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Wednesday, June 27, 2018

मानो मत जानो। पढो मत करो। कुछ उत्तर



मानो मत जानो। पढो मत करो।
कुछ उत्तर

सनातनपुत्र देवीदास विपुल"खोजी"




विपुल सेन उर्फ विपुल लखनवी,
(एम . टेक. केमिकल इंजीनियर) वैज्ञानिक एवं कवि
सम्पादक : विज्ञान त्रैमासिक हिन्दी जर्नल वैज्ञनिक ISSN 2456-4818
वेब:   vipkavi.info , वेब चैनल:  vipkavi
 ब्लाग : https://freedhyan.blogspot.com/

सवाल यह है हम बहुत कुछ मानते है। पर मानना सत्य नही भी हो सकता है। प्रश्न यह है कि हम जाने कैसे। क्योकि जानना ही श्रेष्ठ है। एक बार हम जान ले तो मानना तो अपने आप हो जाएगा।

जानने हेतु हमे प्रयत्न करना पड़ता है।
सही दिशा में किया गया प्रयत्न ही हमे सही गन्तव्य तक ले जाता है।
जहाँ पहुचकर हम जान लेते है। हम क्या है। यही ज्ञान हमे बन्धनों से मुक्त करता है।
जानने के मार्गो में सबसे सहज सुंदर टिकाऊ और सस्ता मार्ग है नाम जप और समर्पण।
नाम जप से मरा शब्द भी डाकू रत्नाकर को बाल्मीकि ऋषि बना गया।

अतः शब्दो के भंवर में पुस्तकीय ज्ञान के महासागर में मत उतराओ। यहाँ डूबकर कुछ न मिलेगा।

भक्ति के और प्रभु स्मरण यानी नाम जप के सागर में बार बार गोते लगाओ। यही कल्याण का श्रेष्ठ मार्ग है।

प्रायः मनुष्य आध्यात्म में तनिक भी अनुभव करता है कि वह अपने को ज्ञानी और श्रेष्ठ समझ कर उपदेश आरम्भ कर देता है कोई कोई तो गुरु बनने के प्रति इतना लालायित होता है कि वह लोगो को चेला बनने के लिए सांकेतिक रूप में कहने लगता है। 
खुदा न खास्ता यदि किसी को कुछ अन्य अनुभूतिया जैसे योग का अहम ब्रम्हास्मि या दर्शन का अनुभव हो तो कहने ही क्या। नाम पद लालसा अपने ज्ञान का प्रदर्शन करने की इच्छा बलवती हो जाती है।

चलो यह भी ठीक है कम से कम सनातन का प्रचार ही सही।
किंतु दुःख तब होता है या यूं कहो हंसी तब आती है जब बिना गुरू परम्परा के गुरू बन बैठते है । अपने नाम के आगे बिना विधि विधान से मिले नाम या पट्ट जैसे स्वामी योगीराज परमहंस ज्ञानदेव सिध्द गुरू इत्यादि लगाने लगते है।

एक तो अपने ग्रुप के सदस्य तो कह ही शिवोहम योगी पता नही क्या क्या खुद ही लगा बैठे। लोग उनको जानते है।
इसे कहते है छुद्र नदी भर चल उतराई। 
इन चक्करों में पड़ कर मनुष्य अपने वास्तविक उत्थान खो देता है। इनमे लिप्त होकर पतन की ओर अग्रसर होता है और फिर समाज मे निंदा का कारण बन जाता है।
अतः समाज मे मूर्खो की भांति रहो यह तुम्हारी निजी संपत्ति है। जब तक गुरू का प्रभु का आदेश न हो अपने को जग जाहिर मत करो। अपनी साधना और मन्त्र जप में लगे रहो। वो ही तुम्हे ईश के निराकार स्वरूप के स्वतः दर्शन करवा देगा। यह मेरा विश्वास है।

मजा तो तब आता है कल के बच्चे ज्ञानियों वाले पोस्ट गुड़ मार्निग और गुड इवनिंग के बिना अर्थ जाने पोस्ट कर देते है। मेरे इंजेनियरिंग कालेज के बच्चे जो मेरी बेटी से भी छोटे होंगे। उनके उपदेशात्मक पोस्ट रोज मिलते है। कम से कम मेरे लिए तो यह किसी काम के नही। कोई समझता नही अपनी फोटो या इतनी बिट्स के पोस्ट कर कितना अधिक योगदान पर्यावरण प्रदूषण में दे रहा है।


नवधा भक्ति में तुलसीदास जी ने एक मनुष्य के साधारण मानव से योगी होने तक के चरण बताये है।
किसमे कहां ठहरेंगे कितना समय लगेगा हमें न मालूम। यह तो हमारे कर्मो और भक्तिभाव पर निर्भर है।
किसी भी यन्त्र द्वारा हम इसे न माप सकते और न हमारे वश में है। 
बस मन्त्र जप और समर्पण का प्रयास हमारे हाथ मे है।

सनातन धर्म जिसे हिन्दू धर्म अथवा वैदिक धर्म भी कहा जाता है, का १९६०८५३११० साल का इतिहास हैं। भारत (और आधुनिक पाकिस्तानी क्षेत्र) की सिन्धु घाटी सभ्यता में हिन्दू धर्म के कई चिह्न मिलते हैं। इनमें एक अज्ञात मातृदेवी की मूर्तियाँ, शिव पशुपति जैसे देवता की मुद्राएँ, लिंग, पीपल की पूजा, इत्यादि प्रमुख हैं। इतिहासकारों के एक दृष्टिकोण के अनुसार इस सभ्यता के अन्त के दौरान मध्य एशिया से एक अन्य जाति का आगमन हुआ, जो स्वयं को आर्य कहते थे और संस्कृत नाम की एक हिन्द यूरोपीय भाषा बोलते थे। एक अन्य दृष्टिकोण के अनुसार सिन्धु घाटी सभ्यता के लोग स्वयं ही आर्य थे और उनका मूलस्थान भारत ही था।

