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Monday, July 1, 2019

बीज मंत्र: क्या, जाप और उपचार

बीज मंत्र: क्या, जाप और उपचार

सनातनपुत्र देवीदास विपुल "खोजी"

 विपुल सेन उर्फ विपुल लखनवी,
(एम . टेक. केमिकल इंजीनियर) वैज्ञानिक एवं कवि
मो.  09969680093
  - मेल: vipkavi@gmail.com  वेब:  vipkavi.info वेब चैनलvipkavi
ब्लाग: freedhyan.blogspot.com,  फेस बुक:   vipul luckhnavi “bullet


मित्रो एक प्रश्न है कि क्या हम अलग अलग बीज मंत्रो को मिला सकते है? और अगर यदि मिला सकते है तो कौन कौन सा बीज मंत्र है जिसको हम एक साथ जप सकते है। 

 

बीज मंत्रो की ऊर्जा अनन्त है और रहस्यो से भरी है। परमपिता परमेश्वर की कृपा से इस संसार में हर जीव की उत्पत्ति बीज के द्वारा ही होती है चाहे वह पेड़-पौधे हो या फिर मनुष्य योनी।  बीज को जीवन की उत्पत्ति का कारक माना गया है। बीज मंत्र भी कुछ इस तरह ही कार्य करते है।  हिन्दू धरम में सभी देवी-देवताओं के सम्पूर्ण मन्त्रों के प्रतिनिधित्व करने वाले शब्द को बीज मंत्र कहा गया है।  सभी वैदिक मंत्रो का सार बीज मंत्रो को माना गया है।  हिन्दू धरम में सबसे बड़ा बीज मंत्र ” ॐ ” है।  अन्य शब्दों में बीज मंत्र किसी भी वैदिक मंत्र का वह लघु रूप है जिसे मंत्र के साथ प्रयोग करने पर वह उत्प्रेरक का कार्य करता है। | बीज मंत्रोंको सभी मन्त्रों के प्राण के रूप में जाना जा सकता है जिनके प्रयोग से मन्त्रों में प्रबलता और अधिक हो जाती है। 

 

बीज मंत्रों के जप से देवी-देवता अति शीघ्र प्रसन्न होकर अपने भक्त का उद्धार करते है | बीज मंत्रों का उच्चारण आपके आस-पास एक सकारात्मक उर्जा का संचार करता है | जीवन में आने वाले घोर से घोर संकट भी बीज मंत्रों के उच्चारण से दूर हो जाते है | किसी भी प्रकार के असाध्य रोग की गिरफ्त में आने पर , आर्थिक संकट आने पर, इनके अतिरिक्त समस्या कोई भी हो, बीज मंत्रों के जप से लाभ अवश्य प्राप्त होता है | बीज मंत्रों के नियमित जप से सभी पापों से मुक्ति मिलती है | ऐसा व्यक्ति सम्पूर्ण जीवन मृत्यु के भय से मुक्त होकर जीता है व अंत में मोक्ष को प्राप्त करता है |

 

बीज मंत्र कुछ इस प्रकार होते है :- ॐ, क्रीं, श्रीं, ह्रौं, ह्रीं, ऐं, गं, फ्रौं, दं, भ्रं, धूं, हलीं, त्रीं, क्ष्रौं, धं, हं, रां, यं, क्षं, तं ,  ये दिखने में छोटे से बीज मंत्र अपने अन्दर बहुत से शब्दों को समाये हुए है।  उपरोत्क सभी बीज मंत्र अत्यंत कल्याणकारी है जो अलग-अलग देवी-देवताओं के प्रतिनिधत्व करते है। अब यह प्रमाणित हो चुका है कि ध्वनि उत्पन्न करने में नाड़ी संस्थान की अनेक नसें आवश्यक रूप से क्रियाशील रहती हैं। अतः मंत्रों के उच्चारण से सभी नाड़ी संस्थान क्रियाशील रहते हैं। मानव शरीर से 64 तरह की सूक्ष्म ऊर्जा तरंगें उत्सर्जित होती हैं जिन्हें 'धी' ऊर्जा कहते हैं। जब धी का क्षरण होता है तो शरीर में व्याधि एकत्र हो जाती है।

 

आवश्यकतानुसार मंत्रों को चुनकर उनमें स्थित अक्षुण्ण ऊर्जा की तीव्र विस्फोटक एवं प्रभावकारी शक्ति को प्राप्त किया जा सकता है। मंत्र, साधक व ईश्वर को मिलाने में मध्यस्थ का कार्य करता है। मंत्र की साधना करने से पूर्व मंत्र पर पूर्ण श्रद्धा, भाव, विश्वास होना आवश्यक है तथा मंत्र का सही उच्चारण अति आवश्यक है। मंत्र लय, नादयोग के अंतर्गत आता है। मंत्रों के प्रयोग से आर्थिक, सामाजिक, दैहिक, दैनिक, भौतिक तापों से उत्पन्न व्याधियों से छुटकारा पाया जा सकता है। रोग निवारण में मंत्र का प्रयोग रामबाण औषधि का कार्य करता है। मानव शरीर में 108 जैविकीय केंद्र (साइकिक सेंटर) होते हैं जिसके कारण मस्तिष्क से 108 तरंग दैर्ध्य (वेवलेंथ) उत्सर्जित करता है। शायद इसीलिए हमारे ऋषि-मुनियों ने मंत्रों की साधना के लिए 108 मनकों की माला तथा मंत्रों के जाप की आकृति निश्चित की है। मंत्रों के बीज मंत्र उच्चारण की 125 विधियाँ हैं। मंत्रोच्चारण से या जाप करने से शरीर के 6 प्रमुख जैविकीय ऊर्जा केंद्रों से 6250 की संख्या में विद्युत चुम्बकीय ऊर्जा तरंगें उत्सर्जित होती हैं, जो इस प्रकार हैं


ह्रीं बीज मंत्र: ह्रीं माया बीज है जिसमे की ह से शिव , र से प्रकृति , ईकार से महामाया , नाद से विश्वमाता , बिंदु से दुख हर्ता। अतः इस बीज मंत्र का ऊर्जा विचार और आह्वान हुआ कि हे शिव युक्त प्रकृति रूप में महामाया मेरे दुख का हरण कीजिये। 


श्रीं बीज मंत्र: यह महालक्ष्मी का बीज मंत्र है। यह सौम्य ऊर्जा से सम्बंधित है । इसमें श से महालक्ष्मी र से धन ऐशवर्य ईकार से तुष्टि और बिंदु से दुखहरन की ऊर्जा उत्पन्न होती है। यह बीज मंत्र सिर्फ यही तक सीमित नही है अपितु हमारे लिए एक अत्यंत रहस्यमयी महाविद्या श्री विद्या के द्वार तक ले जाता है । 

 


ह्रौं बीज मंत्र: यह शिव बीज है इसमें ह से शिव का आहवान होता है औ से सदाशिव जो कि शिव का अत्यंत शक्तिशाली रूप है।और  अनुस्वार है दुख हरण । यह बीज मंत्र जितना सामान्य लिखने में है। वास्तव में उतना ही ऊर्जा क्षमता और रेहजयो से भरा भी है। यह बीज मंत्र हमारे लिए बहुत ही उच्च विद्या महामृत्युंजय विद्या के द्वार खोलता है जिसे कहा जाता है मृत संजीवनी महामृत्युंजय विद्या। वह विद्या जिसका अंश भी यदि प्राप्त हो जाये तो साधक को  किसी भी तरह की समस्या से ऊपर ऊथकर किसी भी प्रकार की मृत स्थिति चाहे वह रिश्ता हो या जीवन की कोई और स्थिति, को पुनः स्थापित करने का सामर्थ्य देता है।

 

भं बीज मंत्र: भं बीज भैरव बीज है। भ से भैरव और अनुस्वार से दुख हरण। इसकी ऊर्जा उग्र है और तँत्र में इसका बहुत प्रयोग भी होता है।

 

क्रीं बीज मंत्र:यह बीज काली बीज है। इस बीज मंत्र में क से काली र से ब्रह्म ईकार से महामाया आदिशक्ति और बिंदु से दुखहरन अतः इस बीज मंत्र का अर्थ हुआ ब्रह्मशक्ति सम्पन्न महामाया काली मेरे दुखो के हरण करें। यह बीज मंत्र अत्यंत ही उग्र ऊर्जा से भरा है इसके प्रयोग भी बहुत है बहुत से मानसिक विकारों को पूर्ण रूपेण डोर करने की क्षमता है इस बीज में। और तँत्र में तो यह बहुत ही उच्च स्थान रखता है। मारण कर्म तक इससे सम्पन्न किये जाते है।

 

ऐं बीज मंत्र:यह सरस्वती बीज मंत्र है। इसमे ए से सरस्वती का आह्वान होता है और अनुस्वार दुख हरण है।  इस बीज मंत्र सृष्टी ज्ञान को समाहित किए हुए है।

क्लीं बीज मंत्र: यह कामदेव बीज है।और वशीकरण सम्मोहन और अनन्त सौंदर्य भोग और उच्चता स्वयम में लिए हुए है। इसमे क से कामदेव ल से इंद्र ईकार से तुष्टि और  अनुस्वार सुख दाता है।

 

गं बीज मंत्र:यह गणेश बीज है इसमे ग से गणपति और बिंदु से दुख हरण का आह्वान होता है।

 

हुम् बीज मंत्र:  यह अत्यंत शक्ति शाली अत्यंत ही उग्र प्रभावी बीज है। क्रीम की तरह ही इसका प्रयोग भी तँत्र कर्मो में बहुत होता है और मानसिक विकार दूर करने के लिए भी प्रयोग होता है। ह से शिव उ से भैरव और अनुस्वार से दुखहर्ता का आह्वान होता है।

 

ग्लौं बीज मंत्र: यह भी गणेश बीज है और अत्यंत प्रभावी भी। इसमें ग से गणेश ल से सृष्टी औ से तेज ओज और ऊर्जा बिंदु से दुख हरण का आह्वान होता है।


स्त्रीं बीज मंत्र: स्त्रीं बीज मंत्र को माँ तारा का बीज मंत्र भी कहा जाता है  और इसका प्रयोग कई अन्य प्रयोगों में भी होता है। यह उग्र और सौम्य दोनो प्रकार से प्रयोग होता है। इसका अर्थ है स से मा दुर्गा का आह्वान त से तारन शक्ति  र से मोक्ष या मुक्ति और ईकार से महामाया आदिशक्ति का आह्वान होता है और अनुस्वार दुखहरन। अतः इस बीज मंत्र का अर्थ हुआ है माँ दुर्गा तारिणी रूप में अर्थात माँ तारा के रूप में आदिशक्ति की शक्ति से मेरे कष्टों से मुक्ति हो। और मेरे दुखो का हरण हो। यह मन्त्र तँत्र प्रयोगों में कष्ट मुक्ति के लिए अत्यधिक प्रयोग होता है।


क्ष्रौं बीज मंत्र:यह नरसिंह बीज है वे नृसिंह जो कि विष्णु का उग्र रूप है अतः इसकी ऊर्जा भी अत्यंत शीघ्र प्रभावी है और उग्र प्रभावी है। सौम्य हृदय वालो को बिना गुरु कृपा के उग्र प्रभावी प्रयोग नही करने चाहिए। इस बीज में क्ष से नृसिंह भगवान र से ब्रह्मशक्ति औ से शक्तिशाली और उर्ध्वकेशी भयानक रूप  और बिंदु से दुखहरण का आह्वान है। अर्थ हुआ नरसिंह भगवान जो कि उर्ध्वकेशी और उग्र रूप वाले है वे ब्रह्मशक्ति से युक्त हो मेरे दुखो का नाश करे। सामान्य साधक को इस बीज मंत्र के जाप से दूर रहना चाहिए।

 

शं बीज मंत्र : यह शंकर बीज है  श से शिव के शंकर रूप और बिंदु से  दुखहरन का आह्वान होता है| 


फ्रॉम बीज मंत्र: यह बीज मंत्र कलयुग के प्रत्यक्ष देवता भगवान हनुमान का बीज मंत्र है। इस मंत्र को उनकी कृपा प्राप्ति के लिए ध्यान किया जाता है। परन्तु इसकी विधियां अत्यंत गोपनीय है अतः गुरु कृपा से ही प्राप्त कर के जाप करे।

 


क्रोम बीज मंत्र :  यह भी काली बीज ही है  इसमें क काली  र ब्रह्म और औ  से भैरव रूपी शिव और बिंदु से दुखहरण शक्ति का आह्वान होता है यह मन्त्र बहुत ही ज़्यादा उग्र प्रभावी है अतः इसे तुच्छ कामनाओ या फिर किसी के नुकसान के लिए दुरुपयोग नही करना चाहिए और उत्कीलन कर के शुद्ध विचारो से कष्ट मुक्ति के लिए गुरु कृपा से ही प्रयोग करना चाहिए अन्यथा अर्थ के साथ साथ अनर्थ की भी संभावना प्रबल होती है दुरूपयोगो में।

 

दं बीज मंत्र: यह भी अत्यंत गोपनीय और रहस्यमयी बीज मंत्रो में से एक है अतः इसके बारे में गुरु ही शिष्य को बताने का अधिकारी है।


हं बीज मंत्र: यह आकाश बीज है । हमारे पंचतत्वों में से आकाशतत्व का शक्ति रूप है। इस बीज को हनुमान जी के मंत्रो में भी प्रयोग किया जाता है  और अकेले भी। इसको कई बीमारियो के इलाज मानसिक विकारों के इलाज डर भय आदि के इलाज में भी प्रयोग किया जाता है।

 

यं बीज मंत्र: यह अग्नि बीज है। अभी प्रकार की अग्नि के आह्वान के लिए इस बीज का प्रयोग मान्य है ।  जैसे कि कालाग्नि, जठराग्नि इत्यादि।

 

रं बीज मंत्र: यह जल बीज है।

लं बीज मंत्र:  यह पृथ्वी बीज है।

भ्रं बीज मंत्र: यह भैरव बीज है।

 

सृष्टि-देवी माँ के बीज मंत्रो से उपचार!

