मानव योनि सर्वश्रेष्ठ क्यों??
सनातनपुत्र देवीदास विपुल
"खोजी"
विपुल सेन उर्फ विपुल “लखनवी”,
(एम . टेक. केमिकल इंजीनियर) वैज्ञानिक
एवं कवि
सम्पादक : विज्ञान त्रैमासिक हिन्दी जर्नल
“वैज्ञनिक” ISSN
2456-4818
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फेस बुक: vipul luckhnavi
“bullet"
जब किसी के मन में यह विचार आता है कि मनुष्य-जीवन नश्वर
है, निरर्थक
है-वह शरीर हाड़-माँस रुधिर और चर्म का बना हुआ है, मल-मूत्र
आदि के रूप में इसमें नरक भरा हुआ है, तब निश्चय जानिए उसके
मन पर अज्ञान का, मोह का घना अन्धकार छाया हुआ है। इस प्रकार
का निकृष्ट विचार अवास्तविक है।
वास्तविकता यह है कि मनुष्य का जीवन एक सार्थक
प्रक्रिया है। उसका शरीर एक पवित्र मन्दिर है। यह मानव-तन ही तो वह साधन, वह उपादान है, जिसकी
सहायता से ईश्वर को पाया जाता है। इसे नरक का निवास कहना, इसका
अपमान करना है।
भूल
कर भी मन में यह विचार मत आने दीजिये कि मनुष्य हाड़-माँस का एक पुतला है। पाप से
उत्पन्न हुआ है और पाप में ही प्रवृत्त रहता है।” यह विचार स्वयं ही एक बड़ा पाप
है। अपने प्रति निकृष्ट दृष्टिकोण रखने वाला कभी भी उन्नतिशील नहीं हो सकता।
उन्नति का आधार है अपने प्रति ऊँचा और पवित्र विचार रखना।
मनुष्य की वास्तविकता यह है कि यह अखण्ड, अगणित चेतन अणु-परमाणुओं का सजीव तेज-पुञ्ज है। असीम और अक्षय शक्तियों से भरा हुआ है। उसके आन्तरिक कोशों और चक्रों में सारी सिद्धियाँ सोई हुई हैं। वह ईश्वर का पुत्र और उसका प्रतिनिधि है। संसार का सर्वश्रेष्ठ प्राणी है-मनुष्य के विषय में महाभारत का यह वाक्य अक्षरशः सत्य और यथार्थ है-यह रहस्य मैं तुम को बतलाता हूँ कि मनुष्य से श्रेष्ठ और कुछ नहीं है।”
सामवेद में कहा गया है कि कई जन्मों के अच्छे कर्मों
की वजह से मनुष्य का शरीर मिलता है। वैदिक परंपरा में माना जाता है कि मनुष्य का
जन्म चौरासी लाख योनियों में आत्मा के भटकने के बाद मिलता है। मनुष्य के अलावा
दूसरे सभी जन्मों में भोग ही प्रमुख रहता है। अच्छे कर्म केवल मनुष्य शरीर मिलने
के बाद ही किए जा सकते हैं। वेदों में कहा गया है, 'मनुर्भव!' यानी
मनुष्य बनें। इसका अर्थ है कि केवल मनुष्य शरीर पाने से हम मनुष्य नहीं हो जाते,
बल्कि इसके लिए अच्छे कर्म करने की जरूरत है। बेकार न जाए यह जन्म।
तुलसीदास
लिखा है 'बड़े भाग मानुष तन
पावा। सुर दुर्लभ सद्ग्रंथन्ह गावा॥
मनुष्य जन्म की बड़ाई देवता, ऋषि-मुनि और संतजनों ने की है,
इसलिए हमें इसकी कीमत समझनी चाहिए। वैसे इंसान और शेष जीवधारियों
में चार बातें समान हैं। खाना-पीना,
संतान उत्पन्न करना, जन्म और मृत्यु।
राजा भृतहरि के नीतिशतक का तेहरवां श्लोक कहता है। येषां न विद्या न तपो
न दानं ज्ञानं न शीलं न गुणो न धर्मः। ते मर्त्यलोके भुविभारभूता मनुष्यरूपेण
मृगाश्चरन्ति॥ जिन लोगों के पास न तो विद्या है,
न तप, न दान, न शील,
न गुण और न धर्म. वे लोग इस पृथ्वी पर भार हैं और मनुष्य के रूप में
मृग की तरह से घूमते रहते हैं।
बहारवां श्लोक कहता है। साहित्यसङ्गीतकलाविहीनः
