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Monday, September 14, 2020
Friday, October 16, 2020
बुद्ध का अष्टांगिक सनातन दर्शन
बुद्ध अष्टांगिक मार्ग बनाम पातांजलि अष्टांग योग
सनातनपुत्र देवीदास विपुल "खोजी"
महात्मा बुद्ध को लोग चारवाक की श्रेणी में रखते हैं लेकिन यदि आप महात्मा बुद्ध का साहित्य पढ़ते हैं तो आप देखेंगे महात्मा बुद्ध ने जो कुछ भी कहा है वह सनातन से ही प्रेरित है। सनातन का आधार वेद है वेद से षड्दर्शन निकले हैं षड्दर्शन में एक है योग शास्त्र जिसको की पतंजलि महाराज ने लिखा था और उसमें है एक अष्टांग योग बुद्ध का अष्टांगिक मार्ग भगवत गीता के द्वारा और पतंजलि के अष्टांग योग के द्वारा भली-भांति समझा जा सकता है और इसकी व्याख्या की जा सकती है।
दुखद पहलू यह रहा महात्मा बुद्ध के साहित्य पर लिखने वाले अनुभवहीन योग किताबी ज्ञान वाले लोग पूर्वाग्रहित होकर लिखते हैं और उनकी अंदर की बात को ऊपरी सतह से समझते हैं।इस लेख में यही प्रयास किया गया है की बुद्ध भी सनातन से प्रेरित है सनातन से अलग नहीं।
पहले आप प्रयुक्त होनेवाले शब्द “सम्यक” के हिंदी अर्थ देखें। पुल्लिंग में अर्थ होते है समुदाय, समूह। विशेषण में अर्थ होते है पूरा, सब, समस्त। उचित, उपयुक्त। मनोनुकूल। क्रिया विशेषण में अर्थ होते है पूरी तरह से। अच्छी तरह, भली–भाँति। मतलब साफ है किसी भी वस्तु व्यक्ति अथवा स्थान को जैसे का तैसा स्वीकार कर लेना। और कहूं तो न लेना न देना मगन रहना। यह अर्थ हैं सम्यक के।
अब महात्मा बुद्ध ने चार आर्य सत्य बताए हैं – 1. दुख, दुख की उत्पत्ति, 2. दुख से मुक्ति और 3. मुक्तिगामी 4. आर्य-आष्टांगिक मार्ग।
अब आर्य क्यों?? पहले आर्य का अर्थ जानें: विशेषण में उत्तम, श्रेष्ठ। पूज्य, मान्य। कुलीन। उपयुक्त, योग्य। और पुल्लिंग में प्रतिष्ठित व्यक्ति। धर्म एवं नियमों के प्रति निष्ठावान व्यक्ति। आर्य समस्त हिन्दुओं तथा उनके मनुकुलीय पूर्वजों का वैदिक सम्बोधन है। इसका सरलार्थ है श्रेष्ठ अथवा कुलीन। आर्य शब्द का अन्य अर्थ है प्रगतिशील। आर्य धर्म प्राचीन आर्यों का धर्म और श्रेष्ठ धर्म दोनों समझे जाते हैं। प्राचीन आर्यों के धर्म में प्रथमत: प्राकृतिक देवमण्डल की कल्पना है जो भारत, में पाई जाती रही है। इसमें द्यौस् (आकाश) और पृथ्वी के बीच में अनेक देवताओं की सृष्टि हुई है। भारतीय आर्यों का मूल धर्म ऋग्वेद में अभिव्यक्त है, देवमंडल के साथ आर्य कर्मकांड का विकास हुआ जिसमें मंत्र, यज्ञ, श्राद्ध (पितरों की पूजा), अतिथि सत्कार आदि मुख्यत: सम्मिलित थे। आर्य आध्यात्मिक दर्शन (ब्राहृ, आत्मा, विश्व, मोक्ष आदि) और आर्य नीति (सामान्य, विशेष आदि) का विकास भी समानांतर हुआ। शुद्ध नैतिक आधार पर अवलंबित परंपरा विरोधी अवैदिक संप्रदायों - बौद्ध, जैन आदि ने भी अपने धर्म को आर्य धर्म अथवा सद्धर्म कहा। सामाजिक अर्थ में "आर्य' का प्रयोग पहले संपूर्ण मानव के अर्थ में होता था।
अर्थात इसका अर्थ हुआ सनातन सत्य है। जिस प्रकार सनातन सत्य है उसी प्रकार जीवन में चार अटल सत्य हैं। अत: प्रयोग हुआ आर्य सत्य।
अब आप यह देखें बुद्ध ने यह कब बताया जब उन्होने ज्ञान प्राप्त कर लिया। पहले वे भी एक साधारण मानव थे जिन्होने जीवन की तीन दुखद घटनाओं को देखकर दुख से निवारण की सोंची। उनके ज्ञान प्राप्त करने का मूल कारण था उनका दुखी मन। अवचेतन में दुख की अनूभूति साथ थी। अत: उनके ज्ञान का आरम्भ दुख से हुआ। मतलब जो बीज वही ज्ञान का बृक्ष बना। उससे अधिक दुखद यह है कि उनकी व्याख्या स्वार्थी और बिन अनुभव के लोग शब्दों में कर के अर्थ के अनर्थ लगाकर दुकान चला रहें हैं।
जैसे आधा गिलास पानी को बोलना कि आधा गिलास भरा है। यह सकारात्मक। आधा गिलास खाली है यह नकारात्मक। बुद्ध ने कहा जीवन दु:ख है। दु:ख दूर करो तो सुख। नकारात्मक सोंच को बताता है। वहीं सनातन कहता है मनुष्य का मूल स्वभाव आनंद है। उसको प्राप्त करो। यानि सकारात्मक सोंच। बात एक पर शब्दों का फेर जो आम आदमी न समझ कर अपने जीवन में नकारात्मक होकर कार्य करता है। वास्तव में चार आर्य सत्य चार अवस्थायें अवधियां हैं। जैसे जीवन में दुख ही दुख है। दुख का कारण या उत्पत्ति क्या है। दुख से मुक्ति कैसे हो। दुख से मुक्ति का मार्ग क्या है? कैसे हो मुक्तगामी। साथ ही दुख से मुक्ति के आठ उपायों को बुद्ध ने आष्टांगिक मार्ग कहा है। ये हैं- सम्यक दृष्टि, सम्यक संकल्प, सम्यक वाणी, सम्यक कर्मात, सम्यक आजीविका, सम्यक व्यायाम, सम्यक स्मृति और सम्यक समाधि।
