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Monday, November 19, 2018

धर्म क्या??



धर्म क्या??
सनातनपुत्र देवीदास विपुल "खोजी"

 विपुल सेन उर्फ विपुल लखनवी,
(एम . टेक. केमिकल इंजीनियर) वैज्ञानिक एवं कवि
सम्पादक : विज्ञान त्रैमासिक हिन्दी जर्नल “वैज्ञनिक” ISSN 2456-4818
 वेब:  vipkavi.info वेब चैनलvipkavi
फेस बुक:   vipul luckhnavi “bullet"

भगवद्गीता का पहला श्लोक:

धृतराष्ट्र उवाच- धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे समवेता युयुत्सवः। मामकाः पाण्डवाश्चैव किमकुर्वत संजय॥1॥
(सत् और असत् के विवेक रूपी नेत्रों से रहित,) धृतराष्ट्र बोले- (सत् और असत् के विवेक रूपी दिव्य नेत्रों वाले,) हे संजय! धर्मभूमि कुरुक्षेत्र में एकत्रित, युद्ध की इच्छावाले मेरे और पाण्डु के पुत्रों ने क्या किया?॥१॥

सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज। अहं त्वां सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः ॥66॥ संपूर्ण धर्मों को अर्थात संपूर्ण कर्तव्य कर्मों को मुझमें त्यागकर तू केवल एक मुझ सर्वशक्तिमान, सर्वाधार परमेश्वर की ही शरण में आ जा। मैं तुझे संपूर्ण पापों से मुक्त कर दूँगा, तू शोक मत कर॥66

भगवद्गीता का प्रारंभ धर्म शब्द से होता है और भगवद्गीता के अंतिम अध्याय में दिए उपदेश को धर्म संवाद कहा है।
धर्म का अर्थ है १- धारण करने वाला २- जिसे धारण किया गया है।
धारण करने वाला जो है उसे आत्मा कहा जाता है और जिसे धारण किया है वह प्रकृति है। धर्म का अर्थ भगवद्गीता में जीव स्वभाव अर्थात प्रकृति है, क्षेत्र का अर्थ शरीर से है। भगवद्गीता के अन्य प्रसंगों में इसी की पुष्टि होती है।
यथा ‘स्वधर्मे निधनम् श्रेयः पर धर्मः परधर्मः भयावहः’,
अपने स्वभाव में स्थित रहना, उसमें मरना ही कल्याण कारक माना है।
यह धर्म शब्द गीता शास्त्र में अत्याधिक महत्वपूर्ण है।
श्री भगवान ने सामान्य मनुष्य के लिए स्वधर्म पालन अर्थात स्वभाव के आधार पर जीवन जीना परम श्रेयस्कर धर्म बताया है।
महर्षि व्यास ब्रह्मज्ञानी थे।
उनकी दृष्टि से धर्म का अर्थ है आत्मा (धारण करने वाला) और क्षेत्र का अर्थ है शरीर।
इस दृष्टिकोण से भगवद्गीता के प्रथम श्लोक में पुत्र मोह से व्याकुल धृतराष्ट्र संजय से पूछते हैं, हे संजय, कुरूक्षेत्र में जहाँ साक्षात धर्म, शरीर रूप में भगवान श्री कृष्ण के रूप में उपस्थित हैं वहाँ युद्ध की इच्छा लिए मेरे और पाण्डु पुत्रों ने क्या किया?

गीता की समाप्ति पर इस उपदेश को स्वयं श्री भगवान ने धर्म संवाद कहा।
धर्म अर्थात जिसने धारण किया है, वह आत्मतत्व परमात्मा शरीर रूप में जहाँ उपस्थित है, यह ब्रह्मर्षि व्यास जी के चिन्तन में रहा होगा।  
अतः व्यास जी द्वारा भगवद्गीता में धर्म क्षेत्र शब्द का प्रयोग सृष्टि को धारण करने वाले परमात्मा श्री कृष्ण चन्द्र तथा धृतराष्ट के जीव भाव (जिसे धारण किया है - हे संजय, कुरूक्षेत्र में भिन्न भिन्न जीव स्वभाव को धारण किए अर्थात भिन्न भिन्न प्रकृति से युक्त शरीरधारी मेरे ओर पाण्डु के पुत्रों ने क्या किया ?) को संज्ञान में लेते हुए धर्मक्षेत्रे शब्द का प्रयोग किया है।धर्म संस्थापनार्थाय’, से भी इसकी पुष्टि होती है।

