंतीस देवताओं की सम्पूर्ण शक्तियाँ महामृत्युंजय मंत्र से निहीत होती है जिससे महा महामृत्युंजय का पाठ करने वाला प्राणी दीर्घायु तो प्राप्त करता ही हैं। साथ ही वह नीरोग, ऐश्व‍र्य युक्ता धनवान भी होता है। महामृत्युंरजय का पाठ करने वाला प्राणी हर दृष्टि से सुखी एवम समृध्दिशाली होता है। भगवान शिव की अमृतमययी कृपा उस निरन्तंर बरसती रहती है।

त्रि – ध्रववसु प्राण का घोतक है जो सिर में स्थित है।
यम – अध्ववरसु प्राण का घोतक है, जो मुख में स्थित है।
ब – सोम वसु शक्ति का घोतक है, जो दक्षिण कर्ण में स्थित है।
कम – जल वसु देवता का घोतक है, जो वाम कर्ण में स्थित है।
य – वायु वसु का घोतक है, जो दक्षिण बाहु में स्थित है।
जा- अग्नि वसु का घोतक है, जो बाम बाहु में स्थित है।
म – प्रत्युवष वसु शक्ति का घोतक है, जो दक्षिण बाहु के मध्य में स्थित है।
हे – प्रयास वसु मणिबन्धत में स्थित है।
सु -वीरभद्र रुद्र प्राण का बोधक है। दक्षिण हस्त के अंगुलि के मुल में स्थित है।
ग -शुम्भ् रुद्र का घोतक है दक्षिणहस्त् अंगुलि के अग्र भाग में स्थित है।
न्धिम् -गिरीश रुद्र शक्ति का मुल घोतक है। बायें हाथ के मूल में स्थित है।
पु- अजैक पात रुद्र शक्ति का घोतक है। बाम हस्तह के मध्य भाग में स्थित है।
ष्टि – अहर्बुध्य्त् रुद्र का घोतक है, बाम हस्त के मणिबन्धा में स्थित है।
व – पिनाकी रुद्र प्राण का घोतक है। बायें हाथ की अंगुलि के मुल में स्थित है।
र्ध – भवानीश्वपर रुद्र का घोतक है, बाम हस्त अंगुलि के अग्र भाग में स्थित है।
नम् – कपाली रुद्र का घोतक है। उरु मूल में स्थित है।
उ- दिक्पति रुद्र का घोतक है। यक्ष जानु में स्थित है।
र्वा – स्था णु रुद्र का घोतक है जो यक्ष गुल्फ् में स्थित है।
रु – भर्ग रुद्र का घोतक है, जो चक्ष पादांगुलि मूल में स्थित है।
क – धाता आदित्यद का घोतक है जो यक्ष पादांगुलियों के अग्र भाग में स्थित है।
मि – अर्यमा आदित्यद का घोतक है जो वाम उरु मूल में स्थित है।
व – मित्र आदित्यद का घोतक है जो वाम जानु में स्थित है।
ब – वरुणादित्या का बोधक है जो वाम गुल्फा में स्थित है।
न्धा – अंशु आदित्यद का घोतक है। वाम पादंगुलि के मुल में स्थित है।
नात् – भगादित्यअ का बोधक है। वाम पैर की अंगुलियों के अग्रभाग में स्थित है।
मृ – विवस्व्न (सुर्य) का घोतक है जो दक्ष पार्श्वि में स्थित है।
र्त्यो् – दन्दाददित्य् का बोधक है। वाम पार्श्वि भाग में स्थित है।
मु – पूषादित्यं का बोधक है। पृष्ठै भगा में स्थित है।
क्षी – पर्जन्य् आदित्यय का घोतक है। नाभि स्थिल में स्थित है।
य – त्वणष्टान आदित्यध का बोधक है। गुहय भाग में स्थित है।
मां – विष्णुय आदित्यय का घोतक है यह शक्ति स्व्रुप दोनों भुजाओं में स्थित है।
मृ – प्रजापति का घोतक है जो कंठ भाग में स्थित है।
तात् – अमित वषट्कार का घोतक है जो हदय प्रदेश में स्थित है।
उपर वर्णन किये स्थानों पर उपरोक्तध देवता, वसु आदित्य आदि अपनी सम्पुर्ण शक्तियों सहित विराजत हैं। जो प्राणी श्रध्दा सहित महामृत्युजय मंत्र का पाठ करता है उसके शरीर के अंग – अंग (जहां के जो देवता या वसु अथवा आदित्यप हैं) उनकी रक्षा होती है।


मंत्रगत पदों की शक्तियाँ
जिस प्रकार मंत्रा में अलग अलग वर्णो (अक्षरों) की शक्तियाँ हैं। उसी प्रकार अलग – अल पदों की भी शक्तियाँ है।

त्र्यम्‍‍बकम् – त्रैलोक्यक शक्ति का बोध कराता है जो सिर में स्थित है।
यजा- सुगन्धात शक्ति का घोतक है जो ललाट में स्थित है।
महे- माया शक्ति का द्योतक है जो कानों में स्थित है।
सुगन्धिम् – सुगन्धि शक्ति का द्योतक है जो नासिका (नाक) में स्थित है।
पुष्टि – पुरन्दिरी शकित का द्योतक है जो मुख में स्थित है।
वर्धनम – वंशकरी शक्ति का द्योतक है जो कंठ में स्थित है।
उर्वा – ऊर्ध्देक शक्ति का द्योतक है जो ह्रदय में स्थित है।
रुक – रुक्तदवती शक्ति का द्योतक है जो नाभि में स्थित है।
मिव रुक्मावती शक्ति का बोध कराता है जो कटि भाग में स्थित है।
बन्धानात् – बर्बरी शक्ति का द्योतक है जो गुह्य भाग में स्थित है।
मृत्यो: – मन्त्र्वती शक्ति का द्योतक है जो उरुव्दंय में स्थित है।
मुक्षीय – मुक्तिकरी शक्तिक का द्योतक है जो जानुव्दओय में स्थित है।
मा – माशकिक्तत सहित महाकालेश का बोधक है जो दोंनों जंघाओ में स्थित है।
अमृतात – अमृतवती शक्तिका द्योतक है जो पैरो के तलुओं में स्थित है।

अब आप देखें यह मंत्र कया कहता है। जिसके अर्थ कितने व्यापक हैं पर जो नवार्ण मंत्र में भी दिख जाते हैं। इस मंत्र में सभी शक्तियों को अलग अलग वर्णित किया है। जबकि नवार्ण में समलित कर आराधना की है

फिलहाल मेरा मूल मंत्र तो नवार्ण है पर मैं बाकी दोनों मंत्रों का भी जाप करता हूं। इस खोजी ने जो जाना वह लिख दिया। अब क्या गलत क्या सही यह आप विद्वान जानें। मै ठहरा मूर्ख अज्ञानी। जो लिखा वह मेरा नहीं। सब मां की कृपा। 
 
 
 
 

जय महाकाली गुरूदेव। जय महाकाल। आन्नद्म। सर्व आन्नद्म।


Thursday, September 6, 2018

श्रेष्ठ कौन मंत्र: नवार्ण, गायत्री या महामृत्युंजय



यह भी पढते हैं लोग: लिंक को दबायें: नवार्ण मंत्र में समाहित हैं गायत्री और महामृत्युंजय मंत्र

मां जग्दम्बे के नव रूप, दश विद्या, पूजन, स्तुति, भजन सहित पूर्ण साहित्य व अन्य 

कौन मंत्र श्रेष्ठ: नवार्ण, गायत्री या महामृत्युंजय 


सनातनपुत्र देवीदास विपुल "खोजी"

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मित्रो कुछ सनातन के अनुभवी और प्रेमी प्राय: इस बात पर तर्क करते है कि गायत्री मंत्र सर्वश्रेष्ठ है तो कोई महामृत्युंजय मंत्र तो कोई नवार्ण मंत्र। मेरे विचार से यह तीनों मंत्र अदीक्षित हेतु सर्वश्रेष्ठ हैं। यद्यपि मुझे जो कुछ भी मिला सिर्फ नवार्ण मंत्र के जप से मिला अत: मेरे लिये नवार्ण मंत्र ही सर्वश्रेष्ठ होगा। पर मुझे इन तीनों मंत्रों के जाप में आनंद आता है। मैं समझता हूं कि कौन अच्छा कौन कम अच्छा यह बात करना बेहद आरम्भिक और बचकाना है। मेरे विचार से यह तीनों तंत्र के मंत्र हैं और यह साधक पर निर्भर करता है कि उसके लिये क्या श्रेष्ठ है।

