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Thursday, October 18, 2018

यह मैं कौन है???




यह मैं कौन है???

सनातनपुत्र देवीदास विपुल "खोजी"

 विपुल सेन उर्फ विपुल लखनवी,
(एम . टेक. केमिकल इंजीनियर) वैज्ञानिक एवं कवि
सम्पादक : विज्ञान त्रैमासिक हिन्दी जर्नल “वैज्ञनिक” ISSN 2456-4818
 वेब:  vipkavi.info वेब चैनलvipkavi
फेस बुक:   vipul luckhnavi “bullet"


मैं कौन हूं?? यह प्रश्न यदि आपके मन में आ गया और यह आपको परेशान करता है तो आप यह समझें कि आपके कल्याण का मार्ग खुल रहा है। कारन आम आदमी जगत की माया मोह और प्रपंच में इतना अधिक फंसा हुआ है कि उसे आत्म चिंतन का समय ही नहीं है। क्योंकि  सारा समय तो जगत के पीछे भागने में बीता दिया है और जो बचा है तो कुछ करने लायक नहीं। इस घडी में प्रभु चिंतन और खुद को जानने की भी इच्छा भी नहीं। कोई जगाये तो जगानेवाले के ही कान के नीचे देने का मन करता है। यही आधुनिक मानव की सोंच और वृत्ति है।

मैंनें एक सुफियाना भजन कभी लिखा था। उसकी कुछ पंक्ति है।
जब भी सोंचा ख्याल आ गया कैसे जीवन निकल ही गया।
न इबादत खुदा की करी हाथ मल रोता ही रह गया॥
गौर कर देखा सूरज को जब तेज देखा न मुझसे गया।
आंख खोली तो देखा है अब न था सूरज कहां छिप गया।।

पर वहीं आठ वर्ष की आयु में आदिगुरू शंकराचार्य ने अपने महावाक्यों का अनुभव कर अपना परिचय दिया। मैं कौन हूं।

मनोबुद्ध्यहंकार चित्तानि नाहं न च श्रोत्रजिह्वे न च घ्राणनेत्रे ।
न च व्योम भूमिर्नतेजो न वायुः चिदानन्दरूपः शिवोऽहम् शिवोऽहम् ॥१॥

अर्थ : मैं मन, बुद्धि, अहंकार और स्मृति नहीं हूं, न मैं कान, जिह्वा, नाक और नेत्र हूं । न मैं आकाश, भूमि, तेज और वायु ही हूं, मैं चैतन्य रूप हूं, आनंद हूं, शिव हूं, शिव हूं ।

न च प्राणसंज्ञो न वै पञ्चवायुः न वा सप्तधातुः न वा पञ्चकोशः ।
न वाक्पाणिपादं न चोपस्थपायु चिदानन्दरूपः शिवोऽहम् शिवोऽहम् ॥२॥

 
अर्थ : न मैं मुख्य प्राण हूं और न ही मैं पञ्च प्राणोंमें (प्राण, उदान, अपान, व्यान, समान)  कोई हूं, न मैं सप्तधातुओंमें (त्वचा, मांस, मेद, रक्त, पेशी, अस्थि, मज्जा) कोई हूं और न पञ्चकोशोंमें (अन्नमय, मनोमय, प्राणमय, विज्ञानमय, आनंदमय) से कोई, न मैं वाणी, हाथ, पैर हूं और न मैं जननेंद्रिय या गुदा हूं, मैं चैतन्य रूप हूं, आनंद हूं, शिव हूं, शिव हूं ।


न मे द्वेषरागौ न मे लोभ मोहौ मदो नैव मे नैव मात्सर्यभावः।
न धर्मो न चार्थो न कामो न मोक्षः चिदानंदरूपः शिवोऽहं शिवोऽहम् ॥३॥

 
अर्थ :न मुझमें राग और द्वेष हैं, न ही लोभ और मोह, न ही मुझमें मद है, न ही ईर्ष्याकी  भावना, न मुझमें धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष ही हैं, मैं चैतन्य रूप हूं, आनंद हूं, शिव हूं, शिव हूं ।

न पुण्यं न पापं न सौख्यं न दुःखम् न मंत्रो न तीर्थ न वेदा न यज्ञाः।
अहं भोजनं   नैव   भोज्यं न  भोक्ता चिदानंदरूपः शिवोऽहं शिवोऽहम् ॥४॥

अर्थ : न मैं पुण्य हूं, न पाप, न सुख और न दुःख, न मन्त्र, न तीर्थ, न वेद और न यज्ञ, मैं न भोजन हूं, न भोज्य(खाया जानेवाला) हूं, और न भोक्ता(खानेवाला) हूं, मैं चैतन्य रूप हूं, आनंद हूं, शिव हूं, शिव हूं ।

न मे मृत्युशंका मे जातिभेदः पिता नैव मे नैव माता न जन्म।
न बन्धुर्न मित्रं गुरुर्नैव शिष्यः चिदानंदरूपः शिवोऽहं शिवोऽहम् ॥५॥

अर्थ : न मुझे मृत्यु का भय है, न मुझमें जातिका कोई भेद है, न मेरा कोई पिता ही है, न कोई माता ही है, न मेरा जन्म हुआ है, न मेरा कोई भाई है, न कोई मित्र, न कोई गुरु ही है और न ही कोई शिष्यमैं चैतन्य रूप हूं, आनंद हूं, शिव हूं, शिव हूं ।

अहं निर्विकल्पो निराकाररूपः विभुर्व्याप्य सर्वत्र  सर्वेन्द्रियाणाम्।
सदा मे समत्वं न मुक्तिर्न बन्धः चिदानंदरूपः  शिवोऽहं शिवोऽहम्॥६॥

अर्थ : मैं समस्त संदेहोंसे परे, बिना किसी आकारवाला, सर्वगत, सर्वव्यापक, सभी इन्द्रियोंको व्याप्त करके स्थित हूं, मैं सदैव समतामें स्थित हूं, न मुझमें मुक्ति है और न बंधन, मैं चैतन्य रूप हूं, आनंद हूं, शिव हूं, शिव हूं ।