धर्म क्या है? दोष रहित, सत्य प्रधान, उन्मुक्त, अमर और भरा-पूरा जीवन विधान ही धर्म है।

धर्म क्या है -- एक प्रकार की ब्रम्हाण्डीय जानकारी और उस जानकारी के अनुसार अपने आपको स्थित और व्यवस्थित करना अर्थात् ब्रम्हाण्डीय स्थिति की यथार्थत: जानकारी रखते हुये अपने को उसके अनुसार व्यस्थित कर देना । जो कुछ और जितना भी हम ब्रम्हाण्डीय विधान से अलग हट चुके हैं, उसमें अपने को स्थित कर देना । पिण्ड (शरीर)  ब्रम्हाण्ड की एक इकाई है ।

ब्रम्हाण्डीय विधान क्या है और उसमें यह जो हमारा पिण्ड है यह कहाँ और कैसा है-- इसकी सम्पूर्ण जानकारी रखते हुये, यह जहाँ जैसा था, वहाँ वैसा रख देना, उसमें जोड़ देना या व्यवस्थित  कर देना । ब्रम्हाण्डीय विधान से जानकारी रखते हुये उसमें पिण्डीय स्थिति को स्थित कर देना। जो ब्रम्हाण्डीय विधान से छूट चुके हैं अथवा किसी विपरीत गति में जा चुके हैं उस विपरीत गति से अनुकूल गति में स्थित कर देना । जब हम ऐसा कर लेंगे तो हमारा सारा उद्देश्य भगवन्मय होता रहेगा ! अपनी दृष्टि को हमेशा 'तत्त्व' के तरफ मोड़ते हुए तत्त्वमय बनाए रखना चाहिये। शरीर रूप में अपने को देखने की कोशिश कदापि नहीं करना चाहिये क्योंकि शरीरमय देखने से ही संसार में सारे दोष और दुष्कृत्य उत्पन्न होते रहते हैं जिससे पतन और विनाश को हर कोई ही जाने लगता और जाता ही रहता है।

'धर्म' अपने आप में एक परिपूर्ण शब्द है। ''परमाणु से परमात्मा तक का सम्पूर्ण ब्रम्हाण्ड शिक्षा (एजुकेशन) से तत्त्वज्ञान  (नॉलेज) तक का सम्पूर्ण ज्ञान और सम्पूर्ण प्रयोग-उपलब्धि समाहित रहता है जिसमें वह विधान ही 'धर्म' है।'' 

जड़ जगत्-शरीर-जीव-ईश्वर और परमेश्वर:-- संसार और शरीर के मध्य शरीर तक की पूर्ण जानकारी शिक्षा (Education); शरीर और जीव के मध्य जीव तक की पूर्ण जानकारी स्वाध्याय (Self Realization); जीव और ईश्वर के मध्य ईश्वर तक की पूर्ण जानकारी अध्यात्म (Spiritualization) और ईश्वर और परमेश्वर के मध्य की जानकारी, साथ ही साथ सम्पूर्ण जानकारी (True Supreme KNOWLEDGE) समाहित रहता है जिसमें, वही है 'धर्म'

भगवान श्री कृष्ण के अनुसार-- ''जिस माध्यम से अनन्य भगवद् भक्ति-भाव होता रहता हो वही 'धर्म' है; जिस माध्यम से अद्वैत्तत्त्व बोधभगवत्तत्त्व बोध रूप एकत्व बोध होता हो, वही तत्त्वज्ञान है; जिस माध्यम से सम्पूर्ण संसार के प्रति त्याग-भाव (विषयों से असंग) और भगवान के प्रति समर्पण-शरणागत भाव हो, वही वैराग्य है और अणिमा-गणिमा आदि सिध्दियाँ जिसमें हों, वही ऐश्वर्य है।'' (श्रीमदभागवत्महापुराण 11/19/27)

धर्मो मद्भक्तिकृत् प्रोक्तो ज्ञानं चैकात्म्यदर्शनम्। गुणेष्वसंगो वैराग्यमैश्वर्यं चाणिमादय: ॥   
उपर्युक्त श्लोक के माध्यम से सूत्र रूप में श्रीकृष्ण ने धर्म-ज्ञान-वैराग्य और ऐश्वर्य की जो परिभाषा दिया है, वह अपने आप में पूर्ण है ।

