अष्टावक्र गीता (हिंदी)
अध्याय 16 से 20
संकलन : सनातनपुत्र देवीदास विपुल "खोजी"
संकलन : सनातनपुत्र देवीदास विपुल "खोजी"
विपुल सेन उर्फ विपुल “लखनवी”,
श्री अष्टावक्र कहते हैं - हे प्रिय,
विद्वानों
से सुनकर अथवा बहुत
शास्त्रों
के पढ़ने से तुम्हारी आत्म स्वरुप में वैसी स्थिति नहीं होगी जैसी कि सब कुछ उचित रीति से भूल जाने से॥१॥
कर्म भोग करो या समाधि में रहो पर चूँकि तुम विद्वान हो अतः तुम्हें चित्त
की सभी आशाओं को शांत करना अत्यंत आनंदप्रद होगा॥२॥
प्रयत्न से ही सभी दुखी हैं पर कोई इसे जानता नहीं है। इस निष्पाप उपदेश से
ही भाग्यवान व्यक्ति सभी वृत्तियों से रहित हो जाते हैं॥३॥
जिसको पलकों का खोलना और बंद करना भी कार्य लगता है उस परम आलसी के लिए ही
सुख है अन्य किसी के लिए किसी भी प्रकार से नहीं॥४॥
यह करना चाहिए और यह नहीं जब मन इस प्रकार के द्वंद्वों से से मुक्त हो जाता है
तब उसको धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की अपेक्षा (इच्छा) नहीं
रहती॥५॥
न विषयों से द्वेष करने वाला विरक्त,
न ही
विषयों में आसक्त रागवान, वह तो निश्चय ही विषयों के ग्रहण और
त्याग से विहीन है॥६॥
जब तक (विषयों के) ग्रहण और त्याग की कामना रहती है तब तक संसार रूपी वृक्ष का अंकुर
विद्यमान है, अतः विचारहीन अवस्था का आश्रय लो॥७॥
प्रवृत्ति से आसक्ति और निवृत्ति से द्वेष उत्पन्न होता है अतः बुद्धिमान, बालक के समान निर्द्वंद्व होकर स्थित
रहे॥८॥
विषय में आसक्त पुरुष दुःख से बचने के लिए संसार का त्याग करना चाहता है पर वह विरक्त
ही सुखी है जो उन दुखों में भी खेद नहीं करता है॥९॥
जो मोक्ष भी चाहता है और इस शरीर में आसक्ति भी रखता है, वह न ज्ञानी है और न योगी बल्कि केवल
दुःख को प्राप्त करने वाला है॥१०॥
यदि तुम्हारे उपदेशक साक्षात् शिव, विष्णु या ब्रह्मा भी हों तो भी सब कुछ
विस्मरण किये बिना तुम आत्म स्वरुप को प्राप्त नहीं होगे॥११॥
अष्टावक्र गीता (हिंदी)
अध्याय 17
अष्टावक्र कहते हैं - उन्होंने ज्ञान और योग (दोनों) का फल प्राप्त कर लिया है जो सदा
संतुष्ट, शुद्ध इन्द्रियों वाले और एकांत में रमने
वाले हैं ॥१॥
तत्त्व(ब्रह्म) को जानने वाला कभी भी किसी बात से इस
संसार में दुखी नहीं
होता है
क्योंकि उस एक ब्रह्म से ही यह सम्पूर्ण विश्व पूर्णतः व्याप्त है॥२॥
अपनी आत्मा में रमण करने वाला किसी विषय को प्राप्त करके हर्षित नहीं होता जैसे
कि सलाई के पत्तों से प्रेम करने वाला हाथी नीम के पत्तों को पाकर हर्ष
नहीं करता है॥३॥
जिसकी प्राप्त हो चुके भोगों में आसक्ति नहीं है और न प्राप्त हुए भोगों की
इच्छा नहीं है, ऐसा व्यक्ति इस संसार में दुर्लभ है॥४॥
इस संसार में सांसारिक भोगों की इच्छा वाले भी देखे जाते हैं और मोक्ष की इच्छा वाले
