गुरूद्वारा मे सर पर कपड़ा से सिर क्यो ढाँकते हैं???
सनातनपुत्र देवीदास विपुल "खोजी"
विपुल सेन उर्फ विपुल “लखनवी”,
(एम . टेक. केमिकल इंजीनियर) वैज्ञानिक
एवं कवि
पूर्व सम्पादक : विज्ञान त्रैमासिक हिन्दी जर्नल
“वैज्ञनिक” ISSN
2456-4818
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आज गुरूद्वारा जाना पड़ा। सर पर रूमाल बांधना सीखाया गया।
कोई यह बताये सर पर कपड़ा से सिर क्यो ढाँकते हैं।
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सिखी धर्म में पांच क का बड़ा महत्व है। केश, कंघा, कृपाण कच्छा और कड़ा। जिन्हें गुरु गोबिंद सिंह जी का आदेश माना जाता है और हर सिख इसका सख्ती और श्रद्धा से पालन करता है। केश अति पवित्र मने जाते है, इसलिये इनको बांध के सुसज्जित रखना आस्था और पवित्रता को दर्शाते हैं और खुले केश विनाश और अपिवत्र्ता को दर्शाते हैं इसलिये सर ढक कर रखा जाता है। सर ढकना हिंदुओ में भी अति शुभ माना जाता है
यह कारण तो युद्ध मे सर बचाने हेतु पगड़ी बांधना है।
पर सिर ढांकना क्यो।
ऊर्जा का संचार नीचे से ऊपर की तरफ होता है और सिद्ध स्थानों पर ऊजा उरधवगामी हो जाती है और कपड़ा या पगड़ी लगाने से विकीरण नहीं होता है और इसका अनुभव ध्यान में भी सिर में पगड़ी या कपड़ा लगाकर कर सकते हैं।। सिर पर बालो को लम्बे रखने के पीछे विज्ञान है और आजकल इसे धर्म से जोड़ दिया गया है।।जय गुरुदेव👏🙏🏻🌹😊
चलो यह वैज्ञानिक पहलू हो सकता है पर आध्यात्मिक क्या।
यदि कपड़ा होगा तो सिर पर आशीष रूप में ऊर्जा अंदर भी नहीं जाएगी। क्योकि सिर चरणों मे रखते हो।
यह व्याख्या गूगल गुरू नहीं बता पाया। जो मेरे आत्म गुरू ने समझाई
एक हिंट है। मनुष्य के सर पर प्रायः कपड़ा सिर पर कब रखा जाता है।
जब हमारी अंतिम विदाई होती है तो कफ़न डाला जाता है।
यह सर ढांकना उसी का प्रतीक है।
है गुरूदेव, प्रभु, इष्ट हम आपके सामने अपने मस्तिष्क में व्याप्त मन बुद्धि अहंकार को नष्ट कर कफ़न पहनाकर आपकी शरण मे आएं है।
कारण
पांच स्थूल तत्व है तीन सूक्ष्म है वो मन बुद्धि और अहंकार है जो ईश प्राप्ति और समर्पण हेतु सबसे बड़ी बाधा है।
गुरू या देव तक पहुँचने हेतु इनको दफनाना आवश्यक है।
अतः यह अर्थ ही होंगे। यह मेरे आत्म गुरू की व्याख्या है।
वैसे अन्य कारण
मुस्लिम के अनुसार शैतान टीप न लगाएं।
हिन्दू सम्मान का प्रतीक
सिख गुरू ने कहा बस मानो।
शक्तिपात के अनुसार जहाँ शक्ति होती है वहाँ अपनी कुण्डलनी ऊपर चढ़ने के प्रयास करती है। सर पर ठंड इत्यादि न लगे। इन्सुलेशन रहे वातावरण से। ऊर्जा बाहर न निकले।
करत करत अभ्यास संग, जड़मति होत सुजान।
तेर ग्यारह पाई ले, दोहा उसको मान।।
गुरु का कहा सदा मैं मानू, दोहा उलट सोरठा जानू।
प्रथम भाव को व्यक्त कर, मात्रा गिन ले ज्ञान।
ऐसी जल्दी कौनो सी, नाही दोहा भान।।
गुरु का कहा सदा मैं मानू, दोहा उलट सोरठा जानू।
