अष्टावक्र गीता (हिंदी)
अध्याय 11 से 15
संकलन : सनातनपुत्र देवीदास विपुल "खोजी"
संकलन : सनातनपुत्र देवीदास विपुल "खोजी"
विपुल सेन उर्फ विपुल “लखनवी”,
श्री अष्टावक्र कहते हैं - भाव(सृष्टि, स्थिति) और अभाव(प्रलय, मृत्यु) रूपी विकार स्वाभाविक हैं,
ऐसा
निश्चित रूप से जानने वाला विकाररहित,
दुखरहित
होकर सुख पूर्वक शांति को प्राप्त हो जाता है॥१॥
ईश्वर सबका सृष्टा है कोई अन्य नहीं ऐसा निश्चित रूप से जानने वाले की सभी आन्तरिक
इच्छाओं का नाश हो जाता है। वह शांत पुरुष सर्वत्र आसक्ति रहित
हो जाता है॥२॥
संपत्ति (सुख) और विपत्ति (दुःख) का समय प्रारब्धवश (पूर्व कृत कर्मों के अनुसार) है, ऐसा निश्चित रूप से जानने वाला संतोष और निरंतर
संयमित इन्द्रियों से युक्त हो जाता है। वह न इच्छा करता है और न शोक॥३॥
सुख-दुःख और जन्म-मृत्यु प्रारब्धवश (पूर्व कृत कर्मों के अनुसार) हैं, ऐसा निश्चित
रूप से जानने वाला, फल की इच्छा न रखने वाला, सरलता से
कर्म करते हुए भी उनसे लिप्त नहीं होता है॥४॥
चिंता से ही दुःख उत्पन्न होते हैं किसी अन्य कारण से नहीं, ऐसा निश्चित रूप से जानने वाला, चिंता से रहित होकर सुखी, शांत और सभी इच्छाओं से मुक्त हो जाता है॥५॥
न मैं यह शरीर हूँ और न यह शरीर मेरा है, मैं
ज्ञानस्वरुप हूँ, ऐसा निश्चित रूप
से जानने वाला जीवन मुक्ति को प्राप्त करता है। वह किये हुए
(भूतकाल) और न किये हुए (भविष्य के) कर्मों का स्मरण नहीं करता है॥६॥
तृण से लेकर ब्रह्मा तक सब कुछ मैं ही हूँ, ऐसा निश्चित रूप से जानने वाला विकल्प (कामना) रहित,
पवित्र, शांत और प्राप्त-अप्राप्त से आसक्ति रहित हो जाता है॥७॥
अनेक आश्चर्यों से युक्त यह विश्व अस्तित्वहीन है, ऐसा निश्चित
रूप से जानने वाला, इच्छा रहित
और शुद्ध अस्तित्व हो जाता है। वह अपार शांति
को प्राप्त करता है॥८॥
अष्टावक्र गीता (हिंदी)
अध्याय 12
श्री जनक कहते हैं - पहले मैं शारीरिक कर्मों से निरपेक्ष (उदासीन) हुआ, फिर वाणी से निरपेक्ष
(उदासीन) हुआ। अब चिंता से निरपेक्ष (उदासीन)
होकर अपने स्वरुप में स्थित हूँ॥१॥
शब्द आदि विषयों में आसक्ति रहित होकर और आत्मा के दृष्टि का विषय न होने के कारण मैं निश्चल और एकाग्र ह्रदय से अपने स्वरुप में स्थित हूँ॥२॥
अध्यास (असत्य ज्ञान) आदि असामान्य स्थितियों और समाधि को एक नियम के समान देखते हुए
मैं अपने स्वरुप में स्थित हूँ॥३॥
हे ब्रह्म को जानने वाले! त्याज्य (छोड़ने योग्य) और संग्रहणीय से दूर होकर और सुख-दुःख के अभाव में मैं अपने स्वरुप में स्थित हूँ॥४॥
आश्रम - अनाश्रम, ध्यान और मन द्वारा स्वीकृत और निषिद्ध
नियमों को देख कर मैं अपने स्वरुप में स्थित हूँ॥५॥
कर्मों के अनुष्ठान रूपी अज्ञान से निवृत्त होकर और तत्त्व को सम्यक रूप से जान कर
मैं अपने स्वरुप में स्थित हूँ॥६॥
अचिन्त्य के सम्बन्ध में विचार करते हुए भी विचार पर ही चिंतन किया जाता है। अतः उस विचार का भी परित्याग करके मैं अपने स्वरुप में स्थित हूँ॥७॥
जो इस प्रकार से आचरण करता है वह कृतार्थ (मुक्त) हो जाता है; जिसका इस प्रकार का
स्वभाव है वह कृतार्थ (मुक्त) हो जाता है॥८॥
अष्टावक्र गीता (हिंदी)
