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Tuesday, November 20, 2018

श्रेष्ठ भक्ति कौन सी??



श्रेष्ठ भक्ति कौन सी??

सनातनपुत्र देवीदास विपुल "खोजी"

 विपुल सेन उर्फ विपुल लखनवी,
(एम . टेक. केमिकल इंजीनियर) वैज्ञानिक एवं कवि
सम्पादक : विज्ञान त्रैमासिक हिन्दी जर्नल “वैज्ञनिक” ISSN 2456-4818
 वेब:  vipkavi.info वेब चैनलvipkavi
फेस बुक:   vipul luckhnavi “bullet"


गीता में भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं-
चतुर्विधा भजन्ते मां जना: सुकृतिनोऽर्जुन । आर्तो जिज्ञासुरर्थार्थी ज्ञानी च भरतर्षभ ।। (7/16)
'हे अर्जुन ! आर्त, जिज्ञासु, अर्थार्थी और ज्ञानी-ये चार प्रकार के भक्त मेरा भजन किया करते हैं। इनमें से सबसे निम्न श्रेणी का भक्त अर्थार्थी है। उससे श्रेष्ठ आर्त, आर्त से श्रेष्ठ जिज्ञासु, और जिज्ञासु से भी श्रेष्ठ ज्ञानी है।

अर्थार्थी भक्त वह है जो भोग, ऐश्वर्य और सुख प्राप्त करने के लिए भगवान का भजन करता है। उसके लिए भोगपदार्थ व धन मुख्य होता है और भगवान का भजन गौण ध्रुव को अर्थार्थी भक्त माना जाता है।
आर्त भक्त वह है जो शारीरिक कष्ट आ जाने पर या धन-वैभव नष्ट होने पर, अपना दु:ख दूर करने के लिए भगवान को पुकारता है। जैसे द्रौपदी ने सदैव संकट में भगवान को याद किया।
जिज्ञासु भक्त अपने शरीर के पोषण के लिए नहीं वरन् संसार को अनित्य जानकर भगवान का तत्त्व जानने और उन्हें पाने के लिए भजन करता है। उद्धवजी जिज्ञासु भक्त की श्रेणी में आते हैं।
परन्तु ज्ञानी भक्त सदैव निष्काम होता है इसलिए भगवान ने ज्ञानी को अपनी आत्मा कहा है। ज्ञानी भक्त के योगक्षेम का वहन भगवान स्वयं करते हैं क्योंकि आर्त, अर्थार्थी और जिज्ञासु तो सकाम भक्त हैं, उनमें अन्य वस्तुओं को प्राप्त करने की कामना रहती है किन्तु ज्ञानी भक्त भगवान को छोड़कर और कुछ नहीं चाहता है।

भक्ति को निम्नलिखित प्रकारों से भी जाना जा सकता है।
सर्गुण भक्ति
निर्गुण भक्ति
परा भक्ति
निर्वाणी भक्ति

सामान्य जन साधारण केवल सर्गुण व निर्गुण भक्ति पद्धतियों को ही जानता है जिनसे पूर्ण मुक्ति नही पाई जा सकती है।

सर्गुण भक्ति
सर्गुण भक्ति का जैसे – गुरूद्वारा, मंदिर, मस्जिद, चर्च आदि में पूजा के लिए जाना, देवी-देवताओं की पूजा कराना, मूर्ति पूजा, ग्रहों की पूजा, यज्ञ आदि करना। इनमे विभिन्न मंत्रों का सहारा भी लिया जाता है । इसमे साधक प्रभु के विभिन्न रूपों की पूजा करता है। यह वाह्यमुखी भक्ति है। इस प्रकार की भक्ति करने वाले साधक को मृत्यु उपरांत आत्मा के पुण्य कर्मों के आधार पर उसको पित्र लोक या स्वर्ग लोक आदि में निवास मिलता है लेकिन पुण्य कर्मों के फल की समाप्ति पर आत्मा को पुन: इस नाशवान संसार में भेज दिया जाता है।