भी पर इन दोनों इच्छाओं से रहित महापुरुष का मिलना दुर्लभ है॥५॥
धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष, जीवन और मृत्यु में उपयोगिता और
अनुपयोगिता की समता किसी महात्मा में ही होती है॥६॥
न विश्व के लीन होने की इच्छा और न ही इसकी स्थिति से द्वेष, जैसे जीवन
है (वे महात्मा) उसी में आनंदित और कृतकृत्य रहते हैं॥७॥
इस ज्ञान से कृतार्थ होकर बुद्धि को अन्तर्हित(विलीन) करके देखते हुए, सुनते हुए, स्पर्श करते हुए, सूंघते हुए और खाते हुए सुखपूर्वक रहते हैं॥८॥
दृष्टि को शून्य और अस्थिर इन्द्रियों की चेष्टा को नष्ट करके, इस अशक्त
संसार रूपी सागर से न तो आसक्ति रखते हैं और न ही
विरक्ति॥९॥
न जगता ही है और न सोता ही है,
न ही
आँखें खोलता या बंद करता है,
अहा! उस
परम अवस्था में कोई मुक्त चेतना वाला विरला ही रहता है॥१०॥
सदा स्वयं में स्थित, सर्वत्र
स्वच्छ प्रयोजन वाला, समस्त वासनाओं से मुक्त, मुक्त पुरुष
सर्वत्र सुशोभित होता है॥११॥
देखते हुए, सुनते हुए, स्पर्श करते हुए, सूंघते हुए, खाते हुए, लेते हुए, बोलते हुए, चलते हुए, इच्छा करते हुए और इच्छा न करते हुए, ऐसा महात्मा मुक्त ही है (वस्तुतः कुछ नहीं करता)॥१२॥
न निंदा करता है और न प्रशंसा करता है, न लेता है, न देता है, इन सबमें
अनासक्त वह सब प्रकार से मुक्त है॥१३॥
अनुराग-युक्त स्त्रियों को देख कर अथवा मृत्यु को उपस्थित देख कर विचलित न
होने वाला, स्वयं में स्थित वह महात्मा मुक्त ही
है॥१४॥
धीर पुरुष सुख में, दुःख में, पुरुष में, नारी में, संपत्ति में
और विपत्ति में अंतर न देखता हुआ सर्वत्र समदर्शी होता है॥१५॥
क्षीण संसार वाले पुरुष में न हिंसा और न करुणा, न गर्व और न दीनता, न आश्चर्य और न क्षोभ ही होते हैं॥१६॥
मुक्त पुरुष न तो विषयों से द्वेष करता है और न आसक्ति ही, (अतः) उनकी प्राप्ति और अप्राप्ति में
सदा समान मन वाला रहता है॥१७॥
संदेह और समाधान एवं हित और अहित की कल्पना से परे, शून्य चित्त
वाला पुरुष कैवल्य में ही स्थित रहता है॥१८॥
ममता रहित, अहंकार रहित और दृश्य जगत के अस्तित्व
रहित होने के निश्चय वाला, सभी इच्छाओं से रहित, करता हुआ भी कुछ नहीं करता॥१९॥
कोई भी मन की मोह, स्वप्न और जड़ता से रहित, प्रकाशित
अवस्था को प्राप्त कर मन की इच्छाओं से रहित हो जाये॥२०॥
अष्टावक्र गीता (हिंदी)
अध्याय 18
अष्टावक्र कहते हैं - जिस बोध का उदय होने पर, जागने पर स्वप्न के समान भ्रम की निवृत्ति हो जाती है,
उस एक, सुखस्वरूप शांत प्रकाश को नमस्कार
है॥१॥
जगत के सभी पदार्थों को प्राप्त करके कोई
बहुत से भोग प्राप्त कर सकता है पर उन सबका आतंरिक त्याग किये बिना सुखी नहीं हो
सकता॥२॥
