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Thursday, November 1, 2018

पातांजलि के पंच नियम क्या हैं?




पातांजलि के पंच नियम क्या हैं?

सनातनपुत्र देवीदास विपुल "खोजी"

 विपुल सेन उर्फ विपुल लखनवी,
(एम . टेक. केमिकल इंजीनियर) वैज्ञानिक एवं कवि
सम्पादक : विज्ञान त्रैमासिक हिन्दी जर्नल “वैज्ञनिक” ISSN 2456-4818
 वेब:  vipkavi.info वेब चैनलvipkavi
फेस बुक:   vipul luckhnavi “bullet"
नियम अष्टांग योग का दूसरा बहिरंग अंग है। इसके पांच उपांग हैं। यम की तरह ‘नियम’ भी दुखों को छुड़ाने वाला है। यम का संबंध मुख्य रूप से अन्यों के साथ है और नियम का संबंध मुख्य रूप से व्यक्तिक जीवन के साथ है। विशेष रूप से स्वयं के दु:खों से छुड़ाने वाला होने से इसे नियम कहते हैं। नियम का संबंध मुख्य रूप से अपने साथ हम कैसे हो यह बताता है।

पाँच व्यक्तिगत नैतिकता
(क) शौच - यह अष्टांग योग के दूसरे बहिरंग अंग का पहला उपांग है। शरीर और मन की शुद्धि। शरीर व मन की शुद्धि को शौच कहा जाता है। स्नान, वस्त्र, खान-पान आदि से शरीर को स्वच्छ रखा जाता है। विद्या , ज्ञान, सत्संग, संयम, धर्म आदि और धनोपार्जन को पवित्र रखने के उपायों से मन की शुद्धि होती है। मन की शुद्धि शरीर की शुद्धि से अधिक महत्त्वपूर्ण है परन्तु मानव जीवन के अधिक साधन-समय, धन आदि शरीर की शुद्धि में ही लगाए जा रहें हैं। पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु व आकाश की शुद्धि से मनुष्य की शुद्धि और इनकी अशुद्धि से मनुष्य की अशुद्धि होती है। सभी शुद्धियों में धन की शुद्धि बड़ी मानी गर्इ है। इसलिए यहीं से शुद्धि का प्रारम्भ करना चाहिए। जिस मनुष्य का धन अशुद्ध है उसका आहार, ज्ञान व कर्म भी अशुद्ध ही होगा। उसके जीवन में तपस्या नहीं होगी व उसे समय की महत्ता का बोध नहीं होगा व आन्तरिक शुद्धि का पालन करने से अहिंसा बलवान बनती है, जिससे शुद्धि का पालन करने वाले व्यक्ति के साथ उठने-बैठने व अन्य प्रकार के व्यवहारों में सबको प्रसन्नता मिलती है।

(ख) संतोष - यह अष्टांग योग के दूसरे बहिरंग अंग का दूसरा उपांग है। संतुष्ट और प्रसन्न रहना। अपनी योग्यता व अधिकार के अनुरूप अपनी शक्ति, सामर्थ्य , ज्ञान-विज्ञान तथा उपलब्ध साधनों द्वारा पूर्ण पुरूषार्थ करने से प्राप्त फल में प्रसन्न रहने को संतोष कहते हैं। असंतोष का मूल लोभ है। यदि व्यक्ति संतोष का पालन करता है यानि अपनी तृष्णा को, लोभ को समाप्त कर देता है तो जो सुख मिलता है उसके सामने संसार का सारा का सारा सुख सोलहवां भाग भी नहीं होता।

जितना पास है या किसी परिस्थिति से जितना मिलता है उससे अधिक की इच्छा न करना संतोष नहीं। अपने द्वारा निर्धारित फल को प्राप्त न करने पर हताश-निराश न होकर, हाय-हाय न कहते हुए अपनी योग्यता, सामर्थ्य, बल, ज्ञान-विज्ञान व साधनों को और अधिक बढ़ाकर और अधिक पुरूषार्थ करके अधिक फल को प्राप्त करने की चेष्टा सतत् करनी चाहिए। अनेक बार व्यक्ति अपने सामर्थ्य व योग्यताओं को न पहचानते हुए कम पुरूषार्थ करके संतोष कर लेता है, जो आत्म दर्शन में अत्यन्त बाधक है।

संतोष के लिए यह नितान्त आवश्यक है कि व्यक्ति र्इश्वर के न्याय पर पूर्ण विश्वास करे। उसे यह निश्चिंतता होनी चाहिए कि उसके कर्मों का न न्यून न अधिक फल मिलता रहा है और मिलता रहेगा।

(ग) तप - यह अष्टांग योग के दूसरे बहिरंग अंग का तीसरा उपांग है। स्वयं से अनुशाषित रहना। जीवन के लक्ष्य को पूरा करने के लिए हानि-लाभ, सुख-दु:ख, भूख-प्यास, सर्दी-गर्मी, मान-अपमान आदि द्वन्द्वों को शान्ति व धैर्य से सहन करने को तप कहते हैं।
आज हम स्वयं को इतना कमजोर कर चुके हैं कि बिना तकिये, बिस्तर, वाहन (कार आदि), पंखा, कूलर, ए.सी. कमरा आदि के नहीं रह पाते हैं। अनेक बार हम कुछ भौतिक पदार्थों के लिए आत्म-तत्व को ही छोड़ देते हैं। जैसे ही विषय हमारे सामने उपस्थित होता है, हम चाहते हुए या न चाहते हुए सब कुछ भूलकर के उसके साथ जुड़ जाते हैं।, उसी में लग जाते हैं, छोड़ नहीं पाते, त्याग नहीं कर पाते। जब कोर्इ मनोरम दृष्य सामने आता है तो उसको देखे बिना रह नहीं पाते, उसका त्याग नहीं कर पाते।