खं*– हार्ट-टैक कभी नही होता है | उच्च रक्तचाप (हाई बी.पी.), निम्न रक्तचाप (लो बी.पी.) कभी नही होता | * ५० माला जप करें, तो लीवर ठीक हो जाता है | १०० माला जप करें तो शनि देवता के ग्रह का प्रभाव चला जाता है। 

 

बीज मंत्रो से उपचार! * कां, * गुं, * शं

 कां*– पेट सम्बन्धी कोई भी विकार और विशेष रूप से आंतों की सूजन में लाभकारी।  *गुं*– मलाशय और मूत्र सम्बन्धी रोगों में उपयोगी। 

*शं*– वाणी दोष, स्वप्न दोष, महिलाओं में गर्भाशय सम्बन्धी विकार औेर हर्निया आदि रोगों में उपयोगी।

 

बीज मंत्रो से उपचार! * घं, * ढं

घं* – काम वासना को नियंत्रित करने वाला और मारण-मोहन-उच्चाटन आदि के दुष्प्रभाव के कारण जनित रोग-विकार को शांत करने में सहायक।

ढं*– मानसिक शांति देने में सहायक। अप्राकृतिक विपदाओं जैसे मारण, स्तम्भन आदि प्रयोगों से उत्पन्न हुए विकारों में उपयोगी।

 

बीज मंत्रो से उपचार! * पं, * बं, * यं, * रं

पं*– फेफड़ों के रोग जैसे टी.बी., अस्थमा, श्वास रोग आदि के लिए गुणकारी।

बं*– शूगर, वमन, कफ, विकार, जोडों के दर्द आदि में सहायक।

यं*– बच्चों के चंचल मन के एकाग्र करने में अत्यत सहायक।

रं* – उदर विकार, शरीर में पित्त जनित रोग, ज्वर आदि में उपयोगी।

 

बीज मंत्रो से उपचार! * लं, * मं, * घं, * एं

लं*– महिलाओं के अनियमित मासिक धर्म, उनके अनेक गुप्त रोग तथा विशेष रूप से आलस्य को दूर करने में उपयोगी।

मं*– महिलाओं में स्तन सम्बन्धी विकारों में सहायक।

धं* – तनाव से मुक्ति के लिए मानसिक संत्रास दूर करने में उपयोगी ।

ऐं*– वात नाशक, रक्त चाप, रक्त में कोलेस्ट्राॅल, मूर्छा आदि असाध्य रोगों में सहायक।

 

बीज मंत्रो से उपचार! * द्वान्, * ह्रीं, * एं, * वं, * शुं

द्वां*– कान के समस्त रोगों में सहायक।

ह्रीं*– कफ विकार जनित रोगों में सहायक।

ऐं*– पित्त जनित रोगों में उपयोगी।

वं*– वात जनित रोगों में उपयोगी।

शुं*– आंतों के विकार तथा पेट संबंधी अनेक रोगों में सहायक।

 

बीज मंत्रो से उपचार! * हुं, * अं, *

हुं*– यह बीज एक प्रबल एन्टीबॉयटिक सिद्ध होता है। गाल ब्लैडर, अपच, लिकोरिया आदि रोगों में उपयोगी।

अं* – पथरी, बच्चों के कमजोर मसाने, पेट की जलन, मानसिक शान्ति आदि में सहायक इस बीज का सतत जप करने से शरीर में शक्ति का संचार उत्पन्न होता है।

 

सावधानियां...

बीज मंत्रों से अनेक रोगों का निदान सफल है। आवश्यकता केवल अपने अनुकूल प्रभावशाली मंत्र चुनने और उसका शुद्ध उच्चारण करने की है। पौराणिक, वेद, शाबर आदि मंत्रों में बीज मंत्र सर्वाधिक प्रभावशाली सिद्ध होते हैं उठते-बैठते, सोते-जागते उस मंत्र का सतत् शुद्ध उच्चारण करते रहें। आपको चमत्कारिक रुप से अपने अन्दर अन्तर दिखाई देने लगेगा। यह बात सदैव ध्यान रखें कि बीज मंत्रों में उसकी शक्ति का सार उसके अर्थ में नहीं बल्कि उसके विशुद्ध उच्चारण को एक निश्चित लय और ताल से करने में है। बीज मंत्र में सर्वाधिक महत्व उसके बिन्दु में है और यह ज्ञान केवल वैदिक व्याकरण के सघन ज्ञान द्वारा ही संभव है। आप स्वयं देखें कि एक बिन्दु के तीन अलग-2 उच्चारण हैं। गंगा शब्द ‘ङ’ प्रधान है। गन्दा शब्द ‘न’ प्रधान है। गंभीर शब्द ‘म’ प्रधान है। अर्थात इनमें क्रमशः ङ, न और म, का उच्चारण हो रहा है।

 

सावधानियां...

कौमुदी सिद्धांत के अनुसार वैदिक व्याकरण को तीन सूत्रों द्वारा स्पष्ट किया गया है-:

1 - मोनुस्वारः

2 - यरोनुनासिकेनुनासिको तथा

3- अनुस्वारस्य ययि पर सवर्णे।

बीज मंत्र के शुद्ध उच्चारण में सस्वर पाठ भेद के उदात्त तथा अनुदात्त अन्तर को स्पष्ट किए बिना शुद्ध जाप असम्भव है और इस अशुद्धि के कारण ही मंत्र का सुप्रभाव नहीं मिल पाता। इसलिए सर्वप्रथम किसी बौद्धिक व्यक्ति से अपने अनुकूल मंत्र को समय-परख कर उसका विशुद्ध उच्चारण अवश्य जान लें। अपने अनुरूप चुना गया बीज मंत्र जप अपनी सुविधा और समयानुसार चलते-फिरते उठते-बैठते अर्थात किसी भी अवस्था में किया जा सकता है। इसका उद्देश्य केवल शुद्ध उच्चारण एक निश्चित ताल और लय से नाड़ियों में स्पदन करके स्फोट उत्पन्न करना है।

नौ देवियाँ हमारी सर्व रोग रक्षक!

 भय दूर करने बाली शैलपुत्री ।

 स्मरण शक्ति बढ़ाने बाली ब्रह्मचारिणी ।

 हृदय रोग देवी चंद्रघंटा।

 रक्त शोधन देवी कुष्माण्डा।

 कफ रोग-नाशक देवी स्कंदमाता।

 कंठ रोग- शमन देवी कात्यायनी।

 मस्तिष्क विकार-नाशक देवी कालरात्रि।

 रक्त शोधक देवी महागौरी।

 बलबुद्धि बढ़ाने बाली देवी सिद्धिदात्री।

 

MMSTM समवैध्यावि ध्यान की वह आधुनिक विधि है। कोई चाहे नास्तिक हो आस्तिक हो, साकार, निराकार कुछ भी हो बस पागल और हठी न हो तो उसको ईश अनुभव होकर रहेगा बस समयावधि कुछ बढ सकती है। आपको प्रतिदिन लगभग 40 मिनट देने होंगे और आपको 1 दिन से लेकर 10 वर्ष का समय लग सकता है। 1 दिन उनके लिये जो सत्वगुणी और ईश भक्त हैं। 10 साल बगदादी जैसे हत्यारे के लिये। वैसे 6 महीने बहुत है किसी आम आदमी के लिये।"  सनातन पुत्र देवीदास विपुल खोजी
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मंत्र विज्ञान परिचय और बजरंग मंत्र



मंत्र विज्ञान  परिचय और बजरंग मंत्र  

सनातनपुत्र देवीदास विपुल "खोजी"

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भारतीय वांङ्गमय अध्यात्म, मंत्र, तंत्र और यंत्र साहित्य से परिपूर्ण है।
अध्यात्म भारतीय ऋषियों का मौलिक चिंतन है।
उन्होंने स्वयं मंत्र का साक्षात्कार किया और तब ही उसे लोगों के सम्मुख प्रस्तुत किया।
मंत्र ध्वनि तरंगों का एकत्रित स्वरूप है।
दूसरे शब्दों में नियोजित ध्वनि तरंगों की अभिव्यक्ति ही मंत्र है।


मंत्र तीर्थ, द्विजे देवेषे भेषजे गुरो। यादृशी भावना यस्य सिद्धीर्भवति तादृशी।। अर्थात् मंत्र, तीर्थ, द्विज, देव, ज्योतिषी, औषधि और गुरु में जैसी भावना हेा वैसी ही सिद्धि प्राप्त होती है।


मंत्र अध्यात्म का प्रथम द्वार है। ब्रह्म के बाद से प्रणव की उत्पत्ति हुई।
प्रणव बीज ॐ कार से वेद प्रकट हुए।
वेद कि शाखाएं विस्तृत होती गयीं व उन्हें स्मृतियों में संग्रहीत किया गया।
ऋषियों ने केवल मंत्रों पर चिंतन किया व पारंपरिक रूप से गुरु शिष्य प्रणाली से मंत्रों का प्रचार-प्रसार हुआ।
निगम को स्मृतियों ने अपने भीतर संग्रहीत किया व आगमशास्त्र केवल ऋषियों द्वारा फैलता गया।


कलियुग के आगमन के पूर्व परमात्मा शिव ने सभी मंत्रों को कीलित कर दिया व उनके फल को बाधित कर दिया ताकि कोई मनुष्य स्वार्थवश उनकी शक्ति का दूरुपयोग न कर पाए व उन मंत्रों को जागृत करने के उपाय तंत्र शास्त्र के माध्यम से सीमित रखे।


अध्यात्म न तो किसी ग्रंथ में पाया जाता है और न ही किसी मंदिर, मस्जिद, गुरुद्वारे में बंटता है। अध्यात्म दिव्य अलौकिक अनुभूती है।
जब आत्मा रुपी हंस उस परमतत्व की खोज में लीन रहता है तब उसे उस दिव्य चेतना का साक्षात्कार होता है और वही परमहंस की स्थिति हांसिल कर लेता है।
आचार्य शंकर प्रतिपादित करते हैं- ‘‘ब्रह्म सत्य जगत मिथ्या’’ अर्थात् ब्रह्म एक है और हम सब उसकी माया रूपी सृष्टि है।ब्रह्म द्वैत, अद्वैतवाद से भी परे है।
महर्षि अरविंद कहते हैं- ‘‘ऊँ स्वयं परमात्मा के हस्ताक्षर हैं’’।