अब आप देखें कि गीता में कहा गया है कि समत्व, स्थिर बुद्धि, स्थित प्रज्ञ योगी के लक्षण हैं। बुद्ध ने जो हम देखते हैं, जो संकल्प करते हैं, या सोंचते हैं जो बोलते हैं, जो कर्म करते हैं, जो नौकरी या आजीविका हेतु कर्म करते हैं, जो कसरत या व्यायाम करते हैं, जो पुरानी बातों को सोंचते है मतलब किसी को पुरानी बातों को बताते है बिना नमक मिर्च लगाये और जो स्वत: हो जाये वह समाधि मतलब जबरिया नहीं। यानि हमारे शरीर का जो भी सम्बंध है उसमें मिलावट नहीं। जो है वैसा ही स्वीकार करना। यह जगत से सम्यक लेन देन हुआ। इनके प्रत्येक शब्द की व्याख्या आप खुद सोंच सकते हैं पर याद रहे ये वाक्य बुद्ध ने ज्ञान प्राप्ति के बाद के स्तर पर जाकर कहे। आम मानव इस अवस्था पर पहुंच कर ही यह स्थिति प्राप्त कर सकता है। मात्र रटने या तर्क कुतर्क करने से काम न चलेगा।
अब आप अष्टांग योग देखें जो पातांजलि महाराज ने कहा। 1. यम यानि क्या करें। (क) अहिंसा - शब्दों से, विचारों से और कर्मों से किसी को अकारण हानि नहीं पहुँचाना। (ख) सत्य - विचारों में सत्यता, परम-सत्य में स्थित रहना, जैसा विचार मन में है वैसा ही प्रामाणिक बातें वाणी से बोलना। (ग) अस्तेय - चोर-प्रवृति का न होना। (घ) ब्रह्मचर्य - दो अर्थ हैं: चेतना को ब्रह्म के ज्ञान में स्थिर करना। सभी इन्द्रिय-जनित सुखों में संयम बरतना। (च) अपरिग्रह - आवश्यकता से अधिक संचय नहीं करना और दूसरों की वस्तुओं की इच्छा नहीं करना। 2. नियम यानि क्या न करें या न करें। पाँच व्यक्तिगत नैतिकता: (क) शौच - शरीर और मन की शुद्धि (ख) संतोष - संतुष्ट और प्रसन्न रहना (ग) तप - स्वयं से अनुशाषित रहना (घ) स्वाध्याय - आत्मचिंतन करना (च) ईश्वर-प्रणिधान - ईश्वर के प्रति पूर्ण समर्पण, पूर्ण श्रद्धा 4. आसन: आसन योगासनों द्वारा शरीरिक नियंत्रण 5. प्रणायाम: प्राणायाम श्वास-लेने सम्बन्धी खास तकनीकों द्वारा प्राण पर नियंत्रण 3. प्रत्याहार यानि त्याग की आदत। प्रत्याहार इन्द्रियों को अंतर्मुखी करना महर्षि पतंजलि के अनुसार जो इन्द्रियां चित्त को चंचल कर रही हैं, उन इन्द्रियों का विषयों से हट कर एकाग्र हुए चित्त के स्वरूप का अनुकरण करना प्रत्याहार है। प्रत्याहार से इन्द्रियां वश में रहती हैं और उन पर पूर्ण विजय प्राप्त हो जाती है। अत: चित्त के निरुद्ध हो जाने पर इन्द्रियां भी उसी प्रकार निरुद्ध हो जाती हैं, जिस प्रकार रानी मधुमक्खी के एक स्थान पर रुक जाने पर अन्य मधुमक्खियां भी उसी स्थान पर रुक जाती हैं। 6. धारणा: धारणा एकाग्रचित्त होना अपने मन को वश में करना। 7. ध्यान: ध्यान निरंतर ध्यान 8. समाधि: समाधि आत्मा से जुड़ना: शब्दों से परे परम-चैतन्य की अवस्था हम सभी समाधि का अनुभव करें !!!
बुद्ध ने जो कहा उसका स्तर आता है पातांजलि महाराज के अष्टांग योग को प्राप्त करने के बाद मनुष्य में जो परिवर्तन आता है वह है सम्यक। पतांनजलि महाराज सम्यक यानि “चित्त में वृत्ति का निरोध है योग” यानि योग का लक्षन यानि सम्यक होना। वही बुद्ध का सम्यक साधारण मानव नही प्राप्त कर सकता। पर अष्टांग योग एक साधारण मानव को योगी बनाने की प्रक्रिया बताता है। वहीं गीता ने जो कहा वह भी योगी के गुण में सम्यक की अवस्था है। जैसे समत्व यानि जो सबको बराबर देखता हो। यानि जैसे के तैसा पर समानता के साथ। जिसकी बुद्धि स्थिर बुद्धि यानि सुख दुख से अविचलित यानि सम्यक जो है सो है। मेरे लिये सब बराबर। न कोई मित्र न शत्रु न निकट न दूर। स्थित प्रज्ञ यानि जिसकी बुद्धि व्यहार मुझमें आत्म स्वरूप में स्थित मतलब सर्व समाधि की अवस्था। मतलब सबने आगे पीछे एक ही बात कहीं। आत्माराम होना, उसके लक्षण और उसके गुण।
अंतर कुछ नहीं बुद्ध कहते हैं, चार आर्य सत्य हैं- दुख है, दुख की उत्पत्ति है, दुख से मुक्ति है और मुक्तिगामी आर्य-आष्टांगिक मार्ग हैं। ये आठ अंग हैं उस दुख-मुक्ति के लिए। बुद्ध ने आर्य-आष्टांगिक मार्ग कहा है, उस संबंध में थोड़ी-सी बात समझ लेनी चाहिए।