साक्षात्पशुः पुच्छविषाणहीनः। तृणं न खादन्नपि जीवमानस्तद्भागधेयं परमं पशूनाम्॥ साहित्य, संगीत और कला से
विहीन मनुष्य साक्षात नाख़ून और
सींग रहित पशु के समान है। और ये पशुओं का भाग्य है की वो
(मनुष्य) उनकी तरह घास नहीं खाता।
केवल एक
'विशेषता' की वजह से इंसान दूसरे जीवों से अलग
है, वह है चिंतन-मनन की शक्ति। केवल इसी की वजह से हम मनुष्य
हैं। अगर किसी इंसान में मनन (सोचने-समझने और अच्छाई-बुराई
में भेद करने की) की शक्ति नहीं है, तो वह मनुष्य शरीर में
भी जानवर जैसा है।
हीरे-सा अनमोल यह जन्म: लोक व्यवहार में बड़ी मुश्किल
से हासिल की हुई कीमती वस्तु की हिफाजत बड़े ढंग से की जाती है। इसलिए इंसान के
जन्म की तुलना 'हीरा'
जैसे रत्न से की गई है। लेकिन चौरासी लाख योनियों (शरीरों) में
भटकने के बाद मनुष्य जन्म मिलने पर भी हम इसकी हिफाजत नहीं करते। न इसका मूल्य
समझते हैं। मनुष्य जन्म इतना बहुमूल्य है कि इसके आगे दुनिया की कोई अन्य चीज
कीमती नहीं हो सकती।
पर क्या हम इस 'जीवन दर्शन' को जानते हैं या जानने की
कोशिश करते हैं? जानकर उसको अमल में लाते हैं? अगर नहीं, तो हमारा जन्म लेना और पशु-पक्षियों के जन्म
लेने में कोई अंतर नहीं है। अपरिग्रह को समझें: दुनिया में ज्ञान-विज्ञान, साहित्य, भौतिकता, धर्म,
समाज और शासन व्यवस्था के विभिन्न रूप दिखाई दे रहे हैं। यह सब मानव
बुद्धि, विवेक और उसके कार्यों का फल है।
वेदों में कहा गया है- दुनिया में जितनी भी भोग की
चीजें हैं, उनका उपभोग
(इस्तेमाल) करें, लेकिन उतना ही, जितने की हमें जरूरत है। जरूरत से ज्यादा चीजों को इकट्ठा करना पाप है और
इसे अधर्म कहा गया है। इसलिए अपरिग्रह की बात कही गई है। जो रात-दिन जरूरत से
ज्यादा धन, संपत्ति और नाना प्रकार की चीजों को इकट्ठा करने
में लगे रहते हैं, वे कुदरत और परमात्मा की बनाई व्यवस्था को
भंग करते हैं। ऐसे ही लोग सामाजिक असंतुलन पैदा करने के दोषी हैं।
मानव जन्म की सार्थकता: वेदों में कहा गया है 'भोगापवर्गार्थं दृश्यम्', यानी दुनिया में जन्म लेने का मकसद भोग और अपवर्ग (यानी दूसरों के हित के
लिए त्याग करना), दोनों है। इस संतुलन के लिए धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष
के सिद्धांत को सामने रखा गया। संसार की प्रतिकूलताओं को अपनी योग्यता, पुरुषार्थ और वीरता से अनुकूल बनाकर न केवल अपने लिए, बल्कि पूरे समाज के लिए राह सुगम करना और उसे सुखद बनाना ही जीवन है। जो
इस जीवनदर्शन को समझ लेता है, उसका जन्म लेना सार्थक हो जाता
है।
वेद में कहा गया है- 'हे जीवन से परिपूर्ण प्राणी! तू मरे
नहीं।' अर्थात्, मौत पर जीत हासिल करके
तू अपनी इंसानी वीरता और संकल्प को प्रदर्शित कर। जिसने यह अजूबा किया, वह हमेशा के लिए अमर हो गया। सामवेद में कहा गया है- मनुष्य परमात्मा का
ध्यान करते हुए अच्छी बुद्धि हासिल करे। ईश्वर का चिंतन करते समय यह चिन्तन भी करे
कि यह जन्म क्यों? किसके लिए? जन्म का
उद्देश्य क्या है? हमारी मंजिल हमारी क्या है? साथ ही, अपनी कमियों पर गौर करते हुए उसे दूर करने