धर्म केवल सनातन धर्म ही है, हिंदु, मुस्लिम, सिक्ख, ईसाई यह सब संप्रदाय हैं।
धर्म में बाह्य आडंबर का कोई स्थान नहीं है। जो आडंबर करता है वह सत्य से कोसों दूर चला जाता है।


सत्य ही धर्म का मूल तत्व है। भक्ति में कोई युक्ति नहीं चलती।
भगवत् प्रीति का ही नाम भक्ति है।
अध्यात्म भारतीय ऋषियों का मौलिक चिंतन है।
 उन्होंने स्वयं मंत्र का साक्षात्कार किया और तब ही उसे लोगों के सम्मुख प्रस्तुत किया।
मंत्र ध्वनि तरंगों का एकत्रित स्वरूप है। दूसरे शब्दों में नियोजित ध्वनि तरंगों की अभिव्यक्ति ही मंत्र है।


एकाग्रता, एकरसता, एकलयता से समुच्चारित तरंगों से उत्पन्न ऊर्जा से विशेष शक्ति जागृत हो जाती है, उस शक्ति का व्यक्ति अपनी लक्ष्य शक्ति के अनुरूप उपयोग कर सकता है।
 ‘‘शब्दो नित्यः आकाशगुणत्वत्’’ अर्थात् शब्द नित्य है, आकाश (आश्रय) गुण के कारण शब्दों का विनाश नहीं होता है। इसमें विकृति नहीं आती, यह तो अजर है...........अमर है।
हमारे प्राचीन ऋषि-महर्षियों के इसी मूल तथ्य को आज के आधुनिक वैज्ञानिक स्वीकार करने के लिए बाध्य हैं।


ध्वनि तरंगों के आविष्कार करने वाले वैज्ञानिक को महर्षियों के इसी मूल तथ्य का ज्ञान हुआ और उसी के माध्यम से आज हम हजारों लाखों मील दूर से उच्चारित (बोलने) शब्द को ठीक उसी रूप में सुन सकते हैं।


इससे प्रमाणित होता है कि शब्द का कभी विनाश नहीं होता है। आकाश में संचरित ईथर किरणों के माध्यम से शब्द सदैव वायुमंडल में विचरण करते रहते हैं।
हर मंत्र अक्षर की उत्पत्ति है, अक्षर जो कभी नष्ट नहीं होता।
अक्षर का अर्थ है नष्ट होना। अक्षर जो नष्ट नहीं होता, पूरे ब्रह्मांड में व्याप्त रहता है।


सनातन भारतीय वैदिक पद्धति की यह विलक्षणता है कि वह किसी शब्द, संज्ञा द्वारा वस्तु अथवा व्यक्ति को अविदित करता है। उस शब्द की पहचान के साथ वस्तु और व्यक्ति दोनों उससे जुड़ जाते हैं। एक अक्षर को भी एक निश्चित संज्ञा और शक्ति से निर्दिष्ट किया गया है।
अतः जब किसी भी अक्षर का पुनरोच्चार करते हैं तब सहज रूप से उस नाम से एकाकार हो जाता है।


वैदिक मंत्र दृष्टा ऋषि मंत्र का चिंतन करते थे।
वेदों के प्रकट होने में भी मंत्र दर्शन ही मूल स्वरूप था।
जब साधक उस मंत्र से निश्चित संकेत का बार-बार उच्चारण करता है तब उसके मन और मस्तिष्क में प्रकम्पन प्रारंभ हो जाता है।


मंत्र शास्त्र का क्षेत्र इतना विशाल है कि इसका पार नहीं पाया जा सकता।
आगमकार कहते हैं ‘‘अनंत पारं कील मंत्र शास्त्रम्’’ वेदों के अनुसार वाणी मानव जाति का एक अति महत्वपूर्ण सार तथ्य है।
मनुष्य सर्वप्रथम सोचता है और उसे अपने भावों एवं क्रियाओं द्वारा अपने विचारों को विभिन्न माध्यमों द्वारा व्यक्त करता है।


आचार्य आपस्तम्ब के कथानुसार ‘‘मंत्र ब्राह्मणयोर्वेदनाम धेयम्’’ वेदों में मंत्र को सर्वोच्च स्थान है  एवं उन्हें ब्रह्म समान माना गया है। मंत्र में ऐसी रहस्य शक्ति व्याप्त है, जो वाणी द्वारा प्रकाशित नहीं की जा सकती है, अपितु मंत्र शक्ति द्वारा वाणी स्वयं प्रकाशित होती है।
मंत्र आप्तवाक्यजन्य होते हुए भी मंत्र की शक्ति अवर्णनीय है।


मंत्र के शक्ति व स्वरूप की व्याख्या करने पर यह कहा जा सकता है कि मंत्र सर्व शक्तियों से संपन्न, नाश रहित, नित्य सर्व व्यापक जहां वाणी नहीं जा सकती वहां मंत्र जाता है।
अग्नि पुराण के अनुसार मंत्र भोग एवं मोक्ष दोनों को प्रदान करता है।
बीस अक्षरों से अधिक अक्षर वाले मंत्र महामंत्र कहलाते हैं
और दस अक्षर से कम वाले मंत्र को बीज मंत्र की संज्ञा दी जाती है।


पांच अक्षरों से अधिक और दस से कम अक्षरों वाले मंत्र सर्वथा सिद्धि प्रदान करने वाले होते हैं।
मंत्रों की तीन जातियां होती हैं- स्त्री, पुरुष और नपुंसक।
जिन मंत्रों के अंत में ‘‘स्वाहा’’ शब्द लगता है वे स्त्री जाति के होते हैं,


जिन मंत्रों के अंत में ‘‘नमः’’ शब्द लगता है वे सब नपंुसक मंत्र कहलाते हैं और शेष सभी पुरुष जाति के होते हैं।
क्षुद्र कार्य तथा रोगों के विनाश के लिए स्त्री मंत्रों का प्रयोग किया जाता है और शेष अन्य कार्यों में नपुंसक मंत्रों का प्रयोग किया जाता है।
मंत्र युवावस्था में सिद्ध होते हैं। माला मंत्र वृद्धावस्था में सिद्ध होते हैं।
मंत्र के दो भेद होते है आग्नेय और सौम्य।
जिन मंत्रों के आदि में प्रणव प्रयोग किया जाता है वे आग्नेय मंत्र कहलाते हैं और
जिन मंत्रों के अंत में प्रणव प्रयोग किया जाता है वे सौम्य मंत्र कहलाते हैं

जिस समय सूर्य नाड़ी चलती है, उस समय आग्नेय मंत्र का जप करना चाहिए और जिस समय चंद्र नाड़ी चलती है, उस समय सौम्य मंत्र का जप करना चाहिए।
दोनों प्रकार के मंत्र क्रमशः क्रूर एवं सौम्य कर्मों के लिए प्रशस्त माने गये हैं।


यदि आग्नेय मंत्रों के अंत में ‘‘नमः’’ पद प्रयुक्त किया जाता है तो ये सौम्य हो जाते हैं
और सौम्य मंत्रों के अंत में ’’फट्’’ पद प्रयुक्त किया जाता है। तो वे आग्नेय हो जाते हैं।
यदि मंत्र सोया हुआ हो या सोकर तत्काल जगा हुआ हो तो वह सिद्धिप्रद नहीं होता।


जब वाम नाड़ी चलती हो तब वह आग्नेय मंत्र के सोने का समय होता है और जब दाहिनी नाड़ी चलती हो वह आग्नेय मंत्र के जागरण का समय होता है।
सौम्य मंत्र के सोने और जागने का काल आग्नेय मंत्र के सोने और जागने के काल से विपरीत होता है। जिस समय दोनों नाड़ियां चलती हैं, उस समय दोनों प्रकार के मंत्रों का जागरण काल होता है।


प्रत्येक मंत्र के एक अधिष्ठाता देवता रक्षक होते हैं। बीज मंत्र जितना छोटा होगा उतना ही शक्तिशाली होगा, जैसे- ऐं, बं, ठं, ह्रीं, क्लीं, हं इत्यादि मंत्र हैं।


महामृत्युंजय मंत्र में भी आगे-पीछे बीज मंत्र का सम्पुट लगाकर उसका जप करने से उसमें अपार शक्ति का समावेश हो जाता है।


मंत्र सिद्ध करने के लिए एक निश्चित संख्या होती है, उस संख्या तक जाने के लिए नित्य उसका पाठ बार-बार करना चाहिए तभी उस मंत्र का फल मिलता है।


मंत्र सफल न हो इसलिए नकारात्मक शक्तियां अनेक अवरोध पैदा करती हैं - जैसे-जैसे आप मंत्र जप करेंगे वैसे-वैसे आपका अनिष्ट होने की पूरी संभावना रहती है व कई लोग डर के मारे मंत्र जप बंद भी कर देते हैं, पर यह उचित बात नहीं है।


मंत्र को सिद्ध होने तक नित्य करना चाहिए बाद में तो लाभ ही लाभ है।
अंततः वर्णों एवं शब्दों के उच्चारण की चमत्कारी शक्ति को हम सब सुहृदय स्वीकार करते हैं। मंत्र की तरंगे मस्तिष्क तथा बह्मांडीय वातावरण को प्रभावित करती हैं।


जिस प्रकार निरंतर वायुमण्डल में प्रवाहित विद्युत चुंबकीय तथा रेडियो तरंगे हमें नहीं दिखलायी पड़तीं, ठीक उसी तरह मंत्र के द्वारा उच्चारित ध्वनि शक्तियां भी हमें प्रत्यक्ष रूप से दिखलायी नहीं देती।



हनुमान जी के कुछ चमत्कारी सिद्ध मंत्र



जो साधक पूर्ण श्रद्धा,आस्था एवं लग्न के साथ श्री हनुमान जी का जप, पूजा-पठन आदि कुछ भी करते हैं उनको समस्त सुखों की प्राप्ति होती ही होती है, इसमें लेश मात्र भी संशय नहीं है। हनुमत साधना से लाभ पाये असंख्य लोग इसके साक्षात् उदाहरण हैं। वाचिक, उपांशु अथवा मानसिक कोई भी जप इच्छापूर्ति के लिए कर रहे हैं तो उसके लिए ब्रह्मचर्य, सद्विचार अत्यन्त आवश्यक हैं। मंत्र जप के साथ यदि नैवेद्य, पुष्प तथा सिंदूर के चोले से देव को प्रसन्न करने का यत्न करते हैं तो फल की प्राप्ति बहुत ही शीघ्रता से मिलती है। हनुमान जी से सम्बन्धित बीज, मंत्र, चालीसा, बाहुक, बाण, साठिका आदि कुछ भी कर रहे हैं तो उसके बाद एक माला सीता राम की अवश्य जप लिया करें।


मंत्र जप के बाद उस मंत्र का दशांश संख्या में हवन कर लेने से मंत्र सिद्ध हो जाता है। यदि मंत्र जप, दशांश हवन, हवन सामग्री आदि की पूर्ण विधि में जाना है तो उसके विस्तृत ज्ञान के लिए अन्य शास्वत ग्रंथों का अध्ययन मनन करना भी आवश्यक हो जाता है। उचित परामर्श यही है कि जप से पूर्व किसी बौद्धिक व्यक्ति से विषयक चर्चा एवं ज्ञान अवश्य प्राप्त कर लें।*
इच्छा पूर्ति के लिए पाठकों के लाभार्थ कुछ प्रभावशाली मंत्र प्रस्तुत है-

1. सूर्य की प्रसन्नताव यश-कीर्ति के लिए: ॐ  नमो हनुमते रुद्रावताराय विश्वरूपाय अमितविक्रमाय प्रकट-पराक्रमाय महाबलाय सूर्यकोटिसमप्रभाय रामदूताय स्वाहा।

2. शत्रु पराजय के लिए: ॐ नमो हनुमते रुद्रावताराय रामसेवकाय रामभक्तितत्पराय रामहृदयाय लक्ष्मणशक्ति भेदनिवावरणाय लक्ष्मणरक्षकाय दुष्टनिबर्हणाय रामदूताय स्वाहा।

3. शत्रु पर विजय तथा वशीकरणके लिए: ॐ नमो हनुमते रुद्रावताराय सर्वशत्रुसंहरणाय सर्वरोगहराय सर्ववशीकरणाय रामदूताय स्वाहा।

4. सर्वदुःख निवारणार्थ: ॐ नमो हनुमते रुद्रावताराय आध्यात्मिकाधिदैवीकाधिभौतिक तापत्रय निवारणाय रामदूताय स्वाहा।