अत: पहले ये जानना चाहिए कि ये मैं कौन है, मेरे अस्तित्व की प्रकृति क्या है?
एक घटना घटी। एक बहुत ही महत्वपूर्ण दिखने वाला आदमी एअरपोर्ट में घुस गया। चेक-इन काउंटर पर एक लम्बी कतार थी। ये आदमी लाइन तोड़ कर सीधा काउंटर पर चला गया और अपना पासपोर्ट और टिकट दिखाने लगा।
काउंटर संभाल रही महिला बोलीं - "सर यहां एक लाइन है, कृपया लाइन में खड़े हो जाएं।"
वो बोला - "नहीं, नहीं मैं जल्दी में हूँ, मुझे जाना है।"
वो बोली - "नहीं, कृपया लाइन में खड़े हो जाएं"।
फिर वो बोला - "क्या तुम जानती हो मैं कौन हूँ?"
महिला ने एकदम से माइक उठा लिया और बोली - "यहां एक आदमी है जो ये नहीं जानता कि वो कौन हो,  क्या कोई उसकी मदद कर सकता है?"
उसकी कोई भी मदद नहीं कर सकता, क्योंकि हर कोई उसी स्थिति में है। हर कोई खुद का असल स्वरुप जाने बिना यहां जी रहा है। इसके बारे में बुनियादी बातें जाने बिना ही हम अपना जीवन जीने की कोशिश कर रहे हैं। सारी अस्त-व्यस्तता इसी वजह से है।

"मैं कौन हूँ?" - ये प्रश्न आपके जीवन का सबसे गूढ़ प्रश्न है।
अगर आप ये नहीं जानते कि आप कौन हैं, तो क्या आप कोई भी अन्य चीज़ निश्चित तौर पर जानते हैं? अगर आप इतना भी नहीं जानते कि आप कौन हैं, तो क्या आप किसी अन्य को या किसी अन्य चीज़ को जानने में सक्षम हो पाएंगे?  अगर आप नहीं जानते कि आप कौन हैं, तो सब कुछ एक बड़े मजाक की तरह हो जाता है। तब एकमात्र सांत्वना ये होती है, कि हर कोई आपके साथ है। ये पहली और सबसे जरुरी चीज़ है जो आपको अपनी जिन्दगी में करनी चाहिए। सबसे पहले ये जानना चाहिए कि ये (खुद की ओर इशारा) कौन है, मेरे अस्तित्व की प्रकृति क्या है? अगर आप अपने अस्तित्व की प्रकृति नहीं जानते तो आप संयोग से अपना जीवन जीएंगे। सब कुछ संयोग-वश, और धारणाओं और राय के आधार पर होगा। इसमें सत्य नहीं होगा।

"मैं कौन हूँ?" - ये प्रश्न आपके मन और शरीर में चीख रहा है। अगर आप बस सतही बकवास को साफ कर दें, तो ये प्रश्न, उत्तर जानने के लिए चीखता प्रतीत होगा।
जब आप मन की सतही बकबक साफ़ नहीं करते तो "मैं कौन हूँ?" बस एक प्रश्न है। अगर आप सतही बकबक साफ़ कर दें, तो आप देखेंगे कि "मैं कौन हूँ?" ही सब कुछ है। और कुछ भी नहीं है, ये सबसे बड़ी चीज़ है।
ये प्रश्न "मैं कौन हूँ?" कोई प्रयोग या जिज्ञासा मात्र नहीं है। ये ऐसी चीज़ है जो आपको चीरने लगती है। जब तक ये आपको चीर के दो टुकड़े न कर दे, तब तक आप ये नहीं जान पाएंगे कि अंदर कौन है।

प्रत्येक मनुष्य को विचार करना चाहिए कि ‘मैं कौन हूँ’ और मेरा क्या-कर्तव्य है? मैं नाम, रूप-देह, इन्द्रिय, मन या बुद्धि हूँ या इनसे कोई भिन्न वस्तु हूँ विचार पूर्वक निर्णय करने से यही बात ठहरती है कि मैं नाम नहीं हूँ मुझे आज मनोहर कहते हैं परन्तु जब प्रसव हुआ या उस समय इसका नाम मनोहर नहीं था यद्यपि मैं उपस्थित था। घरवालों ने कुछ दिनों के पश्चात नामकरण किया। उन्होंने उस समय मनोहर नाम न रखकर मोहन रखा होता तो आज मोहन कहलाता और अपने को मोहन ही समझता। मैं न पूर्वजन्म में मनोहर था, था और न शरीर नाश के बाद मनोहर रहूँगा। यह तो केवल घर वालों का निर्देश किया साँकेतिक नाम है। यह नाम एक ऐसा कल्पित है कि जो चाहे जब बदला जा सकता है, और उसी में उसका अभिमान हो जाता है। जो विवेकवान् पुरुष इस रहस्य को समझ लेता है कि मैं नाम नहीं हूँ वह नाम की निन्दा-स्तुति से कदापि सुखी-दुखी नहीं होता। जब मनुष्य ‘नाम’ की निन्दातुति में सम नहीं है, निन्दा-स्तुति में सुखी-दुखी होता है तब वह नाम न होने पर भी ‘नाम’ बना। बैठा है जो सर्वथा भ्रमपूर्ण है। जो इस रहस्य को जान लेता है उसमें इस भ्रम की गन्ध मात्र भी नहीं रहती। इसीलिए भगवान कृष्ण ने गीता में तत्व-वेत्ता पुरुषों के लक्षणों को बतलाते हुए उन्हें निन्दा और स्तुति में सम बतलाया है।