अतपस्वी व्यक्ति को योग की सिद्धि नहीं होती अर्थात वह र्इश्वर का दर्शन नहीं कर सकता। इतना त्याग न करें कि अपका उद्देश्य धरा का धरा रह जाय, इतनी तपस्या न करें कि तपस्या से उद्देश्य ही धूमिल हो जाय। तपस्या करो लेकिन चित्त की प्रसन्नता बनी रहे।

(घ) स्वाध्याय - यह अष्टांग योग के दूसरे बहिरंग अंग का चौथा उपांग है। आत्मचिंतन करना। भौतिक-विद्या व आध्यात्मिक-विद्या दोनों का अध्ययन करना स्वाध्याय कहलाता है। केवल भौतिक या केवल आध्यात्मिक विद्या से कोर्इ भी अपने लक्ष्य को पूरा नहीं कर सकता है। अत: दोनों का समन्वय होना अति आवश्यक है।

वेदों में दोनों भौतिक विधा व अध्यात्मिक विद्या है। विद्वान लोग वेदों के अध्ययन को ही स्वाध्याय मानते हैं। कुछ विद्वान लोग ऋषि कृत ग्रन्थों (व्याकरण, निरुक्त आदि, दर्शन शास्त्र, ब्राह्मण ग्रन्थ, उपनिष्द आदि) के अध्ययन को भी स्वाध्याय के अन्तर्गत लेते हैं। स्वाध्याय का पालन करने से मूर्खतारूपी अविधा से युक्त होकर की जाने वाली हिंसा का अन्त होता है और हमें मुक्ति-पथ पर आगे बढ़ने में सहायता मिलती है।

(च) ईश्वर-प्रणिधानयह अष्टांग योग के दूसरे बहिरंग अंग का पांचवा उपांग है। ईश्वर के प्रति पूर्ण समर्पण, पूर्ण श्रद्धा।  र्इश्वर प्रणिधान का अर्थ हैसमर्पण करना।

लोक में हम मातापिता, अध्यापक, अधिकारी आदि के प्रति समर्पण की भावना की बात करते हैं। इसका अर्थ यहीं लिया जाता है कि जैसा माता-पिता, अध्यापक, अधिकारी आदि कहें वैसा ही करना। जिसके प्रति आप समर्पित हो रहें है। उसकी आज्ञा का पालन करना ही समर्पण हैं। इसलिए र्इश्वर प्रणिधान के लिए यह आवश्यक है कि हम र्इश्वरीय आज्ञायों के बारे में जानें। र्इश्वर की आज्ञा के अनुसार चलना होगा तो हम हर वक्त र्इश्वर को सामने रखेंगे और अपनी वाणी, सोच व कर्मों को अच्छी ओर लगाएंगे। परन्तु र्इश्वरिय आज्ञाओं का पालन करने में उनसे मिलने वाले फल की इच्छा नही करनी चाहिए। फल को न चाहने का अर्थ क्या है ? जो कुछ भी कार्य करने पर मिलता है-जड़ पदार्थ-उसको ही अंतिम फल समझ कर कार्य करें, तो उससे आत्मा को पूर्ण तृप्ति नहीं मिलती। फल ऐसा चाहो जिससे आत्मा की अभिलाषा की पूर्ति हो सके। उसकी पूर्ति होती है र्इश्वरिय आनन्द को पाने से। कर्मों को जड़ पदार्थों को प्राप्त करने की इच्छा से न करके र्इश्वरीय आनन्द को प्राप्त करने के लिए करना चाहिए। श्रीमदभगवद् गीता में वर्णित निष्काम भाव से कर्म करने का भी यहीं अभिप्राय है।
इस बात को समझाने के लिए ऋषियों ने ‘भक्ति-विशेष’ शब्द का प्रयोग किया है।

भक्ति=समर्पण=आज्ञा पालन : र्इश्वर-प्रणिधान के अन्तर्गत अपना सब कुछ-बल, धन, योग्यता, ज्ञान आदि र्इश्वर को समर्पित कर दें। व्यक्ति जब ऐसा करने लगता है तो उसको डर लगता है । यदि मैं सब कुछ समर्पित कर दूँ, तो मेरे लिए कुछ बचेगा ही नहीं। र्इश्वर-प्रणिधान करने पर भी समस्त धन रहेगा तो आपके पास ही, लेकिन उसे र्इश्वर की आज्ञा के अनुरूप प्रयोग करना होगा।

जैसे उदाहरण के लिए एक मकान में एक किराएदार रहता है। वह किराएदार उस मकान का अधिक से अधिक प्रयोग करता है और उसका अधिक से अधिक सुख लेने का प्रयत्न करता है, लेकिन अपना नहीं मानता। मकान उसी के पास है, वह ही प्रयोग करता है परन्तु उसे अपना नहीं मानता, उसके बारे में उसको कोर्इ चिन्ता नहीं रहती। किसी कारण से बिगड़ भी जाए तो उसको दु:ख बिलकुल भी नहीं होता। क्योंकि उसने उसे अपना तो कुछ माना ही नहीं था।

अपने जीवन में यह भाव लाने से कि मेरा सब कुछ प्रभु का है एक बहुत बड़ा लाभ होगा कि वो जैसा हमको कहेगा हम वैसा अपने साधनों का प्रयोग करेंगे। जिम्मेदारी अपनी नहीं रहेगी।
दान देना पड़ेगा क्योंकि उसकी आज्ञा है। जितना खाने के लिए कहता है उतना खाओ, जिसे न खाने के लिए कहता है उसे मत खाओ। समर्पण का अर्थ हमने कियाभक्ति-विशेष’ अर्थात र्इश्वर की आज्ञा-पालन।

जब हम र्इश्वरसमर्पण करेंगे अथवा उसकी आज्ञा पालन करने में तत्पर रहेंगे तो मुक्ति-पथ पर हमारी प्रगति बड़ी तेज़ होगी।


(तथ्य कथन गूगल साइट्स इत्यादि से साभार)


"MMSTM समवैध्यावि ध्यान की वह आधुनिक विधि है। कोई चाहे नास्तिक हो आस्तिक हो, साकार, निराकार कुछ भी हो बस पागल और हठी न हो तो उसको ईश अनुभव होकर रहेगा बस समयावधि कुछ बढ सकती है। आपको प्रतिदिन लगभग 40 मिनट देने होंगे और आपको 1 दिन से लेकर 10 वर्ष का समय लग सकता है। 1 दिन उनके लिये जो सत्वगुणी और ईश भक्त हैं। 10 साल बगदादी जैसे हत्यारे के लिये। वैसे 6 महीने बहुत है किसी आम आदमी के लिये।"  सनातन पुत्र देवीदास विपुल खोजी
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पातांजलि के पंच यम क्या हैं?