पहला सूत्र है आठ अंगों में- सम्यक दृष्टि। जो है, वही देखना। जैसा है, वैसा ही देखना। अन्यथा न करना। कोई धारणा बीच में न लाना। कामना, वासना, धारणा को बीच में न लाना। जो है, वैसा ही देखना। चार आर्य सत्यों को मानना, जीव हिंसा नहीं करना (हिंसा और मांसाहार मे अंतर है), चोरी नहीं करना, व्यभिचार( पर-स्त्रीगमन) नहीं करना, ये शारीरिक सदाचरण हैं। झूठ नहीं बोलना, चुगली नहीं करना, कठोर वचन नहीं बोलना, बकवास नहीं करना, ये वाणी के सदाचरण हैं। लालच नहीं करना, द्वेष नहीं करना, सम्यक दृष्टि रखना ये मन के सदाचरण है। धम्म आचरण का विषय है, आचरण करोगे तभी फल मिलेगा, और तुरंत फल मिलेगा और इसके लिए ईश्वर मानने या ना मानने के लिए आप स्वतंत्र है, कोई पाबंदी नहीं है, आँख, कान, नाक, मुख, त्वचा(पाँच इंद्रियाँ) के आनंद से बड़ा सुख है मन(छठी इंद्री) का सुख ये जानना और निर्वाण (सास्वत खुशी, परमानंद एवं विश्राम की स्थिति) को परम सुख जानना, धम्म के लिए परा-प्राकृतिक बातों की कोई आवश्यकता नहीं है, ऐसा जानना, दुनिया मे सब कुछ प्रतित्य-समुत्पाद (कार्य-कारण का सिद्धान्त) से हो रहा है, ये जानना।
दूसरा है- सम्यक संकल्प। जिसमें आता है, चित्त से राग-द्वेष नहीं करना, ये जानना की राग-द्वेष रहित मन ही एकाग्र हो सकता है, करुणा, मैत्री, मुदिता, समता रखना, दुराचरण(सदाचरण के विपरीत कार्य) ना करने का संकल्प लेना, सदाचरण करने का संकल्प लेना, धम्म पर चलने का संकल्प लेना।हठ मत करना। अक्सर लोग हठ को संकल्प मान लेते हैं और हठी आदमी को कहते हैं, यह संकल्पवान है। जिद तो अहंकार है। संकल्प में कोई अहंकार नहीं होता। हठ और संकल्प में यही फर्क है। बुद्ध कहते हैं, सम्यक संकल्प का अर्थ होता है, जो करने योग्य है, वह करना। और जो करने योग्य है, उस पर पूरा जीवन दांव पर लगा देना है।
तीसरा है- सम्यक वाणी। इसमें आता है, सत्य बोलने का अभ्यास करना, मधुर बोलने का अभ्यास करना, टूटे हुओ को मिलने का अभ्यास करना, धम्म चर्चा करने का अभ्यास करना। जो है, वही कहना। जैसा है, वैसा ही कहना। ऊपर कुछ, भीतर कुछ, ऐसा नहीं, क्योंकि अगर तुम सत्य की खोज में चले हो तो पहली शर्त तो पूरी करनी ही पड़ेगी कि तुम सच्चे हो जाओ। जो झूठा है, उससे सत्य का संबंध न जुड़ सकेगा। अगर कोई बात पसंद नहीं पड़ती तो निवेदन कर देना कि पसंद नहीं पड़ती है। झुठलाना मत। तुम अपने जीवन में थोड़ा देखना, तुम कुछ हो भीतर, बाहर कुछ बताए चले जाते हो। धीरे-धीरे यह बाहर की पर्त इतनी मजबूत हो जाती है कि तुम भूल ही जाते हो कि तुम भीतर क्या हो। सम्यक वाणी का अर्थ है- धीरे-धीरे सभी अर्थों में, दृष्टि में, संकल्प में, वाणी में हृदय की अंतरतम अवस्था को झलकने देना।
चौथा- सम्यक कर्मात। इसमें आता है, प्राणियों के जीवन की रक्षा का अभ्यास करना, चोरी ना करना, पर-स्त्रीगमन नहीं करना। बुद्ध ने सत्य और न्याय के लिए हिंसा को, यदि आवश्यक हो तो जायज ठहराया। वही करना, जो वस्तुत: तुम्हारा हृदय करने को कहता है। व्यर्थ की बातें मत किए चले जाना। किसी ने कह दिया तो कर लिया। सम्यक कर्मात का अर्थ होता है, वही करना है, जो तुम्हें करने योग्य लगता है। ऐसे हर किसी की बात में मत पड़ जाना, नहीं तो तुम्हारी छीछालेदर हो जाएगी। सम्यक कर्मात का अर्थ है, एक दिशा पर नजर रखना। जो तुम्हें करना है, वही करना।
तीसरा है- सम्यक वाणी। इसमें आता है, सत्य बोलने का अभ्यास करना, मधुर बोलने का अभ्यास करना, टूटे हुओ को मिलने का अभ्यास करना, धम्म चर्चा करने का अभ्यास करना। जो है, वही कहना। जैसा है, वैसा ही कहना। ऊपर कुछ, भीतर कुछ, ऐसा नहीं, क्योंकि अगर तुम सत्य की खोज में चले हो तो पहली शर्त तो पूरी करनी ही पड़ेगी कि तुम सच्चे हो जाओ। जो झूठा है, उससे सत्य का संबंध न जुड़ सकेगा। अगर कोई बात पसंद नहीं पड़ती तो निवेदन कर देना कि पसंद नहीं पड़ती है। झुठलाना मत। तुम अपने जीवन में थोड़ा देखना, तुम कुछ हो भीतर, बाहर कुछ बताए चले जाते हो। धीरे-धीरे यह बाहर की पर्त इतनी मजबूत हो जाती है कि तुम भूल ही जाते हो कि तुम भीतर क्या हो। सम्यक वाणी का अर्थ है- धीरे-धीरे सभी अर्थों में, दृष्टि में, संकल्प में, वाणी में हृदय की अंतरतम अवस्था को झलकने देना।
चौथा- सम्यक कर्मात। इसमें आता है, प्राणियों के जीवन की रक्षा का अभ्यास करना, चोरी ना करना, पर-स्त्रीगमन नहीं करना। बुद्ध ने सत्य और न्याय के लिए हिंसा को, यदि आवश्यक हो तो जायज ठहराया। वही करना, जो वस्तुत: तुम्हारा हृदय करने को कहता है। व्यर्थ की बातें मत किए चले जाना। किसी ने कह दिया तो कर लिया। सम्यक कर्मात का अर्थ होता है, वही करना है, जो तुम्हें करने योग्य लगता है। ऐसे हर किसी की बात में मत पड़ जाना, नहीं तो तुम्हारी छीछालेदर हो जाएगी। सम्यक कर्मात का अर्थ है, एक दिशा पर नजर रखना। जो तुम्हें करना है, वही करना।