की कोशिश करे। अच्छाइयों को कायम रखे। दूसरों के साथ वैसा ही बर्ताव करें, जैसा हम दूसरे से चाहते हैं। तभी मानव जन्म लेना सफल हो सकता है। बड़े
भाग्य से यह मानव शरीर मिला है, इसलिए इसकी श्रेष्ठता साबित
करें।
वहीं
योगवाशिष्ठ में महर्षि वशिष्ठ ने राम को उपदिष्ट करते हुए कहा है कि-मनुष्य से
श्रेष्ठ इस संसार में दूसरा कोई अन्य प्राणी नहीं है। निश्चित ही यह वरीसता मानव
को उसकी दैहिक विशिष्टता के कारण कम अन्तराल की विशालता-विशिष्टता के कारण अधिक
मिली है। करुणा, उदारता, साहसिकता,
नैतिकता, सहृदयता, स्नेह-सौजन्य
आदि सद्गुणों से ओत-प्रोत मानवी अन्तःकरण अवसर पाकर प्रस्फुटित होता और अन्यायों
को अपने भाव तरंगों से आप्लावित-आच्छादित करता रहता है। इतर प्राणियों में इसके दर्शन
नहीं होते। उच्चस्तरीय विचारणाओं-भावनाओं को गुण, कर्म,
स्वभाव में समाहित करने तथा उन्हें व्यवहार के माध्यम ये प्रकट कर
सकने की क्षमता मनुष्य में ही है। सृष्टा के विश्व उद्यान को अधिकाधिक सुन्दर
समुन्नत बनाने में केवल वही सक्षम है। इसलिए मनुष्य को ईश्वर का वरिष्ठ राजकुमार कहा
और धरती पर उसका उत्तराधिकारी माना गया हैं।
मनुष्य
जन्म की श्रेष्ठता को प्रायः सभी धर्मों में मनीषियों ने एक मत से स्वीकारा है।
सुप्रसिद्ध मानवता वादी विचारक कोरलिस लेमोण्ट ने अपनी पुस्तक ‘‘हयूमैनिज्म
ऐजएफिलसफी” में कहा है -विश्व में आश्चर्य
अनेक हैं, उनमें सबसे बड़ा आश्चर्य मनुष्य हैं प्रकृति की
उससे महान कृति इस संसार में दूसरी नहीं। लेमोण्ट का यह कथन वस्तुतः ऋषि प्रणीत उस
दार्शनिक प्रतिपादन की ही पुष्टि करता है जिसमें कहा गया है मनुष्य सृष्टा की
सुकृति है, एक अनुपम अद्वितीय संरचना है जिसके अंतराल में महान
संभावनाओं के बीज सूक्ष्म रूप में विद्यमान हैं।
ऐतरेय उपनिषद् (213) में जहाँ
मानव अपने रचनाकार की -विश्व शक्ति की सुकृति है वहीं शतपथ ब्राह्मण 2-5-111
में उसे नारायण के समीप बताया गया है। ऋषि प्रणीत आर्ष ग्रंथों की
तरह बाइबिल के जेनेसिस 213, 61291, 512 से 716 में मनुष्य जन्म की विशिष्टता अद्वितीयता का विस्तृत वर्णन मिलता है। इसी तरह कुरान के सूरा 2 व 35135
में स्पष्ट किया गया है कि मनुष्य पृथ्वी पर अल्लाह का प्रतिनिधि
है। इसी धर्म ग्रंथ के सूरा 15/7, 67/3, एवं 80/16 में कहा गया है कि अल्लाह ने मनुष्य को सर्वश्रेष्ठ आकार प्रदान किया है।
तात्पर्य यह कि अपने सृष्टा को मस्त विभूतियाँ- सूक्ष्मशक्तियाँ बीज रूप में
प्रत्येक व्यक्ति में अन्तर्निहित है। इस
तथ्य को यदि हृदयंगम किया और उन्हें जाग्रत करने का पुरुषार्थ किया जा सके तो
निश्चित ही मनुष्य श्रेष्ठ है।
प्राचीन
ऋषि प्रणीत शास्त्रों में ही नहीं अन्याय देशों के धर्म शास्त्रों में भी इतर-प्राणियों
को जीव देह की अपेक्षा मानव देह को अधिक उत्कृष्ट माना गया है। आचार्य शंकर ने
मनुष्यत्व मुमुक्षुत्व एवं महापुरुष संश्रय को अपनी कृति “विवेकचूड़ामणि” में अति
दुर्लभ बताते हुए मनुष्यत्व को प्रथम स्थान प्रदान किया है।
जैन