पातांजलि के पंच यम क्या हैं

सनातनपुत्र देवीदास विपुल "खोजी"

 विपुल सेन उर्फ विपुल लखनवी,
(एम . टेक. केमिकल इंजीनियर) वैज्ञानिक एवं कवि
सम्पादक : विज्ञान त्रैमासिक हिन्दी जर्नल “वैज्ञनिक” ISSN 2456-4818
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महृषि पातांजलि ने अष्टांग योग में पांच यम बताये हैं। यह क्या हैं।
यम अष्टांग योग पहला बहिरंग अंग है। यम का संबंध मुख्य रूप से अन्यों के साथ हम कैसे हो यह बताता है।

(क) अहिंसा यह अष्टांग योग के पहले बहिरंग अंग का उपांग है। शब्दों से, विचारों से और कर्मों से किसी को अकारण हानि नहीं पहुँचाना। लोक में यह मान्यता है कि किसी को कष्ट, पीड़ा व दु:ख देना हिंसा है। इसके विपरीत अहिंसा है। इस मान्यता को स्वीकार किया जाये, तो संसार में ऐसा कोर्इ व्यक्ति नहीं है, जो अन्यों को कष्ट नहीं देता है। माता, पिता, गुरू, समाज, राष्ट्र व सभी प्राणी एक दूसरे को कष्ट देते हैं। र्इश्वर कर्मफल प्रदाता होने से संसार में सर्वाधिक कष्ट देता है। क्या इससे र्इश्वर हिंसक हो जाता है ? वेद में र्इश्वर को पूर्ण अहिंसक स्वीकारा है। माता-पिता, शिक्षक, अधिकारी आदि सुधारने के लिए हमारी त्रुटियों का दण्ड देते हुए हमें कष्ट देते हैं, क्या उनका यह कर्म हिंसा हो जायेगा ?

अहिंसा परमो धर्मः” यह नीति-वचन लोगों के मुख से अक्सर सुनने को मिलता है। प्राचीन काल में अपने भारतवर्ष में जैन तीर्थंकरों ने अहिंसा को केंद्र में रखकर अपने कर्तव्यों का निर्धारण एवं निर्वाह किया। अंतिम तीर्थंकर भगवान् महावीर के लगभग समकालीन (कुछ बाद के) महात्मा बुद्ध ने भी करीब ढाई हजार वर्ष पूर्व तमाम कर्तव्यों के साथ अहिंसा का उपदेश तत्कालीन समाज को दिया था। अरब भूमि में ईशू मसीह ने भी कुछ उसी प्रकार की बातें कहीं। आधुनिक काल में महात्मा गांधी को भी अहिंसा के महान् पुजारी/उपदेष्टा के रूप में देखा जाता है। संयुक्त राष्ट्र संघ ने तो उनके सम्मान में 2 अक्टूबर को अहिंसा दिवस घोषित कर दिया।

अहिंसा की बातें घूमफिर कर सभी समाजों में की जाती रही हैं, लेकिन उसकी परिभाषा सर्वत्र एक जैसी नहीं है। उदाहरणार्थ जैन धर्म में अहिंसा की परिभाषा अति व्यापक है, किसी भी जीवधारी को किसी भी प्रकार से कष्ट में डालना वहां वर्जित है। इस धारणा के साथ जीवन धारण करना लगभग नामुमकिन है। अरब मूल के धर्मो के अनुसार मनुष्य को छोड़कर अन्य जीवों में रूह नहीं होती, तदनुसार उनके साथ अहिंसा बेमानी है। कुर’आन से मैंने यही निष्कर्ष निकाला। वास्तव में सभी समाज अपने भौतिक हितों को ध्यान में रखते हुए अहिंसा की परिभाषा अपनाते हैं। विडंबना देखिए कि महावीर, बुद्ध एवं गांधी के इस भारत में अहिंसा की कोई अहमियत नहीं। पग-पग पर हिंसा के दर्शन होते है। अहिंसा वस्तुतः एक आदर्श है जिससे आम तौर पर सभी परहेज करते हैं। लेकिन “अहिंसा परमो धर्मः” की बात मंच पर सभी कहते हैं।

अहिंसा परमो धर्मः स च सत्ये प्रतिष्ठितः । सत्ये कृत्वा प्रतिष्ठां तु प्रवर्तन्ते प्रवृत्तयः ॥74
(महाभारत, वन पर्व, अध्याय 207 – मारकण्डेयसमास्यापर्व)।

(अहिंसा परमः धर्मः स च सत्ये प्रतिष्ठितः सत्ये तु प्रतिष्ठाम् कृत्वा प्रवृत्तयः प्रवर्तन्ते ।)
अर्थ – अहिंसा सबसे बड़ा धर्म है, और वह सत्य पर ही टिका होता है। सत्य में निष्ठा रखते हुए ही कार्य संपन्न होते हैं।

अगले दो श्लोक अनुशासन पर्व से लिए गए हैं। भीष्म पितामह सूर्य के उत्तरायण होने की प्रतीक्षा में मृत्यु-शैया पर लेटे होते हैं। वे युधिष्ठिर को राजधर्म एवं नीति आदि का उपदेश देते हैं। ये श्लोक उसी प्रकरण के हैं।

अहिंसा सर्वभूतेभ्यः संविभागश्च भागशः । दमस्त्यागो धृतिः सत्यं भवत्यवभृताय ते ॥18
(महाभारत, अनुशासन पर्व, अध्याय 60 – दानधर्मपर्व)