जिसका मन यह कर्तव्य है और यह अकर्तव्य आदि
दुखों की तीव्र ज्वाला से झुलस रहा
है, उसे भला कर्म त्याग रूपी शांति की
अमृत-धारा का सेवन किये बिना सुख की
प्राप्ति
कैसे हो सकती है॥३॥
यह संसार केवल एक भावना मात्र है, परमार्थतः कुछ भी नहीं है। भाव और अभाव
के रूप में स्वभावतः स्थित पदार्थों का कभी अभाव नहीं हो सकता॥४॥
आत्मा न तो दूर है और न पास, वह तो प्राप्त ही है, तुम स्वयं
ही हो उसमें न विकल्प है, न प्रयत्न, न विकार और
न मल ही॥५॥
अज्ञान मात्र की निवृत्ति और स्वरुप का ज्ञान होते
ही दृष्टि का आवरण भंग हो जाता है और तत्त्व को जानने वाला शोक से रहित
होकर शोभायमान हो जाता है॥६॥
सब कुछ कल्पना मात्र है और आत्मा नित्य मुक्त है, धीर पुरुष इस तथ्य को जान कर फिर बालक
के समान क्या अभ्यास करे?॥१७॥
आत्मा ही ब्रह्म है और भाव-अभाव कल्पित हैं - ऐसा निश्चय हो जाने पर
निष्काम ज्ञानी फिर क्या जाने, क्या कहे और क्या कहे॥८॥
सब आत्मा ही है - ऐसा निश्चय करके जो चुप हो गया है, उस पुरुष के लिए यह मैं हूँ, यह मैं नहीं हूँ आदि कल्पनाएँ भी शांत
हो जाती हैं॥९॥
अपने स्वरुप में स्थित होकर शांत हुए तत्त्व ज्ञानी के लिए न विक्षेप है और
न एकाग्रता, न ज्ञान है और न अज्ञान, न सुख है और
न दुःख॥१०॥
जो योगी स्वभाव से ही विकल्प रहित है, उसके लिए अपने राज्य में या भिक्षा में, लाभ-हानि में, भीड़ में या सुने जंगल में कोई अंतर
नहीं है॥११॥
यह कर लिया और यह कार्य शेष है, इन द्वंद्वों से जो मुक्त है, उसके लिए
धर्म कहाँ, कर्म कहाँ, अर्थ कहाँ
और विवेक कहाँ॥१२॥
जीवन्मुक्त योगी का न तो कुछ कर्तव्य है और न ही उसके ह्रदय में कोई अनुराग
है। जैसे भी जीवन बीत जाये वैसे ही उसकी
स्थिति है॥१३॥
जो महात्मा सभी संकल्पों की सीमा पर विश्राम कर रहा है, उसके लिए
मोह कहाँ, संसार कहाँ, ध्यान कहाँ
और मुक्ति भी कहाँ?॥१४॥
जिसने इस संसार को वास्तव में देखा हो वह कहे कि यह नहीं है, नहीं है। जो कामना रहित है, वह तो इसको देखते हुए भी नहीं
देखता॥१५॥
जिसने अपने से भिन्न परब्रह्म को देखा हो, वह चिंतन
किया करे कि वह ब्रह्म मैं हूँ पर जिसे कुछ दूसरा दिखाई नहीं देता, वह
निश्चिन्त क्या विचार करे॥१६॥
जिसने अपने स्वरुप में कभी कोई विक्षेप देखा हो वह उसको रोके। तत्त्व को जानने वाले का विक्षेप कभी
होता ही नहीं है, किसी साध्य के बिना वह क्या करे॥१७॥
तत्त्वज्ञ तो सांसारिक लोगों से उल्टा ही होता है, वह सामान्य
लोगों जैसा व्यवहार करता हुआ भी अपने स्वरुप में न समाधि देखता है, न विक्षेप और न लय ही॥१८॥
तत्त्वज्ञ भाव और अभाव से रहित,
तृप्त और कामना रहित होता है। लौकिक दृष्टि से कुछ उल्टा-सीधा करते हुए भी वह कुछ भी नहीं करता॥१९॥
