ब्रह्म ज्ञान
क्या है???
सनातनपुत्र देवीदास विपुल
"खोजी"
श्रीमद्भागवत महापुराण/स्कंध 02/अध्यायः
09 के अनुसार। जो बिल्कुल सत्य है। मैं अपने इस जीवन को सफल मानता हूं और अपने को बडभागी
कि जो प्रभु कृपा मुझे मिली। वह असीम और अनंत है। हे प्रभु ऐसी ही कृपा बनाये रखना।
क्योकि जब मुझे साकार से निराकार का अनुभव हुआ तो मैं भ्रमित होकर प्रमाण ढूढने लगा
कि ईश साकार है या निराकार। बाद में महसूस हुआ। वह दोनों है। आज मैं खुले रूप से कह
सकता हूं कि वास्तव में वे अपूर्ण ज्ञानी है जो सिर्फ साकार या सिर्फ निराकार बोल कर
बहस करते हैं। वास्तव में वे बिना अनुभव की या तो किताबी ज्ञान से दुकान चला रहे है या वह अल्प अनुभव लेकर धर्म की दुकान खोलकर बैठ गये।
आप भाग्वत का यह श्लोक देखें।
ज्ञानं परमगुह्मं में यद् विज्ञानसमंवितम्। सर्हस्यं तदंग
च गृहाण गदितं मया॥
इस श्लोक की व्याख्या स्व. जयदयाल गोयनका (गीताप्रेस, गोरखपुर) ने बहुत सुदर करते हुये कहा है।
“
ब्रह्मन! मेरे निर्गुण-निराकार सच्चिदानन्द स्वरूप के तत्व, प्रभाव, माहात्म्य का यथार्थ ज्ञान ही “ज्ञान” है।“
“मेरे सगुण-निराकार और दिव्य साकार-स्वरूप के लीला, गुण, प्रभाव,
तत्व, रहस्य और माहात्म्य का वास्त्विक ज्ञान ही
“विज्ञान” है।“
यह विज्ञानसहित ज्ञान समस्त गुह्य
और गुह्यतर विषयों से भी अतिशय गुह्या और गोपनीय है, इसी लिये यह परमगुह्य
है। सबसे बढकर गुप्त रखने योग्य है। ऐसे परम गोपनीय ज्ञान के साधनों का मैं रहस्य सहित
वर्णन करता हूं, तुम उसे धारण करो।
इदं तु ते गुह्रातमं प्रवक्ष्याम्यनसूयवे। ज्ञानं
विज्ञानसहितं यज्ज्ञात्वा मोक्ष्यसेऽशुभात्।9/1। गीता
तुझ
दोष दृष्टि रहित भक्त के लिये इस परम गोपनीय विज्ञान सहित ज्ञान को
पुन: भली-भाँति कहूँगा, जिसको जानकर तू दु:ख रूप संसार से
मुक्त हो जायेगा।
अपि चेत्सुदुराचारो भजते मामनन्यभाक्।साधुरेव से
मन्तव्य: सम्यग्व्यवसितो हि स:।9/30।
(भागवत)
यदि
कोई अतिशय दुराचारी भी अनन्य भाव से मेरा भक्त होकर मुझको भजता है तो वह साधु ही मानने योग्य है; क्योंकि
वह यथार्थ निश्चय वाला है। अर्थात् उसने भली-भाँति निश्चय कर लिया है कि परमेश्वर
भजन के समान अन्य कुछ भी नहीं है।
क्षिप्रं भवति धर्मात्मा शश्वच्छार्न्ति निगच्छति। कौन्तेय
प्रति जानीहि न मे भक्त: प्रणश्यति ।9/31। (भागवत)
वह
शीघ्र ही धर्मात्मा हो जाता है और सदा रहने वाली परम शान्ति को प्राप्त होता है ।
हे अर्जुन तू निश्चयपूर्वक सत्य जान कि मेरा भक्त नष्ट नहीं होता।
ब्रह्माजी द्वारा भगवान नारायण की स्तुति किए जाने पर
प्रभु ने उन्हें सम्पूर्ण भागवत – तत्त्व का उपदेश केवल चार श्लोकों में दिया था| वही मूल चतु:श्लोकी भागवत है|
अहमेवासमेवाग्रे नान्यद यत सदसत परम| पश्चादहं यदेतच्च योऽवशिष्येत
सोऽस्म्यहम ||१||
भावार्थ : सृष्टि से पूर्व केवल मैं ही था। सत, असत या उससे परे मुझसे भिन्न कुछ
नहीं था। सृष्टि न रहने पर (प्रलयकाल में