पांचवां है- सम्यक आजीविका में आता है, मेहनत से आजीविका अर्जन करना, पाँच प्रकार के व्यापार नहीं करना, जिनमे आते हैं, शस्त्रों का व्यापार, जानवरों का व्यापार, मांस का व्यापार, मद्य का व्यापार, विष का व्यापार, इनके व्यापार से आप दूसरों की हानि का कारण बनते हो।बुद्ध कहते हैं, हर किसी चीज को आजीविका मत बना लेना। अब कोई आदमी कसाई बन कर अपनी रोटी कमा रहा है। यह भी कोई कमाना हुआ! रोटी ही कमानी थी, हजार ढंग से कमा सकते थे, कसाई होने की क्या जरूरत थी? रोटी तो कमानी ही है, यह बात सच है, लेकिन सम्यक खोजना। अगर तुम्हारी आजीविका सम्यक हो तो तुम्हारे जीवन में शांति होगी।
छठवां है- सम्यक व्यायाम। जिसमें आता है, आष्टांगिक मार्ग का पालन करने का अभ्यास करना, शुभ विचार पैदा करने वाली चीजो/बातों को मन मे रखना, पापमय विचारो के दुष्परिणाम को सोचना, उन वितर्कों को मन मे जगह ना देना, उन वितर्कों को संस्कार स्वरूप मानना, गलत वितर्क मन मे आए तो निग्रह करना, दबाना, संताप करना। अति न करना, बुद्ध कहते हैं। कुछ लोग हैं आलसी और कुछ लोग हैं अति कर्मठ। दोनों ही नुकसान में पड़ जाते हैं। आलसी उठता ही नहीं, तो पहुंचे कैसे! कर्मठ मंजिल के सामने से भी निकल जाता है दौडता हुआ, रुके कैसे, वह रुक ही नहीं सकता। रुकने की उसे आदत नहीं है। जब तुम तीर को चलाओ, तब प्रत्यंचा सम्यक खिंचनी चाहिए। अगर थोड़ी कम खिंची तो पहले ही गिर जाएगा तीर। थोड़ी ज्यादा खिंच गयी तो आगे निकल जाएगा तीर। इसलिए बुद्ध का जोर अति वर्जित करने पर है।
छठवां है- सम्यक व्यायाम। जिसमें आता है, आष्टांगिक मार्ग का पालन करने का अभ्यास करना, शुभ विचार पैदा करने वाली चीजो/बातों को मन मे रखना, पापमय विचारो के दुष्परिणाम को सोचना, उन वितर्कों को मन मे जगह ना देना, उन वितर्कों को संस्कार स्वरूप मानना, गलत वितर्क मन मे आए तो निग्रह करना, दबाना, संताप करना। अति न करना, बुद्ध कहते हैं। कुछ लोग हैं आलसी और कुछ लोग हैं अति कर्मठ। दोनों ही नुकसान में पड़ जाते हैं। आलसी उठता ही नहीं, तो पहुंचे कैसे! कर्मठ मंजिल के सामने से भी निकल जाता है दौडता हुआ, रुके कैसे, वह रुक ही नहीं सकता। रुकने की उसे आदत नहीं है। जब तुम तीर को चलाओ, तब प्रत्यंचा सम्यक खिंचनी चाहिए। अगर थोड़ी कम खिंची तो पहले ही गिर जाएगा तीर। थोड़ी ज्यादा खिंच गयी तो आगे निकल जाएगा तीर। इसलिए बुद्ध का जोर अति वर्जित करने पर है।
सातवां- सम्यक् स्मृति में आता है, कायानुपस्सना, वेदनानुपस्सना, चित्तानुपस्सना, धम्मानुपस्सना, ये सब मिलकर विपस्सना साधना कहलाता है, जिसका अर्थ है, स्वयं को ठीक प्रकार से देखना। ये जानना की राग-द्वेष रहित मन ही एकाग्र हो सकता है। किसी भी मनुष्य को, जिसे स्वयं को जानने की इच्छा हो, को विपस्सना जरूर करनी चाहिए, इसी से दुख-निवारण के पथ की शुरुआत होगी। व्यर्थ को भूलना और सार्थक को सम्हालना। तुम अक्सर उल्टा करते हो। सार्थक तो भूल जाते हो, व्यर्थ को याद रखते हो। जीवन में जो भी बहुमूल्य है, उसको तो बिसार देते हो। सबसे ज्यादा बहुमूल्य तो तुम्हारी चेतना है, उसको तो तुम बिल्कुल बिसार कर बैठ गए हो और ठीकरे इकट्ठे कर रहे हो और उनका हिसाब लगा रहे हो। इसको बुद्ध ने कहा, सम्यक् स्मृति। बुद्ध के स्मृति शब्द से ही संतों का सुरति शब्द आया। सुरति स्मृति का ही अपभ्रंश है। जिसे कबीर सुरति कहते हैं, वह बुद्ध की स्मृति ही है। उसे थोड़ा मीठा कर लिया- सुरति, अपनी याद, अपनी पहचान।
आठवां है- सम्यक समाधि में आता है, अनुत्पन्न पाप धर्मो को ना उत्पन्न होने देना, उत्पन्न पाप धर्मो के विनाश मे रुचि लेना, अनुत्पन्न कुशल धर्मो के उत्पत्ति मे रुचि, उत्पन्न कुशल धर्मो के वृद्धि मे रुचि। इन सबको शब्दशः पालन करने से जीवन सुखमय होगा, निर्वाण (सास्वत खुशी, परमानंद एवं विश्राम की स्थिति) की प्राप्ति होगी।
नशीली चीजों से हमेशा दूर रहें क्योंकि ये दुराचार(बुराई) की जननी है, इससे मन का भटकाव होता है, मन को जो भी दिमाग मे आता है, वो ही अच्छा लगता है, सही और गलत की पहचान खत्म हो जाती है।