तत्त्वज्ञ का प्रवृत्ति या निवृत्ति का दुराग्रह नहीं होता। जब जो सामने
आ जाता है तब उसे करके वह आनंद से रहता है॥२०॥
ज्ञानी कामना, आश्रय और परतंत्रता आदि के बंधनों से
सर्वथा मुक्त होता है।
प्रारब्ध
रूपी वायु के वेग से उसका शरीर उसी प्रकार गतिशील रहता है जैसे वायु के वेग से
सूखा पत्ता॥२१॥
जो संसार से मुक्त है वह न कभी हर्ष करता है और न विषाद। उसका मन सदा
शीतल रहता है और वह (शरीर रहते हुए भी) विदेह के समान सुशोभित होता है॥२२॥
जिसका अंतर्मन शीतल और स्वच्छ है,
जो
आत्मा में ही रमण करता
है, उस धीर पुरुष की न तो किसी त्याग की
इच्छा होती है और न कुछ पाने की
आशा॥२३॥
जिस धीर पुरुष का चित्त स्वभाव से ही निर्विषय है, वह साधारण मनुष्य के समान प्रारब्धवश बहुत से
कार्य करता है पर उसका उसे न तो मान होता है और न अपमान ही॥२४॥
अष्टावक्र गीता (हिंदी)
अध्याय 19
राजा जनक कहते हैं - तत्त्व-विज्ञान की चिमटी द्वारा विभिन्न प्रकार के सुझावों
रूपी काँटों को मेरे द्वारा हृदय के आन्तरिक भागों से निकाला गया॥१॥
अपनी महिमा में स्थित मेरे लिए क्या धर्म है और क्या काम है, क्या अर्थ है और क्या विवेक है, क्या द्वैत है और क्या अद्वैत है?॥२॥
अपनी महिमा में स्थित मेरे लिए क्या अतीत है और क्या भविष्य है और क्या
वर्तमान ही है, क्या देश है और क्या काल है?॥३॥
अपनी महिमा में स्थित मेरे लिए क्या आत्मा
है और क्या अनात्मा है तथा क्या शुभ
और क्या
अशुभ है, क्या विचारयुक्त होना है और क्या
निर्विचार होना है?॥४॥
अपनी महिमा में स्थित मेरे लिए क्या स्वप्न है और क्या सुषुप्ति तथा क्या
जागरण है और क्या तुरीय अवस्था है अथवा क्या भय ही है?॥५॥
अपनी महिमा में स्थित मेरे लिए क्या दूर है और क्या पास है तथा क्या बाह्य
है और क्या आतंरिक है, क्या स्थूल है और क्या सूक्ष्म है?॥६॥
अपनी महिमा में स्थित मेरे लिए क्या मृत्यु है और क्या जीवन है तथा क्या
लौकिक है और क्या पारलौकिक है, क्या लय है और क्या समाधि है?॥७॥
अपनी आत्मा में नित्य स्थित मेरे लिए जीवन के तीन उद्देश्य निरर्थक हैं, योग पर चर्चा अनावश्यक है और विज्ञान
का वर्णन अनावश्यक है॥८॥
अष्टावक्र गीता (हिंदी)
अध्याय 20
राजा जनक कहते हैं - मेरे निष्कलंक स्वरुप में पाँच महाभूत कहाँ हैं या शरीर कहाँ है और इन्द्रियाँ या मन कहाँ हैं, शून्य कहाँ है और निराशा कहाँ है॥१॥
सदा सभी प्रकार के द्वंद्वों से रहित मेरे लिए क्या शास्त्र हैं और क्या आत्म-ज्ञान
अथवा क्या विषय रहित मन ही है, क्या प्रसन्नता है या क्या संतोष है॥२॥
क्या विद्या है या क्या अविद्या,
क्या
मैं है या क्या वह है और क्या मेरा
है, क्या बंधन है और क्या मोक्ष है या
स्वरुप का क्या लक्षण है॥३॥
क्या प्रारब्ध कर्म हैं और क्या जीवन मुक्ति है, सर्वदा