) भी मैं ही रहता हूँ। यह सब सृष्टिरूप भी मैं ही हूँ और जो कुछ इस सृष्टि,
स्थिति तथा प्रलय से बचा रहता है, वह भी मैं
ही हूँ।
इदं तु ते गुह्यतमं प्रवक्ष्याम्यनसूयवे। ज्ञानं
विज्ञानसहितं यज्ज्ञात्वा मोक्ष्यसेऽशुभात् ॥1॥
श्रीभगवान बोले—तुझ दोषदृष्टिरहित भक्तके लिये इस परम
गोपनीय विज्ञानसहित ज्ञानको पुनः भलीभाँति कहता हूँ, जिसको जानकर तू दुःखरूप संसारसे
मुक्त हो जयेगा।
ऋतेऽर्थ यत् प्रतीयेत न प्रतीयेत चात्मनि| तद्विद्यादात्मनो माया यथाऽभासो यथा
तम:|2|
भावार्थ : जो मुझ मूल तत्त्व को छोडकर प्रतीत होता है
और आत्मा में प्रतीत नहीं होता,
उसे आत्मा की माया समझो। जैसे (वस्तु का ) प्रतिबिम्ब अथवा अंधकार
(छाया) होता है।
यथा महान्ति भूतानि भूतेषूच्चावचेश्वनु| प्रविष्टान्यप्रविष्टानि तथा तेषु न
तेष्वहम ||3||
भावार्थ : जैसे पंचमहाभूत (पृथ्वी, जल, अग्नि,
वायु और आकाश) संसार के छोटे –बड़े सभी पदार्थो में प्रविष्ट होते
हुए भी उनमें प्रविष्ट नहीं हैं, वैसे ही मैं भी विश्व में
व्यापक होने पर भी उससे संपृक्त हूँ।
एतावदेव जिज्ञास्यं तत्त्वजिज्ञासुनाऽत्मन:। अन्वयव्यतिरेकाभ्यां
यत् स्यात् सर्वत्र सर्वदा||4||
भावार्थ : आत्मतत्त्व को जानने की इच्छा रखनेवाले के
लिए इतना ही जानने योग्य है की अन्वय (सृष्टि) अथवा व्यतिरेक (प्रलय) क्रम में जो
तत्त्व सर्वत्र एवं सर्वदा रहता है,
वही आत्मतत्त्व है।
एक बहुत बड़े विद्वान थे. वे एक बार कही जा रहे थे.
उनके साथ उनकी धार्मिक पुस्तके भी थी। वे रास्ते में एक पेड़ के नीचे छाया में बैठ
गये और पुस्तक का अध्ययन करने लगे। तभी अचानक डाकुओ ने उन्हें घेर लिया और विद्वान
से कहा- तुम्हारे पास जो कुछ भी है, हमारे हवाले कर दो, वरना जान से हाथ
धोना पड़ेगा।
विद्वान ने यह सुनकर कहा, ‘ मेरे पास कुछ नहीं है, सिर्फ किताबें है। डाकुओ ने कहा, ‘ तुम किताबो का थैला हमें दे दो. वे बिक जाएँगी. यह कहकर डाकुओ ने विद्वान
से थैला छीन लिया. विद्वान को किताबें लुट जाने का बड़ा
दुःख हुआ।
उन्होंने डाकुओ से कहा- ये किताबें मेरे बड़े काम की
है। जब मेरे सामने कभी कोई समस्या आती है तो उनका हल मैं इन्ही किताबो में देखता
हूँ। ये ज्ञान का भंडार है. इन किताबों को
बेचकर आपको बहुत कम पैसा मिलेगा, लेकिन मेरा बहुत बड़ा नुकसान हो जायेगा. जरुरत पड़ने पर मैं
किताब कैसे देखूंगा ? दया करके मेरी किताबें लौटा दीजिये।
डाकुओ का सरदार यह सुनकर जोरो से हंस पड़ा और किताबों
का बस्ता जमीन पर फेकते हुए बोला;
‘अरे तुम्हारा ऐसा ज्ञान किस काम का ? कि अगर
किताबें छीन जाय तो कुछ भी याद न रहे ! ले उठा ले अपना बस्ता, बड़ा ज्ञानी बना फिरता है।
ज्ञान तभी उपयोगी होता है जब वह किताबों से नहीं
बल्कि अपनी बुद्धि और विवेक से आता है। ऐसा ज्ञान भी किस काम का जो हमारे काम उसी
समय आएगा जब हम अपनी ज्ञान की किताब को खोलेंगे। आज स्कूल के बच्चे और कॉलेज के विद्यार्थी अपने
किताब और विषय को सिर्फ रटने की सोचते है और सिर्फ कक्षा को पास करने की सोचते है
