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Monday, September 14, 2020

योग क्या और योगी की पहिचान / करोना काल है वरदान

 योग क्या और योगी की पहिचान / करोना काल है वरदान 


सनातनपुत्र देवीदास विपुल “खोजी”


देखो योग क्या है।

वेदांत महावाक्यकहता है आत्मा में परमात्मा की एकात्मकता का अनुभव ही योग है।

इस अनुभव हेतु लोगों ने 6 अंगों वाला षष्टांग योग 7 अंकों वाला सप्तांग योग और पतंजलि महाराज ने अष्टांग योग बताया।

योग की कसौटी हेतु चार वेद महावाक्य निर्मित हैं।

इन महावाक्यों का अनुभव / अनुभूति ही योग कहलाता है और यही विद्या की ब्रह्म ज्ञान की और ज्ञान योग निशानी है।

पांचवा सार वाक्य है।

अहं ब्रह्मास्मि - "मैं ब्रह्म हुँ" ( बृहदारण्यक उपनिषद १/४/१० - यजुर्वेद)

तत्त्वमसि - "वह ब्रह्म तु है" ( छान्दोग्य उपनिषद ६/८/७- सामवेद )

अयम् आत्मा ब्रह्म - "यह आत्मा ब्रह्म है" ( माण्डूक्य उपनिषद १/२ - अथर्ववेद )

प्रज्ञानं ब्रह्म - "वह प्रज्ञानं ही ब्रह्म है" ( ऐतरेय उपनिषद १/२ - ऋग्वेद)

सर्वं खल्विदं ब्रह्मम् - "सर्वत्र ब्रह्म ही है" ( छान्दोग्य उपनिषद ३/१४/१- सामवेद )


अब योग की पहचान क्या है

श्रीमद भगवत गीता के अनुसार योग होने के पश्चात मनुष्य के अंदर समत्व का भाव यानी सभी प्राणी एक स्थिर बुद्धि यानी न छोटा ना बड़ा न कष्ट न सुख-दुख इत्यादि और स्थित यानी बुद्धि का प्रभु में लीन हो जाना।

यह लक्षण है और यह लक्षण भी धीरे-धीरे आते हैं किसी में कम किसी में ज्यादा।

साथ ही वह किसी भी कर्म को मन लगाकर करता है और उसकी फल की इच्छा नहीं करता है यानी निष्काम कर्म करता है।

पतंजलि महाराज के अनुसार उसके चित्त में कभी भी वृत्ति पैदा नहीं होती है यानी कोई भी कार्य  वह अपने चित्त में बिना विक्षेप के करता है। “चित्त में वृत्ति का निरोध ही योग है”। योग सूत्र 2

इसके अतिरिक्त जो यम और नियम हैं उनका पालन वह स्वत: करने लगता है।

अब वेद महावाक्य का अनुभव कुछ क्षणों से लेकर लंबे समय तक हो सकता है।

लेकिन यह अनुभव बहुत कुछ ज्ञान दे जाता है

जो मनुष्य चौबीसों घंटे स्थितप्रज्ञ हो जाता है और वेद महावाक्य की अनुभूति में रहता है वह महायोगी और ब्रह्मस्वरूप कहलाता है।

योग के अनुभव के पश्चात मनुष्य के गिरने की भी संभावना रहती है किंतु वह भौतिक रूप से गिर सकता है लेकिन ज्ञान उसके पास निरंतर रहता है।

जिसकी कसौटी हम उसके द्वारा किए गए कर्मों के हिसाब से कर सकते हैं।

जिस मनुष्य को बिना साकार के अनुभव के निराकार ब्रह्म का अनुभव होता है वह अहंकार युक्त हो सकता है। क्योंकि जब हम ब्रह्म के समान महसूस करते हैं तो निरंकुश हो सकते हैं। जबकि मैं इसको मात्र एक उच्च क्रिया ही मानता हूं।

साकार यानि द्वैत जिसमें प्रभु के साकार दर्शन होने पर हम अपने को उसका दास मानने लगते है अत: समर्पण बढ़ जाता है। इसके बाद निराकार का अनुभव हमें अहंकार में लिप्त नहीं होने देता। वैराग्य इत्यादि अपने आप ही आने लगता है। जगत के किसी पद पुरस्कार या सम्मान अथवा लोभ भी नहीं रहता है।

मनुष्य अपने में लीन हो जाता है। उअसका एक मात्र लक्ष्य सनातन की सेवा और जगत के क्ल्याण हेतु लोगों को सनातन हेतु प्रेरित करना ही रहता है। क्योंकि जगत की सत्यता सामने आ जाती है।

क्योंकी विश्व शांति एकमात्र भारतीय सनातन ज्ञान ही दे सकता है। बाकी तो जगत में अशांति अत्याचार और कुमार्ग की ही शिक्षा देते हैं। मनुष्य को स्वार्थी और पापी बनाने की शिक्षा देते हैं। पाप की शिक्षा भी समझा कर उसे सही बता कर देतें हैं।

सनातन का अर्थ बौद्ध, जैन अथवा सिख विचारधाराओं से ही है। हां पारसी भी सनातन का कुछ हद तक हिस्सा है।


इसका कारण यह है जब हम आरंभ में ही निर्गुण निराकार की आराधना आरंभ करते हैं तो हमें निराकार का ही अनुभव होता है और क्योंकि हम किसी को नहीं मानते हैं तो हमें कौन बचाएगा क्योंकि हम अद्वैत को मानने लगते हैं।

मेरे विचार से द्वैत से अद्वैत का अनुभव ही योग है।

यह सत्य है ईश्वर का अंतिम रूप निराकार है और अद्वैत ही अंतिम अनुभव है जिसकी आवश्यकता है मोक्ष की प्राप्ति हेतु।

किंतु द्वैत में भक्ति योग मिलता है जो अत्यंत आनंददायक होता है और इसके आनंद की कोई सीमा नहीं होती है इसीलिए जो व्यक्ति द्वैत से अद्वैत की ओर जाता है भक्ति योग से ज्ञानि योंग की ओर जाता है उसको दोनों अनुभव हो जाते हैं और उसे हम पूर्ण अनुभव कह सकते हैं।

इसीलिए मैं सभी को यह सलाह देता हूं कि सदैव सगुण साकार से भक्ति आरंभ करो यही तुम को पूर्ण अनुभव देगा यहां तक कि आदि गुरु शंकराचार्य आरंभ में निराकार थे अद्वैत थे किंतु बाद में उनको द्वैत की भावना में आना पड़ा और साकार की आराधना में उनको समय बिताना पड़ा।

वही माधवाचार्य ने अपनी यात्रा द्वैत से आरंभ करी और द्वैत पर ही खत्म कर दी। अतः उनको कृष्ण लोक मिला होगा।

यदि हमारे मन में मोक्ष की भावना रहेगी और कोई भी सतगुण भी रहेगा तो हमें मोक्ष नहीं मिल सकता।

हमें त्रिगुणातीत होना होगा तब हम इसकी संभावना कर सकते हैं।

इसीलिए मैं यह बात कहता हूं कलयुग में यदि तुम अष्टांग योग के नियम का पांचवा अंग यानी ईश प्राणीधान निभा सको तो तुम को सब मिल जाएगा।

मैं समझता हूं योग के विषय में लोगों की जानकारी कुछ बढ़ी होगी।

🙏🏻🙏🏻🙏🏻🙏🏻

मित्रों वर्तमान में करोना को लेकर जिस प्रकार से विश्वव्यापी भय का माहौल पैदा हुआ है यह वास्तव में आपकी परीक्षा की घड़ी है यदि आप भयभीत होते हैं तो इसका मतलब यह है कि आप ईश्वर पर भरोसा नहीं करते और आप योगी तो हो ही नहीं सकते क्योंकि जीवन और मरण सिर्फ ईश्वर के हाथ में होता है। उससे भय क्या।

और वैसे यदि आपको लगता है कि भय है तो यह तो बहुत अच्छी बात है अब आप प्रभु भक्ति में जुट जाएगी यह सोचकर यह आपके दिन नजदीक आ गए आप अपनी प्रभु सेवा को और बढ़ा दीजिए मंत्र जप और बढ़ा दीजिए।

और प्रयास कीजिए गंगा जी का तट हो मेरा सांवरा निकट हो जब प्राण तन से निकले।

इस भावना के साथ आप सभी को शुभकामनाएं और आप सभी को बधाई हो आपकी परीक्षा आरंभ हो गई है।