ग्यारह तेरहा मात्रा लेकर, काव्य रूप को मैं ही भानू।
छंद बना के सोलह का, गायन गात गान।
होंठ हिलाकर जाप जो, मध्यमा कहलाये।
मुख निकले आवाज जो, वैखर गुण समाये।
मन सोंचे जो जाप हो, पश्यन्ति श्रेणी जाप।
अंग फड़क संग जप कर, परा ही कहे आप।
काला कहे कान्हा को, जो परकाश अपार।
धुंधला शीशा साफ कर, फिर देखे उजियार।।
अष्ट प्राप्ति की चेश्टा, जन्म अष्टमी होये।
जब तन डोले जगत में, मन कृष्ण को खोये।।
भक्ति बने जो बांकुरा, जामे लूटन चाह।
ककंर पग में जो लगे, नही पर्व कुछ आह।।
मार्ग अनेको ईश के, मूरख एक बताय।
सगुण निर्गुण बहस में, जीवन व्यर्थ गवाय।।
मार्ग सभी मिल जायेंगे, चले कदम उस ओर।
सत्य सनातन विश्व में, है अंतिम ही ठौर।।
वेद उपनिषद वाणी है, अंतिम ईश का ज्ञान।
मूरख सर को फोड़ता, शब्द ज्ञान कर भान।।
आओ मैं दिखलाता हूँ, ईश है सबका बाप।
समय तुम्हें देना पड़े, वरना करो संताप।।
बात किताबी ज्ञान धर, ज्ञानी बने अनेक।
मनमिठ्ठू ऐसे जगत, पर न ज्ञानी एक।।
कलियुग की यही मार है, ज्ञानी सब बन जाय।
दूजे को समझा रहे, सदगुरू ज्यों समझाय।।
क्या खोया क्या पाया जग में
सार छोड धन पाया जग में
सारा समय व्यर्थ गंवाया।
सोंचे न क्यों आया जग में।।
एक अचंभा देख कर, विपुल हुआ हैरान।
कैसे गुरू बन जाऊं मैं, खोलूं धरम दुकान।।
हाथ पांव यदि मोड़ना, कहीं योग बन जाय।
सरकस का जोकर कहो, महायोगी कहाय।।
जब तलक न अनुभव करो, महावाक्य जो वेद।
नहीं समझ में आयेगा, योगी योग भेद।।
मारग इतने देखकर, मनवा है बेचैन।
भटक भटक कर भटक गये, मिले कहीं न चैन।।
अपना अपना राग है, ढफली बजती साथ।
देख दुकान ऊंची मिली, करें सभी फरियाद।।
मूरख देखे अलग सब, निराकार चिल्लाये।
रहे साकार जगत में, किंतु समझ न आये।।
एक कहे साकार वो, दूजा कह निराकार।
दोनो मूरख जगत हैं, सर्व रूप वो धार।।
पुत्र सनातन सत्य मैं, विपुल नाम यह शरीर।
आओ मैं दिखाता क्या, ईश रूप तहरीर।।
गुरू नहीं न सन्यासी मैं, किंतु पथ दिखलाऊँ।
जिसको ईश प्रेम की चाह, सदगुरू तक पहुँचाऊँ।।
अहंकार यह बोलता, अहंकार मुझ ज्ञान।
अहंकार से दूर मैं, तनिक अहं न भान।।
पहले अनुभव ही करे, पाछे ईश को मान।
सत्य सनातन शक्ति क्या, इसका कर तू ज्ञान।।
खुली चुनौती नास्तिक को, करे जो बोलूं मान।
ईश तो जग का बाप है, मूरख कर यह भान।।
धन तुझसे माँगू नहीं, घर में कर तू ध्यान।
ईश की शक्ति बानगी, तुझको होवे ज्ञान।।
प्रथम भाव को व्यक्त कर, मात्रा गिन ले ज्ञान।
ऐसी जल्दी कौनो सी, नाही दोहा भान।।
गुरु का कहा सदा मैं मानू, दोहा उलट सोरठा जानू।
ग्यारह तेरहा मात्रा लेकर, काव्य रूप को मैं ही भानू।
छंद बना के सोलह का, गायन गात गान।
होंठ हिलाकर जाप जो, मध्यमा कहलाये।
मुख निकले आवाज जो, वैखर गुण समाये।
मन सोंचे जो जाप हो, पश्यन्ति श्रेणी जाप।
अंग फड़क संग जप कर, परा ही कहे आप।
काला कहे कान्हा को, जो परकाश अपार।
धुंधला शीशा साफ कर, फिर देखे उजियार।।