स्वामी विवेकानन्द जी ने भी 'धर्म' की परिभाषा को अपने 'मेरे गुरुदेव' नामक पुस्तिका के पृष्ठ संख्या 18  के दूसरे पैरा में दिया है-- 'मनुष्य को परमेश्वर प्राप्त करना चाहिए, परमेश्वर का अनुभव करना चाहिए, परमेश्वर का प्रत्यक्ष दर्शन करना चाहिए तथा उससे बातचीत करनी चाहिए--यही  'धर्म' है ।'

धर्म क्या है? कृष्ण के जीवन में बहुत लोगों ने उनसे यह सवाल पूछा था। जब द्रौपदी का विवाह होने वाला था, तो उन्होंने हर संभव कोशिश की कि द्रौपदी का विवाह पांच पांडवों से हो। उस वक्त द्रौपदी ने उनसे पूछा, 'आपको पता है धर्म क्या है?'  

एक बार कृष्ण ने भीम से कहा था,  'हस्तिनापुर दुर्योधन के लिए छोड़ दो। चलो हम नया नगर बसाएंगे।' इस पर भीम ने जवाब दिया, 'आप देशद्रोही हैं। मैं दुर्योधन को मार डालना चाहता हूं,  और आप मुझसे यह कह रहे हैं कि मैं यह राज्य उसके लिए छोड़ कर चला जाऊं, कहीं और जाकर अपना राज्य बसाऊं। अगर आपमें सभी को साथ लेकर चलने की भावना है,  तो आप अपनी बुद्धि से उस परिस्थिति के मुताबिक काम करेंगे। अगर आपकी मानसिकता सभी को साथ लेकर चलने की नहीं है, अगर आपकी सोच में 'तुम' और 'मैं' अलग-अलग हैं, तो आप जो भी करेंगे, वह गलत ही होगा।

धर्म के बारे में आप क्या जानते हैं?'  अर्जुन और बहुत से दूसरे लोगों ने भी ऐसे ही सवाल उठाए। लोगों ने कृष्ण से पूछा, 'क्या आपको वास्तव में पता है कि धर्म क्या है?' कृष्ण ने हर किसी को धर्म के बारे में विस्तार से समझाया। कर्म परिस्थितियों पर आधारित होते हैं। हालांकि हम इसके बारे में सही-गलत का फैसला करते हैं, लेकिन बाहर से देखने पर हम थोड़े-बहुत गलत भी हो सकते हैं। लेकिन जब बात अपने स्वधर्म (जीवन में खुद का कर्तव्य) की आती है, यानी मैं स्वयं अपने अंदर कैसे रहूं, तो उसके बारे में मैं पूरी तरह स्पष्ट हूं। किसी बुद्धिमान व्यक्ति के दिमाग में भी इस बात को लेकर शत प्रतिशत स्पष्टता नहीं होती कि उसे किस तरह से कर्म करना चाहिए। वह हमेशा अपने निर्णय को तौलता है। अगर आप बाकी जीवों के नजरिये से देखने की कोशिश करेंगे तो पाएंगे कि हम जो भी करते हैं, हमारा अस्तित्व, हमारा खानपान, हमारा जीवन, हमारा सांस लेना सब कुछ किसी न किसी तरह से उन जीवों के साथ अन्याय ही है।

अब आप किसी की हत्या की बात कर रहे हैं। जरा सोच कर देखिए, जब आप खाते हैं, तो आप किसी की हत्या कर रहे होते हैं, जब आप सांस लेते हैं तो आप किसी की जान ले रहे होते हैं, जब आप चलते हैं तो भी पैरों तले किसी जीव की जान लेते हैं। अगर आप यह सब नहीं करना चाहते तो आपका अपना जीवन खतरे में पड़ जाएगा और तब आप खुद की जान ले रहे होंगे। तो आप किस धर्म का पालन करेंगे?  बात बस इतनी है कि आप भीतर से कैसे हैं।

किसी बुद्धिमान व्यक्ति के दिमाग में भी इस बात को लेकर शत प्रतिशत स्पष्टता नहीं होती कि उसे किस तरह से कर्म करना चाहिए। वह हमेशा अपने निर्णय को तौलता है।

अगर आपमें सभी को साथ लेकर चलने की भावना है, तो आप अपनी बुद्धि से उस परिस्थिति के मुताबिक काम करेंगे। अगर आपकी मानसिकता सभी को साथ लेकर चलने की नहीं है, अगर आपकी सोच में 'तुम' और 'मैं' अलग-अलग हैं, तो आप जो भी करेंगे, वह गलत ही होगा। आप कोई भी काम सही कर ही नहीं सकते, क्योंकि आपका पूरा का पूरा वजूद ही गलत है, क्योंकि आपने बस 'तुम और मैं' बना रखा है।