इसी प्रकार रूप-देह भी मैं नहीं हूँ, क्योंकि देह जड़ है और मैं चेतन हूँ, देह क्षय, वृद्धि, उत्पत्ति और विनाश धर्म वाला है, मैं इनसे सर्वथा रहित हूँ। बालकपन में देह का और ही स्वरूप या और अब युवापन में दूसरा ही है तथा कुछ समय बाद वृद्धावस्था में कुछ और ही हो जायगा। किन्तु मैं तीनों अवस्थाओं को जानने वाला तीनों में एक ही हूँ। किसी पुरुष ने मुझको बाल्यावस्था में देखा था, अब वह मुझसे मिलता है तो मुझे पहचान नहीं सकता। देह का रूप बदल गया। शरीर बढ़ गया। दाढ़ी मूंछें आ गईं। इससे वह नहीं पहचानता! किन्तु मैं पहचानता हूँ मैं उससे कहता हूँ आपका शरीर युवावस्था से वृद्ध होने के कारण उसमें कम अंतर पड़ा है, इससे मैं आपको पहचानता हूँ। मैंने आपको अमुक जगह देखा था। उस समय मैं बालक था अब मेरे शरीर में बहुत परिवर्तन हो गया, अतः आप मुझे नहीं पहचान सकें। इससे यह सिद्ध होता है कि शरीर ‘मैं’ नहीं हूँ। ‘शरीर-मैं, ऐसा अभिमान भी पूर्वोक्त नाम के समान ही सर्वथा भ्रमपूर्ण है। जो पुरुष इस रहस्य को जानते हैं वे शरीर के मानापमान और सुख-दुःख में सर्वथा सम रहते हैं। क्योंकि वे इस बात को समझ जाते हैं कि मैं शरीर से सर्वथा पृथक हूँ।

समः शत्रोचमित्रेच तथा मानापमानयोः।” (गीता 1298) “मानापमानयो स्तुल्यः” (गीता 1425)
सम दुःख सुन्त्रः” (गीता 1428)

अतएव विचार करने से यह प्रत्यक्ष सिद्ध होता है कि यह जड़ शरीर मैं नहीं हूँ, मैं इस शरीर का ज्ञाता हूँ और प्रसिद्ध भी यही है कि शरीर ‘मेरा’ है। मनुष्य भ्रम से ही शरीर में आत्मोभिमान करके मानापमान और सुख-दुख से सुखी-दुखी होता है। इससे यह सिद्ध हुआ कि मैं शरीर नहीं हूँ। इसी तरह इन्द्रियाँ भी मैं नहीं हूँ। हाथ पैरों के कट जाने, आँखें नष्ट हो जाने और कानों के बहरे हो जाने पर भी मैं ज्यों का त्यों पूर्ववत रहता हूँ, मरता नहीं। यदि में इन्द्रिय होता तो उसके विनाश में मेरा विनाश होना सम्भव था। अतएव थोड़ा सा भी विचार करने पर यह प्रत्यक्ष प्रतीत है कि मैं जड़ इन्द्रिय नहीं हूँ। वरन् इन्द्रियों का दृष्टा या कर्ता हूँ।

इसी प्रकार मैं मन भी नहीं हूँ। सुपुति काल में मन नहीं रहता, परन्तु में रहता हूँ इसीलिए जागने के बाद मुझको इस बात का ज्ञान है कि मैं सुख से सोया था। मैं मन का ज्ञाता हूँ। दूसरों की दृष्टि में भी मन के अनुपस्थिति काल में (सुपुप्तिया मूर्छित अवस्था में) मेरी जीवित सत्ता प्रसिद्ध है। मन विकारी है इसमें भाँति-भाँति के संकल्प-विकल्प होते रहते हैं। मन में होने वाले इन सभी संकल्प-विकल्पों का मैं ज्ञाता हूँ। खान-पान, स्नान आदि करते समय यदि मन दूसरी ओर चला जाता है तो उन कामों में कुछ भूल हो जाती है फिर सचेत होने पर मैं कहता हूँ मेरा मन दूसरी जगह चला गया था, इस कारण मुझसे भूल हो गई। क्योंकि मन के बिना केवल शरीर और इन्द्रियों से सावधानीपूर्वक काम नहीं हो सकता। अतएव मन चंचल और चल है, परन्तु मैं स्थिर और अचल हूँ। मन कहीं भी रहे, कुछ भी संकल्प-विकल्प करता रहे, मैं उसको जानता रहता हूँ, अतएव मैं मन का ज्ञाता हूँ, मन नहीं हूँ।

इसी तरह मैं बुद्धि भी नहीं हूँ क्योंकि बुद्धि भी क्षय और वृद्धि स्वभाव वाली है मैं क्षय वृद्धि से सर्वथा रहित हूँ। बुद्धि में मन्दता, तीव्रता, पवित्रता, मलिनता, विकार, व्यभिचारादि होते हैं परन्तु मैं उसकी इन सब स्थितियों को जानने वाला हूँ। मैं कहता हूँ उस समय मेरी बुद्धि ठीक नहीं थी अब ठीक है। बुद्धि कब क्या विचार रही है और क्या निर्णय कर रही है, इसको मैं जानता हूँ। बुद्धि दृश्य है मैं उसका दृष्टा हूँ। अतएव ‘बुद्धि का मुझसे पृथकन्ध सिद्ध है मैं बुद्धि नहीं हूँ।

