अष्टांग (अष्ट + अंग) योग क्या है ?
सनातनपुत्र देवीदास विपुल
"खोजी"
विपुल सेन उर्फ विपुल “लखनवी”,
(एम . टेक. केमिकल इंजीनियर) वैज्ञानिक
एवं कवि
सम्पादक : विज्ञान त्रैमासिक हिन्दी जर्नल
“वैज्ञनिक” ISSN
2456-4818
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फेस बुक: vipul luckhnavi
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महर्षि पतंजलि संभवत: पुष्यमित्र शुंग (195-142 ई.पू.) के शासनकाल में
थे। आज आपके लिए योग का ज्ञान अगर सुलभता
से उपलब्ध है तो इसका श्रेय महर्षि पतंजलि को ही जाता है। पहले योग के सूत्र बिखरे
हुए थे उन सूत्रों में से योग को समझना बहुत मुश्किल था। इसे समस्या को समझते हुए महर्षि पतंजलि ने योग
के 195 सूत्रों को इकट्ठा किया और अष्टांग योग का प्रतिपादन
किया। आज पूरी दुनिया में विश्व योग दिवस
मनाया जाता है। आज के दौर में ज्यादातर लोग योग सिर्फ शारीरिक समस्याओं से छुटकारा
पाने के लिए कर रहे हैं लेकिन योग की मदद से तन और मन दोनों को सुंदर बनाया जा
सकता है।
महर्षि पतंजलि के जन्म के बारे में एक धार्मिक कहानी
भी बताई जाती है. कहा जाता है कि बहुत समय पहले की बात है, सभी ऋषि-मुनि भगवान विष्णु के पास
पहुंचे और बोले, "भगवन्, आपने
धन्वन्तरि का रूप ले कर शारीरिक रोगों के उपचार के लिए आयुर्वेद दिया, लेकिन अभी भी पृथ्वी पर लोग काम, क्रोध और मन की
वासनाओं से पीड़ित हैं, इन सभी विकारों से मुक्ति का तरीका
क्या है? अधिकतर लोग शारीरिक ही नहीं, मानसिक
और भावनात्मक स्तर पर भी विकारों से दुखी होते हैं।"
भगवान आदिशेष सर्प की शैया पर लेटे हुए थे। हज़ारों मुख वाले आदिशेष सर्प, जागरूकता के प्रतीक हैं। उन्होंने
ऋषि मुनियों की प्रार्थना सुन, जागरूकता स्वरुप आदिशेष को
महर्षि पतंजलि के रूप में पृथ्वी पर भेज दिया। इस तरह योग का ज्ञान प्रदान करने
हेतु पृथ्वी पर महर्षि पतंजलि का अवतार हुआ।
कालांतर में महर्षि पतंजलि के प्रतिपादित 195 सूत्र योग दर्शन के स्तंभ माने गए।
पतंजलि ही पहले और एकमात्र ऐसे व्यक्ति थे जिन्होंने योग को आस्था, अंधविश्वास और धर्म से बाहर
निकालकर एक सुव्यवस्थित रूप दिया था।
योग
हिन्दू धर्म के छह दर्शनों में से एक है लेकिन इसका धर्म से कोई लेना-देना नहीं
है। योग का ध्यान के साथ संयोजन होता है। बौद्ध धर्म में भी ध्यान के लिए अहम माना
जाता है और ध्यान का संबंध इस्लाम और इसाई धर्म के साथ भी कुछ कुछ है। यह ग्रंथ अब
तक हज़ारों भाषाओं में लिखा जा चुका है। गणित
की संख्याओं को जोड़ने के लिए भी ‘योग’ शब्द का प्रयोग किया जाता है परन्तु आध्यात्मिक
पृष्ठ भूमि में जब ‘योग’ शब्द का प्रयोग किया जाता है तब उसका अर्थ आत्मा को
परमात्मा से जोड़ना होता है। महर्षि पंतजलि ने आत्मा को परमात्मा से जोड़ने की
क्रिया को आठ भागों में बांट दिया है। यही क्रिया अष्टांग योग के नाम से प्रसिद्ध
है। आत्मा में बेहद बिखराव (विक्षेप) है जिसके कारण वह परमात्मा, जो आत्मा में भी व्याप्त है, की अनुभूति नहीं कर पाता।
यूँ भी कहा जा सकता है कि अपने विक्षेपों (बिखराव) के समाप्त होने पर आत्मा स्वत:
ही परमात्मा को पा लेता है। योग के आठों अंगों का ध्येय आत्मा के विक्षेपों को दूर
करना ही है। परमात्मा को प्राप्त करने का अष्टांग योग से अन्य कोर्इ मार्ग नहीं।
अष्टांग योग के पहले दो अंग-यम और नियम हमारे संसारिक व्यवहार में सिद्धान्तिक
एकरूपता लाते हैं। अन्य छ: अंग आत्मा के अन्य विक्षेपों को दूर करते हैं। महर्षि
पंतजलि द्वारा वर्णित योग के आठ अंगो के क्रम का भी अत्यन्त महत्त्व है। हर अंग
आत्मा के विशिष्ट (खास तरह के) विक्षेपों को दूर करता है परन्तु तभी, जब उसके पहले के अंग सिद्ध कर लिए गए हों। उदाहरणार्थ यम और नियम को सिद्ध
किए बगैर आसन को सिद्ध नहीं किया जा सकता। सभी मतवाले इस बात को मानते हैं कि
असत्य, हिंसा आदि (सत्य, अहिंसा,
अस्तेय, ब्रह्राचर्य और अपरिग्रह, अष्टांग योग के पहले अंग-यम के विभाग हैं) की राह पर चलने वाले र्इश्वर को
कभी नहीं पास करते। यह इस बात की पुष्टि ही है कि र्इश्वर को पाने का अष्टांग योग
एक सीधा रास्ता है।
महर्षि पतंजलि ने अष्टांग योग की महिमा को बताया, जो स्वस्थ जीवन के लिए महत्वपूर्ण
है. महर्षि पतंजलि ने द्वितीय और तृतीय पाद में जिस अष्टांग योग साधन का उपदेश
दिया है, उसके नाम इस प्रकार हैं- 1. यम,
2. नियम, 3. आसन, 4. प्राणायाम,
5. प्रत्याहार, 6. धारणा, 7. ध्यान और 8. समाधि।
इन 8 अंगों के अपने-अपने उप अंग भी हैं। वर्तमान में योग के 3
ही अंग प्रचलन में हैं- आसन, प्राणायाम और
