नवार्ण मंत्र में समाहित हैं गायत्री और महामृत्युंजय मंत्र
सनातनपुत्र देवीदास विपुल
"खोजी"
"
मित्रो कुछ सनातन के अनुभवी और प्रेमी प्राय: इस
बात पर तर्क करते है कि गायत्री मंत्र सर्वश्रेष्ठ है तो कोई महामृत्युंजय मंत्र
तो कोई नवार्ण मंत्र। मेरे विचार से यह तीनों मंत्र अदीक्षित हेतु सर्वश्रेष्ठ
हैं। यद्यपि मुझे जो कुछ भी मिला सिर्फ नवार्ण मंत्र के जप से मिला अत: मेरे लिये
नवार्ण मंत्र ही सर्वश्रेष्ठ होगा। पर मुझे इन तीनों मंत्रों के जाप में आनंद आता
है। मैं समझता हूं कि कौन अच्छा कौन कम अच्छा यह बात करना बेहद आरम्भिक और बचकाना
है। मेरे विचार से यह तीनों तंत्र के मंत्र हैं और यह साधक पर निर्भर करता है कि
उसके लिये क्या श्रेष्ठ है।
मेरा अनुभव है और मानना है कि आप कोई भी मंत्र
करें। कोई भी नाम जप करें। कोई भी शब्द का जाप करें। सब श्रेष्ठ हैं। बस समय आगे
पीछे हो सकता है। कारण अक्षर ही ब्रह्म है। और आपके समर्थ गुरु के मुख से आपको
दिया गया मंत्र, नाम, शब्द जो भी वह आपके लिये
किसी भी मंत्र से श्रेष्ठ है।
कारण स्पष्ट है कि लगभग सभी मंत्र, नाम या शब्द कितने सिद्धों द्वारा जपित होकर सिद्ध हो चुके हैं। अत: सब
बराबर ही हैं। न कोई आगे न कोई पीछे। जैसे राम नाम को कितने लोगों को तार दिया। अब
आप कहें यह बेकार। ठीक है यह मंत्र नही पर यह प्रचलित सिद्ध मंत्र है। जिसको स्वयं
हनुमान जपते हैं। अत: यह कमजोर कैसे हुआ। वहीं बिठठल तो तुकाराम नामदेव गोरा कुभार,
राखू बाई सहित कितनों को तारने वाला तो यह राम से छोटा क्यों। मेरा
मानना है छोटी आपकी सोंच है जो संकुचित होकर सनातन की धरोहर को निम्न बनाती
है।कितने नारायण बोलकर तर गये।
परंतु कुछ गायत्री के उपासकों के पूर्वाग्रह के
कारण मुझे इन मंत्रों पर ध्यान कर इनकी व्याख्या समझने को विवश होना पडा। जिसमें
मुझे ज्ञात हुआ कि नवार्ण मंत्र ब्रह्मांड का सबसे शक्तिशाली मंत्र है। यह भी सत्य
है कि ये उनके लिये तुलनात्मक है जो आध्यात्म के शून्य स्तर पर है मतलब जीरो स्तर
पर हैं। तुलना तो तब ही हो पायेगी। सिद्ध पुरूष और समर्थ गुरूओं हेतु कोई साधारण
शब्द ही शक्तिशाली है। मैं यहां पर मां गायत्री या भोलेनाथ का अपमान या छोटा
दिखाने हेतु यह व्याख्या नहीं कर रहा हूं और न ही मेरे अंतस में किसी के लिये छोटे
बडे का भाव है पर कुछ पूर्वाग्रहित अधूरे ज्ञानियों हेतु यह व्याख्या कर रहा हूं।
जिसका विवरण स्वयं मां जगदम्बे ने ध्यान में समझाया।
नवार्ण मंत्र:
सबसे पहले हम नवार्ण मन्त्र देखते हैं। जो शक्ति
मंत्र है।
ऋग्वेद, (१०।१२५।३) में
आदिशक्ति का कथन है-'मैं ही निखिल ब्रह्माण्ड की ईश्वरी हूँ,
उपासकगण को धन आदि इष्टफल देती हूँ। मैं सर्वदा सबको ईक्षण (देखती)
करती हूँ, उपास्य देवताओं में मैं ही प्रधान हूँ, मैं ही सर्वत्र सब जीवदेह में विराजमान हूँ, अनन्त
