योग व
योगी के स्तर और अनुभव
सनातनपुत्र देवीदास विपुल
"खोजी"
विपुल सेन उर्फ विपुल “लखनवी”,
(एम . टेक. केमिकल इंजीनियर) वैज्ञानिक
एवं कवि
सम्पादक : विज्ञान त्रैमासिक हिन्दी जर्नल
“वैज्ञनिक” ISSN
2456-4818
वेब: vipkavi.info वेब चैनल: vipkavi
फेस बुक: vipul luckhnavi
“bullet"
प्रायः
लोग योग का अर्थ पेट को पिचकाना या कलाबाजी खाना या सर्कस के नट की तरह छलांगे
मारना ही समझते है। इसमें योग की कोई गलती नही है जिनको नही पता उनको यही सब योग
के नाम पर बताया जा रहा है इसमें उनकी क्या गलती है। कारण स्पष्ट है जो बोल रहे है
उनको खुद नही पता योग क्या है बस सुना है तो कह रहे है और सिखा रहे हैं।
बिना
योग का अनुभव किये योग को जानना मुश्किल है उसी भांति अनुभव के बाद भी उसको समझाना
भी दुरुह। कारण स्पष्ट है क्योकिं आप शरीर की एक इंद्री का वर्णन दूसरी इंद्री से
कैसे कर सकते हैं। जैसे सुगंध का अनुभव नासिका से होता है उसे आप मुख शब्द रूप में
एक सीमा तक ही समझा सकते हैं। आपके पेट में कैसा दर्द है या कैसी प्रसन्नता है आप
कैसे व्यक्त कर समझा सकते हैं। बस कुछ इसी प्रकार मात्र बौद्धिक विलासता हेतु तमाम
लेख लिख डाले गये। वहीं आपको यदि अनुभव हो जाये तो एक क्षण में सब स्पष्ट। इसी
लिये अष्टाबृक ने राजा जनक से कहा कि तुम मुझे पहले ही गुरू दक्षिणा दे दो। क्योकि
जितना समय एक घुडसवार को अपना एक पैर रकाब (घोड़े की काठी का झूलता पावदान) पर रखकर दूसरी रकाब पर रखने में लगता है मात्र इतने ही समय में तुम योगी
होकर ब्रह्मज्ञानी हो जाओगे। तब तुम मुझमें और अपने में भेद न कर सकोगे। इस अवस्था
में तुम मुझे दक्षिणा न दे पाओगे।
सत्य वह जो समय के साथ
परिवर्तित न हो। असत्य वो जो परिवर्तित हो जाये। यह शरीर असत्य पर आत्मा सत्य। अब
अपनी आत्मा को पहचानना शब्दो मे नही अनुभूति कर जिसे आत्म साक्षात्कार कहते है। अब
आत्मा ही परमात्मा है। यानि योग की अनुभूति। वेदान्त महावाक्य है आत्मा में
परमात्मा की सायुज्यता का अनुभव ही योग है। यह योग हमे परमसत्ता का अंश है आत्मा
यह अनुभूति देता है। जब अहम्ब्रह्मास्मि की अनुभूति होती है तो हमे अद्वैत का
अनुभव होता है। कुल मिलाकर यह अनुभव कर लेना कि मैं उस परमसत्ता का अंश हूँ। उससे
अलग नही। यह शरीर यह आत्मा अलग है। सुख दुख शरीर भोग रहा है मैं नही। मैं उस
परमसत्ता के अनुसार ही चल रहा हूँ। वो ही सब करता है। मैं कुछ नही। यह अनुभूतिया
हमे ज्ञान देती है। यही ज्ञान और अनुभव
होना योग है।
सार: सबसे पहले वेदांत ने साधारण रूप में समझाया। जब किसी भी अंतर्मुखी
विधि को करते करते "(तुम्हारी) आत्मा में
परमात्मा की एकात्मकता का अनुभव हो" तो
समझो योग हुआ। मेरे विचार से जब "द्वैत से
अद्वैत का अनुभव हो तो समझो योग" ।
योग में होता क्या है??