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करोना पर यक्ष विचार

शायद यह कुछ कहने आया है।

जो इसने समय पर नहीं पाया है।।

हम जिंदगी की आपाधापी में।

शायद कुछ भूल गए थे।।

अपने घर से भी होता है रिश्ता।

पर दुनिया में झूल गए।।

शायद यह हमें फिर से जोड़ने आया है।

हमें हमारा घर बतलाने आया है।।

प्रदूषण से कराह रही थी यह धरती।

इसलिए प्रदूषण कम करने आया है।।

बर्गर पिज्जा में घर का खाना हम भूल गए थे।

इसीलिए हमें घर में खाना खिलाने आया है।।

आभासी फिल्मी दुनिया में हम भूल गए थे अपनी दुनिया।

उस आभासी दुनिया से हमें निकालने आया है।।

खो गई थी जो प्रकृति की रंगीनियां।

उन्हें फिर से वापिस बुलाने आया है।।

वास्तव में करोना हमें मारने नहीं‌।

सुधारने आया है।।

माध्यम तो चीन है पर यह प्रभु की माया है।।

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शिवाय नम:,

या तो कर्म सिद्धान्त पर आपकी पूर्ण निष्ठा हो कि जो कर्म किये हैं उनका फल तो भोगना ही होगा। यदि प्रारब्ध कर्मफल के रूप में चाईना कोरोना वायरस से आपको संक्रमित होना होगा तो इसे ही प्रराब्ध रूप में स्वीकार करें। यदि ऐसा कोई कर्म किया ही नहीं कि ये बीमारी से आक्रान्त हो शरीर नष्ट होना हो तो वह आपको होगी ही नहीं। यह जानें एवं चिन्तामुक्त रहें।

या तो भक्ति ही कर लो। सबकुछ ईश्वर पर छोड दो। ईश्वर अपने भक्त को योगक्षेम स्वयं ही वहन करते हैं। यदि कोरोना होगा भी तो उसमें आपके लिए ईश्वर की कोई बडी लाभप्रद बात ही छिपी होगी। हम बहुत छोट समय सीमा के छुद्र लाभों को ही देख पाते हैं। ईश्वर समष्टि की दृष्टि से आपके लिए क्या श्रेष्ठ है इसका विचार आपसे उत्तम रूप से कर सकता है। इस प्रकार जो भक्त हैं वे चिन्तामुक्त हैं।

या तो वेदान्त के परमज्ञान में स्थित हो जाओ। तब तो कोई किसी भी प्रकार की चिन्ता का प्रश्न ही नहीं। आपके सद्चिदानन्दस्वरूप में तो विकार, विक्षेप सम्भव ही नहीं। शरीर जब तक चल रहा है चल रहा है नहीं चल पायेगा तो गिर जायेगा बस। मैं तो इस देह से विलक्षण सद्चिदानन्त आत्मा हूं।

जिनका जीवन आत्मचिन्तन प्रधान रहा है वे गीता के दूसरे अध्याय पपर गहन चिन्तन करें। सारी चिन्ताओं से मुक्त होने का इससे श्रेष्ठ विधान तो कोई ज्ञात नहीं। कभी चित्त को इस चिन्तन से नीचे उतरता जानो बस दो श्लोकों का चिन्तन करो एवं चित्त पुन: प्रशान्त अवस्था को प्राप्त हो जाता है।


देहिनोऽस्मिन्यथा देहे कौमारं यौवनं जरा।

तथा देहान्तरप्राप्तिर्धीरस्तत्र न मुह्यति।।२.१३।।

वासांसि जीर्णानि यथा विहाय

नवानि गृह्णाति नरोऽपराणि।

तथा शरीराणि विहाय जीर्णा

न्यन्यानि संयाति नवानि देही।।२.२२।।

चलिए यह तो हुई उनकी चर्चा जिनका अध्यात्मचिन्तन कुछ परिपक्वास्था में है। घर में आग लग जाने पर फिर तो पानी का गड्डा खोदा नहीं जा सकता।

अब चर्चा करते हैं समान्यजनों की दृष्टि से जो सबके लिए लाभप्रद हो।

भय परिस्थितियों में किसी प्रकार का सुधार नहीं लाता अपितु उन्हें और जटिल बना देता है। जो व्यक्ति सामान्यरूप से स्वस्थ हैं किसी जटिल रोग से ग्रसित नहीं हैं उनके लिए कोई विशेष समस्या नहीं है। किन्तु उन्हें भी ध्यान देने की आवश्यकता है कि वे इस रोग के वाहक बनकर उन लोगों को संक्रमित न करें जिनके लिए ये प्राणघातक हो सकता है।

इस समय को चाईना कोरोना चातुर्मास के रूप में एकान्त में बितायें। भगवद्भजन एवं गीता आदि शास्त्रों के अध्ययन में इस समय का सदुपयोग करें। इसे ईश्वर प्रदत्त वरदान जानें जब आपको इस जटिल भाग दौड भरे जीवन में कुछ मास एकान्तवास एवं भगवद्भजन को प्राप्त हो रहे हैं। इस समय को आत्मचिन्तन, भगवद्भजन में बीतायें। गीता के दूसरे अध्याय का श्रवण एवं मनन करें।

यह समय एक दूसरे पर आरोप लगाने का, धार्मिक रूढीवादिता के प्रचार प्रसार का भी नहीं है। अपितु इस समय सारे भेदभाव भुला कर, इसे आपात काल जान मानवमात्र के प्रति सुहृदता का प्रदर्शन कर एकत्रित हो इस माहामारी को फैलने से रोकने के लिए प्रयास करने की आवश्यकता है। दूसरों को नीचा दीखा अपना मण्डन खण्डन बाद के विषय हैं। अपनी शुद्धता एवं देवत्व के प्रचार प्रसार का समय यह नहीं। सबके साथ मिलकर सबके हित के लिए कार्य करने का समय है। कौन पापी है कौन पुण्यात्मा एवं आपसी मतभेद बाद में सुलझाते रहेंगे।

जाने क्या है महामाई की इच्छा।

अगर यह नवरात्रों के पश्चात शान्त नहीं हुआ तो परिस्थितियां विकट हो सकती हैं। हमें जो अन्त: प्रेरणा हो रही है वह है शिव के योगेश्वर योग की। इस अनुष्ठान को अत्यन्त दुष्कर कार्य के लिए ही करने को कहा जाता है। शिव पुराण में कहा गया है कि इसका अनुष्ठान उसके फल को प्राप्ति के लिए करना चाहिए जो अन्य कार्यों से असाध्य हो।

महत्स्वपि च पातेषु महारोगभयादिषु।

दुर्भिक्षादिषु शान्त्यर्थं शान्तिं कुर्यादनेन तु।।

महोत्पात, महारोग, महाभय एवं दुर्भिक्ष आदि की शान्ति के लिए इसका अनुष्ठान करना चाहिए। यदि कुछ लोग आगे आयें तो पूरे राष्ट्रहित के लिए मिलकर यह अनुष्ठान सम्पन्न किया जा सकता है।

मित्रों कल आप दिन भर महामृत्युंजय मंत्र का जाप करें अथवा घंटे के साथ ओम का जाप करें।

घंटे के नाद से पी तरंगे निकलती है जो वायुमंडल में ध्वनि संचरण में दवाब की समानांतर जगह पैदा करती है जिसके कारण बहुत सारे वायरस का प्रोटीन का ऊपरी कवच टूट सकता है। यही तरंगे शंख के द्वारा भी पैदा होती है। ध्यान रहे संगीत से यह तरंगे उतनी प्रभावशाली नहीं होंगी जितनी की घंटे की अथवा शंख की ध्वनि से होंगी।


हे मां जगदंबे जगजननी तुम्हारी जय हो जगत का कल्याण करो मां।

मैं मूर्ख सोचता था कि मैं सनातन का हिंदुत्व का प्रचार कर सकूंगा लोगों को हिंदुत्व की सही परिभाषा बता सकूंगा यह सब कैसे होगा सिर्फ तुम्हारी लीला का सहारा था, है और रहेगा किंतु तुम तो मायाधारी लीलाधारी हो एक चक्र में तुमने संपूर्ण जगत में अपना परचम फहरा दिया पूरी दुनिया में सभी लोग सनातन की ओर प्रेरित होंगे पश्चिमी सभ्यता और बिगड़ी सभ्यतायें एक बार पुनः बौनी सिद्ध हो गई। सिर्फ सनातन ही सर्वश्रेष्ठ से सिद्ध हुआ।

तुम्हारी जय हो तुम्हारी जय हो।

मांसाहार एक झटके में बंद करा दिया शव का दाह संस्कार एक झटके में आरंभ करा दिया। भारत की नमस्कार की परंपरा को स्थापित कर दिया।

पतंजलि के आसन और प्राणायाम को फिर से स्थापित किया और लोगों को ध्यान की ओर प्रेरित कर दिया।

हे मां तुम्हारी शक्ति अपरंपार है तुम्हारे प्रत्येक कार्य में जगत का कल्याण छुपा होता है। तुम दयालु हो कृपालु हो सदैव जगत का कल्याण ही करती हो। कभी-कभी यह दिखता है तुम गलत कर रही हो लेकिन ऐसा नहीं मनुष्य को अपने कर्मों का दंड भोगना ही होता है और आज इस वायरस के रूप में मनुष्य जाति ने जो दुष्कर्म किए प्रकृति के साथ खिलवाड़ किए उन सब का फल भोगने के लिए मौत के साए में खड़ा हुआ है यह सब तुम्हारी लीला है मां सब तुम्हारी लीला है मां तुम्हारी जय हो मां तुम्हारी जय हो।