ध्यान। जिनको लोग योग बताकर बडी बडी दुकाने चला रहें हैं।
महर्षि
पतंजलि के अनुसार चित्तवृत्ति के निरोध का नाम योग है (योगश्चितवृत्तिनिरोध:)।
इसकी स्थिति और सिद्धि के निमित्त कतिपय उपाय आवश्यक होते हैं जिन्हें ‘अंग’ कहते
हैं और जो संख्या में आठ माने जाते हैं। अष्टांग योग के अंतर्गत प्रथम पांच अंग
(यम, नियम, आसन,
प्राणायाम तथा प्रत्याहार) ‘बहिरंग’ और शेष तीन अंग (धारणा, ध्यान, समाधि) ‘अंतरंग’ नाम से प्रसिद्ध हैं।
बहिरंग
साधना यथार्थ रूप से अनुष्ठित होने पर ही साधक को अंतरंग साधना का अधिकार प्राप्त
होता है। ‘यम’ और ‘नियम’ वस्तुत: शील और तपस्या के द्योतक हैं। यम का अर्थ है संयम
जो पांच प्रकार का माना जाता है : (क) अहिंसा, (ख) सत्य, (ग)
अस्तेय (चोरी न करना अर्थात् दूसरे के द्रव्य के लिए स्पृहा न रखना)।
इसी भांति नियम के भी पांच प्रकार होते हैं : शौच, संतोष,
तप, स्वाध्याय (मोक्षशास्त्र का अनुशलीन या
प्रणव का जप) तथा ईश्वर प्रणिधान (ईश्वर में भक्तिपूर्वक सब कर्मों का समर्पण
करना)।
आसन
से तात्पर्य है स्थिर और सुख देनेवाले बैठने के प्रकार (स्थिर सुखमासनम्) जो
देहस्थिरता की साधना है।
आसन
जप होने पर श्वास प्रश्वास की गति के विच्छेद का नाम प्राणायाम है। बाहरी वायु का
लेना श्वास और भीतरी वायु का बाहर निकालना प्रश्वास कहलाता है। प्राणायाम
प्राणस्थैर्य की साधना है। इसके अभ्यास से प्राण में स्थिरता आती है और साधक अपने
मन की स्थिरता के लिए अग्रसर होता है।
अंतिम
तीनों अंग मन:स्थैर्य का साधना है। प्राणस्थैर्य और मन:स्थैर्य की मध्यवर्ती साधना
का नाम ‘प्रत्याहार’ है। प्राणायाम द्वारा प्राण के अपेक्षाकृत शांत होने पर मन का
बहिर्मुख भाव स्वभावत: कम हो जाता है। फल यह होता है कि इंद्रियाँ अपने बाहरी
विषयों से हटकर अंतर्मुखी हो जाती है। इसी का नाम प्रत्याहार है (प्रति=प्रतिकूल,
आहार=वृत्ति)।
अब मन
की बहिर्मुखी गति निरुद्ध हो जाती है और अंतर्मुख होकर स्थिर होने की चेष्टा करता
है। इसी चेष्टा की आरंभिक दशा का नाम धारणा है। देह के किसी अंग पर (जैसे हृदय में, नासिका के अग्रभाग पर) अथवा बाह्यपदार्थ पर (जैसे
इष्टदेवता की मूर्ति आदि पर) चित्त को लगाना ‘धारणा’ कहलाता है (देशबन्धश्चितस्य धारणा; योगसूत्र 3.1)।
ध्यान इसके आगे की दशा है। जब उस देशविशेष
में ध्येय वस्तु का ज्ञान एकाकार रूप से प्रवाहित होता है, तब उसे ‘ध्यान’ कहते हैं। धारणा और ध्यान दोनों दशाओं में वृत्तिप्रवाह विद्यमान रहता
है, परंतु अंतर यह है कि धारणा में एक वृत्ति से विरुद्ध
वृत्ति का भी उदय होता है, परंतु ध्यान में सदृशवृत्ति का ही
प्रवाह रहता है, विसदृश का नहीं।
ध्यान
की परिपक्वास्था का नाम ही समाधि है। चित्त आलंबन के आकार में प्रतिभासित होता है,
अपना स्वरूप शून्यवत् हो जाता है और एकमात्र आलंबन ही प्रकाशित
होता है। यही समाधि की दशा कहलाती है। अंतिम तीनों अंगों का सामूहिक नाम ‘संयम’ है
जिसके जिसके जीतने का फल है विवेक ख्याति का आलोक या प्रकाश। समाधि के बाद प्रज्ञा
का उदय होता है और यही योग का लक्ष्य है।
अब मन की बहिर्मुखी गति निरुद्ध हो जाती है और
अंतर्मुख होकर स्थिर होने की चेष्टा करता है। इसी चेष्टा की आरंभिक दशा का नाम
धारणा है। देह के किसी अंग पर (जैसे हृदय में, नासिका के अग्रभाग पर) अथवा
बाह्यपदार्थ पर (जैसे इष्टदेवता की मूर्ति आदि पर) चित्त को
लगाना 'धारणा' कहलाता है (देशबन्धश्चितस्य धारणा; योगसूत्र 3.1)। ध्यान इसके आगे की दशा है। जब उस देशविशेष में ध्येय वस्तु का ज्ञान
एकाकार रूप से प्रवाहित होता है, तब उसे 'ध्यान' कहते हैं। धारणा और ध्यान दोनों दशाओं में
वृत्तिप्रवाह विद्यमान रहता है, परंतु अंतर यह है कि धारणा
में एक वृत्ति से विरुद्ध वृत्ति का भी उदय होता है, परंतु
ध्यान में सदृशवृत्ति का ही प्रवाह रहता है, विसदृश का नहीं।
ध्यान की परिपक्वावस्था का नाम ही समाधि है। चित्त आलंबन के आकार में प्रतिभासित
होता है, अपना स्वरूप शून्यवत् हो जाता है और एकमात्र आलंबन
ही प्रकाशित होता है। यही समाधि की दशा कहलाती है। अंतिम तीनों अंगों का सामूहिक
नाम 'संयम' है जिसके जिसके जीतने का फल
है विवेक ख्याति का आलोक या प्रकाश। समाधि के बाद प्रज्ञा का उदय होता है और यही
योग का लक्ष्य है।
पहला यम : पांच सामाजिक नैतिकता
(क) अहिंसा - शब्दों से, विचारों
से और कर्मों से किसी को अकारण हानि नहीं पहुँचाना।
अहिंसा परमो धर्मः स च सत्ये प्रतिष्ठितः । सत्ये
कृत्वा प्रतिष्ठां तु प्रवर्तन्ते प्रवृत्तयः ॥74॥
(महाभारत, वन पर्व, अध्याय 207 – मारकण्डेयसमास्यापर्व)
