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Thursday, November 1, 2018

क्या है ईश्वर- प्रणिधान अष्टांग योग में



क्या है ईश्वर- प्रणिधान अष्टांग योग में

सनातनपुत्र देवीदास विपुल "खोजी"

 विपुल सेन उर्फ विपुल लखनवी,
(एम . टेक. केमिकल इंजीनियर) वैज्ञानिक एवं कवि
सम्पादक : विज्ञान त्रैमासिक हिन्दी जर्नल “वैज्ञनिक” ISSN 2456-4818
 वेब:  vipkavi.info वेब चैनलvipkavi
फेस बुक:   vipul luckhnavi “bullet"
योग के दूसरे अंग नियम का चौथा उपांग है ईश्वर प्राणिधान। इसे शरणागति योग या भक्तियोग भी कहा जाता है। यह योग मन के भटकाव को रोक कर शक्ति को एकत्रित और सक्रिय करने का योग है। ईश्वर को परमेश्वर, परमात्मा और ब्रह्म कहा जाता है। भगवान या देवता नहीं।

प्राणीधान का भावार्थ होता है। देखा जाना। प्रयत्न। योग साधन में, समाधि। पूरी भक्ति और श्रद्धा से की जानेवाली उपासना।  मन को एकाग्र करके लगाया जानेवाला ध्यान।

प्राणी + धान। धान क्या है छिलके में बंद या लिपटा हुआ चावल। मतलब आप समझे धान ही क्यों कहा। क्योकि धान के छिलके में बंद या लिपटा हुआ चावल सफेद श्वेत होता है। उसी प्रकार इस शरीर रूपी छिलके में आत्म रूपी ईश ढंका रहता है। अंतर्मुखी होकर अपने शरीर का छिलका उतारो और आत्म रूपी धान का चावल प्राप्त कर अपनी युगों युगों की भूख मिटाओ।

वास्तव में सनातन में प्रयुक्त प्रत्येक शब्द एक गहन दर्शन और अर्थ लिये हुये होता है। यही सनातन को सर्व श्रेष्ठ बनाता है।  

ईश्वर प्राणिधान के अनुसार उस एक को प्राप्त करने हेतु जो तरह-तरह के देवी-देवताओं में भी चित्त रमाता है उसका मन भ्रम और भटकाव में उलझने के बाद भी उस परम के प्रति अपने प्राणों की आहुति लगाने के लिए भी तैयार हो उसे ही 'ईश्वर प्राणिधान' कहते हैं। ईश्वर उन्हीं के साथ हैं जो उसके प्रति शरणागत हैं। अर्थात ईश्वरप्रणिधान में मनुष्य ईश्वर पर संपूर्ण श्रद्धा के साथ स्वयं को उसके चरणों में अर्पित कर देता है।

दूसरे शब्दों में जब आपने स्वयं का या शरीर में स्थित आत्मा का पूर्ण रूप से अध्ययन कर लिया, तभी आप समर्पण कर सकते हैं। एक रूप से स्वयं को ही समर्पित करना है। यदि आप स्वयं को ठीक से नहीं समझेंगे, तो समर्पित कैसे करेंगे और किसको करेंगे। अत: ईश्वर का होना आवश्यक है। ईश्वर अंतिम साध्य है। यह बुद्धि का एक ऐसा केंद्र - बिंदु है, जिसके सामने आप नत- मस्तक हो सकते हैं। ईश्वर हो तो समर्पण सरल हो सकता है। पहले स्वयं को देखिए, फिर मन- रूपी दर्पण पर कितनी धूल है, उसे पोंछिए। इसके बाद परमात्मा के मंदिर में प्रवेश कीजिये। देवी देवता, साकार सगुण द्वैत भाव से स्वयं को समर्पित कर अहंकार का विसर्जन कीजिये। परम पवित्र होकर संतोष प्राप्त कीजिये। इन सभी नियमों का पालन करके ही ईश्वर के प्रति समर्पित हुआ जा सकता है। यह समर्पण ही तभी जीवन के विकास में सहायक हो सकता है।

ईश्वर को अपने आप से अलग देखना पहला कदम है। समर्पण के लिए भी दो की आवश्यकता होती है, भगवान और भक्त। यानि द्वैत। यह मानो कि ईश्वर ही सब कुछ है और तुम कुछ भी नहीं हो। ईश्वर सर्वशक्तिमान और सर्वोपरि है और मैं कुछ भी नहीं हूँ। इस कुछ नहीं होने के भाव से ही एक हो सकते हैं। तब यह अनुभूति होती है कि सब कुछ तुम ही हो, जो भी सब मैं हूँ, वह भी तुम ही हो।