या देवी सर्वभूतेषु दया रूपेण संस्थिता। नमस्तस्यै:   नमस्तस्यै:   नमस्तस्यै: नमो नमः।।

हे मां जगदंबे तुम्हारी जय हो तुम्हारी जय हो। मां शरणागत की रक्षा करने वाली दयालु मां तुम्हारी जय हो तुम्हारी जय हो।

अभी तक पुस्तक में पढ़ा था कि किस प्रकार तुम जगत का भार कम करती हो अब यह देख रहा हूं। इस जगत के सभी रूप तुम्हारे हैं जन्म से लेकर मृत्यु तक वाणी से लेकर सांस तक हर जगह तुम्हारा मां। मां जो कुछ पुस्तक में पढ़ा था आज प्रत्यक्ष देख रहा हूं किस प्रकार तुम इस सृष्टि की रक्षा करने के लिए अपना चक्र चलाती हो। तुम्हारी लीला अपरंपार है मां तुम्हारी जय हो तुम्हारी जय हो।

कितनों को इस महामारी ने तुम्हारी शरण ला दिया जिसकी कोई गिनती नहीं है।

कितने ही आज जीवन बचाने के लिए तुम्हारी शरण में आए होंगे। तुम सर्व सत्तामई हो जगत की पालक हो यह सिद्ध हो गया की तुम ही तुम हो तुम ही तुम हो।

जय मां जगदंबके।

दुर्गा सप्तशती में अंत में दिए हुए हैं दो मंत्र एक महामारी विनाश के लिए है ओम जयंती मंगला काली भद्रकाली कपालिनी दुर्गा क्षमा शिवा धात्री स्वाहा स्वधा नमोस्तुते। और दूसरा रोग नाश के लिए

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मां तेरी जय हो जय हो जय हो। 🙏🏻🙏🏻💐💐🙏🏻

तेरे चरणों में लीन रहूं गर मृत्यु मुझे जो आए मां।

तेरी सुंदर छवि सामने हो जो मृत्यु मुझे बुलाए मां।।

हर जन्म में तेरा साथ मिले तेरी अनुकंपा बनी रहे।

मेरी न कोई इच्छा हो यदि जग मुझको बिसराये मां।।


तू जो करती मां वही करे तुझको न कोई रोक सके।

पर यह विनती इस बालक की चरणों में लीन भुलाए मां।।

तूने मानव का जन्म दिया और तीर्थ शिवओम सा गुरुवर मिला।

अब न कोई इच्छा बाकी जो मैं तुझसे गुहराऊं मां।।


तेरी भक्ति का अमृत पिया मां दर्शन तूने दे डाला।

मुझ अधम पतित पापी को मां अब कोई भी भय न सताए मां।।

हर सांस पर तेरा नाम जपुं हर पल चरणों में लीन रहूं।

यही विनती कर बार बार यही गीत दुहराऊं मां।।


है दास विपुल ने देख लिया जीवन क्षणभंगुर सपना है।

तू ही बस केवल सत्य है मां बाकी सब मिथ्या सपना है।।

ज्ञान ध्यान विज्ञान जगत सब तूने ही दे डाला मां।

नतमस्तक तेरे आगे हूं अब बलिहारी मैं जाऊं मां।।


हे प्रभु राम तुम्हारी जय हो।

सब भक्तन हितकारी जय हो।।

सारे जग से न्यारी जय हो।

छवि तेरी दुलारी जय हो।।


संतन रक्षा हितकारी जय हो।

कौशल्या तो वारी जय हो।।

दशरथ नंदन तुम्हारी जय हो।

दास विपुल बलिहारी जय हो।।


अधर्म विनाशी धर्म के पालक।

पाप धरती से जल्दी क्षय हो।।

सत्य सनातन ध्वज फहराए।

श्रेष्ठ भारत की पुनः पुनः जय हो।।

 

मित्रों जिस प्रकार से आपको घर में रहने का समय मिला है ऐसा सदियों में एक बार मिलता है इस समय का सदुपयोग करना सीखें।

अधिक से अधिक इईश प्राणीधान में लिप्त हों। मतलब नवधा भक्ति में किसी को भी अपना कर निरंतर प्रभु चिंतन में व्यस्त रहें।

जो होना है वह होकर रहेगा लेकिन जो समय आपको मिला है वह बहुमूल्य है उसके लिए आप अपना आध्यात्मिक उत्थान करने का प्रयास करें।

व्हाट्सएप पर कम से कम ध्यान दें फेसबुक पर भी कम से कम ध्यान दें। टीवी तो बंद ही कर दे तो बेहतर होगा।

अपने इष्ट का निरंतर जाप करें रात को समय मिले तो मन करे तो सचल मन वैज्ञानिक ध्यान विधि के द्वारा अपनी आध्यात्मिक शक्तियों को उजागर करें।

मित्रों मैं यह देख रहा हूं कि लोग घर में रह ही नहीं पा रहे हैं रोज व्हाट्सएप के सारे ग्रुप के मैसेज डिलीट करने पड़ते हैं।

जबकि यह तो समय आपको प्राप्त हुआ है यह समय आपको कभी नहीं मिलेगा जब आप अपने स्वयं के नजदीक जा सके अपने स्वरूप को पहचान सके।

आपको आश्चर्य होगा मेरे घर में टीवी 1 साल से बंद है फेसबुक और व्हाट्सएप पर मैसेज बहुत कम लिख रहा हूं। फिर भी मैं प्रसन्न हूं और मेरा समय सकुशल बीत रहा है।

मैं बार-बार आपसे अनुरोध करता हूं जो होना है वह होकर रहेगा निश्चिंत रहिए लेकिन सावधानी बरतिए साथ में प्रभु स्मरण करते रहिए हर संभव प्रयास कीजिए कि उसमें लीन रहे कोई न कोई आध्यात्मिक कथा पढ़िए। टीवी से दूर रहिए फेसबुक व्हाट्सएप से भी दूरी रखने का प्रयास करिए।

मैं बता रहा हूं कि यह समय आपको जो मिला है यह कलियुग में कभी प्राप्त नहीं होता है जब आप प्रभु को अपने नजदीक महसूस कर सकते हैं।

बूझो तो जानी। मानू तब ज्ञानी।।

भाव भाव को देखता, न है भाव आ भाव।

भाव नहीं तो भाव क्यों, क्यों है भाव अभाव।।

तू देखे तुझको न मैं, तुझको तुझ में देख।

बूझ गया जो तुझको मैं, पड़ी समय इक रेख।।

समय चला गतिमान बन, गति गति है शून्य।

दूर गति करे चले तू, दाल धान ले चून।।

बरस बरस के बरस गए, असुअन  नयनन धार।

दिन बारिस सब सून है, कैसे बेड़ा पार।।

मांग मांग कर भर लिया, अपने घर को आज।

बने भिखारी आज सब, कौन बने सरताज।।

मद माया ममता यहां, करै न बेड़ा पार।

इनका यहां न मोल है, कैसे बेड़ा पार।।

मांग मांगे बुझे नहीं, क्षुधा अलग है राज।

दिशा क्षुधा की मोड़ कर, बन जा तू सरताज।।

यम का पासा दिख रहा, गोटी कौन पिटाय।

जो गोटी निज घर रहे, वोही तो बच पाय।।

चौसर खेले रोग यह, यम की चलती चाल।

बैठे रहो क्रास पर, यह जीवन की ढाल।।


जय गुरूदेव जय मां काली



Friday, October 16, 2020

बुद्ध का अष्टांगिक सनातन दर्शन


बुद्ध अष्टांगिक मार्ग बनाम पातांजलि अष्टांग योग

सनातनपुत्र देवीदास विपुल "खोजी"

महात्मा बुद्ध को लोग चारवाक की श्रेणी में रखते हैं लेकिन यदि आप महात्मा बुद्ध का साहित्य पढ़ते हैं तो आप देखेंगे महात्मा बुद्ध ने जो कुछ भी कहा है वह सनातन से ही प्रेरित है। सनातन का आधार वेद है वेद से षड्दर्शन निकले हैं षड्दर्शन में एक है योग शास्त्र जिसको की पतंजलि महाराज ने लिखा था और उसमें है एक अष्टांग योग बुद्ध का अष्टांगिक मार्ग भगवत गीता के द्वारा और पतंजलि के अष्टांग योग के द्वारा भली-भांति समझा जा सकता है और इसकी व्याख्या की जा सकती है।


दुखद पहलू यह रहा महात्मा बुद्ध के साहित्य पर लिखने वाले अनुभवहीन योग किताबी ज्ञान वाले लोग पूर्वाग्रहित होकर लिखते हैं और उनकी अंदर की बात को ऊपरी सतह से समझते हैं।इस लेख में यही प्रयास किया गया है की बुद्ध भी सनातन से प्रेरित है सनातन से अलग नहीं।