(अहिंसा परमः धर्मः स च सत्ये प्रतिष्ठितः सत्ये तु प्रतिष्ठाम्
कृत्वा प्रवृत्तयः प्रवर्तन्ते ।)
अर्थ – अहिंसा सबसे बड़ा धर्म है, और वह सत्य पर ही टिका होता है। सत्य
में निष्ठा रखते हुए ही कार्य संपन्न होते हैं।
अहिंसा सर्वभूतेभ्यः संविभागश्च भागशः । दमस्त्यागो
धृतिः सत्यं भवत्यवभृताय ते ॥18॥
(महाभारत, अनुशासन पर्व, अध्याय 60 – दानधर्मपर्व)
(अहिंसा सर्व-भूतेभ्यः संविभागः च भागशः दमः त्यागः धृतिः
सत्यम् भवति अवभृताय ते ।)
अर्थ – सभी प्राणियों के प्रति अहिंसा बरतना, सभी को यथोचित भाग सोंपना, इंद्रिय-संयम, त्याग, धैर्य
एवं सत्य पर टिकना अवभृत स्नान के तुल्य (पुण्यदायी) होता
है।
अहिंसा परमो धर्मस्तथाहिंसा परं तपः। अहिंसा परमं
सत्यं यतो धर्मः प्रवर्तते ॥23॥
(महाभारत, अनुशासन पर्व, अध्याय
115 – दानधर्मपर्व)
(अहिंसा परमो धर्मः तथा अहिंसा परम् तपः अहिंसा परमम् सत्यम् यतः धर्मः
प्रवर्तते ।)
अर्थ – अहिंसा परम धर्म है, अहिंसा परम तप है, और अहिंसा ही परम सत्य और जिससे धर्म की प्रवृत्ति आगे बढ़ती है।
इस वचन के अनुसार अहिंसा, तप और सत्य आपस में जुड़े हैं।
वस्तुतः अहिंसा स्वयं में तप है, तप का अर्थ है अपने को हर
विपरीत परिस्थिति में संयत और शांत रखना। जिसे तप की सामर्थ्य नहीं वह अहिंसा पर
टिक नहीं सकता। इसी प्रकार सत्यवादी ही अहिंसा पर टिक सकता है यह उपदेष्टा का मत
है।
वेद व ऋषियों का मन्तव्य यही कहता है कि, हिंसा व अहिंसा अन्याय व न्याय पर खड़ी
है। न्याय पूर्वक दण्ड-कष्ट देना भी अहिंसा है व अन्याय पूर्वक पुरस्कार-सुख देना
भी हिंसा है।
वेद, वेदानुकूल ऋषियों की मान्यता यह संदेश देती है कि जितने भी
गलत कार्य हैं उन सब का मूल हिंसा ही है और जितने भी उत्तम कार्य हैं उन सबका मूल
अहिंसा ही है।
सत्य
आदि बाकि चारों यम व शौच आदि पांचों नियम अहिंसा पर ही आधारित हैं। अहिंसा को
पुष्ट करना ही उनका मुख्य लक्ष्य है। अहिंसा की सिद्धि के लिए उनका आचरण किया जाता
है।
(ख) सत्य - विचारों में सत्यता, परम-सत्य में स्थित रहना,
जैसा विचार मन में है वैसा ही प्रामाणिक बातें वाणी से बोलना। जो चीज़
जैसी है उसे वैसा ही जानना व मानना सत्य कहलाता है।
सत्य दो प्रकार के होते हैं। संसारिक वस्तुओं में
समयानुसार व परिस्थितिवश बदलाव आता रहता है। उदाहरणार्थ आज बनी गाड़ी, बीस वर्ष पश्चात समान नहीं रहेगी।
गाड़ी को आज जानना, उसे बीस वर्षों के पश्चात जानने के समान
नही हो सकता। हम पहले कह आए हैं कि जो जैसा है उसे वैसा ही जानना व मानना सत्य कहलाता
है। इस अनुसार गाड़ी के आज के सत्य ज्ञान व बीस वर्ष पश्चात के सत्य ज्ञान में
फर्क होना स्वभाविक हैं दूसरा सत्य वह होता है जिसमें समयानुसार व परस्थितिवश
अन्तर नहीं आता। र्इश्वर विषयक ज्ञान इसी श्रेणी में आता है। जो सत्य ज्ञान कभी
नहीं बदलता उसे ऋत कहा जाता है। हमारे जीवन का ध्येय होना चाहिए कि हमारी आत्मा
में अवस्थित सत्य ऋत के समीप होता जाए।
‘हिंसा का अर्थ है-अन्याय पूर्वक पीड़ा, दु:ख, कष्ट देना। आप नौकरी के प्रत्याशी हैं,
आपने झूठ बोल कर नौकरी ली तो जिसे नौकरी मिलनी थी, आपके कारण वह वंचित हो गया है, उसे वंचित होने पर
दु:ख मिला, यह हिंसा है। जहाँ भी हम झूठ बोलतें हैं निश्चित
रूप से हम वहाँ पर हिंसा ही कर रहे हैं। वहाँ अन्याय पूर्वक दूसरों को दु:ख देते
हैं। जिसे हम हिंसा द्वारा पीड़ा पहुँचा रहे हैं, उसका फल
हमें निश्चित रूप से मिलने वाला है। इस से हम छूट नहीं सकते। इसीलिये ऋषि कहते हैं
कि सत्य ऐसी एक शक्ति है जिसे अपनाने पर मनुष्य को आगे होने वाले पापों को छूटने
की शक्ति प्राप्त होती है। इसके अतिरिक्त और कोर्इ मार्ग नहीं है।
सत्य के धारण करने से भले ही कुछ भी चला जाये, परन्तु आत्मा का कल्याण इसी में है।
ऋषि कहते हैं कि तुम कहते हो कि असत्य के बिना तुम्हारा काम नहीं चल सकता, यह गलत है। जिस सत्य को झूठ बनाकर प्रस्तुत कर रहे हो, भले आदमी! उस सत्य को सत्य ही के रूप में प्रयोग करके तो देखो, एक बार में ही इसकी महत्ता का पता चल जायेगा। आगे कहते हैं कि असत्य को
हमें किसी भी परिस्थिति में स्वीकार नहीं करना है।
(ग) अस्तेय - चोर-प्रवृति
का न होना। अस्तेय का शाब्दिक अर्थ है चोरी न करना। किसी दूसरे की वस्तु को पाने
की इच्छा करना मन द्वारा की गर्इ चोरी है। शरीर से अथवा वाणी से तो दूर, मन से भी चोरी न करना। मोटे तौर पर देखने से लगता है कि हम तो चोर नहीं,
हम चोरी नहीं करते। इसे सूक्ष्मता से देखने पर साफ दीखता है कि हम
कितना अस्तेय का पालन करते हैं।