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अष्ट प्राप्ति की चेश्टा, जन्म अष्टमी होये।
जब तन डोले जगत में, मन कृष्ण को खोये।।
भक्ति बने जो बांकुरा, जामे लूटन चाह।
ककंर पग में जो लगे, नही पर्व कुछ आह।।
मार्ग अनेको ईश के, मूरख एक बताय।
सगुण निर्गुण बहस में, जीवन व्यर्थ गवाय।।
मार्ग सभी मिल जायेंगे, चले कदम उस ओर।
सत्य सनातन विश्व में, है अंतिम ही ठौर।।
वेद उपनिषद वाणी है, अंतिम ईश का ज्ञान।
मूरख सर को फोड़ता, शब्द ज्ञान कर भान।।
आओ मैं दिखलाता हूँ, ईश है सबका बाप।
समय तुम्हें देना पड़े, वरना करो संताप।।
मेरा बोलना आत्म श्लाघा होगी।
नहीं कोई आवश्यक नहीं। तुम साधन करते हो साधना नहीं।
बात किताबी ज्ञान धर, ज्ञानी बने अनेक।
मनमिठ्ठू ऐसे जगत, पर न ज्ञानी एक।।
क्या खोया क्या पाया जग में
सार छोड धन पाया जग में
कलियुग की यही मार है, ज्ञानी सब बन जाय।
दूजे को समझा रहे, सदगुरू ज्यों समझाय।।
सारा समय व्यर्थ गंवाया।
सोंचे न क्यों आया जग में।।
एक अचंभा देख कर, विपुल हुआ हैरान।
कैसे गुरू बन जाऊं मैं, खोलूं धरम दुकान।।
तुम्हारा प्रश्न स्वाभाविक है। किंतु यह फेस बुक पर चर्चा कर रहे थे।
फिर दूसरी बात हो सकता है दूसरे को ईश प्रेम का प्याला पीता देखकर इनको भी प्यास लग जाये।
तीसरी बात यदि कोई छद्म भेष घर ग्रुप में आये तो भी मैं अपना सदकर्म कर रहा हूँ। पापी का पाप उसके साथ।
मैं निर्मल निष्काम भाव से सनातन का प्रचार कर रहा हूँ।
🙏🙏🌹🌹🙏🙏
तुम्हारी चिंता जायज है। कुछ लोग दसियों सिम से बार बार प्रवेश करता है। यह पाप उसके नाम। अपनी पहिचान छिपाना पाप ही है। पर वह ज्ञानी बन उपदेश झाड़ता है। इसमें मुझे क्या प्रभाव।
देखो उसके प्रश्नो के द्वारा औरो की भी जिज्ञासा शांत होती होगी।
कभी नेगेटिव न सोंचो। कल किसी के साथ उसकी निंदा के कारण किंतने दोहे बन गए थे।
🙏🙏🙏😁😁😁
हाथ पांव यदि मोड़ना, कहीं योग बन जाय।
सरकस का जोकर कहो, महायोगी कहाय।।
जब तलक न अनुभव करो, महावाक्य जो वेद।
नहीं समझ में आयेगा, योगी योग भेद।।
मारग इतने देखकर, मनवा है बेचैन।
भटक भटक कर भटक गये, मिले कहीं न चैन।।
अपना अपना राग है, ढफली बजती साथ।
देख दुकान ऊंची मिली, करें सभी फरियाद।।
मूरख देखे अलग सब, निराकार चिल्लाये।
रहे साकार जगत में, किंतु समझ न आये।।
निराकार जो रूप है अंतिम उसको जान।
शिव काली त्रिदेव संग, करूँ जगत परनाम।।
"MMSTM समवैध्यावि ध्यान की वह आधुनिक विधि है।
कोई चाहे नास्तिक हो आस्तिक हो, साकार,
निराकार कुछ भी हो बस पागल और हठी न हो तो उसको ईश अनुभव होकर रहेगा बस समयावधि
कुछ बढ़ सकती है। आपको प्रतिदिन लगभग 40 मिनट देने होंगे और आपको 1 दिन से लेकर 10
वर्ष का समय लग सकता है। 1 दिन उनके लिये जो सत्वगुणी और ईश भक्त हैं। 10 साल
बगदादी जैसे हत्यारे के लिये। वैसे 6 महीने बहुत है किसी आम आदमी के लिये।" देवीदास विपुल
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