ब्रह्माण्डवासी देवतागण जहां कहीं रहकर जो कुछ करते हैं, वे
सब मेरी ही आराधना करते हैं।'
सूक्तं १२५
अहं रुद्रेभिर्वसुभिश्चराम्यहमादित्यैरुत विश्वदेवैः ।
अहं मित्रावरुणोभा बिभर्म्यहमिन्द्राग्नी अहमश्विनोभा ॥१॥
अहं सोममाहनसं बिभर्म्यहं त्वष्टारमुत पूषणं भगम् ।
अहं दधामि द्रविणं हविष्मते सुप्राव्ये यजमानाय सुन्वते ॥२॥
अहं राष्ट्री संगमनी वसूनां चिकितुषी प्रथमा यज्ञियानाम् ।
तां मा देवा व्यदधुः पुरुत्रा भूरिस्थात्रां भूर्यावेशयन्तीम् ॥३॥
मया सो अन्नमत्ति यो विपश्यति यः प्राणिति य ईं शृणोत्युक्तम् ।
अमन्तवो मां त उप क्षियन्ति श्रुधि श्रुत श्रद्धिवं ते वदामि ॥४॥
अहमेव स्वयमिदं वदामि जुष्टं देवेभिरुत मानुषेभिः ।
यं कामये तंतमुग्रं कृणोमि तं ब्रह्माणं तमृषिं तं सुमेधाम् ॥५॥
अहं रुद्राय धनुरा तनोमि ब्रह्मद्विषे शरवे हन्तवा उ ।
अहं जनाय समदं कृणोम्यहं द्यावापृथिवी आ विवेश ॥६॥
अहं सुवे पितरमस्य मूर्धन्मम योनिरप्स्वन्तः समुद्रे ।
ततो वि तिष्ठे भुवनानु विश्वोतामूं द्यां वर्ष्मणोप स्पृशामि ॥७॥
अहमेव वात इव प्र वाम्यारभमाणा भुवनानि विश्वा ।
परो दिवा पर एना पृथिव्यैतावती महिना सं बभूव ॥८॥
अहं मित्रावरुणोभा बिभर्म्यहमिन्द्राग्नी अहमश्विनोभा ॥१॥
अहं सोममाहनसं बिभर्म्यहं त्वष्टारमुत पूषणं भगम् ।
अहं दधामि द्रविणं हविष्मते सुप्राव्ये यजमानाय सुन्वते ॥२॥
अहं राष्ट्री संगमनी वसूनां चिकितुषी प्रथमा यज्ञियानाम् ।
तां मा देवा व्यदधुः पुरुत्रा भूरिस्थात्रां भूर्यावेशयन्तीम् ॥३॥
मया सो अन्नमत्ति यो विपश्यति यः प्राणिति य ईं शृणोत्युक्तम् ।
अमन्तवो मां त उप क्षियन्ति श्रुधि श्रुत श्रद्धिवं ते वदामि ॥४॥
अहमेव स्वयमिदं वदामि जुष्टं देवेभिरुत मानुषेभिः ।
यं कामये तंतमुग्रं कृणोमि तं ब्रह्माणं तमृषिं तं सुमेधाम् ॥५॥
अहं रुद्राय धनुरा तनोमि ब्रह्मद्विषे शरवे हन्तवा उ ।
अहं जनाय समदं कृणोम्यहं द्यावापृथिवी आ विवेश ॥६॥
अहं सुवे पितरमस्य मूर्धन्मम योनिरप्स्वन्तः समुद्रे ।
ततो वि तिष्ठे भुवनानु विश्वोतामूं द्यां वर्ष्मणोप स्पृशामि ॥७॥
अहमेव वात इव प्र वाम्यारभमाणा भुवनानि विश्वा ।
परो दिवा पर एना पृथिव्यैतावती महिना सं बभूव ॥८॥
नवार्ण/नवाक्षर मन्त्र
इसका स्वरूप है- 'ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे।'
नवार्ण मन्त्र में तीन बीज मन्त्र
मां दुर्गा के तीन चरित्र हैं। प्रथम चरित्र में दुर्गा का महाकाली रूप है।
मध्यम चरित्र में महालक्ष्मी तथा उत्तर चरित्र में वह महासरस्वती हैं। इन तीन
चरित्रों से बीज वर्णों को चुनकर नवार्ण मन्त्र का निर्माण हुआ है।
नवार्ण मन्त्र में तीन बीज मन्त्र हैं-
'ऐं'-यह सरस्वती बीज है। 'ऐ' का अर्थ सरस्वती है और 'बिन्दु'
का अर्थ है दु:खनाशक। अर्थात् सरस्वती हमारे दु:ख को दूर करें।
अब यहां देखें सरस्वती ब्रह्मा के साथ सत्व गुणी होकर सृष्टि का निमार्ण