(घ) ब्रह्मचर्य - दो अर्थ हैं: पहला चेतना
को ब्रह्म के ज्ञान में स्थिर करना और दूसरा सभी इन्द्रिय-जनित सुखों में संयम
बरतना। शरीर के सर्वविध सामर्थ्यों की संयम पूर्वक रक्षा करने को ब्रह्मचर्य कहते
हैं।
इन्द्रियों पर जितना संयम रखते हैं उतना ही ब्रह्मचर्य के पालन में सरलता रहती है। इन्द्रियों की चंचलता ब्रह्मचर्य के पालन में बाधक है। अपने लक्ष्य के प्रति सजग रहते हुए सदा पुरुषार्थी रहने से ब्रह्मचर्य के पालन में सहायता मिलती है। महापुरुषों, वीरों, ऋषियों, आदर्श पुरूषों के चरित्र को सदा समक्ष रखना चाहिए। ब्रह्मचर्य के विपरीत है व्याभिचार। व्याभिचार से भी वैसे ही हिंसा होती है, जैसे झूठ से व चोरी से होती है।
बहुत से लोगों, जो क्षण भर में र्इश्वर साक्षात्कार करना चाहते हैं,
का आशय यह होता है कि उन्हें कुछ करना धरना न पड़े और र्इश्वर का
साक्षात्कार हो जाए। उन्हें इस बात कें महत्त्व का ज्ञान ही नहीं है। जिस बात के
लिए ब्रह्मचारी ने अपना सर्वस्व झौंककर, रात-दिन एक करके
अपना जीवन ही न्योंछावर कर दिया और अभी तक अपने प्रमाद-आलस्य को, अपनी न्यूनताओं को पूरी तरह दूर नहीं कर पाया। और वे उसी ब्रह्म-तत्व को
क्षण मात्र मे प्राप्त करना चाहते हैं।
(च) अपरिग्रह - आवश्यकता से अधिक संचय
नहीं करना और दूसरों की वस्तुओं की इच्छा नहीं करना। मन, वाणी
व शरीर से अनावश्यक वस्तुओं व अनावश्यक विचारों का संग्रह न करने को अपरिग्रह कहते
हैं। अपरिग्रह का यह अभिप्राय बिलकुल नही है कि राष्ट्रपति व चपरासी के लिए वस्त्र
आदि एक जैसे व समान मात्रा में हो।
अपरिग्रह का पालन भी अहिंसा की सिद्धि के लिए ही किया जाता है। परिग्रह सदैव दूसरों को पीड़ा देकर ही किया जाता है। अनावश्यक वस्तुओं का, अनावश्यक विचारों का, उचित-अनुचित स्थानों से निरूद्देश्य संग्रह करना परिग्रह है। इसके विपरीत ऐसा न करने को अपरिग्रह कहते हैं। यदि कभी अधिक संग्रह भी हो जाये तो शेष को दान करते रहना चाहिए। इस दान से उपजे आत्म संतुष्टि के भाव का मूल्य संसार के मूल्यवान पदार्थों से भी अधिक ही रहेगा।
नियम : यम की तरह ‘नियम’ भी
दुखों को छुड़ाने वाला है। यम का संबंध मुख्य रूप से अन्यों के साथ है और नियम का
संबंध मुख्य रूप से व्यक्तिक जीवन के साथ है। विशेष रूप से स्वयं के दु:खों से
छुड़ाने वाला होने से इसे नियम कहते हैं।
दूसरा अंग: पाँच व्यक्तिगत नैतिकता
(क) शौच - शरीर और मन की शुद्धि। शरीर व मन की शुद्धि
को शौच कहा जाता है। स्नान, वस्त्र, खान-पान
आदि से शरीर को स्वच्छ रखा जाता है। विद्या , ज्ञान,
सत्संग, संयम, धर्म आदि
और धनोपार्जन को पवित्र रखने के उपायों से मन की शुद्धि होती है।
(ख) संतोष - संतुष्ट और प्रसन्न रहना।
अपनी योग्यता व अधिकार के अनुरूप अपनी शक्ति, सामर्थ्य ,
ज्ञान-विज्ञान तथा उपलब्ध साधनों द्वारा पूर्ण पुरूषार्थ करने से
प्राप्त फल में प्रसन्न रहने को संतोष कहते हैं। असंतोष का मूल लोभ है। यदि
व्यक्ति संतोष का पालन करता है यानि अपनी तृष्णा को, लोभ को
समाप्त कर देता है तो जो सुख मिलता है उसके सामने संसार का सारा का सारा सुख
सोलहवां भाग भी नहीं होता।
(ग) तप - स्वयं से अनुशाषित रहना। जीवन
के लक्ष्य को पूरा करने के लिए हानि-लाभ, सुख-दु:ख, भूख-प्यास, सर्दी-गर्मी, मान-अपमान
आदि द्वन्द्वों को शान्ति व धैर्य से सहन करने को तप कहते हैं।
आज हम स्वयं को इतना कमजोर कर चुके हैं कि बिना तकिये, बिस्तर, वाहन (कार आदि), पंखा, कूलर, ए.सी. कमरा आदि के नहीं रह पाते हैं। अनेक बार हम कुछ भौतिक पदार्थों के लिए आत्म-तत्व को ही छोड़ देते हैं। जैसे ही विषय हमारे सामने उपस्थित होता है, हम चाहते हुए या न चाहते हुए सब कुछ भूलकर के उसके साथ जुड़ जाते हैं।, उसी में लग जाते हैं, छोड़ नहीं पाते, त्याग नहीं कर पाते। जब कोर्इ मनोरम दृष्य सामने आता है तो उसको देखे बिना रह नहीं पाते, उसका त्याग नहीं कर पाते।
(घ) स्वाध्याय - आत्मचिंतन करना। भौतिक-विद्या व आध्यात्मिक-विद्या दोनों का अध्ययन करना स्वाध्याय कहलाता है। केवल भौतिक या केवल आध्यात्मिक विद्या से कोर्इ भी अपने लक्ष्य को पूरा नहीं कर सकता है। अत: दोनों का समन्वय होना अति आवश्यक है।
वेदों
में दोनों भौतिक विधा व अध्यात्मिक विद्या है। विद्वान लोग वेदों के अध्ययन को ही
स्वाध्याय मानते हैं। कुछ विद्वान लोग ऋषि कृत ग्रन्थों
(व्याकरण, निरुक्त आदि, दर्शन
शास्त्र, ब्राह्मण ग्रन्थ, उपनिष्द
आदि) के अध्ययन को भी स्वाध्याय के अन्तर्गत लेते हैं। स्वाध्याय का पालन करने से मूर्खतारूपी
अविधा से युक्त होकर की जाने वाली हिंसा का अन्त होता है और हमें मुक्ति-पथ पर आगे