जो उनके लिए बहुत ही घातक है।
दूसरे
शब्दों में निरपेक्ष सत्य की स्वानुभूति ही ज्ञान है। यह प्रिय-अप्रिय,
सुख-दु:ख इत्यादि भावों से निरपेक्ष होता है। इसका विभाजन विषयों के
आधार पर होता है। विषय पाँच होते हैं - रूप, रस, गंध, शब्द और स्पर्श।
ज्ञान
लोगों के भौतिक तथा बौद्धिक सामाजिक क्रियाकलाप की उपज;
संकेतों के रूप में जगत के वस्तुनिष्ठ गुणों और संबंधों, प्राकृतिक और मानवीय तत्त्वों के बारे में विचारों की अभिव्यक्ति है।
ज्ञान दैनंदिन तथा वैज्ञानिक हो सकता है। वैज्ञानिक ज्ञान आनुभविक और सैद्धांतिक
वर्गों में विभक्त होता है। इसके अलावा समाज में ज्ञान की मिथकीय, कलात्मक, धार्मिक तथा अन्य कई अनुभूतियाँ होती हैं।
सिद्धांततः सामाजिक-ऐतिहासिक अवस्थाओं पर मनुष्य के क्रियाकलाप की निर्भरता को
प्रकट किये बिना ज्ञान के सार को नहीं समझा जा सकता है। ज्ञान में मनुष्य की
सामाजिक शक्ति संचित होती है, निश्चित रूप धारण करती है तथा
विषयीकृत होती है। यह तथ्य मनुष्य के बौद्धिक कार्यकलाप की प्रमुखता और आत्मनिर्भर
स्वरूप के बारे में आत्मगत-प्रत्ययवादी सिद्धांतों का आधार है।
सामान्यतः
बोलचाल की भाषा में जानने का अर्थ ज्ञान से लिया जाता है। जानना या मालूम होना, ज्ञात होना आदि शब्दों को ज्ञान
के नजदीकी संबंध रखने वाले शब्द कहे जाते हैं। ज्ञान का स्वरूप प्रकाश में माना
गया है। ज्ञान का स्वरूप है किसी वस्तु को प्रकाशित करना। जिस प्रकार दीपक समीपस्थ
वस्तु को प्रकाशित करता है उसी प्रकार ज्ञान भी वस्तु को प्रकाशित करता है। तर्क
कौमुदी में कहा गया है, “अर्थ प्रकाशो बुद्धि”। वस्तु के
प्रकाश में ही ज्ञान निहित है। यहां पर यह कहना अप्रासंगिक नहीं होगा कि यह वस्तु
प्रकाशन यथार्थ और अयथार्थ दोनों ज्ञान में हो सकता है, ज्ञान
का कार्य ज्ञेय वस्तुओं को प्रकाशित करना है।
ज्ञान हमारे कार्य का आधार है । मनुष्य
सही या गलत ज्ञान के आधार पर ही कार्य करता है । ज्ञान आत्मा का गुण है।
ज्ञान के संबंध में निम्नलिखित बिंदुओं का स्मरण अपेक्षित है:- (1) ज्ञान वस्तु प्रकाश हैं। (2) ज्ञान हमारे व्यवहार का आश्रय है। (3) ज्ञान आत्मा का गुण है।
भारतीय
दर्शन में ज्ञान को मुख्यतः दो भागों में विभाजित किया गया है-
(1) अनुभव ज्ञान और (2) स्मृति में ज्ञान।
(1) अनुभव ज्ञान और (2) स्मृति में ज्ञान।
अनुभव ज्ञान वह है जिसे
इंद्रियों द्वारा प्रत्यक्ष किया जाता है, अनुभूत किया जाता
है और स्मृति ज्ञान वहां है जिसे अनुभूत पदार्थ के अभाव में स्मरण द्वारा जागृत
किया जाता है ।
भौतिक ज्ञान मुख्यतः तीन
प्रकार के होते हैं। (1) कौशलात्मक ज्ञान (2) परिचयात्मक
ज्ञान (3) तथ्यात्मक ज्ञान ।
प्राय: पाप-पुण्य के सबंध में प्रश्न उठा करते हैं।
विद्धानों का मानना है कि इनकी कोई निश्चित सर्वमान्य परिभाषा नहीं है। लोगों का
विश्वास है कि परिस्थितियां पाप को पुण्य में और पुण्य को पाप में बदल दिया करती
हैं।
