पातांजलि के पंच नियम क्या हैं?
सनातनपुत्र देवीदास विपुल
"खोजी"
विपुल सेन उर्फ विपुल “लखनवी”,
(एम . टेक. केमिकल इंजीनियर) वैज्ञानिक
एवं कवि
सम्पादक : विज्ञान त्रैमासिक हिन्दी जर्नल
“वैज्ञनिक” ISSN
2456-4818
वेब: vipkavi.info वेब चैनल: vipkavi
फेस बुक: vipul luckhnavi
“bullet"
नियम अष्टांग योग का दूसरा बहिरंग अंग
है। इसके पांच उपांग हैं। यम की तरह ‘नियम’ भी दुखों को छुड़ाने वाला है। यम का संबंध मुख्य रूप से
अन्यों के साथ है और नियम का संबंध मुख्य रूप से व्यक्तिक जीवन के साथ है। विशेष
रूप से स्वयं के दु:खों से छुड़ाने वाला होने से इसे नियम कहते हैं। नियम का संबंध मुख्य
रूप से अपने साथ हम कैसे हो यह बताता है।
पाँच व्यक्तिगत नैतिकता
(क) शौच - यह अष्टांग योग के दूसरे बहिरंग अंग का पहला उपांग है। शरीर और मन की शुद्धि। शरीर व मन की
शुद्धि को शौच कहा जाता है। स्नान, वस्त्र, खान-पान आदि से शरीर को
स्वच्छ रखा जाता है। विद्या , ज्ञान, सत्संग, संयम, धर्म आदि और धनोपार्जन
को पवित्र रखने के उपायों से मन की शुद्धि होती है। मन की शुद्धि शरीर की शुद्धि
से अधिक महत्त्वपूर्ण है परन्तु मानव जीवन के अधिक साधन-समय, धन आदि शरीर की शुद्धि में ही लगाए जा रहें हैं। पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु व आकाश की
शुद्धि से मनुष्य की शुद्धि और इनकी अशुद्धि से मनुष्य की अशुद्धि होती है। सभी
शुद्धियों में धन की शुद्धि बड़ी मानी गर्इ है। इसलिए यहीं से शुद्धि का प्रारम्भ
करना चाहिए। जिस मनुष्य का धन अशुद्ध है उसका आहार, ज्ञान व
कर्म भी अशुद्ध ही होगा। उसके जीवन में तपस्या नहीं होगी व उसे समय की महत्ता का
बोध नहीं होगा व आन्तरिक शुद्धि का पालन करने से अहिंसा बलवान बनती है, जिससे शुद्धि का पालन करने वाले व्यक्ति के साथ उठने-बैठने व अन्य प्रकार के
व्यवहारों में सबको प्रसन्नता मिलती है।
(ख) संतोष - यह अष्टांग योग के दूसरे बहिरंग अंग का दूसरा उपांग है। संतुष्ट और प्रसन्न रहना। अपनी योग्यता
व अधिकार के अनुरूप अपनी शक्ति, सामर्थ्य , ज्ञान-विज्ञान तथा उपलब्ध
साधनों द्वारा पूर्ण पुरूषार्थ करने से प्राप्त फल में प्रसन्न रहने को संतोष कहते
हैं। असंतोष का मूल लोभ है। यदि व्यक्ति संतोष का पालन करता है यानि अपनी तृष्णा
को, लोभ को समाप्त कर देता है तो जो सुख मिलता है उसके सामने
संसार का सारा का सारा सुख सोलहवां भाग भी नहीं होता।
जितना पास है या किसी परिस्थिति से जितना मिलता है उससे अधिक की इच्छा न करना संतोष नहीं। अपने द्वारा निर्धारित फल को प्राप्त न करने पर हताश-निराश न होकर, हाय-हाय न कहते हुए अपनी योग्यता, सामर्थ्य, बल, ज्ञान-विज्ञान व साधनों को और अधिक बढ़ाकर और अधिक पुरूषार्थ करके अधिक फल को प्राप्त करने की चेष्टा सतत् करनी चाहिए। अनेक बार व्यक्ति अपने सामर्थ्य व योग्यताओं को न पहचानते हुए कम पुरूषार्थ करके संतोष कर लेता है, जो आत्म दर्शन में अत्यन्त बाधक है।
संतोष के लिए यह नितान्त आवश्यक है कि व्यक्ति र्इश्वर के न्याय पर पूर्ण विश्वास करे। उसे यह निश्चिंतता होनी चाहिए कि उसके कर्मों का न न्यून न अधिक फल मिलता रहा है और मिलता रहेगा।
