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Wednesday, July 25, 2018

भाग – 19 ईसाइयत का सत्य : धर्म ग्रंथ और संतो की वैज्ञानिक कसौटी



भाग – 19 ईसाइयत का सत्य :
धर्म ग्रंथ और संतो की वैज्ञानिक कसौटी
संकलनकर्ता : सनातन पुत्र देवीदास विपुल “खोजी”


विपुल सेन उर्फ विपुल लखनवी,
(एम . टेक. केमिकल इंजीनियर) वैज्ञानिक एवं कवि
सम्पादक : विज्ञान त्रैमासिक हिन्दी जर्नल वैज्ञनिक ISSN 2456-4818

पहलगाव था पहला पड़ाव : पहलगाम का अर्थ होता है गडेरियों का गाँव। जबलपुर के पास एक गाँव है गाडरवारा, उसका अर्थ भी यही है और दोनों ही जगह से ईसा मसीह का संबंध रहा है। ईसा मसीह खुद एक गडेरिए थे। ईसा मसीह का पहला पड़ाव पहलगाम था। पहलगाम को खानाबदोशों के गाँव के रूप में जाना जाता है। बाहर से आने वाले लोग अक्सर यहीं रुकते थे।

उनका पहला पड़ाव यही होता था। अनंतनाग जिले में बसा पहलगाम, श्रीनगर से लगभग 96 कि.मी. दूर है।                                                               

ओशो की एक किताब 'गोल्डन चाइल्ड हुड' अनुसार मूसा यानी यहूदी धर्म के पैंगबर (मोज़ेज) ने भी यहीं पर प्राण त्यागे थे। दोनों की असली कब्र यहीं पर है। यह बहुत अच्‍छा हुआ कि जीसस और मोजेज दोनों की मृत्यु भारत में ही हुई। भारत न तो ईसाई है और न ही यहूदी। परंतु जो आदमी या जो परिवार इन कब्रों की देखभाल करते हैं वह यहूदी हैं। दोनों कब्रें भी यहूदी ढंग से बनी है। हिंदू कब्र नहीं बनाते। मुसलमान बनाते हैं किन्‍तु दूसरे ढंग की। मुसलमान की कब्र का सिर मक्‍का की ओर होता है।

केवल वे दोनों कब्रें ही कश्‍मीर में ऐसी है जो मुसलमान नियमों के अनुसार नहीं बनाई गई।

निकोलस नोतोविच का शोध : एक रूसी अन्वेषक निकोलस नोतोविच ने भारत में कुछ वर्ष रहकर प्राचीन हेमिस बौद्घ आश्रम में रखी पुस्तक 'द लाइफ ऑफ संत ईसा' पर आधारित फ्रेंच भाषा में 'द अननोन लाइफ ऑफ जीजस क्राइस्ट' नामक पुस्तक लिखी है। निकोलस नाटोविच नामक एक रूसी यात्री सन 1887 में भारत आया था। वह लद्दाख भी गया था। और जहां जाकर वह बीमार हो गया था। इसलिए उसे वहां प्रसिद्ध ‘’हूमिस-गुम्‍पा‘’ में ठहराया गया था। और वहां पर उसने बौद्ध साहित्‍य और बौद्ध शस्‍त्रों के अनेक ग्रंथों को पढ़ा। इनमें उसको जीसस के यहां आने के कई उल्‍लेख मिले। इन बौद्ध शास्‍त्रों में जीसस के उपदेशों की भी चर्चा की गई है।

बाद में इस फ्रांसीसी यात्री ने ‘’सेंट जीसस’’ नामक एक पुस्‍तक भी प्रकाशित की थी। इसमे उसने उन सब बातों का वर्णन किया है जिससे उसे मालूम हुआ कि जीसस लद्दाख तथा पूर्व के अन्‍य देशों में भी गए थे।

हेमिस बौद्घ आश्रम लद्दाख के लेह मार्ग पर स्थि‍त है। किताब अनुसार ईसा मसीह सिल्क रूट से भारत आए थे और यह आश्रम इसी तरह के सिल्क रूट पर था। उन्होंने 13 से 29 वर्ष की उम्र तक यहाँ रहकर बौद्घ धर्म की शिक्षा ली और निर्वाण के महत्व को समझा। यहाँ से शिक्षा लेकर वे जेरूसलम पहुँचे और वहाँ वे धर्मगुरु तथा इसराइल के मसीहा या रक्षक बन गए।

ईसा का नामकरण : यीशु पर लिखी किताब के लेखक स्वामी परमहंस योगानंद ने दावा किया गया है कि यीशु के जन्म के बाद उन्हें देखने बेथलेहेम पहुँचे तीन विद्वान भारतीय ही थे, जो बौद्ध थे। भारत से पहुँचे इन्हीं तीन विद्वानों ने यीशु का नाम 'ईसा' रखा था। जिसका संस्कृत में अर्थ 'भगवान' होता है।

द सेकंड कमिंग ऑफ क्राइस्ट : स्वामी परमहंस योगानंद की किताब 'द सेकंड कमिंग ऑफ क्राइस्ट: द रिसरेक्शन ऑफ क्राइस्ट विदिन यू' में यह दावा किया गया है कि यीशु ने भारत में कई वर्ष बिताएँ और यहाँ योग तथा ध्यान साधना की। इस पुस्तक में यह भी दावा किया गया है कि 13 से 30 वर्ष की अपनी उम्र के बीच ईसा मसीह ने भारतीय ज्ञान दर्शन और योग का गहन अध्ययन व अभ्यास किया। उक्त सभी शोध को लेकर 'लॉस एंजिल्स टाइम्स' में एक रिपोर्ट भी प्रकाशित हो चुकी है। 'द गार्जियन' में भी स्वामी जी की पुस्तक के संबंध में छप चुका है।

अपने तीसवें वर्ष में वे जेरूसलेम में प्रकट होते है—इसके बाद इनको सूली पर चढ़ा दिया जाता है। ईसाईयों की कहानी के अनुसार जीसस का पुनर्जन्‍म होता है। परंतु प्रश्‍न यह है कि इस पुनर्जन्‍म के बाद दोबारा वे कहां गायब हो गये। ईसाइयत इसके बारे में बिलकुल मौन है। कि इसके बाद वे कहां चले गए और उनकी स्‍वाभाविक मृत्‍यु कब हुई।

अपनी पुस्‍तक ‘’दि सर्पेंट ऑफ पैराडाइंज’’, में एक फ्रांसीसी लेखक कहता है कि काई नहीं जानता कि जीसस तीस साल तक कहां रहे और क्‍या करते रह? अपने तीसवें साल में उन्‍होंने उपदेश देना आरंभ किया। एक जनश्रुति के अनुसार इस समय वे ‘’काश्‍मीर’’ में थे। काश्‍मीर का मूल नाम है। ‘’का’’ अर्थात ‘’जैसा’’, बराबर, और ‘’शीर’’ का अर्थ है ‘’सीरिया’’।

ऐसा लिखित रिकार्ड मिलता है कि जीसस लद्दाख से चलकर, ऊंची बर्फीला पर्वतीय चोटियों को पार करके काश्‍मीर के पहल गाम नामक स्‍थान पर पहुंचे । पहल गाम का अर्थ है ‘’गड़रियों का गांव’’ पहल गाव में वे अपने लोगों के साथ लंबे समय तक रहे। यही पर जीसस को ईज़राइल के खोये हुए कबीले के लोग मिले। ऐसा लिखा गया है कि जीसस के इस गांव में रहने के कारण ही इस का नाम ‘’पहल गाव’’ रखा गया। कश्‍मीरी भाषा में ‘’पहल’’ का अर्थ है गड़रिया और गाम का अर्थ गांव। इसके बाद जब जीसस श्रीनगर जा रहे थे तो उन्‍होंने ‘’ईश-मुकाम’’ नामक स्‍थान पर ठहर कर आराम किया था और उपदेश दिये थे। क्‍योंकि जीसस ने इस जगह पर आराम किया इसलिए उन्‍हीं के नाम पर इस स्‍थान का नाम हो गया ‘’ईश मुकाम’’।