इस प्रकार मैं नाम, रूप, देह, इन्द्रिय, मन, बुद्धि प्रभृति नहीं हूँ। मैं इन सबसे सर्वथा अतीत, इनसे सर्वथा पृथक, चेतन, साक्षी, सबका ज्ञाता, सत् नित्य, अविनाशी, अधिकारी, अक्रिय सनातन, अचल और समस्त दुःखों से रहित केवल शुद्ध आनन्दमय आत्मा हूँ। यही मैं हूँ। यही मेरा सच्चा स्वरूप है। क्लेश, कर्म और सम्पूर्ण पापों से विमुक्त होकर परमशान्ति और परमानन्द की प्राप्ति के लिए ही मनुष्य शरीर की प्राप्ति हुई है। इस परम शान्ति और परमानन्द को प्राप्त करना ही मनुष्य का एकमात्र कर्तव्य है। मनुष्य शरीर के बिना अन्य किसी भी देह में इसकी प्राप्ति संभव नहीं है। इस स्थिति की प्राप्ति तत्वज्ञान से होती है, और वह तत्वज्ञान विवेक, वैराग्य, विचार, सदाचार और सद्गुण आदि के सेवन से होता है। और इन सबका होना इस घोर कलिकाल में ईश्वर की दया के बिना सम्भव नहीं। यद्यपि ईश्वर की दया संपूर्ण जीवों पर पूर्णरूप से सदा-सर्वदा है किन्तु बिना उनकी शरण हुए उस दया के रहस्य को मनुष्य समझ नहीं सकता। एवं दया के तत्व को समझे बिना उस दया के द्वारा होने वाले लाभ को वह नहीं कर सकता।

अतएव तत्वज्ञान की प्राप्ति के लिए प्रकार से ईश्वर के शरण होकर उनकी दया रहस्य को समझ कर उससे पूर्ण लाभ उठाना चाहिए। ईश्वर की शरण से ही हमें परम शाँति मिल सकती है।

भगवान कृष्ण कहते हैं-- तमेवशरणं गच्छ सर्व भावेन भारत। तत्प्रसादात्पराँ शान्ति स्थानं प्राप्स्यसि शाश्वतः॥ (गीता 18/62)
हे भारत! सब प्रकार से उस परमेश्वर की ही अनन्य शरण को प्राप्त हो, उस परमात्मा की कृपा से ही तू परम शान्ति और सनातन परमधाम को प्राप्त होगा।”


 
जब यह मनुष्य परमेश्वर के शरण होगा। परमेश्वर के तत्व को जान जाता है, तब उस परमेश्वर की कृपा से अज्ञान नाश होकर वह परमेश्वर को प्राप्त हो जाता है। जैसे निद्रा नाश से मनुष्य जागृति को, दर्पण के नाश से प्रतिबिम्ब को, तथा घट के फूटने से घटाकाश महाकाश को प्राप्त हो जाता है, इसी प्रकार अज्ञान के नाश से यह जीवात्मा, विज्ञानान्दघन परमात्मा को प्राप्त हो जाता है। जब यह साधन, नाम, रूप, देह, इन्द्रिय, मन, बुद्धि आदि से अपने को सर्वथा पृथक समझ लेता है, तब यह ईश्वर के शरण होकर ईश्वर की कृपा से, देहादि संबंध से होने वाले समस्त क्लेशों और पापों से सदा के लिए सर्वथा मुक्त हो जाता है, एवं विज्ञानानन्द घन परमात्मा का सनातन अंश होने के कारण सदा के लिए उस विज्ञानानन्द घन प्रभु को प्राप्त हो जाता है। प्रभु को प्राप्त करने के लिए अनन्य भाव से इस प्रकार यत्न करना और प्रभु को प्राप्त हो जाना ही मनुष्य का परम कर्तव्य है।

स्वामी रामतीर्थ के बोलने का स्वभाव था किः “मैं बादशाह हूँ, मैं शाहों का शाह हूँ।” अमेरिका के लोगों ने पूछाः “आपके पास है तो कुछ नहीं, सिर्फ दो जोड़ी गेरूए कपड़े हैं। राज्य नहीं, सत्ता नहीं, कुछ नहीं, फिर आप शाहों के शाह कैसे ?”

रामतीर्थ ने कहाः “मेरे पास कुछ नहीं इसलिए तो मैं बादशाह हूँ। तुम मेरी आँखों में निहारो…. मेरे दिल में निहारो। मैं ही सच्चा बादशाह हूँ। बिना ताज का बादशाह हूँ। बिना वस्तुओं का बादशाह हूँ। मुझ जैसा बादशाह कहाँ ? जो चीजों का, विषयों का गुलाम है उसे तुम बादशाह कहते हो पागलों ! जो अपने आप में आनन्दित है वही तो बादशाह है। विश्व का सम्राट तुम्हारे पास से गुजर रहा है। ऐ दुनियाँदारों ! वस्तुओं का बादशाह होना तो अहंकार की निशानी है लेकिन अपने मन का बादशाह होना अपने प्रियतम की खबर पाना है। मेरी आँखों में तो निहारो ! मेरे दिल में तो गोता मार के जरा देखो ! मेरे जैसा बादशाह और कहाँ मिलेगा ? मैं अपना राज्य, अपना वैभव बिना शर्त के दिये जा रहा हूँ…. लुटाये जा रहा हूँ।”

जो स्वार्थ के लिए कुछ दे वह तो कंगाल है लेकिन जो अपना प्यारा समझकर लुटाता रहे वही तो सच्चा बादशाह है।
मुझ बादशाह को अपने आपसे दूरी कहाँ ?’
किसी ने पूछाः “तुम बादशाह हो ?”
हाँ….”
तुम आत्मा हो ?”
हाँ।”
तुम God हो?”
हाँ….। इन चाँद सितारों में मेरी ही चमक है। हवाओं में मेरी ही अठखेलियाँ हैं। फूलों में मेरी ही सुगन्ध और चेतना है।”
ये तुमने बनाये ?”
हाँ…. जबसे बनाये हैं तब से उसी नियम से चले आ रहे हैं। यह अपना शरीर भी मैंने ही बनाया है, मैं वह बादशाह हूँ।”
जो अपने को आत्मा मानता है, अपने को बादशाहों की जगह पर नियुक्त करता है वह अपने बादशाही स्वभाव को पा लेता है। जो राग-द्वेष के चिन्तन में फँसता है वह ऐसे ही कल्पनाओं के नीचे पीसा जाता है।