5. सर्वरुपेण कल्याणार्थ ( मनोकामना पूर्ति के लिए): ॐ नमो हनुमते रुद्रावताराय देवदानवर्षिमुनिवरदाय रामदूताय स्वाहा।

6. धन-धान्य आदि सम्पदाप्राप्ति के लिए: ॐ नमो हनुमते रुद्रावताराय भक्तजनमनः कल्पनाकल्पद्रुमायं दुष्टमनोरथस्तंभनाय प्रभंजनप्राणप्रियाय महाबलपराक्रमाय महाविपत्तिनिवारणाय पुत्रपौत्रधनधान्यादिविधिसम्पत्प्रदाय रामदूताय स्वाहा।

7. स्वरक्षा के लिए: ॐ नमो हनुमते रुद्रावताराय वज्रदेहाय वज्रनखाय वज्रमुखाय वज्ररोम्णे वज्रदन्ताय वज्रकराय वज्रभक्ताय रामदूताय स्वाहा।

8. सर्वव्याधि व भय दूरकरने के लिए: ॐ नमो हनुमते रुद्रावताराय परयन्त्रतन्त्रत्राटकनाशकाय सर्वज्वरच्छेदकाय सर्वव्याधिनिकृन्तकाय सर्वभयप्रशमनाय सर्वदुष्टमुखस्तंभनाय सर्वकार्यसिद्धिप्रदाय रामदूताय स्वाहा।

9. भूत-प्रेत बाधा निवारणार्थ: ॐ नमो हनुमते रुद्रावताराय देवदानवयक्षराक्षस भूतप्रेत पिशाचडाकिनीशाकिनीदुष्टग्रहबन्धनाय रामदूताय स्वाहा।

10. शत्रु संहार के लिए: ॐ नमो हनुमते रुद्रावताराय पच्चवदनाय पूर्वमुखे सकलशत्रुसंहारकाय रामदूताय स्वाहा।

11. भूत-प्रेत के दमन केलिए: ॐ नमो हनुमते रुद्रावताराय पच्चवदनाय दक्षिणमुखेय करालवदनाय नारसिंहाय सकलभूतप्रेतदमनाय रामदूताय स्वाहा।

12. सकल विघ्न निवारण केलिए: ऊँ नमो हनुमते रुद्रावताराय पच्चवदनाय पश्चिममुखे गरुडाय सकलविघ्ननिवारणाय रामदूताय स्वाहा।

13. सकल सम्पत के लिए: ॐ नमो हनुमते रुद्रावताराय पच्चमुखाय उत्तरमुखे आदिवराहाय सकलसम्पत्कराय रामदूताय स्वाहा।

14. सकल वशीकरण के लिए: ॐ नमो हनुमते रुद्रावताराय ऊर्ध्वमुखे हयग्रीवास सकलजन वशीकरणाय रामदूताय स्वाहा।

15. शत्रु की कुबुद्धि को ठीक करने के लिए: ॐ नमो हनुमते रुद्रावताराय सव्रग्रहान् भूतभविष्यद्वर्तमानान् समीपस्थान सर्वकालदुश्टबुद्धीनुच्चाटयोच्चाटय परबलानि क्षोभय क्षोभय मम सर्वकार्याणि साधय साधय स्वाहा।

16. सर्वविघ्न व ग्रहभयनिवारणार्थ: ॐ नमो हनुमते रुद्रावताराय परकृतयन्त्रमन्त्र पराहंकार भूतप्रेत पिशाचपरदृष्टिसर्वविघ्नतर्जनचेटकविद्यासर्वग्रहभयं निवारय निवारय स्वाहा।

17. जादू टोना का असर दूर करने के लिए: ॐ नमो हनुमते रुद्रावताराय डाकिनीशाकिनीब्रह्मराक्षसकुल पिशाचोरुभयं निवारय निवारय स्वाहा।

18. ज्वर दूर करने के लिए: ॐ नमो हनुमते रुद्रावताराय भूतज्वरप्रेतज्वरचातुर्थिकज्वर विष्णुज्वरमहेशज्वरं निवारय निवारय स्वाहा।

19. शारीरिक वेदन कष्टनिवृत्ति के लिए: ॐ नमो हनुमते रुद्रावताराय अक्षिशूलपक्षशूल शिरोऽभ्यन्तर शूलपित्तशूलब्रह्मराक्षसशूलपिशाचकुलच्छेदनं निवारय निवारय स्वाहा।

20. प्रेत बाधा निवारणके लिए: ॐ दक्षिणमुखाय पंचमुखहनुमते करालवदनाय नारसिंहाय ॐ ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रौं ह्रः सकलभूतप्रेतदमनाय स्वाहा।
यह मंत्र कम से कम हजार जप करने पर सिद्ध हो जाता है। मंत्र जाप के बाद अष्टगंध से हवन करना चाहिए।

21. विष उतारने के लिए: ॐ पश्चिममुखाय गरुडाननाय पंचमुखहनुमते मं मं मं मं मं सकलविषहराय स्वाहा।
यह मंत्र दीपावली के दिन अर्धरात्रि में दीपक जलाकर हनुमानजी को साक्षी करके 10 हजार जप लेने से सिद्ध हो जाता है। पुनः बिच्छू, बर्रै आदि बिषधारी जीवों द्वारा काटने पर इस मंत्र को उच्च स्वर से उच्चारण करते हुए उस अंग का स्पर्श करें जहां जीव ने काटा है। कई बार ऐसा करने पर विष उतर जाता है।

22. शत्रु संकट निवारणके लिए: ॐ पूर्वकपिमुखाय पंचमुखहनुमते टं टं टं टं टं सकल शत्रुसंहरणाय स्वाहा।
इस मंत्र के सिद्ध कर लेने पर शत्रु भय दूर हो जाता है। यह केवल 15 हजार मंत्र जप से सिद्ध हो जाता है।

23. महामारी, अमंगल, ग्रह-दोष एवं भूत-प्रेतादि नाश के लिए: ॐ ऐं श्रीं ह्रां ह्रीं ह्रं ह्रौं ह्रः ॐ नमो भगवते महाबलाय-पराक्रमाय भूतप्रेतपिशाचीब्रह्मराक्षसशाकिनीडाकिनीयक्षिणी पूतनामा-रीमहामारीराक्षसभैरववेतालग्रहराक्षसादिकान् क्षणेन हन हन भंजन भंजन मारय मारय शिक्षय शिक्षय महामाहेश्वररुद्रावतार ॐ ह्रं फट् स्वाहा। ॐ नमो भगवते हनुमदाख्याय रुद्राय सर्वदुष्टजनमुखस्तम्भनं कुरु कुरु स्वाहा। ॐ ह्रां ह्रीं ह्रं ठं ठं ठं फट् स्वाहा।
यह मंत्र मंगलवार को दिन भर व्रत रखने के बाद अर्धरात्रि में हनुमानजी के मंदिर में सात हजार जप करने से सिद्ध हो जाता है।



MMSTM समवैध्यावि ध्यान की वह आधुनिक विधि है। कोई चाहे नास्तिक हो आस्तिक हो, साकार, निराकार कुछ भी हो बस पागल और हठी न हो तो उसको ईश अनुभव होकर रहेगा बस समयावधि कुछ बढ सकती है। आपको प्रतिदिन लगभग 40 मिनट देने होंगे और आपको 1 दिन से लेकर 10 वर्ष का समय लग सकता है। 1 दिन उनके लिये जो सत्वगुणी और ईश भक्त हैं। 10 साल बगदादी जैसे हत्यारे के लिये। वैसे 6 महीने बहुत है किसी आम आदमी के लिये।"  सनातन पुत्र देवीदास विपुल खोजी
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Wednesday, June 26, 2019

शिव और उनके प्रतीक

                      शिव और उनके प्रतीक

सनातनपुत्र देवीदास विपुल "खोजी"

 विपुल सेन उर्फ विपुल लखनवी,
(एम . टेक. केमिकल इंजीनियर) वैज्ञानिक एवं कवि
पूर्व सम्पादक : विज्ञान त्रैमासिक हिन्दी जर्नल “वैज्ञनिक” ISSN 2456-4818
  वेब:  vipkavi.info वेब चैनलvipkavi
ब्लाग: freedhyan.blogspot.com, 


शिव को समझने के पहले हमको ज्ञान और विज्ञान में अंतर समझना होगा।
चतु:श्लोकी भागवत जो कि श्रीमद्भागवत का सार है। यह दूसरे स्कंध के नवे अध्याय के तीसवें से छतीसवें श्लोक हैं। इन सात श्लोकों जिनमें प्रथम  दो उपक्रम के रूप में हैं एवं अंतिम उपसंहार के रूप में है।


श्रीभवानुवाच:
ज्ञानं परमगुह्मं मे यद् विज्ञानस्मंवितम्।
सरहस्यं तद्ग्मं च गृहाण गदितं मया।। श्लोक 30, भागवत्।


भगवान बोले: मेरे निर्गुण निराकार सच्चिदानंदघन स्वरूप के तत्व, प्रभाव, माहात्म्य का यथार्थ ज्ञान ही “ज्ञान” है तथा सगुण-निराकार और दिव्य साकार-स्वरूप के लीला, गुण, प्रभाव, तत्व, रहस्य और माहात्म्य का वास्तविक ज्ञान ही “विज्ञान” है। यह विज्ञानसहित ज्ञान समस्त गुह्य और गुह्यतर विषयों से भी अतिशय गुह्य गोपनीय है। इसलिये यह परम्गुह्य, सबसे बढकर गुप्त रखने योग्य है। 

यह परिभाषा विज्ञान की सीमा तय कर देती है कि साकार को ही विज्ञान जान सकता है निराकार को नहीं। शून्य तक ही जान सकता है विज्ञान उसके आगे नहीं। अपने अस्तित्व को समझने के लिए विज्ञान पूरे जोर-शोर से कोशिशें करता रहा है। लेकिन हमारे देखने, सुनने स्पर्श करने की शक्तियां और यहां तक मन भी सिर्फ भौतिक चीज़ों को ही समझ सकते हैं। हमारे द्वारा बनाया गया कोई भी उपकरण भी सिर्फ भौतिक चीज़ों को समझ सकता है। तो फिर वह जो भौतिक से परे है, उसकी प्रकृति क्या है?

अगर हम भौतिकता से थोड़ा आगे जाएं, तो सब कुछ शून्य हो जाता है। शून्य का अर्थ है पूर्ण खालीपन, एक ऐसी स्थिति जहां भौतिक कुछ भी नहीं है। जहां भौतिक कुछ है ही नहीं, वहां आपकी ज्ञानेंद्रियां भी बेकाम की हो जाती हैं। अगर आप शून्य से परे जाएं, तो आपको जो मिलेगा, उसे हम शिव के रूप में जानते हैं।


शिव का अर्थ है, जो नहीं है। जो नहीं है, उस तक अगर पहुंच पाएंगे, तो आप देखेंगे कि इसकी प्रकृति भौतिक नहीं है। इसका मतलब है इसका अस्तित्व नहीं है, पर यह धुंधला है, अपारदर्शी है। ऐसा कैसे हो सकता है?  यह आपके तार्किक दिमाग के दायरे में नहीं है। आधुनिक विज्ञान मानता है कि इस पूरी रचना को इंसान के तर्कों  पर खरा उतरना होगा, लेकिन जीवन को देखने का यह बेहद सीमित तरीका है। संपूर्ण सृष्टि मानव बुद्धि के तर्कों पर कभी खरी नहीं उतरेगी। आपका दिमाग इस सृष्टि में फिट हो सकता है, यह सृष्टि आपके दिमाग में कभी फिट नहीं हो सकती। तर्क इस अस्तित्व के केवल उन पहलुओं का विश्लेषण कर सकते हैं, जो भौतिक हैं। एक बार अगर आपने भौतिक पहलुओं को पार कर लिया, तो आपके तर्क पूरी तरह से उसके अधिकार क्षेत्र से बाहर होंगे।


योगिक विद्या में विज्ञान को कहानियों के रूप में प्रकट किया गया है। लेकिन हमें हमेशा यह बताया गया है कि हमें किसी विद्या पर तब तक यकीन नहीं करना चाहिए, जब तक हम खुद उसका अनुभव न कर लें।