अध्याय 13
श्री जनक कहते हैं - अकिंचन(कुछ अपना न) होने की सहजता केवल कौपीन पहनने पर भी मुश्किल से प्राप्त होती है,
अतः
त्याग और संग्रह की प्रवृत्तियों
को
छोड़कर सभी स्थितियों में, मैं सुखपूर्वक विद्यमान हूँ॥१॥
शारीरिक दुःख भी कहाँ(अर्थात् नहीं) हैं, वाणी के
दुःख भी कहाँ हैं, वहाँ मन भी
कहाँ है, सभी प्रयत्नों को त्याग कर सभी
स्थितियों में, मैं सुखपूर्वक विद्यमान हूँ॥२॥
किये हुए किसी भी कार्य का वस्तुतः कोई अस्तित्व नहीं है, ऐसा तत्त्वपूर्वक विचार करके जब जो भी कर्त्तव्य है उसको करते हुए सभी स्थितियों में, मैं सुखपूर्वक विद्यमान हूँ॥३॥
शरीर भाव में स्थित योगियों के लिए कर्म और अकर्म रूपी बंधनकारी भाव होते हैं, पर संयोग और
वियोग की प्रवृत्तियों को छोड़कर सभी
स्थितियों में, मैं सुखपूर्वक विद्यमान हूँ॥४॥
विश्राम, गति, शयन, बैठने, चलने और स्वप्न में वस्तुतः मेरे लाभ
और हानि नहीं हैं, अतः सभी स्थितियों में, मैं सुखपूर्वक विद्यमान हूँ॥५॥
सोने में मेरी हानि नहीं है और उद्योग अथवा अनुद्योग में मेरा लाभ नहीं है अतः हर्ष और
शोक की प्रवृत्तियों को छोड़कर सभी स्थितियों में, मैं सुखपूर्वक विद्यमान हूँ॥६॥
सुख, दुःख आदि स्थितियों के क्रम से आने के
नियम पर बार बार विचार करके,
शुभ(अच्छे)
और अशुभ(बुरे) की प्रवृत्तियों को छोड़कर सभी स्थितियों
में, मैं सुखपूर्वक विद्यमान हूँ॥७॥
अष्टावक्र गीता (हिंदी)
अध्याय 14
श्रीजनक कहते हैं - जो स्वभाव से ही विचारशून्य है और शायद ही कभी कोई इच्छा करता
है वह पूर्व स्मृतियों से उसी प्रकार मुक्त हो जाता है जैसे कि नींद से
जागा हुआ व्यक्ति अपने सपनों से॥१॥
जब मैं कोई इच्छा नहीं करता तब मुझे धन, मित्रों, विषयों, शास्त्रों और विज्ञान से क्या प्रयोजन है॥२॥
साक्षी पुरुष रूपी परमात्मा या ईश्वर को जानकर मैं बंधन और मोक्ष से निरपेक्ष हो गया हूँ और मुझे मोक्ष की चिंता भी नहीं है॥३॥
आतंरिक इच्छाओं से रहित, बाह्य रूप में चिंतारहित आचरण वाले, प्रायः मत्त पुरुष जैसे
ही दिखने वाले प्रकाशित पुरुष अपने जैसे प्रकाशित पुरुषों द्वारा ही
पहचाने जा सकते हैं॥४॥
अष्टावक्र गीता (हिंदी)
अध्याय 15
श्रीअष्टावक्र कहते हैं - सात्विक बुद्धि से युक्त मनुष्य साधारण प्रकार के उपदेश से भी
कृतकृत्य(मुक्त) हो जाता है परन्तु ऐसा न होने पर आजीवन जिज्ञासु
होने पर भी परब्रह्म का यथार्थ ज्ञान नहीं होता है॥१॥
विषयों से उदासीन होना मोक्ष है और विषयों में रस लेना बंधन है, ऐसा जानकर तुम्हारी
जैसी इच्छा हो वैसा ही करो॥२॥
वाणी, बुद्धि और कर्मों से महान कार्य करने
वाले मनुष्यों को तत्त्व-ज्ञान शांत, स्तब्ध और कर्म न करने वाला बना देता
है, अतः सुख की इच्छा रखने वाले इसका
त्याग कर देते हैं॥३॥
न तुम शरीर हो और न यह शरीर तुम्हारा है, न ही तुम
भोगने वाले अथवा करने वाले हो, तुम चैतन्य
रूप हो, शाश्वत साक्षी हो, इच्छा रहित
हो, अतः सुखपूर्वक
रहो॥४॥
राग(प्रियता) और द्वेष(अप्रियता) मन के धर्म हैं और तुम किसी भी प्रकार से मन नहीं हो, तुम कामनारहित हो, ज्ञान स्वरुप हो, विकार रहित हो, अतः सुखपूर्वक रहो॥५॥