प्राचीन काल में भारतीय सनातन धर्म में गाणपत्य, शैवदेव:कोटी वैष्णव,शाक्त और सौर नाम के पाँच सम्प्रदाय होते थे।गाणपत्य गणेशकी, वैष्णव विष्णु की, शैवदेव:कोटी शिव की, शाक्त शक्ति की और सौर सूर्य की पूजा आराधना किया करते थे। पर यह मान्यता थी कि सब एक ही सत्य की व्याख्या हैं। यह न केवल ऋग्वेद परन्तु रामायण और महाभारत जैसे लोकप्रिय ग्रन्थों में भी स्पष्ट रूप से कहा गया है। प्रत्येक सम्प्रदाय के समर्थक अपने देवता को दूसरे सम्प्रदायों के देवता से बड़ा समझते थे और इस कारण से उनमें वैमनस्य बना रहता था। एकता बनाए रखने के उद्देश्य से धर्मगुरुओं ने लोगों को यह शिक्षा देना आरम्भ किया कि सभी देवता समान हैं, विष्णु, शिव और शक्ति आदि देवी-देवता परस्पर एक दूसरे के भी भक्त हैं। उनकी इन शिक्षाओं से तीनों सम्प्रदायों में मेल हुआ और सनातन धर्म की उत्पत्ति हुई। सनातन धर्म में विष्णु, शिव और शक्ति को समान माना गया और तीनों ही सम्प्रदाय के समर्थक इस धर्म को मानने लगे। सनातन धर्म का सारा साहित्य वेद, पुराण, श्रुति, स्मृतियाँ,उपनिषद्, रामायण, महाभारत, गीता आदि संस्कृत भाषा में रचा गया है।

कालान्तर में भारतवर्ष में मुसलमान शासन हो जाने के कारण देवभाषा संस्कृत का ह्रास हो गया तथा सनातन धर्म की अवनति होने लगी। इस स्थिति को सुधारने के लिये विद्वान संत तुलसीदास ने प्रचलित भाषा में धार्मिक साहित्य की रचना करके सनातन धर्म की रक्षा की।

जब औपनिवेशिक ब्रिटिश शासन को ईसाई, मुस्लिम आदि धर्मों के मानने वालों का तुलनात्मक अध्ययन करने के लिये जनगणना करने की आवश्यकता पड़ी तो सनातन शब्द से अपरिचित होने के कारण उन्होंने यहाँ के धर्म का नाम सनातन धर्म के स्थान पर हिंदू धर्म रख दिया।

'सनातन धर्म', हिन्दू धर्म का वास्तविक नाम है।
सत्य दो धातुओं से मिलकर बना है सत् और तत्। सत का अर्थ यह और तत का अर्थ वह। दोनों ही सत्य है। अहं ब्रह्मास्मी और तत्वमसि। अर्थात मैं ही ब्रह्म हूँ और तुम ही ब्रह्म हो। यह संपूर्ण जगत ब्रह्ममय है। ब्रह्म पूर्ण है। यह जगत् भी पूर्ण है। पूर्ण जगत् की उत्पत्ति पूर्ण ब्रह्म से हुई है। पूर्ण ब्रह्म से पूर्ण जगत् की उत्पत्ति होने पर भी ब्रह्म की पूर्णता में कोई न्यूनता नहीं आती। वह शेष रूप में भी पूर्ण ही रहता है। यही सनातन सत्य है|
कुछ इसी प्रकार जैन धर्म पुराना और सनातन का अभिन्न अंग है।


दोनों धर्मों की गुत्थियों को देखते हुए कई बार इसे कठिन और समझने में मुश्किल धर्म समझा जाता है। हालांकि, सच्चाई तो ऐसी नहीं है, फिर भी इसके इतने आयाम, इतने पहलू हैं कि लोगबाग कई बार इसे लेकर भ्रमित हो जाते हैं। सबसे बड़ा कारण इसका यह कि सनातन धर्म किसी एक दार्शनिक, मनीषा या ऋषि के विचारों की उपज नहीं है, न ही यह किसी ख़ास समय पैदा हुआ। यह तो अनादि काल से प्रवाहमान और विकासमान रहा। साथ ही यह केवल एक दृष्टा, सिद्धांत या तर्क को भी वरीयता नहीं देता

विज्ञान जब प्रत्येक वस्तु, विचार और तत्व का मूल्यांकन करता है तो इस प्रक्रिया में धर्म के अनेक विश्वास और सिद्धांत धराशायी हो जाते हैं। विज्ञान भी सनातन सत्य को पकड़ने में अभी तक कामयाब नहीं हुआ है किंतु वेदांत में उल्लेखित जिस सनातन सत्य की महिमा का वर्णन किया गया है विज्ञान धीरे-धीरे उससे सहमत होता नजर आ रहा है।
हमारे ऋषि-मुनियों ने ध्यान और मोक्ष की गहरी अवस्था में ब्रह्म, ब्रह्मांड और आत्मा के रहस्य को जानकर उसे स्पष्ट तौर पर व्यक्त किया था। वेदों में ही सर्वप्रथम ब्रह्म और ब्रह्मांड के रहस्य पर से पर्दा हटाकर 'मोक्ष' की धारणा को प्रतिपादित कर उसके महत्व को समझाया गया था। मोक्ष के बगैर आत्मा  की कोई गति नहीं इसीलिए ऋषियों ने मोक्ष के मार्ग को ही सनातन मार्ग माना है।

