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Thursday, February 14, 2019

सिर्फ भारत ही दे सकता है विश्व शांति



विश्व बंधुत्व भारत की ही देन

सनातनपुत्र देवीदास विपुल "खोजी"

 विपुल सेन उर्फ विपुल लखनवी,
(एम . टेक. केमिकल इंजीनियर) वैज्ञानिक एवं कवि
सम्पादक : विज्ञान त्रैमासिक हिन्दी जर्नल “वैज्ञनिक” ISSN 2456-4818
वेब:  vipkavi.info वेब चैनलvipkavi
ब्लाग: freedhyan.blogspot.com,


सनातन ज्ञान कहता है। सभी मनुष्य एक सी सांस लेते हैं, एक सी ही सुख:दुःख की सम्वेदनाएँ इनके शरीर पर होती हैं, जिनसे वे राग द्वेष जगाते रहते हैं और सुखी दुःखी होने की अनुभूति करते रहते हैं। इससे कोई फ़र्क नहीं पड़ता कि वह मनुष्य हिन्दू है, या मुस्लिम, क्रिस्चियन, या अन्य पंथानुगामी है, क्योंकि सांस या सम्वेदनाएँ इन सम्प्रदायों से परे हैं। कोई भी सांस न तो हिंदू होती है, ही मुस्लिम, न ईसाई, या किसी अन्य पंथ से सम्बद्ध!


चाहे वह मनुष्य किसी पंथ से सम्बद्ध क्यों न हो, यदि विकार जगाता है तो दुःखी होगा ही। क़ुदरत का क़ानून सबके लिए बराबर है।


एक सद्गृहस्थ जैसे अपनी पत्नी और संतान को जोड़े रखता है वैसे ही परिवार के अन्य लोगो को, कुटुंब के अन्य लोगो को, अपने सगे सम्बन्धियों को बंधु बान्धवो को जोड़े, यानी उनसे स्नेह सम्बन्ध बनाये रखे।

 
स्वयं धनवान हो तो अपने निर्धन हुए बंधु-बान्धवो से स्नेह सत्कार का सम्बन्ध बनाये रखे।
सहानुभूति और सहयोग का सम्बन्ध बनाये रखे। निर्धन है तो इस कारण उन्हें दुत्कारे नहीं। उनका अपमान नहीं करे। उनका यथोचित सम्मान करे। संकट में पड़े बंधु-बांधवों की यथाशक्ति सहायता करे।इस प्रकार उन्हें साथ जोड़े रखने का काम करे।


समय सदा एक सा नही रहता। पलटता है तो यही दुख्यारे बंधु-बांधव संपन्न हो सकते हैं। संकट के समय इन्हे सहायता देने का एहसान कभी नही भूलते। जाति-बंधुओ को इस प्रकार जोड़े रखना उत्तम मंगल है।

ओर फिर ऊँच नीच के भेद भाव को भुलाकर अपने सारे देशवासिओं को जाति-बंधु माने और सब को जोड़कर रखने के काम में हाथ बटाये।

इतना ही नही जाति-बंधुओ की परिभाषा को और विकसित करके देखते हुए सारे विश्व की मानव जाति को जोड़े रखने के काम में यथाशक्ति सहायक हो जायँ। आखिर मनुष्य तो मनुष्य है। भगवान बुद्ध ने मनुष्यो की एक ही जाति मानी थी। आगे चलकर के इसी को हमारे यहाँ के एक प्रमुख संत ने दोहराया-   'मानुस की जात सब एक कर जानिये।'


किसी रंग-रूप का हो, किसी बोली-भाषा का हो, किसी वेशभूषा का हो, किसी वर्ण-गोत्र का हो, किसी देश-विदेश का हो, मनुष्य तो मनुष्य ही है। एक ही जाति का प्राणी है।


सारी मनुष्य जाति को जोड़े रखने में, संग्रह करने में, सचमुच उत्तम मंगल ही समाया हुआ है।  यही भारतीय संस्कृति है।