(ग) तप - यह अष्टांग योग के दूसरे बहिरंग अंग का तीसरा उपांग है। स्वयं से अनुशाषित रहना। जीवन के
लक्ष्य को पूरा करने के लिए हानि-लाभ, सुख-दु:ख, भूख-प्यास, सर्दी-गर्मी, मान-अपमान आदि द्वन्द्वों को शान्ति व
धैर्य से सहन करने को तप कहते हैं।
आज हम स्वयं को इतना कमजोर कर चुके हैं कि बिना तकिये, बिस्तर, वाहन (कार आदि), पंखा, कूलर, ए.सी. कमरा आदि के नहीं रह पाते हैं। अनेक बार हम कुछ भौतिक पदार्थों के लिए आत्म-तत्व को ही छोड़ देते हैं। जैसे ही विषय हमारे सामने उपस्थित होता है, हम चाहते हुए या न चाहते हुए सब कुछ भूलकर के उसके साथ जुड़ जाते हैं।, उसी में लग जाते हैं, छोड़ नहीं पाते, त्याग नहीं कर पाते। जब कोर्इ मनोरम दृष्य सामने आता है तो उसको देखे बिना रह नहीं पाते, उसका त्याग नहीं कर पाते।
आज हम स्वयं को इतना कमजोर कर चुके हैं कि बिना तकिये, बिस्तर, वाहन (कार आदि), पंखा, कूलर, ए.सी. कमरा आदि के नहीं रह पाते हैं। अनेक बार हम कुछ भौतिक पदार्थों के लिए आत्म-तत्व को ही छोड़ देते हैं। जैसे ही विषय हमारे सामने उपस्थित होता है, हम चाहते हुए या न चाहते हुए सब कुछ भूलकर के उसके साथ जुड़ जाते हैं।, उसी में लग जाते हैं, छोड़ नहीं पाते, त्याग नहीं कर पाते। जब कोर्इ मनोरम दृष्य सामने आता है तो उसको देखे बिना रह नहीं पाते, उसका त्याग नहीं कर पाते।
अतपस्वी व्यक्ति को योग की सिद्धि नहीं होती अर्थात वह र्इश्वर का दर्शन नहीं कर सकता। इतना त्याग न करें कि अपका उद्देश्य धरा का धरा रह जाय, इतनी तपस्या न करें कि तपस्या से उद्देश्य ही धूमिल हो जाय। तपस्या करो लेकिन चित्त की प्रसन्नता बनी रहे।
(घ) स्वाध्याय - यह अष्टांग योग के
दूसरे बहिरंग अंग का चौथा उपांग है। आत्मचिंतन
करना। भौतिक-विद्या व आध्यात्मिक-विद्या दोनों का अध्ययन करना स्वाध्याय कहलाता
है। केवल भौतिक या केवल आध्यात्मिक विद्या से कोर्इ भी अपने लक्ष्य को पूरा नहीं
कर सकता है। अत: दोनों का समन्वय होना अति आवश्यक है।
वेदों में दोनों भौतिक विधा व अध्यात्मिक विद्या है।
विद्वान लोग वेदों के अध्ययन को ही स्वाध्याय मानते हैं। कुछ विद्वान लोग ऋषि कृत
ग्रन्थों (व्याकरण,
निरुक्त आदि, दर्शन शास्त्र, ब्राह्मण ग्रन्थ, उपनिष्द आदि) के अध्ययन को भी
स्वाध्याय के अन्तर्गत लेते हैं। स्वाध्याय का पालन करने से मूर्खतारूपी अविधा से
युक्त होकर की जाने वाली हिंसा का अन्त होता है और हमें मुक्ति-पथ पर आगे बढ़ने
में सहायता मिलती है।
(च) ईश्वर-प्रणिधान – यह अष्टांग योग के दूसरे बहिरंग अंग का पांचवा उपांग
है। ईश्वर के प्रति पूर्ण
समर्पण, पूर्ण
श्रद्धा। र्इश्वर प्रणिधान का अर्थ है — समर्पण करना।
लोक में हम माता — पिता, अध्यापक, अधिकारी आदि के प्रति
समर्पण की भावना की बात करते हैं। इसका अर्थ यहीं लिया जाता है कि जैसा माता-पिता,
अध्यापक, अधिकारी आदि कहें वैसा ही करना। जिसके
प्रति आप समर्पित हो रहें है। उसकी आज्ञा का पालन करना ही समर्पण हैं। इसलिए