आपके अनुभव को मैं पूर्णतयः सत्य मानता हूँ। क्योकि यह अनुभव मुझे 25 साल पहले हुए थे। यब गुरु महाराज में मुझे मरने से बचाया।
किन्तु इस ग्रुप में कुछ लोग जो जगत के विद्दान है वह अभी भी मनोविज्ञान या मस्तिष्क की बीमारी हालत समझ रहे है। घायल की गति घायल जाने। और न जाने कोय। हैरी मैं तो प्रेम दीवानी मेरी दर्द न जाने कोय।

मित्रो यह पागलो की बस्ती है। सौभाग्य या दुर्भाग्य से कुछ जगत के जानकार सदस्य बने हुए है। 

आध्यात्म का अर्थ जबरिया हल्के होने के लिए स्वस्थ्य होने के लिए ध्यान में कुछ सफेद। पीला नीला। रंग। एक लंबी सुरंग। देखना ही नही। जरा सा रोमांच या कम्पन को बड़ी उपलब्धि मान लेना नही है। हाँ यह भी लक्षण है पर बेहद आरम्भिक। अनुभव है शरीर से बाहर निकलना। आसन का उठ जाना। नेत्रो से प्रकाश निकलना। साफ साफ इष्ट के दर्शन होना। इत्यादि और भी भयंकर। परन्तु हर अनुभव हेतु मॉनव का एक लेवल या स्तर होना चाहिए। शरीर मजबूत। जो आपको मन्त्र जप के साथ ध्यान की साकार पध्दतियों से मिलता है। भई करके तो देखो। केवल पढ़ने से संशय करने से कुछ न मिलेगा। एक दिन इसी भाँति संशयग्रस्त होकर मर जाना। फिर पछताना।
बड़े भाग्य मानुष तन पावा। सुर नर मुनि सब यही गावा।
इस शरीर का जो असीमित शक्तियों से भरा हुआ है उसको पहिचानो।

इन शक्तियों का उपयोग यदि अपने की जानने के लिए न किया तो फिर किसके लिये करोगे। मुझे एक शेर याद आता है।

मैं फकीरी को ग़ज़ल में आशिक़ी कहता रहा।
कतरा कतरा खुदकशी को जिंदगी कहता रहा।।

यह हाल है आज के मॉनव का। भागता जा रहा है बिना जाने भौतिक लक्ष्यों के लिए। पैसा शार्ट फैक्टी लगाकर यदि सफलता मिली तो ईश को भूल गए। अहंकार आ गया मैं आ गया। ऐसे ही मेरे एक मित्र जो इस ग्रुप के सदस्य भी है। पैसे और सफलता के मद में ईश को मानते तक न थे। मेरा अक्सर उसी बात तर्क वितर्क होता था। वो हमेशा नास्तिकता की वात कर तर्क देते थे। अब आयु में बड़े। पद में बड़े तो मैं चुप हो जाता था। लेकिन मैं कहता था सर एक दिन आपको मनाना पड़ेगा हमारा बाप कौन है। आज समय की मार ने जब सब छीन लिया तो दूसरों को भी भौतिकता से दूर रहने का उपदेस देते है।
अब बात है जो यह दोहा कहता है।

सुख में सुमिरन न किया, दुख में किया याद।
कह कबीरता दास की, कौन सुने फरियाद।

हम जब सुखी होते है अपने बाप के अस्तित्व तक को नकारते है। परन्तु संकट में उसी बाप से फरियाद करते है। वह बाप परम् दयालु है। बच्चों की सभी गलतियों को माफ कर फिर सहायता करता है। पर याद रखो उससे धूर्तता न चलेगी जो तुमने दुनिया से दिखाई।

इस मामले में राजस्थानी और गुजराती व्यापार में आगे है। लगभग सभी धार्मिक होते है और व्यापार के पहले दिन से अपने बाप ईश को गुरु को स्मरण कर बेईमानी तक करते है। पर अन्य बाप को सिर्फ सङ्कट में ही याद करते है।

इस सब पूरी बात का निचोड़ है। मित्र कुछ भी करो अपने बाप को मत भूलो। गलत करोगे गलत फल पाओगे। सही करोगे सही। परन्तु ईश का स्मरण हर समय करो। मन्त्र जप सघन और सतत करो यह तुम्हे पापो को भुगतने के बाद भी सहायता करता रहेगा। यदि सतमार्गी हो तो कहने की क्या। अपना पता तक बता देगा।

कुछ कन गूगल से साभार 

"MMSTM समवैध्यावि ध्यान की वह आधुनिक विधि है। कोई चाहे नास्तिक हो आस्तिक हो, साकार, निराकार कुछ भी हो बस पागल और हठी न हो तो उसको ईश अनुभव होकर रहेगा बस समयावधि कुछ बढ सकती है। आपको प्रतिदिन लगभग 40 मिनट देने होंगे और आपको 1 दिन से लेकर 10 वर्ष का समय लग सकता है। 1 दिन उनके लिये जो सत्वगुणी और ईश भक्त हैं। 10 साल बगदादी जैसे हत्यारे के लिये। वैसे 6 महीने बहुत है किसी आम आदमी के लिये।"  देवीदास विपुल 
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भाग- 13 एक वैज्ञानिक के विज्ञान और आध्यात्म पर अविश्वसनिय अनुभवों की स्वकथा



एक वैज्ञानिक के विज्ञान और आध्यात्म पर अविश्वसनिय अनुभवों की स्वकथा भाग- 13    

सनातनपुत्र देवीदास विपुल"खोजी"