करती हैं। मतलब हमारे जन्म के पहले का जीवन जो इस बीज मंत्र द्वारा रक्षित होता
है।
'ह्रीं'-भुवनेश्वरी बीज है महामाया का
जिसमें महालक्ष्मी का बीज मन्त्र श्रीं भी समाहित है।
अब यहां देखें आप जब इस शरीर में तब ही तक आपको लक्ष्मी की आवश्यकता है और
महामाया के अज्ञान का पर्दा भी आप इस शरीर में रहकर हटा सकते हैं और ज्ञान प्राप्त
कर सकते हैं। लक्ष्मी विष्णु के साथ आपके जीवन का पालन करती हैं।
'क्लीं'-यह कृष्णबीज, महाकालीबीज एवं कामबीज माना गया है। परंतु यहां यह सिर्फ महाकाली से
अर्थित है।
अब यहां देखें महाकाली शिव की शक्ति श्मशान विहारिणी मतलब मृत्यु की
अधिष्ढात्री। मतलब यह आपके जीवन के पश्चात आपकी रक्षित शक्ति।
चामुन्डा इन सबकी सम्मिलित शक्ति जो दुर्गा है।
मतलब इस मंत्र में आप जन्म, जीवन और मृत्यु तीनों की शक्तियों की
आराधना करते हैं।
यानि आप पूर्ण रूपेण सुरक्षित होने की प्रार्थना करते हैं।
वैसे नवार्ण मन्त्र का वैदिक भावार्थ
'हे चित्स्वरूपिणी महासरस्वती! हे सद्रूपिणी महालक्ष्मी! हे
आनन्दरूपिणी महाकाली! ब्रह्मविद्या पाने के लिए हम हर समय तुम्हारा ध्यान करते
हैं। हे महाकाली महालक्ष्मी महासरस्वतीस्वरूपिणी चण्डिके! तुम्हे नमस्कार है। अविद्यारूपी
रज्जु की दृढ़ ग्रन्थि खोलकर मुझे मुक्त करो।'
सरल शब्दों में-महाकाली, महालक्ष्मी और महासरस्वती नामक तीन
रूपों में सच्चिदानन्दमयी आदिशक्ति योगमाया को हम अविद्या (मन की चंचलता और
विक्षेप) दूरकर प्राप्त करें।
एक बात और देखें
नवार्ण मंत्र के नौ अक्षरों में पहला अक्षर ऐं है, जो
सूर्य ग्रह को नियंत्रित करता है। ऐं का संबंध दुर्गा की पहली शक्ति शैल पुत्री से
है, जिसकी उपासना 'प्रथम नवरात्र'
को की जाती है।
दूसरा अक्षर ह्रीं है, जो चंद्रमा ग्रह को नियंत्रित करता
है। इसका संबंध दुर्गा की दूसरी शक्ति ब्रह्मचारिणी से है, जिसकी
पूजा दूसरे नवरात्रि को होती है।
तीसरा अक्षर क्लीं है, चौथा अक्षर चा, पांचवां अक्षर मुं, छठा अक्षर डा, सातवां अक्षर यै, आठवां अक्षर वि तथा नौवा अक्षर चै
है। जो क्रमशः मंगल, बुध, बृहस्पति,
शुक्र, शनि, राहु तथा
केतु ग्रहों को नियंत्रित करता है।
मतलब आप सकल विश्व की शक्तियों की आराधना इस मंत्र से करते हैं।
सवाल है अब फिर बचा क्या?? यह आप बतायें।
अब आप पूरा मंत्र छंद देखें।
ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे।
ॐ ग्लौ हूं क्लीं जूं स: ज्वालय ज्वालय ज्वल ज्वल प्रज्वल प्रज्वल
ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे ज्वल हं सं लं क्षं फट् स्वाहा।'
इस पूरे मंत्र के अर्थ कहीं नहीं दिये हैं। यहां तक कुछ सिद्ध पूरुष जान
गये थे पर उन्होने दुनिया को नहीं बताया क्योकि गलत लोग इसका दुरूपयोग कर सकते
हैं। इसके कुछ अर्थ जो मैं समझ पाया।
ग्लौं—– ग=गणेश ल=व्यापक औ =तेज बिंदु=दुःख हरण
मतलब व्यापक रूप विध्नहर्ता अपने तेज से मेरे दुखों का नाश करें!