बुरे कर्मो का पुंज पाप है और अच्छे कर्मो का संग्रह
पुण्य। भगवान वेदव्यास के अनुसार अठारह पुराणों का सार है-'परोपकाराय पुण्याय पापाय परपीडनम्।'
अर्थात परोपकार करने से पुण्य और परपीडन से पाप मिलता है। पुण्य का
पुरस्कार सुख है और पाप का दु:ख। अनुभूत तथ्य है कि संसारी मनुष्य का स्वभाव
विरोधाभासी है। वह पुण्य के सुखद फल की तो कामना करता है, किंतु
पुण्य कर्म नहीं करना चाहता- 'पुणस्य फलमिच्छन्ति नेच्छन्ति
पुण्य मानवा:।' इसी तरह वह पाप के फल को भोगने से बचता है,
किंतु बड़ी चतुराई से पाप कर्म करता रहता है- 'पापस्य
फलम् नेच्छन्ति पापं कुर्वन्ति यत्नत:।'
कर्म की प्रमुखत: तीन कोटियां हैं- सकाम कर्म, निष्काम कर्म और स्वभावज कर्म। कर्ता को उसी कर्म का फल
मिलता है, जिसको करने में उसकी स्वतंत्रेच्छा का हाथ होता
है। जो कर्म दबाव में कराया जाता है उसका फल कर्ता को नहीं भोगना पड़ता। तामसिक और
राजसिक कर्म 'सकाम कर्म' कहे जाते हैं।
चूंकि ये कर्म स्वेच्छा से किए गए वासनात्मक कर्म हैं, अत:
ऐसे कृत कर्म का दु:खद फल कर्ता को भोगना ही पड़ता है। मनुष्य भावनायुक्त प्राणी
है। भावना के बिना वह कर्म नहीं कर सकता है। वह चाहे अच्छा कर्म करे या बुरा कर्म।
हमारे शास्त्र मनुष्य से अपेक्षा करते हैं कि वे वासना और स्वार्थ से ऊपर उठकर
कर्तव्य भावना से प्रेरित होकर कर्म करें। यानी सदिच्छा या लोकसंग्रह की भावना से
प्रेरित होकर किया गया कर्म 'निष्काम कर्म' है। जैसे भुने हुए चने से अंकुर नहीं निकलता वैसे निष्काम कर्म से
पुनर्जन्म का अंकुर नहीं निकलता। पैर में गड़ा हुआ कांटा कष्ट देता है और निकालने
वाला कांटा पीड़ा से निजात दिलाता है। कांटा तो कांटा है। अन्त में दोनों को फेंक दिया
जाता है। तात्पर्यत: सात्विक कर्म से ही तामसिक और राजसिक कर्मो से छुटकारा मिलता
है और मुक्ति का मार्ग प्रशस्त होता है। यही त्रिगुणातीत अवस्था 'कर्म योग' है। जैसे सूर्य चाहकर भी अंधेरा नहीं फैला
सकता वैसे ही भगवान् के दिव्य शरीर से लोकसंग्रही कर्म बिना किसी प्रयत्न के सहज
ही निकलते रहते हैं।
जिस प्रकार सुबह के प्रकाश के लिए सूर्य को अंतरिक्ष
का वक्ष चीरना होता है, इसी प्रकार पुण्य की महिमा से दीक्षित होने के निमित्त, संभवत: हर क्षण पाप की ज्वाला से पिघलने की जरूरत होती है। जीवन पुण्य के
बिना संभव है, किंतु पाप की परछाई भी जीवन का स्पर्श करती
है।
समाज में रहकर हम परिवार को चलाने के लिए अनेक उद्यम करते हैं, किंतु कहां कितना पाप हो रहा है और कितना पुण्य, हम इसका लेखा-जोखा नहीं रखते। हमारा एकमात्र लक्ष्य धनार्जन होता है। यदि धन, झूठ और पाप से अर्जित है तो वह पेट में खप जाता है, किंतु पाप तो आपके पास संचित है। याद रहे पाप से अर्जित धन तो व्यय हो जाता है, लेकिन पाप व्यय नहीं होता।
यही बात पुण्य के संबंध में भी है। शास्त्र कहते हैं
जीव मात्र ही भूल करता है। ऐसा कौन है जो इससे बचा हो? जो इससे पृथक है वह मनुष्य नहीं