धर्म एक जीवनशैली है, जीवन-व्यवहार का कोड है। समझदारों, चिंतकों, मार्गदर्शकों, ऋषियों द्वारा सुझाया गया सात्विक जीवन-निर्वाह का मार्ग है, सामाजिक जीवन को पवित्र एवं क्षोभरहित बनाए रखने की युक्ति हैविचारवान लोगों द्वारा रचित नियम नैतिक नियमों को समझाइश लेकर लागू करने के प्रयत्न का एक नाम है, उचित-अनुचित के निर्णयन का एक पैमाना है और लोकहित के मार्ग पर चलने का प्रभावी परामर्श है।

निरपेक्ष अर्थ में 'धर्म' की संकल्पना का किसी पंथ, संप्रदाय, विचारधारा, आस्था, मत-मतांतर, परंपरा, आराधना-पद्धति, आध्यात्मिक-दर्शन, किसी विशिष्ट संकल्पित मोक्ष-मार्ग या रहन-सहन की रीति‍-नीति से कोई लेना-देना नहीं है। यह शब्द तो बाद में विभिन्न मतों/ संप्रदायों, आस्थाओं, स्‍थापनाओं को परिभाषित करने में रूढ़ होने लगा। शायद इसलिए कि कोई दूसरा ऐसा सरल, संक्षिप्त और संदेशवाही शब्द उपलब्ध नहीं हुआ। व्यक्तिगत, पारिवारिक, सामाजिक, जिम्मेदारी की पूर्ति और विशिष्ट परिस्थितियों में उचित कर्तव्य निर्वाह के स्वरूप को भी 'धर्म' कहां जाने लगा। 

आइए, अब इन निम्नांकित तीन कथनों को पढ़िए। नीतिकारों और चिंतकों के ये कथन महत्वपूर्ण संकेत देते हैं। उन अंतरनिहित संकेत के मर्म को पहचानिए। 

धृति:, क्षमा, दमोऽस्तेयं शौच: इन्द्रियनिग्रह:। धीर्विद्या सत्यमक्रोधो दशकं धर्मलक्षमणम्।

अर्थात धैर्य, क्षमा, अस्तेय, पवित्रता, आत्मसंयम, बुद्धि, विद्या, सत्य एवं अक्रोध आदि ये 10 धर्म के लक्षण हैं। (मनुस्मृति 6/92/)

* भली-भांति मनन किए हुए‍ विचार ही जीवनरूपी सर्वोच्च परीक्षा में परीक्षित होकर एवं व्यवहार में आकर धर्म बन जाते हैं।

-डॉ. राधाकृष्णन

सच्चा धर्म सकारात्मक होता है, नकारात्मक नहीं। अशुभ एवं असत से केवल बचे रहना ही धर्म नहीं है। वास्तव में शुभ एवं सत्कार्यों को करते रहना ही धर्म है। 

-स्वामी विवेकानंद

स्पष्ट है कि इन तटस्‍थ और वस्तुनिष्ठ कथनों में किसी आध्यात्मिक विचारधारा, उपासना-पद्धति, जीवनशैली या जीवन-दर्शन का कोई न कोई संकेत है, न परामर्श। ये कथन सार्वभौमिक और सर्वकालिक आदर्शों को स्थापित करते हैं। बस।

वास्तव में हुआ यह है कि विभिन्न कालों में उभरे लोकनायकों ने (जो उस समय के रोल मॉडल्स थे) अपने चिंतन, कल्पनाशीलता, अपने दृष्टिकोण और विश्वासों के आधार पर कुछ स्थापनाएं कीं और उन पर आधारित जीवनशैलियों, व्यवहार प्रणालियों, नियमों और निषेधों का सृजन कर अपने अनुयायियों में उन्हें प्रसारित कर दिया। धारणाएं बनीं, दृढ़ विश्वासों में परिणत हुईं और फिर ये रूढ़ियां बनकर जीवन-शैलियां बन गईं। लोगों ने सोचना बंद कर दिया और अनुगमन करने लगे। इस प्रकार लोगों का एक समूह, वर्ग, गोल या दल संगठित हो गया और एक विशिष्ट संप्रदाय या धर्म स्थापित हो गया जिसकी एक निर्धारित रीति-नीति, चिंतन और व्यवहार-शैली तथा विधि-निषेध की प्रणाली विकसित हो गई। अपने प्रवर्तक के नाम या उनके द्वारा स्थापित सिद्धांतों/ आदर्शों/ शिक्षाओं के अनुसार उस एक विशिष्ट नाम दे दिया गया। अनुयायियों का एक वर्ग/ समूह/ दल उसके नीचे एकजुट या संगठित हो गया।