हूँ—- ह=शिव ऊ=भैरव अनुस्वार=दुःख हर्ता यह कूर्च
यानी कुंजी है बीज है! इसका तात्पर्य यह है असुर-संहारक शिव मेरे दुखों का नाश करें!
क्लीं — क= कृष्ण या काली ल=इंद्र ई=तुष्टिभाव
अनुस्वार=सुखदाता कामदेव रूप श्रीकृष्ण / काली मुझे सुख-सौभाग्य दें!
जूं एक कुंजी है। स: श्वास प्रक्रिया है। मतलब
तुम सब खुलो। कार्यशील हो।
ज्वालय ज्वालय ज्वल ज्वल प्रज्वल प्रज्वल । मतलब जो बाधायें हैं और
सिद्धियों के पुष्पदल हमारे चक्रों पर अनाहत है वह जले। तीव्र जलें और तीव्रतम
तरीके से प्रकाशित हो।
अब दुबारा आपकी अराधना आपके जो अन्य अर्थ हों बीज
मंत्र हों वह इसमें समाहित हो।
हं–आकाश बीज । मतलब आकाश तत्व। सं, स =दुर्गा यानि शक्ति, बिंदु=दुःख हर्ता । लं–पृथ्वी
बीज । क्षं, क्ष= नृसिंह, बिंदु=दुःख
हरण । नृसिंह मतलब जानवर जो शेर है और मानव की शक्ति। फ़ट : विस्फोटक रूप में बिखरो स्वाहा :
जल कर खाक हो।
अब आप इस भीषण शक्तिशाली मंत्र के अर्थ स्वयं लगा लें। पर चलिये कुछ यूं होगे सीधे अर्थ।
'हे चित्स्वरूपिणी महासरस्वती! हे सद्रूपिणी महालक्ष्मी, आनन्दरूपिणी महाकाली! महासरस्वती ब्रह्मविद्या पाने के लिए हम हर समय तुम्हारा ध्यान करते
हैं। हे महाकाली महालक्ष्मी स्वरूपिणी चण्डिके! तुम्हे नमस्कार है। अविद्यारूपी
रज्जु की दृढ़ ग्रन्थि खोलकर मुझे मुक्त करो।'
मेरे दुखों का नाश करें जो गणेश है। असुर-संहारक शिव है। शक्तिदाताकाली, इच्छा पूर्ति कर्ता कृष्ण और कामदेव आप सब जब तक मुझमें श्वांस है सदैव क्रियाशील रहें।
मेरे दुखों का नाश करें जो गणेश है। असुर-संहारक शिव है। शक्तिदाताकाली, इच्छा पूर्ति कर्ता कृष्ण और कामदेव आप सब जब तक मुझमें श्वांस है सदैव क्रियाशील रहें।
पुन: हे महासरस्वती महालक्ष्मी महाकाली स्वरूपिणी चण्डिके! तुम्हे नमस्कार है। और आप तीनों पृथ्वी से आकाश तक, मेरे जीवन के पहले और बाद में, मेरे मूलाधार से आकाश तत्व के चक्र सिंह की भांति दहाडकर वीर भद्र की भांति शक्तियुक्त हों और बाधायें दूर हो, सिद्धियों के पुष्पदल हमारे चक्रों पर अनाहत है वह जले। तीव्र जलें और तीव्रतम
तरीके से प्रकाशित हो। अनन्त शक्ति के साथ विस्फोटक रूप में बिखरे और जल कर खाक हो। (यानि मुझे सर्व सिद्धियां प्रदान करें)।
यह अर्थ मैनें लगाये हैं। इसके अर्थ कहीं दिये नहीं हैं। आप भी अर्थ बताने का प्रयास करें।
अब आप स्वयं देखें क्या इससे शक्तिशाली कोई प्रार्थना है???