जब जीसस सूली पर चढ़े हुए थे तो उस समय एक सिपाही ने उनके शरीर में भाला भोंका तो उसमे से पानी और खून निकला। इस घटना को सेंट जॉन की गॉस्‍पल (अध्‍याय 19 पद्य 34) में इस प्रकार रिकार्ड किया गया है कि ‘’एक सिपाही ने भाले से उनको एक और से भोंका और तत्‍क्षण खून और पानी बाहर निकला।‘’ इस घटना से ही यह माना गया है कि जीसस सूली पर जीवित थे क्‍योंकि मृत शरीर से खून नहीं निकल सकता।

जीसस को दोबारा मरना ही होगा। या तो सूली पूरी तरह से लग गई और वे मर गए या फिर समस्‍त ईसाइयत ही मर जाती। क्‍योंकि समस्‍त ईसाइयत उनके पुनर्जन्‍म पर निर्भर करती है। जीसस पुन जीवित होते है और यही चमत्‍कार बन जाता है। अगर ऐसा न होता तो यहूदियों को यह विश्‍वास ही न होता कि वे पैगंबर है क्‍योंकि भविष्‍यवाणी में यह कहा गया था कि आने वाले क्राइस्‍ट को सूली लगेगी और फिर उसका पुनर्जन्‍म होगा।

इसलिए उन्‍होंने इसका इंतजार किया। उनका शरीर जिस गुफा में रखा गया था वहां से वे तीन दिन के बाद गायब हो गया। इसके बाद वे देखे गए—कम से कम आठ लोगों न उनको नए शरीर में देखा। फिर वे गायब हो गए। और ईसाइयत के पास ऐसा कोई रिकार्ड नहीं है कि जिससे मालूम हो कह वे कब मरे।

जीसस फिर दोबारा काश्‍मीर आये और वहां पर 112 वर्ष की आयु तक जीवित रहे। और वहां पर अभी भी वह गांव है जहां वे मरे।

अरबी भाषा में जीसस को ‘’ईसस’’ कहा गया है। काश्‍मीर में उनको ‘’यूसा-आसफ़’’ कहा जाता था। उनकी कब्र पर भी लिखा गया है कि ‘’यह यूसा-आसफ़ की कब्र है जो दूर देश से यहां आकर रहा’’ और यहाँ भी संकेत मिलता है कि वह 1900साल पहले आया।

‘’सर्पेंट ऑफ पैराडाइंज’’ के लेखक ने भी इस कब्र का देखा। वह कहता है कि ‘’जब मैं कब्र के पास पहुंचा तो सूर्यास्‍त हो रहा था और उस समय वहां के लोगों और बच्‍चों के चेहरे बड़े पावन दिखाई दे रहे थे। ऐसा लगता था जैसे वे प्राचीन समय के लोग हों—संभवत: वे ईज़राइल की खोई हुई उस जाति से संबंधित थे जो भारत आ गई थी। जूते उतार कर जब मैं भीतर गया तो मुझे एक बहुत पुरानी कब्र दिखाई दी जिसकी रक्षा के लिए चारों और फिलीग्री की नक्‍काशी किए हुए पत्‍थर की दीवार खड़ी थी। दूसरी और पत्‍थर में एक पदचिह्न बना हुआ था—कहा जाता है कि वह यूसा-आसफ़ का पदचिह्न है। उसकी दीवार से शारदा लिपि में लिखा गया एक शिलालेख लटक रहा थ जिसके नीचे अंग्रेजी अनुवाद में लिखा गया है—‘’यूसा-आसफ़ (खन्‍नयार। श्रीनगर) यह कब्र यहूदी है। भारत में कोई भी कब्र ऐसी नहीं है। उस कब्र की बनावट यहूदी है। और कब्र के ऊपर यहूदी भाषा, हिब्रू में लिखा गया है।

जीसस पूर्णत: संबुद्ध थे। इस पुनर्जन्‍म की घटना को ईसाई मताग्रही ठीक से समझ नहीं सकते किंतु योग द्वारा यह संभव हो सकता है। योग द्वारा बिना मरे शरीर मो मृत अवस्‍था में पहुंचाया जा सकता है। सांस को चलना बंद हो जाता है, ह्रदय की धड़कन और नाड़ी की गति भी बंद की जा सकती है। इस प्रकार की प्रक्रिया के लिए योग की किसी गहन विधि का प्रयोग किया क्‍योंकि अगर वे सचमुच मर जाते तो उनके पुन जीवित होने की कोई संभावना नहीं थी। सूली लगाने वालों ने जब यह समझा कि वे मर गए है तो उन्‍होंने जीसस को उतार कर उनके अनुयायियों का दे दिया। तब एक परंपरागत कर्मकांड के अनुसार शरीर को एक गुफा में तीन दिन के लिए रखा गया। किंतु तीसरे दिन गुफा को खाली पाया गया। जीसस गायब थे।

ईसाइयों के ‘’एसनीज’’ नामक एक संप्रदाय की परंपरागत मान्‍यता है कि जीसस के अनुयायियों ने उनके शरीर के घावों का इलाज किया और उनको होश में ले आए और जब उनके शिष्‍यों ने उनको दोबारा देखा तो वे विश्‍वास ही न कर सके कि ये वही जीसस है जो सूली पर मर गए। उनको विश्‍वास दिलाने के लिए जीसस को उन्‍हें अपने शरीर के घावों को दिखाना पडा। ये घाव उनके एसनीज अनुयायियों ने ठीक किए। गुफा के तीन दिनों में जीसस के घाव भर रहे थे। ठीक हो रहे थे। और जैसे ही वे ठीक हो गए जीसस गायब हो गए। उनको उस देश से गायब होना पडा क्‍योंकि अगर वे वहां पर रह जाते तो इसमे कोई संदेह नहीं कि उनको दोबारा सूली दे दी जाती।

सूली से उतारे जाने के बाद उनके घावों पर एक प्रकार की मलहम लगाई गई। जो आज भी ‘’जीसस की मलहम’’ कही जाती है। और उनके शरीर को मलमल से ढका गया। उनके अनुयायी जौसेफ़ और निकोडीमस ने जीसस के शरीर को एक गुफा में रख दिया। और उसके मुहँ पर एक बड़ा सा पत्‍थर लगा दिया। जीसस तीन दिन इस गुफा में रहे और स्‍वस्‍थ होते रहे। तीसरे दिन जबर्दस्‍त भूकंप आया और उसके बाद तूफान; उस गुफा की रक्षा के लिए तैनात सिपाही वहां से भाग गए। गुफा पर रखा गया बड़ा पत्‍थर वहां से हट कर नीचे गिर गया। और जीसस वहां से गायब हो गये। उनके इस प्रकार गायब हो जाने के कारण ही लोगों ने उनके पुनर्जन्‍म और स्‍वर्ग जाने की कथा को जन्‍म दिया गया।

सूली पर चढ़ाये जाने से जीसस का मन बहुत परिवर्तित हो गया। इसके बाद वे पूर्णत: मौन हो गए। न उन्‍हें पैगंबर बनने में कोई दिलचस्‍पी रही न उपदेशक बनने में। बस वे तो मौन हो गए। इसीलिए इसके बाद उनके बारे में कुछ भी पता नहीं है। तब वे भारत में रहने लगे। भारत में एक परंपरा है कि बाइबल में भी कि यहूदियों का एक कबीला गायब हो गया और उसको खोजने के लिए बहुत लोग भेजे गए थे। वास्‍तव में कश्‍मीरी अपने चेहरे-मोहरे और अपने खून से मूलत: यहूदी ही है।