आपने भाग 1 से 12 में पढा किस प्रकार मां काली ने दर्शन देकर और सीने पर लात मारकर दीक्षा दे दी। जिसके बाद मैं रोज मरता रहा जीता रहा पर पाठ और जाप बंद न किया। मुरारी बापू ने भी हाथ जोडकर मुझे संभालने से इंकार कर दिया। बाद में एक तांत्रिक ने मुझे अपना चेला बनाने के चक्कर में कितने तंत्र किये पर बेइज्जत होकर भागा। अब यह सिद्द हो गया था कि कोई तंत्र शक्ति मेरा अहित तो नहीं कर सकती हैं। सब मां काली की देन थी। भटकते भटकते मैं स्वप्न और ध्यान के माध्यम और एक संत की भभूत के सहारे अपने गुरू तक पहुंचा। दीक्षा के पूर्व किस प्रकार ईश ने वाराणसी की अद्भुत यात्रा कराई। शिव दर्शन के साथ मस्ती में लखनऊ लौटा। बचपन की यादों में पिता जी का पिटाई उत्सव और कीडे मकोडे की भुनाई पर मुझे महामकडे के दर्शन। कैसे मैंनें अपना नाम देवीदास विपुल कर दिया। दीक्षा के बाद गुरू महाराज मेरी क्रिया पर विचलित होते थे। दो माह बाद जब बडे गुरू महाराज ने सर पर तीन बार हाथ मार कर भीषण शक्तिपात किया तो मेरी क्रिया बन्द हो गई। पर उनका आशीर्वाद भजान के रूप में दिखता रहा। एक सन्यासी का भी पुत्र प्राप्ति का प्रण टूट गया। बचपन में घर से भागा। भगवान को मिलने के लिये। बेटी को सरकारी नौकरी किस प्रकार मिली। सास ससुर के प्रति लोगों की भावनायें सुनकर मन आहत हुआ किंतु पुत्री का विवाह वहीं क्या जहां धन सम्पत्ति नही सदगुण मिले। किस प्रकार मां दुर्गा की पूजा करते करते कृष्ण मिल गये। बडे महाराज जी मुझे प्रचार हेतु फटकारा। प्रचार प्रसार के सख्त खिलाफ बडे महाराज के स्तर का यह भजन शायद किसी ने लिखा हो। किस प्रकार लोग धर्म के नाम पर ठगी करते हैं। वहीं चमत्कारिक संत आज भी हैं। बीडी पीने पर मां ने किस प्रकार बडे भाई की कुटाई की। किस प्रकार मैं बचपन से ध्यान करने लगा। किस प्रकार एक चरित्रवान और स्वस्थ्य बच्चे और शक्तिशाली राष्ट्र का निर्माण सिर्फ संघ की शाखाओं से ही सम्भव है। फरवरी 2018 में निराकार की अनुभुति हुई, जिसके साथ मैं देह त्याग की सोंचने लगा। इसी के साथ समवैध्यावि की रचना हो गई, जिसके कारण  ईश अनुभूति का शत प्रतिशत दावा। 

अब आगे .......................


शोध निष्कर्ष 


आगे बढने के पूर्व मैं अभिमान रहित होकर अपने अनुभवो से निम्न निष्कर्ष निकालता हूं।
पहला सत्य - सनातन पूर्णतया: सत्य है। ग़ीता की वाणी को अनुभव किया जा सकता है। तुलसी की नवधा भक्ति “मंत्र जाप मोही दृढ विस्वासा।“ सत्य है। मंत्र जप सबसे सरल और सहज मार्ग है। नवार्ण मंत्र की महिमा और देवी पाठ की लीला अपार है जिसको प्रत्यक्ष देख सकते हैं। मैनें सन 1984 में हवन के साथ जाप आरम्भ किया और 7 वर्षों में मां ने कृपा की। बजरंग बली किसी की भी पूजा करो हमेशा सहायक होते हैं। बस उनको पुकारो तो। 


अत: मित्रों आप भी प्रभु प्राप्ति हेतु मंत्र जाप में जुट जाइये। हो सकता है इस ही जन्म में प्रभु कृपा कर दें। 


मेरे अनुभव से सिद्द हो गया है कि ईश्वर है है और है। हलांकि कुछ मूर्ख और उल्टी बुद्दी के तर्कशास्त्री बोलेगें यह मन का भ्रम है कल्पना है मनोविज्ञान है। तो उन गधों को मैं बोलना चाहता हूं कि आज की तारीख में मैं तुमको सनातन के शक्ति के अनुभव की चुनौती देता हूं कि ब्लाग पर दी समवैध्यावि अपने घर पर करो पर ईमानदारी से। यदि तुमको अनुभव न हो तो मुझे जो सजा देना चाहते हो दे देना। जीवन के हर कार्य हेतु समय तो देना ही पडता है। ईश अनुभव कोई फालतू नही कि तुमको बिना समय दिये बिना इच्छा के हो जायेगा।


वैज्ञानिकों को चुनौती  


वैज्ञानिकों तुम दुनिया के सबसे बडे मूर्ख हो। इंसान की बनाई वस्तु उपकरण और यंत्रों पर यकीन करते हो पर इंसान पर नहीं। कोई प्रयोग करने हेतु वर्षों दे सकते हो पर ईश प्राप्ति के अनुभव हेतु समय नहीं है। इस वैज्ञानिक की दुनिया के वैज्ञानिक और मूर्ख हाफकिन जो मर गया उसके प्रयोगों को चुनौती। उसको आवाज और बोलने का जरिया इस भारत की भूमि के एक धार्मिक सनातन साफ्ट्वेयर इंजिनियर ने दी थी। प्राय: जो अपंग़ होता है वह जानते हुये भी ईश को नहीं मानता है। 
 
 