देवता है, किंतु जो पाप करके प्रायश्चित नहीं करता, वह दानव है। जब तक मनुष्य अज्ञानी है, तब तक पाप,
वासना व असत्य आदि उसके हृदय में उपस्थित रहते हैं। इसलिए तत्व
ज्ञान की प्राप्ति आवश्यक है। इसके अभाव में पाप वासना नहीं मिटती।
ज्ञान प्राप्ति से सभी भेद मिट जाते हैं और व्यक्ति
जन-कल्याणकारी कार्य में लग जाता है। इस अनुशासित जीवन से पाप-वासना से वह मुक्त
होकर, तपस्या,
ब्रह्मचर्य, इंद्रियों को वशीभूत करने,
स्थिर मति, दान, सत्य और
अंतर्मन की पवित्रता आदि से अतीत के पापों से मुक्त हो जाता है, लेकिन इसके लिए प्रभु में निष्कपट विश्वास रखना जरूरी है।
पुण्य प्राप्ति की अगली कड़ी है- आंतरिक शत्रुओं को पराजित
करने के लिए आत्मज्ञान की उपलब्धि। इससे ही तत्वज्ञान प्राप्त होते हैं। काम, क्रोध, मोह,
लोभ, मद, ईष्र्या-ये छह
शत्रु मन को उद्वेलित करते रहते हैं। इनका दमन करने पर मनुष्य दुख और पाप से मुक्त
हो जाता है। मन के भीतर झांकते ही प्रभु कृपा से इन शत्रुआें का नाश आरंभ हो जाता
है। हमें पुण्य प्राप्ति के लिए बस इतना करना है कि हम शास्त्र सम्मत ढंग से
जीवनयापन और धनार्जन करते हुए, लोक कल्याणकारी कायरें में
लगे रहें और अपने सभी कमरें को प्रभु आश्रित कर दें। यही पाप मुक्त होने का तरीका
है।
जब कोई व्यक्ति अध्यात्म या ध्यान के मार्ग पर चलने
लगता है और वह निरंतर उसी मार्ग पर चलता रहता है तो उसे उस मार्ग में जो
उपलब्धियां मिलती है उसे विद्वानों ने सांसारिक भाषा में पद और आध्यात्म की भाषा
में मोक्ष, मुक्ति या
समाधि की स्थितियां या ज्ञान कहा है।
ब्रह्मवैवर्त
पुराण अनुसार चार तरह के पद होते हैं:
1.ब्रह्मपद : यह सबसे बड़ा पद होता है। इस यह
अनिर्वचनीय और अव्यक्त कहा गया है। इस अवस्था में व्यक्ति ब्रह्मलीन हो जाता है।
3.विष्णुपद : सिद्धपद से बड़कर है विष्णुपद, जबकि सिद्धियों से बड़कर व्यक्ति मोक्ष की दशा में स्थित होकर स्थिरप्रज्ञ हो
जाता है।
4.परमपद : जब कोई साधना प्रारंभ करता है तो सबसे पहले वह सिद्ध बनता है। इस
सिद्धपद को ही परमपद कहते हैं।
1.भक्ति समाधि : भक्त के द्वारा व्यक्ति परमपद प्राप्त कर
लेता है।
2.योग समाधि : अष्टांग योग का पालन करके भी व्यक्ति परमपद प्राप्त कर सकता
है।
3.ज्ञान समाधि : ज्ञान अर्थात निर्विचार या साक्षी भाव में
रहकर भी व्यक्ति परमपद प्राप्त कर सकता है।
शैव मार्ग में समाधि के 6 प्रकार बताए गए हैं जिन्हें छह
मुक्ति कहा गया है:-
1.साष्ट्रि, (ऐश्वर्य), 2.सालोक्य (लोक की प्राप्ति), 3.सारूप (ब्रह्मस्वरूप), 4.सामीप्य, (ब्रह्म
के पास), 5.साम्य (ब्रह्म जैसी समानता), 6.लीनता या सायुज्य (ब्रह्म में लीन होकर ब्रह्म हो जाना)।
महर्षि पतंजलि ने समाधि, मुक्ति या पद को मुख्यत: दो प्रकार
में बांटा है:- 1. सम्प्रज्ञात और असम्प्रज्ञात।
1.सम्प्रज्ञात समाधि:- वैराग्य द्वारा योगी सांसारिक वस्तुओं
(भौतिक वस्तु) के विषयों में दोष निकालकर उनसे अपने आप को अलग कर लेता है और चित्त