धर्म में भी मनुष्य जन्म की महत्ता का वर्णन आता है। उनकी मान्यता है कि यह शुभ का
लक्षण है क्योंकि इसका उदय शुभ की सिद्धि के लिए हैं इस विषय में भगवान महावीर
उत्तराध्ययन सूत्र 3/6 में कहते है कि जब अशुभ कर्मों का
विनाश होता है, तभी आत्मा शुद्ध निर्मल ओर पवित्र करती है और
प्राणी मनुष्य योनि को प्राप्त होता है इसी ग्रंथ के एक अन्य सूत्र 10/5 में तीर्थंकर महावीर कहते हैं संसारी जीवों को मनुष्य का जन्म चिरकाल तक
इधर उधर भटकने के पश्चात् बड़ी कठिनाई से प्राप्त होता है वह उपलब्धता सहज नहीं
हैं।
बौद्ध
धर्म में इसी तथ्य को प्रति पादित करते हुए कहा गया है कि मानव रूप प्राप्त होने
पर सत्य ज्ञान की प्राप्ति हो सकती है। बुद्धत्व कर प्राप्ति इसी शरीर में संभव
है। नैतिक, बौद्धिक एवं आध्यात्मिक विकास करते हुए
निर्वाण स्थिति तक पहुँचना इसी शरीर में संभव है, किसी
श्रद्धालु को यह सहज स्वीकार्य भले ही हो, किन्तु
सत्यान्वेषी बुद्धि उसे तब तक किंचित मात्र भी स्वीकार न करेगी जब तक उसे क्यों का
प्रत्युत्तर तर्क, तथ्य व प्रमाण सम्मत न प्राप्त हो। यह
प्राप्ति आवश्यक भी है अन्यथा उपरोक्त स्वीकारोक्ति अंधश्रद्धा मात्र बन कर रह
जायेगी।
इस
क्यों का विश्लेषणात्मक विवेचन प्रस्तुत करते हुए महर्षि अरविंद अपनी अनुपम कृति
“द लाइफ डिवाइन” में कहते है कि जीवन एक सार्वभौमिक शक्ति का रूप एक गतिशील
प्रेक्षण है। यह उस परम चेतना की सतत क्रिया अथवा क्रीड़ा–कल्लोल है जो विभिन्न
रूपों में क्रियाशील दिखती है।
यह प्रक्रिया मनुष्य सहित
समस्त मानवेत्तर प्राणियों में समान रूप से गतिमान है। यही कारण है कि सभी जीव
नवीन रूप धारण करते हैं। जीवन की निरन्तरता समाप्त नहीं होती। अव्यक्त, अव्यस्थित,
मौलिक, निवर्तित अथवा विवर्तित जीवन सर्वत्र
है। केवल उसके रूपों एवं व्यवस्थाओं में भिन्नता है। इस दृष्टि से सभी में जन्म,
यौवन, वार्धक्य एवं मरण आदि अवस्थाएँ एवं
उत्तेजनाओं के प्रति प्रतिक्रिया ही परिलक्षित होती है। परन्तु चेतनात्मक विकास की
दृष्टि ये मनुष्य वरिष्ठ ठहरता है। उसका मानसिक विकास, संकल्प
शक्ति की अद्भुत सामर्थ्य सम्पन्नता, ज्ञान-विज्ञान को जन्म
दे सकने वाली विवेक बुद्धि-प्रज्ञा ऐसी विशिष्टताएं हैं जो इतर प्राणियों में
किंचित मात्र भी नहीं देखी जाती। यह श्रेष्ठता ही मनुष्य को अन्यायों से अलग कोटि
में रखती है।
श्री
अरविंद के अनुसार शक्ति की अभिव्यक्ति की उच्चता के अनुरूप मानव में समूचा संगठन
भी उच्चतम कोटि का विनिर्मित हुआ है। शारीरिक संरचना,
स्नायु संस्थान की एवं अंतःस्रावी विशिष्टताएं प्राणिक संघटन,
मानसिक क्रिया विज्ञान, सूक्ष्म भाव संस्थान आदि
अपने आप में अनेकों विशेषताएँ लिए हुए है।
जड़
पदार्थ में जीवन अचेतन रूप से क्रियाशील चेतना शक्ति के रूप में संगठित हुआ है। इस
प्रक्रिया की त्रिविध अवस्थाएँ हैं - जड़ जीवन,
प्राणात्मक जीवन और मानसिक जीवन। इसे अवचेतन, चेतन
व आत्म चेतन के रूप में भी वर्णित किया जा सकता है। निम्नतम वह है-जिसमें स्पन्दन अभी
भी जड़ की निद्रा में पूर्णतया अवचेतन है और पूर्णतया यंत्रवत प्रतीत होता हों।