विशेषता(परिवर्तन) से रहित मुझमें क्या शरीरहीन कैवल्य है॥४॥
सदा स्वभाव से रहित मुझमें कौन कर्ता है और कौन भोक्ता, क्या निष्क्रियता है और क्या क्रियाशीलता,
क्या
प्रत्यक्ष है और क्या अप्रत्यक्ष॥५॥
अपने अद्वय (दूसरे से रहित) स्वरुप में स्थित मेरे लिए क्या
संसार है और क्या मुक्ति की इच्छा, कौन योगी है
और कौन ज्ञानी, कौन बंधन में है और कौन मुक्त॥६॥
अपने अद्वय (दूसरे से रहित) स्वरुप में स्थित मेरे लिए क्या सृष्टि है और क्या प्रलय, क्या साध्य है और क्या साधन, कौन साधक है और क्या सिद्धि है॥७॥
विशुद्ध मुझमें कौन ज्ञाता है और क्या प्रमाण (साक्ष्य) है, क्या ज्ञेय
है और क्या ज्ञान, क्या स्वल्प है और क्या सर्व॥८॥
सदा निष्क्रिय मुझमें क्या अन्यमनस्कता है और क्या एकाग्रता, क्या विवेक है और क्या विवेकहीनता, क्या हर्ष है और क्या विषाद॥९॥
सदा विचार रहित मेरे लिए क्या संसार है और क्या परमार्थ, क्या सुख है
और क्या दुःख॥१०॥
सदा विशुद्ध मेरे लिया क्या माया है और क्या संसार, क्या प्रीति है और क्या विरति, क्या जीव है और क्या वह ब्रह्म॥११॥
अचल, विभागरहित और सदा स्वयं में स्थित मेरे लिए
क्या प्रवृत्ति है और क्या निवृत्ति, क्या मुक्ति है और क्या बंधन॥१२॥
विशेषण रहित, कल्याण रूप, मेरे लिए क्या उपदेश है और क्या
शास्त्र, कौन शिष्य है और कौन गुरु, और क्या प्राप्त करने योग्य ही है॥१३॥
क्या है और क्या नहीं, क्या अद्वैत है और क्या द्वैत, अब बहुत
क्या कहा जाये, मुझमें कुछ भी(भाव) नहीं उठता है॥१४॥
MMSTM समवैध्यावि ध्यान की वह आधुनिक विधि है। कोई चाहे नास्तिक हो आस्तिक हो, साकार, निराकार कुछ भी हो बस पागल और हठी न हो तो उसको ईश अनुभव होकर रहेगा बस समयावधि कुछ बढ सकती है। आपको प्रतिदिन लगभग 40 मिनट देने होंगे और आपको 1 दिन से लेकर 10 वर्ष का समय लग सकता है। 1 दिन उनके लिये जो सत्वगुणी और ईश भक्त हैं। 10 साल बगदादी जैसे हत्यारे के लिये। वैसे 6 महीने बहुत है किसी आम आदमी के लिये।" सनातन पुत्र देवीदास विपुल खोजी
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(कुछ तथ्य व कथन गूगल से साभार)
MMSTM समवैध्यावि ध्यान की वह आधुनिक विधि है। कोई चाहे नास्तिक हो आस्तिक हो, साकार, निराकार कुछ भी हो बस पागल और हठी न हो तो उसको ईश अनुभव होकर रहेगा बस समयावधि कुछ बढ सकती है। आपको प्रतिदिन लगभग 40 मिनट देने होंगे और आपको 1 दिन से लेकर 10 वर्ष का समय लग सकता है। 1 दिन उनके लिये जो सत्वगुणी और ईश भक्त हैं। 10 साल बगदादी जैसे हत्यारे के लिये। वैसे 6 महीने बहुत है किसी आम आदमी के लिये।" सनातन पुत्र देवीदास विपुल खोजी
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