बुद्ध समाधि में भी कहते हैं सम्यक ख्याल रखना। क्यों? क्योंकि ऐसी भी समाधियां हैं, जो सम्यक नहीं हैं। जड़ समाधि। एक आदमी मूर्छित पड़ जाता है, इसको बुद्ध सम्यक समाधि नहीं कहते। ऐसा आदमी गहरी निद्रा में पड़ गया, बेहोशी। मन के तो पार चला गया है, लेकिन ऊपर नहीं गया, नीचे चला गया। मन तो बंद हो गया, क्योंकि गहरी मूच्र्छा में मन तो बंद हो जाएगा, लेकिन यह बंद होना कुछ काम का न हुआ। मन बंद हो जाए और होश भी बना रहे। मन तो चुप हो जाए, विचार तो बंद हो जाएं, लेकिन बोध न खो जाए। तीन स्थितियां हैं मन की। स्वप्न, जागृति, सुषुप्ति। स्वप्न तो बंद होना चाहिए- चाहे सम्यक समाधि हो, चाहे असम्यक समाधि हो, स्वप्न तो दोनों में बंद हो जाएगा। विचार की तरंगें बंद हो जाएंगी। लेकिन जड़ समाधि में आदमी गहरी मूच्र्छा में पड़ गया, सुषुप्ति में डूब गया, उसे होश ही नहीं है। जब वापस लौटेगा तो निश्चित ही शांत लौटेगा, बड़ा प्रसन्न लौटेगा, क्योंकि इतना विश्राम मिल गया। लेकिन यह कोई बात न हुई! यह तो नींद का ही प्रयोग हुआ। यह तो योगतंद्रा हुई। असली बात तो तब घटेगी, जब तुम भीतर जाओ और होशपूर्वक जाओ। तब तुम प्रसन्न भी लौटोगे, आनंदित भी लौटोगे और प्रज्ञावान होकर भी लौटोगे। तुम बाहर आओगे, तुम्हारी ज्योति और होगी। तुम्हारी प्रभा और होगी। दो तरह की समाधियां हैं। जड़ समाधि, आदमी गांजा पीकर जड़ समाधि में चला जाता है, अफीम खाकर जड़ समाधि में चला जाता है।
बुद्ध ने उनका बड़ा विरोध किया। बुद्ध ने कहा, यह भी कोई बात है! माना कि सुख मिलता है, इसमें कोई शक नहीं है। गांजे का दम लगा लिया तो डूब गए, एक तरह का सुख मिलता है। मगर यह डुबकी नींद की है। यह कुछ मनुष्य योग्य हुआ! ऊपर उठो, जागते हुए भीतर जाओ। मशाल लेकर भीतर जाओ, ताकि सब रास्ता भी उजाला हो जाए और तुम्हें पता भी हो जाए, तो जब जाना हो, तब चले जाओ। और तुम फिर किसी चीज पर निर्भर भी न रहोगे। असली बात है, जाग्रत होकर आनंद को उपलब्ध हो जाना। उसको उन्होंने सम्यक समाधि कहा।
यह हैं आर्य-आष्टांगिक मार्ग।
सम्यक दृष्टि, सम्यक संकल्प को ‘प्रज्ञा’ कहा गया है।
सम्यक वाणी, सम्यक कर्मांत, सम्यक आजीविका, सम्यक व्यायाम को ‘शील’ कहा गया है।
सम्यक स्मृति और सम्यक समाधि को ‘समाधि’ कहा गया है।
इस प्रकार प्रज्ञा, शील समाधि मे आष्टांगिक मार्ग शामिल हो जाता है।
अंतिम अवस्था है निर्वाण जिसका सुख बड़ा है और ये सबको प्राप्त हो सकता है, इसके लिए गृह-त्याग की आवश्यकता नहीं है। बस माध्यम मार्ग के पालन की आवश्यकता है। बहुत लोगों को गलतफहमी है की बुद्ध का धम्म भिक्षुओं का धम्म है। पर ऐसा नहीं है, बुद्ध का धम्म भिक्षुओं, भिक्षुणियों, उपासक और उपासिकाओ से पूर्ण होता है।
अब आप स्वयं ही सोंचे कि अष्टांग मार्ग और अष्टांग योग एक ही सिक्के के दो पहलू है कुछ इस तरह:
आठ अंग तब योग घटित (अष्टांग योग) ---à अष्टांग मार्ग (सम्यक अवस्था) ----à चित्त में वृत्ति का निरोध यानि निष्काम कर्म -------à समत्व, स्थिर बुद्धि, स्थित प्रज्ञ।
जब योग घटित तो निम्न अनुभव (ध्यान दें अनुभव किताबी कीडी ज्ञान नहीं) जो वेदांत महावाक्य समझाते हैं।
1. अहं ब्रह्मास्मि - "मैं ब्रह्म हुँ" (बृहदारण्यक उपनिषद १/४/१० - यजुर्वेद)
2. तत्वमसि - "वह ब्रह्म तू है" (छान्दोग्य उपनिषद ६/८/७- सामवेद )
3. अयम् आत्मा ब्रह्म - "यह आत्मा ब्रह्म है" (माण्डूक्य उपनिषद १/२ - अथर्ववेद )
4. प्रज्ञानं ब्रह्म - "वह प्रज्ञानं ही ब्रह्म है" (ऐतरेय उपनिषद १/२ - ऋग्वेद)
5. सर्वं खल्विदं ब्रह्मम् - "सर्वत्र ब्रह्म ही है" (छान्दोग्य उपनिषद ३/१४/१- सामवेद )
कुल मिलाकर आप पायेगें हर ज्ञानी वेदांत और सनातन की ही व्याख्या करता है। अत: मै6 उनको मूर्ख ही कहूंगा जो कहते हैं कि बुद्ध सनातन विरोधी थे।
महावाक्यों को और समझने के लिये लिंक देखें।
"योग की व्याख्यायें"
https://freedhyan.blogspot.com/2018/10/normal-0-false-false-false-en-in-x-none.html
महावाक्यों को और समझने के लिये लिंक देखें।
"योग की व्याख्यायें"
https://freedhyan.blogspot.com/2018/10/normal-0-false-false-false-en-in-x-none.html
Thursday, February 14, 2019
सिर्फ भारत ही दे सकता है विश्व शांति
विश्व बंधुत्व भारत की ही देन
सनातनपुत्र देवीदास विपुल "खोजी"
सनातनपुत्र देवीदास विपुल "खोजी"
विपुल सेन उर्फ विपुल “लखनवी”,
(एम . टेक. केमिकल इंजीनियर) वैज्ञानिक
एवं कवि
सम्पादक : विज्ञान त्रैमासिक हिन्दी जर्नल
“वैज्ञनिक” ISSN
2456-4818
वेब: vipkavi.info वेब चैनल: vipkavi
ब्लाग: freedhyan.blogspot.com,
सनातन
ज्ञान कहता है। सभी मनुष्य एक सी सांस लेते हैं,
एक सी ही सुख:दुःख की सम्वेदनाएँ इनके
शरीर पर होती हैं,
जिनसे वे राग द्वेष जगाते रहते हैं और
सुखी दुःखी होने की अनुभूति करते रहते हैं। इससे कोई फ़र्क नहीं पड़ता
कि वह मनुष्य हिन्दू है, या मुस्लिम, क्रिस्चियन, या अन्य पंथानुगामी है,
क्योंकि सांस या
सम्वेदनाएँ इन सम्प्रदायों से परे हैं।
कोई भी सांस न तो हिंदू होती है, न ही मुस्लिम, न ईसाई, या किसी अन्य पंथ से सम्बद्ध!