प्रसिद्ध फ्रांसीसी इतिहासकार, बर्नीयर ने, जो औरंगज़ेब के समय भारत आया था। लिखा है कि ‘’पीर पंजाल पर्वत को पार करने के बाद भारत राज्‍य में प्रवेश करने पर इस सीमा प्रदेश के लोग मुझे यहूदियों जैसे लगे।‘’ अभी भी काश्‍मीर में यात्रा करते समय ऐसा लगता है मानो किसी यहूदी प्रदेश में आ गए हो। इसीलिए ऐसा माना जाता है कि जीसस काश्‍मीर में आए क्‍योंकि यह भारत की यहूदी भूमि थी। वहां पर यहूदी जाति रहती थी। काश्‍मीर में इस प्रकार की कई कहानियां प्रचलित है। जीसस पहल गाव में बहुत वर्षों तक रहे। उनके कारण ही यह जगह गांव बन गया। प्रतीक रूप में उनको गड़रिया कहा जाता है और पहल गाम में आज भी ऐसी अनेक लोककथाएँ प्रचलित है जिनमें बताया गया है कि 1900 वर्ष पहले ‘’यूसा-आसफ़’’ नामक व्यक्ति यहां आकर बस गया था और इस गांव को उसी ने बसाया था।

जीसस सत्‍तर साल तक भारत में थे और सत्‍तर साल तक वे आने लोगों के साथ मौन रहे।

ईसाइयत को जीसस के सारे जीवन के बारे में कुछ नहीं मालूम। कि उन्‍होंने कहां साधना की या कैसे ध्‍यान किया। उनके शिष्‍यों को भी नहीं मालूम कि अपनी मौन-अवधि में जीसस क्‍या कर थे। उन्‍होंने केवल इतना ही रिकार्ड किया कि जीसस पर्वत पर चले गए और वहां वे तीस दिन तक मौन रहे। उसके बाद वे फिर वापस आए और उपदेश देने लगे।

ईसाइयत इसके बारे में बिलकुल बेखबर है कि जीसस निरंतर तीस वर्ष तक कहां थे? वे अपने तीसवें साल में अचानक प्रकट होते है और तैंतीसवें साल में तो उन्‍हें सूली पर चढ़ा दिया जाता है। उनका केवल तीन साल का लेखा जोखा मिलता है। इसके अतिरिक्‍त एक या दोबार उनकी जीवन-संबंधी घटनाओं का उल्‍लेख मिलता है। पहला तो उस समय जब वे पैदा हुए थे—इस कहानी को सब लोग जानते है। और दूसरा उल्‍लेख है जब सात साल की आयु में वे एक त्‍यौहार के समय बड़े मंदिर में जाते है। बस इन दोनों घटनाओं का ही पता है। इनके अतिरिक्‍त तीन साल तक वे उपदेश देते रहे। उनका शेष जीवन काल अज्ञात है। परंतु भारत के पास उनके जीवन काल से संबंधित अनेक परंपराएं है।

एक दूसरी मान्यता अनुसार बौद्ध मठ में उन्हें 'ईशा' नाम मिला जिसका अर्थ है, मालिक या स्वामी। हालाँकि ईशा शब्द ईश्वर के लिए उपयोग में लाया जाता है। वेदों के एक उपनिषद का नाम 'ईश उपनिषद' है। 'ईश' या 'ईशान' शब्द का इस्तेमाल भगवान शंकर के लिए भी किया जाता है।

कुछ विद्वान मानते हैं कि ईसा इब्रानी शब्द येशुआ का अपभ्रंश है, जिसका अर्थ है होता है मुक्तिदाता। और मसीह शब्द को हिंदी शब्दकोश के अनुसार अभिषिक्त मानते हैं, अर्थात यूनानी भाषा में खीस्तोस। इसीलिए पश्चिम में उन्हें यीशु ख्रीस्त कहा जाता है। कुछ विद्वानों अनुसार संस्कृत शब्द 'ईशस्' ही जीसस हो गया। यहूदी इसी को इशाक कहते हैं।

............क्रमश:...............

(तथ्य कथन इंडिया साइट्स, गूगल, बौद्ध, ईसाई  साइट्स, वेब दुनिया इत्यादि से साभार)
"MMSTM समवैध्यावि ध्यान की वह आधुनिक विधि है। कोई चाहे नास्तिक हो आस्तिक हो, साकार, निराकार कुछ भी हो बस पागल और हठी न हो तो उसको ईश अनुभव होकर रहेगा बस समयावधि कुछ बढ सकती है। आपको प्रतिदिन लगभग 40 मिनट देने होंगे और आपको 1 दिन से लेकर 10 वर्ष का समय लग सकता है। 1 दिन उनके लिये जो सत्वगुणी और ईश भक्त हैं। 10 साल बगदादी जैसे हत्यारे के लिये। वैसे 6 महीने बहुत है किसी आम आदमी के लिये।"  सनातन पुत्र देवीदास विपुल खोजी
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Monday, September 2, 2019

क्यों होता है पुनर्जन्म

क्यों होता है पुनर्जन्म

 सनातनपुत्र देवीदास विपुल "खोजी"


 विपुल सेन उर्फ विपुल लखनवी,



हिन्दु धर्म में पुनर्जन्म को सत्य माना गया है। हिन्दु धर्म के अनुसार आत्मा कैसे जन्म लेती है इसके बारे में भी स्पष्ट तरीके से बताया गया है। हिन्दु धर्म में कौन-सी आत्मा भटकती है और फिर कब जन्म लेती है इसके बारे में भी विस्तार से बताया गया है। यह भी कि कौन-सी आत्मा कुछ काल तक पितृलोक, स्वर्गलोक, नरक लोग आदि लोकों में रहकर पुन:कब धरती पर लौटेगी। शास्त्रों के अनुसार आत्मा तब पुनर्जन्म लेती है।

-जब कभी-भी किसी की धोके से मृत्यु की जाती है या दुश्मनी के लिए किसी मारा जाता है तो आत्मा बदला लेने के लिए पुनर्जन्म लेती है।

- कभी-कभी किसी व्यक्ति द्वारा अत्यधिक पुण्य कर्म किए जाते हैं और उसकी मृत्यु हो जाती है, तब उन पुण्य कर्मों का फल भोगने के लिए आत्मा पुन: जन्म लेती है।

- अपूर्ण साधना को पूर्ण करने के लिए।

-जब किसी की अकाल मृत्यु हो जाती है तो आत्मा पुनर्जन्म लेती है।

- भगवान किसी विशेष कार्य के लिए महात्माओं और दिव्य पुरुषों की आत्माओं को पुन: जन्म लेने की आज्ञा देते हैं।

- बदला चुकाने के लिए।

- संसार में किए गए पुण्य कर्म के प्रभाव से व्यक्ति की आत्मा स्वर्ग में सुख भोगती है और जब तक पुण्य कर्मों का प्रभाव रहता है, वह आत्मा दैवीय सुख प्राप्त करती है। जब पुण्य कर्मों का प्रभाव खत्म हो जाता है।


मृत्यु के बाद आत्मा कब शरीर धारण करता है, इसका ठीक-ठीक ज्ञान तो परमेश्वर को है। वैसे इस विषय में कुछ महापुरूषों को सीद्ध होकर स्थूल शरीर त्याग कर सूक्ष्म या कारन शरीर में रहते है जैसे स्वामी विष्णु तीर्थ जी महाराज, महाअवतार बाबा, लाहिडी महाशय या महऋषि अमर जैसे बिरले जो ईश से सायुज्यता ही प्राप्त कर लेतए हैं। किंतु वे बोल्ते नहीं सब ईश को समर्पित कर देते हैं।

वैसे कुछ ज्ञान हमें शास्त्रों से प्राप्त होता है वैसा यहाँ लिखते हैं। बृहदारण्यक-उपनिषद् में मृत्यु व अन्य शरीर धारण करने का वर्णन मिलता है। वर्तमान शरीर को छोड़कर अन्य शरीर प्राप्ति में कितना समय लगता है, इस विषय में उपनिषद् ने कहा-


तद्यथा तृणजलायुका तृणस्यान्तं गत्वाऽन्यमाक्रममाक्रम्यात्मानम् उपसँहरत्येवमेवायमात्मेदं शरीरं निहत्याऽविद्यां गमयित्वाऽन्यमाक्रममाक्रम्य्  आत्मानमुपसंहरति।। – बृ. ४.४.३