इस बात को वेदों के चार महावाक्य और एक सार वाक्य से
समझें। यदि इनमें से कोई भी अनुभव आपको हो जाये तो समझें योग घटित हो गया।
कृष्ण यजुर्वेदीय
उपनिषद "शुकरहस्योपनिषद " में महर्षि व्यास
के आग्रह पर भगवान शिव उनके पुत्र शुकदेव को चार महावाक्यों का उपदेश 'ब्रह्म रहस्य' के रूप में देते हैं। वे चार महावाक्य ये हैं:
(महावाक्य का अर्थ होता है कि अगर इस
एक वाक्य को भी पकड़ कर कोई पूरा अनुसंधान कर ले, तो जीवन की परम स्थिति को उपलब्ध हो जाए। इसलिए इसको महावाक्य कहते हैं)
1. अहं ब्रह्मास्मि -
"मैं ब्रह्म हुँ" ( बृहदारण्यक उपनिषद १/४/१० - यजुर्वेद)
इस महावाक्य का अर्थ है- 'मैं ब्रह्म हूं।' यहाँ 'अस्मि'
शब्द से ब्रह्म और जीव की एकता का बोध होता है। जब जीव परमात्मा का
अनुभव कर लेता है, तब वह उसी का रूप हो जाता है। दोनों के
मध्य का द्वैत भाव नष्ट हो जाता है। उसी समय वह 'अहं
ब्रह्मास्मि' कह उठता है।
2. तत्वमसि - "वह ब्रह्म तु है" (छान्दोग्य उपनिषद ६/८/७- सामवेद)
तत्त्वमसि का अर्थ है, वह तू ही है। वह दूर नहीं है, बहुत पास है, पास से भी ज्यादा पास है। तेरा होना ही वही है। यह महावाक्य है। इस
महावाक्य का अर्थ है-'वह ब्रह्म तुम्हीं हो।' सृष्टि के जन्म से पूर्व, द्वैत के अस्तित्त्व से
रहित, नाम और रूप से रहित, एक मात्र
सत्य-स्वरूप, अद्वितीय 'ब्रह्म'
ही था। वही ब्रह्म आज भी विद्यमान है। उसी ब्रह्म को 'तत्त्वमसि' कहा गया है। वह शरीर और इन्द्रियों में
रहते हुए भी, उनसे परे है। आत्मा में उसका अंश मात्र है। उसी
से उसका अनुभव होता है, किन्तु वह अंश परमात्मा नहीं है। वह
उससे दूर है। वह सम्पूर्ण जगत में प्रतिभासित होते हुए भी उससे दूर है।
3. अयम् आत्मा ब्रह्म:"यह आत्मा ब्रह्म है"(माण्डूक्य उपनिषद १/२ - अथर्ववेद )
इस महावाक्य का अर्थ है- 'यह आत्मा ब्रह्म है।' उस स्वप्रकाशित परोक्ष
(प्रत्यक्ष शरीर से परे) तत्त्व को 'अयं'
पद के द्वारा प्रतिपादित किया गया है। अहंकार से लेकर शरीर तक को
जीवित रखने वाली अप्रत्यक्ष शक्ति ही 'आत्मा' है। वह आत्मा ही परब्रह्म के रूप में समस्त प्राणियों में विद्यमान है।
सम्पूर्ण चर-अचर जगत में तत्त्व-रूप में वह संव्याप्त है। वही ब्रह्म है। वही
आत्मतत्त्व के रूप में स्वयं प्रकाशित 'आत्मतत्त्व' है।
4. प्रज्ञानं ब्रह्म
- "वह प्रज्ञानं ही ब्रह्म है" ( ऐतरेय उपनिषद १/२ -
ऋग्वेद)
यह हिंदू शास्त्र 'ऋग्वेद' का 'महावाक्य' है, जिसका शाब्दिक अर्थ है - "ज्ञान ही ब्रह्म
है"। चार वेदों में चार महावाक्य
है। इस महावाक्य का अर्थ है- 'प्रकट ज्ञान
ब्रह्म है।' वह ज्ञान-स्वरूप ब्रह्म जानने योग्य है और ज्ञान
गम्यता से परे भी है। वह विशुद्ध-रूप, बुद्धि-रूप, मुक्त-रूप और अविनाशी रूप है। वही सत्य, ज्ञान और