बढ़ने में सहायता मिलती है।
(च) ईश्वर-प्रणिधान – ईश्वर के प्रति
पूर्ण समर्पण, पूर्ण श्रद्धा। र्इश्वर प्रणिधान का अर्थ है — समर्पण करना।
श्रीमदभगवद् गीता में वर्णित निष्काम भाव से कर्म
करने का भी यहीं अभिप्राय है।
इस बात को समझाने के लिए ऋषियों ने ‘भक्ति-विशेष’ शब्द का प्रयोग किया है।
इस बात को समझाने के लिए ऋषियों ने ‘भक्ति-विशेष’ शब्द का प्रयोग किया है।
अपने जीवन में यह भाव लाने से कि मेरा सब कुछ प्रभु
का है एक बहुत बड़ा लाभ होगा कि वो जैसा हमको कहेगा हम वैसा अपने साधनों का प्रयोग
करेंगे। जिम्मेदारी अपनी नहीं रहेगी।
दान देना पड़ेगा क्योंकि उसकी आज्ञा है। जितना खाने
के लिए कहता है उतना खाओ, जिसे न खाने के लिए कहता है उसे मत खाओ। समर्पण का अर्थ हमने किया
‘भक्ति-विशेष’ अर्थात र्इश्वर की आज्ञा-पालन।
जब हम र्इश्वर — समर्पण करेंगे अथवा उसकी आज्ञा पालन करने में तत्पर रहेंगे तो मुक्ति-पथ पर हमारी प्रगति बड़ी तेज़ होगी।
अष्टांग योग का तीसरा अंग है :प्रत्याहार
महर्षि
व्यास के अनुसार - इंद्रियाँ अपने विषय से असम्बद्ध हैं, जैसे मधुमक्खियाँ रानी मधुमक्खी का अनुकरण करती हैं।
राजा मन के निरोध होने से इन्द्रियों का भी निरोध हो जाता है। योग की
इस स्थिति को ही प्रत्याहार कहा जाता है।
शारदातिलक के अनुसार - इन्द्रियाणां विचरतां विषयेषु निरगलम्। बलदाहरणं तेभ्य प्रत्याहारोSभिधीयते।। 25/23 अर्थात ये इन्द्रियाँ विषयों में बेरोक-टोक दौड़ते रहने से चंचल रहती हैं। अत: उन विषयों से इंद्रियों को निरूद्ध कर मन को स्थिर करने का नाम प्रत्याहार है। रूद्रयामल में भगवद्पाद में चित्त लगाने को प्रत्याहार कहा गया है।
घेरण्ड संहिता के अनुसार - यतो यतो निश्चरति मनश्चंचलमस्थिम्। ततस्ततो नियम्यैतदात्मन्यैव वशं नयेत्।। 4/2 अर्थात जहाँ-जहाँ यह चंचल मन विचरण करे इसे वहीं-वहीं से लौटाने का प्रयत्न करते हुए आत्मा के वश में करे (यही प्रत्याहार है)।
विष्णु पुराण के अनुसार - शब्दादिष्वनुषक्तानि निगृह्याक्षणि योगवित्। कुर्याच्चित्तानुकारिणी प्रत्याहार परायणा:॥
अर्थात योगविदों को चाहिए कि वह शब्दादि विषयों में आसक्ति का निग्रह करे
और अपने-अपने विषयों में आसक्ति का निग्रह करे और
अपने-अपने विषयों से निरूद्ध इंद्रियों को चित्त का अनुसरण करने वाला बनावे। यही अभ्यास
प्रत्याहार का रूप धारण कर लेता है।
आसन : योगासनों द्वारा शरीरिक नियंत्रण। आज आसन को योग का पर्याय और आसन का
मुख्य उद्देश्य शरीर को रोग मुक्त करना माना जाने लगा है। आसन करने पर गौण रूप से
शारीरिक लाभ भी होते हैं। परन्तु आसन का मुख्य उद्देश्य प्राणायाम, धारणा, ध्यान और समाधि हैं। जिस शारीरिक मुद्रा में
स्थिरता के साथ लम्बे समय तक सुख पूर्वक बैठा जा सके उसे आसन कहा गया है। शरीर की
स्थिति, अवस्था व साम्थर्य को ध्यान में रखते हुए भिन्न-भिन्न
आसनों की चर्चा की गर्इ है। चलते-फिरते, उछलते — कूदते, नाचते-गाते हुए ध्यान नहीं हो सकता। ध्यान के लिए बैठना
आवश्यक है। मन को अगतिशिल र्इश्वर में लगाना तभी सम्भव है जब हम अपने शरीर को
स्थिर अथवा अचल करें। अचलता से ही पूर्ण एकाग्रता मिलती है। उछलते, कूदते-नाचते हुए मन को पूरा रोकना, पूर्ण एकाग्र
करना सम्भव ही नहीं है।
योगी खाते-पीते, उठते-बैठते, चलते-फिरते, लेटे हुए, बात करते, किसी भी
कार्य को करते हुए सतत् र्इश्वर की अनुभूति बनाए रखते हैं। र्इश्वर की उपस्थिति
में ही समस्त कार्यों को करते हैं। किन्तु इसे र्इश्वर-प्रणिधान कहते हैं, यह समाधि नहीं है। समाधि व र्इश्वर-प्रणिधान अलग-अलग हैं, कोर्इ यह न समझे कि योगी चलते-फिरते समाधि लगा लेता है। समाधि के लिए तो
योगियों को भी समस्त वृत्तियों को रोककर मन को पूर्ण रूप से र्इश्वर में लगाना
होता है, जिससे समाधि लग सके और इसके लिए शरीर की स्थिरता
आवश्यक है।
प्राणायाम : श्वास-लेने
सम्बन्धी खास तकनीकों द्वारा प्राण पर नियंत्रण। प्राणायाम से ज्ञान का आवरण जो
अज्ञान है, नष्ट होता है। ज्ञान के उत्कृष्टतम स्तर से वैराग्य उपजता है। कपाल-भाति,
अनुलोम-विलोम आदि प्राणायाम नहीं बल्कि श्वसन क्रियाएं हैं। ये
क्रियाएं हमें अनेको रोगों से बचा सकने में सक्ष्म है परन्तु इन्हें अपने
आहार-विहार को सूक्ष्मता से जानने-समझने व जटिल रोगों में आयुर्वेद की सहायता लेने
का विकल्प समझना हमारी भूल होगी। प्राणायाम सबके लिए महत्त्वपूर्ण व आवश्यक क्रिया
है। प्राणायाम में प्राणों को रोका जाता है प्राणायाम चार ही है जो पतंजलि ऋषि में
अपनी अमर कृति योग दर्शन में बताए हैं।