निर्गुण भक्ति
निर्गुण भक्ति आंतरिक संगीतमय आवाजों तथा ज्योति की भक्ति है। निर्गुण भक्ति करने वाले लोग मानते हैं कि प्रभु का कोई रंग, रूप नही है और वह निराकार है और मानव रूपी मंदिर के अंदर ही पाया जा सकता है। इसमे साधक मुख्यत: आत्म साक्षात्कार पर केन्द्रित रहते हैं। यह भक्ति पाँच मुद्राओं चाचरी, भूचरी, अगोचरी, उन्मुखी और खेचरी पर आधारित है। उक्त सभी ध्यान की मुद्राओं से ब्रहमाण्ड में प्रवेश व यात्रा करने का माध्यम सुषमना नाड़ी है। निर्गुण भक्ति की पहुँच सहस्रसार चक्र तक है। इसमे ध्यान की मदद से साधक ब्रहमाण्ड को अपने शरीर के अंदर देखने लगता है और अपने अंतर में असीम परमानंद अनुभव होने लगता है।

परा भक्ति
परा भक्ति की पहुँच सर्गुण, निर्गुण दोनों भक्तियों, वेदों तथा अन्य धार्मिक ग्रन्थों से परे है। लेकिन इसमे भी साधक भक्ति के लिए विभिन्न मंत्रों का उपयोग करता है। इस भक्ति से ब्रह्मांड की चौथी तक साधक गमन करता है तथा असीम आनंद का अनुभव करता है लेकिन जिस प्रकार बूंद समुद्र में मिलकर समुद्र हो जाती है इसी प्रकार आत्मा परमपिता परमेश्वर में मिलकर स्वयं परमपिता परमेश्वर नहीं होती है।

निर्वाणी भक्ति
यह भक्ति का वह प्रकार है जिसके माध्यम से कोई साधक अपनी आत्मा का पूर्ण कल्याण कर लेता है। इस विधि में जैसा कि नाम से ही स्पष्ट है कि किसी मंत्र आदि का जाप नही करना होता है। परा भक्ति के पार जाकर “सार शब्द” जो मुक्ति प्रदान करने वाला आत्मिक शब्द है । जिसको लिखा, पढ़ा या बोला नहीं जा सकता है यही मुक्ति कारक है। यही सार शब्द साधक की आत्मा को कालातीत कर स्थायी मुक्ति प्रदान करने की आध्यात्मिक शक्ति रखता है। सद्गुरु की कृपा से जब सार शब्द प्रकट होता है तो यह मन माया की सीमा से खीच कर पार ले जाता है। इसी सार शब्द के बारे में कबीर साहिब ने बहुत ही विस्तार से चर्चा की है।

प्राचीन शास्त्रों में भक्ति के 9 प्रकार बताए गए हैं जिसे नवधा भक्ति कहते हैं।
श्रवणं कीर्तनं विष्णोः स्मरणं पादसेवनम्। अर्चनं वन्दनं दास्यं सख्यमात्मनिवेदनम्॥
श्रवण (परीक्षित), कीर्तन (शुकदेव), स्मरण (प्रह्लाद), पादसेवन (लक्ष्मी), अर्चन (पृथुराजा), वंदन (अक्रूर), दास्य (हनुमान), सख्य (अर्जुन) और आत्मनिवेदन (बलि राजा) - इन्हें नवधा भक्ति कहते हैं।

श्रवण: ईश्वर की लीला, कथा, महत्व, शक्ति, स्रोत इत्यादि को परम श्रद्धा सहित अतृप्त मन से निरंतर सुनना।
कीर्तन: ईश्वर के गुण, चरित्र, नाम, पराक्रम आदि का आनंद एवं उत्साह के साथ कीर्तन करना।
स्मरण: निरंतर अनन्य भाव से परमेश्वर का स्मरण करना, उनके महात्म्य और शक्ति का स्मरण कर उस पर मुग्ध होना।
पाद सेवन: ईश्वर के चरणों का आश्रय लेना और उन्हीं को अपना सर्वस्य समझना।
अर्चन: मन, वचन और कर्म द्वारा पवित्र सामग्री से ईश्वर के चरणों का पूजन करना।
वंदन: भगवान की मूर्ति को अथवा भगवान के अंश रूप में व्याप्त भक्तजन, आचार्य, ब्राह्मण, गुरूजन, माता-पिता आदि को परम आदर सत्कार के साथ पवित्र भाव से नमस्कार करना या उनकी सेवा करना।
दास्य: ईश्वर को स्वामी और अपने को दास समझकर परम श्रद्धा के साथ सेवा करना।
सख्य: ईश्वर को ही अपना परम मित्र समझकर अपना सर्वस्व उसे समर्पण कर देना तथा सच्चे भाव से अपने पाप पुण्य का निवेदन करना।
आत्मनिवेदन: अपने आपको भगवान के चरणों में सदा के लिए समर्पण कर देना और कुछ भी अपनी स्वतंत्र सत्ता न रखना। यह भक्ति की सबसे उत्तम अवस्था मानी गई हैं।