यह अर्थ मैनें लगाये हैं। इसके अर्थ कहीं दिये नहीं हैं। आप भी अर्थ बताने का प्रयास करें।
अब आप स्वयं देखें क्या इससे शक्तिशाली कोई प्रार्थना है???
गायत्री मंत्र:
गायत्री मंत्र व उसका अर्थ: ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो
देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्।
ऊँ - ईश्वर । भू: - प्राणस्वरूप ।
भुव: - दु:खनाशक। स्व: - सुख स्वरूप । तत् - उस । सवितु: - तेजस्वी । वरेण्यं -
श्रेष्ठ । भर्ग: - पापनाशक । देवस्य – दिव्य । धीमहि - धारण करे । धियो – बुद्धि ।
यो - जो न: - हमारी । प्रचोदयात्
- प्रेरित करे।
सभी को जोड़ने पर अर्थ है - उस प्राणस्वरूप, दु:ख नाशक, सुख स्वरूप, श्रेष्ठ, तेजस्वी, पापनाशक, देव स्वरूप परमात्मा को हम अन्तरात्मा में धारण करें। वह ईश्वर हमारी बुद्धि को सन्मार्ग पर प्रेरित करे।
आप देखें यह ज्ञान और सन्मार्ग की
प्रार्थना करता है। मतलब एक सीमित आराधना। जो अर्थ रूप में नवार्ण मंत्र में भी
दिख जाती है।
“ हे महाकाली
महालक्ष्मी महासरस्वतीस्वरूपिणी चण्डिके! तुम्हे नमस्कार है। अविद्यारूपी रज्जु की
दृढ़ ग्रन्थि खोलकर मुझे मुक्त करो।'
महामृत्युंजय मंत्र ( दो तरह से दिये हैं)
प्रथम प्रकार : ॐ हौं जूं सः ॐ भूर्भुवः स्वः ॐ
त्र्यम्बकं यजामहे सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम् उर्वारुकमिव बन्धनान् मृत्योर्मुक्षीय
मामृतात् ॐ स्वः भुवः भूः ॐ सः जूं हौं ॐ !!
दिव्तीय प्रकार: ॐ हौं ॐ जूं सः भूर्भुवः स्वः त्र्यम्बकं
यजामहे सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम् उर्वारुकमिव बन्धनान् मृत्योर्मुक्षीय मामृतात् भूर्भुवः
स्वरों जूं सः हौं ॐ !!