उपनिषद वाक्य है - ' संगच्छघ्वं संवदध्वं संवो मनांसि जानताम्‌।'  अर्थात्‌ इकट्ठे चलें, एक जैस बोलें और हम सबके मन एक जैसे हो जावें- यह भावना प्राचीन काल से ही चली आ रही है। इसलिए यहां राजा और रंक, धनवान और संत सब एक साथ बैठकर भोजन करते हैं। यहां के तत्व चिन्तकों ने बिना किसी भेदभाव के मानव मात्र अथ च प्राणिमात्र के कल्याण की कामना की है।

 
सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामयाः।  सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चित्‌ दुःखभाग्भवेत॥ अर्थात्‌ संसार में सब सुखी रहें, सब नीरोग या स्वस्थ रहें, सब भ्रद देखें और विश्व में कोई दुःखी न हो। 'वसुधैव कुटुम्बकम्‌' एक व्यापक मानव-मूल्य है। व्यक्ति से लेकर विश्व तक इसकी व्याप्ति है-व्यक्ति, परिवार, समाज, राष्ट्र, अर्न्राष्ट्र। गरज यह कि संपूर्ण विश्व इसकी परिधि में समाहित है।

 
संयुक्त राष्ट्र संघ ने महात्मा गाँधी के आदर्शों एवं विचारों को विश्वव्यापी मान्यता प्रदान की, किंतु अहिंसा किसकी देन है। सनातन की, बौद्ध और जैन की, जो भारतीय सनातन के घटक हैं। 


अहिंसा की नीति के जरिये विष्व भर में शांति के संदेश को बढ़ावा देने के महात्मा गाँधी के योगदान को स्वीकारने के लिए ही 'संयुक्त राष्ट्र संघ' ने महात्मा गाँधी के जन्मदिवस 2 अक्टूबर को 'अंतर्राष्ट्रीय अहिंसा दिवस' के रूप में विश्व भर में प्रतिवर्ष मनाने का निर्णय वर्ष 2007 में लिया। मौजूदा विश्व-व्यवस्था में अहिंसा की सार्थकता को मानते हुए संयुक्त राष्ट्र संघ महासभा में भारत द्वारा रखे गये प्रस्ताव को बिना वोटिंग के ही सर्वसम्मति से पारित कर दिया गया। महासभा के कुल 191 सदस्य देशों से 140 से भी ज्यादा देशों ने इस प्रस्ताव को सह-प्रायोजित किया। इस प्रस्ताव को भारी संख्या में सदस्य देशों का समर्थन मिलना विश्व में आज भी गाँधी जी के प्रति सम्मान और उनके विश्वव्यापी विचारों और सिद्धांतों की नीति की प्रासंगिकता को दर्शाता है।


राष्ट्रपति चुनाव के दौरान अमरीका में बसे भारतीय समुदाय के एक समाचार पत्र इंडिया एब्रोड में प्रकाशित लेख के अनुसार नोबेल शांति पुरस्कार विजेता व अमेरिका के वर्तमान राष्ट्रपति श्री बराक ओबामा ने कहा कि ''मैंने अपने पूरे जीवन में महात्मा गाँधी को एक ऐसे प्रेरणा स्रोत के रूप में देखा है, जिनके पास सामान्य लोगों से भी असाधारण काम करवाने की अद्भुत नेतृत्व करने की प्रतिभा थी।'' अगस्त, 2010 माह में वाशिंगटन में युवा अफ़्रीक़ी नेताओं के मंच की बैठक को संबोधित करते हुए ओबामा ने राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी को अपना प्रेरणा स्रोत बताते हुए कहा कि महाद्वीप में जो बदलाव आप चाहते हैं, उसके लिए आप महात्मा गाँधी का अनुसरण करें। ओबामा ने कहा कि महात्मा गाँधी ने कहा था कि जो बदलाव आप विश्व में देखना चाहते हैं। उसकी शुरुआत आपको स्वयं अपने से करनी होगी।