र्इश्वर प्रणिधान के लिए यह आवश्यक है कि हम र्इश्वरीय आज्ञायों के बारे में
जानें। र्इश्वर की आज्ञा के अनुसार चलना होगा तो हम हर वक्त र्इश्वर को सामने
रखेंगे और अपनी वाणी, सोच व कर्मों को अच्छी ओर लगाएंगे।
परन्तु र्इश्वरिय आज्ञाओं का पालन करने में उनसे मिलने वाले फल की इच्छा नही करनी
चाहिए। फल को न चाहने का अर्थ क्या है ? जो कुछ भी
कार्य करने पर मिलता है-जड़ पदार्थ-उसको ही अंतिम फल समझ कर कार्य करें, तो उससे आत्मा को पूर्ण तृप्ति नहीं मिलती। फल ऐसा चाहो जिससे आत्मा की
अभिलाषा की पूर्ति हो सके। उसकी पूर्ति होती है र्इश्वरिय आनन्द को पाने से।
कर्मों को जड़ पदार्थों को प्राप्त करने की इच्छा से न करके र्इश्वरीय आनन्द को
प्राप्त करने के लिए करना चाहिए। श्रीमदभगवद् गीता में वर्णित निष्काम भाव से कर्म
करने का भी यहीं अभिप्राय है।
इस बात को समझाने के लिए ऋषियों ने ‘भक्ति-विशेष’ शब्द का प्रयोग किया है।
इस बात को समझाने के लिए ऋषियों ने ‘भक्ति-विशेष’ शब्द का प्रयोग किया है।
भक्ति=समर्पण=आज्ञा पालन : र्इश्वर-प्रणिधान के
अन्तर्गत अपना सब कुछ-बल, धन, योग्यता, ज्ञान आदि
र्इश्वर को समर्पित कर दें। व्यक्ति जब ऐसा करने लगता है तो उसको डर लगता है । यदि
मैं सब कुछ समर्पित कर दूँ, तो मेरे लिए कुछ बचेगा ही नहीं।
र्इश्वर-प्रणिधान करने पर भी समस्त धन रहेगा तो आपके पास ही, लेकिन उसे र्इश्वर की आज्ञा के अनुरूप प्रयोग करना होगा।
जैसे उदाहरण के लिए एक मकान में एक किराएदार रहता है। वह किराएदार उस मकान का अधिक से अधिक प्रयोग करता है और उसका अधिक से अधिक सुख लेने का प्रयत्न करता है, लेकिन अपना नहीं मानता। मकान उसी के पास है, वह ही प्रयोग करता है परन्तु उसे अपना नहीं मानता, उसके बारे में उसको कोर्इ चिन्ता नहीं रहती। किसी कारण से बिगड़ भी जाए तो उसको दु:ख बिलकुल भी नहीं होता। क्योंकि उसने उसे अपना तो कुछ माना ही नहीं था।
अपने जीवन में यह भाव लाने से कि मेरा सब कुछ प्रभु का है एक बहुत बड़ा लाभ होगा कि वो जैसा हमको कहेगा हम वैसा अपने साधनों का प्रयोग करेंगे। जिम्मेदारी अपनी नहीं रहेगी।
दान
देना पड़ेगा क्योंकि उसकी आज्ञा है। जितना खाने के लिए कहता है उतना खाओ,
जिसे न खाने के लिए कहता है उसे मत खाओ। समर्पण का अर्थ हमने किया
‘भक्ति-विशेष’ अर्थात र्इश्वर की आज्ञा-पालन।
जब हम र्इश्वर — समर्पण करेंगे अथवा उसकी आज्ञा पालन करने में तत्पर रहेंगे तो मुक्ति-पथ पर हमारी प्रगति बड़ी तेज़ होगी।
(तथ्य कथन गूगल साइट्स इत्यादि से साभार)
"MMSTM समवैध्यावि ध्यान की वह आधुनिक
विधि है। कोई चाहे नास्तिक हो आस्तिक हो, साकार, निराकार कुछ भी हो बस पागल और हठी
न हो तो उसको ईश अनुभव होकर रहेगा बस समयावधि कुछ बढ सकती है। आपको प्रतिदिन लगभग
40 मिनट देने होंगे और आपको 1 दिन से लेकर 10 वर्ष का समय लग सकता है। 1 दिन उनके
लिये जो सत्वगुणी और ईश भक्त हैं। 10 साल बगदादी जैसे हत्यारे के लिये। वैसे 6
महीने बहुत है किसी आम आदमी के लिये।" सनातन पुत्र देवीदास विपुल खोजी
ब्लाग :
https://freedhyan.blogspot.com/
No comments:
Post a Comment