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Tuesday, August 14, 2018

नही पूरी आजादी है (काव्य)



   कहूं कैसे आजादी है
सनातन पुत्र देवीदास विपुल "खोजी" 


 विपुल सेन उर्फ विपुल लखनवी,
(एम . टेक. केमिकल इंजीनियर) वैज्ञानिक एवं कवि
सम्पादक : विज्ञान त्रैमासिक हिन्दी जर्नल वैज्ञनिक ISSN 2456-4818
मो.  09969680093
  - मेल: vipkavi@gmail.com  वेब:  vipkavi.info वेब चैनलvipkavi.info
फेस बुक:   vipul luckhnavi “bullet"

जब सम्मान कानून समान न होवे।
कहूं कैसे आजादी है।। 

जब विश्वास न्याय न होवे।
कहूं कैसे आजादी है।।

ये ही बाते करते सुनते।
वर्ष इकहत्तर बीत गये।।

पर अपनो से लुटे है कितने।
किस्से कैसे रीत गये।।

देश भक्ति की बातें सुंदर।
वर्ष में दो बार करते हैं।।

फिर अपनी करनी में आकर।
कार्य विरोधी करते हैं।।

कही सड़क पर गुटका थूका।
कहीं कोने में कर बैठे।।

रद्दी कागज सडक पे फेके। 
ऐठ के घर मे हम बैठे।।

क्या मानस तनिक भी अपना।
देश की सोंचा करते हैं।।

राष्ट्र भक्ति की बातें करके।
उल्लू सीधा करते है।।

जब तक जन मानस में।
यह विचार न आयेगा।।

देश हमारा धर्म से ऊपर।
ये न समझाया जाएगा।।

तब तक सब खोखलापन है।
सच्ची आजादी न होगी।।

विपुल कलम भारी मन लेकर।
                                                जय हिंद बोली होगी।।

प्रेम से उपजा जहाँ यह



              प्रेम से उपजा जहाँ यह 


सनातन पुत्र देवीदास विपुल "खोजी" 


 विपुल सेन उर्फ विपुल लखनवी,
(एम . टेक. केमिकल इंजीनियर) वैज्ञानिक एवं कवि
सम्पादक : विज्ञान त्रैमासिक हिन्दी जर्नल वैज्ञनिक
 वेब:  vipkavi.info वेब चैनलvipkavi


प्रेम से उपजा जहाँ यह। प्रेम से ही यह चले।।
प्रेम से सब सृष्टि निर्मित। प्रेम पग पग पर मिले।।
प्रेम की परिभाषा इतनी। न तनिक मुझको मिले।।
प्रेम से उपजा जहाँ यह। प्रेम से ही यह चले।।

प्रेम न हो गर जहाँ में। सृष्टि यह मिट जाएगी।।
दानवी असुरों के संग। यह धरा मिट जाएगी।।
आंख खोलो और देखो। प्रेम से ही सब मिले।।
प्रेम से उपजा जहाँ यह। प्रेम से ही यह चले।।

प्रेम बिन गर सोंचते हो। तुम ख़ुदा पा जाओगे।।
मिट जाओगे इस जहाँ से। पर नही कुछ पाओगे।।
प्रेम कर लो सृष्टि से तुम। प्रेम से अल्लाह मिले।।
प्रेम से उपजा जहाँ यह। प्रेम से ही यह चले।।

चाहे कितनी पूजा कर लो। अता कर कितनी नमाज़ें।।
चाहे कितनी ऊंची कर लो। बाग की अपनी आजाने।।
पर तुझे न मिल सकेगा। चाहे कुछ भी कर ढले।।
प्रेम से उपजा जहाँ यह। प्रेम से ही यह चले।।

चाहे कोई मानव हो या।जीव हो गर भी पराया।।
एक प्रभु सबमें छुपा है। नही कोई है जीव जाया।।
प्रेम करना सीख पगले। प्रेम से खुद को मिले।।
प्रेम से उपजा जहाँ यह। प्रेम से ही यह चले।।

प्रेम करना श्रेष्ठ सबसे। कह रहा कविवर विपुल।।
प्रेम से कुछ भी न ऊंचा। प्रेम चलकर बनता कुल।।
प्रेम की वाणी लिखी है। प्रेम से वाणी खिले।।
प्रेम से उपजा जहाँ यह। प्रेम से ही यह चले।।

           विपुल लखनवी। नवी मुंबई।

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