(अहिंसा सर्व-भूतेभ्यः संविभागः च भागशः दमः त्यागः धृतिः सत्यम् भवति अवभृताय ते ।)
अर्थ – सभी प्राणियों के प्रति अहिंसा बरतना, सभी को यथोचित भाग सोंपना, इंद्रिय-संयम, त्याग, धैर्य एवं सत्य पर टिकना अवभृत स्नान के तुल्य (पुण्यदायी) होता है।

उक्त श्लोक में “अहिंसा परमो धर्मः” कथन विद्यमान नहीं है, किंतु अहिंसा के महत्व को अवश्य रेखांकित किया गया है। वनपर्व का अगला श्लोक ये है:

अहिंसा परमो धर्मस्तथाहिंसा परं तपः। अहिंसा परमं सत्यं यतो धर्मः प्रवर्तते ॥23
(महाभारत, अनुशासन पर्व, अध्याय 115 – दानधर्मपर्व)

(अहिंसा परमो धर्मः तथा अहिंसा परम्‍ तपः अहिंसा परमम्‍ सत्यम्‍ यतः धर्मः प्रवर्तते ।)
अर्थ – अहिंसा परम धर्म है, अहिंसा परम तप है, और अहिंसा ही परम सत्य और जिससे धर्म की प्रवृत्ति आगे बढ़ती है।

इस वचन के अनुसार अहिंसा, तप और सत्य आपस में जुड़े हैं। वस्तुतः अहिंसा स्वयं में तप है, तप का अर्थ है अपने को हर विपरीत परिस्थिति में संयत और शांत रखना। जिसे तप की सामर्थ्य नहीं वह अहिंसा पर टिक नहीं सकता। इसी प्रकार सत्यवादी ही अहिंसा पर टिक सकता है यह उपदेष्टा का मत है।

अहिंसा की जितनी भी प्रशंसा हम कर लें, तथ्य यह है कि मानव समाज अहिंसा से नहीं हिंसा से चलता है।

वेद व ऋषियों का मन्तव्य यही कहता है कि, हिंसा व अहिंसा अन्याय व न्याय पर खड़ी है। न्याय पूर्वक दण्ड-कष्ट देना भी अहिंसा है व अन्याय पूर्वक पुरस्कार-सुख देना भी हिंसा है।
हिंसक प्रवृति वाले मनुष्य अपनी आत्मग्लानि, असन्तोष, अतृपृत, भय आदि को दबाने के लिए आत्मा को प्रसन्न करने का प्रयास करते रहते हैं। उनका यह प्रयास यह भी प्रकट करता है कि उनकी आत्मा में छुपा डर उनको बार-बार प्रेरित करता है कुछ दान-पुण्य करो, जिससे हिंसा से मिलने वाले भयंकर दण्ड में कुछ कमी हो जाए। इसी कारण वे हिंसक व्यक्ति मंदिरों में, ब्राह्मणों में, आश्रमों में, मठों में तरह-तरह का दान कर के कुछ राहत की सांस लेते हैं। पर वे यह नहीं जान पाते हैं कि किया हुआ पाप कभी कम नहीं होता, चाहे कितना ही पुण्य करो। पुण्य का फल पुण्य व पाप का फल पाप के रूप में ही मिलता है।

वेद, वेदानुकूल ऋषियों की मान्यता यह संदेश देती है कि जितने भी गलत कार्य हैं उन सब का मूल हिंसा ही है और जितने भी उत्तम कार्य हैं उन सबका मूल अहिंसा ही है।
सत्य आदि बाकि चारों यम व शौच आदि पांचों नियम अहिंसा पर ही आधारित हैं। अहिंसा को पुष्ट करना ही उनका मुख्य लक्ष्य है। अहिंसा की सिद्धि के लिए उनका आचरण किया जाता है।

यहां एक महत्त्वपूर्ण तथ्य जिसके विषय में आज समाज में भ्रान्तिपूर्ण माहौल है पर प्रकाश डालना आवश्यक है। स्वयं हिंसा न कर दूसरों द्वारा हिंसा किए जाने को मूक द्रष्टा बन देखते रहना भी हिंसा ही है। हिंसा का मूल ‘अन्याय’ है। दूसरो पर होते अन्याय का उचित प्रतिरोध न करना हिंसा का समर्थन करना ही है। इसलिए यह आवश्यक है कि अहिंसा का व्रत लेने वाला व्यक्ति स्वंय हिंसा न करने के साथ-साथ दूसरों द्वारा हिंसा किए जाने के विरोध में आवाज़ भी उठाए। हाँ, इसका दूसरों द्वारा हिंसा किए जाने के विरोध में आवाज़ उठाना उतना ही सार्थक होगा जितना वह स्वंय दूसरों के प्रति हिंसा नहीं करता होगा।

हमें विचारना चाहिये कि इतनी योनियों में ये अगणित प्राणी जो कष्ट भोग रहे हैं इसका कारण क्या है ? तब हमें पता चलेगा कि हिंसा क्या है ? और अहिंसा क्या है ? यह अहिंसा है जिसके कारण हम उत्तम योनि में आकर सुख भोग रहे हैं। यह हिंसा है जिसके कारण अनेकों निकृष्ट योनियों में पड़े असंख्य जीव दारूण दु:ख भोग रहे हैं।

(ख) सत्य - यह अष्टांग योग के पहले बहिरंग अंग का दूसरा उपांग है। विचारों में सत्यता, परम-सत्य में स्थित रहना, जैसा विचार मन में है वैसा ही प्रामाणिक बातें वाणी से बोलना। जो चीज़ जैसी है उसे वैसा ही जानना व मानना सत्य कहलाता है। उदाहरण के तौर पर सांप को सांप जानना व मानना सत्य कहलाएगा और सांप को रस्सी जानना व अन्यथा रस्सी को सांप जानना असत्य कहलाता है। साधरणतया यह कहा जाता है कि जिस झूठ से किसी का भला होता हो उसे बोलना कोर्इ गलत नहीं। यह ठीक नहीं। हमें सदा अपनी वाणी से ठीक वैसी ही बात करनी चाहिए जैसी कि हमारी आत्मा में किसी घटना अथवा वस्तु के बारे में जानकारी हो।