मेरा अनुभव है और मानना है कि आप कोई भी मंत्र करें। कोई भी नाम जप करें। कोई भी शब्द का जाप करें। सब श्रेष्ठ हैं। बस समय आगे पीछे हो सकता है। कारण अक्षर ही ब्रह्म है। और आपके समर्थ गुरु के मुख से आपको दिया गया मंत्र, नाम, शब्द जो भी वह आपके लिये किसी भी मंत्र से श्रेष्ठ है। 

कारण स्पष्ट है कि लगभग सभी मंत्र, नाम या शब्द कितने सिद्धों द्वारा जपित होकर सिद्ध हो चुके हैं। अत: सब बराबर ही हैं। न कोई आगे न कोई पीछे। जैसे राम नाम को कितने लोगों को तार दिया। अब आप कहें यह बेकार। ठीक है यह मंत्र नही पर यह प्रचलित सिद्ध मंत्र है। जिसको स्वयं हनुमान जपते हैं। अत: यह कमजोर कैसे हुआ। वहीं बिठठल तो तुकाराम नामदेव गोरा कुभार, राखू बाई सहित कितनों को तारने वाला तो यह राम से छोटा क्यों। मेरा मानना है छोटी आपकी सोंच है जो संकुचित होकर सनातन की धरोहर को निम्न बनाती है।कितने नारायण बोलकर तर गये।

नवार्ण मंत्र :
आदिशक्ति की लीलाकथा बीजरूप में नवार्ण मंत्र में समाई है। इसे यों भी कह सकते हैं कि नावार्ण मंत्र का विकास- विस्तार ही श्री दुर्गासप्तशती के त्रिविध चरित्रों एवं सात सौ मंत्रों के रूप में हुआ है। ऐं ही क्लीं चामुण्डायै विच्चे- इन नौ मंत्राक्षरों वाले इस नवार्ण महामंत्र का परिचय संभवत: अनेकों ने अनेक तरह से पाया होगा, परंतु इसके मर्म की अनुभूति विरलों ने की होगी। मंत्रवेता इसमें सभी देवी-देवताओं के विविध मंत्रों- महामंत्रों का सार अनुभव करते हैं। इसकी साधना से प्रकृति एवं सृष्टि   के दुर्लभतम रहस्य खोजे, जाने और पाए जा सकते हैं। इस महामंत्र में गुंथे ऐं हीं क्लीं मंत्र बीजों के अलावा इसके मंत्राक्षरों का प्रत्येक अक्षर बीजमंत्र के ही समतुल्य साधक के अस्तित्व में आध्यात्मिक स्फोट एवं अलौकिक शक्तिधाराओं के प्रस्फुटन की क्षमता रखता है।

कवच, अर्गला, कीलक एवं प्राधानिक रहस्य, वैकृतिक रहस्य, मूर्ति रहस्य- ये सभी छी अंग श्री दुर्गा सप्तशती के साथ अनिवार्य व अभिन्न रूप से जुड़े हैं। इसी क्रम में नवार्ण मंत्र का विशेष स्थान है। सप्तशती के पाठ से पूर्व एवं पाठ के पश्चात शक्तिसाधक नवार्ण जप को आवश्यक मानते हैं। शास्त्रकथन भी है- आद्याान्तौ नवार्ण मन्त्रम्ï जपेत्ï। अर्थात पाठ के आदि व अंत में नवार्ण मंत्र का जप करना चाहिए। क्योंकि नवार्ण मंत्र से पुटित करने पर पाठ अति प्रभावशाली हो जाता है। इसकी अनुभूति साधक अपने साधनाक्रम में पा सकते है। वैसे जहां तक नवार्ण मंत्र के बीजाक्षरों एवं मंत्राक्षरों की रहस्यात्मकता की बात है तो इसके अर्थ बडे  व्यापक है। ऐं हीं, क्लीं के रूप में ये तीनों वाक् बीज, मायाबीज एवं कामबीज प्रकृति की त्रिगुणधारा के प्रतीक हैं, जिन्हें महासरस्वती, महालक्ष्मी एवं महाकाली के रूप में चित्रित किया गया है। चामुण्डायै विच्चै मंत्राक्षरों में त्रिगुणात्मिका महाशक्ति भगवती के प्रति भावक्षरी शरणागति का भाव है। हालांकि कथाक्रम में भगवती महाकाली स्वरूप पहले व्यक्त हुआ है, जिसमें क्लीं बीज की मंत्र सामर्थ का विस्तार है। इसके पश्चात मध्यमचरित्र में माता महालक्ष्मी की मांत्रिक महिमा हीं बीज के विस्तार क्रम में प्रकट हुई है। अंत में ऐ बीज की सामथ्र्य माता सरस्वती की मंत्र महिम के रूप में प्रकट हुई है।


चामुण्डायै विच्चे-इन मंत्राक्षरों में भी कई प्रकट एवं गोपनीय शक्तियां समाई हैं। चामुण्डायै पद का एक अर्थ अज्ञान की सेना का नाश करने वाली महाशक्ति से भी है। सप्तशती के कथाक्रम के अनुसार सप्तम् अध्याय में उल्लेख है कि भगवती पार्वती के ललाट से उपजी महाशक्ति ने शुंभ- निशुंभ के सेनानायकों चंड - मुंड का वध किया। वध के पश्चात जब उन्होंने इन बलि- पशुओं को भगवती को अर्पित किया तब वे विहंस कर बोलीं-
यसमाच्चण्डं च मुण्डं च गृहीत्वा त्वमुपागता। चामुण्डेति ततो लोके ख्याता देवि भविष्यसि।।
तुम चंड-मुंड को लेकर हमारे पास आई हो, इसलिए लोक में तुम चामुंडा नाम की देवी होकर विख्यात होगी।
विज्ञजनों के अनुसार यह चामुण्डायै पद उसी महाशक्ति का द्योतक है। यों तो इसमें चार ही अक्षर गिने जाते है। किंतु इसमें पांच व्यंजन और चार स्वर है। इस प्रकार इनकी वर्ण संख्या ९ ही है। इन वर्णों अद्भुत प्रभाव है। इसलिए ये मंत्र के मध्य में रखे गए है। इस पद के बाद आया विच्चे पद भगवती की शरणागति का द्योतक है। मांत्रिक दृष्टि से इसका महत्व भी कम नहीं है।
कुछ सिद्घ परातंत्र योगियों के अनुसार श्री दुर्गाा सप्तशती के चतुर्थ अध्याय के २५ वें श्लोक में देवी प्रार्थना के मंत्र को भी नवार्ण माना गया है। इसमें नौ बार न वर्ण का प्रयोग हुआ है। असंदिग्ध रूप से इस मंत्र की महत्ता व अर्थवत्ता कम नही है। शक्तिसाधकों के लिए इसके गोपनीय अर्थ को यहां व्यक्त किया जा रहा है। जिससे इसके अद्ïभुत प्रभाव को आंका जा सकता है।


शूलेन पाहि नो देवि पाहि खड्गेन चाम्बिके।
घण्टास्वनेन न: पाहि चापज्यानि: स्वनेन च।।

इसमें ‘न अक्षर नौ बार प्रयोग में आया हैं। इसका अर्थगांभीर्य भी अद्भुत हैं। इसमें प्रार्थना की गई है- ‘हे देवि अपने खड्ग से मेरी दैहिक, दैविक तथा भौतिक कष्टो को नष्ट करे दों। जाग्रत, स्वप्न तथा सुपुष्ति की व्याधियों को दूर कर दो। मैं त्रिदेह, स्थूल, सूक्ष्म, कारणशरीर का घंटा अर्थात नाद स्पंद या प्रणव द्वारा अतिक्रमण कर सकूं कारण एवं महाकारण शरीर में महिषासुर रूपी अहंकार का षट्चक्र भेदन द्वारा शमन कर सहस्रार या ब्रह्मïरंध्र में प्रवेश कर क्रमश: ऊर्ध्व गति प्राप्त कर ज्ञान राज्य में प्रवेश पा सकूं। इन थोड़े शब्दों में इसके दिव्यार्थ के संकेत पाए जा सकते हैं।