मुझे दूसरा वाला याद है और मैं जाप करता हूं।
मुझे यही सही लगता है। आप बता सकते हैं। मुझे विवाद में न पडकर आगे बढना है।
त्र्यंबकम् = त्रि-नेत्रों वाला (कर्मकारक)
यजामहे = हम पूजते हैं, सम्मान करते हैं,
हमारे श्रद्देय
सुगंधिम = मीठी महक वाला, सुगंधित (कर्मकारक)
पुष्टिः = एक सुपोषित स्थिति, फलने-फूलने वाली,
समृद्ध जीवन की परिपूर्णता
वर्धनम् = वह जो पोषण करता है, शक्ति देता है,
(स्वास्थ्य, धन, सुख में)
वृद्धिकारक; जो हर्षित करता है, आनन्दित
करता है और स्वास्थ्य प्रदान करता है, एक अच्छा माली
उर्वारुकम् = ककड़ी (कर्मकारक)
इव = जैसे, इस तरह
बन्धनात् = तना (लौकी का); ("तने से" पंचम विभक्ति -
वास्तव में समाप्ति -द से अधिक लंबी है जो संधि के माध्यम से न/अनुस्वार में
परिवर्तित होती है)
मृत्योः = मृत्यु से
मुक्षीय = हमें स्वतंत्र करें, मुक्ति दें
मा = न
अमृतात् = अमरता, मोक्ष
महा मृत्युंजय मंत्र का अर्थ
समस्त संसार के पालनहार, तीन नेत्र वाले शिव की हम अराधना करते हैं। विश्व में सुरभि फैलाने वाले
भगवान शिव मृत्यु न कि मोक्ष से हमें मुक्ति दिलाएं।
महामृत्युंजय मंत्र के वर्णो (अक्षरों) का अर्थ महामृत्युंघजय मंत्र के वर्ण पद वाक्यक चरण आधी ऋचा और सम्पुतर्ण ऋचा-इन छ: अंगों के अलग-अलग अभिप्राय हैं।
ओम त्र्यंबकम् मंत्र के 33 अक्षर हैं जो महर्षि वशिष्ठ के अनुसार 33 कोटि यानि प्रकार के देवताओं के
घोतक हैं। उन तैंतीस देवताओं में 8 वसु 11 रुद्र और 12 आदित्य 1 प्रजापति
तथा 1 षटकार हैं। इन तैंतीस देवताओं की सम्पूर्ण शक्तियाँ
महामृत्युंजय मंत्र से निहीत होती है जिससे महा महामृत्युंजय का पाठ करने वाला
प्राणी दीर्घायु तो प्राप्त करता ही हैं। साथ ही वह नीरोग, ऐश्वर्य
युक्ता धनवान भी होता है। महामृत्युंरजय का पाठ करने वाला प्राणी हर दृष्टि से
सुखी एवम समृध्दिशाली होता है। भगवान शिव की अमृतमययी कृपा उस निरन्तंर बरसती रहती
है।
त्रि – ध्रववसु प्राण का घोतक है जो सिर में
स्थित है।
यम – अध्ववरसु प्राण का घोतक है, जो मुख में स्थित है।
ब – सोम वसु शक्ति का घोतक है, जो दक्षिण कर्ण में स्थित है।
कम – जल वसु देवता का घोतक है, जो वाम कर्ण में स्थित है।
य – वायु वसु का घोतक है, जो दक्षिण बाहु में स्थित है।
जा- अग्नि वसु का घोतक है, जो बाम बाहु में स्थित है।
म – प्रत्युवष वसु शक्ति का घोतक है, जो दक्षिण बाहु के मध्य में स्थित है।
हे – प्रयास वसु मणिबन्धत में स्थित है।
सु -वीरभद्र रुद्र प्राण का बोधक है। दक्षिण हस्त के अंगुलि के मुल में स्थित है।
ग -शुम्भ् रुद्र का घोतक है दक्षिणहस्त् अंगुलि के अग्र भाग में स्थित है।
न्धिम् -गिरीश रुद्र शक्ति का मुल घोतक है। बायें हाथ के मूल में स्थित है।
पु- अजैक पात रुद्र शक्ति का घोतक है। बाम हस्तह के मध्य भाग में स्थित है।
ष्टि – अहर्बुध्य्त् रुद्र का घोतक है, बाम हस्त के मणिबन्धा में स्थित है।
व – पिनाकी रुद्र प्राण का घोतक है। बायें हाथ की अंगुलि के मुल में स्थित है।
र्ध – भवानीश्वपर रुद्र का घोतक है, बाम हस्त अंगुलि के अग्र भाग में स्थित है।