चाहे
वह मनुष्य किसी पंथ से सम्बद्ध क्यों न हो, यदि विकार जगाता है तो दुःखी होगा ही। क़ुदरत का क़ानून
सबके लिए बराबर है।
एक
सद्गृहस्थ जैसे अपनी पत्नी और संतान को
जोड़े रखता है वैसे ही परिवार के अन्य लोगो को, कुटुंब के अन्य लोगो को,
अपने सगे सम्बन्धियों को बंधु
बान्धवो को जोड़े,
यानी उनसे स्नेह सम्बन्ध बनाये रखे।
स्वयं
धनवान हो तो अपने निर्धन हुए बंधु-बान्धवो से स्नेह सत्कार का सम्बन्ध बनाये रखे।
सहानुभूति
और सहयोग का सम्बन्ध बनाये रखे। निर्धन है तो इस कारण उन्हें
दुत्कारे नहीं। उनका अपमान नहीं करे।
उनका यथोचित सम्मान करे। संकट में पड़े
बंधु-बांधवों की यथाशक्ति सहायता
करे।इस प्रकार उन्हें साथ जोड़े रखने का
काम करे।
समय सदा एक सा नही रहता। पलटता है तो यही दुख्यारे बंधु-बांधव संपन्न हो सकते हैं। संकट के समय इन्हे सहायता देने का एहसान कभी नही भूलते। जाति-बंधुओ को इस प्रकार जोड़े रखना उत्तम मंगल है।
ओर फिर ऊँच नीच के भेद भाव को भुलाकर अपने सारे देशवासिओं को जाति-बंधु माने और सब को जोड़कर रखने के काम में हाथ बटाये।
इतना ही नही जाति-बंधुओ की परिभाषा को और विकसित करके देखते हुए सारे विश्व की मानव जाति को जोड़े रखने के काम में यथाशक्ति सहायक हो जायँ। आखिर मनुष्य तो मनुष्य है। भगवान बुद्ध ने मनुष्यो की एक ही जाति मानी थी। आगे चलकर के इसी को हमारे यहाँ के एक प्रमुख संत ने दोहराया- 'मानुस की जात सब एक कर जानिये।'
किसी रंग-रूप का हो, किसी बोली-भाषा का हो, किसी वेशभूषा का हो, किसी वर्ण-गोत्र का हो, किसी देश-विदेश का हो, मनुष्य तो मनुष्य ही है। एक ही जाति का प्राणी है।
सारी
मनुष्य जाति को जोड़े रखने में, संग्रह करने में, सचमुच उत्तम मंगल ही समाया हुआ है। यही भारतीय संस्कृति है।
उपनिषद
वाक्य है - ' संगच्छघ्वं संवदध्वं संवो मनांसि जानताम्।' अर्थात्
इकट्ठे चलें,
एक जैस बोलें और हम सबके मन एक जैसे हो
जावें- यह भावना प्राचीन काल से ही चली आ रही है। इसलिए यहां राजा और
रंक, धनवान और संत सब
एक साथ बैठकर भोजन करते हैं। यहां के
तत्व चिन्तकों ने बिना किसी भेदभाव के
मानव मात्र अथ च प्राणिमात्र के कल्याण
की कामना की है।
सर्वे
भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामयाः।
सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चित् दुःखभाग्भवेत॥ अर्थात्
संसार में सब सुखी रहें,
सब नीरोग या स्वस्थ रहें,
सब भ्रद देखें और विश्व
में कोई दुःखी न हो। 'वसुधैव कुटुम्बकम्'
एक व्यापक मानव-मूल्य है।
व्यक्ति से लेकर विश्व तक इसकी
व्याप्ति है-व्यक्ति, परिवार, समाज, राष्ट्र, अर्न्राष्ट्र। गरज यह कि संपूर्ण विश्व इसकी परिधि
में समाहित है।
संयुक्त राष्ट्र संघ ने महात्मा गाँधी के आदर्शों एवं विचारों को
विश्वव्यापी मान्यता प्रदान की, किंतु अहिंसा किसकी देन है। सनातन की, बौद्ध और जैन की, जो भारतीय सनातन के घटक हैं।
अहिंसा की नीति के जरिये विष्व भर में शांति के संदेश को बढ़ावा
देने के
महात्मा गाँधी के योगदान
को स्वीकारने के लिए ही 'संयुक्त
राष्ट्र संघ'
ने महात्मा गाँधी के जन्मदिवस 2 अक्टूबर को 'अंतर्राष्ट्रीय अहिंसा दिवस' के रूप में विश्व भर में प्रतिवर्ष मनाने का निर्णय वर्ष 2007 में लिया। मौजूदा विश्व-व्यवस्था में अहिंसा की सार्थकता को मानते
हुए संयुक्त राष्ट्र
संघ महासभा में भारत द्वारा रखे गये प्रस्ताव को बिना वोटिंग के ही सर्वसम्मति से पारित कर दिया गया। महासभा के कुल 191 सदस्य देशों से 140 से भी ज्यादा देशों ने इस प्रस्ताव को सह-प्रायोजित
किया। इस प्रस्ताव को भारी संख्या में सदस्य देशों का समर्थन मिलना विश्व में आज भी
गाँधी जी के प्रति
सम्मान और उनके विश्वव्यापी विचारों और सिद्धांतों की नीति की प्रासंगिकता को दर्शाता है।
राष्ट्रपति चुनाव के दौरान अमरीका में बसे भारतीय समुदाय के एक
समाचार
पत्र इंडिया एब्रोड में
प्रकाशित लेख के अनुसार नोबेल शांति पुरस्कार विजेता व अमेरिका के वर्तमान राष्ट्रपति श्री बराक
ओबामा ने कहा कि ''मैंने अपने पूरे जीवन में महात्मा गाँधी को एक ऐसे प्रेरणा स्रोत के रूप
में
देखा है, जिनके पास सामान्य लोगों से भी असाधारण काम करवाने की
अद्भुत
नेतृत्व करने की प्रतिभा
थी।''
अगस्त, 2010 माह में वाशिंगटन में युवा अफ़्रीक़ी नेताओं के मंच की बैठक को संबोधित करते हुए
ओबामा ने राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी को अपना प्रेरणा स्रोत बताते हुए कहा कि महाद्वीप
में जो
बदलाव आप चाहते हैं, उसके लिए आप महात्मा गाँधी का अनुसरण करें। ओबामा ने कहा कि महात्मा गाँधी ने कहा था कि जो बदलाव आप विश्व
में देखना चाहते हैं। उसकी शुरुआत आपको स्वयं अपने से करनी होगी।
नोबेल शांति पुरस्कार
विजेता व इजरायल के राष्ट्रपति शिमोन पेरेज ने कहा है कि उनके देष में महात्मा
गाँधी को पैगंबर माना जाता है और उन्होंने भारत को सहनशीलता का आदर्श
बताया। श्री पेरेज ने महात्मा गाँधी के लिये अपनी श्रद्धा व्यक्त करते
हुए कहा कि ''अहिंसा और