इनमें से कौन-सा भक्त है संसार में सर्वश्रेष्ठ ?
एक बार ऋषियों ने विचार किया कि संसार में सबसे बड़ा कौन है, जिसका भजन किया जाए? किसी ने कहा कि पृथ्वी सबसे बड़ी है, क्योंकि यह सारे संसार को धारण किए हुए है। दूसरे ने कहा कि उस पृथ्वी को शेष भगवान ने अपने फणों पर धूल के कण के समान धारण कर रक्खा है, अत: शेष भगवान सबसे बड़े हैं। तीसरे ने कहा कि शेषनाग को भगवान शंकर ने अपने हृदय पर आभूषण की तरह धारण कर रक्खा है, अत: शंकरजी सबसे बड़े हैं। चौथे ने कहा कि शिव के निवासस्थान कैलास को उनके सहित रावण ने अपनी भुजाओं पर उठा लिया। उस रावण को बालि ने जीत लिया और बालि का वध श्रीरामचन्द्रजी ने किया । अत: भगवान श्रीराम सबसे बड़े हैं। यह सुनकर पांचवे ऋषि ने कहा-ऐसे परमात्मा को भक्त अपने हृदय में धारण करते हैं, इसलिए भक्त ही त्रिलोकी में सर्वश्रेष्ठ हैं।

श्रीमद्भागवत में भगवान श्रीकृष्ण ने कहा है-'मैं सदैव भक्त के अधीन हूँ, मुझमें तनिक भी स्वतन्त्रता नहीं है । मेरे सीधे-साधे सरल भक्तों ने मेरे हृदय को अपने हाथ में कर रक्खा है। भक्तजन मुझसे प्यार करते हैं और मैं उनसे। अपने भक्त को छोड़कर मैं न तो अपने-आपको चाहता हूँ और न अपनी अर्धांगिनी लक्ष्मी को। मेरे प्रेमी भक्त तो मेरे हृदय हैं और उन भक्तों का हृदय स्वयं मैं हूँ। मैं भक्त की पदरज की इच्छा से सदा उसके पीछे-पाछे घूमा करता हूँ जिससे उसकी चरणधूलि उड़कर मेरे शरीर पर पड़े और मैं उसके द्वारा पवित्र हो जाऊँ।'
भगवान जिसके पीछे-पीछे घूमते हों, भला उसको किस बात की चिन्ता!

भगवान से निष्काम प्रेम ही है सच्ची भक्ति
माधवदास नाम के एक ब्राह्मण घर-संसार त्यागकर जगन्नाथपुरी के पास एकान्त स्थान पर भगवान के ध्यान में मग्न हो गए। वे ध्यान में ऐसे मग्न हुए कि बिना अन्न-जल के उन्हें कई दिन बीत गए। भगवत्प्रेम की यही दशा है। भक्त के कष्ट को जब भगवान स्वयं सहन करने में असमर्थ हो गए तब उन्होंने सुभद्राजी को आदेश किया कि उत्तम-से-उत्तम भोजन सोने की थाली में परोसकर तुम मेरे भक्त के पास पहुंचा आओ। सुभद्राजी भोजन लेकर जब माधवदास के पास पहुंचीं तो उन्हें ध्यानमग्न देखकर थाली रखकर लौट आईं। ध्यान टूटने पर माधवदास ने सोने की थाली में भोजन देखा तो भगवान की कृपा देखकर आनन्द से आंसु बहाने लगे। फिर प्रसाद पाया और थाली एक ओर रखकर पुन: ध्यानमग्न हो गये।