सच्चिदानन्द-स्वरूप ध्यान करने योग्य है। उस महातेजस्वी देव का ध्यान करके ही हम 'मोक्ष' को प्राप्त कर सकते हैं। वह परमात्मा सभी
प्राणियों में जीव-रूप में विद्यमान है। वह सर्वत्र अखण्ड विग्रह-रूप है। वह हमारे
चित और अहंकार पर सदैव नियन्त्रण करने वाला है। जिसके द्वारा प्राणी देखता,
सुनता, सूंघता, बोलता और
स्वाद-अस्वाद का अनुभव करता है, वह प्रज्ञान है। वह सभी में
समाया हुआ है। वही 'ब्रह्म' है।
और यदि सार वाक्य का अनुभव हुआ तो समझो
तुमको पूर्ण ब्रह्म ज्ञान प्राप्त हो गया।
सर्वं खल्विदं
ब्रह्मम् : "सर्वत्र ब्रह्म ही है" (छान्दोग्य
उपनिषद ३/१४/१- सामवेद)
सर्वं खल्विदं ब्रह्म नेह नानास्ति
किंचन॥
सर्वं खल्विदं ब्रह्म तज्जलानिति शान्त
उपासीत।
अथ खलु क्रतुमयः पुरुषो यथाक्रतुरस्मिँल्लोके।
पुरुषो भवति तथेतः प्रेत्य भवति स क्रतुं कुर्वीत॥
अथ खलु क्रतुमयः पुरुषो यथाक्रतुरस्मिँल्लोके।
पुरुषो भवति तथेतः प्रेत्य भवति स क्रतुं कुर्वीत॥
"दीखने वाला जगत
आनंद से ही उत्पन्न हुआ है, उसी आनंद से ही स्थित हो
रहा है और उस आनंद में ही लीन होता है इस तरह उल्लिखित आनंद से (जगत) भिन्न कैसे
हो सकता है।।"
राजा, वामदेव जी के चरणों को प्रणाम कर बोले,"सर्वं खल्विदं ब्रह्म का क्या अर्थ है! इस महावाक्य का क्या प्रयोजन है ? क्या यह मुँह से बोलने का ही वाक्य है या सब ब्रह्ममय है। समाधान के लिए स्थिर बुद्धि से देखना है कि सारा जगत ब्रह्म से ही पैदा हुआ है, ब्रह्म में ही रमता है और लय होता है आदि भी ब्रह्म और अंत भी ब्रह्म है तथा इसी से कहते हैं कि वह ब्रह्मरूप अथवा ब्रह्ममय है। मूल रूप से देखने से ब्रह्म एक है।
यह ब्रह्म ही सबकुछ है । यह समस्त
संसार उत्पत्तिकाल में इसी से उत्पन्न हुआ है, स्थिति काल में इसी से प्राण रूप अर्थात जीवित है और अनंतकाल में इसी में
लीन हो जायेगा। ऐसा ही जान कर उपासक को शांतचित्त और रागद्वेष रहित होकर परब्रह्म
की सदा उपासना करे। जो मृत्यु के पूर्व जैसी उपासना करता है, वह जन्मांतर वैसा ही हो जाता है।
सार: अब ऊपर
दिये चार योगिय अनुभव ब्रह्म के अलग रूपों में स्थित होने का अनुभव कराते हैं।
किंतु पांचवा सार अनुभव ऊपर के चारों अनुभवों को एक साथ ही करा देता है। किसी
घटनीय अनुभव का समयकाल कुछ क्षणों से लेकर लम्बे समय तक हो सकता है। जो आपके स्तर
को इंगित करता है। भले ही यह अनुभव कुछ क्षणों का हो पर यह अनुभव जीवन भर याद रहता
है। इसी भाव में लीन रहने का समय घटता बढता रहता है। जो मानव के योग रूप में स्थिर
होने के भाव और समय के अनुसार योगी को गिराता और उठाता है। यदि मनुष्य पातांजलि
महाराज के पाचों वाहिक अंगो के उप अंगों का निर्वाह जीवन भर कर लेता है और सार
महावाक्य का भी अनुभव प्राप्त कर लेता है तो वह ब्रह्म स्वरूप हो जाता है और सिद्धियां
उससे स्वयं स्वीकार करने की प्रार्थना करती है। पर यह
बेहद कठिन होता है। स्वामी विष्णुतीर्थ जी महाराज ने ब्रह्म