नम् – कपाली रुद्र का घोतक है। उरु मूल में स्थित है।
उ- दिक्पति रुद्र का घोतक है। यक्ष जानु में स्थित है।
र्वा – स्था णु रुद्र का घोतक है जो यक्ष गुल्फ् में स्थित है।
रु – भर्ग रुद्र का घोतक है, जो चक्ष पादांगुलि मूल में स्थित है।
क – धाता आदित्यद का घोतक है जो यक्ष पादांगुलियों के अग्र भाग में स्थित है।
मि – अर्यमा आदित्यद का घोतक है जो वाम उरु मूल में स्थित है।
व – मित्र आदित्यद का घोतक है जो वाम जानु में स्थित है।
ब – वरुणादित्या का बोधक है जो वाम गुल्फा में स्थित है।
न्धा – अंशु आदित्यद का घोतक है। वाम पादंगुलि के मुल में स्थित है।
नात् – भगादित्यअ का बोधक है। वाम पैर की अंगुलियों के अग्रभाग में स्थित है।
मृ – विवस्व्न (सुर्य) का घोतक है जो दक्ष पार्श्वि में स्थित है।
र्त्यो् – दन्दाददित्य् का बोधक है। वाम पार्श्वि भाग में स्थित है।
मु – पूषादित्यं का बोधक है। पृष्ठै भगा में स्थित है।
क्षी – पर्जन्य् आदित्यय का घोतक है। नाभि स्थिल में स्थित है।
य – त्वणष्टान आदित्यध का बोधक है। गुहय भाग में स्थित है।
मां – विष्णुय आदित्यय का घोतक है यह शक्ति स्व्रुप दोनों भुजाओं में स्थित है।
मृ – प्रजापति का घोतक है जो कंठ भाग में स्थित है।
तात् – अमित वषट्कार का घोतक है जो हदय प्रदेश में स्थित है।
उपर वर्णन किये स्थानों पर उपरोक्तध देवता, वसु आदित्य आदि अपनी सम्पुर्ण शक्तियों सहित विराजत हैं। जो प्राणी श्रध्दा सहित महामृत्युजय मंत्र का पाठ करता है उसके शरीर के अंग – अंग (जहां के जो देवता या वसु अथवा आदित्यप हैं) उनकी रक्षा होती है।
यम – अध्ववरसु प्राण का घोतक है, जो मुख में स्थित है।
ब – सोम वसु शक्ति का घोतक है, जो दक्षिण कर्ण में स्थित है।
कम – जल वसु देवता का घोतक है, जो वाम कर्ण में स्थित है।
य – वायु वसु का घोतक है, जो दक्षिण बाहु में स्थित है।
जा- अग्नि वसु का घोतक है, जो बाम बाहु में स्थित है।
म – प्रत्युवष वसु शक्ति का घोतक है, जो दक्षिण बाहु के मध्य में स्थित है।
हे – प्रयास वसु मणिबन्धत में स्थित है।
सु -वीरभद्र रुद्र प्राण का बोधक है। दक्षिण हस्त के अंगुलि के मुल में स्थित है।
ग -शुम्भ् रुद्र का घोतक है दक्षिणहस्त् अंगुलि के अग्र भाग में स्थित है।
न्धिम् -गिरीश रुद्र शक्ति का मुल घोतक है। बायें हाथ के मूल में स्थित है।
पु- अजैक पात रुद्र शक्ति का घोतक है। बाम हस्तह के मध्य भाग में स्थित है।
ष्टि – अहर्बुध्य्त् रुद्र का घोतक है, बाम हस्त के मणिबन्धा में स्थित है।
व – पिनाकी रुद्र प्राण का घोतक है। बायें हाथ की अंगुलि के मुल में स्थित है।
र्ध – भवानीश्वपर रुद्र का घोतक है, बाम हस्त अंगुलि के अग्र भाग में स्थित है।
नम् – कपाली रुद्र का घोतक है। उरु मूल में स्थित है।
उ- दिक्पति रुद्र का घोतक है। यक्ष जानु में स्थित है।
र्वा – स्था णु रुद्र का घोतक है जो यक्ष गुल्फ् में स्थित है।
रु – भर्ग रुद्र का घोतक है, जो चक्ष पादांगुलि मूल में स्थित है।