प्रात:काल पुजारी ने मन्दिर के द्वार खोलने पर देखा कि एक सोने की थाली ग़ायब है। चोर का पता लगाते-लगाते वह भक्त माधवदास के पास पहुँचा। वहाँ सोने की थाली रखी देखकर माधवदास को चोर समझकर वह बेंतों से उसकी पिटाई करने लगा। माधवदास ने हँसते-हँसते बेतों की चोट सह ली परन्तु भगवान जगन्नाथजी से यह सहन न हुआ। उन्होंने पुजारी को स्वप्न में दर्शन देकर कहा-'मेरे भक्त माधवदास के ऊपर जो बेंत की मार पड़ी है, उसे मैंने अपने ऊपर ले लिया है। अब मैं तुम्हारा सर्वनाश कर दूंगा। यदि तुम इससे बचना चाहते हो तो मेरे भक्त के चरणों में गिरकर क्षमा मांगो।'

सर्वनाश के भय से कांपते हुए पुजारी ने माधवदास से क्षमा मांगी और माधवदास ने उसे गले लगाकर क्षमा कर दिया; क्योंकि सच्चे भक्त का हृदय पृथ्वी की तरह क्षमाशील होता है।
क्यों करते हैं भगवान भक्त की सेवा?

एक बार माधवदास को अतिसार (दस्त) हो गए और वे इतने दुर्बल हो गए कि समुद्र के किनारे जाकर पड़ गए। माधवदास की ऐसी दशा देखकर भगवान जगन्नाथजी स्वयं सेवक बनकर उनकी सेवा करने लगे। माधवदास को जब होश आया तो वे पहचान गए कि ये मेरे ठाकुर ही हैं। ऐसा सोचकर उन्होंने सेवक के चरण पकड़ लिए और बोले-'मुझ जैसे अधम के लिए आपने इतना कष्ट क्यों उठाया ? आप तो सर्वशक्तिमान हैं। आप तो चाहने पर ही मेरे सारे दु:खों को दूर कर सकते थे।'

भगवान ने कहा-'मैं अपने भक्तों के कष्ट को सहन नहीं कर सकता। अपने सिवा मैं और किसी को भक्त की सेवा के योग्य नहीं समझता। इसलिए मैंने तुम्हारी सेवा की है। तुम जानते हो कि प्रारब्धकर्म भोगे बिना नष्ट नहीं होते हैं- यह मेरा नियम है और मैं यह क्यों तोडूं। इसी कारण मैं केवल सेवा करके भक्त को प्रारब्ध भोग कराता हूं और संसार को यह शिक्षा देता हूँ कि भगवान भक्त के अधीन हैं।' ऐसा कहकर भगवान अन्तर्धान हो गए।

भक्त भक्ति भगवंत गुरु चतुर नाम वपु एक। इनके पद वंदन किएं नासत बिघ्न अनेक।। (श्रीनाभादासजी)