स्वरूप का पद प्राप्त कर लिया था।
कठिन क्यों होता है। क्योकि इनमें एक भी
अनुभव होने पर मानव बलबला उठता है। उसके अंदर ज्ञान बांटने की इच्छा बलवती हो जाती
है। धीरे धीरे वह गुरू बन कर धर्म की दुकान खोल लेता है। बिना परम्परा के और गुरू
आदेश के बिना गुरू पद का कार्य बेहद दुष्कर होता है। फिर मनुष्य आश्रम और चेलों को
गिनने लगता है और फिर वह इन्ही में लिप्त होकर कब संसारिक बंधनों के पाश में फंस गया
मालूम ही नहीं पडता है। धीरे धीरे उसकी साधना का फ्ल और पूंजी क्षीण होने लगती है
वह जब गर्त में गिरता है तो समझ में आता है।
ध्यायतो विषयान्पुंसः संगस्तेषूपजायते।
संगात्संजायते कामः कामात्क्रोधोऽभिजायते।62।
विषयों का चिन्तन करने वाले पुरुष की उन विषयों में आसक्ति हो जाती है, आसक्ति से उन विषयों की कामना उत्पन्न होती है और कामना में विघ्न पड़ने से क्रोध उत्पन्न होता है।
संगात्संजायते कामः कामात्क्रोधोऽभिजायते।62।
विषयों का चिन्तन करने वाले पुरुष की उन विषयों में आसक्ति हो जाती है, आसक्ति से उन विषयों की कामना उत्पन्न होती है और कामना में विघ्न पड़ने से क्रोध उत्पन्न होता है।
क्रोधाद्भवति सम्मोहः सम्मोहात्स्मृतिविभ्रमः।
स्मृतिभ्रंशाद् बुद्धिनाशो बुद्धिनाशात्प्रणश्यति। 63।
क्रोध से अत्यन्त मूढ़ भाव उत्पन्न हो जाता है, मूढ़ भाव से स्मृति में भ्रम हो जाता है, स्मृति में भ्रम हो जाने से बुद्धि अर्थात ज्ञानशक्ति का नाश हो जाता है और बुद्धि का नाश हो जाने से यह पुरुष अपनी स्थिति से गिर जाता।
स्मृतिभ्रंशाद् बुद्धिनाशो बुद्धिनाशात्प्रणश्यति। 63।
क्रोध से अत्यन्त मूढ़ भाव उत्पन्न हो जाता है, मूढ़ भाव से स्मृति में भ्रम हो जाता है, स्मृति में भ्रम हो जाने से बुद्धि अर्थात ज्ञानशक्ति का नाश हो जाता है और बुद्धि का नाश हो जाने से यह पुरुष अपनी स्थिति से गिर जाता।
अत: यदि अपना भला चाहते हो तो गुरू पद की
लालसा त्यागो। बिना गुरू आज्ञा के इस पद के विषय में सोंचना मत। हो सकें तो विनय
पूर्वक मना कर देना। सत्वगुण सबसे बडी
रुकावट होती है। समत्व के मार्ग में।
योग हुआ कैसे जानें:
मनुष्य स्वयं का सबसे बडा निर्णायक है। अत: योग हुआ कि नहीं पातांजलि
महाराज के योग शास्त्र के दूसरे वाक्य से जानो। (चित्तवृत्तिनिरोधः)
“चित्त
में वृत्ति का निरोध्। मतलब क्या तुम्हारे अंदर किसी कार्य के प्रति आसक्ति पैदा
होती है। क्या तुम कर्मफल के प्रति चिंतित हो। चिंतित हो तो कितने समय तक या कितने
प्रतिशत। मतलब यदि बिल्कुल नहीं तो योगी हो। यदि थोडा भी तो आंशिक या समयकालिक
योगी हो।
इसकी वाहिक पहिचान को भगवद गीता में
बताया है। जब मनुष्य में समत्व, स्थिर बुद्धि और स्थितप्रज्ञ
के लक्षण दिखे तो समझो वह योगी है। वहीं पातांजलि महाराज के अष्टांग योग के तीन वाहिक