इस बात को एक उदाहरण की मदद से समझाने का प्रयत्न करते हैं। मान लीजिए कि आपने एक आदमी को कुछ व्यक्तियों से, जो उस आदमी को मारना चाहते हैं, बच के एक घर में घुसते हुए देख लिया है। अब हो सके तो आपको उस जगह से हट जाना चाहिए ताकि वे व्यक्ति आपसे किसी तरह की पूछताछ न कर सकें। यदि आप उस जगह से नहीं हट सके और व्यक्तियों द्वारा उस आदमी के बारे में पूछने पर आपने सच बता दिया तो वह आदमी मारा जाएगा। ऐसी अवस्था में आपका सच बोलना उस आदमी के वास्तव में अपराधी होने पर पुरस्कार का हकदार होगा अन्यथा दण्डनीय होगा। आपका झूठ बोलना शायद उस आदमी को बचा दे (हमारा झूठ किसी प्राणी को तत्कालिक एक क्षण में, एक घंटे में, एक दिन में, एक वर्ष में या ज़्यादा से ज़्यादा एक जन्म में लाभ तो पहुँचा सकता है परन्तु उसका अन्तिम फल उस प्राणी के लिए हानिकारक ही होता है। इसलिए क्योंकि हमारा झूठ बोलना, संबंधित प्राणियों के लिए अन्तत: हानिकारक ही होता है, हमें सत्य ही बोलना चाहिए।), परन्तु यदि वह आदमी वास्तव में अपराधी हुआ तो आपका झूठ बोलना दो तरह से दण्डनीय होगा आपके दण्डनीय होने का पहला कारण तो होगा आपका झूठ बोलना व दूसरा कारण होगा एक अपराधी को बचाना।

ऐसी परिस्थित में निम्न व्यवहार आपको उचित होगा:

यदि आपमें ब्राह्मण (संक्षेप में ब्राह्मण वह व्यक्ति होता है जिसकी रुचि विद्या के ग्रहण करने व उसके प्रचार- प्रसार में हो) के गुण हैं तो आपको उन व्यक्तियों द्वारा दिए जाने वाले कष्टों को सहते हुए मौन रहना चाहिए।

यदि आपमें क्षत्रिय (संक्षेप में क्षत्रिय वह व्यक्ति होता है जो स्वभाव से अपने शारीरिक बल का प्रयोग दूसरों की रक्षा के लिए करता हो) के गुण हैं तो आपको उन व्यक्तियों से भिड़ जाना चाहिए।

यदि आपमें वैश्य (संक्षेप में वैश्य वह व्यक्ति होता है जो व्यापार करता है ) के गुण हैं तो आपको गिड़–गिड़ा आदि कर इस परिस्थिति से निकल जाना चाहिए।

यदि आपमें शूद्र (संक्षेप में शूद्र वह व्यक्ति होता है जो शारीरिक कार्य अर्थात मज़दूरी आदि करता है) के गुण हैं तो चिल्ला आदि कर लोगों को इक्टठा करना चाहिए ताकि इस परिस्थिति से निकला जा सके।
विशेष परिस्थितियों में (विशेष परिस्थितियों के होने का निर्णय प्रत्येक का आत्मा करता है) यदि किसी वस्तु को यज्ञ भावना से वाणी से भाषित किया जाता है तो वह अक्षरक्ष: सत्य न होने पर भी सत्य भाषण ही है। यज्ञ भावना क्या है ? संक्षेप में कहा जाए तो जो कर्म अन्याय के विरोध में सृष्टि के कल्याणार्थ किए जाते हैं वे कर्म यज्ञ भावना से ओत-प्रोत माने जाते हैं।

कहा गया हैसत्य बोलो प्रिय बोलो। ऐसा बहुत कम होता है कि कोर्इ विषय सत्य भी हो और अप्रिय भी न हो। ऐसे समय में स्वयं का आत्मा ही निर्णायक होता है कि अप्रिय सत्य को बोला जाए या ना। हां, यदि किसी को प्रिय रूप में बोला सत्य भी कठोर लगता है तो यह उसका दोष है। कुछ विद्वान ऐसा भी मानते हैं कि अपवाद स्वरूप झूठ भी बोला जा सकता है परन्तु यह नितान्त आवश्यक है कि झूठ बोलने वाले की मनोवृति सात्विक हो। इस बात का कि अपवाद रूप में किसी की भलार्इ के लिए झूठ बोल लेना चाहिए, सहारा लेकर हम साधारण परिस्थितियों में भी अपने आप को झूठ बोलने से नहीं रोक पाते। साधारण परिस्थितियों में हमें सत्य ही बोलना चाहिए। राष्ट्र हित व विश्व हित के मामलों को ही केवल असाधारण परिस्थितियां माना जाना चाहिए।

सत्य दो प्रकार के होते हैं। संसारिक वस्तुओं में समयानुसार व परिस्थितिवश बदलाव आता रहता है। उदाहरणार्थ आज बनी गाड़ी, बीस वर्ष पश्चात समान नहीं रहेगी। गाड़ी को आज जानना, उसे बीस वर्षों के पश्चात जानने के समान नही हो सकता। हम पहले कह आए हैं कि जो जैसा है उसे वैसा ही जानना व मानना सत्य कहलाता है। इस अनुसार गाड़ी के आज के सत्य ज्ञान व बीस वर्ष पश्चात के सत्य ज्ञान में फर्क होना स्वभाविक हैं दूसरा सत्य वह होता है जिसमें समयानुसार व परस्थितिवश अन्तर नहीं आता। र्इश्वर विषयक ज्ञान इसी श्रेणी में आता है। जो सत्य ज्ञान कभी नहीं बदलता उसे ऋत कहा जाता है। हमारे जीवन का ध्येय होना चाहिए कि हमारी आत्मा में अवस्थित सत्य ऋत के समीप होता जाए। जो चीज़ जैसी है उसे वैसी ही जानने के लिए महर्षि दयानन्द जी ने निम्नलिखित मापदंड सुझाए हैं -
. वह वस्तु अथवा घटना र्इश्वर के गुणों (र्इश्वर के गुणों की व्याख्या अन्यत्र की गई है।) के अनुकूल होनी चाहिए। उदाहरणार्थ क्योंकि किसी व्यक्ति को बगैर उसके अन्याय के दोषी हाने के मार दिया जाना र्इश्वर के गुण न्यायकारिता व दयालुता के विरूद्ध है इसलिए इसे उचित नहीं ठहराया जा सकता।