उदाहरणार्थ परमाणविक संरचना में इलेक्ट्रान प्रोटोन आदि कणों की गति। मध्यम स्थिति
वह है जिसमें वह एक प्रतिक्रिया के योग्य हो जाता है जो अब भी अधिमानसिक है परन्तु
उसकी सीमा पर है जिसको हम चेतना कहते हैं। विभिन्न पादपों एवं कनिष्ठ मनुष्येत्तर
प्राणियों में इस के विविध स्तर दृश्यमान होते हैं। सर्वोच्च स्तर में जीवन मानसिक
प्रत्यक्ष क योग संवेदन के रूप में चेतन मानसिकता का विकास करता है जो इन्द्रिय,
मन, बुद्धि के विकास का आधार बनता है।
इस
तरह जीवन त्रिविध अवस्थाओं में से हो गुजर कर गतिमान होता है। अपने प्रारम्भिक
स्तर में वह एक विभाजित और अवचेतन संकल्प है। मध्य में मृत्यु, इच्छा, एवं सामर्थ्य हीनता जो कि वातावरण के अनुरूप
आत्मा के विस्तार, अधिकार तथा नियंत्रण की ओर अस्तित्व के
लिए संघर्ष को प्रेरित करता है। यह पशुओं में पाई जाने वाली उसी स्थिति का वर्णन
है जिसका वर्णन डार्विन ने किया है। किन्तु यह मध्यवर्ती स्थिति मात्र है, जिसे डार्विन समग्र मान बैठे इसके पश्चात् मानस का परिपक्व स्तर आता है जो
मनुष्य की अपनी विशिष्टता है। जैसे जैसे मानव कस अतिमानस की और प्रगतिक्रम बढ़ता
जाता है अर्थात् विचारणा भावना में गुण, कर्म, स्वभाव में उत्कृष्टता का समावेश होता जाता है। इसी अनुपात से आत्मरक्षा
और संघर्ष की प्रवृत्तियाँ तिरोहित होती चली जाती हैं उनका स्थान प्रेम, सहयोग और पारस्परिक सेवा सहायता जैसी सद्प्रवृत्तियाँ लेती हैं।
क्रमशः
यह परिवर्तन अधिकाधिक परिष्कृत, सार्वभौमिक
तथा आध्यात्मिक बनता जाता है और मानव को पूर्णता की मंजिल समीप दीखने लगती है।
मानवेत्तर जीवों में इसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती है।
डार्विन
के संघर्ष का प्रयत्न मध्यवर्ती स्थिति में है न कि सर्वोच्च स्थिति में। मनुष्य
इस मध्यवर्ती स्थिति को पार कर चुका है और उस स्थिति में आ गया है जहाँ संघर्ष
नहीं सहयोग की भावना प्रबल होती है। जड़ से जीवन श्रेष्ठ है और उससे भी उच्चस्तरीय
मानस की परिपक्व अवस्था प्राप्त मानवी चेतना श्रेष्ठ है। जिन्हें अपनी गौरव गरिमा का
ज्ञान नहीं है अथवा जिनकी मानसिक चेतना विकसित नहीं हुई है,
उनके लिए शास्त्रोक्त वचन-”मनुष्य रूपेण मृगाश्चरन्ति “अर्थात्
मनुष्य के रूप में पशु के विचरण करने का प्रतिपादन ही सटीक बैठता है।
चीन
के महान दार्शनिक कन्फ्यूशियस के शब्दों में मानव इस विश्व का सूत्र है। यदि
समाधान कर लिया जाय। तो वहीं सर्वश्रेष्ठ स्थिति होगी। उनके अनुसार मनुष्य ईश्वर
से तनिक ही नीचे हे।
पाश्चात्य
चिन्तक पास्कल ने अपना अभिमत प्रकट करते हुए कहा है कि सृष्टि में मानव जीवन
सर्वोत्तम इसलिए माना गया है कि वह मनचाही दिशा में अपना विकास कर सकता है
ख्यातिलब्ध दार्शनिक एल्डुअस हक्सले अपने ग्रंथ- “द पेरीनियल फिलासफी” में उपरोक्त
तथ्य स सहमति व्यक्त करते हुए बताते है कि मानव की इसी प्रधानता तथा आदर प्रदान
किया जाता रहा है।
अमरीकी
समाज शास्त्री अर्नेस्ट कैकसरर ने अपनी कृति ऐन ऐसे ऑन मैन में कहा है कि ईश्वर ने