मैं चैतन्यस्वरूप आत्मा हूँ। आत्मा ही तो बादशाह है…. बादशाहों का बादशाह है। सब बादशाहों को नचानेवाला जो बादशाहों का बादशाह है वह आत्मा हूँ मैं।

मुक्ति और बन्धन तन और मन को होते है। मैं तो सदा मुक्त आत्मा हूँ। अब मुझे कुछ पता चल रहा है अपने घर का। मैं अपने गाँव जाने वाली गाड़ी में बैठा तब मुझे अपने घर की शीतलता आ रही है। योगियों की गाड़ी मैं बैठा तो लगता है कि अब घर बहुत नजदीक है। भोगियों की गाड़ियों में सदियों तक घूमता रहा तो घर दूर होता जा रहा था। अपने घर में कैसे आया जाता है, मस्ती कैसे लूटी जाती है यह मैंने अब जान लिया।

मस्तों के साथ मिलकर मस्ताना हो रहा हूँ। शाहों के साथ मिलकर शाहाना हो रहा हूँ।।
कोई काम का दीवाना, कोई दाम का दीवाना, कोई चाम का दीवाना, कोई नाम का दीवाना, लेकिन कोई कोई होता है जो राम का दीवाना होता है।


दाम दीवाना दाम न पायो। हर जन्म में दाम को छोड़कर मरता रहा। चाम दीवाना चाम न पायो, नाम दीवाना नाम न पायो लेकिन राम दीवाना राम समायो। मैं वही दीवाना हूँ।

ऐसा महसूस करो कि मैं राम का दीवाना हूँ। लोभी धन का दीवाना है, मोही परिवार का दीवाना है, अहंकारी पद का दीवाना है, विषयी विषय का दीवाना है। साधक तो राम दीवाना ही हुआ करता है। उसका चिन्तन होता है किः

चातक मीन पतंग जब पिया बन नहीं रह पाय। साध्य को पाये बिना साधक क्यों रह जाय ?
हम अपने साध्य तक पहुँचने के लिए जेट विमान की यात्रा किये जा रहे हैं। जिन्हें पसन्द हो, इस जेट का उपयोग करें, नहीं तो लोकल ट्रेन में लटकते रहें, मौज उन्हीं की है।


यह सिद्धयोग, यह कुण्डलिनी योग, यह आत्मयोग, जेट विमान की यात्रा है, विहंग मार्ग है। बैलगाड़ीवाला चाहे पच्चीस साल से चलता हो लेकिन जेटवाला दो ही घण्टों में दरियापार की खबरें सुना देगा। हम दरियापार माने संसारपार की खबरों में पहुँच रहे हैं।

ऐ मन रूपी घोड़े ! तू और छलांग मार। ऐ नील गगन के घोड़े ! तू और उड़ान ले। आत्म-गगन के विशाल मैदान में विहार कर। खुले विचारों में मस्ती लूट। देह के पिंजरे में कब तक छटपटाता रहेगा ? कब तक विचारों की जाल में तड़पता रहेगा ? ओ आत्मपंछी ! तू और छलांग मार। और खुले आकाश में खोल अपने पंख। निकल अण्डे से बाहर। कब तक कोचले में पड़ा रहेगा ? फोड़ इस अण्डे को। तोड़ इस देहाध्यास को। हटा इस कल्पना को। नहीं हटती तो ॐ की गदा से चकनाचूर कर दे।

आशा है कि यह किताबी ज्ञान कुछ आंच तो पहुंचा ही देगा। बाकी हरि इच्छा।

हरिओम। ॐ मम कृष्णम । 



"MMSTM समवैध्यावि ध्यान की वह आधुनिक विधि है। कोई चाहे नास्तिक हो आस्तिक हो, साकार, निराकार कुछ भी हो बस पागल और हठी न हो तो उसको ईश अनुभव होकर रहेगा बस समयावधि कुछ बढ सकती है। आपको प्रतिदिन लगभग 40 मिनट देने होंगे और आपको 1 दिन से लेकर 10 वर्ष का समय लग सकता है। 1 दिन उनके लिये जो सत्वगुणी और ईश भक्त हैं। 10 साल बगदादी जैसे हत्यारे के लिये। वैसे 6 महीने बहुत है किसी आम आदमी के लिये।"  सनातन पुत्र देवीदास विपुल खोजी
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Wednesday, October 17, 2018

क्या होता है अध्यात्म



क्या होता है अध्यात्म


सनातनपुत्र देवीदास विपुल "खोजी"

 विपुल सेन उर्फ विपुल लखनवी,
(एम . टेक. केमिकल इंजीनियर) वैज्ञानिक एवं कवि
वैज्ञानिक अधिकारी, भाभा परमाणु अनुसंधान केन्द्र, मुम्बई
सम्पादक : विज्ञान त्रैमासिक हिन्दी जर्नल वैज्ञनिक ISSN 2456-4818
 फोन : (नि.) 022 2754 9553  (का) 022 25591154   
मो.  09969680093
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यूं तो कई विद्वानों ने इस विष्य पर लिखा है किंतु मेरा मानना है अध्य  आत्म्। यानि अपनी आत्म को जो सर्व प्रथम है उसको जानने के मार्ग पर चलना। क्यों अध्य के कई अर्थ हैं। प्रात: की किरण, सबसे ऊपर। यह दो ही मैंनें चुने हैं।  