मां ने बचाया


बात 1968 की होगी (वर्ष याद नहीं)  मैं 8 वर्ष का था। अपने दोनो भाई छोटा 4 वर्ष, बडा 12  वर्ष बहिन 14 वर्ष की र्ही होगी। सब नानी के घर से अपने एक चचेरे ताऊ जी स्व. भद्र सेन, जो राजासाहब, पीलीभीत की शुगर मिल में मैंनेजर थे और सब भाईयों की जमीन जिरौनिया गांव में थी, उसकी देख रेख करते थे। हम सब ताऊ जी के घर से उनकी जीप से जिरौनिया गांव गये थे और  कुछ आम लेकर जीप से ही लौट रहे थे। जीप के पीछे तिरपाल का कवर था। मां हम बच्चों के गरदन पर दाहिना हांथ रखकर बेडी पडी साइड सीट पर बैठी थी। 
 
 
अचानक सामने से एक इक्का जिसके घोडे के बांस में आगे नुकीला शंकुनुमा कुछ लगा था। डाईवर ने जीप काटते समय अंदाजा गलत किया। इक्के का शंकु तिरपाल फाडता हुआ मां के दाहिने हाथ की खाल को फाडता हुआ, उनकी 3 पसली की हड्डियां और 2 चिटका आगे निकल गया। मां बताती थी यदि उनका हाथ बडे भाई और छोटे भाई के गले पर न होता तो दोनो का गला कट सकता था। एक बार फिर जननी मां ने देवी मां की लीला से बच्चों पर आई बला खुद पर झेल ली। जीप में खून ही खून। मां करीबन 40 दिन सिविल हस्पताल में रही। 
 
 
 
निजी वार्ड था अत: चलते समय दो नर्स जिनके नाम मेरिआमा और लिली थे। उनको पिता जी ने 100 रुपये उस समय दे दिये थे। वास्तव में उन सिस्टर्स ने बहुत सेवा की थी। मां को मरते समय तक पसली का दर्द होता था पर मां खुश रहती थी कि अपने बच्चों को बचा लिया। माता जी यही कहती थी भगवान ने हर इच्छा पूरी की। मैंनें बच्चों के लिये सिर्फ विद्या मांगी स्वास्थ्य न मांगा। अत: मेरे बच्चे बीमार पड जाते हैं। बच्चों की बीमारी का दोष अपने ऊपर लेती थीं कि मैंनें नही मांगा बच्चों का स्वास्थ्य।


फक्कड पिता कितने मनमौजी 


हम लोगों का खानदान भले ही नामी हो पर हम लोगों का बचपन एक निम्न मध्यमवर्गीय  परिवार में ही गुजरा है। चार बच्चों का बोझ और मामूली पगार। उस पर पिता जी  की खुद्दारी और फक्कडबाजी। मां बताती थी। शादी के बाद दोनों कुछ दिन रामपुर रहे थे। एक दिन पिता जी शाम को ठंड से कांपते हुये शाम को घर लौटे। मां ने पूछा शादी की जैकेट कहां गई। पता चला एक भिखारी सडक किनारे ठंड से कांप रहा था। पिता जी अपनी जैकेट उसको दे आये। दो बार तो अपनी साईकिल तक खाले बाजार में किसी को दे आये थे। 


एम.एफ.हुसैन कुछ नहीं 


वैसे पिता जी क्रोधी तो बहुत थे। पर थे दिल के राजा। यदि उन्होने अपनी कला को बेचा होता तो मकबूल फिदा हुसैन उनके चरणों की धूल तक न था। पिता जी विभिन्न आयामों से नई तरीके से पेंटिग्स बनाते थे। कलकत्ता से पेपर मगांते थे। उसको रंगा। फिर उसको दो दो दिन तल नल के नीचे भिगोया। फिर कुछ किया और धोया महीने महीने भर में एक पेंटिग बनती थी।


हमारे ठग मौसा 


हमारे बडे मौसा इग्लैड में थे। नाम था शायद सत्य प्रकाश सक्सेना। वे दो साल में एक बार आते थे। हम बच्चों और पिता जी को मामूली गिफ़्ट देते थे और पापा की अनेकों पेंटिग्स बिना पैसे ले जाकर बेचते थे। यह ऐसे मालूम पडा कि एक परिचित इंग्लैंड गये। वहां के अलबर्ट हाल में “योगेश” नाम से बनी एक पेंन्टिग टंगी थी। उन्होने यह बताया। तब मालूम पडा कि मेरे सगे पैसेवाले मौसा कितने नीच और गिरे हुये इंसान थे। एक गरीब की मेहनत और लगन हुनर को किस प्रकार ठगते थे। वैसे वो ह्रदय आघात से ही मरे थे पर उनकी आत्मा को शांति तो न मिली होगी। 



वैसे कुछ छटी छटाई पेंटिग्स बची हुई जिसे बडे भाई दो चार और छोटे भाई एडवोकेट राहुल सक्सेना ने लखनऊ के कुर्सी रोड स्थित गायत्री मंदिर गली के स्कूल एस.वी.पी.इंटर कालेज में लगा रखा था। दस पंद्रह उसके घर में रखी हैं। पिता जी लकडी के पटरों, पत्थरों, दीवारों पर ऊंगली में पेंट लगाकर घुमा देते थे। बस एक मार्डन आर्ट बन जाती थी।
कला नहीं बेचूंग़ा 
 
 