सह-अस्तित्व की उनकी शिक्षा को सबको आचरण
में लाना चाहिए।'' श्री पेरेज ने कहा कि
भारत ने जिस तरह अनेकता में एकता
को बनाए रखा है उसकी सराहना की जानी चाहिए। दुनिया की सबसे पुरानी सभ्यताओं में से
एक भारतीय संस्कृति से, लोगों को सह-अस्तित्व सीखने की जरूरत है।
बुद्धिमत्ता कभी पुरानी नहीं होती। श्री पेरेज ने यह भी कहा कि ''भारत के राष्ट्रीय आंदोलन का
नेतृत्व करने वाले महात्मा गाँधी मेरे लिये केवल
प्रेरणादायक नहीं हैं बल्कि वह एक परिवर्तनकारी थे जिन्होंने अहिंसक
सह-अस्तित्व का क्रांतिकारी विचार दिया।''
अक्टूबर 2009 में अमेरिकी काँग्रेस
ने पारित एक प्रस्ताव में कहा कि महात्मा गाँधी के
दूरदर्शी नेतृत्व के कारण ही अमेरिका और भारत के बीच मैत्री संबंधों में तेज़ी से
प्रगाढ़ता आ रही है। हाऊस ऑफ रिप्रजेंटेटिव्स के डेमोक्रेट सदस्य एनी
फेलेमावेगा ने गांधीजी के संबंध में प्रस्ताव रखा, जिसे सभी सदस्यों ने
सर्वसम्मति से पारित करते हुए कहा कि गाँधी जी के सिद्धांत एवं विचार सारे
विश्व के लिए हमेशा प्रासंगिक रहेंगे। यह प्रस्तावना महात्मा गाँधी की
140वीं जयंती के अवसर पर
पारित किया गया था। एनी ने कहा ''गाँधी जी के महान कार्यों के
बारे में पहले ही काफी कुछ कहा जा चुका है। उनका
जीवन काफी महत्वपूर्ण रहा है, हम उन्हें भूल नहीं
सकते। विश्व के सबसे बड़े
लोकतंत्र भारत और विश्व के सबसे पुराने लोकतंत्र अमेरिका के बीच आज जो संबंध
है, उसे गाँधी के बिना हम
नहीं देख सकते हैं।'' एनी ने कहा भले ही
उनकी ज़िंदगी बंदूक की गोली से खत्म हो गई लेकिन उनकी विरासत अभी भी 1.5 अरब लोगों के पास है, जो स्वतंत्र देशों में रह
रहे हैं। एनी ने कहा कि
अमेरिका का नागरिक अधिकार आंदोलन भी गाँधी जी के विचारों से प्रेरित है।
आज जब हम महात्मा गाँधी के जीवन तथा शिक्षाओं को याद करते हैं तो हम उनके सत्यानुसंधान एवं विश्वव्यापी दृष्टिकोण के पीछे अपनी
प्राचीन संस्कृति के मूलमंत्र 'उदारचारितानाम्तु वसुधैव कुटुम्बकम्' (अर्थात पृथ्वी एक देश है तथा हम सभी इसके नागरिक है) को पाते हैं। इन
मानवीय मूल्यों के द्वारा ही सारा संसार एक नवीन विश्व सभ्यता की ओर बढ़ रहा है। गाँधी जी
ने भारत की संस्कृति के आदर्श उदारचरित्रानाम्तु वसुधैव
कुटुम्बकम् को सरल शब्दों में 'जय जगत' (सारे विश्व की भलाई हो) के नारे के रूप में अपनाने की प्रेरणा अपने प्रिय शिष्य संत विनोबा भावे को दी जिन्होंने
इस शब्द का व्यापक प्रयोग कर आम लोगों में यह विचार फैलाया।
गाँधी जी एक सच्चे ईश्वर भक्त सनातन प्रेमी और गीता मर्मज्ञ थे। वे
सभी धर्मो की शिक्षाओं का एक समान आदर करते थे। गाँधी जी का मानना था कि सभी महान अवतार एक ही ईश्वर
की ओर से
आये हैं, धर्म एक है तथा मानव जाति एक है, इसलिए हमें प्रत्येक धर्म का आदर करना चाहिए। सभी धर्म एवं सभी धर्मों के दैवीय
शिक्षक एक ही परमपिता परमात्मा के द्वारा भेजे गये हैं। हम चाहे मंदिर, मस्जिद, गिरजाघर या गुरूद्वारे किसी भी पूजा स्थल में प्रार्थना करें हमारी पूजा, इबादत तथा प्रार्थना एक ही ईश्वर तक पहुँचती हैं। गाँधी जी
निरन्तर अपने युग के प्रश्नों को हल करने का प्रयास अपने सत्यानुसंधान से करते रहे।
गाँधी जी ने अपनी
युग की प्राथमिक आवश्यकता के रुप में ग़ुलामी को मिटाया तथा बाद में उनका मिशन इस सृष्टि का संगठन करके प्रभु साम्राज्य
धरती पर स्थापित करना था।
राष्ट्रपिता महात्मा
गाँधी केवल भारतीय स्वाधीनता आंदोलन के पितामह ही नहीं थे अपितु उन्होंने
विश्व के कई देषों को स्वतंत्रता की राह भी दिखाई। महात्मा गाँधी चाहते थे कि
भारत केवल एशिया और अफ्रीका का ही नहीं अपितु सारे विश्व की मुक्ति का
नेतृत्व करें। उनका कहना था कि ''एक दिन आयेगा, जब शांति की खोज में विश्व के
सभी देश भारत की ओर अपना रूख करेंगे और विश्व को शांति की राह दिखाने के
कारण भारत विश्व का प्रकाश बनेगा।'' मेरा प्रबल विश्वास है कि भारत ही विश्व
में शांति स्थापित करेगा। इस प्रकार विश्व में एकता एवं शांति की स्थापना
के लिए प्रयास करके ही हम राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी के 'विश्व बन्धुत्व' के सपने को साकार करने की
दिशा में आगे बढ़कर उन्हें अपनी सच्ची
श्रद्धांजली दे सकते हैं।
गांधी ने यह ज्ञान कैसे प्राप्त किया। मात्र सनातन के अध्ययन से।
उपनिषद
वाक्य है: 'संगच्छघ्वं संवदध्वं संवो मनांसि जानताम्।'
अर्थात्
इकट्ठे चलें,
एक जैस बोलें और हम सबके मन एक जैसे हो
जावें- यह भावना प्राचीन काल से ही चली आ रही है। इसलिए यहां राजा और
रंक, धनवान और संत सब
एक साथ बैठकर भोजन करते हैं। यहां के
तत्व चिन्तकों ने बिना किसी भेदभाव के
मानव मात्र अथ च प्राणिमात्र के कल्याण
की कामना की है।
'सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामयाः। सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चित् दुःखभाग्भवेत॥।'