आध्यात्मिकता, मूर्तिपूजा शब्द के समान ही कई अलग मान्यताओं और पद्धतियों के लिए प्रयुक्त शब्द है, यद्यपि यह उन लोगों के साथ विश्वासों को साझा नहीं करती है जो मूर्तिपूजक हैं अथवा अनिवार्यतः आत्मा के अस्तित्व में विश्वास या अविश्वास से निर्मित नहीं है। आध्यात्मिकता की एक सामान्य परिभाषा यह हो सकती है कि यह ईश्वरीय उद्दीपन की अनुभूति प्राप्त करने का एक दृष्टिकोण है, जो धर्म से अलग है। आध्यात्मिकता को, ऐसी परिस्थितियों में अक्सर धर्म की अवधारणा के विरोध में रखा जाता है, जहां धर्म को संहिताबद्ध, प्रामाणिक, कठोर, दमनकारी, या स्थिर के रूप में ग्रहण किया जाता है, जबकि अध्यात्म एक विरोधी स्वर है, जो आम बोलचाल की भाषा में स्वयं आविष्कृत प्रथाओं या विश्वासों को दर्शाता है, अथवा उन प्रथाओं और विश्वासों को, जिन्हें बिना किसी औपचारिक निर्देशन के विकसित किया गया है। इसे एक अभौतिक वास्तविकता के अभिगम के रूप में उल्लिखित किया गया है। एक आंतरिक मार्ग जो एक व्यक्ति को उसके अस्तित्व के सार की खोज में सक्षम बनाता है; या फिर "गहनतम मूल्य और अर्थ जिसके साथ लोग जीते हैं।"  आध्यात्मिक व्यवहार, जिसमें ध्यान, प्रार्थना और चिंतन शामिल हैं, एक व्यक्ति के आतंरिक जीवन के विकास के लिए अभिप्रेत है;  ऐसे व्यवहार अक्सर एक बृहद सत्य से जुड़ने की अनुभूति में फलित होती है, जिससे अन्य व्यक्तियों या मानव समुदाय के साथ जुड़े एक व्यापक स्व की उत्पत्ति होती है;  प्रकृति या ब्रह्मांड के साथ;  या दैवीय प्रभुता के साथ. आध्यात्मिकता को जीवन में अक्सर प्रेरणा अथवा दिशानिर्देश के एक स्रोत के रूप में अनुभव किया जाता है। इसमें, सारहीन वास्तविकताओं में विश्वास या अंतस्‍थ के अनुभव या संसार की ज्ञानातीत प्रकृति शामिल हो सकती है।

अध्यात्म का अर्थ है अपने भीतर के चेतन तत्व को जानना,मनना और दर्शन करना अर्थात अपने आप के बारे में जानना या आत्मप्रज्ञ होना।

गीता के आठवें अध्याय में अपने स्वरुप अर्थात जीवात्मा को अध्यात्म कहा गया है।  
"परमं स्वभावोऽध्यात्ममुच्यते "|
आत्मा परमात्मा का अंश है यह तो सर्विविदित है।  अध्यात्म की अनुभूति सभी प्राणियों में सामान रूप से निरंतर होती रहती है।

जब हम क्षणिक संबंधों,क्षणिक वस्तुओं को अपना जान कर उससे आनंद मनाते हैं, जब की हर पल साथ रहने वाला शरीर भी हमें अपना ही गुलाम बना देता है। हमारी इन्द्रियां अपने आप से अलग कर देती है यह इतनी सूक्ष्मता से करती है - हमें महसूस भी नहीं होता की हमने यह काम किया है ?

जब हमें सत्य की समझ आती है तो जीवन का अंतिम पड़ाव आ जाता है व पश्चात्ताप के सिवाय कुछ हाथ नहीं लग पाता | ऐसी स्थिति का हमें पहले ही ज्ञान हो जाए तो शायद हम अपने जीवन में पूर्ण आनंद की अनुभूति के अधिकारी बन सकते हैं। |हमारा इहलोक तथा परलोक भी सुधर सकता है।

अब प्रश्न उठता है की यह ज्ञान क्या हम अभी प्राप्त कर सकते हैं ? हाँ ! हम अभी जान सकते हैं की अंत समय में किसकी स्मृति होगी, हमारा भाव क्या होगा ?  हम फिर अपने भाव में अपेक्षित सुधार कर सकेंगे।  

गीता के आठवें अध्याय श्लोक संख्या आठ में भी बताया गया है
यंयंवापि स्मरन्भावं त्यजत्यन्ते कलेवरम्। तं तमेवैति कौन्तेय सदा तद्भाव भावितः॥
अर्थात-"हे कुंतीपुत्र अर्जुन ! यह मनुष्य अन्तकाल में जिस-जिस भी भाव को स्मरण करता हुआ शरीर का त्याग करता हैउस-उस को ही प्राप्त होता है ;क्योंकि वह सदा उसी भाव से भावित रहता है |"

एक संत ने इसे बताते हुए कहा था की सभी अपनी अपनी आखें बंद कर यह स्मरण करें की सुबह अपनी आखें खोलने से पहले हमारी जो चेतना सर्वप्रथम जगती है उस क्षण हमें किसका स्मरण होता है ? बस उसी का स्मरण अंत समय में भी होगा। अगर किसी को भगवान् के अतिरिक्त किसी अन्य चीज़ का स्मरण होता है तो अभी से वे अपने को सुधार लें और निश्चित कर लें की हमारी आँखें खुलने से पहले हम अपने चेतन मन में भगवान् का ही स्मरण करेंगे |बस हमारा काम बन जाएगा नहीं तो हम जीती बाज़ी भी हार जायेंगे।

अज्ञात परतत्व की खोज, परमात्मा की खोज, परमात्मा के अस्तित्व, उसके स्वरूप, गुण, स्वभाव, कार्यपद्धति, जीवात्मा की कल्पना, परमात्मा से उसका संबंध, इस भौतिक संसार की रचना में उसकी भूमिका, जन्म से पूर्व और उसके पश्चात की स्‍थिति के बारे में जिज्ञासा, जीवन-मरण चक्र और पुनर्जन्म की अवधारणा इत्यादि प्रश्नों पर चिंतन और चर्चाएं की गईं और उनके आधार पर अपनी-अपनी स्थापनाएं दी गईं। इन्हीं के आधार पर पुराणों और अन्य शास्त्रों में व्याख्‍याएं, कथाएं, सूत्र, सिद्धांत लिखे और गढ़े गए। 
आधुनिक भौतिक विज्ञानों के विकास के साथ प्रयोगधर्मी अनुसंधानों, ‍तार्किक चिंतन, गणितीय शोध, खगोल संबंधी विभिन्न खोजों, पृथ्वी के आकार पृथ्वी के आकार, गति तथा उसकी सूर्य एवं समूचे ग्रह मंडल में स्‍थिति के सही-सही आकलन ने पुराने विश्वासों और स्थापनाओं के आधार को हिला दिया और वे अब अप्रा‍संगिक लगने लगे। 