पहले आप प्रयुक्त होनेवाले शब्द “सम्यक” के हिंदी अर्थ देखें। पुल्लिंग में अर्थ होते है समुदायसमूह। विशेषण में अर्थ होते है पूरासबसमस्त। उचितउपयुक्त। मनोनुकूल। क्रिया विशेषण में अर्थ होते है पूरी तरह से। अच्छी तरहभली–भाँति। मतलब साफ है किसी भी वस्तु व्यक्ति अथवा स्थान को जैसे का तैसा स्वीकार कर लेना। और कहूं तो न लेना न देना मगन रहना। यह अर्थ हैं सम्यक के।

अब महात्मा बुद्ध ने चार आर्य सत्य बताए हैं – 1. दुख,  दुख की उत्पत्ति,  2. दुख से मुक्ति और 3. मुक्तिगामी 4. आर्य-आष्टांगिक मार्ग।

अब आर्य क्यों?? पहले आर्य का अर्थ जानें: विशेषण में उत्तमश्रेष्ठ। पूज्यमान्य। कुलीन। उपयुक्तयोग्य। और पुल्लिंग में प्रतिष्ठित व्यक्ति। धर्म एवं नियमों के प्रति निष्ठावान व्यक्ति। आर्य समस्त हिन्दुओं तथा उनके मनुकुलीय पूर्वजों का वैदिक सम्बोधन है। इसका सरलार्थ है श्रेष्ठ अथवा कुलीन। आर्य शब्द का अन्य अर्थ है प्रगतिशील। आर्य धर्म प्राचीन आर्यों का धर्म और श्रेष्ठ धर्म दोनों समझे जाते हैं। प्राचीन आर्यों के धर्म में प्रथमत: प्राकृतिक देवमण्डल की कल्पना है जो भारतमें पाई जाती रही है। इसमें द्यौस् (आकाश) और पृथ्वी के बीच में अनेक देवताओं की सृष्टि हुई है। भारतीय आर्यों का मूल धर्म ऋग्वेद में अभिव्यक्त हैदेवमंडल के साथ आर्य कर्मकांड का विकास हुआ जिसमें मंत्रयज्ञश्राद्ध (पितरों की पूजा)अतिथि सत्कार आदि मुख्यत: सम्मिलित थे। आर्य आध्यात्मिक दर्शन (ब्राहृआत्माविश्वमोक्ष आदि) और आर्य नीति (सामान्यविशेष आदि) का विकास भी समानांतर हुआ। शुद्ध नैतिक आधार पर अवलंबित परंपरा विरोधी अवैदिक संप्रदायों - बौद्धजैन आदि ने भी अपने धर्म को आर्य  धर्म अथवा सद्धर्म कहा। सामाजिक अर्थ में "आर्यका प्रयोग पहले संपूर्ण मानव के अर्थ में होता था।

अर्थात इसका अर्थ हुआ सनातन सत्य है। जिस प्रकार सनातन सत्य है उसी प्रकार जीवन में चार अटल सत्य हैं। अत: प्रयोग हुआ आर्य सत्य।  

अब आप यह देखें बुद्ध ने यह कब बताया जब उन्होने ज्ञान प्राप्त कर लिया। पहले वे भी एक साधारण मानव थे जिन्होने जीवन की तीन दुखद घटनाओं को देखकर दुख से निवारण की सोंची। उनके ज्ञान प्राप्त करने का मूल कारण था उनका दुखी मन। अवचेतन में दुख की अनूभूति साथ थी। अत: उनके ज्ञान का आरम्भ दुख से हुआ। मतलब जो बीज वही ज्ञान का बृक्ष बना। उससे अधिक दुखद यह है कि उनकी व्याख्या स्वार्थी और बिन अनुभव के लोग शब्दों में कर के अर्थ के अनर्थ लगाकर दुकान चला रहें हैं।

जैसे आधा गिलास पानी को बोलना कि आधा गिलास भरा है। यह सकारात्मक। आधा गिलास खाली है यह नकारात्मक। बुद्ध ने कहा जीवन दु:ख है। दु:ख दूर करो तो सुख। नकारात्मक सोंच को बताता है। वहीं सनातन कहता है मनुष्य का मूल स्वभाव आनंद है। उसको प्राप्त करो। यानि सकारात्मक सोंच। बात एक पर शब्दों का फेर जो आम आदमी न समझ कर अपने जीवन में नकारात्मक होकर कार्य करता है। वास्तव में चार आर्य सत्य चार अवस्थायें अवधियां हैं। जैसे जीवन में दुख ही दुख है। दुख का कारण या उत्पत्ति क्या है। दुख से मुक्ति कैसे हो। दुख से मुक्ति का मार्ग क्या हैकैसे हो मुक्तगामी। साथ ही दुख से मुक्ति के आठ उपायों को बुद्ध ने आष्टांगिक मार्ग कहा है। ये हैं- सम्यक दृष्टिसम्यक संकल्पसम्यक वाणीसम्यक कर्मातसम्यक आजीविकासम्यक व्यायामसम्यक स्मृति और सम्यक समाधि। 

अब आप देखें कि गीता में कहा गया है कि समत्वस्थिर बुद्धिस्थित प्रज्ञ योगी के लक्षण हैं। बुद्ध ने जो हम देखते हैंजो संकल्प करते हैंया सोंचते हैं जो बोलते हैंजो कर्म करते हैं जो नौकरी या आजीविका हेतु कर्म करते हैंजो कसरत या व्यायाम करते हैंजो पुरानी बातों को सोंचते है मतलब किसी को पुरानी बातों को बताते है बिना नमक मिर्च लगाये और जो स्वत: हो जाये वह समाधि मतलब जबरिया नहीं। यानि हमारे शरीर का जो भी सम्बंध है उसमें मिलावट नहीं। जो है वैसा ही स्वीकार करना। यह जगत से सम्यक लेन देन हुआ। इनके प्रत्येक शब्द की व्याख्या आप खुद सोंच सकते हैं पर याद रहे ये वाक्य बुद्ध ने ज्ञान प्राप्ति के बाद के स्तर पर जाकर कहे। आम मानव इस अवस्था पर पहुंच कर ही यह स्थिति प्राप्त कर सकता है। मात्र रटने या तर्क कुतर्क करने से काम न चलेगा।

अब आप अष्टांग योग देखें जो पातांजलि महाराज ने कहा। 1. यम यानि क्या करें। (क) अहिंसा - शब्दों सेविचारों से और कर्मों से किसी को अकारण हानि नहीं पहुँचाना। (ख) सत्य - विचारों में सत्यतापरम-सत्य में स्थित रहनाजैसा विचार मन में है वैसा ही प्रामाणिक बातें वाणी से बोलना। (ग) अस्तेय - चोर-प्रवृति का न होना। (घ) ब्रह्मचर्य - दो अर्थ हैं: चेतना को ब्रह्म के ज्ञान में स्थिर करना। सभी इन्द्रिय-जनित सुखों में संयम बरतना। (च) अपरिग्रह - आवश्यकता से अधिक संचय नहीं करना और दूसरों की वस्तुओं की इच्छा नहीं करना। 2. नियम यानि क्या न करें या न करें। पाँच व्यक्तिगत नैतिकता: (क) शौच - शरीर और मन की शुद्धि (ख) संतोष - संतुष्ट और प्रसन्न रहना (ग) तप - स्वयं से अनुशाषित रहना (घ) स्वाध्याय - आत्मचिंतन करना (च) ईश्वर-प्रणिधान - ईश्वर के प्रति पूर्ण समर्पणपूर्ण श्रद्धा  4. आसन: आसन योगासनों द्वारा शरीरिक नियंत्रण 5. प्रणायाम: प्राणायाम श्वास-लेने सम्बन्धी खास तकनीकों द्वारा प्राण पर नियंत्रण  3. प्रत्याहार यानि त्याग की आदत। प्रत्याहार इन्द्रियों को अंतर्मुखी करना महर्षि पतंजलि के अनुसार जो इन्द्रियां चित्त को चंचल कर रही हैंउन इन्द्रियों का विषयों से हट कर एकाग्र हुए चित्त के स्वरूप का अनुकरण करना प्रत्याहार है। प्रत्याहार से इन्द्रियां वश में रहती हैं और उन पर पूर्ण विजय प्राप्त हो जाती है। अत: चित्त के निरुद्ध हो जाने पर इन्द्रियां भी उसी प्रकार निरुद्ध हो जाती हैंजिस प्रकार रानी मधुमक्खी के एक स्थान पर रुक जाने पर अन्य मधुमक्खियां भी उसी स्थान पर रुक जाती हैं। 6. धारणा: धारणा एकाग्रचित्त होना अपने मन को वश में करना। 7. ध्यान:  ध्यान निरंतर ध्यान  8.  समाधि: समाधि आत्मा से जुड़ना: शब्दों से परे परम-चैतन्य की अवस्था हम सभी समाधि का अनुभव करें !!!