अर्थात् विशव में सब सुखी रहें, सब नीरोग या स्वस्थ रहें, सब भ्रद देखें और विश्व में कोई दुःखी न हो। 'वसुधैव कुटुम्बकम्' एक व्यापक मानव-मूल्य है। व्यक्ति से लेकर विश्व तक इसकी व्याप्ति है-व्यक्ति, परिवार, समाज, राष्ट्र, अर्न्राष्ट्र। गरज यह कि संपूर्ण विश्व इसकी परिधि में समाहित है।
यह वैयक्तिक मूल्य भी है और सामाजिक मूल्य भी, राष्ट्रीय मूल्य भी है और अंतरराष्ट्रीय मूल्य भी, राजनीतिक मूल्य भी है और नैतिक मूल्य भी, धार्मिक है और प्रगतिशील मूल्य भी। और यदि इन सबका एक शब्द में समाहार करना चाहें तो हम कह सकते हैं कि यह मानवीय मूल्य है।
इस मूल्य को सच्चे मन से अपनाए बिना मानवता अधूरी है, मनुष्य अधूरा है, धर्म और संस्कृति अधूरे हैं तथा राष्ट्र और विश्व भी अधूरा और पंगु है। यह मनुष्य की, मानव समाज की, राष्ट्र की अनिवार्यता है। यदि हम विश्व को श्रेष्ठ बनाना चाहते हैं तो हमें विश्वबंधुत्व की भावना को आत्मसात् करना ही होगा।
'सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामयाः। सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चित् दुःखभाग्भवेत॥।'
अर्थात् विशव में सब सुखी रहें, सब नीरोग या स्वस्थ रहें, सब भ्रद देखें और विश्व में कोई दुःखी न हो। 'वसुधैव कुटुम्बकम्' एक व्यापक मानव-मूल्य है। व्यक्ति से लेकर विश्व तक इसकी व्याप्ति है-व्यक्ति, परिवार, समाज, राष्ट्र, अर्न्राष्ट्र। गरज यह कि संपूर्ण विश्व इसकी परिधि में समाहित है।
यह वैयक्तिक मूल्य भी है और सामाजिक मूल्य भी, राष्ट्रीय मूल्य भी है और अंतरराष्ट्रीय मूल्य भी, राजनीतिक मूल्य भी है और नैतिक मूल्य भी, धार्मिक है और प्रगतिशील मूल्य भी। और यदि इन सबका एक शब्द में समाहार करना चाहें तो हम कह सकते हैं कि यह मानवीय मूल्य है।
इस मूल्य को सच्चे मन से अपनाए बिना मानवता अधूरी है, मनुष्य अधूरा है, धर्म और संस्कृति अधूरे हैं तथा राष्ट्र और विश्व भी अधूरा और पंगु है। यह मनुष्य की, मानव समाज की, राष्ट्र की अनिवार्यता है। यदि हम विश्व को श्रेष्ठ बनाना चाहते हैं तो हमें विश्वबंधुत्व की भावना को आत्मसात् करना ही होगा।
'वसुधैव कुटुम्बकम्' के सूत्र द्वारा भारतीय मनीषियों ने जिस उदार मानवतावाद का सूत्रपात किया उसमें सार्वभौमिक कल्याण की भावना है। यह देश-कालातीत अवधारणा है और पारस्परिक सद्भाव, अन्तः विश्वास एवं एकात्मवाद पर टिकी है। 'स्व' और 'पर' के बीच की खाई को पाटकर यह अवधारणा 'स्व' का 'पर' तक विस्तार कर उनमें अभेद की स्थापना का स्तुत्य प्रयास करत है।
'वसुधैव कुटुम्बकम्' की भावना को राष्ट्रवाद का विरोधी मानने की भूल की जाती रही है। जिस प्रकार उदार मानवतावाद का राष्ट्रवाद से कोई विरोध नहीं है, उसी प्रकार 'वसुधैव कुटुम्बकम्' की भावना का भी राष्ट्रवाद से कोई विरोध नहीं है। 'वसुधैव कुटुम्बकम्' की अवधारणा शाश्वत तो है ही, यह व्यापक एवं उदार नैतिक-मानवीय मूल्यों पर आधृत भी है। इसमें किसी प्रकार की संकीर्णता के लिए कोई अवकाश नहीं है। सहिष्णुता इसकी अनिवार्य शर्त है।
निश्चय ही आत्म-प्रसार, 'स्व' का 'पर' तक विस्तार स्वयं को और जग को सुखी बनाने का साधन है। वैज्ञानिक आविष्कारों के फलस्वरूप समय और दूरी के कम हो जाने से 'वसुधैव कुटुम्बकम्' की भावना के प्रसार की आवश्यकता और भी बढ़ गई है। किसी देश की छोटी-बड़ी हलचल का प्रभाव आज संसार के सभी देशों पर किसी न किसी रूप में अवश्य पड़ता है। फलतः समस्त देश अब यह अनुभव करने लगे हैं कि पारस्परिक सहयोग, स्नेह, सद्भाव, सांस्कृतिक आदान-प्रदान और भाईचारे के बिना उनका काम न चलेगा।
संयुक्त
राष्ट्रसंघ की स्थापना, निर्गुट शिखर सम्मेलन, दक्षेश, जी-15 आदि 'वसुधैव कुटुम्बकम्' के ही नामान्तर रूपान्तर हैं। इन राजनीतिक संगठनों से यह तो प्रमाणित होता ही है कि
विश्व के बड़े से बड़े और छोटे से छोटे राष्ट्र पारस्परिकता और सहअस्तित्व की
आवश्यकता अनुभव करते हैं तथा इन अवधारणाओं के बीच 'वसुधैव कुटुम्बकम्' में निश्चय ही विद्यमान थे।
MMSTM समवैध्यावि ध्यान की वह आधुनिक विधि है। कोई चाहे नास्तिक हो आस्तिक हो, साकार, निराकार कुछ भी हो बस पागल और हठी न हो तो उसको ईश अनुभव होकर रहेगा बस समयावधि कुछ बढ सकती है। आपको प्रतिदिन लगभग 40 मिनट देने होंगे और आपको 1 दिन से लेकर 10 वर्ष का समय लग सकता है। 1 दिन उनके लिये जो सत्वगुणी और ईश भक्त हैं। 10 साल बगदादी जैसे हत्यारे के लिये। वैसे 6 महीने बहुत है किसी आम आदमी के लिये।" सनातन पुत्र देवीदास विपुल खोजी
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(तथ्य व कथन गूगल से साभार)
MMSTM समवैध्यावि ध्यान की वह आधुनिक विधि है। कोई चाहे नास्तिक हो आस्तिक हो, साकार, निराकार कुछ भी हो बस पागल और हठी न हो तो उसको ईश अनुभव होकर रहेगा बस समयावधि कुछ बढ सकती है। आपको प्रतिदिन लगभग 40 मिनट देने होंगे और आपको 1 दिन से लेकर 10 वर्ष का समय लग सकता है। 1 दिन उनके लिये जो सत्वगुणी और ईश भक्त हैं। 10 साल बगदादी जैसे हत्यारे के लिये। वैसे 6 महीने बहुत है किसी आम आदमी के लिये।" सनातन पुत्र देवीदास विपुल खोजी
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