पहला — फेफड़ों में स्थित प्राण को बाहर निकाल कर बाहर ही यथा साम्थर्य रोकना और
घबराहट होने पर बाहर के प्राण (वायु) को अन्दर ले लेना।
दूसरा — बाहर के प्राण को अन्दर (फेफड़ों में) लेकर अन्दर ही रोके रखना और घबराहट
होने पर रोके हुए प्राण (वायु) को बाहर निकाल देना।
तीसरा — प्राण को जहां का तहां (अन्दर का अन्दर व बाहर का बाहर) रोक देना। और
घबराहट होने पर प्राणों को सामान्य चलने देना।
चौथा — यह प्राणायाम पहले व दूसरे प्राणायाम को जोड़ करके किया जाता है। पहले
तीनों प्राणायामों में वर्षों के अभ्यास के पश्चात कुशलता प्राप्त करके ही इस प्राणायाम
को किया जाता है।
प्राणों को अधिक देर तक रोकने में शक्ति न लगाकर विधि में शक्ति लगायें और कुशलता के प्रति ध्यान दें। प्राणायाम की विधि को अच्छे प्रशिक्षक से सीखना चाहिए। ज्ञान तो सारा पुस्तकादि साधनों में भरा पड़ा है, किन्तु उसे व्यवस्थित करके हमारे मस्तिष्क में तो अध्यापक ही बिठा सकता है।
प्राणायाम हमारे शरीर के सभी तंत्रों को तो व्यवस्थित रखता ही है इससे हमारी बुद्धि भी अति सूक्ष्म होकर मुश्किल विषयों को भी शीघ्रता से ग्रहण करने में सक्षम हो जाती है। प्राणायाम हमारे शारीरिक और बौधिक विकास के साथ-साथ हमारी अध्यात्मिक उन्नति में भी अत्यन्त सहायक है। प्राणायाम द्वारा हमारे श्वसन तंत्र की कार्य क्षमता बढ़ती है। यदि मात्र प्राणायाम काल को दृष्टि गत रखें तो उस समय अधिक प्राण का ग्रहण नहीं होता। प्राणायाम के समय तो श्वास-प्रश्वास को रोक दिया जाता है, फलत: वायु की पूर्ति कम होती है, किन्तु प्राणायाम से फेफड़ों में वह क्षमता उत्पन्न होती है कि व्यक्ति सम्पूर्ण दिन में अच्छी तरह श्वास-प्रश्वास कर पाता है।
प्राणायाम को प्रतिदिन प्रयाप्त समय देना चाहिए। कुछ विद्वान मानते हैं कि हमें एक दिन में इक्कीस प्राणायाम से अधिक नहीं करने चाहिए। परन्तु अन्य ऐसी बातों को अनावश्यक मानते हैं। प्राणायाम करते समय प्रभु से प्रार्थना करें कि हे प्राण प्रदाता! मेरे प्राण मेरे अधिकार में हो। प्राण के अनुसार चलने वाला मेरा मन मेरे अधिकार में हो।
प्राणायाम करते समय मन को खाली न रखें। प्राणायाम के काल मे निरन्तर मन्त्र ओम् भू: (र्इश्वर प्राणाधार है), ओम् भूव: (र्इश्वर दूखों को हरने वाला है), ओम् स्व: (र्इश्वर सुख देने वाला है) ओ३म् मह: (र्इश्वर महान है), ओम् जन: (र्इश्वर सृष्टि कर्ता है व जीवों को उनके कर्मों के अनुसार उचित शरीरों के साथ संयोग करता है।), (र्इश्वर दुष्टों को दुख देने वाला है), ओम् सत्यम (र्इश्वर अविनाषी सत्य है) का अर्थ सहित जप करें।
प्राणायाम का मुख्य उद्देश्य मन को रोककर आत्मा व परमात्मा में लगना एवं उनका साक्षात्कार करना है, ऐसा मन में रखकर प्राणायाम करें।
प्राणों को रोकने के अपने सामर्थ्य को धीरे-धीरे धैर्य पूर्वक बढ़ाना चाहिए। बहुत लोग बहुत-बहुत देर तक सांस रोके रखते हैं, सरिया आदि मोड़ते हैं, किन्तु ऐसा नहीं कि उन सबका अज्ञान नष्ट होकर उन्हें विवेक-वैराग्य हो जाता हो। यदि प्राण को या सांस को तो रोक दिया परन्तु मन पर ध्यान नहीं दिया तो अज्ञान इस प्रकार नष्ट नहीं होता।
प्राणों के स्थिर होते ही मन स्थिर हो जाता है। स्थिर हुए मन को कहां लगायें ? पैसे में मन को लगायें तो पैसा मिलता है। परमात्मा में लगाने से र्इश्वर साक्षात्कार हो जाता है।
हम प्रतिदिन न जाने कितनी बार अपने प्राणों को वश में रखते हैं। इसके साथ ही मन भी उतनी ही बार वश में होता रहता है इस स्थिर हुए मन को हम संसार में लगाकर संसारिक सुखों को प्राप्त करते हैं।
जो यह कहता है कि मन वश में नहीं आता तो इसका अर्थ यह है कि आत्मा या परमात्मा में उसकी रूचि या श्रद्धा नहीं है। टी.वी. का मनपसन्द सीरियल हम एक-दो घण्टे तक मनोयोग पूर्वक कैसे देख पाते हैं यदि मन हमारे वश में न होता ! इसका सीधा सा अर्थ है कि हमारा मन पर नियन्त्रण का अभ्यास तो परिपक्व है किन्तु यह केवल सांसारिक विषयों में ही है। अत: हमें मनोनियन्त्रण की शक्ति को केवल परिवर्तित विषय पर लगाने की आवश्यकता है अर्थात इसका केन्द्र आत्मा और परमात्मा को ही बनाना है।
महर्षि दयानन्द लिखते हैं कि जैसे धार्मिक न्यायाधीश प्रजा की रक्षा करता है, वैसे ही प्राणायामादि से अच्छे प्रकार सिद्ध किये हुए प्राण योगी की सब दु:खों से रक्षा करते हैं।
प्रत्याहार: इन्द्रियों को अंतर्मुखी करना महर्षि
पतंजलि के अनुसार जो इन्द्रियां चित्त को चंचल कर रही हैं, उन इन्द्रियों का विषयों से हट कर
एकाग्र हुए चित्त के स्वरूप का अनुकरण करना प्रत्याहार है। प्रत्याहार से