दुर्गा पूजा शक्ति उपासना का पर्व है। शारदीय नवरात्रि में मनाने का कारण यह है कि इस अवधि में ब्रह्मांड के सारे ग्रह एकत्रित होकर सक्रिय हो जाते हैं, जिसका दुष्प्रभाव प्राणियों पर पड़ता है। ग्रहों के इसी दुष्प्रभाव से बचने के लिए नवरात्रि में दुर्गा की पूजा की जाती है। 

दुर्गा दुखों का नाश करने वाली देवी है। इसलिए नवरात्रि में जब उनकी पूजा आस्था, श्रद्धा से की जाती है तो उनकी नवों शक्तियां  जागृत होकर नौ ग्रहों को नियंत्रित कर देती हैं। फलस्वरूप प्राणियों का कोई अनिष्ट नहीं हो पाता।

दुर्गा की इन नौ शक्तियों को जागृत करने के लिए दुर्गा के 'नवार्ण मंत्र' का जाप किया जाता है। नव का अर्थ नौ तथा अर्ण का अर्थ अक्षर होता है। अतः नवार्ण नौ अक्षरों वाला मंत्र है, नवार्ण मंत्र 'ऐं ह्रीं क्लीं चामुंडायै विच्चे' है। 

नौ अक्षरों वाले इस नवार्ण मंत्र के एक-एक अक्षर का संबंध दुर्गा की एक-एक शक्ति से है और उस एक-एक शक्ति का संबंध एक-एक ग्रह से है। 

* नवार्ण मंत्र के नौ अक्षरों में पहला अक्षर ऐं है, जो सूर्य ग्रह को नियंत्रित करता है। ऐं का संबंध दुर्गा की पहली शक्ति शैल पुत्री से है, जिसकी उपासना 'प्रथम नवरात्र' को की जाती है। 

* दूसरा अक्षर ह्रीं है, जो चंद्रमा ग्रह को नियंत्रित करता है। इसका संबंध दुर्गा की दूसरी शक्ति ब्रह्मचारिणी से है, जिसकी पूजा दूसरे नवरात्रि को होती है। 

* तीसरा अक्षर क्लीं है, चौथा अक्षर चा, पांचवां अक्षर मुं, छठा अक्षर डा, सातवां अक्षर यै, आठवां अक्षर वि तथा नौवा अक्षर चै है। जो क्रमशः मंगल, बुध, बृहस्पति, शुक्र, शनि, राहु तथा केतु ग्रहों को नियंत्रित करता है। 

इन अक्षरों से संबंधित दुर्गा की शक्तियां क्रमशः चंद्रघंटा, कुष्माण्डा, स्कंदमाता, कात्यायिनी, कालरात्रि, महागौरी तथा सिद्धिदात्री हैं, जिनकी आराधना क्रमश : तीसरे, चौथे, पांचवें, छठे, सातवें, आठवें तथा नौवें नवरात्रि को की जाती है। 

इस नवार्ण मंत्र के तीन देवता ब्रह्मा, विष्णु और महेश हैं तथा इसकी तीन देवियां महाकाली, महालक्ष्मी तथा महासरस्वती हैं, दुर्गा की यह नवों शक्तियां धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष इन चार पुरुषार्थों की प्राप्ति में भी सहायक होती हैं। 
 इस मंत्र के पहले ॐ अक्षर जोड़कर इसे दशाक्षर मंत्र का रूप दुर्गा सप्तशती में दे दिया गया है, लेकिन इस एक अक्षर के जुड़ने से मंत्र के प्रभाव पर कोई असर नहीं पड़ता। वह नवार्ण मंत्र की तरह ही फलदायक होता है। अतः कोई चाहे, तो दशाक्षर मंत्र का जाप भी निष्ठा और श्रद्धा से कर सकता है।

मन्त्राणां मातृका देवी शब्दानां ज्ञानरूपिणी।
ज्ञानानां चिन्मयतीता शून्यानां शून्यसाक्षिणी।
यस्यां परतरं नास्ति सैषा दुर्गा प्रकीर्तिता।।
तां दुर्गां दुर्गमां देवीं दुराचारविघातिनीम्।
नमामि भवभीतोऽहं संसारार्णवतारिणीम्।। (श्रीदेव्यथर्वशीर्षम्)

अर्थात्-सब मन्त्रों में 'मातृका' (मूलाक्षर) रूप से रहने वाली, शब्दों में ज्ञान (अर्थ) रूप से रहने वाली, ज्ञानों में चिन्मयातीता, शून्यों में शून्यसाक्षिणी तथा जिनसे और कुछ भी श्रेष्ठ नहीं हैं, वे ही दुर्गा नाम से प्रसिद्ध हैं। उन दुर्विज्ञेय (जिसको जानना कठिन हो), दुराचार का नाश करने वाली और संसार-सागर से तारने वाली दुर्गा देवी को संसार से डरा हुआ मैं नमस्कार करता हूँ।

मन्त्र शक्ति
अनादिकाल से संसार-सागर में पड़े हुए जीव चाहते हैं कि उन्हें कभी क्लेश न हो और संसार-चक्र से मुक्ति मिले। क्लेशनाश व बंधन से मुक्ति के लिए मनुष्य अपने स्तर पर अनेक प्रयास भी करते हैं, परन्तु मनुष्य की शक्ति सीमित होने के कारण वे पूरी तरह सफल नहीं हो पाते हैं। यदि संसार के नायक परमात्मा से सम्पर्क हो जाए तो हमारी शक्ति पूर्ण हो जाएगी। मन्त्रों की साधना से साधक का आराध्य से साक्षात्कार हो जाता है, जिससे देवता साधक पर प्रसन्न होकर क्लेशनिवारण और मनोकामनाओं की पूर्ति करते हैं व सांसारिक सुखों और पुरुषार्थ को प्रदान करते हैं। इसी को 'मन्त्रसिद्धि' कहते हैं।
ऋग्वेद, (१०।१२५।३) में आदिशक्ति का कथन है-'मैं ही निखिल ब्रह्माण्ड की ईश्वरी हूँ, उपासकगण को धन आदि इष्टफल देती हूँ। मैं सर्वदा सबको ईक्षण (देखती) करती हूँ, उपास्य देवताओं में मैं ही प्रधान हूँ, मैं ही सर्वत्र सब जीवदेह में विराजमान हूँ, अनन्त ब्रह्माण्डवासी देवतागण जहां कहीं रहकर जो कुछ करते हैं, वे सब मेरी ही आराधना करते हैं।'
'कलौ चण्डीविनायकौ' के अनुसार कलियुग में देवी दुर्गा की आराधना तत्काल फल देने वाली बताई गयी है। भगवती दुर्गा की यह उपासना उनके मूलमन्त्र (नवार्ण मन्त्र) के जप और देवी की वांग्मयी मूर्ति (श्रीदुर्गासप्तशती) के पाठ-हवन आदि करने पर शीघ्र ही सिद्धिप्रद होती है।

श्रीदुर्गा का नवार्ण/नवाक्षर मन्त्र
देवी दुर्गा मूलप्रकृतिरूपिणी, सभी प्राणियों की जननी, मनुष्यों की बुद्धि की अधिष्ठात्री देवी व वैष्णवों व शैवों की उपास्या हैं। वे घोर संकट से रक्षा करती हैं, अत: जगत में 'दुर्गा' नाम से जानी जाती हैं। आदिशक्ति दुर्गा का मूल मन्त्र नवार्ण मन्त्र है तथा बीज मन्त्र के रूप में प्रसिद्ध है। नौ वर्णों से बना होने के कारण इसे 'नवाक्षर या नवार्ण मन्त्र' कहते हैं।
इसका स्वरूप है-'ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे।'