नोबेल शांति पुरस्कार विजेता व इजरायल के राष्ट्रपति शिमोन पेरेज ने कहा है कि उनके देष में महात्मा गाँधी को पैगंबर माना जाता है और उन्होंने भारत को सहनशीलता का आदर्श बताया। श्री पेरेज ने महात्मा गाँधी के लिये अपनी श्रद्धा व्यक्त करते हुए कहा कि ''अहिंसा और सह-अस्तित्व की उनकी शिक्षा को सबको आचरण में लाना चाहिए।'' श्री पेरेज ने कहा कि भारत ने जिस तरह अनेकता में एकता को बनाए रखा है उसकी सराहना की जानी चाहिए। दुनिया की सबसे पुरानी सभ्यताओं में से एक भारतीय संस्कृति से, लोगों को सह-अस्तित्व सीखने की जरूरत है। बुद्धिमत्ता कभी पुरानी नहीं होती। श्री पेरेज ने यह भी कहा कि ''भारत के राष्ट्रीय आंदोलन का नेतृत्व करने वाले महात्मा गाँधी मेरे लिये केवल प्रेरणादायक नहीं हैं बल्कि वह एक परिवर्तनकारी थे जिन्होंने अहिंसक सह-अस्तित्व का क्रांतिकारी विचार दिया।''


अक्टूबर 2009 में अमेरिकी काँग्रेस ने पारित एक प्रस्ताव में कहा कि महात्मा गाँधी के दूरदर्शी नेतृत्व के कारण ही अमेरिका और भारत के बीच मैत्री संबंधों में तेज़ी से प्रगाढ़ता आ रही है। हाऊस ऑफ रिप्रजेंटेटिव्स के डेमोक्रेट सदस्य एनी फेलेमावेगा ने गांधीजी के संबंध में प्रस्ताव रखा, जिसे सभी सदस्यों ने सर्वसम्मति से पारित करते हुए कहा कि गाँधी जी के सिद्धांत एवं विचार सारे विश्व के लिए हमेशा प्रासंगिक रहेंगे। यह प्रस्तावना महात्मा गाँधी की 140वीं जयंती के अवसर पर पारित किया गया था। एनी ने कहा ''गाँधी जी के महान कार्यों के बारे में पहले ही काफी कुछ कहा जा चुका है। उनका जीवन काफी महत्वपूर्ण रहा है, हम उन्हें भूल नहीं सकते। विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र भारत और विश्व के सबसे पुराने लोकतंत्र अमेरिका के बीच आज जो संबंध है, उसे गाँधी के बिना हम नहीं देख सकते हैं।'' एनी ने कहा भले ही उनकी ज़िंदगी बंदूक की गोली से खत्म हो गई लेकिन उनकी विरासत अभी भी 1.5 अरब लोगों के पास है, जो स्वतंत्र देशों में रह रहे हैं। एनी ने कहा कि अमेरिका का नागरिक अधिकार आंदोलन भी गाँधी जी के विचारों से प्रेरित है।


आज जब हम महात्मा गाँधी के जीवन तथा शिक्षाओं को याद करते हैं तो हम उनके सत्यानुसंधान एवं विश्वव्यापी दृष्टिकोण के पीछे अपनी प्राचीन संस्कृति के मूलमंत्र 'उदारचारितानाम्तु वसुधैव कुटुम्बकम्' (अर्थात पृथ्वी एक देश है तथा हम सभी इसके नागरिक है) को पाते हैं। इन मानवीय मूल्यों के द्वारा ही सारा संसार एक नवीन विश्व सभ्यता की ओर बढ़ रहा है। गाँधी जी ने भारत की संस्कृति के आदर्श उदारचरित्रानाम्तु वसुधैव कुटुम्बकम् को सरल शब्दों में 'जय जगत' (सारे विश्व की भलाई हो) के नारे के रूप में अपनाने की प्रेरणा अपने प्रिय शिष्य संत विनोबा भावे को दी जिन्होंने इस शब्द का व्यापक प्रयोग कर आम लोगों में यह विचार फैलाया।