यह सिद्धांत बिल्कुल सही है और हमने अपने भीतर साबित किया है कि यह सत्य है। उसी के निष्कर्ष तमाम सनातन साहित्य में लिख डाले। जिस चीज को साबित करने के लिए वैज्ञानिकों ने खरबों डॉलर के यंत्र बनाए, उसी चीज को आपके भीतर आपके अपने अनुभवों में साबित किया जा सकता है, बशर्ते आप इस जीवन की गहराई में उतरने को इच्छुक हों। अगर आप गहराई से देखें तो आप पाएंगे कि इस ब्रह्मांड की हर चीज के बारे में अनुमान के आधार पर निष्कर्ष निकाला गया है। यहां तक कि विज्ञान भी अनुमान के आधार पर ही निष्कर्ष निकाल रहा है।


भौतिक से परे होने के कारण शून्य तत्व को सीधे तौर पर दर्शाया नहीं जा सकता। यही कारण है कि योगिक विज्ञान ने हमेशा कहानियों के माध्यम से इसकी ओर इंगित किया है। शिव और शक्ति का  मेल, आभूषणों और अलंकारों से सजा शिव का रूप इसी शून्य की ओर  संकेत करते हैं।

योगिक विज्ञान में  भगवान शिव को रूद्र कहा जाता है। रूद्र का अर्थ है वह जो रौद्र या भयंकर रूप में हो। शिव को सृष्टि -कर्ता भी कहा जाता है। मेरे ब्लाग के लेख “ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति” में लिखा है कि “निराकार सुप्त ऊर्जा जिसे निराकार कृष्ण कहते है। उसमें महामाया ने कम्पन्न किया तब निराकार शक्ति जिसे दुर्गा या काली कह सकते। उसने पहले रुद्र को उत्पन्न किया। यानि निर्माण के पहले विनाश की तैयारी। काली तमस गुण की देवी कही गई है। क्यों??? क्योकिं तमस गुण ही सृष्टि चक्र चला सकता है। क्योंकि विनाश हेतु तमस गुण आवश्यक है। साथ ही यह तमस को नष्ट कर आवश्यकता पडने पर रज्स और सत्व गुण भी पैदा कर सकती है। सत्व गुण छुप सकता है पर नष्ट नही हो सकता और रजस गुण तो निर्माण हेतु आवश्यक है। 

आजकल वैज्ञानिक कह रहे हैं कि हर चीज डार्क मैटर से आती है यानि निराकार कृष्ण के द्वारा। साथ ही उन्होंने डार्क एनर्जी के बारे में भी बात करना शुरू कर दिया है। योग में हमारे पास दोनों मौजूद हैं - डार्क मैटर भी और डार्क एनर्जी भी। यहां शिव को काला माना गया है यानी डार्क मैटर और शक्ति का प्रथम रूप या डार्क एनर्जी को काली कहा जाता है।

हाल ही में स्कॉटिश यूनिवर्सिटी के कुछ वैज्ञानिक कह रहे थे कि डार्क मैटर और डार्क एनर्जी के बीच एक तरह का लिंक है। उन्हें लगता था कि ये चीजें अलग-अलग हैं। अब वे कह रहे हैं कि वे एक दूसरे से जुड़ी हैं।

वास्तव में योग सृष्टि को भीतर से समझाता है। यह एक तार्किक संस्कृति है। कुछ हद तक स्वामी शिव ओम तीर्थ जी महाराज के शब्दों बौद्धिक विलासता की संस्कृति।

कहानी कुछ इस तरह है – शिव सो रहे हैं। जब हम यहां शिव कहते हैं तो हम किसी व्यक्ति या उस योगी के बारे में बात नहीं कर रहे हैं, यहां शि-व का मतलब है “वह जो है ही नहीं”। जो है ही नहीं, वह सिर्फ सो सकता है। इसलिए शिव को हमेशा ही डार्क बताया गया है। यानि सुप्त निराकार उर्जा। मुझे यह निराकार कृष्ण लगा किंतु किसी किसी को शिव लगता है। फर्क केवल नाम का हो सकता है। शैव लोग शिव मान सकते हैं। किंतु मुझे कृष्ण अधिक सही लगा। क्योकि निराकार कृष्ण बीच के आसन पर बैठे थे और शक्ति बाई तरफ व त्रिशूलधारी शिव दाईं तरफ्। वास्तव में कृष्ण सृष्टि के रक्षक तो शिव पदार्थ और शक्ति यानि जगत संचालन की ऊर्जा। 


खैर शिव सो रहे हैं और शक्ति उन्हें देखने आती हैं। वह उन्हें जगाने आई हैं क्योंकि वह उनके साथ नृत्य करना चाहती हैं, उनके साथ खेलना चाहती हैं और उन्हें रिझाना चाहती हैं। शुरू में वह नहीं जागते, लेकिन थोड़ी देर में उठ जाते हैं। मान लीजिए कि कोई गहरी नींद में है और आप उसे उठाते हैं तो उसे थोड़ा गुस्सा तो आएगा ही, बेशक उठाने वाला कितना ही सुंदर क्यों न हो। अत: शिव भी गुस्से में गरजे और तेजी से उठकर खड़े हो गए। उनके ऐसा करने के कारण ही उनका पहला रूप और पहला नाम रुद्र पड़ गया। रुद्र शब्द का अर्थ होता है – दहाडऩे वाला, गरजने वाला। मतलब शक्ति ने उस चलायमान ऊर्जा को जगाया चलो सृष्टि निर्माण करें।


अगर कई धमाकें हों, तो क्या वह एक गर्जना जैसी नहीं होगी क्या? क्या इसे हुंकार नहीं कह सकते मतलब शिव हुंकार भरकर खड़े हो गए हों।


आज जिस भी चीज़ को हम योग के नाम से जानते हैं, उसकी शुरुआत कई सालों पहले भगवान शिव द्वारा की गयी थी। वैज्ञानिक तथ्य भी यह बताते हैं कि करीब पचास हज़ार साल पहले मानव चेतना में एक जबरदस्त उछाल आया था।


आधुनिक मानवशास्त्र और विज्ञान के मुताबिक आज से करीब पचास हजार साल और सत्तर हजार साल पहले के बीच कहीं कुछ घटित हुआ। इन बीस हजार सालों के दौरान कुछ ऐसा हुआ, जिसने अचानक मानव जाति में बुद्धि को एक अलग स्तर तक पहुंचा दिया। इंसानों में बुद्धि और चेतना का अचानक विस्फोट सा हुआ, जो सामान्य विकास के क्रम में नहीं है। उस समय कुछ ऐसी प्रेरक घटनाएं हुईं जिसने उस समय के मानव की बुद्धि और चेतनता के विकास को एकदम से तीव्र कर दिया। योगिक परंपरा के मुताबिक यही वो समय था जब हिमालय क्षेत्र में योगिक प्रक्रिया की शुरुआत हुई थी।

आदियोगी ने अपने सात शिष्यों यानी सप्तऋषियों के साथ दक्षिण का रुख किया। उन्होंने जीवन-तंत्र की खोज करनी शुरू कर दी, जिसे आज हम योग कहते हैं। मानवता के इतिहास में पहली बार किसी ने इस संभावना को खोला कि अगर आप इसके लिए कोशिश करने को इच्छुक हैं, तो आप अपनी पूरी चेतना में अपनी वर्तमान अवस्था से दूसरी अवस्था में विकसित हो सकते हैं। आदियोगी ने बताया कि आपका जो वर्तमान ढांचा है, यही आपकी सीमा नहीं है। आप इस ढांचे को पार कर सकते हैं और जीवन के एक पूरी तरह से अलग पहलू की ओर बढ़ सकते हैं।


उस ज्ञान के प्रसार के लिए इन सात लोगों को भेजा गया। जो सप्तऋषि बने।

हमारी परंपरा में भगवान शिव को कई सारी वस्तुओं से सजा हुआ दिखाया जाता है। उनके माथे पर तीसरी आंख, उनका वाहन नंदी, और उनका त्रिशूल इसके उदाहरण हैं। क्या सच में शिव के माथे पर एक और आंख है? और क्या वे हमेशा नंदी और त्रिशूल को अपने साथ रखते हैं? या फिर इन्हें चिन्हों की तरह इस्तेमाल करके हमें कुछ और समझाने की कोशिश की गई है?


शिव को हमेशा त्रयंबक कहा गया है, क्योंकि उनकी एक तीसरी आंख है। तीसरी आंख का मतलब यह नहीं है कि किसी के माथे में दरार पड़ी और वहां कुछ निकल आया! इसका मतल‍ब सिर्फ यह है कि बोध या अनुभव का एक दूसरा आयाम खुल गया है। दो आंखें सिर्फ भौतिक चीजों को देख सकती हैं। अगर मैं अपना हाथ उन पर रख लूं, तो वे उसके परे नहीं देख पाएंगी। उनकी सीमा यही है। अगर तीसरी आंख खुल जाती है, तो इसका मतलब है कि बोध का एक दूसरा आयाम खुल जाता है जो कि भीतर की ओर देख सकता है। इस बोध से आप जीवन को बिल्कुल अलग ढंग से देख सकते हैं। इसके बाद दुनिया में जितनी चीजों का अनुभव किया जा सकता है, उनका अनुभव हो सकता है। आपके बोध के विकास के लिए सबसे अहम चीज यह है – कि आपकी ऊर्जा को विकसित होना होगा और अपना स्तर ऊंचा करना होगा। योग की सारी प्रक्रिया यही है कि आपकी ऊर्जा को इस तरीके से विकसित किया जाए और सुधारा जाए कि आपका बोध बढ़े और तीसरी आंख खुल जाए। तीसरी आंख दृष्टि की आंख है। दोनों भौतिक आंखें सिर्फ आपकी इंद्रियां हैं। वे मन में तरह-तरह की फालतू बातें भरती हैं क्योंकि आप जो देखते हैं, वह सच नहीं है। आप इस या उस व्यक्ति को देखकर उसके बारे में कुछ अंदाजा लगाते हैं, मगर आप उसके अंदर शिव को नहीं देख पाते। आप चीजों को इस तरह देखते हैं, जो आपके जीवित रहने के लिए जरूरी हैं। कोई दूसरा प्राणी उसे दूसरे तरीके से देखता है, जो उसके जीवित रहने के लिए जरूरी है। इसीलिए हम इस दुनिया को माया कहते हैं। माया का मतलब है कि यह एक तरह का धोखा है। इसका मतलब यह नहीं है कि अस्तित्व एक कल्पना है।

भगवान त्रिनेत्र, त्र्यम्बक और सोमशेखर के नामों से भी जानें जाते हैं


शिव के कई नाम हैं। उनमें एक काफी प्रचलित नाम है सोम या सोमसुंदर। वैसे तो सोम का मतलब चंद्रमा होता है मगर सोम का असली अर्थ नशा होता है। नशा सिर्फ बाहरी पदार्थों से ही नहीं होता, बल्कि केवल अपने भीतर चल रही जीवन की प्रक्रिया में भी आप मदमस्त रह सकते हैं। इसे मैं रामरस के नाम से पुकारता हूं।

अगर आप जीवन के नशे में नहीं डूबे हैं, तो सिर्फ सुबह का उठना, अपने शरीर की जरूरतों को पूरा करना, खाना-पीना, रोजी-रोटी कमाना, आस-पास फैले दुश्मनों से खुद को बचाना और फिर हर रात सोने जाना, जैसी दैनिक क्रियाएं आपकी जिंदगी कष्टदायक बना सकती हैं। अभी ज्यादातर लोगों के साथ यही हो रहा है। जीवन की सरल प्रक्रिया उनके लिए नर्क बन गई है। ऐसा सिर्फ इसलिए है क्योंकि वे जीवन का नशा किए बिना उसे बस जीने की कोशिश कर रहे हैं। चंद्रमा को सोम कहा गया है, यानि नशे का स्रोत।

शिव चंद्रमा को एक आभूषण की तरह पहनते हैं क्योंकि वह एक महान योगी हैं जो हर समय नशे में चूर रहते हैं। फिर भी वह बहुत ही सजग होकर बैठते हैं। नशे का आनंद उठाने के लिए आपको सचेत होना ही चाहिए।