नवार्ण मन्त्र में तीन बीज मन्त्र
मां दुर्गा के तीन चरित्र हैं। प्रथम चरित्र में दुर्गा का महाकाली रूप है। मध्यम चरित्र में महालक्ष्मी तथा उत्तर चरित्र में वह महासरस्वती हैं। इन तीन चरित्रों से बीज वर्णों को चुनकर नवार्ण मन्त्र का निर्माण हुआ है। नवार्ण मन्त्र में तीन बीज मन्त्र हैं-

'ऐं'-यह सरस्वती बीज है। '' का अर्थ सरस्वती है और 'बिन्दु' का अर्थ है दु:खनाशक। अर्थात् सरस्वती हमारे दु:ख को दूर करें।
'ह्रीं'-भुवनेश्वरी बीज है और महालक्ष्मी का बीज मन्त्र है।
'क्लीं'-यह कृष्णबीज, कालीबीज एवं कामबीज माना गया है।

नवार्ण मन्त्र का भावार्थ
'हे चित्स्वरूपिणी महासरस्वती! हे सद्रूपिणी महालक्ष्मी! हे आनन्दरूपिणी महाकाली! ब्रह्मविद्या पाने के लिए हम हर समय तुम्हारा ध्यान करते हैं। हे महाकाली महालक्ष्मी महासरस्वतीस्वरूपिणी चण्डिके! तुम्हे नमस्कार है। अविद्यारूपी रज्जु की दृढ़ ग्रन्थि खोलकर मुझे मुक्त करो।'
सरल शब्दों में-महाकाली, महालक्ष्मी और महासरस्वती नामक तीन रूपों में सच्चिदानन्दमयी आदिशक्ति योगमाया को हम अविद्या (मन की चंचलता और विक्षेप) दूरकर प्राप्त करें।

मन्त्र के ऋषि, छन्द, देवता, शक्तियां एवं विनियोग
ब्रह्मा, विष्णु और शिव इस मन्त्र के ऋषि कहे गए हैं। गायत्री, उष्णिक और अनुष्टुप्-ये तीनों इस मन्त्र के छन्द हैं। महाकाली, महालक्ष्मी और महासरस्वती-इस मन्त्र की देवता हैं। रक्तदन्तिका, दुर्गा तथा भ्रामरी-इस मन्त्र के बीज हैं। नन्दा, शाकम्भरी और भीमा-ये इस मन्त्र की शक्तियां कही गयी हैं। धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की प्राप्ति के लिए इस मन्त्र का विनियोग किया जाता है।

नवार्ण मन्त्र के जप का फल
नमामि त्वां महादेवीं महाभयविनाशिनीम्।
महादुर्गप्रशमनीं महाकारुण्यरूपिणीम्।। (श्रीदेव्यथर्वशीर्षम्)
अर्थात्-महाभय का नाश करने वाली, महासंकट को शान्त करने वाली और महान करुणा की मूर्ति तुम महादेवी को मैं नमस्कार करता हूँ।

यह मन्त्र मनुष्य के लिए कल्पवृक्ष के समान है। नवार्णमन्त्र ▪️उपासकों को आनन्द और ब्रह्मसायुज्य देने वाला है। दुर्गा के तीन चरित्रों में ▪️महाकाली की आराधना से माया-मोह एवं वितृष्णा का नाश होता है।
महालक्ष्मी सभी प्रकार के वैभवों से परिपूर्ण कर बुराई से लड़ने की शक्ति देती हैं तथा महासरस्वती किसी भी संकट से जूझकर पार उतरने वाली बुद्धि और विद्या प्रदान करती हैं।

नौ अक्षर वाले इस अद्भुत नवार्ण मंत्र में देवी दुर्गा की सभी शक्तियां समायी हुई है, जिसका सम्बन्ध नौ ग्रहों से भी है। नवार्ण मन्त्र के जप और मां दुर्गा की आराधना से सभी अनिष्ट ग्रह शान्त हो जाते हैं और मनुष्यों की सभी दारुण बाधाएं भी शान्त हो जाती हैं।
तामुपैहि महाराज शरणं परमेश्वरीम्।
आराधिता सैव नृणां भोगस्वर्गापवर्गदा।। (श्रीदुर्गासप्तशती, १३।४-५)
महर्षि मेधा राजा सुरथ से कहते हैं-'आप उन्हीं भगवती की शरण ग्रहण कीजिए। वे आराधना से प्रसन्न होकर मनुष्यों को भोग, स्वर्ग और मोक्ष प्रदान करती हैं।' ऐश्वर्य की इच्छा रखने वाले राजा सुरथ ने देवी की आराधना से अखण्ड साम्राज्य प्राप्त किया और वैराग्यवान समाधि वैश्य को देवी ने मोक्ष प्रदान किया।

श्रीदुर्गासप्तशती के पाठ के पूर्व नवार्ण मन्त्र का जप किया जाता है। देवी की उपासना करने वाले इस मन्त्र का जप नित्य अपनी इच्छानुसार (१, , ११, २१ माला) कर सकते हैं। नवार्ण मन्त्र का जप कमलगट्टे की माला, रुद्राक्ष, लाल चंदन और स्फटिक की माला पर किया जाता हैं। एकाग्रचित्त होकर भगवती दुर्गा के सम्मुख इस मन्त्र का जप करना चाहिए। जगद्धात्री दुर्गा इससे बहुत शीघ्र प्रसन्न होती हैं।

इस मन्त्र के धीमे और सस्वर जप के साथ दुर्गा के तीनों स्वरूपों के ध्यान करने का भी नियम है। अर्थात् जब महाकाली के लिए जाप करें तो महाकाली का स्वरूप, महालक्ष्मी के लिए जाप करें तो महालक्ष्मी का स्वरूप और महासरस्वती के लिए जाप करें तो महासरस्वती के स्वरूप का ध्यान करना चाहिए।

महाकाली के स्वरूप का ध्यान
खड्गं चक्रगदेषुचापपरिघांशूलं भुशुण्डीं शिर:
शंखं संदधतीं करैस्त्रिनयनां सर्वांगभूषावृताम्।
नीलाश्मद्युतिमास्यपाददशकां सेवे महाकालिकां
यामस्तौत्स्वपिते हरौ कमलजो हन्तुं मधुं कैटभम्।।

अर्थात्-कामबीजस्वरूपिणी महाकाली का ध्यान इस प्रकार है-भगवान विष्णु के सो जाने पर मधु और कैटभ को मारने के लिए कमलजन्मा ब्रह्माजी ने जिनका स्तवन किया था, उन महाकाली देवी का मैं ध्यान करता हूँ। वे अपने दस हाथों में खड्ग, चक्र, गदा, बाण, धनुष, परिघ, शूल, भुशुण्डी, कपाल और शंख धारण करती हैं। उनके तीन नेत्र हैं। उनके समस्त अंगों में दिव्य आभूषणों विभूषित हैं तथा उनके शरीर की कान्ति नीलमणि के समान है तथा वे दस मुख और दस पैरों से युक्त हैं।

महालक्ष्मी के स्वरूप का ध्यान
ॐ अक्षस्त्रक्परशुं गदेषुकुलिशं पद्मं धनु: कुण्डिकां
दण्डं शक्तिमसिं च चर्म जलजं घण्टां सुराभाजनम्।
शूलं पाशसुदर्शने च दधतीं हस्तै: प्रसन्नाननां
सेवे सैरिभमर्दिनीमिह महालक्ष्मीं सरोजस्थिताम्।।

अर्थात्-मैं कमल के आसन पर बैठी हुई प्रसन्नमुख वाली महिषासुरमर्दिनी भगवती महालक्ष्मी का भजन करता हूँ जो अपने हाथों में अक्षमाला, फरसा, गदा, बाण, वज्र, पद्म, धनुष, कुण्डिका, दण्ड, शक्ति, खड्ग, ढाल, शंख, घण्टा, मधुपात्र, शूल, पाश और चक्र धारण करती हैं। ये अरुण प्रभावाली हैं, रक्तकमल के आसन पर विराजमान मायाबीजस्वरूपिणी महालक्ष्मी मैं का ध्यान करता हूँ।