गाँधी जी एक सच्चे ईश्वर भक्त सनातन प्रेमी और गीता मर्मज्ञ थे। वे सभी धर्मो की शिक्षाओं का एक समान आदर करते थे। गाँधी जी का मानना था कि सभी महान अवतार एक ही ईश्वर की ओर से आये हैं, धर्म एक है तथा मानव जाति एक है, इसलिए हमें प्रत्येक धर्म का आदर करना चाहिए। सभी धर्म एवं सभी धर्मों के दैवीय शिक्षक एक ही परमपिता परमात्मा के द्वारा भेजे गये हैं। हम चाहे मंदिर, मस्जिद, गिरजाघर या गुरूद्वारे किसी भी पूजा स्थल में प्रार्थना करें हमारी पूजा, इबादत तथा प्रार्थना एक ही ईश्वर तक पहुँचती हैं। गाँधी जी निरन्तर अपने युग के प्रश्नों को हल करने का प्रयास अपने सत्यानुसंधान से करते रहे। गाँधी जी ने अपनी युग की प्राथमिक आवश्यकता के रुप में ग़ुलामी को मिटाया तथा बाद में उनका मिशन इस सृष्टि का संगठन करके प्रभु साम्राज्य धरती पर स्थापित करना था।


राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी केवल भारतीय स्वाधीनता आंदोलन के पितामह ही नहीं थे अपितु उन्होंने विश्व के कई देषों को स्वतंत्रता की राह भी दिखाई। महात्मा गाँधी चाहते थे कि भारत केवल एशिया और अफ्रीका का ही नहीं अपितु सारे विश्व की मुक्ति का नेतृत्व करें। उनका कहना था कि ''एक दिन आयेगा, जब शांति की खोज में विश्व के सभी देश भारत की ओर अपना रूख करेंगे और विश्व को शांति की राह दिखाने के कारण भारत विश्व का प्रकाश बनेगा।'' मेरा प्रबल विश्वास है कि भारत ही विश्व में शांति स्थापित करेगा। इस प्रकार विश्व में एकता एवं शांति की स्थापना के लिए प्रयास करके ही हम राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी के 'विश्व बन्धुत्व' के सपने को साकार करने की दिशा में आगे बढ़कर उन्हें अपनी सच्ची श्रद्धांजली दे सकते हैं।


गांधी ने यह ज्ञान कैसे प्राप्त किया। मात्र सनातन के अध्ययन से।
उपनिषद वाक्य है: 'संगच्छघ्वं संवदध्वं संवो मनांसि जानताम्‌।'  अर्थात्‌ इकट्ठे चलें, एक जैस बोलें और हम सबके मन एक जैसे हो जावें- यह भावना प्राचीन काल से ही चली आ रही है। इसलिए यहां राजा और रंक, धनवान और संत सब एक साथ बैठकर भोजन करते हैं। यहां के तत्व चिन्तकों ने बिना किसी भेदभाव के मानव मात्र अथ च प्राणिमात्र के कल्याण की कामना की है।

'
सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामयाः। सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चित्‌ दुःखभाग्भवेत॥।'
अर्थात्‌ विशव में सब सुखी रहें, सब नीरोग या स्वस्थ रहें, सब भ्रद देखें और विश्व में कोई दुःखी न हो। 'वसुधैव कुटुम्बकम्‌' एक व्यापक मानव-मूल्य है। व्यक्ति से लेकर विश्व तक इसकी व्याप्ति है-व्यक्ति, परिवार, समाज, राष्ट्र, अर्न्राष्ट्र। गरज यह कि संपूर्ण विश्व इसकी परिधि में समाहित है।
यह वैयक्तिक मूल्य भी है और सामाजिक मूल्य भी, राष्ट्रीय मूल्य भी है और अंतरराष्ट्रीय मूल्य भी, राजनीतिक मूल्य भी है और नैतिक मूल्य भी, धार्मिक है और प्रगतिशील मूल्य भी। और यदि इन सबका एक शब्द में समाहार करना चाहें तो हम कह सकते हैं कि यह मानवीय मूल्य है।