बुद्ध ने जो कहा उसका स्तर आता है पातांजलि महाराज के अष्टांग योग को प्राप्त करने के बाद मनुष्य में जो परिवर्तन आता है वह है सम्यक। पतांनजलि महाराज सम्यक यानि “चित्त में वृत्ति का निरोध है योग” यानि योग का लक्षन यानि सम्यक होना। वही बुद्ध का सम्यक साधारण मानव नही प्राप्त कर सकता। पर अष्टांग योग एक साधारण मानव को योगी बनाने की प्रक्रिया बताता है। वहीं गीता ने जो कहा वह भी योगी के गुण में सम्यक की अवस्था है। जैसे समत्व यानि जो सबको बराबर देखता हो। यानि जैसे के तैसा पर समानता के साथ। जिसकी बुद्धि स्थिर बुद्धि यानि सुख दुख से अविचलित यानि सम्यक जो है सो है। मेरे लिये सब बराबर। न कोई मित्र न शत्रु न निकट न दूर।  स्थित प्रज्ञ यानि जिसकी बुद्धि व्यहार मुझमें आत्म स्वरूप में स्थित मतलब सर्व समाधि की अवस्था। मतलब सबने आगे पीछे एक ही बात कहीं। आत्माराम होनाउसके लक्षण और उसके गुण।

अंतर कुछ नहीं बुद्ध कहते हैंचार आर्य सत्य हैं- दुख हैदुख की उत्पत्ति हैदुख से मुक्ति है और मुक्तिगामी आर्य-आष्टांगिक मार्ग हैं। ये आठ अंग हैं उस दुख-मुक्ति के लिए। बुद्ध ने आर्य-आष्टांगिक मार्ग कहा हैउस संबंध में थोड़ी-सी बात समझ लेनी चाहिए।

पहला सूत्र है आठ अंगों में- सम्यक दृष्टि। जो हैवही देखना। जैसा हैवैसा ही देखना। अन्यथा न करना। कोई धारणा बीच में न लाना। कामनावासनाधारणा को बीच में न लाना। जो हैवैसा ही देखना। चार आर्य सत्यों को माननाजीव हिंसा नहीं करना (हिंसा और मांसाहार मे अंतर है)चोरी नहीं करनाव्यभिचार( पर-स्त्रीगमन) नहीं करनाये शारीरिक सदाचरण हैं। झूठ नहीं बोलनाचुगली नहीं करनाकठोर वचन नहीं बोलनाबकवास नहीं करनाये वाणी के सदाचरण हैं। लालच नहीं करनाद्वेष नहीं करनासम्यक दृष्टि रखना ये मन के सदाचरण है। धम्म आचरण का विषय हैआचरण करोगे तभी फल मिलेगाऔर तुरंत फल मिलेगा और इसके लिए ईश्वर मानने या ना मानने के लिए आप स्वतंत्र हैकोई पाबंदी नहीं हैआँखकाननाकमुखत्वचा(पाँच इंद्रियाँ) के आनंद से बड़ा सुख है मन(छठी इंद्री) का सुख ये जानना और निर्वाण (सास्वत खुशीपरमानंद एवं विश्राम की स्थिति) को परम सुख जाननाधम्म के लिए परा-प्राकृतिक बातों की कोई आवश्यकता नहीं हैऐसा जाननादुनिया मे सब कुछ प्रतित्य-समुत्पाद (कार्य-कारण का सिद्धान्त) से हो रहा हैये जानना।

दूसरा है- सम्यक संकल्प। जिसमें आता हैचित्त से राग-द्वेष नहीं करनाये जानना की राग-द्वेष रहित मन ही एकाग्र हो सकता हैकरुणामैत्रीमुदितासमता रखनादुराचरण(सदाचरण के विपरीत कार्य) ना करने का संकल्प लेनासदाचरण करने का संकल्प लेनाधम्म पर चलने का संकल्प लेना।हठ मत करना। अक्सर लोग हठ को संकल्प मान लेते हैं और हठी आदमी को कहते हैंयह संकल्पवान है। जिद तो अहंकार है। संकल्प में कोई अहंकार नहीं होता। हठ और संकल्प में यही फर्क है। बुद्ध कहते हैंसम्यक संकल्प का अर्थ होता हैजो करने योग्य हैवह करना। और जो करने योग्य हैउस पर पूरा जीवन दांव पर लगा देना है।

तीसरा है- सम्यक वाणी। इसमें आता हैसत्य बोलने का अभ्यास करनामधुर बोलने का अभ्यास करनाटूटे हुओ को मिलने का अभ्यास करनाधम्म चर्चा करने का अभ्यास करना। जो हैवही कहना। जैसा हैवैसा ही कहना। ऊपर कुछभीतर कुछऐसा नहींक्योंकि अगर तुम सत्य की खोज में चले हो तो पहली शर्त तो पूरी करनी ही पड़ेगी कि तुम सच्चे हो जाओ। जो झूठा हैउससे सत्य का संबंध न जुड़ सकेगा। अगर कोई बात पसंद नहीं पड़ती तो निवेदन कर देना कि पसंद नहीं पड़ती है। झुठलाना मत। तुम अपने जीवन में थोड़ा देखनातुम कुछ हो भीतरबाहर कुछ बताए चले जाते हो। धीरे-धीरे यह बाहर की पर्त इतनी मजबूत हो जाती है कि तुम भूल ही जाते हो कि तुम भीतर क्या हो। सम्यक वाणी का अर्थ है- धीरे-धीरे सभी अर्थों मेंदृष्टि मेंसंकल्प मेंवाणी में हृदय की अंतरतम अवस्था को झलकने देना।

चौथा- सम्यक कर्मात। इसमें आता हैप्राणियों के जीवन की रक्षा का अभ्यास करनाचोरी ना करनापर-स्त्रीगमन नहीं करना। बुद्ध ने सत्य और न्याय के लिए हिंसा कोयदि आवश्यक हो तो जायज ठहराया। वही करनाजो वस्तुत: तुम्हारा हृदय करने को कहता है। व्यर्थ की बातें मत किए चले जाना। किसी ने कह दिया तो कर लिया। सम्यक कर्मात का अर्थ होता हैवही करना हैजो तुम्हें करने योग्य लगता है। ऐसे हर किसी की बात में मत पड़ जानानहीं तो तुम्हारी छीछालेदर हो जाएगी। सम्यक कर्मात का अर्थ हैएक दिशा पर नजर रखना। जो तुम्हें करना हैवही करना।

पांचवां है- सम्यक आजीविका में आता हैमेहनत से आजीविका अर्जन करनापाँच प्रकार के व्यापार नहीं करनाजिनमे आते हैंशस्त्रों का व्यापारजानवरों का व्यापारमांस का व्यापारमद्य का व्यापारविष का व्यापारइनके व्यापार से आप दूसरों की हानि का कारण बनते हो।बुद्ध कहते हैंहर किसी चीज को आजीविका मत बना लेना। अब कोई आदमी कसाई बन कर अपनी रोटी कमा रहा है। यह भी कोई कमाना हुआ! रोटी ही कमानी थीहजार ढंग से कमा सकते थेकसाई होने की क्या जरूरत थीरोटी तो कमानी ही हैयह बात सच हैलेकिन सम्यक खोजना। अगर तुम्हारी आजीविका सम्यक हो तो तुम्हारे जीवन में शांति होगी।

छठवां है- सम्यक व्यायाम। जिसमें आता हैआष्टांगिक मार्ग का पालन करने का अभ्यास करनाशुभ विचार पैदा करने वाली चीजो/बातों को मन मे रखनापापमय विचारो के दुष्परिणाम को सोचनाउन वितर्कों को मन मे जगह ना देनाउन वितर्कों को संस्कार स्वरूप माननागलत वितर्क मन मे आए तो निग्रह करनादबानासंताप करना। अति न करनाबुद्ध कहते हैं। कुछ लोग हैं आलसी और कुछ लोग हैं अति कर्मठ। दोनों ही नुकसान में पड़ जाते हैं। आलसी उठता ही नहींतो पहुंचे कैसे! कर्मठ मंजिल के सामने से भी निकल जाता है दौडता  हुआरुके कैसेवह रुक ही नहीं सकता। रुकने की उसे आदत नहीं है। जब तुम तीर को चलाओतब प्रत्यंचा सम्यक खिंचनी चाहिए। अगर थोड़ी कम खिंची तो पहले ही गिर जाएगा तीर। थोड़ी ज्यादा खिंच गयी तो आगे निकल जाएगा तीर। इसलिए बुद्ध का जोर अति वर्जित करने पर है।

सातवां- सम्यक् स्मृति में आता हैकायानुपस्सनावेदनानुपस्सनाचित्तानुपस्सनाधम्मानुपस्सनाये सब मिलकर विपस्सना साधना कहलाता हैजिसका अर्थ हैस्वयं को ठीक प्रकार से देखना। ये जानना की राग-द्वेष रहित मन ही एकाग्र हो सकता है। किसी भी मनुष्य कोजिसे स्वयं को जानने की इच्छा होको विपस्सना जरूर करनी चाहिएइसी से दुख-निवारण के पथ की शुरुआत होगी। व्यर्थ को भूलना और सार्थक को सम्हालना। तुम अक्सर उल्टा करते हो। सार्थक तो भूल जाते होव्यर्थ को याद रखते हो। जीवन में जो भी बहुमूल्य हैउसको तो बिसार देते हो। सबसे ज्यादा बहुमूल्य तो तुम्हारी चेतना हैउसको तो तुम बिल्कुल बिसार कर बैठ गए हो और ठीकरे इकट्ठे कर रहे हो और उनका हिसाब लगा रहे हो। इसको बुद्ध ने कहासम्यक् स्मृति। बुद्ध के स्मृति शब्द से ही संतों का सुरति शब्द आया। सुरति स्मृति का ही अपभ्रंश है। जिसे कबीर सुरति कहते हैंवह बुद्ध की स्मृति ही है। उसे थोड़ा मीठा कर लिया- सुरतिअपनी यादअपनी पहचान।