वह वस्तु अथवा घटना सृष्टि नियमों के विरुद्ध नहीं होना चाहिए। उदाहरणार्थ यह मानना कि किसी शरीरधारी का शरीर मृत्यु को प्राप्त नहीं होता सृष्टि नियमों के विरुद्ध होने से असत्य है।

हमें आप्त पुरूषों (आप्त पुरूष वे हैं जिनका व्यवहार वेदोक्त हो) के वचनों को प्रमाण के रूप में मानते हुए सत्य का निर्धारण करना चाहिए।

जो वस्तु व घटना हमारी आत्मा की प्रवृति के अनुरूप हो, वो सत्य और जो आत्मा की प्रवृति के विरुद्ध हो, वो असत्य। आत्मा की प्रवृति है कि उसे सुख प्रिय और दुख अप्रिय लगता हे। जो वस्तु हमे॑ प्रिय व अप्रिय लगती है उसे अन्य आत्माओं के लिए भी वैसे ही जानें। जैसे अन्याय हमें अप्रिय लगता है।

किसी वस्तु अथवा घटना की सत्यता व असत्यता पर जो निर्णय प्रत्यक्ष आदि प्रमाणों द्वारा हो, उसे स्वकारें। इन मापदंडों को इसी क्रम में प्रयोग करना चाहिए।
थोड़ा इतिहास के पृष्ठों को पलट कर देखा जाये। क्या किसी ने झूठ बोलकर अपने जीवन के परम उद्देश्य मोक्ष को प्राप्त किया है ? यदि ऐसा नहीं हुआ है, तो आज और कल भी नहीं होगा।

हमारा सत्य को अपने जीवन में धारण न कर पाने का बहुत बड़ा कारण यह है कि हमने अपने जीवन का लक्ष्य जड़-पदार्थों को प्राप्त करना बनाया है। भौतिक पदार्थों की प्राप्ति को वास्तविक लाभ समझ कर भौतिक पदार्थों को प्राप्त करने पर भी आत्मतृप्ति नहीं मिल रही है, यह बात भौतिक पदार्थों के स्वामी अंदर से स्वीकार करते हैं। हमें उनके अनुभव का तिरस्कार नहीं करना चाहिए।

वर्तमान में सत्याचरण करने से हानि अधिक दिखार्इ देती है। इसके पीछे कारण है-भौतिक पदार्थों की हानि को अपनी आत्मा की हानि समझना।
झूठ बोलने वाला कभी भी निडर नहीं हो सकता। हम डरते हुए कभी भी एकाग्र नहीं हो सकते। अत: झूठ बोलने या मिथ्या आचरण करने वाला व्यक्ति पूर्ण एकाग्र नहीं बन सकता। हम पूर्ण एकाग्रता के बिना पूर्ण बुद्धिमान नहीं बन सकते हैं।
सत्य का पालन अहिंसा की सिद्धि के लिए ही किया जाता है। झूठ बोलने से भी हिंसा होती है। कैसे ? ‘हिंसा का अर्थ है-अन्याय पूर्वक पीड़ा, दु:ख, कष्ट देना। जब बालक माँ से झूठ बोलता है तो माँ को इससे अतीव कष्ट होता है।

आप दुकानदार हैं तो ग्राहक को झूठ बोलकर पीड़ा पहुँचा रहे हो। आप नौकरी के प्रत्याशी हैं, आपने झूठ बोल कर नौकरी ली तो जिसे नौकरी मिलनी थी, आपके कारण वह वंचित हो गया है, उसे वंचित होने पर दु:ख मिला, यह हिंसा है। जहाँ भी हम झूठ बोलतें हैं निश्चित रूप से हम वहाँ पर हिंसा ही कर रहे हैं। वहाँ अन्याय पूर्वक दूसरों को दु:ख देते हैं। जिसे हम हिंसा द्वारा पीड़ा पहुँचा रहे हैं, उसका फल हमें निश्चित रूप से मिलने वाला है। इस से हम छूट नहीं सकते। इसीलिये ऋषि कहते हैं कि सत्य ऐसी एक शक्ति है जिसे अपनाने पर मनुष्य को आगे होने वाले पापों को छूटने की शक्ति प्राप्त होती है। इसके अतिरिक्त और कोर्इ मार्ग नहीं है।

ऐसा कोर्इ व्यक्ति न अतीत में था, न ही वर्तमान में है और न ही संभवत: भविष्य में होगा जिसे सत्य में अश्रद्धा हो व असत्य में श्रद्धा हो। ऐसा इसलिये है क्योंकि परमेश्वर ने प्रारम्भ से ही मनुष्य के अन्त: करण में असत्य के प्रति अश्रद्धा उत्पन्न कर दी है।

जब व्यक्ति अपने आत्मा को मार कर कोर्इ बात नहीं कहता वरन् प्रसन्नता पूर्वक एवं आत्म-विश्वास के साथ कहता है, तब वह सत्य-बोल बोलता है। झूठ बोलने वाले व्यक्ति का आत्मा मृत प्राय: अर्थात अंधकार में डूबा होता है।