जैसे तृण जलायुका (सुंडी=कोई कीड़ा विशेष) तिनके के अन्त पर पहुँच कर, दूसरे तिनके को सहारे के लिए पकड़ लेती है अथवा पकड़ कर अपने आपको खींच लेती है, इसी प्रकार यह आत्मा इस शरीररूपी तिनके को परे फेंक कर अविद्या को दूर कर, दूसरे शरीर रूपी तिनके का सहारा लेकर अपने आपको खींच लेता है।


यहाँ उपनिषद् संकेत कर रहा है कि मृत्यु के बाद दूसरा शरीर प्राप्त होने में इतना ही समय लगता है, जितना कि एक कीड़ा एक तिनके से दूसरे तिनके पर जाता है अर्थात् दूसरा शरीर प्राप्त होने में कुछ ही क्षण लगते हैं, कुछ ही क्षणों में आत्मा दूसरे शरीर में प्रवेश कर जाता है।


आत्मा कितने दिनों में दूसरा शरीर धारण कर लेता है, यहाँ शास्त्र दिनों की बात नहीं कर रहा कुछ क्षण की ही बात कह रहा है।

मृत्यु के विषय में उपनिषद् ने कुछ विस्तार से बताया है।
स यत्रायमात्माऽबल्यं न्येत्यसंमोहमिव न्येत्यथैनमेते प्राणा अभिसमायन्ति स एतास्तेजोमात्राः समभ्याददानो हृदयमेवान्ववक्रामति स यत्रैष चाक्षुषः पुरुषः पराङ् पर्यावर्ततेऽथारूपज्ञो भवति।। – बृ. उ.४.४.१


अर्थात् जब मनुष्य अन्त समय में निर्बलता से मूर्छित-सा हो जाता है, तब आत्मा की चेतना शक्ति जो समस्त बाहर और भीतर की इन्द्रियों में फैली हुई रहती है, उसे सिकोड़ती हुई हृदय में पहुँचती है, जहाँ वह उसकी समस्त शक्ति इकट्ठी हो जाती है। इन शक्तियों के सिकोड़ लेने का इन्द्रियों पर क्या प्रभाव पड़ता है, इसका वर्णन करते हैं कि जब आँख से वह चेतनामय शक्ति जिसे यहाँ पर चाक्षुष पुरुष कहा है, वह निकल जाती तब आँखें ज्योति रहित हो जाती है और मनुष्य उस मृत्यु समय किसी को देखने अथवा पहचानने में अयोग्य हो जाता है।



एकीभवति न पश्यतीत्याहुरेकी भवति, न जिघ्रतीत्याहुरेकी भवति, न रसयत इत्याहुरेकी भवति, न वदतीत्याहुरेकी भवति, न शृणोतीत्याहुरेकी भवति, न मनुत इत्याहुरेकी भवति, न स्पृशतीत्याहुरेकी भवति, न विजानातीत्याहुस्तस्य हैतस्य हृदयस्याग्रं प्रद्योतते तेन प्रद्योतेनैष आत्मा निष्क्रामति चक्षुष्टो वा मूर्ध्नो वाऽन्येभ्यो वा शरीरदेशेभ्यस्तमुत्क्रामन्तं प्राणोऽनूत्क्रामति प्राणमनूत्क्रामन्तं सर्वे प्राणा अनूत्क्रामन्ति सविज्ञानो भवति, सविज्ञानमेवान्ववक्रामति तं विद्याकर्मणी समन्वारभेते पूर्वप्रज्ञा च।। – बृ.उ. ४.४.२



अर्थात् जब वह चेतनामय शक्ति आँख, नाक,जिह्वा, वाणी, श्रोत्र, मन और त्वचा आदि से निकलकर आत्मा में समाविष्ट हो जाती है, तो ऐसे मरने वाले व्यक्ति के पास बैठे हुए लोग कहते हैं कि अब वह यह नहीं देखता, नहीं सूँघता इत्यादि।


इस प्रकार इन समस्त शक्तियों को लेकर यह जीव हृदय में पहुँचता है और जब हृदय को छोड़ना चाहता है तो आत्मा की ज्योति से हृदय का अग्रभाग प्रकाशित हो उठता है। तब हृदय से भी उस ज्योति चेतना की शक्ति को लेकर, उसके साथ हृदय से निकल जाता है। हृदय से निकलकर वह जीवन शरीर के किस भाग में से निकला करता है, इस सम्बन्ध में कहते है कि वह आँख, मूर्धा अथवा शरीर के अन्य भागों-कान, नाक और मुँह आदि किसी एक स्थान से निकला करता है।


इस प्रकार शरीर से निकलने वाले जीव के साथ प्राण और समस्त इन्द्रियाँ भी निकल जाया करती हैं। जीव मरते समय ‘सविज्ञान’ हो जाता है अर्थात् जीवन का सारा खेल इसके सामने आ जाता है। इस प्रकार निकलने वाले जीव के साथ उसका उपार्जित ज्ञान, उसके किये कर्म और पिछले जन्मों के संस्कार, वासना और स्मृति जाया करती है।



इस प्रकार से उपनिषद् ने मृत्यु का वर्णन किया है। अर्थात् जिस शरीर में जीव रह रहा था उस शरीर से पृथक् होना मृत्यु है। उस मृत्यु समय में जीव के साथ उसका सूक्ष्म शरीर भी रहता, सूक्ष्म शरीर भी निकलता है।


इसका उत्तर है जिन-जिन योनियों के कर्म जीव के साथ होते हैं उन-उन योनियों में जीव जाता है। यह वैदिक सिद्धान्त है, यही सिद्धान्त युक्ति तर्क से भी सिद्ध है। इस वेद, शास्त्र, युक्ति, तर्क से सिद्ध सिद्धान्त को भारत में एक सम्प्रदाय रूप में उभर रहा समूह, जो दिखने में हिन्दू किन्तु आदतों से ईसाई, वेदशास्त्र, इतिहास का घोर शत्रु ब्रह्माकुमारी नाम का संगठन है। वह इस शास्त्र प्रतिपादित सिद्धान्त को न मान यह कहता है कि मनुष्य की आत्मा सदा मनुष्य का ही जन्म लेता है, इसी प्रकार अन्य का आत्मा अन्य शरीर में जन्म लेता है। ये ब्रह्माकुमारी समूह यह कहते हुए पूरे कर्म फल सिद्धान्त को ताक पर रख देता है। यह भूल जाता है कि जिसने घोर पाप कर्म किये हैं वह इन पाप कर्मों का फल इस मनुष्य शरीर में भोग ही नहीं सकता, इन पाप कर्मों को भोगने के लिए जीव को अन्य शरीरों में जाना पड़ता है। वेद कहता है- असूर्या नाम ते लोका अन्धेन तमसावृताः। ताँऽस्ते प्रेत्यापि गच्छन्ति ये के चात्महनो जनाः।। – यजु. ४०.३



इस मन्त्र का भाव यही है कि जो आत्मघाती=घोर पाप कर्म करने वाले जन है वे मरकर घोर अन्धकार युक्त=दुःखयुक्त तिर्यक योनियों को प्राप्त होते हैं। ऐसे-ऐसे वेद के अनेकों मन्त्र हैं जो इस प्रकार के कर्मफल को दर्शाते हैं। किन्तु इन ब्रह्माकुमारी वालों को वेद शास्त्र से कोई लेना-देना नहीं है। ये तो अपनी निराधार काल्पनिक वाग्जाल व भौतिक ऐश्वर्य के द्वारा भोले लोगों को अपने जाल में फँसा अपनी संख्या बढ़ाने में लगे हैं।



एक और पहलू यह है कि यदि मृत्यु के समय आपके दिमाग में कोई विचार है तो वह आपके अगले जन्म की प्रकृति का हिस्सा बन जाता है। इसलिए हमें किसी की मृत्यु की प्रक्रिया के समय शांति और खुशहाली का माहौल बनाना चाहिए क्योंकि मरने वाले के दिमाग और भावनाओं में जो भी चीज प्रधान होती है, वह उनके भावी जन्मों की विशेषता बन जाती है।