आज की आवश्यकता यह है कि इस संपूर्ण घटनाक्रम को समझकर एवं उसकी पृष्ठभूमि जानकर 'धर्म' शब्द को व्यापक परिप्रेक्ष्य में देखा जाए। उसी में सबका कल्याण निहित है और निहित है उस शब्द की संकल्पना की निर्मलता भी।

बड़े-बुजुर्गों को कहते सुना होगा कि गीता में जीवन का सार है।  श्री कृष्ण ने महाभारत युद्ध में अर्जुन को कुछ उपदेश दिए थे, जिससे उस युद्ध को जीतना पार्थ के लिए आसान हो गया।  यहां दिए गए गीता के कुछ उपदेशों को अपने जिंदगी में शामिल करके आप भी अपने लक्ष्य को पाने में सक्षम होंगे...। या यूं कहें धार्मिक व्यक्ति के कुछ लक्षण।  
1. गुस्से पर काबू -
'क्रोध से भ्रम पैदा होता है. भ्रम से बुद्धि व्यग्र होती है. जब बुद्धि व्यग्र होती है तब तर्क नष्ट हो जाता है. जब तर्क नष्ट होता है तब व्यक्ति का पतन हो जाता है.'
2. देखने का नजरिया -
'जो ज्ञानी व्यक्ति ज्ञान और कर्म को एक रूप में देखता है, उसी का नजरिया सही है.'
3. मन पर नियंत्रण -
'जो मन को नियंत्रित नहीं करते उनके लिए वह शत्रु के समान कार्य करता है.'
4. खुद का आकलन -
'आत्म-ज्ञान की तलवार से काटकर अपने ह्रदय से अज्ञान के संदेह को अलग कर दो. अनुशासित रहो, उठो.'
5. खुद का निर्माण -
'मनुष्य अपने विश्वास से निर्मित होता है. जैसा वो विश्वास करता है वैसा वो बन जाता है.'
6. हर काम का फल मिलता है -
'इस जीवन में ना कुछ खोता है ना व्यर्थ होता है.'
7. प्रैक्टिस जरूरी -
'मन अशांत है और उसे नियंत्रित करना कठिन है, लेकिन अभ्यास से इसे वश में किया जा सकता है.'
8. विश्वास के साथ विचार -
'व्यक्ति जो चाहे बन सकता है, यदि वह विश्वास के साथ इच्छित वस्तु पर लगातार चिंतन करे.'
9. दूर करें तनाव -
'अप्राकृतिक कर्म बहुत तनाव पैदा करता है.'
10. अपना काम पहले करें -
'किसी और का काम पूर्णता से करने से कहीं अच्छा है कि अपना काम करें, भले ही उसे अपूर्णता से करना पड़े.'
11. इस तरह करें काम -
'जो कार्य में निष्क्रियता और निष्क्रियता में कार्य देखता है वह एक बुद्धिमान व्यक्ति है.'
12. काम में ढूंढें खुशी -
'जब वे अपने कार्य में आनंद खोज लेते हैं तब वे पूर्णता प्राप्त करते हैं




जय गुरूदेव महाकाली।  


(तथ्य कथन गूगल साइट्स इत्यादि से साभार)


"MMSTM समवैध्यावि ध्यान की वह आधुनिक विधि है। कोई चाहे नास्तिक हो आस्तिक हो, साकार, निराकार कुछ भी हो बस पागल और हठी न हो तो उसको ईश अनुभव होकर रहेगा बस समयावधि कुछ बढ सकती है। आपको प्रतिदिन लगभग 40 मिनट देने होंगे और आपको 1 दिन से लेकर 10 वर्ष का समय लग सकता है। 1 दिन उनके लिये जो सत्वगुणी और ईश भक्त हैं। 10 साल बगदादी जैसे हत्यारे के लिये। वैसे 6 महीने बहुत है किसी आम आदमी के लिये।"  सनातन पुत्र देवीदास विपुल खोजी
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