महासरस्वती के स्वरूप का ध्यान
ॐ घण्टाशूलहलानि शंखमुसले चक्रं धनु: सायकं
हस्ताब्जैर्दधतीं घनान्तविलसच्छीतांशुतुल्यप्रभाम्
गौरीदेहसमुद्धवां त्रिजगतामाधारभूतां महा
पूर्वामत्र सरस्वतीमनुभजे शुम्भादिदैत्यार्दिनीम्।।

अर्थात्-जो अपने करकमलों में घण्टा, शूल, हल, शंख, मूसल, चक्र, धनुष और बाण धारण करती हैं, शरद् ऋतु के शोभासम्पन्न चन्द्रमा के समान जिनकी मनोहर कान्ति है, जो तीनों लोकों की आधारभूता और शुम्भ आदि दैत्यों का नाश करने वाली है तथा गौरी के शरीर से जिनका प्राकट्य हुआ है उन वाणीबीजस्वरूपिणी महासरस्वती देवी का मैं निरन्तर भजन करता हूँ।
पराम्बा आदिशक्ति द्वारा त्रिदेवों को नवार्ण मन्त्र का जप करने का निर्देश
देवी जगदम्बिका ने भगवान ब्रह्मा, विष्णु और महेश से कहा- 'आप इस मन्त्र को सभी मन्त्रों से श्रेष्ठ जानिए। बीज और ध्यान से युक्त मेरे इस नवाक्षर मन्त्र का जप समस्त भय दूर कर देगा। मेरे द्वारा दिया गया वाग्बीज (ऐं), कामबीज (क्लीं) तथा मायाबीज (ह्रीं) इनसे युक्त यह मन्त्र परमार्थ प्रदान करने वाला है। आप इसका निरन्तर जप कीजिए, ऐसा करने से न तो मृत्युभय होगा और न काल का डर सताएगा।'

पराम्बा आदिशक्ति ने ब्रह्मा को महासरस्वती, विष्णु को महालक्ष्मी तथा शिव को महाकाली (गौरी) देवियों को देकर ब्रह्मलोक, विष्णुलोक तथा कैलास जाकर अपने-अपने कार्यों का पालन करने को कहा।

आदिशक्ति देवी भगवती मनुष्य की इच्छा से अधिक फल प्रदान करने की सामर्थ्य से युक्त हैं। ऋग्वेद (१०।१२५।५) में देवी कहती हैं-'मैं जिस-जिसको चाहती हूँ, उस-उसको श्रेष्ठ बना देती हूँ। उसे ब्रह्मा, ऋषि या अत्यन्त प्रभावशाली मनुष्य बना देती हूँ।'

गायत्री मंत्र:
गायत्री मन्त्र गायत्री अर्थात ‘गा’ + ‘य’ + ‘त्री’।
जीवन में तीन प्रकार के दुःख आते हैं। हमारे तीन शरीर हैं – स्थूल शरीर, सूक्ष्म शरीर और कारण शरीर। और इन सभी स्तरों में दुःख आते हैं। मानव जीवन को इन तीनों स्तरों के परे जाना है, और यही गायत्री का अर्थ है। जो इस मन्त्र का जाप करता है, वह निश्चित ही दुखों के सागर को पार कर, परम आनंद की प्राप्ति करता है।
गायत्री मन्त्र - मानवजाति की सबसे बड़ी प्रार्थनाओं में से एक है।
और इसका क्या अर्थ है?

ईश्वर मुझमें व्याप्त हो जाए, और ईश्वर मेरे सारे पापों का नाश कर दे’ 
वह दिव्य ज्योति जो सारे पापों को जला देती है – उस दिव्य ज्योति की मैं पूजा करूं और उसमें ही समा जाऊं’

हे ईश्वर, मेरी बुद्धि को प्रेरणा दीजिये’
अब देखिये, हमारे सभी काम हमारी बुद्धि से होते हैं, है न?  हमारी बुद्धि में कोई विचार आता है, और तभी हम कोई कार्य करते हैं।
गायत्री मन्त्र में हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं, कि हमारे मन में अच्छे विचार आयें। हम ईश्वर से कहते हैं, ‘मेरी बुद्धि में आप ही विराजमान हों, मेरी बुद्धि को आप ही प्रेरणा दें’ – “धियो यो नः प्रचोदयात्”
धि’ का अर्थ है बुद्धि। ‘मेरी बुद्धि की आप ही मार्ग दिखाएं और प्रज्वलित करें। मेरी बुद्धि हर क्षण आपकी दिव्यता से ही प्रेरित हो’ – ऐसी मेरी प्रार्थना है।
जब मन में सही विचार आते हैं, तब हमारे सभी कार्य ठीक होते हैं। जब मन में पूर्वाभास होता है, तब हमारे किये गए कार्य सफल होते हैं।
इसीलिये, उच्च विचारों के लिए प्रार्थना करना – ‘हे ईश्वर, मेरा मन, मेरी बुद्धि और मेरा पूरा जीवन - दिव्यता से व्याप्त हो जाए’।
यही गायत्री मन्त्र का महत्व है।
हिंदू धर्म में मां गायत्री को वेदमाता कहा जाता है अर्थात सभी वेदों की उत्पत्ति इन्हीं से हुई है। गायत्री को भारतीय संस्कृति की जननी भी कहा जाता है। धर्म शास्त्रों के अनुसार ज्येष्ठ मास के शुक्ल पक्ष की दशमी को मां गायत्री का अवतरण माना जाता है। इस दिन को हम गायत्री जयंती के रूप में मनाते है।

धर्म ग्रंथों में यह भी लिखा है कि गायत्री उपासना करने वाले की सभी मनोकामनाएं पूरी होती हैं तथा उसे कभी किसी वस्तु की कमी नहीं होती। गायत्री से आयु, प्राण, प्रजा, पशु, कीर्ति, धन एवं ब्रह्मवर्चस के सात प्रतिफल अथर्ववेद में बताए गए हैं, जो विधिपूर्वक उपासना करने वाले हर साधक को निश्चित ही प्राप्त होते हैं। विधिपूर्वक की गयी उपासना साधक के चारों ओर एक रक्षा कवच का निर्माण करती है व विपत्तियों के समय उसकी रक्षा करती है

हिंदू धर्म में मां गायत्री को पंचमुखी माना गया है जिसका अर्थ है यह संपूर्ण ब्रह्माण्ड जल, वायु, पृथ्वी, तेज और आकाश के पांच तत्वों से बना है। संसार में जितने भी प्राणी हैं,  उनका शरीर भी इन्हीं पांच तत्वों से बना है। इस पृथ्वी पर प्रत्येक जीव के भीतर गायत्री प्राण-शक्ति के रूप में विद्यमान है। यही कारण है गायत्री को सभी शक्तियों का आधार माना गया है इसीलिए भारतीय संस्कृति में आस्था रखने वाले हर प्राणी को प्रतिदिन गायत्री उपासना अवश्य करनी चाहिए।

गायत्री साधक के रूप में सामान्य जन को अमृत, पारस, कल्पवृक्ष रूपी लाभ सुनिश्चित रूप से आज भी मिल सकते है, पर उसके लिए पहले ब्राह्मण बनना होगा।  "ब्राह्मण की पूँजी है- विद्या और तप। अपरिग्रही ही वास्तव में सच्चा ब्राह्मण बनकर गायत्री की समस्त सिद्धियों का स्वामी बन सकता है, जिसे ब्रह्मवर्चस के रूप में प्रतिपादित किया गया है।"

गायत्री परब्रह्म निराकार, अव्यक्त है। अपनी जिस अलौकिक शक्ति से वह स्वयं को विराट रूप में व्यक्त करता है, वह गायत्री है। इसी शक्ति के सहारे जीव मायाग्रस्त होकर विचरण करता है और इसी के सहारे माया से मुक्त होकर पुनः परमात्मा तक पहुँचता है।

गायत्री मंत्र को जगत की आत्मा माने गए साक्षात देवता सूर्य की उपासना के लिए सबसे सरल और फलदायी मंत्र माना गया है. यह मंत्र निरोगी जीवन के साथ-साथ यश, प्रसिद्धि, धन व ऐश्वर्य देने वाली होती है। लेकिन इस मंत्र के साथ कई युक्तियां भी जुड़ी है. अगर आपको गायत्री मंत्र का अधिक लाभ चाहिए तो इसके लिए गायत्री मंत्र की साधना विधि विधान और मन, वचन, कर्म की पवित्रता के साथ जरूरी माना गया है।