एक बार ह्जरत गंज स्थित वर्मा जी जो मां के स्कूल के सी.ए. थे। उन्होने पिता जी से बोला
मास्टर साहब आप कैलेडर कम्पनी के लिये काम करें। ड्राइंग बनायें। कुछ पैसा मिल जायेगा। इतना सुनना था पिता जी का पारा सांतवे आसमान पर। “तुम मुझे मेरी कला को गिरवी रखने को बोल रहे हो। तुरंत घर से निकल जाओ” पिता जी चिल्लाकर बोले। यह थी उनकी खुद्दारी। आज जब पैसे के लिये लोगों को कुकर्म करते देखता हूं। तो पिता जी ही याद आते हैं। उन्होने न कभी उसूलों से सौदा किया और न कभी अपना दर्द किसी को बताया। कहा जाये तो वे दुर्वासा ऋषि ही थे। 



पिता जी कवि भी बहुत भावुक और क्रांतिकारी थे। उनकी कुछ कविताओं की धरोहर मेरे पास अभी तक सुरक्षित है जिनको मुझे छपवाना है। कुछ कवितायें उनका एक छात्र चुरा ले गया था। 


बेटी की इच्छा पूरी न हुई 


मेरी बेटी की इच्छा थी कि वो बडी होकर पिता जी से कला सीखे। पर जब वह पढ रही थी। पिता जी की मृत्यु 2006 में हो गई। पर पिता जी का डी.एन.ए. हम बच्चों में आ गया। बडी  बहन को रंजनकला और कविता। बडे भाई को मानवीय चित्रांकन और कविता। छोटे भाई को तुकबंदी कविता। मैं तो जो हूं आप जानते ही हैं। 


मां का संघर्ष 


मां ने विवाह के 20 वर्ष बाद इंटरमीडियेट, बी.ए. और एम.ए. किया। घर की तंग हालत देखकर कुछ करने की सोंची। तो मेरी मां वर्ष 1964 में त्तत्कालीन आई.जी. पुलिस, उत्तर प्रदेश स्व. निगमेंद्र सेन सक्सेना जो पिता जी के सगे चचेरे भाई थे। उनसे मिलने गईं। पिता जी को अपनी गरीबी का गर्व रहता था। अत: वह किसी भाई से मिलते ही नहीं थे। अत; माता जी अकेले गई थी। वहां ताऊ जी ने बोला। “बेटा मैं एक ईमानदार पुलिस अधिकारी। मेरे पास सिर्फ तुम्हारे लिये आशीर्वाद है। मैं तुमको यह एक सौ रूपये देता हूं। इससे तुम जनसेवा हेतु स्कूल खोलो। ईश्वर तुम्हारी सहायता करेगा”। मैं तुम्हारे घर जरूर आऊंगा। चाहे योगी (मेरे पिता जी को सब यही कहते थे) मुझे धक्के मारे”। उन सत्त पुरूष का आशीर्वाद था कि आज छोटे भाई साहब उस नन्हे से बीज के सहारे ही नेतागीरी के साथ परिवार चला रहें हैं। 



मां ने जन सेवा हेतु स्कूल खोला 


मां ने उन सौ रूपयों से मुझे याद है। पांच बेंच और पांच डेस्क बनवाकर बावली बाजार सहादतगंज के एक मंदिर में “शिशु विद्या पीठ” स्कूल खोला। घर घर जाकर प्रचार किया। जन सेवा की भावना पूर्ति के साथ कुछ कमाई भी हो जाती थी। कितने बच्चों को निशुल्क पढाया। बडी दीदी के नाम से मशहूर उस स्कूल से सआदगंज की आधी पापुलेशन ने पढाई की होगी। 
 


ईमानदारी की सीमा 


अंग्रेजों के आई.पी. स्व. निगमेंद्र सेन स्वतंत्रता पूर्व ग्रेजुएशन कर पंडित नेहरू के पास गये थे तो नेहरू ने कहा था “तुम नौकरी करो। होनहार हो”। स्वतंत्रता बाद वह नेहरू के प्रिय बने रहे। पर वे थे बेहद ईमानदार। मेरे दूसरे ताऊ जी स्व. धर्मेंद्र सेन जो नौबस्ते मोहल्ले में रहते थे। वे बताते थे। निग्मेंद्र दादा बिटिया की शादी  नहीं हो पा रही है। कारण लडका आई.ए.एस. हो पर ईमानदार हो, शराब, सिगरेट न पीता हो। कायस्थों में यह शर्त पूरी होना असम्भव। बाद में उन्होने एक दिन बताया निग्मेंद्र दादा रिटायर हो गये नरेंद्र दादा के घर  आये थे। कह रहे थे मुझे रिटायर्मेंट मे अट्टानवें हजार मिले है। लखनऊ में कोई घर खरीद दो। 



सिफारिश नहीं 


वर्ष 1982 में बडे भाई लोक सेवा चयन आयोग में डी.आर.डी.एल. में वैज्ञानिक “बी” के पद हेतु साक्षात्कार के लिये दिल्ली हये थे। जहां उनको कलाम साहब ने पसन्द किया और नौकरी दे दी थी। वहीं ताऊ जी का बोर्ड लगा था। उत्सुकतावश भाई साहब ने उनसे भेंट की इच्छा की। आज्ञा मिली। जब अंदर गये तो ताऊ जी फोन पर किसी को गुस्से में बोल रहे थे “ यह बूटा सिंह, एक नम्बर का चोर, यदि मैं अभी पुलिस में होता तो उसे जेल में डाल देता”। भाई साहब ने अपना परिचय दिया और बोला “ ताऊ जी मैं बस ऐसे ही मिलने आया हूं। किसी सिफारिश के लिये नहीं आया हूं। इस पर ताऊ जी बोले बेटा मैं सिफारिश कर भी नहीं सकता। 