आठवां है- सम्यक समाधि में आता हैअनुत्पन्न पाप धर्मो को ना उत्पन्न होने देनाउत्पन्न पाप धर्मो के विनाश मे रुचि लेनाअनुत्पन्न कुशल धर्मो के उत्पत्ति मे रुचिउत्पन्न कुशल धर्मो के वृद्धि मे रुचि। इन सबको शब्दशः पालन करने से जीवन सुखमय होगानिर्वाण (सास्वत खुशीपरमानंद एवं विश्राम की स्थिति) की प्राप्ति होगी।
नशीली चीजों से हमेशा दूर रहें क्योंकि ये दुराचार(बुराई) की जननी हैइससे मन का भटकाव होता हैमन को जो भी दिमाग मे आता हैवो ही अच्छा लगता हैसही और गलत की पहचान खत्म हो जाती है।

बुद्ध समाधि में भी कहते हैं सम्यक ख्याल रखना। क्योंक्योंकि ऐसी भी समाधियां हैंजो सम्यक नहीं हैं। जड़ समाधि। एक आदमी मूर्छित पड़ जाता हैइसको बुद्ध सम्यक समाधि नहीं कहते। ऐसा आदमी गहरी निद्रा में पड़ गयाबेहोशी। मन के तो पार चला गया हैलेकिन ऊपर नहीं गयानीचे चला गया। मन तो बंद हो गयाक्योंकि गहरी मूच्र्छा में मन तो बंद हो जाएगालेकिन यह बंद होना कुछ काम का न हुआ। मन बंद हो जाए और होश भी बना रहे। मन तो चुप हो जाएविचार तो बंद हो जाएंलेकिन बोध न खो जाए। तीन स्थितियां हैं मन की। स्वप्नजागृतिसुषुप्ति। स्वप्न तो बंद होना चाहिए- चाहे सम्यक समाधि होचाहे असम्यक समाधि होस्वप्न तो दोनों में बंद हो जाएगा। विचार की तरंगें बंद हो जाएंगी। लेकिन जड़ समाधि में आदमी गहरी मूच्र्छा में पड़ गयासुषुप्ति में डूब गयाउसे होश ही नहीं है। जब वापस लौटेगा तो निश्चित ही शांत लौटेगाबड़ा प्रसन्न लौटेगाक्योंकि इतना विश्राम मिल गया। लेकिन यह कोई बात न हुई! यह तो नींद का ही प्रयोग हुआ। यह तो योगतंद्रा हुई। असली बात तो तब घटेगीजब तुम भीतर जाओ और होशपूर्वक जाओ। तब तुम प्रसन्न भी लौटोगेआनंदित भी लौटोगे और प्रज्ञावान होकर भी लौटोगे। तुम बाहर आओगेतुम्हारी ज्योति और होगी। तुम्हारी प्रभा और होगी। दो तरह की समाधियां हैं। जड़ समाधिआदमी गांजा पीकर जड़ समाधि में चला जाता हैअफीम खाकर जड़ समाधि में चला जाता है।

बुद्ध ने उनका बड़ा विरोध किया। बुद्ध ने कहायह भी कोई बात है! माना कि सुख मिलता हैइसमें कोई शक नहीं है। गांजे का दम लगा लिया तो डूब गएएक तरह का सुख मिलता है। मगर यह डुबकी नींद की है। यह कुछ मनुष्य योग्य हुआ! ऊपर उठोजागते हुए भीतर जाओ। मशाल लेकर भीतर जाओताकि सब रास्ता भी उजाला हो जाए और तुम्हें पता भी हो जाएतो जब जाना होतब चले जाओ। और तुम फिर किसी चीज पर निर्भर भी न रहोगे। असली बात हैजाग्रत होकर आनंद को उपलब्ध हो जाना। उसको उन्होंने सम्यक समाधि कहा।


 
यह हैं आर्य-आष्टांगिक मार्ग।
सम्यक दृष्टिसम्यक संकल्प को ‘प्रज्ञा’ कहा गया है।
सम्यक वाणीसम्यक कर्मांतसम्यक आजीविकासम्यक व्यायाम को ‘शील’ कहा गया है।
सम्यक स्मृति और सम्यक समाधि को ‘समाधि’ कहा गया है।
इस प्रकार प्रज्ञाशील समाधि मे आष्टांगिक मार्ग शामिल हो जाता है।

अंतिम अवस्था है निर्वाण जिसका सुख  बड़ा है और ये सबको प्राप्त हो सकता हैइसके लिए गृह-त्याग की आवश्यकता नहीं है। बस माध्यम मार्ग के पालन की आवश्यकता है। बहुत लोगों को गलतफहमी है की बुद्ध का धम्म भिक्षुओं का धम्म है। पर ऐसा नहीं हैबुद्ध का धम्म भिक्षुओंभिक्षुणियोंउपासक और उपासिकाओ से पूर्ण होता है।

अब आप स्वयं ही सोंचे कि अष्टांग मार्ग और अष्टांग योग एक ही सिक्के के दो पहलू है कुछ इस तरह:

आठ अंग तब योग घटित (अष्टांग योग) ---à  अष्टांग मार्ग (सम्यक अवस्था) ----à चित्त में वृत्ति का निरोध यानि निष्काम कर्म -------à समत्वस्थिर बुद्धिस्थित प्रज्ञ।

जब योग घटित तो निम्न अनुभव (ध्यान दें अनुभव किताबी कीडी ज्ञान नहीं) जो वेदांत महावाक्य समझाते हैं।
1.  अहं ब्रह्मास्मि - "मैं ब्रह्म हुँ" (बृहदारण्यक उपनिषद १/४/१० - यजुर्वेद)
2.  तत्वमसि - "वह ब्रह्म तू है" (छान्दोग्य उपनिषद ६/८/७- सामवेद )
3.  अयम् आत्मा ब्रह्म - "यह आत्मा ब्रह्म है" (माण्डूक्य उपनिषद १/२ - अथर्ववेद )
4.  प्रज्ञानं ब्रह्म - "वह प्रज्ञानं ही ब्रह्म है" (ऐतरेय उपनिषद १/२ - ऋग्वेद)
5.  सर्वं खल्विदं ब्रह्मम् - "सर्वत्र ब्रह्म ही है" (छान्दोग्य उपनिषद ३/१४/१- सामवेद )
कुल मिलाकर आप पायेगें हर ज्ञानी वेदांत और सनातन की ही व्याख्या करता है। अत: मै6 उनको मूर्ख ही कहूंगा जो कहते हैं कि बुद्ध सनातन विरोधी थे। 

महावाक्यों को और समझने के लिये लिंक देखें। 

"योग की व्याख्यायें"

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Thursday, February 14, 2019

सिर्फ भारत ही दे सकता है विश्व शांति



विश्व बंधुत्व भारत की ही देन

सनातनपुत्र देवीदास विपुल "खोजी"

 विपुल सेन उर्फ विपुल लखनवी,
(एम . टेक. केमिकल इंजीनियर) वैज्ञानिक एवं कवि
सम्पादक : विज्ञान त्रैमासिक हिन्दी जर्नल “वैज्ञनिक” ISSN 2456-4818
वेब:  vipkavi.info वेब चैनलvipkavi
ब्लाग: freedhyan.blogspot.com,


सनातन ज्ञान कहता है। सभी मनुष्य एक सी सांस लेते हैं, एक सी ही सुख:दुःख की सम्वेदनाएँ इनके शरीर पर होती हैं, जिनसे वे राग द्वेष जगाते रहते हैं और सुखी दुःखी होने की अनुभूति करते रहते हैं। इससे कोई फ़र्क नहीं पड़ता कि वह मनुष्य हिन्दू है, या मुस्लिम, क्रिस्चियन, या अन्य पंथानुगामी है, क्योंकि सांस या सम्वेदनाएँ इन सम्प्रदायों से परे हैं। कोई भी सांस न तो हिंदू होती है, ही मुस्लिम, न ईसाई, या किसी अन्य पंथ से सम्बद्ध!