इन्द्रियां वश में रहती हैं और उन पर पूर्ण विजय प्राप्त हो जाती है। अत: चित्त के
निरुद्ध हो जाने पर इन्द्रियां भी उसी प्रकार निरुद्ध हो जाती हैं, जिस प्रकार रानी मधुमक्खी के एक स्थान पर रुक जाने पर अन्य मधुमक्खियां भी
उसी स्थान पर रुक जाती हैं। आंख, कान, नासिका
आदि दसों इन्द्रियों को ससांर के विषयों से हटाकर मन के साथ-साथ रोक (बांध) देने
को प्रत्याहार कहते हैं।
प्रत्याहार का मोटा स्वरूप है संयम रखना, इन्द्रियों पर संयम रखना। उदाहरण के लिए एक व्यक्ति मीठा बहुत खाता है कुछ समय बाद वह अपनी मीठा खाने की आदत में तो संयम ले आता है परन्तु अब उसकी प्रवृति नमकीन खाने में हो जाती है। यह कहा जा सकता है कि वह पहले भी और अब भी अपनी रसना इन्द्रिय पर संयम रख पाने में असफल रहा। उसने मधुर रस को काबू करने का प्रयत्न किया तो उसकी इन्द्रिय दूसरे रस में लग गर्इ। इसी भांति अगर कोर्इ व्यक्ति अपनी एक इन्द्रिय को संयमित कर लेता है तो वह अन्य इन्द्रिय के विषय (देखना, सुनना, सूंघना, स्वाद लेना, स्पर्ष करना आदि) में और अधिक आनन्द लेने लगता है। अगर एक इन्द्रिय को रोकने में ही बड़ी कठिनार्इ है तो पाँचों ज्ञानोन्द्रियों को रोकना तो बहुत कठिन हो जायेगा।
इन्द्रियों को रोकना हो तो अन्दर भूख उत्पन्न करनी होगी। इनको जीतना हो तो तपस्या करनी पड़ती है और तपस्या के पीछे त्याग की भावना लानी पड़ती है। वैसे हम तपस्या बहुत करते हैं। दुनिया में ऐसा कोर्इ व्यक्ति नहीं है जो तपस्या करता ही न हो। पैसे की भूख है तो हम पता नहीं कहाँ-कहाँ जाते हैं। कहाँ-कहाँ से लाते हैं। क्या-क्या करते हैं। सुबह से लेकर रात्रि में सोने तक और जब होश में हैं तब से आज तक हम उसी के लिए लगे हैं। र्इश्वर को प्राप्त करने की ऐसी भूख नहीं है। जब र्इश्वर को प्राप्त करने के लिए भूख नहीं है तो इन्द्रियों के ऊपर संयम नहीं कर पायेंगे हम।
कोर्इ चेतन अन्य चेतन को नचा दे तो समझ में आता है, (जैसे मदारी, भालू, बन्दर आदि को नचाता है), लेकिन कोर्इ जड़ किसी चेतन को नचा दे, समझना बड़ा कठिन है। लेकिन हो यही रहा है। हम अपने जड़ मन को अपने अधिकार में नहीं रख पा रहे हैं। बल्कि यह जड़ मन हमें नचा रहा है।
कैसे अपनी इन्द्रियों को वश में रखना, इस बात को प्रत्याहार में समझाया है। एक को रोकते हैं तो दूसरी इन्द्रिय तेज हो जाती है। दूसरी को रोकें तो तीसरी, तीसरी को रोकें तो चौथी, तो पाँचों ज्ञानेनिद्रयों को कैसे रोकें ? इसके लिए एक बहुत अच्छा उदाहरण देकर हमें समझाया जाता है जैसे जब रानी मक्खी कहीं जाकर बैठ जाती है तो उसके इर्द-गिर्द सारी मक्खियाँ बैठ जाती हैं। उसी प्रकार से हमारे शरीर के अन्दर मन है। वह रानी मक्खी है और बाकी इन्द्रियाँ बाकी मक्खियाँ हैं। संसार में से उस रानी मक्खी को हटाकर भगवान में बिठा दो। फिर यह अनियंत्रित देखना, सूंघना व छूना आदि सब बन्द हो जायेंगे।
प्रत्याहार की सिद्धि के बिना हम अपने मन को पूर्णत्या परमात्मा में नहीं लगा सकते।
धारणा: एकाग्रचित्त होना अपने मन को वश में करना।
अपने मन को अपनी इच्छा से अपने ही शरीर के अन्दर किसी एक स्थान में बांधने, रोकने या टिका देने को धारणा कहते
हैं।
वैसे तो शरीर में मन को टिकाने के मुख्य स्थान मस्तक, भ्रूमध्य, नाक का अग्रभाग, जिह्वा का अग्रभाग, कण्ठ, हृदय, नाभि आदि हैं परन्तु इनमें से सर्वोत्तम स्थान हृदय प्रदेश को माना गया है। हृदय प्रदेश का अभिप्राय शरीर के हृदय नामक अंग के स्थान से न हो कर छाती के बीचों बीच जो गड्डा होता है उससे है।
वैसे तो शरीर में मन को टिकाने के मुख्य स्थान मस्तक, भ्रूमध्य, नाक का अग्रभाग, जिह्वा का अग्रभाग, कण्ठ, हृदय, नाभि आदि हैं परन्तु इनमें से सर्वोत्तम स्थान हृदय प्रदेश को माना गया है। हृदय प्रदेश का अभिप्राय शरीर के हृदय नामक अंग के स्थान से न हो कर छाती के बीचों बीच जो गड्डा होता है उससे है।
जहां धारणा की जाती है वहीं ध्यान करने का विधान है।
ध्यान के बाद समाधि के माध्यम से आत्मा प्रभु का दर्शन करता है और दर्शन वहीं हो
सकता है जहां आत्मा और प्रभु दोनों उपस्थित हों। प्रभु तो शरीर के अन्दर भी है और
बाहर भी परन्तु आत्मा केवल शरीर के अन्दर ही विद्यमान हैं। इसलिए शरीर से बाहर धारणा
नहीं करनी चाहिए।
निम्नलिखित कारणों से प्राय: हम मन को लम्बे समय तक
एक स्थान पर नहीं टिका पाते
मन जड़ है को भूले रहना। भोजन में सात्विकता की कमी। संसारिक
पदार्थों व संसारिक-संबंन्धों में मोह रहना। र्इश्वर कण — कण में व्याप्त है को भूले रहना। बार-बार मन को टिकाकर