मानव को अपने ही प्रति रूप में बनाया है वह अपनी विकास यात्रा पूर्ण करके उसके
समरूप हो सकता है।
मानव शरीर भगवान की श्रेष्ठ रचना है। मानव शरीर पाने के लिए
स्वर्ग में बैठे देवता भी तरसते है। देवाताओं को तो जानें दो, स्वयं परमात्मा भी भारत में किसी माता के उदर से जन्म लेने के लिए हर क्षण
ललायित रहते हैं, किंतु राम जैसा पुत्र पाने के लिए कौशल्या
जैसी माता और दशरथ जैसे पिता होना चाहिए।
भारत ऋषि-मुनी, तपस्वी-त्यागी महापुरुषों का देश है। सीता सावित्री अनुसूइया, मदालसा, गार्गी जैसे भक्त आदर्श नारियों का देश है, लेकिन आज भैतिकता की चकाचौंध में भारत की नारियों का ही रास्ता बिगड़ गया है। विदेशों की बात जो जाने दो। अपने को सत्य समाज की मानने वाली नारियां किटी पार्टी के ऐसे दलदल में धंस गई है कि वहां से निकलना कठिन है।
इस किटी पार्टी ने भारतीय संस्कृति को जितना नुकसान पहुंचाया है कि इस विषय में कुछ कहा नहीं जा सकता। इसी प्रवाह में एक और धारा बह चली है, अंकल और आंटियों के इन दो शब्दों ने मान-मर्यादा, शिष्टाचार पर इतना आघात किया है कि इसकी हम कल्पना भी नहीं कर सकते।
हमारे मीठी स्वात्विक संबंधो को इनसे बहुत हानि हो
रही है। ये तथा-कथित अंकल-आंटी शब्द समाज के सबसे बड़े अभिशाप है और भारतीय
संस्कृति और मर्यादा के दुश्मन है। ये संबंध सारहिन शुष्क गरम रेती के समान है, जिन पर चलने से केवल पैर को जलना ही है।
हमें अपने गौरव, स्वाभिमान को बचाना और संभालना बहुत जरूरी है, क्योंकि इस समय नकल की आंधी चल रही है और हर प्रकार से पाश्चात्य व्यवस्थाएं हमारे जीवन में विष घोल रही है। भारत त्यागी तपस्वियों का देश है।
हमें अपने गौरव, स्वाभिमान को बचाना और संभालना बहुत जरूरी है, क्योंकि इस समय नकल की आंधी चल रही है और हर प्रकार से पाश्चात्य व्यवस्थाएं हमारे जीवन में विष घोल रही है। भारत त्यागी तपस्वियों का देश है।
हमें जीवन भर में किसी संत का आशीर्वाद अवश्य लेना चाहिए, जिससे की हमारा जीवन धन्य हो जाए। भारत का कण-कण पवित्र है। यदि हो सके तो इन सात चीजों को अवश्य संभाल लेना जो भारत में धर्म की सबसे बड़ी धरोहर है, गीता, गौरक्षा, गायत्री (गायत्री मतलब मुख से निकले प्रभु प्राप्ति हेतु शब्द, जैसे राम क्रीश शिव या अन्य मंत्र इत्यादि) , महान रघुवर चरित, गंगाजल, ज्ञानी गुरु, श्यामचित्र। आज हमें इसी भारत में जन्म मिला है और हम भटकते जा रहे हैं।
बुद्धि और विवेक को मनुष्य में अवस्थित परमात्मा की
पावन प्रेरणा ही माना गया है और उसकी चेतन आत्मा तो परमात्मा का ही अंश है। इस
स्थिति में मनुष्य-जीवन को नश्वर, निरर्थक कहना और शरीर को एक पवित्र मन्दिर न मानकर नरक का
निवास कहना मोह के सिवाय और क्या कहा जा सकता है। अपने दिव्य रूप में विश्वास करिये
और मानिए कि मनुष्य संसार में पूर्णता का प्रतीक है। वह संसार में सर्वशक्तिमान का
मानवीय रूप है। उसकी आत्मा, मन और बुद्धि में विलक्षण चमत्कार
छिपे हैं। जिनको सजग और विकसित कर मनुष्य ऐसे-ऐसे काम कर दिखाता है, जिन्हें देखकर विस्मित रह जाना पड़ता है। यह मानव शरीर हाड़-माँस का पुतला