इस मूल्य को सच्चे मन से अपनाए बिना मानवता अधूरी है, मनुष्य अधूरा है, धर्म और संस्कृति अधूरे हैं तथा राष्ट्र और विश्व भी अधूरा और पंगु है। यह मनुष्य की, मानव समाज की, राष्ट्र की अनिवार्यता है। यदि हम विश्व को श्रेष्ठ बनाना चाहते हैं तो हमें विश्वबंधुत्व की भावना को आत्मसात्‌ करना ही होगा।

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वसुधैव कुटुम्बकम्‌' के सूत्र द्वारा भारतीय मनीषियों ने जिस उदार मानवतावाद का सूत्रपात किया उसमें सार्वभौमिक कल्याण की भावना है। यह देश-कालातीत अवधारणा है और पारस्परिक सद्भाव, अन्तः विश्वास एवं एकात्मवाद पर टिकी है। 'स्व' और 'पर' के बीच की खाई को पाटकर यह अवधारणा 'स्व' का 'पर' तक विस्तार कर उनमें अभेद की स्थापना का स्तुत्य प्रयास करत है।

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वसुधैव कुटुम्बकम्‌' की भावना को राष्ट्रवाद का विरोधी मानने की भूल की जाती रही है। जिस प्रकार उदार मानवतावाद का राष्ट्रवाद से कोई विरोध नहीं है, उसी प्रकार 'वसुधैव कुटुम्बकम्‌' की भावना का भी राष्ट्रवाद से कोई विरोध नहीं है। 'वसुधैव कुटुम्बकम्‌' की अवधारणा शाश्वत तो है ही, यह व्यापक एवं उदार नैतिक-मानवीय मूल्यों पर आधृत भी है। इसमें किसी प्रकार की संकीर्णता के लिए कोई अवकाश नहीं है। सहिष्णुता इसकी अनिवार्य शर्त है।

निश्चय ही आत्म-प्रसार, 'स्व' का 'पर' तक विस्तार स्वयं को और जग को सुखी बनाने का साधन है। वैज्ञानिक आविष्कारों के फलस्वरूप समय और दूरी के कम हो जाने से 'वसुधैव कुटुम्बकम्‌' की भावना के प्रसार की आवश्यकता और भी बढ़ गई है। किसी देश की छोटी-बड़ी हलचल का प्रभाव आज संसार के सभी देशों पर किसी न किसी रूप में अवश्य पड़ता है। फलतः समस्त देश अब यह अनुभव करने लगे हैं कि पारस्परिक सहयोग, स्नेह, सद्भाव, सांस्कृतिक आदान-प्रदान और भाईचारे के बिना उनका काम न चलेगा।

संयुक्त राष्ट्रसंघ की स्थापना, निर्गुट शिखर सम्मेलन, दक्षेश, जी-15 आदि 'वसुधैव कुटुम्बकम्‌' के ही नामान्तर रूपान्तर हैं।  इन राजनीतिक संगठनों से यह तो प्रमाणित होता ही है कि विश्व के बड़े से बड़े और छोटे से छोटे राष्ट्र पारस्परिकता और सहअस्तित्व की आवश्यकता अनुभव करते हैं तथा इन अवधारणाओं के बीच 'वसुधैव कुटुम्बकम्‌' में निश्चय ही विद्यमान थे।


(तथ्य व कथन गूगल से साभार)


MMSTM समवैध्यावि ध्यान की वह आधुनिक विधि है। कोई चाहे नास्तिक हो आस्तिक हो, साकार, निराकार कुछ भी हो बस पागल और हठी न हो तो उसको ईश अनुभव होकर रहेगा बस समयावधि कुछ बढ सकती है। आपको प्रतिदिन लगभग 40 मिनट देने होंगे और आपको 1 दिन से लेकर 10 वर्ष का समय लग सकता है। 1 दिन उनके लिये जो सत्वगुणी और ईश भक्त हैं। 10 साल बगदादी जैसे हत्यारे के लिये। वैसे 6 महीने बहुत है किसी आम आदमी के लिये।"  सनातन पुत्र देवीदास विपुल खोजी
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विश्व शांति मात्र सनातन से ही सम्भव : एक चुनौती