अब जो भी सामने है, तर्क और वैज्ञनिक प्रयोगों से प्रमाणित करने योग्य है, वहीं विश्वसनीय रह गया है। अज्ञात, अबूझ, अपरिभाषित, कल्पनाजन्य, अप्रकट या असिद्ध तत्व अब मान्य हैं और वैज्ञानिक विचारधारा से मेल खाने वाले नहीं होने के कारण अस्वीकार्य हो गए हैं। फिर भी यदि वे अपनी भावनाओं, धारणाओं, आस्थाओं, मान्यताओं, व्यक्तिगत अनुभवों के अनुकूल लगते हैं तो हर व्यक्ति अपने विश्वास को बनाए रखने को स्वतंत्र है।

यह भी सही है कि नैतिकता, पवित्र जीवनमूल्य, नकारात्मक कार्यों और विचारों से बचना, सामाजिक और राष्ट्रीय जीवन को आघात पहुंचाने वाले कार्यों को पाप समझना, परोपकार, सत्य, न्याय, कर्तव्यनिष्ठा जैसे शाश्वत मूल्य सदैव अपने जीवन को प्रकाशित करते रहें, इसमें कभी किसी का विश्वास नहीं डिगना चाहिए। यही सच्चा अध्यात्म है।

अध्यात्म रोचक शब्द है। सामान्यतया भक्ति या ईश्वर विषयक चर्चा को अध्यात्म कहा जाता है। पूजा पाठ करने वाले ‘आध्यात्मिक’ कहे जाते हैं। अध्यात्म का मूल अर्थईश्वर सम्बंधी’/ईश्वरीय चर्चा या ईश्वर ज्ञान कदापि नहीं है।

गीता के अध्याय 8 की शुरूवात अर्जुन के प्रश्नों से होती है, पूंछते है ”हे पुरूषोत्ताम! वह ब्रह्म क्या है? अध्यात्म क्या है? और कर्म के माने क्या है? (अध्याय 8 श्लोक1, लोकमान्य तिलक का अनुवाद, गीता रहस्य पृष्ठ 489) मूल श्लोक है ‘ किं तद् ब्रह्मं किम् अध्यात्मं किं कर्म पुरूषोत्ताम”। प्रश्न सीधा है। यहां ब्रह्म की जिज्ञासा है, ब्रह्म ईश्वरीय जिज्ञासा है। आगे अध्यात्म जानने की इच्छा है। अध्यात्म ईश्वर या ब्रह्म चर्चा से अलग है। इसीलिए अध्यात्मक का प्रश्न भी अलग है। कर्म भी ईश्वरीय ज्ञान से अलग एक विषय है। इसलिए कर्म विषयक प्रश्न भी अलग से पूछा गया है।

अब श्रीकृष्ण का सीधा उत्तार देखिए ”अक्षरं ब्रह्म परमं,  स्वभावों अध्यात्म उच्यते – परम अक्षर अर्थात कभी भी नष्ट न होने वाला तत्व ब्रह्म है और प्रत्येक वस्तु का अपना मूलभाव (स्वभाव) अध्यात्म है। (तिलक-गीता रहस्य पृष्ठ 490) वासुदेवशरण अग्रवाल का अनुवाद है ”परम अक्षर (अविनाशी) तत्व ही ब्रह्म है। स्वभाव अध्यात्म कहा जाता है।” (गीता नवनीत, पृष्ठ 175)

अध्यात्म पारलौकिक विश्लेषण या दर्शन नहीं है। अध्यात्म का शाब्दिक अर्थ है – ‘स्वयं का अध्ययन-अध्ययन-आत्म। वासुदेवशरण अग्रवाल ने अध्यात्म की सुसंगत व्याख्या की है, ”इसका तात्पर्य यह है कि जो अपना भाव अर्थात् प्रत्येक जीव की एक-एक शरीर में पृथक पृथक सत्ता है, वही अध्यात्म है। समस्त सृष्टिगत भावों की व्याख्या जब मनुष्य शरीर के द्वारा (शारीरिक संदर्भ लेकर) की जाती है तो उसे ही अध्यात्म व्याख्या कहते हैं।”

(वही, पृष्ठ 55) गीता में श्रीकृष्ण का उत्तार सरल है – स्वभावो अध्यात्म उच्यते – स्वभाव को अध्यात्म कहा जाता है। (8.3) स्व शब्द बड़ा प्यारा है। इससे कई शब्द बने हैं। ‘स्वयं’ शब्द इसी का विस्तार है। स्वार्थ भी इसी का हितैषी है। स्वानुभूति अनुभव विषयक ‘स्व’ है। सभी प्राणी मरणशील हैं, जब तक जीवित हैं, तब तक स्व हैं, तभी तक सुख हैं, संसार है, जिज्ञासाएं हैं, प्रश्न हैं। विज्ञान और दर्शन के अध्ययन है। प्रत्येक ‘स्व’ एक अलग इकाई है। इसकी अपनी काया देह है, अपना मन है, बुध्दि है, विवेक है, दृष्टि है विचार हैं। इन सबसे मिलकर भीतर एक नया जगत् बनता है। इस भीतरी जगत् की अपनी निजी अनुभूति है, प्रीति और रीति भी है। अपने प्रियजन हैं, अपने इष्ट हैं। इन सबसे मिलकर बनता है ”एक भाव” इसे ‘स्वभाव’ कहते हैं। स्वभाव नितांत निजी वैयक्तिक अनुभूति होता है लेकिन स्वभाव की निर्मिति में माँ, पिता, मित्र परिजन और सम्पूर्ण समाज का प्रभाव पड़ता है। स्वभाव निजी सत्ता और प्रभाव बाहरी। जब स्वभाव प्रभाव को स्वीकार करता है, प्रभाव घुल जाता है, स्वभाव का हिस्सा बन जाता है। इसका उल्टा भी होता है, लेकिन बहुत कम होता है।