मन, वचन और कर्म से ईश्वर की आराधना करना और उनकी प्रशंसा करने से चित्त में एकाग्रता आती है। इस एकाग्रता से ही शक्ति केंद्रित होकर हमारे दु:ख और रोग कट जाते हैं। 'ईश्वर पर कायम' रहने से शक्ति का बिखराव बंद होता है।

ईश्वर आराधना को 'संध्या वंदन' कहते हैं। संध्या वंदन ही प्रार्थना है। यह आरती, जप, पूजा या पाठ से भिन्न है। संध्या वंदन के नियम है और उसके तौर-तरीके भी हैं।
इसका लाभ : परमेश्वर की भक्ति का आधार सकारात्मक भावना है। हमारे भीतर प्रतिक्षण अच्‍छी और बुरी भावना की उत्पत्ति सांसारिक प्रभाव से होती रहती है। इस प्रभाव से बचकर जो व्यक्ति ईश्वर का चिंतन या मनन करते हुए स्वयं के भीतर सकारात्मक और निर्मल भाव का विकास करने लगता है तो इसके अभ्यास से धीरे-धीरे उसके आस-पास शांति और सुख का वातावरण निर्मित होने लगता है। अच्‍छे वातावरण में रोग और शोक को मिटाने की ताकत होती है।

परमेश्वर के प्रति ईमानदार व्यक्ति के जीवन में सभी कार्यों के शुभ परिणाम आने लगते हैं। ईश्‍वर से बगैर मांगे उसकी सभी मनोकामनाएं पूर्ण होने लगती है। यह स्थिति शरणागति की होती है। शरणागति की स्थिति में भक्त लगातार ईश्वर की शरण में होता है। ईश्वर को छोड़कर किसी ओर को ईश्वर या ईश्वर तुल्य भी नहीं समझना चाहिए यही ईश्वर प्राणिधान योग है।

अद्वैत भाव यानि योग का अनुभव होने पर यह शरीर और पूरा ब्रह्माण्ड आपका ही है। यह मन भी आपका ही है। यह मन और इसके सारे द्वन्द भी आपके ही हैं। यह मन और इसकी सुंदरता भी आपकी ही है। इस तरह का समर्पण भी एक प्रक्रिया है जो तुम्हें पुनः स्वयं में स्थापित कर सकती है। ईश्वर प्रणिधान ध्यान में तुम्हें आनंद से भर देता है और समाधि की अवस्था में ले आता है।

दीप-धूप, फल-फूल अर्पण करने में कुछ विशेष नहीं, अपने शरीर के एक एक अंग का अर्पण करो। जीवन के प्रत्येक क्षण का अर्पण करो। हर श्वांस, हर विचार, अच्छा बुरा, जैसा भी, सब कुछ अर्पण कर दो। अपनी सभी वासनाओं, दुर्गुणों और जो भी तुम अपने आप में बुरा समझते हो, उस सब को भी अर्पण कर दो। जो भी तुम्हारे में नकारात्मक है और जो भी सकारात्मक है, उस सभी को अर्पित कर दो।

नकारात्मक को अर्पण कर देने से तुम मुक्त हो जाओगे और सकारात्मक को अर्पण कर देने से तुम्हें अहंकार नहीं होगा। तुम्हारे गुण तुम्हें अभिमानी बना सकते हैं। गुणों से तुम्हें ऐसे लग सकता है जैसे तुम कुछ विशेष हो। अवगुण अथवा तुम्हारी कमियां तुम्हें नीचे धकेलती हैं और तुम्हें अपने बारे में बुरा लगता है। यदि तुम्हें अपने बारे में बुरा लगने लगे, ईश्वर से सामीप्य न लगे, तब कुछ भी ऐसा नहीं है जो तुम्हें उस जुड़ाव को महसूस करवा सके।