नंदी अनंत प्रतीक्षा का प्रतीक है। भारतीय संस्कृति में इंतजार को सबसे बड़ा गुण माना गया है। जो बस चुपचाप बैठकर इंतजार करना जानता है, वह कुदरती तौर पर ध्यानमग्न हो सकता है। नंदी को ऐसी उम्मीद नहीं है कि शिव कल आ जाएंगे। वह किसी चीज का अंदाजा नहीं लगाता या उम्मीद नहीं करता। वह बस इंतजार करता है। वह हमेशा इंतजार करेगा। यह गुण ग्रहणशीलता का मूल तत्व है। नंदी शिव का सबसे करीबी साथी है क्योंकि उसमें ग्रहणशीलता का गुण है। किसी मंदिर में जाने के लिए आपके अंदर नंदी का गुण होना चाहिए। ताकि आप बस बैठ सकें। इस गुण के होने का मतलब है – आप स्वर्ग जाने की कोशिश नहीं करेंगे, आप यह या वह पाने की कोशिश नहीं करेंगे – आप बस वहां बैठेंगे। लोगों को हमेशा से यह गलतफहमी रही है कि ध्यान किसी तरह की क्रिया है। नहीं – यह एक गुण है। यही बुनियादी अंतर है। प्रार्थना का मतलब है कि आप भगवान से बात करने की कोशिश कर रहे हैं। ध्यान का मतलब है कि आप भगवान की बात सुनना चाहते हैं। आप बस अस्तित्व को, सृष्टि की परम प्रकृति को सुनना चाहते हैं। आपके पास कहने के लिए कुछ नहीं है, आप बस सुनते हैं। नंदी का गुण यही है, वह बस सजग होकर बैठा रहता है। यह बहुत अहम चीज है – वह सजग है, सुस्त नहीं है। वह आलसी की तरह नहीं बैठा है। वह पूरी तरह सक्रिय, पूरी सजगता से, जीवन से भरपूर बैठा है, ध्यान यही है।


शिव का त्रिशूल जीवन के तीन मूल पहलुओं को दर्शाता है। योग परंपरा में उसे रुद्र, हर और सदाशिव कहा जाता है। ये जीवन के तीन मूल आयाम हैं, जिन्हें कई रूपों में दर्शाया गया है। उन्हें इड़ा, पिंगला और सुषुम्ना भी कहा जा सकता है। ये तीनों प्राणमय कोष यानि मानव तंत्र के ऊर्जा शरीर में मौजूद तीन मूलभूत नाड़ियां हैं – बाईं, दाहिनी और मध्य। नाड़ियां शरीर में उस मार्ग या माध्यम की तरह होती हैं जिनसे प्राण का संचार होता है। तीन मूलभूत नाड़ियों से 72,000 नाड़ियां निकलती हैं। इन नाड़ियों का कोई भौतिक रूप नहीं होता।  यानी अगर आप शरीर को काट कर इन्हें देखने की कोशिश करें तो आप उन्हें नहीं खोज सकते। लेकिन जैसे-जैसे आप अधिक सजग होते हैं, आप देख सकते हैं कि ऊर्जा की गति अनियमित नहीं है, वह तय रास्तों से गुजर रही है। प्राण या ऊर्जा 72,000 विभिन्न रास्तों से होकर गुजरती है। इड़ा और पिंगला जीवन के बुनियादी द्वैत के प्रतीक हैं। इस द्वैत को हम परंपरागत रूप से शिव और शक्ति का नाम देते हैं। या आप इसे बस पुरुषोचित और स्त्रियोचित कह सकते हैं, या यह आपके दो पहलू – तर्क-बुद्धि और सहज-ज्ञान हो सकते हैं।



योग संस्कृति में, सर्प यानी सांप कुंडलिनी का प्रतीक है। यह आपके भीतर की वह उर्जा है जो फिलहाल इस्तेमाल नहीं हो रही है। कुंडलिनी का स्वभाव ऐसा होता है कि जब वह स्थिर होती है, तो आपको पता भी नहीं चलता कि उसका कोई अस्तित्व है। केवल जब उसमें हलचल होती है, तभी आपको महसूस होता है कि आपके अंदर इतनी शक्ति है। जब तक वह अपनी जगह से हिलती-डुलती नहीं, उसका अस्तित्व लगभग नहीं के बराबर होता है।

इस कारण सांप को कुंडलिनी के प्रतीक के रूप में देखा जाता है, क्योंकि कुंडली मारे सांप को भी देखना बहुत मुश्किल होता है, जब तक कि वह आगे नहीं बढ़ता। इसी तरह, आप कुंडलिनी में कैद इस ऊर्जा को सिर्फ तब देख पाते हैं जब वह हिलती-डुलती है। शिव के साथ सांप को दिखाने की यही वजह है। यह दर्शाता है कि उनकी ऊर्जा शिखर तक पहुंच चुकी है।  आध्यात्मिकता या रहस्यवाद को सांपों से अलग नहीं किया जा सकता क्योंकि इस जीव में बोध का एक खास आयाम विकसित है। यह एक रेंगने वाला जीव है, जिसे जमीन पर रेंगना चाहिए मगर शिव ने उसे अपने सिर पर धारण किया है। इससे यह पता चलता है कि वह उनसे भी ऊपर है। यह दर्शाता है कि कुछ रूपों में सांप शिव से भी बेहतर हैं। सांप ऐसा जानवर है जो आपके सहज रहने पर आपके साथ बहुत आराम से रहता है।


“ॐ नम: शिवाय” वह मूल मंत्र है, जिसे कई सभ्यताओं में महामंत्र माना गया है। इस मंत्र का अभ्यास विभिन्न आयामों में किया जा सकता है। इन्हें पंचाक्षर कहा गया है, इसमें पांच मंत्र हैं। ये पंचाक्षर प्रकृति में मौजूद पांच तत्वों के प्रतीक हैं और शरीर के पांच मुख्य केंद्रों के भी प्रतीक हैं। इन पंचाक्षरों से इन पांच केंद्रों को जाग्रत किया जा सकता है। ये पूरे तंत्र (सिस्टम) के शुद्धीकरण के लिए बहुत शक्तिशाली माध्यम हैं।

लेकिन अगर आपके अंदर एक खास तरह की तैयारी नहीं है तो बेहतर होगा कि आप खुद मंत्रोच्‍चारण न करें। आप इस मंत्रोच्‍चारण को खूब ध्‍यान से सुनें, यही लाभदायक होगा।

बहुत लोग हमारे प्राचीन शास्त्रों और ऋषि मुनियों के ज्ञान कों बहुत ही हलके में लेते है. वे जानते नहीं की प्रत्येक स्तोत्र अपने आप में गुढ अर्थ निहित है. और अगर उसे समझ लिया जाए तो फिर क्या असंभव है.

MMSTM समवैध्यावि ध्यान की वह आधुनिक विधि है। कोई चाहे नास्तिक हो आस्तिक हो, साकार, निराकार कुछ भी हो बस पागल और हठी न हो तो उसको ईश अनुभव होकर रहेगा बस समयावधि कुछ बढ सकती है। आपको प्रतिदिन लगभग 40 मिनट देने होंगे और आपको 1 दिन से लेकर 10 वर्ष का समय लग सकता है। 1 दिन उनके लिये जो सत्वगुणी और ईश भक्त हैं। 10 साल बगदादी जैसे हत्यारे के लिये। वैसे 6 महीने बहुत है किसी आम आदमी के लिये।"  सनातन पुत्र देवीदास विपुल खोजी
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मानसिक बीमारी जाति प्रथा वेदों से नहीं उपजी

मानसिक बीमारी जाति प्रथा वेदों से नहीं उपजी


सनातनपुत्र देवीदास विपुल "खोजी"

 विपुल सेन उर्फ विपुल लखनवी,
(एम . टेक. केमिकल इंजीनियर) वैज्ञानिक एवं कवि
वैज्ञानिक अधिकारी, भाभा परमाणु अनुसंधान केन्द्र, मुम्बई
पूर्व सम्पादक : विज्ञान त्रैमासिक हिन्दी जर्नल “वैज्ञनिक” ISSN 2456-4818
 फोन : (नि.) 022 2754 9553  (का) 022 25591154   
मो.  09969680093
  - मेल: vipkavi@gmail.com  वेब:  vipkavi.info वेब चैनलvipkavi
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आज की राजनीति में यन एक फैशन है कि यदि वोट चाहिये तो वेदों को गाली दे दो। मनु को कोस दो। बस मूर्खों की लम्बी कतार खडी है जो बिना पढे बिना जाने तुमको दलित मसीहा का खिताब दे देगी। राम का, कृष्ण का अपमान करो तो इसाई और मुस्लिम के वोट ले लो।

मेरी दृष्टि में जो कहते हैं वे तो दुष्टता के साथ पाप कर ही रहे हैं बल्कि जो बिना जाने मान लेते हैं वे उनसे अधिक दोषी। कहीं से वेदों पुरानो पर उंगली उठा देता है की दलित सवर्ण या जात पात वेदों की देन है मनुस्मृति की देन है| कुछ लोगों का मत है की इसकी शुरुआत मुग़लों के आने से हुई थी| लेकिन अध्ययन और खोज से यही पता चला है की- जात पात की शुरुआत द्वापर युग के मध्य से शुरु हुई थी| और वो भी वेदों के करण नहीं, आपसी रंजिश और एक दूसरे को नीचा दिखाने में।

वेदों के बारे में फैलाई गई भ्रांतियों में से एक यह भी है कि वे अब्राह्मण ब्राह्मण और उनके द्वारा रचित ब्राह्मणवादी ग्रंथ और कथायें हैं। ताकि उनकी दुकान चलती रहे। हिन्दू/सनातन/वैदिक धर्म का मुखौटा बने जातिवाद की जड़ भी वेदों में बताई जा रही है और इन्हीं विषैले विचारों पर दलित आन्दोलन इस देश में चलाया जा रहा है।


 परंतु, इस से बड़ा असत्य और कोई नहीं है | इस में हम इस मिथ्या मान्यता को खंडित करते हुए, वेद तथा संबंधित अन्य ग्रंथों से स्थापित करेंगे कि:
१.चारों वर्णों का और विशेषतया शूद्र का वह अर्थ है ही नहीं, जो मैकाले के मानसपुत्र दुष्प्रचारित करते रहते हैं ।
2. मनुष्य जन्म से एक शूद्र ही होता है। परन्तु ब्रह्म के वरण से वह ब्राह्मण, शक्तिशाली होने के कारण क्षत्रिय, व्यापार निपुण होने के कारण वैश्य और ज्ञान हीन होना और सेवा में रुचि रखने के कारन शूद्र ही रह जाता है।
3.वैदिक जीवन पद्धति सब मानवों को समान अवसर प्रदान करती है तथा जन्म- आधारित भेदभाव की कोई गुंजाइश नहीं रखती।
4.वेद ही एकमात्र ऐसा ग्रंथ है जो सर्वोच्च गुणवत्ता स्थापित करने के साथ ही सभी के लिए समान अवसरों की बात कहता हो | जिसके बारे में आज के मानवतावादी तो सोच भी नहीं सकते।


चलिये चाय पर चर्चा की जाये। सबसे पहले कुछ उपासना मंत्रों से जानें कि वेद शूद्र के बारे में क्या कहते हैं:


 यजुर्वेद १८ | ४८
हे भगवन! हमारे ब्राह्मणों में, क्षत्रियों में, वैश्यों में तथा शूद्रों में ज्ञान की ज्योति दीजिये।  मुझे भी वही ज्योति प्रदान कीजिये ताकि मैं सत्य के दर्शन कर सकूं।
यजुर्वेद २० | १७
जो अपराध हमने गाँव, जंगल या सभा में किए हों, जो अपराध हमने इन्द्रियों में किए हों, जो अपराध हमने शूद्रों में और वैश्यों में किए हों और जो अपराध हमने धर्म में किए हों, कृपया उसे क्षमा कीजिये और हमें अपराध की प्रवृत्ति से छुडाइए।
यजुर्वेद २६ | २
हे मनुष्यों ! जैसे मैं ईश्वर इस वेद ज्ञान को पक्षपात के बिना मनुष्यमात्र के लिए उपदेश करता हूं, इसी प्रकार आप सब भी इस ज्ञान को ब्राह्मण, क्षत्रिय, शूद्र,वैश्य, स्त्रियों के लिए तथा जो अत्यन्त पतित हैं उनके भी कल्याण के लिये दो | विद्वान और धनिक मेरा त्याग न करें।
अथर्ववेद १९ | ३२ | ८
हे ईश्वर ! मुझे ब्राह्मण, क्षत्रिय, शूद्र और वैश्य सभी का प्रिय बनाइए।  मैं सभी से प्रसंशित होऊं।
अथर्ववेद १९ | ६२ | १
सभी श्रेष्ट मनुष्य मुझे पसंद करें।  मुझे विद्वान, ब्राह्मणों, क्षत्रियों, शूद्रों, वैश्यों और जो भी मुझे देखे उसका प्रियपात्र बनाओ।