वृहदारण्यक उपनिषद् (2.3.4) में कहते हैं ”अध्यात्म का वर्णन किया जाता हैअथ अध्यात्म मिदमेव”। समझाते है ”जो प्राण से और शरीर के भीतर आकाश से भिन्न है, यह मूर्त के, मर्त्य के इस सत् के सार हैं।” यहां अध्यात्म का विषय प्राण और आकाश को छोड़कर बाकी देह है। शंकराचार्य के भाष्य के अनुसारआध्यात्मिक शरीराम्भकस्य कार्यस्यैष रस: सार: – आध्यात्मिक शरीराम्भकस्य कार्यस्यैष रस: सार: – आध्यात्मिक यानी शरीराम्भक भूतों का यही रस यानी सार है।” वृहदारण्यक (शांकरभाष्यार्थ, गीता प्रेस पृष्ठ 520)

शरीर के भीतर चैतन्य है, प्राण है। इसके भीतर आकाश भी है। इसके अलावा बाकी जो कुछ है वह अध्यात्म है। अध्यात्म का अर्थ ‘स्व’ ही है। छान्दोग्य उपनिषद् का प्रथम अध्याय-प्रथम प्रपाठक ओ3म से प्रारम्भ होता है। यहां प्राण को श्रेष्ठ बताया गया है। फिर अधिदैवत् – देवों से सम्बंधित विवेचन (तीसरा खण्ड) है। प्रणव और उद्गीथ की व्याख्या है। ऋग्वेद के विद्वान ओ3म् को प्रणव कहते है। सामवेदी इसे उद्गीथ बताते हैं। दोनो एक हैं। यहां सृष्टि का विस्तार से वर्णन है। सातवें खण्ड में कहते हैं – अर्थ अध्यात्मम् यानी अब अध्यात्म सुनिए। (1.7.1) अनुवादक का विवेचन है, ”अध्यात्म (शरीर के सम्बंध में) कहते हैं। (छान्दोग्य उप0, प्रो0 राजाराम, डायनमिक पब्लिकेशन, पृष्ठ 22) यहां अध्यात्म शरीर चर्चा है। कहते है ”ऋचा वाणी है, साम प्राण है। (शंकराचार्य के अनुसार जो नासिका में प्राण है अर्थात घ्राण) साम गान ऋचा यानी वाणी के सहारे है।” फिर कहते हैं ”ऋचा आंख हैं। साम आत्मा (स्वयं) है। यह साम (स्वयं) इसी आंख के सहारे है।” फिर कहते हैं ”आंख की चमक ऋचा है, इसका नीला वर्ण साम है। इसका नीला अंश दीप्ति के सहारे है।” (वही, 2., 3, 4) अध्यात्म स्वयं का ही अध्ययन विश्लेषण है। यह एक अंतर्यात्रा है।

डॉ0 राधाकृष्णन् ने गीता के ‘अध्यात्म’ (8.3) विषयक तत्व पर टिप्पणी की है ”अध्यात्म – शरीर का स्वामी, उपभोक्ता। यह ब्रह्म की वह प्रावस्था है जो वैयक्तिक बनती है।” (श्रीमद्भगवद् गीता, डॉ0 राधाकृष्णन पृष्ठ 207) यहां ब्रह्म चेतना वैयक्तिक चेतना बन गया है। ब्रह्म बना या कोई और, असली बात वैयक्तिक चेतना ही है। वैयक्तिक चेतना का गहन अध्ययन विवेचन-अध्यात्म ही मूल तत्व तक पहुंचाएगा। गीता के 7वें अध्याय (श्लोक 29) में भी अध्यात्म शब्द का प्रयोग हुआ है। कृष्ण कहते है ”जो मुझमें शरण लेते है और बुढ़ापा तथा मृत्यु से मुक्ति पाने की कोशिश करते हैं, वे ब्रह्म अध्यात्म व कर्म के सम्बंध में सब कुछ जान जाते हैं।” (डॉ0 राधाकृष्णन का अनुवाद) बुढ़ापा से मुक्ति की कोशिश सांसारिक कार्रवाई है। मृत्यु कष्ट से मुक्ति के प्रयास मानवीय इच्छाए हैं। ब्रह्म या ईश्वर जानने की इच्छा आदिम है। अध्यात्म का ज्ञान अर्थात निजी अध्ययन संसार में रहने का प्रथम सोपान है। कर्म प्रवीणता के बिना कोई उपलब्धि नही। मूल बात है स्वयं का विवेचन, स्वयं के अंतस् का अध्ययन, भीतर की ऐषणाओं के केन्द्र बिन्दु की खोज, अपने रागद्वैष, काम क्रोध, राग विराग के स्रोत की जानकारी। पूर्वजों ने इसे ही अध्यात्म कहा था।




"MMSTM समवैध्यावि ध्यान की वह आधुनिक विधि है। कोई चाहे नास्तिक हो आस्तिक हो, साकार, निराकार कुछ भी हो बस पागल और हठी न हो तो उसको ईश अनुभव होकर रहेगा बस समयावधि कुछ बढ सकती है। आपको प्रतिदिन लगभग 40 मिनट देने होंगे और आपको 1 दिन से लेकर 10 वर्ष का समय लग सकता है। 1 दिन उनके लिये जो सत्वगुणी और ईश भक्त हैं। 10 साल बगदादी जैसे हत्यारे के लिये। वैसे 6 महीने बहुत है किसी आम आदमी के लिये।"  सनातन पुत्र देवीदास विपुल खोजी
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