लक्षण दिखे तो समझो वह योगी है। जो हैं यम, नियम, प्रत्याहार के उपांग।
1. समत्व
का होना। इसको गीता के अध्याय—13
से समझा जा सकता है।
असक्तिरभिष्वङ्ग:
पुत्रदारगृहादिषु। नित्यं च समीचत्तत्वमिष्टानिष्टोययीत्तषु।9।
मयि चानन्ययोगेन
भाक्तईरव्यभिचारिणी। विविक्तदेशसोईख्वमरतिर्जनसंसदि।10।
अध्यात्मज्ञाननित्यन्वं
तत्वज्ञानार्थदर्शनम् । एतज्ज्ञानीमिति प्रोक्तमज्ञानं यदतोउन्यथा।11।
तथा पुत्र,
स्त्री, घर और धनादि में आसक्ति का अभाव और
ममता का न होना तथा प्रिय—अप्रिय की प्राप्ति में सदा ही मिल का सम रहना अर्थात मन
के अनुकूल और प्रतिकूल के प्राप्त होने पर हर्ष— शोकादि विकारों का न होना। और मुझ
परमेश्वर में एकीभाव से स्थितिरूप ध्यान— योग के द्वारा अव्यभिचारिणी भक्ति तथा
एकांत और शुद्ध देश में रहने का स्वभाव और विषयासक्त मनुष्यों के समुदाय में अरति,
प्रेम का न होना।
2, स्थिर बुद्धि / स्थित
प्रज्ञ: इस बात को श्रीमदभग्वद गीता के दूसरे अध्याय में बताया गया है।
अर्जुन उवाच: स्थितप्रज्ञस्य का
भाषा समाधिस्थस्य केशव। स्थितधीः किं प्रभाषेत किमासीत व्रजेत किम्।54। अर्जुन बोले हे केशव परमात्मामें स्थित स्थिर बुद्धिवाले मनुष्यके क्या
लक्षण होते हैं वह स्थिर बुद्धिवाला मनुष्य कैसे बोलता है कैसे बैठता है और कैसे
चलता है।
श्रीभगवानुवाच : प्रजहाति यदा कामान्
सर्वान्पार्थ मनोगतान्।
आत्मयेवात्मना तुष्टः स्थितप्रज्ञस्तदोच्यते।55।
श्री भगवान् बोले- हे अर्जुन! जिस काल में यह पुरुष मन में स्थित सम्पूर्ण कामनाओं को भलीभाँति त्याग देता है और आत्मा से आत्मा में ही संतुष्ट रहता है, उस काल में वह स्थितप्रज्ञ कहा जाता है।
आत्मयेवात्मना तुष्टः स्थितप्रज्ञस्तदोच्यते।55।
श्री भगवान् बोले- हे अर्जुन! जिस काल में यह पुरुष मन में स्थित सम्पूर्ण कामनाओं को भलीभाँति त्याग देता है और आत्मा से आत्मा में ही संतुष्ट रहता है, उस काल में वह स्थितप्रज्ञ कहा जाता है।
दुःखेष्वनुद्विग्नमनाः सुखेषु विगतस्पृहः।
वीतरागभयक्रोधः स्थितधीर्मुनिरुच्यते ।56।
दुःखों की प्राप्ति होने पर जिसके मन में उद्वेग नहीं होता, सुखों की प्राप्ति में सर्वथा निःस्पृह है तथा जिसके राग, भय और क्रोध नष्ट हो गए हैं, ऐसा मुनि स्थिरबुद्धि कहा जाता है।
वीतरागभयक्रोधः स्थितधीर्मुनिरुच्यते ।56।
दुःखों की प्राप्ति होने पर जिसके मन में उद्वेग नहीं होता, सुखों की प्राप्ति में सर्वथा निःस्पृह है तथा जिसके राग, भय और क्रोध नष्ट हो गए हैं, ऐसा मुनि स्थिरबुद्धि कहा जाता है।
यः सर्वत्रानभिस्नेहस्तत्तत्प्राप्य शुभाशुभम्।
नाभिनंदति न द्वेष्टि तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता।57।
जो पुरुष सर्वत्र स्नेहरहित हुआ उस-उस शुभ या अशुभ वस्तु को प्राप्त होकर न प्रसन्न होता है और न द्वेष करता है, उसकी बुद्धि स्थिर है।