रखने का संकल्प नहीं करना। मन के शान्त भाव को भुलाकर उसे चंचल मानना।
बहुत से योग साधक बिना धारणा बनाए ध्यान करते रहते
हैं। जिससे मन की स्थिरता नहीं बन पाने से भी भटकाव अधिक होने लगता है।
जितनी मात्रा में हमने योग के पहले पांच अंगो को सिद्ध किया होता है। उसी अनुपात में हमें धारणा में सफलता मिलती है। धारणा के महत्त्व व आवश्यकता को निम्नलिखित उदाहरण से समझाया जा सकता है। जिस तरह किसी लक्ष्य पर बन्दूक से निशाना साधने के लिए बन्दूक की स्थिरता परमावश्यक है। ठीक उसी तरह र्इश्वर पर निशाना लगाने (र्इश्वर को पाने) के लिए हमारे मन को एक स्थान पर टिका देना अति आवश्यक है।
ध्यान: अंत: इंद्रियों का सांद्रण, निरंतर ध्यान। प्राय: मनुष्य अपने
दैनिक कार्यों में इतना व्यस्त रहता है कि उसे यह भी बोध नहीं रहता कि उसे जीवन का
अनुपम कार्य ध्यान करना है। कुछ मनुष्य अपने जीवन की व्यस्त दिनचर्या में से ध्यान
के लिए कुछ समय निकालते हैं, परन्तु ध्यान में मन नहीं लगा
पाते हैं।
ध्यान के लिए सर्वोत्तम समय
सुबह चार बजे के आस-पास है। ध्यान की प्रक्रिया के अन्तर्गत स्थिरता व सुख
पूर्वक बैठकर, आँखे कोमलता से बंद कर, दसों यम-नियमों का चिन्तन
करते हुए यह अवलोकन करें कि आप पिछले दिन अपने व्यवहार को उनके अनुरूप कितना चला
पाएं हैं। तत्पश्चात मन को निर्मल करने के लिए प्राणायाम करें। उसके पश्चात अपने
मन को शरीर के अन्दर किसी स्थान पर (देखें-धारणा) टिका कर
स्वयं के अनश्वर चेतन स्वरूप होने व आपसे भिन्न इस शरीर के नश्वर होने पर विचार
करें। र्इश्वर की सर्वत्र विद्यमानता को महसूस करते हुए अनुभव करें कि आप प्रभु
में हैं और प्रभु आप में हैं। प्रभु के गुणों का चिन्तन करते हुए यह महसूस करें कि
उसके आनन्द, अभयता आदि गुण आपमें आ रहे हैं।
भूल से या अज्ञानता से यदि मन इधर-उधर जाए तो तत्काल मन को पुन:-पुन: धारणा स्थल पर टिकाकर प्रभु की पूर्ण निष्ठा, श्रद्धा, प्रेम व तन्मयता से चिन्तन करना है।
भूल से या अज्ञानता से यदि मन इधर-उधर जाए तो तत्काल मन को पुन:-पुन: धारणा स्थल पर टिकाकर प्रभु की पूर्ण निष्ठा, श्रद्धा, प्रेम व तन्मयता से चिन्तन करना है।
ध्यान का अर्थ कुछ भी न विचारना, विचार-शुन्य हो जाना नहीं है। जिस प्रकार पीपे (टिन) में से तेल आदि तरल पदार्थ एक धारा में निकलता है उसी प्रकार प्रभु के एक गुण (आनन्द, ज्ञान आदि) को लेकर सतत् चिन्तन करते रहना चाहिए। जैसे सावधानी के हटने पर तेल आदि की धारा टूटती है। वैसे ही किसी एक आनन्द आदि गुण के चिन्तन के बीच में अन्य कुछ चिन्तन आने पर ध्यान-चिन्तन की धारा टूट जाती है। ध्यान में एक ही विषय रहता है, उसी का निरन्तर चिन्तन करना होता है। ध्यान में निर्विषय होने का अभिप्राय यह है कि जिसका ध्यान करते हैं, उससे भिन्न कोर्इ विषय नहीं हो।
ध्यान को ही उपासना भी कह सकते हैं। यधपि ध्यान का
सर्वोत्तम समय सुबह का है फिर भी ध्यान दिन के किसी भी समय, कितनी ही बार किया जा सकता है परन्तु
प्राणायाम को ध्यान की प्रक्रिया में तभी शामिल करें यदि वह समय प्राणायाम के
नियमों के अनुकूल हो।
समाधि : आत्मा से जुड़ना, शब्दों से परे परम-चैतन्य की अवस्था
हम सभी समाधि का अनुभव करें !!! ध्यान करते-करते जब
परोक्ष वस्तु का प्रत्यक्ष (दर्शन) होता है, उस प्रत्यक्ष को
ही समाधि कहते हैं।
जिस प्रकार आग में पड़ा कोयला अग्नि रूप हो जाता है और उसमें अग्नि के सभी गुण आ जाते हैं। उसी प्रकार समाधि में जीवात्मा में र्इश्वर के सभी गुण प्रतिबिंम्बित होने लगते हैं।
जीवात्मा का मात्र एक प्रयोजन मुक्ति प्राप्ति है और योगी इस प्रयोजन को समाधि से पूर्ण करता है।
यह कथन कि सारा ज्ञान अथवा सारे वेद हमारी आत्मा में हैं का तात्पर्य यह है कि ज्ञान स्वरूप परमात्मा हमारी आत्मा में पूर्णतया व्याप्त है परन्तु परमात्मा, जो ज्ञान का अथाह भण्डार है, को पाने के लिए हमें उचित ज्ञान चाहिए जो हमें योग्य गुरुओं द्वारा ही प्राप्त हो सकता है।
(तथ्य कथन गूगल साइट्स इत्यादि से साभार)
"MMSTM समवैध्यावि ध्यान की वह आधुनिक
विधि है। कोई चाहे नास्तिक हो आस्तिक हो, साकार, निराकार कुछ भी हो बस पागल और हठी
न हो तो उसको ईश अनुभव होकर रहेगा बस समयावधि कुछ बढ सकती है। आपको प्रतिदिन लगभग
40 मिनट देने होंगे और आपको 1 दिन से लेकर 10 वर्ष का समय लग सकता है। 1 दिन उनके
लिये जो सत्वगुणी और ईश भक्त हैं। 10 साल बगदादी जैसे हत्यारे के लिये। वैसे 6
महीने बहुत है किसी आम आदमी के लिये।" सनातन पुत्र देवीदास विपुल खोजी
ब्लाग :
https://freedhyan.blogspot.com/
अति सुंदर!
ReplyDeleteसहज, सरल!
धन्यवाद।