सत्य के धारण करने से भले ही कुछ भी चला जाये, परन्तु आत्मा का कल्याण इसी में है। जिस माँ के लिए झूठ बोलते हैं, वह तो एक दिन जायेगी ही। पिछले जन्मों में न जाने कितनी माताओं, पिताओं, पुत्रों, पत्नियों, बेटियों तथा अन्यान्य परिवार जनों को छोड़कर हम इस जन्म में वर्तमान हैं। जिनके लिए झूठ बोला था, वे सब कहाँ गये ? जिनके लिए अब झूठ बोल रहे हैं, इन्हें भी तो छोड़ना पड़ेगा। साथ इनमें से कोर्इ नहीं देगा। साथ रहेगा वह पाप, जो इन परिजनों के लिए झूठ बोलकर कमाया है। जब सभी बिछड़ते हैं तो इनसे ममता जोड़ कर क्यों झूठ बोलते हो ? इन्हें भी मन से त्याग दो। आत्मा तो अकेला था, अकेला है और आगे भी अकेला ही रहेगा।

ऋषि कहते हैं कि तुम कहते हो कि असत्य के बिना तुम्हारा काम नहीं चल सकता, यह गलत है। जिस सत्य को झूठ बनाकर प्रस्तुत कर रहे हो, भले आदमी! उस सत्य को सत्य ही के रूप में प्रयोग करके तो देखो, एक बार में ही इसकी महत्ता का पता चल जायेगा। आगे कहते हैं कि असत्य को हमें किसी भी परिस्थिति में स्वीकार नहीं करना है। किसी के लिए भी असत्य नहीं बोलना है, मर जाओ, सब कुछ समाप्त हो जाये, इस सर्वप्रिय शरीर को ही समाप्त करना पड़े, किन्तु सत्य को न छोड़ें।

ये प्रश्न हमें स्वयं से पूछने चाहिए-इस झूठ से हम किसका कल्याण करना चाहते हैं ? किसको सुख देना चाहते हैं ? जिस झूठ से आज तक किसी का कल्याण नहीं हुआ है, उसी झूठ से हम अपना कल्याण करना चाहते हैं।

(ग) अस्तेय - यह अष्टांग योग के पहले बहिरंग अंग का तीसरा उपांग है। चोर-प्रवृति का न होना। अस्तेय का शाब्दिक अर्थ है चोरी न करना। किसी दूसरे की वस्तु को पाने की इच्छा करना मन द्वारा की गर्इ चोरी है। शरीर से अथवा वाणी से तो दूर, मन से भी चोरी न करना। किसी की कार को देखकर उसे पाने की इच्छा करना, किसी सुन्दर फूल को देखकर उसे पाने की चाह करना आदि चोरी ही तो है।

जैसे कपड़ा बेचने वाला, ग्राहक के सामने ही उसे धोखा देता है। ग्राहक पांच मीटर कपड़े का मूल्य चुकाकर उतने कपड़े का स्वामी बन जाता है, किन्तु दुकानदार माप में धोखा देकर उसे पांच मीटर से कम कपड़ा देता है। वह उसी के सामने उसके द्रव्य (यहां कपड़ा) का चालाकी से हरण कर लेता है।

मोटे तौर पर देखने से लगता है कि हम तो चोर नहीं, हम चोरी नहीं करते। इसे सूक्ष्मता से देखने पर साफ दीखता है कि हम कितना अस्तेय का पालन करते हैं।

(घ) ब्रह्मचर्य - यह अष्टांग योग के पहले बहिरंग अंग का चौथा उपांग है। दो अर्थ हैं: पहला चेतना को ब्रह्म के ज्ञान में स्थिर करना और दूसरा सभी इन्द्रिय-जनित सुखों में संयम बरतना। शरीर के सर्वविध सामर्थ्यों की संयम पूर्वक रक्षा करने को ब्रह्मचर्य कहते हैं।
आधुनिक ढंग से जीवन व्यतीत करने वाले अनेकों की धारणा है कि वीर्य की रक्षा करना पागलपन है। अत: वे अपने शरीर को वीर्य ही न बना लेते हैं। शरीर को नाजुक, कमज़ोर, रोग ग्रस्त बना लेते हैं। शरीर की रोग प्रतिरोधक शक्ति को घटाते हैं।

इन्द्रियों पर जितना संयम रखते हैं उतना ही ब्रह्मचर्य के पालन में सरलता रहती है। इन्द्रियों की चंचलता ब्रह्मचर्य के पालन में बाधक है। अपने लक्ष्य के प्रति सजग रहते हुए सदा पुरुषार्थी रहने से ब्रह्मचर्य के पालन में सहायता मिलती है। महापुरुषों, वीरों, ऋषियों, आदर्श पुरूषों के चरित्र को सदा समक्ष रखना चाहिए। मिथ्या-ज्ञान (अशुद्ध-ज्ञान) का नाश करते हुए शुद्ध-पवित्र-सूक्ष्म विवेक को प्राप्त करने से वीर्य रक्षा में सहायता मिलती है।

ब्रह्मचर्य के विपरीत है व्याभिचार। व्याभिचार से भी वैसे ही हिंसा होती है, जैसे झूठ से व चोरी से होती है। जो सुबह से लेकर रात तक बड़े-बड़े व अति हानिकारक झूठ बोल के आता है वह भी एक बार व्याभिचार करके आने वाले को पता नहीं कैसे देखता है ? जैसे झूठ के स्तर होते हैं वैसे ही व्याभिचार के भी स्तर होते हैं, एक स्तर का झूठ जो फल देता है, उसी स्तर का व्याभिचार भी उतना फल देने वाला होता है। यदि कोर्इ व्याभिचार करता है तो वह निन्दनीय है, इसमें कोर्इ दो राय नहीं है, लेकिन उससे अच्छा झूठ बोलने वाला नहीं। वह यम के एक विषय में गिरा हुआ है, यह यम के दूसरे विषय में गिरा हुआ है, उसके गिरने और इसके गिरने में कोर्इ अन्तर नहीं है, दोनों गिरे हुए हैं। सत्य, ब्रह्मचर्य, अस्तेय और अपरिग्रह योग के प्रथम अंग-यम के विभाग हैं और एक विभाग का उतना ही महत्त्व है जितना दूसरे विभाग का।