नाभिनंदति न द्वेष्टि तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता।57।
जो पुरुष सर्वत्र स्नेहरहित हुआ उस-उस शुभ या अशुभ वस्तु को प्राप्त होकर न प्रसन्न होता है और न द्वेष करता है, उसकी बुद्धि स्थिर है।
यदा संहरते चायं कूर्मोऽङ्गनीव सर्वशः।
इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेभ्यस्तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता।58।
और कछुवा सब ओर से अपने अंगों को जैसे समेट लेता है, वैसे ही जब यह पुरुष इन्द्रियों के विषयों से इन्द्रियों को सब प्रकार से हटा लेता है, तब उसकी बुद्धि स्थिर है।
इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेभ्यस्तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता।58।
और कछुवा सब ओर से अपने अंगों को जैसे समेट लेता है, वैसे ही जब यह पुरुष इन्द्रियों के विषयों से इन्द्रियों को सब प्रकार से हटा लेता है, तब उसकी बुद्धि स्थिर है।
विषया विनिवर्तन्ते निराहारस्य देहिनः।
रसवर्जं रसोऽप्यस्य परं दृष्टवा निवर्तते।59।
इन्द्रियों द्वारा विषयों को ग्रहण न करने वाले पुरुष के भी केवल विषय तो निवृत्त हो जाते हैं, परन्तु उनमें रहने वाली आसक्ति निवृत्त नहीं होती। इस स्थितप्रज्ञ पुरुष की तो आसक्ति भी परमात्मा का साक्षात्कार करके निवृत्त हो जाती है।
रसवर्जं रसोऽप्यस्य परं दृष्टवा निवर्तते।59।
इन्द्रियों द्वारा विषयों को ग्रहण न करने वाले पुरुष के भी केवल विषय तो निवृत्त हो जाते हैं, परन्तु उनमें रहने वाली आसक्ति निवृत्त नहीं होती। इस स्थितप्रज्ञ पुरुष की तो आसक्ति भी परमात्मा का साक्षात्कार करके निवृत्त हो जाती है।
यततो ह्यपि कौन्तेय पुरुषस्य विपश्चितः।
इन्द्रियाणि प्रमाथीनि हरन्ति प्रसभं मनः।60।
हे अर्जुन! आसक्ति का नाश न होने के कारण ये प्रमथन स्वभाव वाली इन्द्रियाँ यत्न करते हुए बुद्धिमान पुरुष के मन को भी बलात् हर लेती हैं।
इन्द्रियाणि प्रमाथीनि हरन्ति प्रसभं मनः।60।
हे अर्जुन! आसक्ति का नाश न होने के कारण ये प्रमथन स्वभाव वाली इन्द्रियाँ यत्न करते हुए बुद्धिमान पुरुष के मन को भी बलात् हर लेती हैं।
तानि सर्वाणि संयम्ययुक्त आसीत मत्परः।
वशेहि यस्येन्द्रियाणि तस्यप्रज्ञा प्रतिष्ठिता।61।
इसलिए साधक को चाहिए कि वह उन सम्पूर्ण इन्द्रियों को वश में करके समाहित चित्त हुआ मेरे परायण होकर ध्यान में बैठे क्योंकि जिस पुरुष की इन्द्रियाँ वश में होती हैं, उसी की बुद्धि स्थिर हो जाती है।
वशेहि यस्येन्द्रियाणि तस्यप्रज्ञा प्रतिष्ठिता।61।
इसलिए साधक को चाहिए कि वह उन सम्पूर्ण इन्द्रियों को वश में करके समाहित चित्त हुआ मेरे परायण होकर ध्यान में बैठे क्योंकि जिस पुरुष की इन्द्रियाँ वश में होती हैं, उसी की बुद्धि स्थिर हो जाती है।
इन्द्रियाणां हि चरतां यन्मनोऽनुविधीयते।
तदस्य हरति प्रज्ञां वायुर्नावमिवाम्भसि।67।