वेदमाता मां गायत्री की उपासना 24 देवशक्तियों की भक्ति का फल व कृपा देने वाली भी मानी गई है। इससे सांसारिक जीवन में सुख, सफलता व शांति की चाहत पूरी होती है। खासतौर पर हर सुबह सूर्योदय या ब्रह्ममुहूर्त में गायत्री मंत्र का जप ऐसी ही कामनाओं को पूरा करने में बहुत शुभ व असरदार माना गया है। मंत्र: ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्। अर्थात् 'सृष्टिकर्ता प्रकाशमान परमात्मा के प्रसिद्ध वरण करने योग्य तेज़ का (हम) ध्यान करते हैं, वे परमात्मा हमारी बुद्धि को (सत् की ओर) प्रेरित करें।

गायत्री मंत्र जप जुड़ी खास बातें गायत्री मंत्र जप किसी गुरु के मार्गदर्शन में करना चाहिए। गायत्री मंत्र जप के लिए सुबह का समय श्रेष्ठ होता है। किंतु यह शाम को भी किए जा सकते हैं। गायत्री मंत्र के लिए स्नान के साथ मन और आचरण पवित्र रखें। किंतु सेहत ठीक न होने या अन्य किसी वजह से स्नान करना संभव न हो तो किसी गीले वस्त्रों से तन पोंछ लें। साफ और सूती वस्त्र पहनें। कुश या चटाई का आसन बिछाएं। पशु की खाल का आसन निषेध है। गायत्री मंत्र जप जुड़ी खास बातें गायत्री मंत्र जप जुड़ी खास बातें तुलसी या चन्दन की माला का उपयोग करें। ब्रह्ममूहुर्त में यानी सुबह होने के लगभग 2 घंटे पहले पूर्व दिशा की ओर मुख करके गायत्री मंत्र जप करें। शाम के समय सूर्यास्त के घंटे भर के अंदर जप पूरे करें। शाम को पश्चिम दिशा में मुख रखें। इस मंत्र का मानसिक जप किसी भी समय किया जा सकता है। शौच या किसी आकस्मिक काम के कारण जप में बाधा आने पर हाथ-पैर धोकर फिर से जप करें। बाकी मंत्र जप की संख्या को थोड़ी-थोड़ी पूरी करें। साथ ही अधिक माला कर जप बाधा दोष का शमन करें। गायत्री मंत्र जप करने वाले का खान-पान शुद्ध और पवित्र होना चाहिए। किंतु जिन लोगों का सात्विक खान-पान नहीं है, वह भी गायत्री मंत्र जप कर सकते हैं। क्योंकि ऐसा माना जाता है कि इस मंत्र के असर से ऐसा व्यक्ति भी शुद्ध और सद्गुणी बन जाता है।

तीनों कालों के लिये इनका पृथक्-पृथक् ध्यान है। प्रात:काल ये सूर्यमण्डल के मध्य में विराजमान रहती है। उस समय इनके शरीर का रंग लाल रहता है। ये अपने दो हाथों में क्रमश: अक्षसूत्र और कमण्डलु धारण करती हैं। इनका वाहन हंस है तथा इनकी कुमारी अवस्था है। इनका यही स्वरूप ब्रह्मशक्ति गायत्री के नाम से प्रसिद्ध है। इसका वर्णन ऋग्वेद में प्राप्त होता है। मध्याह्न काल में इनका युवा स्वरूप है। इनकी चार भुजाएँ और तीन नेत्र हैं। इनके चारों हाथों में क्रमश: शंख, चक्र, गदा और पद्म शोभा पाते हैं। इनका वाहन गरूड है। गायत्री का यह स्वरूप वैष्णवी शक्ति का परिचायक है। इस स्वरूप को सावित्री भी कहते हैं। इसका वर्णन यजुर्वेद में मिलता है। सायं काल में गायत्री की अवस्था वृद्धा मानी गयी है। इनका वाहन वृषभ है तथा शरीर का वर्ण शुक्ल है। ये अपने चारों हाथों में क्रमश: त्रिशूल, डमरू, पाश और पात्र धारण करती हैं। यह रुद्र शक्ति की परिचायिका हैं इसका वर्णन सामवेद में प्राप्त होता है। गायत्री मंत्र में 24 अक्षर गायत्री मंत्र में 24 अक्षर हम नित्य गायत्री मंत्र का जाप करते हैं। लेकिन उसका पूरा अर्थ नहीं जानते। गायत्री मंत्र की महिमा अपार हैं।

गायत्री, संहिता के अनुसार, गायत्री मंत्र में कुल 24 अक्षर हैं। ये चौबीस अक्षर इस प्रकार हैं- 1। तत् 2.3 वि 4। तु 5। र्व 6। रे 7। णि 8। यं 9। भ 10। गौं 11। दे 12। व 13। स्य 14 धी 15। म 16। हि 17। धि 18। यो 19। यो 20। न: 21। प्र 22। चो 23। द 24 यात् वृहदारण्यक के अनुसार हम उक्त शब्दावली का भाव इस प्रकार समझते हैं। तत्सवितुर्वरेण्यं: अर्थात् मधुर वायु चलें, नदी और समुद्र रसमय होकर रहें। औषधियां हमारे लिए मंगलमय हों। भूलोक हमें सुख प्रदान करें। भर्गो देवस्य धीमहि:अर्थात् रात्रि और दिन हमारे लिए सुखकारण हों। पृथ्वी की रज हमारे लिए मंगलमय हो। धियो यो न: प्रचोदयात्: अर्थात् वनस्पतियां हमारे लिए रसमयी हों। सूर्य हमारे लिए सुखप्रद हो, उसकी रश्मियां हमारे लिए कल्याणकारी हों। सब हमारे लिए सुखप्रद हों। मैं सबके लिए मधुर बन जाऊं। गायत्री मंत्र के जप से यह लाभ प्राप्त होते हैं- गायत्री मंत्र के जप से यह लाभ प्राप्त होते हैं- उत्साह एवं सकारात्मकता, त्वचा में चमक आती है, तामसिकता से घृणा होती है, परमार्थ में रूचि जागती है, पूर्वाभास होने लगता है, आर्शीवाद देने की शक्ति बढ़ती है, नेत्रों में तेज आता है, स्वप्र सिद्धि प्राप्त होती है, क्रोध शांत होता है, ज्ञान की वृद्धि होती है। विद्यार्थीयों के लिए---- गायत्री मंत्र का जप सभी के लिए उपयोगी है किंतु विद्यार्थियों के लिए तो यह मंत्र बहुत लाभदायक है।  गायत्री मंत्र के जप से यह लाभ प्राप्त होते हैं- दरिद्रता के नाश के लिए---- यदि किसी व्यक्ति के व्यापार, नौकरी में हानि हो रही है या कार्य में सफलता नहीं मिलती, आमदनी कम है तथा व्यय अधिक है तो उन्हें गायत्री मंत्र का जप काफी फायदा पहुंचाता है। शुक्रवार को पीले वस्त्र पहनकर हाथी पर विराजमान गायत्री माता का ध्यान कर गायत्री मंत्र के आगे और पीछे श्रीं सम्पुट लगाकर जप करने से दरिद्र का नाश होता है। इसके साथ ही रविवार को व्रत किया जाए तो ज्यादा लाभ होता है। संतान संबंधी परेशानियां दूर करने के लिए... किसी दंपत्ति को संतान प्राप्त करने में कठिनाई आ रही हो या संतान से दुखी हो अथवा संतान रोगग्रस्त हो तो प्रात: पति-पत्नी एक साथ सफेद वस्त्र धारण कर यौं बीज मंत्र का सम्पुट लगाकर गायत्री मंत्र का जप करें। संतान संबंधी किसी भी समस्या से शीघ्र मुक्ति मिलती है। शत्रुओं पर विजय प्राप्त करने के लिए--- यदि कोई व्यक्ति शत्रुओं के कारण परेशानियां झेल रहा हो तो उसे प्रतिदिन या विशेषकर मंगलवार, अमावस्या अथवा रविवार को लाल वस्त्र पहनकर माता दुर्गा का ध्यान करते हुए गायत्री मंत्र के आगे एवं पीछे क्लीं बीज मंत्र का तीन बार सम्पुट लगाकार एक सौ आठ बार जाप करने से शत्रुओं पर विजय प्राप्त होती है। मित्रों में सद्भाव, परिवार में एकता होती है तथा न्यायालयों आदि कार्यों में भी विजय प्राप्त होती है। गायत्री मंत्र के जप से यह लाभ प्राप्त होते हैं गायत्री मंत्र के जप से यह लाभ प्राप्त होते हैं विवाह कार्य में देरी हो रही हो तो--- यदि किसी भी जातक के विवाह में अनावश्यक देरी हो रही हो तो सोमवार को सुबह के समय पीले वस्त्र धारण कर माता पार्वती का ध्यान करते हुए ह्रीं बीज मंत्र का सम्पुट लगाकर एक सौ आठ बार जाप करने से विवाह कार्य में आने वाली समस्त बाधाएं दूर होती हैं। यह साधना स्त्री पुरुष दोनों कर सकते हैं। यदि किसी रोग के कारण परेशानियां हो तो---- यदि किसी रोग से परेशान है और रोग से मुक्ति जल्दी चाहते हैं तो किसी भी शुभ मुहूर्त में एक कांसे के पात्र में स्वच्छ जल भरकर रख लें एवं उसके सामने लाल आसन पर बैठकर गायत्री मंत्र के साथ ऐं ह्रीं क्लीं का संपुट लगाकर गायत्री मंत्र का जप करें। जप के पश्चात जल से भरे पात्र का सेवन करने से गंभीर से गंभीर रोग का नाश होता है। यही जल किसी अन्य रोगी को पीने देने से उसके भी रोग का नाश होता हैं।