चाहे वह मनुष्य किसी पंथ से सम्बद्ध क्यों न हो, यदि विकार जगाता है तो दुःखी होगा ही। क़ुदरत का क़ानून सबके लिए बराबर है।


एक सद्गृहस्थ जैसे अपनी पत्नी और संतान को जोड़े रखता है वैसे ही परिवार के अन्य लोगो को, कुटुंब के अन्य लोगो को, अपने सगे सम्बन्धियों को बंधु बान्धवो को जोड़े, यानी उनसे स्नेह सम्बन्ध बनाये रखे।

 
स्वयं धनवान हो तो अपने निर्धन हुए बंधु-बान्धवो से स्नेह सत्कार का सम्बन्ध बनाये रखे।
सहानुभूति और सहयोग का सम्बन्ध बनाये रखे। निर्धन है तो इस कारण उन्हें दुत्कारे नहीं। उनका अपमान नहीं करे। उनका यथोचित सम्मान करे। संकट में पड़े बंधु-बांधवों की यथाशक्ति सहायता करे।इस प्रकार उन्हें साथ जोड़े रखने का काम करे।


समय सदा एक सा नही रहता। पलटता है तो यही दुख्यारे बंधु-बांधव संपन्न हो सकते हैं। संकट के समय इन्हे सहायता देने का एहसान कभी नही भूलते। जाति-बंधुओ को इस प्रकार जोड़े रखना उत्तम मंगल है।

ओर फिर ऊँच नीच के भेद भाव को भुलाकर अपने सारे देशवासिओं को जाति-बंधु माने और सब को जोड़कर रखने के काम में हाथ बटाये।

इतना ही नही जाति-बंधुओ की परिभाषा को और विकसित करके देखते हुए सारे विश्व की मानव जाति को जोड़े रखने के काम में यथाशक्ति सहायक हो जायँ। आखिर मनुष्य तो मनुष्य है। भगवान बुद्ध ने मनुष्यो की एक ही जाति मानी थी। आगे चलकर के इसी को हमारे यहाँ के एक प्रमुख संत ने दोहराया-   'मानुस की जात सब एक कर जानिये।'


किसी रंग-रूप का हो, किसी बोली-भाषा का हो, किसी वेशभूषा का हो, किसी वर्ण-गोत्र का हो, किसी देश-विदेश का हो, मनुष्य तो मनुष्य ही है। एक ही जाति का प्राणी है।


सारी मनुष्य जाति को जोड़े रखने में, संग्रह करने में, सचमुच उत्तम मंगल ही समाया हुआ है।  यही भारतीय संस्कृति है।


उपनिषद वाक्य है - ' संगच्छघ्वं संवदध्वं संवो मनांसि जानताम्‌।'  अर्थात्‌ इकट्ठे चलें, एक जैस बोलें और हम सबके मन एक जैसे हो जावें- यह भावना प्राचीन काल से ही चली आ रही है। इसलिए यहां राजा और रंक, धनवान और संत सब एक साथ बैठकर भोजन करते हैं। यहां के तत्व चिन्तकों ने बिना किसी भेदभाव के मानव मात्र अथ च प्राणिमात्र के कल्याण की कामना की है।

 
सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामयाः।  सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चित्‌ दुःखभाग्भवेत॥ अर्थात्‌ संसार में सब सुखी रहें, सब नीरोग या स्वस्थ रहें, सब भ्रद देखें और विश्व में कोई दुःखी न हो। 'वसुधैव कुटुम्बकम्‌' एक व्यापक मानव-मूल्य है। व्यक्ति से लेकर विश्व तक इसकी व्याप्ति है-व्यक्ति, परिवार, समाज, राष्ट्र, अर्न्राष्ट्र। गरज यह कि संपूर्ण विश्व इसकी परिधि में समाहित है।

 
संयुक्त राष्ट्र संघ ने महात्मा गाँधी के आदर्शों एवं विचारों को विश्वव्यापी मान्यता प्रदान की, किंतु अहिंसा किसकी देन है। सनातन की, बौद्ध और जैन की, जो भारतीय सनातन के घटक हैं। 


अहिंसा की नीति के जरिये विष्व भर में शांति के संदेश को बढ़ावा देने के महात्मा गाँधी के योगदान को स्वीकारने के लिए ही 'संयुक्त राष्ट्र संघ' ने महात्मा गाँधी के जन्मदिवस 2 अक्टूबर को 'अंतर्राष्ट्रीय अहिंसा दिवस' के रूप में विश्व भर में प्रतिवर्ष मनाने का निर्णय वर्ष 2007 में लिया। मौजूदा विश्व-व्यवस्था में अहिंसा की सार्थकता को मानते हुए संयुक्त राष्ट्र संघ महासभा में भारत द्वारा रखे गये प्रस्ताव को बिना वोटिंग के ही सर्वसम्मति से पारित कर दिया गया। महासभा के कुल 191 सदस्य देशों से 140 से भी ज्यादा देशों ने इस प्रस्ताव को सह-प्रायोजित किया। इस प्रस्ताव को भारी संख्या में सदस्य देशों का समर्थन मिलना विश्व में आज भी गाँधी जी के प्रति सम्मान और उनके विश्वव्यापी विचारों और सिद्धांतों की नीति की प्रासंगिकता को दर्शाता है।


राष्ट्रपति चुनाव के दौरान अमरीका में बसे भारतीय समुदाय के एक समाचार पत्र इंडिया एब्रोड में प्रकाशित लेख के अनुसार नोबेल शांति पुरस्कार विजेता व अमेरिका के वर्तमान राष्ट्रपति श्री बराक ओबामा ने कहा कि ''मैंने अपने पूरे जीवन में महात्मा गाँधी को एक ऐसे प्रेरणा स्रोत के रूप में देखा है, जिनके पास सामान्य लोगों से भी असाधारण काम करवाने की अद्भुत नेतृत्व करने की प्रतिभा थी।'' अगस्त, 2010 माह में वाशिंगटन में युवा अफ़्रीक़ी नेताओं के मंच की बैठक को संबोधित करते हुए ओबामा ने राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी को अपना प्रेरणा स्रोत बताते हुए कहा कि महाद्वीप में जो बदलाव आप चाहते हैं, उसके लिए आप महात्मा गाँधी का अनुसरण करें। ओबामा ने कहा कि महात्मा गाँधी ने कहा था कि जो बदलाव आप विश्व में देखना चाहते हैं। उसकी शुरुआत आपको स्वयं अपने से करनी होगी।


नोबेल शांति पुरस्कार विजेता व इजरायल के राष्ट्रपति शिमोन पेरेज ने कहा है कि उनके देष में महात्मा गाँधी को पैगंबर माना जाता है और उन्होंने भारत को सहनशीलता का आदर्श बताया। श्री पेरेज ने महात्मा गाँधी के लिये अपनी श्रद्धा व्यक्त करते हुए कहा कि ''अहिंसा और सह-अस्तित्व की उनकी शिक्षा को सबको आचरण में लाना चाहिए।'' श्री पेरेज ने कहा कि भारत ने जिस तरह अनेकता में एकता को बनाए रखा है उसकी सराहना की जानी चाहिए। दुनिया की सबसे पुरानी सभ्यताओं में से एक भारतीय संस्कृति से, लोगों को सह-अस्तित्व सीखने की जरूरत है। बुद्धिमत्ता कभी पुरानी नहीं होती। श्री पेरेज ने यह भी कहा कि ''भारत के राष्ट्रीय आंदोलन का नेतृत्व करने वाले महात्मा गाँधी मेरे लिये केवल प्रेरणादायक नहीं हैं बल्कि वह एक परिवर्तनकारी थे जिन्होंने अहिंसक सह-अस्तित्व का क्रांतिकारी विचार दिया।''


अक्टूबर 2009 में अमेरिकी काँग्रेस ने पारित एक प्रस्ताव में कहा कि महात्मा गाँधी के दूरदर्शी नेतृत्व के कारण ही अमेरिका और भारत के बीच मैत्री संबंधों में तेज़ी से प्रगाढ़ता आ रही है। हाऊस ऑफ रिप्रजेंटेटिव्स के डेमोक्रेट सदस्य एनी फेलेमावेगा ने गांधीजी के संबंध में प्रस्ताव रखा, जिसे सभी सदस्यों ने सर्वसम्मति से पारित करते हुए कहा कि गाँधी जी के सिद्धांत एवं विचार सारे विश्व के लिए हमेशा प्रासंगिक रहेंगे। यह प्रस्तावना महात्मा गाँधी की 140वीं जयंती के अवसर पर पारित किया गया था। एनी ने कहा ''गाँधी जी के महान कार्यों के बारे में पहले ही काफी कुछ कहा जा चुका है। उनका जीवन काफी महत्वपूर्ण रहा है, हम उन्हें भूल नहीं सकते। विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र भारत और विश्व के सबसे पुराने लोकतंत्र अमेरिका के बीच आज जो संबंध है, उसे गाँधी के बिना हम नहीं देख सकते हैं।'' एनी ने कहा भले ही उनकी ज़िंदगी बंदूक की गोली से खत्म हो गई लेकिन उनकी विरासत अभी भी 1.5 अरब लोगों के पास है, जो स्वतंत्र देशों में रह रहे हैं। एनी ने कहा कि अमेरिका का नागरिक अधिकार आंदोलन भी गाँधी जी के विचारों से प्रेरित है।