विश्व शांति मात्र सनातन से ही सम्भव : एक चुनौती

 सनातनपुत्र देवीदास विपुल "खोजी"

 विपुल सेन उर्फ विपुल लखनवी,
(एम . टेक. केमिकल इंजीनियर) वैज्ञानिक एवं कवि
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यह शीर्षक कुछ लोगों को अज्ञानवश अटपटा ही लगेगा। साथ ही मैं दावा करूं कि विश्व शांति न इसाइयत से सम्भव और न मुस्लिम धर्म से। हां यह अशांति का ही मार्ग बडी आसानी से दे सकते  है।  चलिये इसी बात पर कुछ चर्चा कि जाये कि मैंने ऐसा क्यों कहा। मैं पहला व्यक्ति नहीं हूं जो यह बोल रहा हूं। बल्कि मैंनें सभी धर्म ग्रंथों को पढा और समझा। इस आधार पर ही कह रहा हूं। 

कुरान कहती है। अल्लह से डरो, वह तुम्हारी खतायें भी माफ कर सकता है। तुमको जन्नत बक्श सकता है। 

बाइबिल कहती है यहोबा से, जीसस से प्रेम करो वह तुमको धरा के सुख के साथ स्वर्ग के सुख दे देगा। 

सनातन कहता है। सभी प्राणियों से प्रेम करो। सबमें ईश देखो। ईश मे सब देखो। तुम सभी विश्व को अपना बंधु मानो। तुम प्रेम से ईश को प्राप्त कर सकते हो। स्वर्ग इत्यादि तो तुम्हारे चरणों की धूल बन जायेगें। तुम मोक्ष परमपद के अधिकारी भी बन सकते हो। 

अब आप निर्ण दें। विश्व शांति कौन ला सकता है। क्या वह जो डर से पैदा हो। या वह जो स्वर्ग के लालच में प्रेम करे या वह जो मानव जाति को भाई मानकर सब प्राणियों से प्रेम करे। 

इन बातों को जो गहराई से समझ लेता है वो विदेशी भी कामिल बुल्के जैसा भक्त बन जाता है। रसखान या रबिया बन बन कर सनातन के गुण गाता है। 

भारत में अंतर्राष्ट्रीय थियोसॉफिकल सोसाइटी का मुख्यालय स्थापित करके हम भारतीयों को गौरवान्वित करने वाली मैडम ब्लावाट्स्की विश्व भ्रमण के दौरान 1852 में वे पहली बार भारत आई थीं और यहां थोड़े दिन रुक कर इसकी ऋषि परंपरा वाले ब्रह्मज्ञान की संपन्नता से अवगत हो कर लौट गई थीं। 

ISKCON का पूरा नाम International Society for Krishna Consciousness है जिसे हिंदी में अंतर्राष्ट्रीय कृष्णभावनामृत संघ या इस्कान कहते हैं।इस्कान मंदिर में 4 नियम हैं, जिनका पालन सभी को करना होता है। इसमें पहला नियम है: उन्हें तामसिक भोजन त्यागना होगा (तामसिक भोजन के तहत उन्हें प्याज, लहसुन, मांस, मदिरा आदि से दूर रहना होगा)। फिर भी इस संस्था के करोडों विदेशी भक्त हैं। इन सबका एक ही कारण है कि इन्होने सनातन के एक छोटे से भक्ति मार्ग को समझा और शांति पाई। वही कुरान और बाइबिल पढकर फायरिंग कर या मूर्खताभरा आत्मघाती हमला क्र निर्दोषॉ को मारने की घटनायें आम हैं। आखिर क्यो??? 