या मन से उसकी इच्छा को त्याग देता है, जिससे मन एकाग्र होता
है और समाधि को धारण करता है। यह सम्प्रज्ञात समाधि कहलाता है।
2.असम्प्रज्ञात समाधि:- इसमें व्यक्ति को कुछ भान या ज्ञान
नहीं रहता। मन जिसका ध्यान कर रहा होता है उसी में उसका मन लीन रहता है। उसके
अतिरिक्त किसी दूसरी ओर उसका मन नहीं जाता। दरअसल यह अमनी दशा है।
संप्रज्ञात समाधि को 4 भागों में बांटा गया है:-
1.वितर्कानुगत समाधि:- सूर्य, चन्द्र,
ग्रह या राम, कृष्ण आदि मूर्तियों को, किसी स्थूल वस्तु या प्राकृतिक पंचभूतों की अर्चना करते-करते मन को उसी
में लीन कर लेना वितर्क समाधि कहलाता है।
2.विचारानुगत समाधि:- स्थूल पदार्थों पर मन को एकाग्र करने
के बाद छोटे पदार्थ, छोटे रूप, रस,
गन्ध, शब्द आदि भावनात्मक विचारों के मध्य से जो
समाधि होती है, वह विचारानुगत अथवा सविचार समाधि कहलाती है।
3.आनन्दानुगत समाधि:-आनन्दानुगत समाधि में विचार भी शून्य हो
जाते हैं और केवल आनन्द का ही अनुभव रह जाता है।
4.अस्मितानुगत समाधि:- अस्मित अहंकार को कहते हैं। इस प्रकार की समाधि में आनन्द भी नष्ट हो जाता
है। इसमें अपनेपन की ही भावनाएं रह जाती है और सब भाव मिट जाते है। इसे अस्मित
समाधि कहते हैं। इसमें केवल अहंकार ही रहता है। पतांजलि इस समाधि को सबसे उच्च
समाधि मानते हैं।
आत्म-ज्ञान
है स्वयं को आत्मा के रूप में जानना और उससे तादात्म्य महसूस करना। अद्वैत ज्ञान
है परमात्मा के विस्तार के रूप में आत्मसत्ता का ज्ञान। कैवल्य ज्ञान यानी ब्रह्म
की अपनी आत्मा के विस्तार के रूप में अनुभूति। निर्वाण ज्ञान है परमानंद के रूप
में एक ही सत्ता का बोध। परमपद है परम विश्राम। संबोधि के इन पांच सोपानों की
व्याख्या कर रहे हैं।
बोधि
के पांच सोपान हैं- आत्म-ज्ञान, अद्वैतज्ञान,
कैवल्य ज्ञान, निर्वाण ज्ञान और परम पद।
आत्म-ज्ञान
आत्म-ज्ञान की घोषणा है- 'अयमात्मा ब्रह्म।' अर्थात् मैं आत्मा हूं और यह आत्मा ही ब्रह्म है। मंसूर इसे ही कहता है- 'अनलहक।' अर्थात मैं सत्य हूं। अथवा वेद के महावाक्यों का अनुभव।
आत्म-ज्ञान की घोषणा है- 'अयमात्मा ब्रह्म।' अर्थात् मैं आत्मा हूं और यह आत्मा ही ब्रह्म है। मंसूर इसे ही कहता है- 'अनलहक।' अर्थात मैं सत्य हूं। अथवा वेद के महावाक्यों का अनुभव।
स्वयं
को चैतन्य के रूप में जानें। चैतन्य से तादात्म्य बनाएं। मैं केवल चैतन्य हूं। बोध
हूं। अष्टावक्र कहते हैं- 'एको
विशुद्ध बोधोहम् इति निश्चिवह्निना, प्रज्ज्वाल्या
अज्ञानगहनम् वीतशोको सुखी भव।' अर्थात् 'मैं विशुद्ध बोध हूं। यह निश्चय, यह बोध ही अज्ञानता
से, जीवन के अतीत के शोकों से मुक्त कर सकता है।' देह से तादात्म्य टूटते ही उसी क्षण सुख, शांति और मुक्ति
का अनुभव होता है। यह चेतन अंत:आकाश ही हमारी आत्मा है। मैं चैतन्य आत्मा हूं,
यही आत्म-ज्ञान है।
अद्वैत