जैसे हम झूठ इसलिए बोलते हैं क्योंकि सत्य की महिमा हमने नहीं जानी। हम चोरी इसलिए करते हैं क्योंकि अस्तेय की महिमा हमने नहीं जानी। ठीक उसी प्रकार से संयम इसलिए नहीं रखते हैं क्योंकि ब्रह्मचर्य की महिमा हमने नहीं जानी। एक बार हमको ये बोध हो जाये कि ब्रह्मचर्य की क्या महिमा है तो व्याभिचार छोड़कर ब्रह्मचर्य पालन में लग जायेंगे।

ब्रह्मचर्य की कितनी महिमा है। आज इस संसार में मृत्यु से कौन नहीं डरता ? ब्रह्मचारी ब्रह्मचर्यरूपी तपस्या से ऐसे गुणों को अपने अन्दर धारण करता है, कि उससे वह मृत्यु को यूँ उठाकर के फेंक देता है जैसे तिनके को उठाकर के फैंकते हैं।

संत कहते हैं कि ये जो वीर्य है ये आहार का परम धाम है, उत्कृष्ट सार है, यदि तू वास्तव में अमृत पाना चाहता है तो उसकी रक्षा किया कर। यदि उसका क्षय तूने कर लिया असंयम से, तो देख लेना समझ लेना तू, दुनिया भर के रोग आ जायेंगे तुझे।
शास्त्रों की सूक्ष्म-बातें सूक्ष्म-बुद्धि से ही समझी जा सकती है। बुद्धि सूक्ष्म तब होती है जब हमारे शरीर में भोजन का सार प्रचुरता से होगा। भोजन का सार सूक्ष्म तत्त्व है ‘शुक्र’। शुक्र सुरक्षित रहेगा ब्रह्मचर्य पालन से।

बहुत से लोगों, जो क्षण भर में र्इश्वर साक्षात्कार करना चाहते हैं, का आशय यह होता है कि उन्हें कुछ करना धरना न पड़े और र्इश्वर का साक्षात्कार हो जाए। उन्हें इस बात कें महत्त्व का ज्ञान ही नहीं है। जिस बात के लिए ब्रह्मचारी ने अपना सर्वस्व झौंककर, रात-दिन एक करके अपना जीवन ही न्योंछावर कर दिया और अभी तक अपने प्रमाद-आलस्य को, अपनी न्यूनताओं को पूरी तरह दूर नहीं कर पाया। और वे उसी ब्रह्म-तत्व को क्षण मात्र मे प्राप्त करना चाहते हैं।

(च) अपरिग्रह - यह अष्टांग योग के पहले बहिरंग अंग का पांचवा उपांग है। आवश्यकता से अधिक संचय नहीं करना और दूसरों की वस्तुओं की इच्छा नहीं करना। मन, वाणी व शरीर से अनावश्यक वस्तुओं व अनावश्यक विचारों का संग्रह न करने को अपरिग्रह कहते हैं। अपरिग्रह का यह अभिप्राय बिलकुल नही है कि राष्ट्रपति व चपरासी के लिए वस्त्र आदि एक जैसे व समान मात्रा में हो।

हम जितने अधिक साधनों को बढ़ाते जायेंगे, उतने ही अधिक हिंसा के भागी बनते जायेंगे। उदाहरणार्थ कपास की खेती से वस्त्र निर्माण होने तक की प्रक्रिया में अनेक जीव पीड़ित होते व मरते हैं। परन्तु हमें आवश्यकता के अनुसार कुछ न कुछ साधन तो चाहिए। हम मात्र उतने ही साधनों का प्रयोग करें। ऐसा न हो कि हमारे कारण दूसरे अपनी मूलभूत आवश्यकताओं से भी वंचित रह जायें।

हमारी अधिक संग्रह करने की भावना से अनावश्यक उत्पादन बढ़ता जा रहा है। जिससे पन्च भूतों (पृथ्वी, जल आदि) की हाऩि होती जा रही है। ऐेसा न हो कि हम क्षणिक सुख के लिए विपुल मात्रा में हिंसा कर बैठें।

अपरिग्रह का पालन भी अहिंसा की सिद्धि के लिए ही किया जाता है। परिग्रह सदैव दूसरों को पीड़ा देकर ही किया जाता है। अनावश्यक वस्तुओं का, अनावश्यक विचारों का, उचित-अनुचित स्थानों से निरूद्देश्य संग्रह करना परिग्रह है। इसके विपरीत ऐसा न करने को अपरिग्रह कहते हैं। यदि कभी अधिक संग्रह भी हो जाये तो शेष को दान करते रहना चाहिए। इस दान से उपजे आत्म संतुष्टि के भाव का मूल्य संसार के मूल्यवान पदार्थों से भी अधिक ही रहेगा।
ये प्रश्न हमें स्वयं से पूछने चाहिए–आखिर इतना संग्रह किसके लिए करता हूँ ? क्यों करता हूँ व कब तक करता रहूँगा ? मैं कहाँ था ? कब आया, क्यों आया ? पहले का संग्रह कहाँ है ? इस प्रकार के संग्रह से क्या होगा ? कब तक संग्रह करूँ ? इस प्रकार आत्मा का बोध होता है।


(तथ्य कथन गूगल साइट्स इत्यादि से साभार)


"MMSTM समवैध्यावि ध्यान की वह आधुनिक विधि है। कोई चाहे नास्तिक हो आस्तिक हो, साकार, निराकार कुछ भी हो बस पागल और हठी न हो तो उसको ईश अनुभव होकर रहेगा बस समयावधि कुछ बढ सकती है। आपको प्रतिदिन लगभग 40 मिनट देने होंगे और आपको 1 दिन से लेकर 10 वर्ष का समय लग सकता है। 1 दिन उनके लिये जो सत्वगुणी और ईश भक्त हैं। 10 साल बगदादी जैसे हत्यारे के लिये। वैसे 6 महीने बहुत है किसी आम आदमी के लिये।"  सनातन पुत्र देवीदास विपुल खोजी
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