आज जब हम महात्मा गाँधी के जीवन तथा शिक्षाओं को याद करते हैं तो हम उनके सत्यानुसंधान एवं विश्वव्यापी दृष्टिकोण के पीछे अपनी प्राचीन संस्कृति के मूलमंत्र 'उदारचारितानाम्तु वसुधैव कुटुम्बकम्' (अर्थात पृथ्वी एक देश है तथा हम सभी इसके नागरिक है) को पाते हैं। इन मानवीय मूल्यों के द्वारा ही सारा संसार एक नवीन विश्व सभ्यता की ओर बढ़ रहा है। गाँधी जी ने भारत की संस्कृति के आदर्श उदारचरित्रानाम्तु वसुधैव कुटुम्बकम् को सरल शब्दों में 'जय जगत' (सारे विश्व की भलाई हो) के नारे के रूप में अपनाने की प्रेरणा अपने प्रिय शिष्य संत विनोबा भावे को दी जिन्होंने इस शब्द का व्यापक प्रयोग कर आम लोगों में यह विचार फैलाया।


गाँधी जी एक सच्चे ईश्वर भक्त सनातन प्रेमी और गीता मर्मज्ञ थे। वे सभी धर्मो की शिक्षाओं का एक समान आदर करते थे। गाँधी जी का मानना था कि सभी महान अवतार एक ही ईश्वर की ओर से आये हैं, धर्म एक है तथा मानव जाति एक है, इसलिए हमें प्रत्येक धर्म का आदर करना चाहिए। सभी धर्म एवं सभी धर्मों के दैवीय शिक्षक एक ही परमपिता परमात्मा के द्वारा भेजे गये हैं। हम चाहे मंदिर, मस्जिद, गिरजाघर या गुरूद्वारे किसी भी पूजा स्थल में प्रार्थना करें हमारी पूजा, इबादत तथा प्रार्थना एक ही ईश्वर तक पहुँचती हैं। गाँधी जी निरन्तर अपने युग के प्रश्नों को हल करने का प्रयास अपने सत्यानुसंधान से करते रहे। गाँधी जी ने अपनी युग की प्राथमिक आवश्यकता के रुप में ग़ुलामी को मिटाया तथा बाद में उनका मिशन इस सृष्टि का संगठन करके प्रभु साम्राज्य धरती पर स्थापित करना था।


राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी केवल भारतीय स्वाधीनता आंदोलन के पितामह ही नहीं थे अपितु उन्होंने विश्व के कई देषों को स्वतंत्रता की राह भी दिखाई। महात्मा गाँधी चाहते थे कि भारत केवल एशिया और अफ्रीका का ही नहीं अपितु सारे विश्व की मुक्ति का नेतृत्व करें। उनका कहना था कि ''एक दिन आयेगा, जब शांति की खोज में विश्व के सभी देश भारत की ओर अपना रूख करेंगे और विश्व को शांति की राह दिखाने के कारण भारत विश्व का प्रकाश बनेगा।'' मेरा प्रबल विश्वास है कि भारत ही विश्व में शांति स्थापित करेगा। इस प्रकार विश्व में एकता एवं शांति की स्थापना के लिए प्रयास करके ही हम राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी के 'विश्व बन्धुत्व' के सपने को साकार करने की दिशा में आगे बढ़कर उन्हें अपनी सच्ची श्रद्धांजली दे सकते हैं।


गांधी ने यह ज्ञान कैसे प्राप्त किया। मात्र सनातन के अध्ययन से।
उपनिषद वाक्य है: 'संगच्छघ्वं संवदध्वं संवो मनांसि जानताम्‌।'  अर्थात्‌ इकट्ठे चलें, एक जैस बोलें और हम सबके मन एक जैसे हो जावें- यह भावना प्राचीन काल से ही चली आ रही है। इसलिए यहां राजा और रंक, धनवान और संत सब एक साथ बैठकर भोजन करते हैं। यहां के तत्व चिन्तकों ने बिना किसी भेदभाव के मानव मात्र अथ च प्राणिमात्र के कल्याण की कामना की है।

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सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामयाः। सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चित्‌ दुःखभाग्भवेत॥।'
अर्थात्‌ विशव में सब सुखी रहें, सब नीरोग या स्वस्थ रहें, सब भ्रद देखें और विश्व में कोई दुःखी न हो। 'वसुधैव कुटुम्बकम्‌' एक व्यापक मानव-मूल्य है। व्यक्ति से लेकर विश्व तक इसकी व्याप्ति है-व्यक्ति, परिवार, समाज, राष्ट्र, अर्न्राष्ट्र। गरज यह कि संपूर्ण विश्व इसकी परिधि में समाहित है।
यह वैयक्तिक मूल्य भी है और सामाजिक मूल्य भी, राष्ट्रीय मूल्य भी है और अंतरराष्ट्रीय मूल्य भी, राजनीतिक मूल्य भी है और नैतिक मूल्य भी, धार्मिक है और प्रगतिशील मूल्य भी। और यदि इन सबका एक शब्द में समाहार करना चाहें तो हम कह सकते हैं कि यह मानवीय मूल्य है।

इस मूल्य को सच्चे मन से अपनाए बिना मानवता अधूरी है, मनुष्य अधूरा है, धर्म और संस्कृति अधूरे हैं तथा राष्ट्र और विश्व भी अधूरा और पंगु है। यह मनुष्य की, मानव समाज की, राष्ट्र की अनिवार्यता है। यदि हम विश्व को श्रेष्ठ बनाना चाहते हैं तो हमें विश्वबंधुत्व की भावना को आत्मसात्‌ करना ही होगा।

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वसुधैव कुटुम्बकम्‌' के सूत्र द्वारा भारतीय मनीषियों ने जिस उदार मानवतावाद का सूत्रपात किया उसमें सार्वभौमिक कल्याण की भावना है। यह देश-कालातीत अवधारणा है और पारस्परिक सद्भाव, अन्तः विश्वास एवं एकात्मवाद पर टिकी है। 'स्व' और 'पर' के बीच की खाई को पाटकर यह अवधारणा 'स्व' का 'पर' तक विस्तार कर उनमें अभेद की स्थापना का स्तुत्य प्रयास करत है।

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वसुधैव कुटुम्बकम्‌' की भावना को राष्ट्रवाद का विरोधी मानने की भूल की जाती रही है। जिस प्रकार उदार मानवतावाद का राष्ट्रवाद से कोई विरोध नहीं है, उसी प्रकार 'वसुधैव कुटुम्बकम्‌' की भावना का भी राष्ट्रवाद से कोई विरोध नहीं है। 'वसुधैव कुटुम्बकम्‌' की अवधारणा शाश्वत तो है ही, यह व्यापक एवं उदार नैतिक-मानवीय मूल्यों पर आधृत भी है। इसमें किसी प्रकार की संकीर्णता के लिए कोई अवकाश नहीं है। सहिष्णुता इसकी अनिवार्य शर्त है।

निश्चय ही आत्म-प्रसार, 'स्व' का 'पर' तक विस्तार स्वयं को और जग को सुखी बनाने का साधन है। वैज्ञानिक आविष्कारों के फलस्वरूप समय और दूरी के कम हो जाने से 'वसुधैव कुटुम्बकम्‌' की भावना के प्रसार की आवश्यकता और भी बढ़ गई है। किसी देश की छोटी-बड़ी हलचल का प्रभाव आज संसार के सभी देशों पर किसी न किसी रूप में अवश्य पड़ता है। फलतः समस्त देश अब यह अनुभव करने लगे हैं कि पारस्परिक सहयोग, स्नेह, सद्भाव, सांस्कृतिक आदान-प्रदान और भाईचारे के बिना उनका काम न चलेगा।

संयुक्त राष्ट्रसंघ की स्थापना, निर्गुट शिखर सम्मेलन, दक्षेश, जी-15 आदि 'वसुधैव कुटुम्बकम्‌' के ही नामान्तर रूपान्तर हैं।  इन राजनीतिक संगठनों से यह तो प्रमाणित होता ही है कि विश्व के बड़े से बड़े और छोटे से छोटे राष्ट्र पारस्परिकता और सहअस्तित्व की आवश्यकता अनुभव करते हैं तथा इन अवधारणाओं के बीच 'वसुधैव कुटुम्बकम्‌' में निश्चय ही विद्यमान थे।


(तथ्य व कथन गूगल से साभार)


MMSTM समवैध्यावि ध्यान की वह आधुनिक विधि है। कोई चाहे नास्तिक हो आस्तिक हो, साकार, निराकार कुछ भी हो बस पागल और हठी न हो तो उसको ईश अनुभव होकर रहेगा बस समयावधि कुछ बढ सकती है। आपको प्रतिदिन लगभग 40 मिनट देने होंगे और आपको 1 दिन से लेकर 10 वर्ष का समय लग सकता है। 1 दिन उनके लिये जो सत्वगुणी और ईश भक्त हैं। 10 साल बगदादी जैसे हत्यारे के लिये। वैसे 6 महीने बहुत है किसी आम आदमी के लिये।"  सनातन पुत्र देवीदास विपुल खोजी
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