क्योंकि जैसे जल में चलने वाली नाव को वायु हर लेती है, वैसे ही विषयों में विचरती हुई इन्द्रियों में से मन जिस इन्द्रिय के साथ रहता है, वह एक ही इन्द्रिय इस अयुक्त पुरुष की बुद्धि को हर लेती है।
तदस्य हरति प्रज्ञां वायुर्नावमिवाम्भसि।67।
क्योंकि जैसे जल में चलने वाली नाव को वायु हर लेती है, वैसे ही विषयों में विचरती हुई इन्द्रियों में से मन जिस इन्द्रिय के साथ रहता है, वह एक ही इन्द्रिय इस अयुक्त पुरुष की बुद्धि को हर लेती है।
तस्माद्यस्य महाबाहो निगृहीतानि सर्वशः।
इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेभ्यस्तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता।68।
इसलिए हे महाबाहो! जिस पुरुष की इन्द्रियाँ इन्द्रियों के विषयों में सब प्रकार निग्रह की हुई हैं, उसी की बुद्धि स्थिर है।
इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेभ्यस्तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता।68।
इसलिए हे महाबाहो! जिस पुरुष की इन्द्रियाँ इन्द्रियों के विषयों में सब प्रकार निग्रह की हुई हैं, उसी की बुद्धि स्थिर है।
या निशा सर्वभूतानां तस्यां जागर्ति संयमी।
यस्यां जाग्रति भूतानि सा निशा पश्यतो मुनेः।69।
सम्पूर्ण प्राणियों के लिए जो रात्रि के समान है, उस नित्य ज्ञानस्वरूप परमानन्द की प्राप्ति में स्थितप्रज्ञ योगी जागता है और जिस नाशवान सांसारिक सुख की प्राप्ति में सब प्राणी जागते हैं, परमात्मा के तत्व को जानने वाले मुनि के लिए वह रात्रि के समान है।
यस्यां जाग्रति भूतानि सा निशा पश्यतो मुनेः।69।
सम्पूर्ण प्राणियों के लिए जो रात्रि के समान है, उस नित्य ज्ञानस्वरूप परमानन्द की प्राप्ति में स्थितप्रज्ञ योगी जागता है और जिस नाशवान सांसारिक सुख की प्राप्ति में सब प्राणी जागते हैं, परमात्मा के तत्व को जानने वाले मुनि के लिए वह रात्रि के समान है।
आपूर्यमाणमचलप्रतिष्ठं- समुद्रमापः प्रविशन्ति यद्वत्।
तद्वत्कामा यं प्रविशन्ति सर्वेस शान्तिमाप्नोति न कामकामी ।70।
जैसे नाना नदियों के जल सब ओर से परिपूर्ण, अचल प्रतिष्ठा वाले समुद्र में उसको विचलित न करते हुए ही समा जाते हैं, वैसे ही सब भोग जिस स्थितप्रज्ञ पुरुष में किसी प्रकार का विकार उत्पन्न किए बिना ही समा जाते हैं, वही पुरुष परम शान्ति को प्राप्त होता है।
तद्वत्कामा यं प्रविशन्ति सर्वेस शान्तिमाप्नोति न कामकामी ।70।
जैसे नाना नदियों के जल सब ओर से परिपूर्ण, अचल प्रतिष्ठा वाले समुद्र में उसको विचलित न करते हुए ही समा जाते हैं, वैसे ही सब भोग जिस स्थितप्रज्ञ पुरुष में किसी प्रकार का विकार उत्पन्न किए बिना ही समा जाते हैं, वही पुरुष परम शान्ति को प्राप्त होता है।
‘योग: कर्मसु कौशलम्’ यह
श्लोकांश योगेश्वर श्रीकृष्ण के श्रीमुख से उद्गीरित श्रीमद्भगवद्गीता के द्वितीय