इसी वजह से इस संस्कृति में हमेशा से यह कहा गया है कि आपको अपने परिवार के बीच नहीं मरना चाहिए। लोग अपनी मृत्यु के समय वन चले जाते थे, जिसे वानप्रस्थ कहा गया है। राजा धृतराष्ट्र, उनकी रानी गांधारी और कुंती भी कुरुक्षेत्र युद्ध के बाद वन चले गए थे। उनके साथ सहायक के रूप में सिर्फ संजय थे। वे सब बूढ़े हो चुके थे इसलिए वे महल में रहने की बजाय मरने के लिए वन चले गए। हालांकि धृतराष्ट्र नेत्रहीन और कई रूपों में मूर्ख थे, मगर फिर भी उनमें इतनी जागरूकता थी, जो आजकल दुनिया में देखने को नहीं मिलती। कुंती ने अपने जीवन में बहुत मुश्किलें झेली थीं। अब उसके बच्चे राजा बन चुके थे, तो वह अब महलों में आनंद से रह सकती थी, मगर उसने भी वन में जाकर शरीर छोडऩे का फैसला किया।

वे वन में चले गए और वहां एक दुर्गम पहाड़ी के ऊपर चढऩे लगे। एक जगह जंगल में आग लगी हुई थी। वे लोग बूढ़े थे, इसलिए न तो भाग सकते थे, न ही जंगल की आग से बच सकते थे, तो उन्होंने खुद को अग्नि को समर्पित करने का फैसला किया। धृतराष्ट्र ने संजय से कहा, 'तुमने अब तक मेरी बहुत सेवा की, मगर तुम्हारी आयु अभी कम है, तुम वापस लौट जाओ। हम तीनों खुद को अग्नि को समर्पित कर देंगे।’ संजय ने उन्हें छोड़कर जाने से इनकार कर दिया और चारो जंगल की आग में जल गए।


जब आप परिवार के बीच मरते हैं, तो आप जुड़ाव की भावना को मन में लेकर मरेंगे जो भविष्य में आपके लिए खुशहाली नहीं लाएगी। आपको पता ही होगा कि हमारे देश में आज भी लोग मरने के लिए काशी जाते हैं, क्योंकि वह एक पवित्र जगह है। वे शिव की कृपा की छाया में मरना चाहते हैं। वे नहीं चाहते कि उनकी मृत्यु के समय उनका परिवार अपनी भावनाएं उनके सामने प्रदर्शित करे।

मृत्यु एकमात्र ऐसी चीज है, जो जीवन में निश्चित है। अगर आपने अपना जीवन अच्छी तरह जिया है, तो मृत्यु कोई बुरी चीज नहीं है। यदि आपने हर पल हिचक, भय, नफरत, और गुस्से के बीच जीवन बिताया है, तो इसका मतलब है कि आपने कभी जीवन नहीं जिया। मृत्यु के समय, अगर आप जीना चाहते हैं तो यह कोई अच्छी बात नहीं है। आखिर, मृत्यु है क्या? आप शरीर को छोड़ रहे हैं। यह शरीर एक ऋण है जो आपने धरती मां से लिया है।



मान लीजिए, आपने बैंक से एक करोड़ रुपये का ऋण लिया और अगले पचास सालों में आपने इस एक करोड़ को दस अरब बना लिया, तब यदि आपका बैंकर ऋण वापस मांगेगा तो आप खुशी-खुशी ब्याज सहित उसका ऋण चुका देंगे। उसे दावत और उपहार देंगे। मगर मान लीजिए आपने वे एक करोड़ रुपये उड़ा दिए और सब कुछ गंवा दिया तो बैंकर के आने पर आप आतंकित हो जाएंगे। आप छिपने की कोशिश करेंगे। बहुत सी चालें चलने की कोशिश करेंगे। इसी तरह धरती मां ने आपको यह ऋण दिया। यदि आपने इसे एक आनंदमय जीवन में बदल दिया, अगर आपने वाकई उसका पूरा इस्तेमाल किया और अपने अंदर पूरे मिठास के साथ जीवन जिया, तो जब धरती मां कहती है कि ऋण चुकाने का समय हो गया तो आप खुशी-खुशी उसे चुका देंगे। और उसका कोई ब्याज नहीं होता। जो खुशी-खुशी ऋण चुकाता है, उसके लिए जीवन समाप्त हो जाता है क्योंकि जब आप आनंदित होते हैं, तो आपके अंदर कुदरती तौर पर जागरूकता आती है। जब आप जागरूक होते हैं, तो आप मुक्ति के रास्ते पर होते हैं।



अगर आप फिर से जन्म लेना चाहते हैं तो निश्चित रूप से आखिरी पल की विशेषता आपके अगले जन्मों में शामिल होगी। लेकिन यदि आप परम तत्व में विलीन होना चाहते हैं, यदि आप उसमें समा जाना चाहते हैं, तो आपका पुनर्जन्म नहीं होगा। लोग कहते हैं, 'नकारात्मक शब्दों का इस्तेमाल मत कीजिए, इससे हमें डर लगता है। क्या हम विलीन होकर शून्य हो जाएंगे?’ तो हम यह कह सकते हैं, 'जब आप मुक्ति पा लेते हैं, तो आप सब कुछ हो जाते हैं, हर चीज में शामिल हो जाते हैं।’ जब शिव की बात आती है, तो हम शून्यता की बात करते हैं। लेकिन चूंकि लीला का संबंध कृष्ण से है, तो हम आपके साथ खुशनुमा बातें करना चाहते हैं। आप सब कुछ बन जाएंगे। आप ईश्वर बन जाएंगे। क्या यह सुनने में बेहतर लगता है?



यदि आप यह महसूस करते हो कि मेरा अस्तित्व है तो खुद से कभी यह सवाल भी पूछा होगा कि मरने के बाद व्यक्ति या आत्मा को कब मिलता है दूसरा जन्म या दूसरा शरीर? वेद और पुराणों में इस संबंध में भिन्न-भिन्न उल्लेख मिलता है। वेदों के तत्वज्ञान को उपनिषद या वेदांत कहते हैं और गीता उपनिषदों का सारतत्व है।


उपनिषद कहते हैं कि अधिकतर मौकों पर तत्क्षण ही दूसरा शरीर मिल जाता है फिर वह शरीर मनुष्य का हो या अन्य किसी प्राणी का। पुराणों के अनुसार मरने के 3 दिन में व्यक्ति दूसरा शरीर धारण कर लेता है इसीलिए तीजा मनाते हैं। कुछ आत्माएं 10 और कुछ 13 दिन में दूसरा शरीर धारण कर लेती हैं इसीलिए 10वां और 13वां मनाते हैं। कुछ सवा माह में अर्थात लगभग 37 से 40 दिनों में।


यदि वह प्रेत या पितर योनि में चला गया हो, तो यह सोचकर 1 वर्ष बाद उसकी बरसी मनाते हैं। अंत में उसे 3 वर्ष बाद गया में छोड़कर आ जाते हैं। वह इसलिए कि यदि तू प्रेत या पितर योनि में है तो अब गया में ही रहना, वहीं से तेरी मुक्ति होगी।

पंचकोष, तीन प्रमुख शरीर और चेतना के चार स्तर :

पहले खुद की स्थिति को समझेंगे तो स्वत: ही खुद की स्‍थिति का ज्ञान होने लगेगा। यह आत्मा पंचकोष में रहती है और 4 तरह के स्तरों या प्रभावों में जीती है।

पंचकोष : 1. जड़, 2. प्राण, 3. मन, 4. बुद्धि और 5. आनंद।


आपको अपने शरीर की स्थिति का ज्ञान है? इसे जड़ जगत का हिस्सा माना जाता है अर्थात जो दिखाई दे रहा है, ठोस है। ...आपके भीतर जो श्वास और प्रश्वास प्रवाहित हो रही है इसे रोक देने से यह शरीर नहीं चल सकता। इसे ही प्राण कहते हैं। शरीर और प्राण के ऊपर मन है। पांचों इन्द्रियों से आपको जो दिखाई, सुनाई दे रहा या महसूस हो रहा है उसका प्रभाव मन पर पड़ता है और मन से आप सुखी या दुखी होते हैं। मन से आप सोचते हैं और समझते हैं। मन है ऐसा आप महसूस कर सकते हैं, लेकिन बुद्धि है ऐसा बहुत कम ही लोग महसूस करते हैं और जब व्यक्ति की चेतना इन सभी से ऊपर उठ जाती है तो वह आनंदमय कोष में स्थित हो जाती है।