महामृत्यंजय मंत्र:
यह मंत्र ऋग्वेद (मंडल 7, हिम 59) में पाया जाता है. यह मंत्र ऋषि वशिष्ठ को समर्पित है जो उर्वसी और मित्रवरुण के पुत्र थे.
 महामृत्युंजय मंत्र” भगवान शिव का सबसे बड़ा मंत्र माना जाता है। हिन्दू धर्म में इस मंत्र को प्राण रक्षक और महामोक्ष मंत्र कहा जाता है। मान्यता है कि महामृत्युंजय मंत्र से शिवजी को प्रसन्न करने वाले जातक से मृत्यु भी डरती है। इस मंत्र को सिद्ध करने वाला जातक निश्चित ही मोक्ष को प्राप्त करता है। यह मंत्र ऋषि मार्कंडेय द्वारा सबसे पहले पाया गया था। भगवान शिव को कालों का काल महाकाल कहा जाता है। मृत्यु अगर निकट आ जाए और आप महाकाल के महामृत्युंजय मंत्र का जप करने लगे तो यमराज की भी हिम्मत नहीं होती है कि वह भगवान शिव के भक्त को अपने साथ ले जाए।

इस मंत्र की शक्ति से जुड़ी कई कथाएं शास्त्रों और पुराणों में मिलती है जिनमें बताया गया है कि इस मंत्र के जप से गंभीर रुप से बीमार व्यक्ति स्वस्थ हो गए और मृत्यु के मुंह में पहुंच चुके व्यक्ति भी दीर्घायु का आशीर्वाद पा गए। यही कारण है कि ज्योतिषी और पंडित बीमार व्यक्तियों को और ग्रह दोषों से पीड़ित व्यक्तियों को महामृत्युंजय मंत्र जप करवाने की सलाह देते हैं। शिव को अति प्रसन्न करने वाला मंत्र है महामृत्युंजय मंत्र। लोगों कि धारणा है कि इसके जाप से व्यक्ति की मृत्यु नहीं होती परंतु यह पूरी तरह सही अर्थ नहीं है। 

महामृत्युंजय का अर्थ है महामृत्यु पर विजय अर्थात् व्यक्ति की बार-बार मृत्यु ना हो। वह मोक्ष को प्राप्त हो जाए। उसका शरीर स्वस्थ हो, धन एवं मान की वृद्धि तथा वह जन्म मृत्यु के बंधन से मुक्त हो जाए। महामृत्युञ्जय मंत्र यजुर्वेद के रूद्र अध्याय स्थित एक मंत्र है। इसमें शिव की स्तुति की गयी है। शिव को ‘मृत्यु को जीतने वाला’ माना जाता है। कहा जाता है कि यह मंत्र भगवान शिव को प्रसन्न कर उनकी असीम कृपा प्राप्त करने का माध्यम है। इस मंत्र का सवा लाख बार निरंतर जप करने से आने वाली अथवा मौजूदा बीमारियां तथा अनिष्टकारी ग्रहों का दुष्प्रभाव तो समाप्त होता ही है, इस मंत्र के माध्यम से अटल मृत्यु तक को टाला जा सकता है।

हमारे वैदिक शास्त्रों और पुराणों में असाध्य रोगों से मुक्ति और अकाल मृत्यु से बचने के लिए महामृत्युंजय जप करने का विशेष उल्लेख मिलता है। महामृत्युंजय भगवान शिव को खुश करने का मंत्र है। इसके प्रभाव से इंसान मौत के मुंह में जाते-जाते बच जाता है, मरणासन्न रोगी भी महाकाल शिव की अद्भुत कृपा से जीवन पा लेता है। बीमारी, दुर्घटना, अनिष्ट ग्रहों के प्रभावों से दूर करने, मौत को टालने और आयु बढ़ाने के लिए सवा लाख महामृत्युंजय मंत्र जप करने का विधान है। 

शिव के साधक को न तो मृत्यु का भय रहता है, न रोग का, न शोक का। शिव तत्व उनके मन को भक्ति और शक्ति का सामर्थ देता है। शिव तत्व का ध्यान महामृत्युंजय के रूप में किया जाता है। इस मंत्र के जप से शिव की कृपा प्राप्त होती है। भविष्य पुराण में यह बताया गया है कि महामृत्युंजय मंत्र का रोज़ जाप करने से उस व्यक्ति को अच्छा स्वास्थ्य, धन, समृद्धि और लम्बी उम्र मिलती है। 
अगर आपकी कुंडली में किसी भी तरह से मास, गोचर, अंतर्दशा या अन्य कोई परेशानी है तो यह मंत्र बहुत मददगार साबित होता है। अगर आप किसी भी रोग या बीमारी से ग्रसित हैं तो रोज़ इसका जाप करना शुरू कर दें, लाभ मिलेगा। यदि आपकी कुंडली में किसी भी तरह से मृत्यु दोष या मारकेश है तो इस मंत्र का जाप करें। इस मंत्र का जप करने से किसी भी तरह की महामारी से बचा जा सकता है साथ ही पारिवारिक कलह, संपत्ति विवाद से भी बचता है। अगर आप किसी तरह की धन संबंधी परेशानी से जूझ रहें है या आपके व्यापार में घाटा हो रहा है तो इस मंत्र का जप करें। इस मंत्र में आरोग्यकर शक्तियां है जिसके जप से ऐसी दुवानियां उत्पन होती हैं जो आपको मृत्यु के भय से मुक्त कर देता है, इसीलिए इसे मोक्ष मंत्र भी कहा जाता है।

शास्त्रों के अनुसार इस मंत्र का जप करने के लिए सुबह 2 से 4 बजे का समय सबसे उत्तम माना गया है, लेकिन अगर आप इस वक़्त जप नहीं कर पाते हैं तो सुबह उठ कर स्नान कर साफ़ कपडे पहने फिर कम से कम पांच बार रुद्राक्ष की माला से इस मंत्र का जप करें।

स्नान करते समय शरीर पर लोटे से पानी डालते वक्त इस मंत्र का लगातार जप करते रहने से स्वास्थ्य-लाभ होता है। दूध में निहारते हुए यदि इस मंत्र का कम से कम 11 बार जप किया जाए और फिर वह दूध पी लें तो यौवन की सुरक्षा भी होती है। इस चमत्कारी मन्त्र का नित्य पाठ करने वाले व्यक्ति पर भगवान शिव की कृपा निरन्तंर बरसती रहती है ।