स्व. धर्मेद्र सेन बहुत मिलनसार थे। यू.पी. मेडिकल बोर्ड में निदेशक के कार्यालय के प्रमुख थे। उनके हाथ में प्रदेश भर के सरकारी डाक्टरों के ट्रांसफर की क्षमता थी। पर वे भी ईमानदार सूर्य उपासक। एक बार एक डाक्टर ने उनको खुश होकर बीस रूपये दे दिये। ताऊ जी का पारा चढ गया। नोट फाड कर फेंक दिया और उसका ट्रांसफर रुकवा दिया। वे गुजारे के लिये होमगार्ड में भी शाम को सेवा देते थे। एक बार एक बदमाश ने रिवाल्वर निकाल ली थी। ताऊ जी ने निहत्थे उसको पकड लिया था। पर एक गोली हाथ में लग गई थी। पर मजा देखिये वीरता पुरस्कार इंस्पेक्टर को मिला जो पकडने के बाद पहुंचा। 



रिश्वत बुरी नहीं 
 


वहीं हमारे सगे ताऊ स्व. नरेंद्र सेन, जो कस्टम और एक्साइज में अधीक्षक थे, रिश्वत को बुरा नहीं मानते थे। जिस कारण पिता जी उनसे बात नहीं करते थे। जब भी वे हमारे घर आते पिता जी घर से गायब हो जाते थे। धन में बहुत बडे अंतर के कारण हम लोगों को अक्सर उनके घर कभी ताई जी से, कभी बच्चों से अपमानित होना पडता था। आज हम भाई उनसे प्रतिष्ठा में काफी ऊपर हैं। सब समय का फेर है। ऊपर की पीढी अनंत में जा चुकी है। हम सब अलग अलग शहरों में रह रहे हैं। यदा कदा मिलन हो पाता है। हम भाईयों में माता जी की वजह से कोई लत नहीं। पर ताऊ जी के बेटे सर्वगुणी यानी सब शराब, सिगरेट, मांसाहार इत्यादि सब का शौक। 


मां मैहर ने बचाया 


वर्ष 1984 में मैं जब कलकत्ता शा वालेस साक्षात्कार हेतु गया था। तो लौटते पर मैहर स्टेशन पडा। देवी जी का नाम सुनकर ब्रेक जर्नी की और मैहर देवी के मंदिर पहुंचा। दर्शन किये। जब लौट रहा था तो मुझे लगा भीड अधिक है। रेलिंग गिर सकती है। अत: मैं बाईं रेलिग से हटकर धीरे धीरे बीच में आ गया। यह क्या। दस मिनट भी न हुये। बाईं रेलिंग जिसपर मैं चल रहा था। टूट गई और सैकडों लोग गिर गये। कुछ घायल हुये लोग पर मरा कोई न था। यह क्या था मैहर मां ने बचा लिया। बाद में मैंनें प्रसाद की चूडी को अपनी पहले राउंड की बात वाली, जो अभी पत्नी है, उसको भेंट करने हेतु मीडियेटर के हाथों भिजवा दिया था। 


सरस्वती पुत्र या पियक्क्ड 


याद पडता है वर्ष 1991 जब मैंने वाशी स्थित नवनिर्मित जैन मंदिर, बस स्टेशन के पास,  में तेरापंथ युवक परिषद के सचिव मंगलम ज्वैलर्स के मालिक स्व. चिम्मन सिंघवी के द्वारा एक कवि सम्मेलन का आयोजन कराया। यह मेरे द्वारा आयोजित पहला कवि सम्मेलन था। जिसमें मैंनें सुभाष काबरा को संचालन दिया था। मुख्य कवि स्व. शैल चतुर्वेदी थे। जो लेट आये। काली कार से आये और जैन मंदिर के प्रांगण में अपनी कार से उतरने से पहले कार में ही दारू पीने लगे। जिसको किसी ने देख लिया। बस उसके बाद अभी तक जैन मंदिर में कोई कवि सम्मेलन नहीं हुआ है। बाद में वहां दिगम्बर जैन मंदिर भी बना। जिसमें स्व. नैनसी साहब का बडा योगदान था। 



मिला देवदूत वारिश में


वर्ष 2017 की अगस्त की बात है। बिटिया बंगलोर से आई थी। उसको वापिस जाने के लिये छोडने डोमेस्टिक एयर पोर्ट तक जाना था। फ्लाइट साढे पांच की। दो बजे अपनी कार से ड्राइवर कमलेश शुक्ला के साथ निकले। अचानक बूंदाबांदी तेज हो गई। सांताक्रुज पहुंचते पहुंचते पानी बढ गया। कार रोक दी। क्या करे। पानी रूकने का नाम न ले। ट्रैफिक जाम। आधे घंटे बाद कार छोडी। मैंने बिटिया के सामान की अटैची को सर पर रखा। बिटिया ने बेटे को सिर पर कांधे पर बैठाया। और चल दिये। सांताक्रुज जंक्शन पर कमर तक पानी। सब वाहन ठहरे। क्या करें। एयर पोर्ट दो किमी। सामान भारी। अब भगवान को याद किया। अचानक एक ऊंचे पहियोंवाली गाडी चली आ रही थी। निवेदन किया। उसने बैठा लिया और एयर पोर्ट मोड तक छोडा। ब्रिज के बाईं तरफ गले तक पानी। अत: सारा ट्रेफिक दाईं तरफ से आये जाये। पैदल सामान घसीटते मोड तक ले गये। कुछ कम पानी। एक आटो 500 रूपये में आधा किमी दूर एयर पोर्ट तक छोडने को राजी। एयर पोर्ट बिटिया पहुची। फ्लाइट लेट थी पर बोर्डिंग पास विंडो बंद। कैसे बिटिया ने निवेदन किया। बोर्डिंग पास मिला। मैं पैदल दो किमी वापिस पहुंचा। कही कहीं कमर के ऊपर पानी। उस दिन जिनके फोन नहीं भी आते थे। न्यूज देखकर हाल चाल हेतु फोन करने लगे। फोन भीगा। एक गणपति पंडाल में सिम सुखाया। किसी तरह गिरते पडते टूटी चप्पल के साथ कलीना ब्रिज के ऊपर खडी कार तक पहुचे। 