चेतना के 4 स्तर : 1. जाग्रत, 2. स्वप्न, 3. सुषुप्ति और 4. तुरीय।

छांदोग्य उपनिषद के अनुसार व्यक्ति के होश के 4 स्तर हैं। पहले 3 प्राकृतिक रूप से प्राप्त हैं- जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्ति। चौथा स्तर प्रयासों से प्राप्त होता है जिसे तुरीय अवस्था कहते हैं। आप इन 3 के अलावा किसी अन्य तरह के अनुभव को नहीं जानते। इसी में जीते और मरते हैं। इन स्तरों की स्थिति से आपकी गति तय होती है।

 


सिद्ध संत कहते हैं कि मरने के उपरांत नया जन्म मिलने से पूर्व जीवधारी को कुछ समय सूक्ष्म शरीरों में रहना पड़ता है। उनमें से जो अशांत होते हैं, उन्हें प्रेत और जो निर्मल होते हैं उन्हें पितर प्रकृति का निस्पृह उदारचेता, सहज सेवा, सहायता में रुचि लेते हुए देखा गया है।
उनका  मानना है कि मरणोपरांत की थकान दूर करने के उपरांत संचित संस्कारों के अनुरूप उन्हें धारण करने के लिए उपयुक्त वातावरण तलाशना पड़ता है, इसके लिए प्रतीक्षा करनी पड़ती है। वह समय भी सूक्ष्म शरीर में रहते हुए ही व्यतीत करना पड़ता है। ऐसी आत्माएं अपने मित्रों, शत्रुओं, परिवारीजनों एवं परिचितों के मध्य ही अपने अस्तित्व का परिचय देती रहती हैं। प्रेतों की अशांति संबद्ध लोगों को भी हैरान करती हैं।


पितर वे होते हैं जिनका जीवन सज्जनता के सतोगुणी वातावरण में बीता है। वे स्वभावत: सेवा व सहायता में रुचि लेते हैं। उनकी सीमित शक्ति अपनों-परायों को यथासंभव सहायता पहुंचाती रहती है, इसके लिए विशेष अनुरोध नहीं करना पड़ता। जरूरतमंदों की सहायता करना उनका सहज स्वभाव होता है। कितनी ही घटनाएं ऐसी सामने आती रहती हैं जिनमें दैवी शक्ति ने कठिन समय में भारी सहायता की और संकटग्रस्तों की चमत्कारी सहायता करके उन्हें उबारा।
 
बृहदारण्यक उपनिषद में मृत्यु व अन्य शरीर धारण करने का वर्णन मिलता है। वर्तमान शरीर को छोड़कर अन्य शरीर प्राप्ति में कितना समय लगता है, इस विषय में उपनिषद कहते हैं कि कभी-कभी तो बहुत ही कम समय लगता है जिसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती।


"MMSTM समवैध्यावि ध्यान की वह आधुनिक विधि है। कोई चाहे नास्तिक हो आस्तिक हो, साकार, निराकार कुछ भी हो बस पागल और हठी न हो तो उसको ईश अनुभव होकर रहेगा बस समयावधि कुछ बढ़ सकती है। आपको प्रतिदिन लगभग 40 मिनट देने होंगे और आपको 1 दिन से लेकर 10 वर्ष का समय लग सकता है। 1 दिन उनके लिये जो सत्वगुणी और ईश भक्त हैं। 10 साल बगदादी जैसे हत्यारे के लिये। वैसे 6 महीने बहुत है किसी आम आदमी के लिये।"  देवीदास विपुल 
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Wednesday, July 31, 2019

स्वास्तिक का महत्व

स्वास्तिक का महत्व

सनातनपुत्र देवीदास विपुल "खोजी"


 विपुल सेन उर्फ विपुल लखनवी,
(एम . टेक. केमिकल इंजीनियर) वैज्ञानिक एवं कवि
वैज्ञानिक अधिकारी, भाभा परमाणु अनुसंधान केन्द्र, मुम्बई
पूर्व सम्पादक : विज्ञान त्रैमासिक हिन्दी जर्नल “वैज्ञनिक” ISSN 2456-4818
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स्वस्तिक अत्यन्त प्राचीन काल से भारतीय संस्कृति में मंगल-प्रतीक माना जाता रहा है। इसीलिए किसी भी शुभ कार्य को करने से पहले स्वस्तिक चिह्न अंकित करके उसका पूजन किया जाता है। स्वस्तिक शब्द सु+अस+क से बना है। 'सु' का अर्थ अच्छा, 'अस' का अर्थ 'सत्ता' या 'अस्तित्व' और 'क' का अर्थ 'कर्त्ता' या करने वाले से है। इस प्रकार 'स्वस्तिक' शब्द का अर्थ हुआ 'अच्छा' या 'मंगल' करने वाला। 'अमरकोश' में भी 'स्वस्तिक' का अर्थ आशीर्वाद, मंगल या पुण्यकार्य करना लिखा है। अमरकोश के शब्द हैं - 'स्वस्तिक, सर्वतोऋद्ध' अर्थात् 'सभी दिशाओं में सबका कल्याण हो।' इस प्रकार 'स्वस्तिक' शब्द में किसी व्यक्ति या जाति विशेष का नहीं, अपितु सम्पूर्ण विश्व के कल्याण या 'वसुधैव कुटुम्बकम्' की भावना निहित है। 'स्वस्तिक' शब्द की निरुक्ति है - 'स्वस्तिक क्षेम कायति, इति स्वस्तिकः' अर्थात् 'कुशलक्षेम या कल्याण का प्रतीक ही स्वस्तिक है।


स्वस्तिक को 'साथिया' या 'सातिया' भी कहा जाता है। वैदिक ऋषियों ने अपने आध्यात्मिक अनुभवों के आधार पर कुछ विशेष चिह्नों की रचना की। मंगल भावों को प्रकट करने वाले और जीवन में खुशियां भरने वाले इन चिह्नों में से एक है स्वस्तिक। उह्नोंने स्वस्तिक के रहस्य को सविस्तार उजागर किया और इसके धार्मिक, ज्योतिष और वास्तु के महत्व को भी बताया। आज स्वस्तिक का प्रत्येक धर्म और संस्कृति में अलग-अलग रूप में इस्तेमाल किया जाता है।

 

यह मांगलिक चिह्न अनादि काल से सम्पूर्ण सृष्टि में व्याप्त रहा है। अत्यन्त प्राचीन काल से ही भारतीय संस्कृति में स्वस्तिक को मंगल- प्रतीक माना जाता रहा है। विघ्नहर्ता गणेश की उपासना धन, वैभव और ऐश्वर्य की देवी लक्ष्मी के साथ भी शुभ लाभ, स्वस्तिक तथा बहीखाते की पूजा की परम्परा है। इसे भारतीय संस्कृति में विशेष स्थान प्राप्त है। इसीलिए जातक की कुण्डली बनाते समय या कोई मंगल व शुभ कार्य करते समय सर्वप्रथम स्वस्तिक को ही अंकित किया जाता है।

सिन्धु घाटी सभ्यता की खुदाई में ऐसे चिह्न व अवशेष प्राप्त हुए हैं जिससे यह प्रमाणित होता है कि कई हजार वर्ष पूर्व मानव सभ्यता अपने भवनों में इस मंगलकारी चिह्न का प्रयोग करती थी। सिन्धु घाटी से प्राप्त मुद्रा और बर्तनों में स्वस्तिक का चिह्न खुदा हुआ मिला है। उदयगिरि और खंडगिरि की गुफा में भी स्वस्तिक के चिह्न मिले हैं। ऐतिहासिक साक्ष्यों में स्वस्तिक का महत्व भरा पड़ा है। मोहन जोदड़ो, हड़प्पा संस्कृति, अशोक के शिलालेखों, रामायण, हरिवंश पुराण, महाभारत आदि में इसका अनेक बार उल्लेख मिलता है।