नहीं, दैवी भावनाओं, दैवी सम्पदाओं और
देवत्व का आवास है। इसके भीतर उल्लास और आनन्द के रूप में ईश्वर की अनिर्वचनीय
ज्योति जगमगाती रहती है। इसके प्रति निकृष्ट और तुच्छ विचार रखना अपराध है। इससे
बचना ही चाहिये।
रोग, दोष और पाप आदि मानव जीवन की सहज प्रवृत्तियाँ नहीं हैं।
उसका स्वभाव तो शुद्ध, बुद्ध और आनन्दमय है। हीनताओं का
आरोपण उस पर तब आ जाता है, जब मनुष्य मानवीय नियमों का
उल्लंघन करता है और ऐसे कार्यों में प्रवृत्त हो चलता हैं, जो
कदापि उसके योग्य नहीं होते। ईश्वर द्वारा मनुष्य के निर्माण का एक विशेष और
विशिष्ट उद्देश्य है। वह यह कि मनुष्य उसका प्रतिनिधि बनकर संसार में ईश्वरीय
नियमों, भावनाओं, ज्ञान और गरिमाओं का
सम्पादन करे। सत्य, न्याय, प्रेम और
त्याग का आदर्श उपस्थित करे। स्वयं ऊँचा उठे ओर दूसरों को ऊँचा उठने में सहायक
बने। छल, कपट, झूठ निष्ठुरता, पाखण्ड, स्वार्थ, शोषण आदि
विरोधी प्रवृत्तियों का विरोध करे।
ईश्वर ने मनुष्य को और मनुष्य ने मनुष्य समाज को जन्म
दिया। मनुष्यों की संख्या बढ़ी और उसमें निबल, निकृष्ट और अयोग्य लोग भी आने लगे।
अपनी अयोग्यता की प्रेरणा से उन्होंने संसार में अशान्ति और अमुख का वातावरण पैदा
करना प्रारम्भ कर दिया। जिसके सुन्दर संसार असुन्दरता की ओर लौटने लगा। प्रकृति की
ओर से उसके अवरोध की प्रेरणा आने लगी। पात्रता के अनुयोग्य तथा अवांछित के विरुद्ध
योग्य और वाँछनीय का संघर्ष प्रारम्भ हो गया। सत्य की जीत हुई और संसार की एक
प्रकृति परम्परा है। जो युगों से चलती आ रही है, चल रही है और
असुन्दर पर योग्य और सुन्दर की सदा विजय होती रहेगी।
संसार-आनन्द और अमर चेतनाओं का आधार है। यहाँ दुःख
शोक और अशान्ति आदि अपकारी तत्त्वों का कोई स्थान नहीं है। तथापि जो इन संतापों
में जलते दिखलाई देते हैं, वे स्वयं अपन विचारों और कार्यों के कारण ही उस स्थिति के भागी बने हुए
हैं। आनन्द उन मनुष्यों का अधिकार है, जो अपने को यथार्थ रूप
में मनुष्य मानते, उसी के अनुसार आचरण करते हैं। सच्चे
मनुष्य ही अपनी शक्तियों का उद्भव करते और उस ईश्वरीय उद्देश्य का पूरा करने का
प्रयत्न करते हैं, जिसके लिए उनका सृजन किया गया है। विपरीत
आदमियों के भाग्य में सुख-शांति का अंश नहीं होता। स्वयं सुन्दर बनने और संसार को
सुन्दर बनाने में हाथ बटाने वाले महाभाग ही वे मानव होते हैं, जिनको परमात्मा का प्रतिनिधि कहा जाता है।
हम सब अपने स्वरूप को पहचानें, मोहमयी निद्रा से जागें और उस अमर
प्रकाश की ओर बढ़ जो ब्रह्माण्ड मण्डल में भरा हुआ हमारी प्रतीक्षा कर रहा है। वेद
भगवान का भी तो यही आदेश है- इच्छन्ति देवाः सुत्वन्तं। न स्वप्नाय स्पृहयन्ति। यन्ति
प्रभादमतन्द्राः। देवता सत्कर्म करने वालों को ही चाहते हैं। वे सोये लोगों को प्यार नहीं
करते। इसलिए प्रमाद त्याग कर जाग उठो।
देवता सत्कर्म करने वालों को ही चाहते हैं- इसका
स्पष्ट आशय यही है कि जो मानवोचित कार्य करता है, ईश्वरीय उद्देश्य के लिए जीवन-यापन
करता है, देवताओं की कृपा उसी पर होती है। देवता सोते हुओं