अद्वैत है- 'सोहम्।' यह स्वयं के अद्वैत की घोषणा है। यहां बूंद कह रही है सागर से कि मैं तेरा ही विस्तार हूं। अद्वैत के मयखाने में परम तत्व को जो पीता है, वही कह सकता है- जो तू है, वही मैं हूं। यही अद्वैत की घोषणा है। मेरा अस्तित्व, मेरी आत्मा उस परमपिता अर्थात् परमात्मा के हिस्से हैं। बस तू ही तू।
अद्वैत है- 'सोहम्।' यह स्वयं के अद्वैत की घोषणा है। यहां बूंद कह रही है सागर से कि मैं तेरा ही विस्तार हूं। अद्वैत के मयखाने में परम तत्व को जो पीता है, वही कह सकता है- जो तू है, वही मैं हूं। यही अद्वैत की घोषणा है। मेरा अस्तित्व, मेरी आत्मा उस परमपिता अर्थात् परमात्मा के हिस्से हैं। बस तू ही तू।
कैवल्य
कैवल्य ज्ञान की घोषणा है- 'अहं ब्रह्मास्मि।' यह स्वयं के बारे में घोषणा है। यहां ऋषि कह रहा है कि मेरा ही विस्तार पूरी सृष्टि है। मेरा ही विस्तार यह पूरा ब्रह्म है। जैसे एक बूंद कहे कि मेरा ही विस्तार सागर है।
कैवल्य ज्ञान की घोषणा है- 'अहं ब्रह्मास्मि।' यह स्वयं के बारे में घोषणा है। यहां ऋषि कह रहा है कि मेरा ही विस्तार पूरी सृष्टि है। मेरा ही विस्तार यह पूरा ब्रह्म है। जैसे एक बूंद कहे कि मेरा ही विस्तार सागर है।
कैवल्य का अर्थ है- ऐसा क्षण आ जाए चेतना में, जब मैं एकदम अकेला होऊं, लेकिन मुझे अकेलापन न लगे। एकाकी हो जाऊं, फिर भी मुझे दूसरे की अनुपस्थिति पता न चले। इस भांति हो जाऊं कि मेरे होने में ही सब समा जाए। मेरा होना ही पूर्ण हो जाए। 'मैं ही मैं बचा। अब तू भी नहीं रहा।' यही कैवल्य ज्ञान है।
निर्वाण
निर्वाण ज्ञान की घोषणा है- 'हरि ओम् तत् सत्' अर्थात् ओंकार स्वरूप गोविंद ही सत्य है। जैसे फैलता हुआ महानगर एक गांव को अपने में समेट कर विराट कर देता है; वैसे ही असीम परमात्मा, आत्मा को स्वयं में मिला कर विराट कर लेता है। जहां बोध होता है कि न मैं, न तू, बस भगवतसत्ता है। ज्ञान मात्र ही शेष रह जाता है- 'निष्केवलज्ञानम्'। न ज्ञाता बचता है, न ज्ञेय। सिर्फ बीच में जो चेतना की जीवंत धारा है, ज्योति है, वही बच जाती है।
निर्वाण ज्ञान की घोषणा है- 'हरि ओम् तत् सत्' अर्थात् ओंकार स्वरूप गोविंद ही सत्य है। जैसे फैलता हुआ महानगर एक गांव को अपने में समेट कर विराट कर देता है; वैसे ही असीम परमात्मा, आत्मा को स्वयं में मिला कर विराट कर लेता है। जहां बोध होता है कि न मैं, न तू, बस भगवतसत्ता है। ज्ञान मात्र ही शेष रह जाता है- 'निष्केवलज्ञानम्'। न ज्ञाता बचता है, न ज्ञेय। सिर्फ बीच में जो चेतना की जीवंत धारा है, ज्योति है, वही बच जाती है।
निर्वाण ज्ञान में व्यक्तिगत और समष्टिगत भेद भी नहीं है। केवल शून्य रह गया। अद्वैत ज्ञान में बूंद सागर तक गई। कैवल्य ज्ञान में सागर बूंद तक आया। निर्वाण ज्ञान में अब 'जाना कहां रे।' न बूंद सागर की तरफ जाए, न सागर बूंद की तरफ आए। इस ज्ञान का, निर्वाण का परिणाम ही परम विश्राम होता है।
आध्यात्मिक यात्रा में कई पड़ाव आते हैं। आखिरी पड़ाव 'परमपद' की घोषणा है-
'ईशावस्यमिदम् सर्वम्।' परमपद में हम परमात्मा
को अचल पुरुष के रूप में जानते हैं। कई संतों ने इस मुकाम के विषय में संकेत दिए