 

द्वितीय विश्‍वयुद्ध के समय एडोल्फ हिटलर ने उल्टे स्वस्तिक का चिह्न अपनी सेना के प्रतीक के रूप में शामिल किया था। सभी सैनिकों की वर्दी एवं टोपी पर यह उल्टा स्वस्तिक चिह्न अंकित था। उल्टा स्वस्तिक ही उसकी बर्बादी का कारण बना। संयुक्त राज्य अमेरिका की आधिकारिक सेना के नेटिव अमेरिकन की एक 45वीं मिलिट्री इन्फैंट्री डिवीजन का चिह्न एक पीले रंग का स्वस्तिक था। नाजियों की घटना के बाद इसे हटाकर उन्होंने गरूड़ का चिह्न अपनाया।

 

स्वस्तिक को भारत में ही नहीं, अपितु विश्व के अन्य कई देशों में विभिन्न स्वरूपों में मान्यता प्राप्त है। जर्मनी, यूनान, फ्रांस, रोम, मिस्र, ब्रिटेन, अमेरिका, स्कैण्डिनेविया, सिसली, स्पेन, सीरिया, तिब्बत, चीन, साइप्रस और जापान आदि देशों में भी स्वस्तिक का प्रचलन किसी न किसी रूप में मिलता है। नेपाल में 'हेरंब' के नाम से पूजित होते हैं। बर्मा में इसे 'प्रियेन्ने' के नाम से जाना जाता है। मिस्र में 'एक्टन' के नाम से स्वस्तिक की पूजा होती है।

 

प्राचीन यूरोप में सेल्ट नामक एक सभ्यता थी, जो जर्मनी से इंग्लैंड तक फैली थी। वह स्वस्तिक को सूर्यदेव का प्रतीक मानती थी। उसके अनुसार स्वस्तिक यूरोप के चारों मौसमों का भी प्रतीक था।

 

मिस्र और अमेरिका में स्वस्तिक का काफी प्रचलन रहा है। इन दोनों जगहों के लोग पिरामिड को पुनर्जन्म से जोड़कर देखा करते थे। प्राचीन मिस्र में ओसिरिस को पुनर्जन्म का देवता माना जाता था और हमेशा उसे 4 हाथ वाले तारे के रूप में बताने के साथ ही पिरामिड को सूली लिखकर दर्शाते थे। इस तरह हम देखते हैं कि स्वस्तिक का प्रचलन प्राचीनकाल से ही हर देश की सभ्यताओं में प्रचलित रहा है।

 

मध्य एशिया के देशों में स्वस्तिक का निशान मांगलिक एवं सौभाग्य का सूचक माना जाता है। प्राचीन इराक (मेसोपोटेमिया) में अस्त्र-शस्त्र पर विजय प्राप्त करने हेतु स्वस्तिक चिह्न का प्रयोग किया जाता था।

 

उत्तर-पश्‍चिमी बुल्गारिया के व्रात्स  नगर के संग्रहालय में चल रही एक प्रदर्शनी में 7,000 वर्ष प्राचीन कुछ मिट्टी की कलाकृतियां रखी हुई हैं जिस पर स्वस्तिक का चिह्न बना हुआ है। व्रास्ता शहर के निकट अल्तीमीर नामक गांव के एक धार्मिक यज्ञ कुंड के खुदाई के समय ये कलाकृतियां मिली थीं।

स्वस्तिक में एक दूसरे को काटती हुई दो सीधी रेखाएँ होती हैं, जो आगे चलकर मुड़ जाती हैं। इसके बाद भी ये रेखाएँ अपने सिरों पर थोड़ी और आगे की तरफ मुड़ी होती हैं। स्वस्तिक की यह आकृति दो प्रकार की हो सकती है। प्रथम स्वस्तिक, जिसमें रेखाएँ आगे की ओर इंगित करती हुई हमारे दायीं ओर मुड़ती हैं। इसे 'स्वस्तिक' कहते हैं। यही शुभ चिह्न है, जो हमारी प्रगति की ओर संकेत करता है। दूसरी आकृति में रेखाएँ पीछे की ओर संकेत करती हुई हमारे बायीं ओर मुड़ती हैं। इसे 'वामावर्त स्वस्तिक' कहते हैं। भारतीय संस्कृति में इसे अशुभ माना जाता है।

ऋग्वेद की ऋचा में स्वस्तिक को सूर्य का प्रतीक माना गया है और उसकी चार भुजाओं को चार दिशाओं की उपमा दी गई है। सिद्धान्त सार ग्रन्थ में उसे विश्व ब्रह्माण्ड का प्रतीक चित्र माना गया है। उसके मध्य भाग को विष्णु की कमल नाभि और रेखाओं को ब्रह्माजी के चार मुख, चार हाथ और चार वेदों के रूप में निरूपित किया गया है। अन्य ग्रन्थों में चार युग, चार वर्ण, चार आश्रम एवं धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष के चार प्रतिफल प्राप्त करने वाली समाज व्यवस्था एवं वैयक्तिक आस्था को जीवन्त रखने वाले संकेतों को स्वस्तिक में ओत-प्रोत बताया गया है।


स्वस्ति का अर्थ होता है - कल्याण या मंगल. इसी प्रकार स्वस्तिक का अर्थ होता है - कल्याण या मंगल करने वाला. स्वास्तिक एक विशेष आकृति है , जिसको किसी भी कार्य की शुरुआत के पूर्व बनाया जाता है. माना जाता है कि , यह चारों दिशाओं से शुभ और मंगल को आकर्षित करता है. चूँकि इसको कार्य की शुरुआत और मंगल कार्य में रखते हैं, अतः यह भगवान गणेश का रूप भी माना जाता है. माना जाता है कि इसके प्रयोग से सम्पन्नता, समृद्धि और एकाग्रता की प्राप्ति होती है. जिस पूजा उपासना में स्वस्तिक का प्रयोग नहीं होता, वह पूजा लम्बे समय तक अपना प्रभाव नहीं रख पाती.


वैज्ञानिक महत्व


- सही तरीके से बने हुए स्वस्तिक से ढेर सारी सकारात्मक उर्जा निकलती है


- यह उर्जा वस्तु या व्यक्ति की रक्षा , सुरक्षा करने में मददगार होती है


- स्वस्तिक की उर्जा का अगर घर , अस्पताल या दैनिक जीवन में प्रयोग किया जाय तो व्यक्ति रोगमुक्त और चिंता मुक्त रह सकता है


- गलत तरीके से प्रयोग किया गया स्वस्तिक भयंकर समस्याएँ भी दे सकता है


- स्वास्तिक की रेखाएं और कोण बिलकुल सही होने चाहिए


- भूलकर भी उलटे स्वस्तिक का निर्माण और प्रयोग न करें


- लाल और पीले रंग के स्वस्तिक ही सर्वश्रेष्ठ होते हैं


- अगर स्वस्तिक को धारण करना है तो इसके गोले के अन्दर धारण करें


- जहाँ जहाँ वास्तु दोष हो , या घर के मुख्य द्वार पर लाल रंग का स्वस्तिक बनाएं


- पूजा के स्थान, पढ़ाई के स्थान और वाहन में अपने सामने , स्वस्तिक बनाएं


- एकाग्रता के लिए , सोने या चांदी में बना हुआ स्वस्तिक , लाल धागे में धारण करें


- इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों पर छोटे छोटे स्वस्तिक लगाने से, वे जल्दी ख़राब नहीं होते


स्वास्तिक की चार रेखाएं एक घड़ी की दिशा में चलती हैं, जो संसार के सही दिशा में चलने का प्रतीक है। हिन्दू मान्यताओं के अनुसार यदि स्वास्तिक के आसपास एक गोलाकार रेखा खींच दी जाए, तो यह सूर्य भगवान का चिन्ह माना जाता है। वह सूर्य देव जो समस्त संसार को अपनी ऊर्जा से रोशनी प्रदान करते हैं।