को प्यार नहीं करते अर्थात् उनसे घृणा करते हैं। देवताओं की घृणा का अर्थ है जीवन
की सारी दिव्यताओं से वंचित हो जाना। संसार देवत्व से वंचित व्यक्तियों के लिए
नहीं है। ऐसे असुर प्रवृत्ति वाले लोग किसी न किसी मिष से इस धरती की गोद से शीघ्र
ही उठा दिये जाते हैं। उस समय तक भी जब तक उन्हें प्रकृति द्वारा बुहार नहीं दिया जाता,
उनके लिये शोक संतापों में जलने के सिवाय और कोई अधिकार नहीं रहता।
प्रमाद, आलस्य और अज्ञान त्याग कर जागरण का वरण करो, प्रकाश पावनता की ओर बढ़ो, जिससे कि मनुष्यता की
सिद्धि हो और आत्मा का कल्याण।
किन्तु
यह दिव्य जागरण हो किस प्रकार? इसका सरल सा उपाय यही है
कि अपने वास्तविक स्वरूप में विश्वास किया जाय। अपने को उस परमपिता परमात्मा का
पुत्र और प्रतिनिधि अनुभव किया जाय। अपने प्रति हीन, क्षुद्रता
और निकृष्टता की सारी भावनायें निकाल फेंकी जाय ऐसा करते ही आत्मा में सन्निहित
प्रकाश का निर्झर फूट उठेगा सारा जीवन दिव्य-चेतना से भर कर जाग उठेगा। अपनी
विशालता, व्यापकता और सुन्दरता का बोध होगा। चारों ओर से
आनन्द और अमरता का आभास होने लगेगा। जीवत्व से ईश्वरत्व की ओर प्रगति होने लगेगी।
पेड़ की एक डाल पर बाज़ बैठा था, दूसरे पर एक तोता। तोते को देखकर
बाज़ बोला-अरे तोते! देखता नहीं मैं तेरा काल- सामने खड़ा हूँ, चाहूँ तो एक क्षण में तेरे टुकड़े-टुकड़े कर दूँ फिर भी तू मुझसे न डरता
है, न विनती करता है।” तोते ने कहा - “आप ठीक कहते हैं बन्धु
पर शक्ति की शोभा किसी को मारने में नहीं, रक्षा करने में
होती है। बलवान होकर जो निर्बलों की रक्षा न कर सके वह भी कोई सामर्थ्यवान है?
वेद पढ़ के हम पता लगा सकते हैं, कि क्या अच्छा और क्या बुरा है?
इसके अतिरिक्त वेदानुकूल) ऋषियों के द्वारा बनाये हुए ग्रन्थ,
दर्शन शास्त्रों, उपनिषदों इत्यादि से भी
अच्छे बुरे, सत्यासत्य का पता चलता है। और जिसने शुद्ध अन्तःकरण
से उक्त वेद ग्रन्थों को अच्छी तरह से पढ़ा, समझा और आचरण
किया हो, उनसे भी हमें अच्छे बुरे का ज्ञान हो सकता है।
मनुष्य श्रेष्ठ है, ऐसा शास्त्र कहता है पर जो हिंसा चोरी आदि बुरे काम करते हैं, उन्हें अच्छे-बुरे का पता नहीं चलता। उनके लिए क्या उपाय है? अब आप यह तय करें??
जय गुरूदेव महाकाली।
जय गुरूदेव महाकाली।
(तथ्य कथन गूगल साइट्स इत्यादि से साभार)
"MMSTM समवैध्यावि ध्यान की वह आधुनिक
विधि है। कोई चाहे नास्तिक हो आस्तिक हो, साकार, निराकार कुछ भी हो बस पागल और हठी
न हो तो उसको ईश अनुभव होकर रहेगा बस समयावधि कुछ बढ सकती है। आपको प्रतिदिन लगभग
40 मिनट देने होंगे और आपको 1 दिन से लेकर 10 वर्ष का समय लग सकता है। 1 दिन उनके
लिये जो सत्वगुणी और ईश भक्त हैं। 10 साल बगदादी जैसे हत्यारे के लिये। वैसे 6
महीने बहुत है किसी आम आदमी के लिये।" सनातन पुत्र देवीदास विपुल खोजी
ब्लाग :
https://freedhyan.blogspot.com/
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ReplyDeleteThanks mam. Please read more.
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