महामृत्युंजय मंत्र का जप करना परम फलदायी है, लेकिन इस मंत्र के जप में कुछ सावधानियां बरतना चाहिए जिससे कि इसका संपूर्ण लाभ आपको मिले। तीनों भुवनों की अपार सुंदरी गौरां को अर्धांगिनी बनाने वाले शिव प्रेतों व पिशाचों से घिरे रहते हैं। उनका रूप बड़ा अजीब है। शरीर पर मसानों की भस्म, गले में सर्पों का हार, कंठ में विष, जटाओं में जगत-तारिणी पावन गंगा तथा माथे में प्रलयंकर ज्वाला है। बैल को वाहन के रूप में स्वीकार करने वाले शिव अमंगल रूप होने पर भी भक्तों का मंगल करते हैं और श्री-संपत्ति प्रदान करते हैं।

महारूद्र सदाशिव को प्रसन्न करने व अपनी सर्वकामना सिद्धि के लिए यहां पर पार्थिव पूजा का विधान है, जिसमें मिटटी के शिर्वाचन पुत्र प्राप्ति के लिए, श्याली चावल के शिर्वाचन व अखण्ड दीपदान की तपस्या होती है। शत्रुनाश व व्याधिनाश हेतु नमक के शिर्वाचन, रोग नाश हेतु गाय के गोबर के शिर्वाचन, दस विधि लक्ष्मी प्राप्ति हेतु मक्खन के शिर्वाचन अन्य कई प्रकार के शिवलिंग बनाकर उनमें प्राण-प्रतिष्ठा कर विधि-विधान द्वारा विशेष पुराणोक्त व वेदोक्त विधि से पूज्य होती रहती है || 

भारतीय संस्कृति में शिवजी को भुक्ति और मुक्ति का प्रदाता माना गया है। शिव पुराण के अनुसार वह अनंत और चिदानंद स्वरूप हैं। वह निर्गुण, निरुपाधि, निरंजन और अविनाशी हैं। वही परब्रह्म परमात्मा शिव कहलाते हैं। शिव का अर्थ है कल्याणकर्ता। उन्हें महादेव (देवों के देव) और महाकाल अर्थात काल के भी काल से संबोधित किया जाता है। केवल जल, पुष्प और बेलपत्र चढ़ाने से ही प्रसन्न हो जाने के कारण उन्हें आशुतोष भी कहा जाता है। उनके अन्य स्वरूप अर्धनारीश्वर, महेश्वर, सदाशिव, अंबिकेश्वर, पंचानन, नीलकंठ, पशुपतिनाथ, दक्षिणमूर्ति आदि हैं। पुराणों में ब्रह्मा, विष्णु, श्रीराम, श्रीकृष्ण, देवगुरु बृहस्पति तथा अन्य देवी देवताओं द्वारा शिवोपासना का विवरण मिलता है।

जब किसी की अकालमृत्यु किसी घातक रोग या दुर्घटना के कारण संभावित होती हैं तो  इससे बचने का एक ही उपाय है – महामृत्युंजय साधना। यमराज के मृत्युपाश से छुड़ाने वाले केवल भगवान मृत्युंजय शिव हैं जो अपने साधक को दीर्घायु देते हैं। इनकी साधना एक ऐसी प्रक्रिया है जो कठिन कार्यों को सरल बनाने की क्षमता के साथ-साथ विशेष शक्ति भी प्रदान करती है। यह साधना श्रद्धा एवं निष्ठापूर्वक करनी चाहिए। इसके कुछ प्रमुख तथ्य यहां प्रस्तुत हैं, जिनका साधना काल में ध्यान रखना परमावश्यक है। अनुष्ठान शुभ दिन, शुभ पर्व, शुभ काल अथवा शुभ मुहूर्त में संपन्न करना चाहिए। मंत्रानुष्ठान प्रारंभ करते समय सामने भगवान शंकर का शक्ति सहित चित्र एवं महामृत्युंजय यंत्र स्थापित कर लेना चाहिए। 

ज्योतिष अनुसार किसी जन्मकुण्डली में सूर्यादि ग्रहों के द्वारा किसी प्रकार की अनिष्ट की आशंका हो या मारकेश आदि लगने पर, किसी भी प्रकार की भयंकर बीमारी से आक्रान्त होने पर, अपने बन्धु-बन्धुओं तथा इष्ट-मित्रों पर किसी भी प्रकार का संकट आने वाला हो। देश-विदेश जाने या किसी प्राकर से वियोग होने पर, स्वदेश, राज्य व धन सम्पत्ति विनष्ट होने की स्थिति में, अकाल मृत्यु की शान्ति एंव अपने उपर किसी तरह की मिथ्या दोषारोपण लगने पर, उद्विग्न चित्त एंव धार्मिक कार्यो से मन विचलित होने पर महामृत्युंजय मन्त्र का जप स्त्रोत पाठ, भगवान शंकर की आराधना करें। यदि स्वयं न कर सके तो किसी पंडित द्वारा कराना चाहिए। इससे सद्बुद्धि, मनःशान्ति, रोग मुक्ति एंव सवर्था सुख सौभाग्य की प्राप्ति होती है।

अनिष्ट ग्रहों का निवारण मारक एवं बाधक ग्रहों से संबंधित दोषों का निवारण महामृत्युंजय मंत्र की आराधना से संभव है। मान्यता है कि बारह ज्योतिर्लिगों के दर्शन मात्र से समस्त बारह राशियों संबंधित शुभ फलों की प्राप्ति होती है। काल संबंधी गणनाएं ज्योतिष का आधार हैं तथा शिव स्वयं महाकाल हैं, अत: विपरीत कालखंड की गति महामृत्युंजय साधना द्वारा नियंत्रित की जा सकती है। 
जन्म पत्रिका में काल सर्पदोष, चंद्र-राहु युति से जनित ग्रहण दोष, मार्केश एवं बाधकेश ग्रहों की दशाओं में, शनि के अनिष्टकारी गोचर की अवस्था में महामृत्युंजय का प्रयोग शीघ्र फलदायी है। इसके अलावा विषघटी, विषकन्या, गंडमूल एवं नाड़ी दोष आदि अनेकानेक दोषों को निमरूल करने की क्षमता इस मंत्र में है। 

महामृत्युंजय मंत्र चमत्कारी एवं शक्तिशाली मंत्र है. जीवन की अनेक समस्याओं को सुलझाने में यह सहायक है. किसी ग्रह का दोष जीवन में बाधा पहुंचा रहा है तो यह मंत्र उस दोष को दूर कर देता है.


महामृत्युंजय मंत्र का जाप हमेशा पूर्व दिशा की ओर मुख करके ही करें. इस मंत्र का जाप एक निर्धारित जगह पर ही करें. रोज अपनी जगह न बदलें. जितने भी दिन का यह जाप हो. उस समय मांसाहार बिल्कुल भी न खाएं.

इस मंत्र का जाप केवल रुद्राक्ष माला से ही करे. इस मंत्र का जप उसी जगह करे जहां पर भगवान शिव की मूर्ति, प्रतिमा या महामृत्युमंजय यंत्र रखा हो. मंत्र का जाप करते वक्त शिवलिंग में दूध मिलें जल से अभिषक करते रहे.
मंत्र का जाप करते समट उच्चारण होठों से बाहर नहीं आना चाहिए. यदि इसका अभ्यास न हो तो धीमे स्वर में जप करें.इस मंत्र को करते समय धूप-दीप जलते रहना चाहिए. इस बात का विशेष ध्यान रखें.

यह है तीनों मंत्रों की विविचना । अब आप पर निर्भर है कि आप इन तीनों का प्रयोग कैसे करें। अब इन मंत्रों में किसको श्रेष्ठ कहा जाय। मेरा मानना है आपको जो अच्छा लगे। जो अवचेतन में आ जाये। स्वप्न में आ जाये। आप उसी को जाप हेतु प्रयोग करें। अपना जाप सतत निरन्तर निर्बाध चालू कर दे। आप देखेगें चमत्कारिक परिवर्तन अपने जीवन में और अपने शरीर के भीतर।



 
 
 
 
(तथ्य, कथन साम्रगी गूगल से साभार)
 

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