क्यों नासा जैसी यूरोप के 18 देशों की ईसाईत बाहुल्य संस्थायें सनातन के वेद शास्त्रो उपनिषद पर शोध कर रहीं है। क्यों नही यह कुरान या बाइबिल पर शोध कर रहीं हैं। कारण जहां मानव कल्याण का कुछ दिखेगा वहीं शोध की जायेगी।

 
क्यो भारत के पास वेद के मात्र 4 पन्ने और जर्मनी के पास 118 पेज पडे हैं। कारण स्वतंन्त्रा के बाद की सरकारें राजनीति के कारण सनातन को और संस्कृत को नष्ट करने पर तुल गई। इसी सनातन विरोधी भावना का फायदा लेकर विदेशी सारा ज्ञान ले उडे। यदि अपने को सनातनप्रेमी बोलो हिंदू बोलो तो साम्प्रदायिकता का ठप्पा लगा दिया। उत्तर प्रदेश में संस्कृत को हटाकर उर्दू थोपी। केंद्र में संस्कृत हटाकर अंग्रेजी थोपी। 

बस इन्ही कारणों से विश्व अशांति बढती गई और यदि सनातन को न माना तो बढती जायेगी। 

'सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामयाः। सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चित्‌ दुःखभाग्भवेत॥।' अर्थात विश्व  में सब सुखी रहें, सब नीरोग या स्वस्थ रहें, सब भद्र देखें और विश्व में कोई दुःखी न हो। 'वसुधैव कुटुम्बकम्‌' एक व्यापक मानव-मूल्य है। व्यक्ति से लेकर विश्व तक इसकी व्याप्ति है-व्यक्ति, परिवार, समाज, राष्ट्र, अर्न्राष्ट्र। गरज यह कि संपूर्ण विश्व इसकी परिधि में समाहित है।



यह वैयक्तिक मूल्य भी है और सामाजिक मूल्य भी, राष्ट्रीय मूल्य भी है और अंतरराष्ट्रीय मूल्य भी, राजनीतिक मूल्य भी है और नैतिक मूल्य भी, धार्मिक है और प्रगतिशील मूल्य भी। और यदि इन सबका एक शब्द में समाहार करना चाहें तो हम कह सकते हैं कि यह मानवीय मूल्य है। यह प्रार्थना सनातन का मूल मंत्र है। जिससे कुरान और बाइबिल कोसों दूर हैं। 


उपनिषद वाक्य है
'संगच्छघ्वं संवदध्वं संवो मनांसि जानताम्‌।'  अर्थात्‌ इकट्ठे चलें, एक जैस बोलें और हम सबके मन एक जैसे हो जावें- यह भावना प्राचीन काल से ही चली आ रही है। इसलिए यहां राजा और रंक, धनवान और संत सब एक साथ बैठकर भोजन करते हैं। यहां के तत्व चिन्तकों ने बिना किसी भेदभाव के मानव मात्र अथ च प्राणिमात्र के कल्याण की कामना की है।

'वसुधैव कुटुम्बकम्‌' की अवधारणा शाश्वत तो है ही, यह व्यापक एवं उदार नैतिक-मानवीय मूल्यों पर आधृत भी है। इसमें किसी प्रकार की संकीर्णता के लिए कोई अवकाश नहीं है। सहिष्णुता इसकी अनिवार्य शर्त है।

अत: यदि आप अपनी आनेवाली पीढीयों को एक सुखद और शांतिमय जीवन देना चाहते हैं तो आपको संकीर्णता से निकल कर सनातन सार का अर्थ दुनिया को समझाना ही होगा। नहीं तो यूं ही अशांति के वातावरण को शांत होकर और निजी स्वार्थों के कारण बढावा देते रहो। 

MMSTM समवैध्यावि ध्यान की वह आधुनिक विधि है। कोई चाहे नास्तिक हो आस्तिक हो, साकार, निराकार कुछ भी हो बस पागल और हठी न हो तो उसको ईश अनुभव होकर रहेगा बस समयावधि कुछ बढ सकती है। आपको प्रतिदिन लगभग 40 मिनट देने होंगे और आपको 1 दिन से लेकर 10 वर्ष का समय लग सकता है। 1 दिन उनके लिये जो सत्वगुणी और ईश भक्त हैं। 10 साल बगदादी जैसे हत्यारे के लिये। वैसे 6 महीने बहुत है किसी आम आदमी के लिये।"  सनातन पुत्र देवीदास विपुल खोजी
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