इन वैदिक प्रार्थनाओं से विदित होता है कि :
-वेद में ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र चारों वर्ण समान माने गए हैं |
-सब के लिए समान प्रार्थना है तथा सबको बराबर सम्मान दिया गया है |
-और सभी अपराधों से छूटने के लिए की गई प्रार्थनाओं में शूद्र के साथ किए गए अपराध भी शामिल हैं |
-वेद के ज्ञान का प्रकाश समभाव रूप से सभी को देने का उपदेश है |
-यहां ध्यान देने योग्य है कि इन मंत्रों में शूद्र शब्द वैश्य से पहले आया है,अतः स्पष्ट है कि न तो शूद्रों का स्थान अंतिम है और ना ही उन्हें कम महत्त्व दिया गया है |
इस से सिद्ध होता है कि वेदों में शूद्रों का स्थान अन्य वर्णों की ही भांति आदरणीय है और उन्हें उच्च सम्मान प्राप्त है।
 

यह कहना कि वेदों में शूद्र का अर्थ कोई ऐसी जाति या समुदाय है जिससे भेदभाव बरता जाए – पूर्णतया निराधार है।


मनुस्मृति जो सृष्टि में नीति और धर्म ( कानून) का निर्धारण करने वाला सबसे पहला ग्रंथ माना गया है उस को घोर जाति प्रथा को बढ़ावा देने वाला भी बताया जा रहा है। आज स्थिति यह है कि मनुस्मृति वैदिक संस्कृति की सबसे अधिक विवादित पुस्तकों में है | पूरा का पूरा दलित आन्दोलन ‘ मनुवाद ‘ के विरोध पर ही खड़ा हुआ है | मनु जाति प्रथा के समर्थकों के नायक हैं तो दलित नेताओं ने उन्हें खलनायक के सांचे में ढाल रखा है | पिछड़े तबकों के प्रति प्यार का दिखावा कर स्वार्थ की रोटियां सेकने के लिए ही बहुत से लोगों द्वारा मनुस्मृति जलाई जाती रही है | अपनी विकृत भावनाओं को पूरा करने के लिए नीची जातियों पर अत्याचार करने वाले, एक  सींग वाले विद्वान राक्षस के रूप में भी मनु को चित्रित किया गया है | हिन्दुत्व और वेदों को गालियां देने वाले कथित सुधारवादियों के लिए तो मनुस्मृति एक पसंदीदा साधन बन गया है| विधर्मी वायरस पीढ़ियों से हिन्दुओं के धर्मांतरण में इससे फ़ायदा उठाते आए हैं जो आज भी जारी है।

ध्यान देने वाली बात यह है कि मनु की निंदा करने वाले इन लोगों ने  मनुस्मृति को कभी गंभीरता से पढ़ा भी है कि नहीं।


दूसरी ओर जातीय घमंड में चूर और उच्चता में अकड़े हुए लोगों के लिए मनुस्मृति एक ऐसा धार्मिक ग्रंथ है जो उन्हें एक विशिष्ट वर्ग में नहीं जन्में लोगों के प्रति सही व्यवहार नहीं करने का अधिकार और अनुमति देता है| ऐसे लोग मनुस्मृति से कुछ एक गलत और भ्रष्ट श्लोकों का हवाला देकर जातिप्रथा को उचित बताते हैं पर स्वयं की अनुकूलता और स्वार्थ के लिए यह भूलते हैं कि वह जो कह रहे हैं उसे के बिलकुल विपरीत अनेक श्लोक हैं।


मनुस्मृति पर लगाये जाने वाले तीन मुख्य आक्षेप :
१. मनु ने जन्म के आधार पर जातिप्रथा का निर्माण किया |
२. मनु ने शूद्रों के लिए कठोर दंड का विधान किया और ऊँची जाति खासकर ब्राह्मणों के लिए विशेष प्रावधान रखे।
३. मनु नारी का विरोधी था और उनका तिरस्कार करता था | उसने स्त्रियों के लिए पुरुषों से कम अधिकार का विधान किया।


मनुस्मृति उस काल की है जब जन्मना जाति व्यवस्था के विचार का भी कोई अस्तित्व नहीं था | अत: मनुस्मृति जन्मना समाज व्यवस्था का कहीं भी समर्थन नहीं करती।  महर्षि मनु ने मनुष्य के गुण- कर्म – स्वभाव पर आधारित समाज व्यवस्था की रचना कर के वेदों में परमात्मा द्वारा दिए गए आदेश का ही पालन किया है।  (देखें – ऋग्वेद-१०.१०.११- १२, यजुर्वेद-३१.१०-११, अथर्ववेद-१९.६.५-६)।


यह वर्ण व्यवस्था है | वर्ण शब्द “वृञ” धातु से बनता है जिसका मतलब है चयन या चुनना और सामान्यत: प्रयुक्त शब्द वरण भी यही अर्थ रखता है।  जैसे वर अर्थात् कन्या द्वारा चुना गया पति, जिससे पता चलता है कि वैदिक व्यवस्था कन्या को अपना पति चुनने का पूर्ण अधिकार देती है।


मनुस्मृति में वर्ण व्यवस्था को ही बताया गया है और जाति व्यवस्था को नहीं इसका सबसे बड़ा प्रमाण यह है कि मनुस्मृति के प्रथम अध्याय में कहीं भी जाति या गोत्र शब्द ही नहीं है बल्कि वहां चार वर्णों की उत्पत्ति का वर्णन है।  यदि जाति या गोत्र का इतना ही महत्त्व होता तो मनु इसका उल्लेख अवश्य करते कि कौनसी जाति ब्राह्मणों से संबंधित है,  कौनसी क्षत्रियों से, कौनसी वैश्यों और शूद्रों से।


इस का मतलब हुआ कि स्वयं को जन्म से ब्राह्मण या उच्च जाति का मानने वालों के पास इसका कोई प्रमाण नहीं है। ज्यादा से ज्यादा वे इतना बता सकते हैं कि कुछ पीढ़ियों पहले से उनके पूर्वज स्वयं को ऊँची जाति का कहलाते आए हैं।  ऐसा कोई प्रमाण नहीं है कि सभ्यता के आरंभ से ही यह लोग ऊँची जाति के थे | जब वह यह साबित नहीं कर सकते तो उनको यह कहने का क्या अधिकार है कि आज जिन्हें जन्मना शूद्र माना जाता है, वह कुछ पीढ़ियों पहले ब्राह्मण नहीं थे ? और स्वयं जो अपने को ऊँची जाति का कहते हैं वे कुछ पीढ़ियों पहले शूद्र नहीं थे ?


मनुस्मृति ३.१०९ में साफ़ कहा है कि अपने गोत्र या कुल की दुहाई देकर भोजन करने वाले को स्वयं का उगलकर खाने वाला माना जाए।


अतः मनुस्मृति के अनुसार जो जन्मना ब्राह्मण या ऊँची जाति वाले अपने गोत्र या वंश का हवाला देकर स्वयं को बड़ा कहते हैं और मान-सम्मान की अपेक्षा रखते हैं उन्हें तिरस्कृत किया जाना चाहिए।


मनुस्मृति २. १३६: धनी होना, बांधव होना, आयु में बड़े होना, श्रेष्ठ कर्म का होना और विद्वत्ता यह पाँच सम्मान के उत्तरोत्तर मानदंड हैं।  इन में कहीं भी कुल, जाति, गोत्र या वंश को सम्मान का मानदंड नहीं माना गया है।
मनुस्मृति ९.३३५: शरीर और मन से शुद्ध- पवित्र रहने वाला, उत्कृष्ट लोगों के सानिध्य में रहने वाला, मधुरभाषी, अहंकार से रहित, अपने से उत्कृष्ट वर्ण वालों की सेवा करने वाला शूद्र भी उत्तम ब्रह्म जन्म और द्विज वर्ण को प्राप्त कर लेता है।
मनुस्मृति १०.६५: ब्राह्मण शूद्र बन सकता और शूद्र ब्राह्मण हो सकता है | इसी प्रकार क्षत्रिय और वैश्य भी अपने वर्ण बदल सकते हैं।
२.१०३: जो मनुष्य नित्य प्रात: और सांय ईश्वर आराधना नहीं करता उसको शूद्र समझना चाहिए।
२.१७२: जब तक व्यक्ति वेदों की शिक्षाओं में दीक्षित नहीं होता वह शूद्र के ही समान है।
४.२४५ : ब्राह्मण- वर्णस्थ व्यक्ति श्रेष्ट – अति श्रेष्ट व्यक्तियों का संग करते हुए और नीच- नीचतर व्यक्तिओं का संग छोड़कर अधिक श्रेष्ट बनता जाता है | इसके विपरीत आचरण से पतित होकर वह शूद्र बन जाता है। अतः स्पष्ट है कि ब्राह्मण उत्तम कर्म करने वाले विद्वान व्यक्ति को कहते हैं और शूद्र का अर्थ अशिक्षित व्यक्ति है।  इसका, किसी
भी तरह जन्म से कोई सम्बन्ध नहीं है।
२.१६८: जो ब्राह्मण, क्षत्रिय या वैश्य वेदों का अध्ययन और पालन छोड़कर अन्य विषयों में ही परिश्रम करता है, वह शूद्र बन जाता है।  और उसकी आने वाली पीढ़ियों को भी वेदों के ज्ञान से वंचित होना पड़ता है।
अतः मनुस्मृति के अनुसार तो आज भारत में कुछ अपवादों को छोड़कर बाकी सारे लोग जो भ्रष्टाचार, जातिवाद, स्वार्थ साधना, अन्धविश्वास, विवेकहीनता, लिंग-भेद, चापलूसी, अनैतिकता इत्यादि में लिप्त हैं – वे सभी शूद्र हैं।


२ .१२६: भले ही कोई ब्राह्मण हो, लेकिन अगर वह अभिवादन का शिष्टता से उत्तर देना नहीं जानता तो वह शूद्र (अशिक्षित व्यक्ति) ही है।
२.२३८: अपने से न्यून व्यक्ति से भी विद्या को ग्रहण करना चाहिए और नीच कुल में जन्मी उत्तम स्त्री को भी पत्नी के रूप में स्वीकार कर लेना चाहिए।
२.२४१ : आवश्यकता पड़ने पर अ-ब्राह्मण से भी विद्या प्राप्त की जा सकती है और शिष्यों को पढ़ाने के दायित्व का पालन वह गुरु जब तक निर्देश दिया गया हो तब तक करे।


मनु की वर्ण व्यवस्था जन्म से ही कोई वर्ण नहीं मानती | मनुस्मृति के अनुसार माता- पिता को बच्चों के बाल्यकाल में ही उनकी रूचि और प्रवृत्ति को पहचान कर ब्राह्मण, क्षत्रिय या वैश्य वर्ण का ज्ञान और प्रशिक्षण प्राप्त करने के लिए भेज देना चाहिए।
कई ब्राह्मण माता – पिता अपने बच्चों को ब्राह्मण ही बनाना चाहते हैं परंतु इस के लिए व्यक्ति में ब्रह्मणोचित गुण, कर्म,स्वभाव का होना अति आवश्यक है।  ब्राह्मण वर्ण में जन्म लेने मात्र से या ब्राह्मणत्व का प्रशिक्षण किसी गुरुकुल में प्राप्त कर लेने से ही कोई ब्राह्मण नहीं बन जाता, जब तक कि उसकी योग्यता, ज्ञान और कर्म ब्रह्मणोचित न हों।