अध्याय के पचासवें श्लोक से उद्धृत है। श्लोक इस प्रकार है – “बुद्धियुक्तो जहातीह उभे सुकृतदुष्कृते। तस्माद्योगाय युज्यस्व योग:
कर्मसु कौशलम्”।
श्लोक
के उत्तरार्ध पर यदि गौर करें तो दो बातें स्पष्ट होती हैं। पहली योग की परिभाषा
एवं दूसरी योग हेतु प्रभु का स्पष्ट निर्देश। उनका उपदेश है कि ‘योगाय’ अर्थात्
योग के लिए अथवा योग में, ‘युज्यस्व’ अर्थात् लग जाओ। कहने का
तात्पर्य है कि ‘योग में प्रवृत्त हो जाओ’ यानि कि ‘योग करो’। अब प्रश्न यह है कि
क्यूँ करें योग? इस प्रश्न का उत्तर उन्होंने श्लोक के
पूर्वार्ध में दिया है कि बुद्धिमान व्यक्ति अर्थात् योगी, वर्तमान
में ही अथवा इस संसार में ही ‘सुकृत’ एवं ‘दुष्कृत’ अर्थात् पुण्य एवं पाप से
मुक्त हो जाता है।
सार: मतलब जब वाहिक रूप से भी मनुष्य यम, नियम और प्रत्याहार के साथ समत्व हो, स्थिर बुद्धि और
स्थित प्रज्ञ हो। तो समझो योग हुआ।
सारांश
में वेद महावाक्य के किसी एक का अनुभव हुआ ज्ञान योग।
चारों का अथवा
सार वाक्य अनुभव हुआ तो पूर्ण ज्ञान यानी ब्रह्मज्ञानी।
जीवन में
इस अनुभव पर सदा चलना और पालन करना तो हुआ ब्रह्म स्वरूप।
चित्त में
वृत्ति का निरोध और कार्य में कुशलता तो समझो कर्म योग।
वेद महावाक्य
के किसी एक का अनुभव या सार वाक्य अनुभव साकार इष्ट के दर्शन से हुआ। “सियाराम सब जग
मैं जानी” तो हुआ भक्ति योग।
मैं समझता हूं
इससे स्पष्ट लिखना मुश्किल है। जब तक अनुभव न होगा। शायद समझ में भी न आये। किंतु एक
प्रयास जारी है प्रभु कृपा से। गुरू महाराज की दया से।
इति श्री कृष्ण
मम।
जय महाकाली गुरूदेव। अयम आत्मा ब्रह्म।
(तथ्य कथन गूगल साइट्स इत्यादि से साभार)
"MMSTM समवैध्यावि ध्यान की वह आधुनिक
विधि है। कोई चाहे नास्तिक हो आस्तिक हो, साकार, निराकार कुछ भी हो बस पागल और हठी
न हो तो उसको ईश अनुभव होकर रहेगा बस समयावधि कुछ बढ सकती है। आपको प्रतिदिन लगभग
40 मिनट देने होंगे और आपको 1 दिन से लेकर 10 वर्ष का समय लग सकता है। 1 दिन उनके
लिये जो सत्वगुणी और ईश भक्त हैं। 10 साल बगदादी जैसे हत्यारे के लिये। वैसे 6
महीने बहुत है किसी आम आदमी के लिये।" सनातन पुत्र देवीदास विपुल खोजी
ब्लाग :
https://freedhyan.blogspot.com/
गीता एवम् उपनिषद् में दिये गये ज्ञान का अनुभव आधारित सुन्दर और सही वर्णन।
ReplyDeleteधन्यवाद सर। सनातन की सत्यता का प्रचार ही मेरा उद्देश्य है।
ReplyDeleteYeh jankari sabhi sadhko ke liye kisi khajane se km nhi .
ReplyDeleteधन्यवाद सर। अन्य अन्य लेखों पर भी टिप्पणी करें।
ReplyDeleteविपुल जी... यह एक बेहतरीन आलेख है... लेकिन यथानुसार, सांसारिक बंधनों और विषयों में बंधा व्यक्ति अपने कर्तव्यों की पूर्ति करे कि आंख बंद कर सत्य की खोज में निकले...। ये पलायनवाद भी तो है...🤔
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