यह केवल तुम्हारे ऊपर ही है कि तुम ईश्वर से सामीप्य महसूस करते हो। वैसे ये तुम्हारे ऊपर ही है कि तुम अपने आप को किसी के भी कितना घनिष्ठ मानते हो। यदि किसी दूसरे व्यक्ति को घनिष्ठता न भी लगे फिर भी तुम्हें अपनी ओर से निकटता महसूस करनी चाहिए। इस बात के कोई मायने नहीं कि वो तुमसे घनिष्ठता महसूस करते है कि नहीं। तुम यह पता भी कैसे कर सकते हो, केवल उनके व्यवहार सेनहीं, व्यवहार सही तरीका नहीं है।

तुम्हारे स्वयं के मन के अलावा और कुछ ऐसा है ही नहीं, जिससे तुम्हें यह यह यकीन हो जाए कि तुम ईश्वर के प्रिय हो। दूसरे लोगों से तुलना करना बंद करो। ऐसे ही गुरु के साथ है। तुम्हें लग सकता है कि फलां फलां गुरूजी के बड़े निकट हैं क्योंकि गुरूजी उनसे बार बार मुस्कुरा के बात करते हैं और मुझसे तो बात ही नहीं करते हैं। यह सब तुम्हारा भ्रम है। बात करने, न करने से कुछ अंतर नहीं होता। तुम ऐसे महसूस करने लगो की तुम ही गुरु के निकटतम हो, तुम ही हो बस। और फिर वैसा ही होना लगेगा, जैसे तुम बीज डालोगे, वैसा ही घटने लगेगा।

यदि तुम यही सोचते रहोगे कि मैं बेकार हूँ, कुछ काम का नहीं हूँ, ऐसे बीज डालोगे तो कहाँ से कुछ अच्छा होगा।

अधिकतर बेकार खरपतवार अपने आप उग आती है, उसे उगाने के लिए कुछ नहीं करना पड़ता, परन्तु उपयोगी पौधों को उगाने के लिए उन्हें पोषित करना पड़ता है। तुम्हारे मन के पटल पर भी, प्रतिदिन तरह तरह के बेकार विचार, संशय, भाव उठते रहते हैं। उनको तुम्हें बोने की भी कोई आवश्यकता नहीं होती, वो अपने आप ही आ जाते हैं। स्वाध्याय और जागरूकता से तुम इन सबको उखाड़ फेंक सकते हो और केवल जरूरी को संभाल कर रख सकते हो।

तपसः, स्वाध्याय, ईश्वर प्रणिधान - यही क्रिया योग है। यह सब करते हुए भी ऐसा भाव रखो कि तुम यह नहीं कर रहे हो, शांत साक्षी बनो। बाहर की प्रक्रियाओं के बावजूद तुम अपने भीतर इस सबसे अछूते हो।

मेरा तो मानना है या कहो अनुभव है कि अंतर्मुखी होने की सभी विधिओं में मंत्र जप सबसे सस्ता सुंदर और टिकाऊ मार्ग है अत: तुमको जो देव, मंत्र, नाम जप अच्छा लगे उसका जाप करते रहो सतत निरंतर निर्बाध। एक दिन यही द्वैत सगुण साकार तुमको सब कुछ प्रदान कर देगा। देर है अंधेर नहीं। यह जाप तुम्हे गुरू से ईश तक की यात्रा स्वयं करा देगा। निराकार निर्गुण रूप का भी भान करा देगा। पर तुम करना नहीं चाहोगे। बेकार के तर्क वितर्क कुतर्क में लगे रहोगे। जो समझायेगा उसका विरोध कर हंसी उडाने की कोशिश करोगे। तो मित्र एक बात याद रखो यदि तुम अभी नहीं जागे तो कब जागोगे। कहीं ऐसा न हो बाद में पछताना पडे।

हरि ॐ शरणम मम। 


(तथ्य कथन गूगल साइट्स इत्यादि से साभार)


"MMSTM समवैध्यावि ध्यान की वह आधुनिक विधि है। कोई चाहे नास्तिक हो आस्तिक हो, साकार, निराकार कुछ भी हो बस पागल और हठी न हो तो उसको ईश अनुभव होकर रहेगा बस समयावधि कुछ बढ सकती है। आपको प्रतिदिन लगभग 40 मिनट देने होंगे और आपको 1 दिन से लेकर 10 वर्ष का समय लग सकता है। 1 दिन उनके लिये जो सत्वगुणी और ईश भक्त हैं। 10 साल बगदादी जैसे हत्यारे के लिये। वैसे 6 महीने बहुत है किसी आम आदमी के लिये।"  सनातन पुत्र देवीदास विपुल खोजी
ब्लाग :  https://freedhyan.blogspot.com/

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