२.१५७ : जैसे लकड़ी से बना हाथी और चमड़े का बनाया हुआ हरिण सिर्फ़ नाम के लिए ही हाथी और हरिण कहे जाते हैं वैसे ही बिना पढ़ा ब्राह्मण मात्र नाम का ही ब्राह्मण होता है।
२.२८: पढने-पढ़ाने से, चिंतन-मनन करने से, ब्रह्मचर्य, अनुशासन, सत्यभाषण आदि व्रतों का पालन करने से, परोपकार आदि सत्कर्म करने से, वेद, विज्ञान आदि पढने से, कर्तव्य का पालन करने से, दान करने से और आदर्शों के प्रति समर्पित रहने से मनुष्य का यह शरीर ब्राह्मण किया जाता है।


मनु के अनुसार मनुष्य का वास्तविक जन्म विद्या प्राप्ति के उपरांत ही होता है।  जन्मतः प्रत्येक मनुष्य शूद्र या अशिक्षित है।  ज्ञान और संस्कारों से स्वयं को परिष्कृत कर योग्यता हासिल कर लेने पर ही उसका दूसरा जन्म होता है और वह द्विज कहलाता है।  शिक्षा प्राप्ति में असमर्थ रहने वाले शूद्र ही रह जाते हैं।
यह पूर्णत: गुणवत्ता पर आधारित व्यवस्था है, इसका शारीरिक जन्म या अनुवांशिकता से कोई लेना-देना नहीं है।


२.१४८ : वेदों में पारंगत आचार्य द्वारा शिष्य को गायत्री मंत्र की दीक्षा देने के उपरांत ही उसका वास्तविक मनुष्य जन्म होता है।  यह जन्म मृत्यु और विनाश से रहित होता है। ज्ञानरुपी जन्म में दीक्षित होकर मनुष्य मुक्ति को प्राप्त कर लेता है| यही मनुष्य का वास्तविक उद्देश्य है| सुशिक्षा के बिना मनुष्य ‘ मनुष्य’ नहीं बनता।
इसलिए ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य होने की बात तो छोडो जब तक मनुष्य अच्छी तरह शिक्षित नहीं होगा तब तक उसे मनुष्य भी नहीं माना जाएगा।
२.१४६ : जन्म देने वाले पिता से ज्ञान देने वाला आचार्य रूप पिता ही अधिक बड़ा और माननीय है, आचार्य द्वारा प्रदान किया गया ज्ञान मुक्ति तक साथ देता हैं।  पिताद्वारा प्राप्त शरीर तो इस जन्म के साथ ही नष्ट हो जाता है।
२.१४७ : माता- पिता से उत्पन्न संतति का माता के गर्भ से प्राप्त जन्म साधारण जन्म है।  वास्तविक जन्म तो शिक्षा पूर्ण कर लेने के उपरांत ही होता है।
अत: अपनी श्रेष्टता साबित करने के लिए कुल का नाम आगे धरना मनु के अनुसार अत्यंत मूर्खतापूर्ण कृत्य है।  अपने कुल का नाम आगे रखने की बजाए व्यक्ति यह दिखा दे कि वह कितना शिक्षित है तो बेहतर होगा।
१०.४: ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य, ये तीन वर्ण विद्याध्ययन से दूसरा जन्म प्राप्त करते हैं।  विद्याध्ययन न कर पाने वाला शूद्र, चौथा वर्ण है | इन चार वर्णों के अतिरिक्त आर्यों में या श्रेष्ट मनुष्यों में पांचवा कोई वर्ण नहीं है।
इस का मतलब है कि अगर कोई अपनी शिक्षा पूर्ण नहीं कर पाया तो वह दुष्ट नहीं हो जाता।  उस के कृत्य यदि भले हैं तो वह अच्छा इन्सान कहा जाएगा।  और अगर वह शिक्षा भी पूरी कर ले तो वह भी द्विज गिना जाएगा।  अत: शूद्र मात्र एक विशेषण है, किसी जाति विशेष का नाम नहीं।


किसी व्यक्ति का जन्म यदि ऐसे कुल में हुआ हो, जो समाज में आर्थिक या अन्य दृष्टी से पनप न पाया हो तो उस व्यक्ति को केवल कुल के कारण पिछड़ना न पड़े और वह अपनी प्रगति से वंचित न रह जाए, इसके लिए भी महर्षि मनु ने नियम निर्धारित किए हैं।
४.१४१: अपंग, अशिक्षित, बड़ी आयु वाले, रूप और धन से रहित या निचले कुल वाले, इन को आदर और / या अधिकार से वंचित न करें।  क्योंकि यह किसी व्यक्ति की परख के मापदण्ड नहीं हैं।


ब्राह्मण, क्षत्रिय,वैश्य और शूद्र वर्ण की सैद्धांतिक अवधारणा गुणों के आधार पर है, जन्म के आधार पर नहीं।  यह बात सिर्फ़ कहने के लिए ही नहीं है, प्राचीन समय में इस का व्यवहार में चलन था | जब से इस गुणों पर आधारित वैज्ञानिक व्यवस्था को हमारे दिग्भ्रमित पुरखों ने मूर्खतापूर्ण जन्मना व्यवस्था में बदला है, तब से ही हम पर आफत आ पड़ी है।


(a) ऐतरेय ऋषि दास अथवा अपराधी के पुत्र थे | परन्तु उच्च कोटि के ब्राह्मण बने और उन्होंने ऐतरेय ब्राह्मण और ऐतरेय उपनिषद की रचना की | ऋग्वेद को समझने के लिए ऐतरेय ब्राह्मण अतिशय आवश्यक माना जाता है |
(b) ऐलूष ऋषि दासी पुत्र थे | जुआरी और हीन चरित्र भी थे | परन्तु बाद में उन्होंने अध्ययन किया और ऋग्वेद पर अनुसन्धान करके अनेक अविष्कार किये |ऋषियों ने उन्हें आमंत्रित कर के आचार्य पद पर आसीन किया | (ऐतरेय ब्राह्मण २.१९)
(c) सत्यकाम जाबाल गणिका (वेश्या) के पुत्र थे परन्तु वे ब्राह्मणत्व को प्राप्त हुए |
(d) राजा दक्ष के पुत्र पृषध शूद्र हो गए थे, प्रायश्चित स्वरुप तपस्या करके उन्होंने मोक्ष प्राप्त किया | (विष्णु पुराण ४.१.१४)
अगर उत्तर रामायण की मिथ्या कथा के अनुसार शूद्रों के लिए तपस्या करना मना होता तो पृषध ये कैसे कर पाए?
(e) राजा नेदिष्ट के पुत्र नाभाग वैश्य हुए | पुनः इनके कई पुत्रों ने क्षत्रिय वर्ण अपनाया | (विष्णु पुराण ४.१.१३)
(f) धृष्ट नाभाग के पुत्र थे परन्तु ब्राह्मण हुए और उनके पुत्र ने क्षत्रिय वर्ण अपनाया | (विष्णु पुराण ४.२.२)
(g) आगे उन्हींके वंश में पुनः कुछ ब्राह्मण हुए | (विष्णु पुराण ४.२.२)
(h) भागवत के अनुसार राजपुत्र अग्निवेश्य ब्राह्मण हुए |
(i) विष्णुपुराण और भागवत के अनुसार रथोतर क्षत्रिय से ब्राह्मण बने |
(j) हारित क्षत्रियपुत्र से ब्राह्मण हुए | (विष्णु पुराण ४.३.५)
(k) क्षत्रियकुल में जन्में शौनक ने ब्राह्मणत्व प्राप्त किया | (विष्णु पुराण ४.८.१) वायु, विष्णु और हरिवंश पुराण कहते हैं कि शौनक ऋषि के पुत्र कर्म भेद से ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र वर्ण के हुए| इसी प्रकार गृत्समद, गृत्समति और वीतहव्य के उदाहरण हैं |
(l) मातंग चांडालपुत्र से ब्राह्मण बने |
(m) ऋषि पुलस्त्य का पौत्र रावण अपने कर्मों से राक्षस बना |
(n) राजा रघु का पुत्र प्रवृद्ध राक्षस हुआ |
(o) त्रिशंकु राजा होते हुए भी कर्मों से चांडाल बन गए थे |
(p) विश्वामित्र के पुत्रों ने शूद्र वर्ण अपनाया | विश्वामित्र स्वयं क्षत्रिय थे परन्तु बाद उन्होंने ब्राह्मणत्व को प्राप्त किया |
(q) विदुर दासी पुत्र थे | तथापि वे ब्राह्मण हुए और उन्होंने हस्तिनापुर साम्राज्य का मंत्री पद सुशोभित किया |
(r) वत्स शूद्र कुल में उत्पन्न होकर भी ऋषि बने (ऐतरेय ब्राह्मण २.१९) |
(s) मनुस्मृति के प्रक्षिप्त श्लोकों से भी पता चलता है कि कुछ क्षत्रिय जातियां, शूद्र बन गईं | वर्ण परिवर्तन की साक्षी देने वाले यह श्लोक मनुस्मृति में बहुत बाद के काल में मिलाए गए हैं | इन परिवर्तित जातियों के नाम हैं – पौण्ड्रक, औड्र, द्रविड, कम्बोज, यवन, शक, पारद, पल्हव, चीन, किरात, दरद, खश |
(t) महाभारत अनुसन्धान पर्व (३५.१७-१८) इसी सूची में कई अन्य नामों को भी शामिल करता है – मेकल, लाट, कान्वशिरा, शौण्डिक, दार्व, चौर, शबर, बर्बर|
(u) आज भी ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और दलितों में समान गोत्र मिलते हैं | इस से पता चलता है कि यह सब एक ही पूर्वज, एक ही कुल की संतान हैं | लेकिन कालांतर में वर्ण व्यवस्था गड़बड़ा गई और यह लोग अनेक जातियों में बंट गए |



मनु परम मानवीय थे| वे जानते थे कि सभी शूद्र जानबूझ कर शिक्षा की उपेक्षा नहीं कर सकते | जो किसी भी कारण से जीवन के प्रथम पर्व में ज्ञान और शिक्षा से वंचित रह गया हो, उसे जीवन भर इसकी सज़ा न भुगतनी पड़े इसलिए वे समाज में शूद्रों के लिए उचित सम्मान का विधान करते हैं | उन्होंने शूद्रों के प्रति कभी अपमान सूचक शब्दों का प्रयोग नहीं किया, बल्कि मनुस्मृति में कई स्थानों पर शूद्रों के लिए अत्यंत सम्मानजनक शब्द आए हैं |
मनु की दृष्टी में ज्ञान और शिक्षा के अभाव में शूद्र समाज का सबसे अबोध घटक है, जो परिस्थितिवश भटक सकता है | अत: वे समाज को उसके प्रति अधिक सहृदयता और सहानुभूति रखने को कहते हैं |


३.११२: शूद्र या वैश्य के अतिथि रूप में आ जाने पर, परिवार उन्हें सम्मान सहित भोजन कराए |
३.११६: अपने सेवकों (शूद्रों) को पहले भोजन कराने के बाद ही दंपत्ति भोजन करें |
२.१३७: धन, बंधू, कुल, आयु, कर्म, श्रेष्ट विद्या से संपन्न व्यक्तियों के होते हुए भी वृद्ध शूद्र को पहले सम्मान दिया जाना चाहिए।

अत: यह आवश्यक है कि हम समाज में फैली वेदों और मनु के बारे में फैली भांतियों का निवारण कर वेदों की सत्यता निर्धारित करें। 


MMSTM समवैध्यावि ध्यान की वह आधुनिक विधि है। कोई चाहे नास्तिक हो आस्तिक हो, साकार, निराकार कुछ भी हो बस पागल और हठी न हो तो उसको ईश अनुभव होकर रहेगा बस समयावधि कुछ बढ सकती है। आपको प्रतिदिन लगभग 40 मिनट देने होंगे और आपको 1 दिन से लेकर 10 वर्ष का समय लग सकता है। 1 दिन उनके लिये जो सत्वगुणी और ईश भक्त हैं। 10 साल बगदादी जैसे हत्यारे के लिये। वैसे 6 महीने बहुत है किसी आम आदमी के लिये।"  सनातन पुत्र देवीदास विपुल खोजी
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धन्यवाद!

 गुरु की क्या पहचान है? आर्य टीवी से साभार गुरु कैसा हो ! गुरु की क्या पहचान है? यह प्रश्न हर धार्मिक मनुष्य के दिमाग में घूमता रहता है। क...