क – धाता आदित्यद का घोतक है जो यक्ष पादांगुलियों के अग्र भाग में स्थित है।
मि – अर्यमा आदित्यद का घोतक है जो वाम उरु मूल में स्थित है।
व – मित्र आदित्यद का घोतक है जो वाम जानु में स्थित है।
ब – वरुणादित्या का बोधक है जो वाम गुल्फा में स्थित है।
न्धा – अंशु आदित्यद का घोतक है। वाम पादंगुलि के मुल में स्थित है।
नात् – भगादित्यअ का बोधक है। वाम पैर की अंगुलियों के अग्रभाग में स्थित है।
मृ – विवस्व्न (सुर्य) का घोतक है जो दक्ष पार्श्वि में स्थित है।
र्त्यो् – दन्दाददित्य् का बोधक है। वाम पार्श्वि भाग में स्थित है।
मु – पूषादित्यं का बोधक है। पृष्ठै भगा में स्थित है।
क्षी – पर्जन्य् आदित्यय का घोतक है। नाभि स्थिल में स्थित है।
य – त्वणष्टान आदित्यध का बोधक है। गुहय भाग में स्थित है।
मां – विष्णुय आदित्यय का घोतक है यह शक्ति स्व्रुप दोनों भुजाओं में स्थित है।
मृ – प्रजापति का घोतक है जो कंठ भाग में स्थित है।
तात् – अमित वषट्कार का घोतक है जो हदय प्रदेश में स्थित है।
उपर वर्णन किये स्थानों पर उपरोक्तध देवता, वसु आदित्य आदि अपनी सम्पुर्ण शक्तियों सहित विराजत हैं। जो प्राणी श्रध्दा सहित महामृत्युजय मंत्र का पाठ करता है उसके शरीर के अंग – अंग (जहां के जो देवता या वसु अथवा आदित्यप हैं) उनकी रक्षा होती है।
मंत्रगत पदों की शक्तियाँ
जिस प्रकार मंत्रा में अलग अलग वर्णो (अक्षरों)
की शक्तियाँ हैं। उसी प्रकार अलग – अल पदों की भी शक्तियाँ है।
त्र्यम्बकम् – त्रैलोक्यक शक्ति का बोध कराता है जो सिर में स्थित है।
यजा- सुगन्धात शक्ति का घोतक है जो ललाट में स्थित है।
महे- माया शक्ति का द्योतक है जो कानों में स्थित है।
सुगन्धिम् – सुगन्धि शक्ति का द्योतक है जो नासिका (नाक) में स्थित है।
पुष्टि – पुरन्दिरी शकित का द्योतक है जो मुख में स्थित है।
वर्धनम – वंशकरी शक्ति का द्योतक है जो कंठ में स्थित है।
उर्वा – ऊर्ध्देक शक्ति का द्योतक है जो ह्रदय में स्थित है।
रुक – रुक्तदवती शक्ति का द्योतक है जो नाभि में स्थित है।
मिव रुक्मावती शक्ति का बोध कराता है जो कटि भाग में स्थित है।
बन्धानात् – बर्बरी शक्ति का द्योतक है जो गुह्य भाग में स्थित है।
मृत्यो: – मन्त्र्वती शक्ति का द्योतक है जो उरुव्दंय में स्थित है।
मुक्षीय – मुक्तिकरी शक्तिक का द्योतक है जो जानुव्दओय में स्थित है।
मा – माशकिक्तत सहित महाकालेश का बोधक है जो दोंनों जंघाओ में स्थित है।
अमृतात – अमृतवती शक्तिका द्योतक है जो पैरो के तलुओं में स्थित है।
अब आप देखें यह मंत्र कया कहता है। जिसके अर्थ कितने व्यापक हैं पर जो
नवार्ण मंत्र में भी दिख जाते हैं। इस मंत्र में सभी शक्तियों को अलग अलग वर्णित
किया है। जबकि नवार्ण में समलित कर आराधना की है।
फिलहाल मेरा मूल मंत्र तो नवार्ण है पर मैं बाकी दोनों मंत्रों का भी जाप
करता हूं। इस खोजी ने जो जाना वह लिख दिया। अब क्या गलत क्या सही यह आप विद्वान जानें।
मै ठहरा मूर्ख अज्ञानी। जो लिखा वह मेरा नहीं। सब मां की कृपा।
जय महाकाली गुरूदेव। जय महाकाल। आन्नद्म। सर्व आन्नद्म।