हमेशा आसक्ति से ही कामना का जन्म होता है.
जो व्यक्ति संदेह करता है उसे कही भी ख़ुशी नहीं मिलती.
जो मन को रोक नहीं पाते उनके लिए उनका मन दुश्मन के समान है.
वासना, गुस्सा और लालच नरक जाने के तीन द्वार है.
इस जीवन में कुछ भी व्यर्थ होता है.
मन बहुत ही चंचल होता है और इसे नियंत्रित करना कठिन है. परन्तु अभ्यास से इसे वश में किया जा सकता है.
सम्मानित व्यक्ति के लिए अपमान मृत्यु से भी बदतर होती है.
व्यक्ति जो चाहे वह बन सकता है अगर वह उस इच्छा पर पूरे विश्वास के साथ स्मरण करे.
जो वास्तविक नहीं है उससे कभी भी मत डरो.
हर व्यक्ति का विश्वास उसके स्वभाव के अनुसार होता है.
जो जन्म लेता है उसकी मृत्यु भी निश्चित है. इसलिए जो होना ही है उस पर शोक मत करो.
जो कर्म प्राकृतिक नहीं है वह हमेशा आपको तनाव देता है.
तुम मुझमे समर्पित हो जाओ मैं तुम्हे सभी पापो से मुक्त कर दूंगा.
किसी भी काम को नहीं करने से अच्छा है कि कोई काम कर लिया जाए.
जो मुझसे प्रेम करते है और मुझसे जुड़े हुए है. मैं उन्हें हमेशा ज्ञान देता हूँ.
बुद्धिमान व्यक्ति ईश्वर के सिवा और किसी पर निर्भर नहीं रहता.
सभी कर्तव्यो को पूरा करके मेरी शरण में आ जाओ.
ईश्वर सभी वस्तुओ में है और उन सभी के ऊपर भी.
एक ज्ञानवान व्यक्ति कभी भी कामुक सुख में आनंद नहीं लेता.
जो कोई भी किसी काम में निष्क्रियता और निष्क्रियता में काम देखता है वही एक बुद्धिमान व्यक्ति है.
मैं इस धरती की सुगंध हूँ. मैं आग का ताप हूँ और मैं ही सभी प्राणियों का संयम हूँ.
तुम उस चीज के लिए शोक करते हो जो शोक करने के लायक नहीं है. एक बुद्धिमान व्यक्ति न ही जीवित और न ही मृत व्यक्ति के लिए शोक करता है.
मुझे कोई भी कर्म जकड़ता नहीं है क्योंकि मुझे कर्म के फल की कोई चिंता नहीं है.
मैंने और तुमने कई जन्म लिए है लेकिन तुम्हे याद नहीं है.
वह जो मेरी सृष्टि की गतिविधियों को जानता है वह अपना शरीर त्यागने के बाद कभी भी जन्म नहीं लेता है क्योंकि वह मुझमे समा जाता है.
कर्म योग एक बहुत ही बड़ा रहस्य है.
जिसने काम का त्याग कर दिया हो उसे कर्म कभी नहीं बांधता.
बुद्धिमान व्यक्ति को समाज की भलाई के लिए बिना किसी स्वार्थ के कार्य करना चाहिए.
जब व्यक्ति अपने कार्य में आनंद प्राप्त कर लेता है तब वह पूर्ण हो जाता है.
मेरे लिए कोई भी अपना – पराया नहीं है. जो मेरी पूजा करता है मैं उसके साथ रहता हूँ.
जो अपने कार्य में सफलता पाना चाहते है वे भगवान की पूजा करे.
बुरे कर्म करने वाले नीच व्यक्ति मुझे पाने की कोशिश नहीं करते.
जो व्यक्ति जिस भी देवता की पूजा करता है मैं उसी में उसका विश्वास बढ़ाने लगता हूँ.
मैं भूत, वर्तमान और भविष्य के सभी प्राणियों को जानता हूँ लेकिन कोई भी मुझे नहीं जान पाता.
वह सिर्फ मन है जो किसी का मित्र तो किसी का शत्रु होता है.
मैं सभी जीव – जंतुओ के ह्रदय में निवास करता हूँ.
चेतन व अचेतन ऐसा कुछ भी नहीं है जो मेरे बगैर इस अस्तित्व में रह सकता हो.
इसमें कोई शक नहीं है कि जो भी व्यक्ति मुझे याद करते हुए मृत्यु को प्राप्त होता है वह मेरे धाम को प्राप्त होता है.


जय गुरूदेव महाकाली।  


(तथ्य कथन गूगल साइट्स इत्यादि से साभार)


"MMSTM समवैध्यावि ध्यान की वह आधुनिक विधि है। कोई चाहे नास्तिक हो आस्तिक हो, साकार, निराकार कुछ भी हो बस पागल और हठी न हो तो उसको ईश अनुभव होकर रहेगा बस समयावधि कुछ बढ सकती है। आपको प्रतिदिन लगभग 40 मिनट देने होंगे और आपको 1 दिन से लेकर 10 वर्ष का समय लग सकता है। 1 दिन उनके लिये जो सत्वगुणी और ईश भक्त हैं। 10 साल बगदादी जैसे हत्यारे के लिये। वैसे 6 महीने बहुत है किसी आम आदमी के लिये।"  सनातन पुत्र देवीदास विपुल खोजी
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