हैं। बिहार के दरिया साहेब कहते हैं-'वोए निरगुन गुन रहित अचल है पार ब्रह्म वोए पारा।।' अर्थात
वह प्रभु निर्गुण है, अचल है, पार-ब्रह्म
के भी पार है।
गोरखनाथ कहते हैं- 'हंसे खेलै न करै मनभंग, ते निहचल सदा नाथ के संग।।' अर्थात जो अक्षोभ एवं आनंदित होकर लीलाभाव में जीता है, वह संत सदा अचल पुरुष के साथ रहता है।
नामदेव
कहते हैं- 'कोई एक हरिजन ऊबरे, जिनि
सुमिरया निहचल राम।।' अर्थात अचल ब्रह्म के सुमिरन में जीने
वाला संत ही भवसागर को पार कर पाता है।
कबीर कहते हैं- 'सुन्न सिखर के सार सिला पर, आसन अचल जमावै। भीतर रहा सो बाहर देखै, दूजा दृष्टि न आवै।' अर्थात शून्य गगन में ओंकार की शिला पर बैठ कर जो अचलब्रह्म के सुमिरन में थिर हो जाता है, उसके लिए बाहर-भीतर का भेद मिट जाता है। परमात्मा के अतिरिक्त उसे कोई दूसरा नजर नहीं आता। इस मुकाम पर मुनियों के लिए भी पहुंचना कठिन है।
दादू साहेब कहते हैं-'निहचल सदा, चलै नहिं कबहूं, देख्या सब में सोई।।' यानी जो अचलपुरुष के सुमिरन में सदा थिर रहता है, वही सर्वव्यापी परमात्मा का दीदार कर पाता है।
कबीर कहते हैं- 'सुन्न सिखर के सार सिला पर, आसन अचल जमावै। भीतर रहा सो बाहर देखै, दूजा दृष्टि न आवै।' अर्थात शून्य गगन में ओंकार की शिला पर बैठ कर जो अचलब्रह्म के सुमिरन में थिर हो जाता है, उसके लिए बाहर-भीतर का भेद मिट जाता है। परमात्मा के अतिरिक्त उसे कोई दूसरा नजर नहीं आता। इस मुकाम पर मुनियों के लिए भी पहुंचना कठिन है।
दादू साहेब कहते हैं-'निहचल सदा, चलै नहिं कबहूं, देख्या सब में सोई।।' यानी जो अचलपुरुष के सुमिरन में सदा थिर रहता है, वही सर्वव्यापी परमात्मा का दीदार कर पाता है।
दूलनदास
कहते हैं- 'यह नर-देही हाथ न आवै, चल तू अपने धाम। अब की चूक माफ नहिं होगी, दूलन अचल
मुकाम।।' अर्थात मनुष्य की देह जल्दी नहीं मिलती। इसे पाकर
अपने धाम को चलो। इस बार अगर चूके तो तुम्हारा अपराध क्षमा नहीं होगा। अचल मुकाम (परम
पद) ही हमारा असली गंतव्य है।
सारांश में अपने को जानो और ईश के साकार से निराकार रूप
की अनुभुति अनुभव प्राप्त करने की कोशिश करो। यही अन्तिम है और सत्य ज्ञान है। जो परमपद
स्वत: दे देगा। ब्रह्म को जान गये तो ब्रह्मज्ञान तो बोनस ही है।
जय महाकाली गुरूदेव।
(तथ्य कथन गूगल साइट्स इत्यादि से साभार)
"MMSTM समवैध्यावि ध्यान की वह आधुनिक
विधि है। कोई चाहे नास्तिक हो आस्तिक हो, साकार, निराकार कुछ भी हो बस पागल और हठी
न हो तो उसको ईश अनुभव होकर रहेगा बस समयावधि कुछ बढ सकती है। आपको प्रतिदिन लगभग
40 मिनट देने होंगे और आपको 1 दिन से लेकर 10 वर्ष का समय लग सकता है। 1 दिन उनके
लिये जो सत्वगुणी और ईश भक्त हैं। 10 साल बगदादी जैसे हत्यारे के लिये। वैसे 6
महीने बहुत है किसी आम आदमी के लिये।" सनातन पुत्र देवीदास विपुल खोजी
ब्लाग :
https://freedhyan.blogspot.com/
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