सलाम मुम्बई
 
 

यहां एक बात कहनी पडेगी। मुम्बई के तरह हिंदुस्तान का कोई शहर नहीं। आपदा में कितने लोग सीवर में होल जो पानी में डूब जाते हैं। उनपर लाल झंडिया लगाकर। बेरीकेडिंग कर। हाथ पकडकर पार कराते लोग। एक अलग दृश्य। कोई बदतमीजी नहीं। केवल सहयोग ही सहयोग और घरों को भागते पद यात्री। फिर भी एक बडे डाक्टर दीपक अमरापुरकर की मेहोल में गिरकर हुई मौत दुखद थी। कलीना ब्रिज के चारो ओर पानी ही पानी। काफी घूमने के बाद स्पीड में डाइवर ने गाडी निकाली और अंधेरी की तरफ मोडी। तो दो लडकियां रोती मिली। कुल तीन लडकियों को और एक लडके को गोरेगांव तक छोडा फिर ऐरोली ब्रिज से पंक्चर टायर से गाडी चलाते हुये सुबह तीन बजे घर पहुंचे। तब तक बिटिया बंगलोर पहुंच कर सो चुकी थी। 
 
 

यहां यह देखिये। वह मेरे लिये देवदूत ही था। जिसने इतने पानी में सहायता की। मैंनें निशुल्क लोगों को गोरेगांव छोड दिया। यानी “कर भला तो हो भला”। संकट में पडे व्यक्ति की सहायता करने का स्वभाव बनाओ और भूल जाओ। प्रभु तुम्हारी सहायता अवश्य करेगा। वह तुम्हारे उपकार को नहीं भूलेगा।  
 
 

तीन वर्ष की बिटिया को भगवान ने बचाया
 
 

वर्ष 1990 में मैं नेरूल रहने चला गया। पता था ई-4, सी10, सेकटर 10। बिटिया को केजी में त्रेरणा स्कूल मे डाला। जो पीछे की सडक पर था। सडक पार कर जाना पडता था। सुबह के समय चहल पहल कम ही रहती थी। मैं बिटिया का हाथ पकडकर बीच के डिवाइडर तक पहुंचा कि पीछे से एक लडका, जरूर नौसीखिया था, स्कूटर का हार्न बजाता हुआ आया। मैंनें चिल्लाते हुये बोला प्राची और प्राची का हाथ छोडा कि प्राची दूसरी तरफ दौडते हुये हो गई। यदि मेरी तरफ आती तो दुर्घटना निश्चित थी। मात्र दो सेकेंड के अंतराल से बिटिया बच गई थी। 
 
 

 यह सब मां की कृपा थी। आज भी यह घटना एक सिहरन ला देती है
 
 

ऐसे ही मैं कहीं गया था। शायद गोवा। जहां एक शांत झील में पैडलवाली नांव पर मैं और बिटिया पानी में उतर गये। नाव चलाकर लौटे तो मैं पहले उतरा। अचानक नाव सीधी हुई और झटके से बिटिया नाव पर ही गिरी। कहीं पानी में गिरती तो?? मेरे वजन के कारण नाव मेरी ही तरफ झुक कर चल रही थी। 
 
 

आप देखें कभी अपने जीवन के झरोखे में, झांकें कभी अपने अतीत में आपको साफ नजर आयेगा। आपकी हर सफलता और जीवन रक्षा में प्रभु आपके साथ ही था। हर अनहोनी घटना में संयोग प्रभु का ही था। हर दुर्घटना में हमारा कोई पाप या दुष्कर्म हमें दंडित कर रहा होता है। आज हम अपनी सफलता को अपना कर्म मानकर अपने को कर्मयोगी बोलने लगते हैं। पर हर अनचाही घटना को प्रभु का दोष बताते हैं। अपने गलत कर्मों को स्वीकार न करके, अहंकार और दर्प के कारण प्रभु से और दूर हो जाते हैं। 
 
 

यही विडम्बना है हमारी आपकी। आखिर कलियुग है न। पर याद रखो इस युग में प्रभु से न मिल सके तो कभी न मिल सकोगे। प्रभु प्राप्ति हेतु यह युग सर्वश्रेष्ठ है। जागो मेरे भाई जाग जाओ। बिना गुरू और पैसे के अपने घर पर ही प्रभु का अनुभव करो। ब्लाग पर दी समवैध्यावि कर के।  
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...................... क्रमश: ..........................


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"MMSTM समवैध्यावि ध्यान की वह आधुनिक विधि है। कोई चाहे नास्तिक हो आस्तिक हो, साकार, निराकार कुछ भी हो बस पागल और हठी न हो तो उसको ईश अनुभव होकर रहेगा बस समयावधि कुछ बढ सकती है। आपको प्रतिदिन लगभग 40 मिनट देने होंगे और आपको 1 दिन से लेकर 10 वर्ष का समय लग सकता है। 1 दिन उनके लिये जो सत्वगुणी और ईश भक्त हैं। 10 साल बगदादी जैसे हत्यारे के लिये। वैसे 6 महीने बहुत है किसी आम आदमी के लिये।"  देवीदास विपुल 



 गुरु की क्या पहचान है? आर्य टीवी से साभार गुरु कैसा हो ! गुरु की क्या पहचान है? यह प्रश्न हर धार्मिक मनुष्य के दिमाग में घूमता रहता है। क...