समस्त प्राणियों को स्वयं में और स्वयं को सभी प्राणियों में स्थित जान कर अहंकार और
आसक्ति से रहित होकर तुम सुखी हो जाओ॥६॥
इस विश्व की उत्पत्ति तुमसे उसी प्रकार होती है जैसे कि समुद्र से लहरों की, इसमें संदेह नहीं है। तुम चैतन्य स्वरुप हो,
अतः चिंता रहित हो जाओ॥७॥
हे प्रिय! इस अनुभव पर निष्ठा रखो, इस पर श्रद्धा रखो, इस अनुभव की
सत्यता के सम्बन्ध में मोहित मत हो, तुम ज्ञान
स्वरुप हो, तुम प्रकृति से परे और आत्म स्वरुप
भगवान हो॥८॥
गुणों से निर्मित यह शरीर स्थिति,
जन्म और
मरण को प्राप्त होता है, आत्मा न आती है और न ही जाती है,
अतः तुम
क्यों शोक करते हो॥९॥
यह शरीर सृष्टि के अंत तक रहे अथवा आज ही नाश को प्राप्त हो जाये, तुम तो चैतन्य
स्वरुप हो, इससे तुम्हारी क्या हानि या लाभ है॥१०॥
अनंत महासमुद्र रूप तुम में लहर रूप यह विश्व स्वभाव से ही उदय और अस्त को प्राप्त होता है, इसमें तुम्हारी क्या वृद्धि या क्षति
है॥११॥
हे प्रिय, तुम केवल चैतन्य रूप हो और यह विश्व
तुमसे अलग नहीं है, अतः किसी की किसी से श्रेष्ठता या निम्नता की कल्पना किस प्रकार
की जा
सकती है॥१२॥
इस अव्यय, शांत, चैतन्य, निर्मल आकाश
में तुम अकेले ही हो, अतः तुममें जन्म, कर्म और
अहंकार की कल्पना किस प्रकार की जा सकती है॥१३॥
तुम एक होते हुए भी अनेक रूप में प्रतिबिंबित होकर दिखाई देते हो। क्या स्वर्ण कंगन, बाज़ूबन्द और पायल से अलग दिखाई देता
है॥१४॥
यह मैं हूँ और यह मैं नहीं हूँ, इस प्रकार के भेद को त्याग दो। सब कुछ
आत्मस्वरूप तुम ही हो, ऐसा निश्चय करके और कोई संकल्प न करते हुए सुखी हो
जाओ॥१५॥
अज्ञानवश तुम ही यह विश्व हो पर ज्ञान दृष्टि से देखने पर केवल एक तुम ही हो, तुमसे अलग कोई दूसरा संसारी या असंसारी
किसी भी प्रकार से नहीं है॥१६॥
यह विश्व केवल भ्रम(स्वप्न की तरह असत्य) है और कुछ भी नहीं, ऐसा निश्चय करो। इच्छा
और चेष्टा रहित हुए बिना कोई भी शांति को प्राप्त नहीं होता है॥१७॥
एक ही भवसागर(सत्य) था,
है और
रहेगा। तुममें न मोक्ष है और न बंधन, आप्त-काम होकर सुख से विचरण करो॥१८॥
हे चैतन्यरूप! भाँति-भाँति के संकल्पों और विकल्पों से अपने चित्त को अशांत मत करो, शांत होकर
अपने आनंद रूप में सुख से स्थित हो जाओ॥१९॥
सभी स्थानों से अपने ध्यान को हटा लो और अपने हृदय में कोई विचार न करो। तुम आत्मरूप हो और मुक्त ही हो, इसमें विचार करने की क्या आवश्यकता है॥२०॥
सभी स्थानों से अपने ध्यान को हटा लो और अपने हृदय में कोई विचार न करो। तुम आत्मरूप हो और मुक्त ही हो, इसमें विचार करने की क्या आवश्यकता है॥२०॥
(कुछ तथ्य व कथन गूगल से साभार)
MMSTM समवैध्यावि ध्यान की वह आधुनिक विधि है। कोई चाहे नास्तिक हो आस्तिक हो, साकार, निराकार कुछ भी हो बस पागल और हठी न हो तो उसको ईश अनुभव होकर रहेगा बस समयावधि कुछ बढ सकती है। आपको प्रतिदिन लगभग 40 मिनट देने होंगे और आपको 1 दिन से लेकर 10 वर्ष का समय लग सकता है। 1 दिन उनके लिये जो सत्वगुणी और ईश भक्त हैं। 10 साल बगदादी जैसे हत्यारे के लिये। वैसे 6 महीने बहुत है किसी आम आदमी के लिये।" सनातन पुत्र देवीदास विपुल खोजी
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