बौद्ध धर्म में स्वास्तिक को अच्छे भाग्य का प्रतीक माना गया है। यह भगवान बुद्ध के पग चिन्हों को दिखाता है, इसलिए इसे इतना पवित्र माना जाता है। यही नहीं, स्वास्तिक भगवान बुद्ध के हृदय, हथेली और पैरों में भी अंकित है।


जैन धर्म में यह सातवं जिन का प्रतीक है, जिसे सब तीर्थंकर सुपार्श्वनाथ के नाम से भी जानते हैं। श्वेताम्बर जैनी स्वास्तिक को अष्ट मंगल का मुख्य प्रतीक मानते हैं।


प्राचीन फारस में स्वास्तिक की पूजा का चलन सूर्योपासना से जोड़ा गया था।  


वर्ष 1935 के दौरान जर्मनी के नाज़ियों द्वारा स्वास्तिक के निशान का इस्तेमाल किया गया था, लेकिन यह हिन्दू मान्यताओं के बिलकुल विपरीत था। यह निशान एक सफेद गोले में काले ‘क्रास’ के रूप में उपयोग में लाया गया, जिसका अर्थ उग्रवाद या फिर स्वतंत्रता से सम्बन्धित था।

ब्रितानी वायु सेना के लड़ाकू विमानों पर इस चिह्न का इस्तेमाल 1939 तक होता रहा था।


लेकिन करीब 1930 के आसपास इसकी लोकप्रियता में कुछ ठहराव आ गया था, यह वह समय था जब जर्मनी की सत्ता में नाज़ियों का उदय हुआ था। उस समय किए गए एक शोध में बेहद दिलचस्प बात निकल कर सामने आई। शोधकर्ताओं ने माना कि जर्मन भाषा और संस्कृत में कई समानताएं हैं। इतना ही नहीं, भारतीय और जर्मन दोनों के पूर्वज भी एक ही रहे होंगे और उन्होंने देवताओं जैसे वीर आर्य नस्ल की परिकल्पना की।


इसके बाद से ही स्वास्तिक चिन्ह का आर्य प्रतीक के तौर पर चलन शुरू हो गया। आर्य प्रजाति इसे अपना गौरवमय चिन्ह मानती थी। लेकिन 19वीं सदी के बाद 20वीं सदी के अंत तक इसे नफ़रत की नज़र से देखा जाने लगा। नाज़ियों द्वारा कराए गए यहूदियों के नरसंहार के बाद इस चिन्ह को भय और दमन का प्रतीक माना गया था।


युद्ध ख़त्म होने के बाद जर्मनी में इस प्रतीक चिह्न पर प्रतिबंध लगा दिया गया था और 2007 में जर्मनी ने यूरोप भर में इस पर प्रतिबंध लगवाने की नाकाम पहल की थी। माना जाता है कि स्वास्तिक के चिह्न की जड़ें यूरोप में काफी गहरी थीं।


प्राचीन ग्रीस के लोग भी इसका इस्तेमाल करते थे। पश्चिमी यूरोप में बाल्टिक से बाल्कन तक इसका इस्तेमाल देखा गया है। यूरोप के पूर्वी भाग में बसे यूक्रेन में एक नेशनल म्यूज़ियम स्थित है। इस म्यूज़ियम में कई तरह के स्वास्तिक चिह्न देखे जा सकते हैं, जो 15 हज़ार साल तक पुराने हैं।


यह सभी तथ्य हमें बताते हैं कि केवल भारत में ही नहीं बल्कि विश्व के कोने-कोने में स्वास्तिक चिन्ह ने अपनी जगह बनाई है। फिर चाहे वह सकारात्मक दृष्टि से हो या नकारात्मक रूप से। परन्तु भारत में स्वास्तिक चिन्ह को सम्मान दिया जाता है और इसका विभिन्न रूप से इस्तेमाल किया जाता है। यह जानना बेहद रोचक होगा कि केवल लाल रंग से ही स्वास्तिक क्यों बनाया जाता है?


भारतीय संस्कृति में लाल रंग का सर्वाधिक महत्व है और मांगलिक कार्यों में इसका प्रयोग सिन्दूर, रोली या कुमकुम के रूप में किया जाता है। लाल रंग शौर्य एवं विजय का प्रतीक है। लाल रंग प्रेम, रोमांच व साहस को भी दर्शाता है। धार्मिक महत्व के अलावा वैज्ञानिक दृष्टि से भी लाल रंग को सही माना जाता है।


लाल रंग व्यक्ति के शारीरिक व मानसिक स्तर को शीघ्र प्रभावित करता है। यह रंग शक्तिशाली व मौलिक है। हमारे सौर मण्डल में मौजूद ग्रहों में से एक मंगल ग्रह का रंग भी लाल है। यह एक ऐसा ग्रह है जिसे साहस, पराक्रम, बल व शक्ति के लिए जाना जाता है। यह कुछ कारण हैं जो स्वास्तिक बनाते समय केवल लाल रंग के उपयोग की ही सलाह देते हैं। 

 

मेरे विचार से योगशास्त्र के अनुसार लाल रंग मूलाधार चक्र का प्रतीक हैं। इस चक्र के अधिष्ठाता श्री गणेश और शक्ति को दुर्गा शक्ति कहते हैं। अत:  जग्दम्बे और श्री गणेश के वस्त्र भी लाल ही रखे जाते हैं।

 

स्वास्तिक बनाते समय क्या गलतियां नहीं करनी चाहिए।


स्वास्तिक का निशान कभी भी उल्टा नहीं बनाना चाहिए, जबकि बहुत से लोग यह गलती कर बैठते हैं। आपको बता दें, मंदिरों में उलटा स्वास्तिक बनाया जाता है, इसके अलावा किसी विशिष्ट मनोकामना पूर्ति के लिए भी उलटा स्वास्तिक बनता है। 

 

मेरे विचार से यदि हम कांच की शीट पर स्वास्तिक बनायें तो एक तरफ से सीधा और दूसरी तरफ से उल्टा दिखाई देगा मतलब आप किधर से देखते हैं। यह उस पर निर्भर करेगा। अत: मन्दिर में द्वार पर उल्टा बनाने से यदि आप मन्दिर के अंदर से देखेंगे तो यह सीधा दिखेगा किंतु बाहर से उल्टा। मतलब मंदिर में विराजमान मूर्ती जब देखेगी तो यह सीधा ही दिखेगा। यही बात मनोकामना और तांत्रिक यज्ञ हेतु भी खरी उतरती है। मतलब जब अनुष्ठानिक देवता देखे तो उसे यह सीधा दिखे। उसकी ओर से सीधा ही रहे।

 

 


स्वास्तिक का निशान कभी भी टेढ़ा नहीं होना चाहिए, इसे एकदम सीधा और साफ बनाया जाना चाहिए। अन्यथा जिस मनोकामना की पूर्ति के लिए आप यह निशान बना रहे हैं, वह पूर्ण नहीं हो पाएगी।


घर या किसी अन्य स्थान पर, जहां भी आपने स्वास्तिक का निशान बनाना हो, एक बात का ध्यान अवश्य रखें कि वह जगह एकदम साफ-सुथरी और पवित्र होनी चाहिए।


अगर विवाहित जीवन में आ रही परेशानियों से मुक्ति पाने हेतु आप पूजा करवा रहे हैं तो उसमें हल्दी का स्वास्तिक बनाया जाता है। अन्य किसी भी पूजा या हवन में कुमकुम या रोली से ही स्वास्तिक का निशान बनाया जाता है।

 

MMSTM समवैध्यावि ध्यान की वह आधुनिक विधि है। कोई चाहे नास्तिक हो आस्तिक हो, साकार, निराकार कुछ भी हो बस पागल और हठी न हो तो उसको ईश अनुभव होकर रहेगा बस समयावधि कुछ बढ सकती है। आपको प्रतिदिन लगभग 40 मिनट देने होंगे और आपको 1 दिन से लेकर 10 वर्ष का समय लग सकता है। 1 दिन उनके लिये जो सत्वगुणी और ईश भक्त हैं। 10 साल बगदादी जैसे हत्यारे के लिये। वैसे 6 महीने बहुत है किसी आम आदमी के लिये।"  सनातन पुत्र देवीदास विपुल खोजी
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