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Tuesday, March 19, 2019

निष्काम कर्म



निष्काम कर्म

सनातनपुत्र देवीदास विपुल "खोजी" 
मो.  09969680093
 विपुल सेन उर्फ विपुल लखनवी,
(एम . टेक. केमिकल इंजीनियर) वैज्ञानिक एवं कवि
पूर्व सम्पादक : विज्ञान त्रैमासिक हिन्दी जर्नल “वैज्ञनिक” ISSN 2456-4818
  - मेल: vipkavi@gmail.com  वेब:  vipkavi.info वेब चैनलvipkavi
                 ब्लाग: freedhyan.blogspot.com,



श्रीमद्भग्वद्गीता में भगवान श्री कृष्ण कहते हैं।
अनाश्रितः कर्मफलं कार्यं कर्म करोति यः।  स संन्यासी च योगी च न निरग्निर्न चाक्रियः॥6- 1
कर्म के फल का आश्रय न लेकर जो कर्म करता है, वह संन्यासी भी है और योगी भी। वह नहीं जो अग्निहीन है, न वह जो अक्रिय है।


यं संन्यासमिति प्राहुर्योगं तं विद्धि पाण्डव। न ह्यसंन्यस्तसंकल्पो योगी भवति कश्चन॥6- 2
जिसे सन्यास कहा जाता है उसे ही तुम योग भी जानो हे पाण्डव। क्योंकि सन्यास अर्थात त्याग के संकल्प के बिना कोई योगी नहीं बनता।


आरुरुक्षोर्मुनेर्योगं कर्म कारणमुच्यते। योगारूढस्य तस्यैव शमः कारणमुच्यते॥6- 3
एक मुनि के लिये योग में स्थित होने के लिये कर्म साधन कहा जाता है। योग मे स्थित हो जाने पर शान्ति उस के लिये साधन कही जाती है।


यदा हि नेन्द्रियार्थेषु न कर्मस्वनुषज्जते। सर्वसंकल्पसंन्यासी योगारूढस्तदोच्यते॥6- 4
जब वह न इन्द्रियों के विषयों की ओर और न कर्मों की ओर आकर्षित होता है, सभी संकल्पों का त्यागी, तब उसे योग में स्थित कहा जाता है।

मैं विपुल सेन हूं यह सोंच करके निष्काम कर्म करने जाओगे तो ‘बंधन’ ही है। निष्काम कर्म करने से यह संसार अच्छी तरह से चलता है। वास्तव में निष्काम कर्म, खुद कौन है’ यह माने बगैर हो ही नहीं सकता। जब तक क्रोध-मान-माया-लोभ हों, तब तक निष्काम कर्म किस तरह हो सकता है?

खुद ही मानना  और अनुभव  करना  कि ‘यह मैं निष्काम कर्म करता हूँ।’ 
लेकिन वास्तव में उसका कर्ता कोई और ही है। 
जिस प्रकार शक्तिपात साधन में क्रिया होती है वह स्वत: होती है। 
क्योकिं आपको स्पष्ट लगता है अरे यह कौन है जो यह कर रहा है। 
मैं तो कुछ प्रयास कर ही नहीं रहा हूं। 
हां यदि इस आनंद में या क्रिया में अपनी सोंच या बुद्धी डाली तो निष्कामता समाप्त्। 
इसीलिये स्वामीं शिवोम तीर्थ जी महाराज कहते हैं कि “कर्म ऐसे किये जायें कि वह साधन बन जायें” मतलब कर्म अगर साधन हो गये तो हमारे कार्य क्रिया रूप हो गये। हम मात्र दृष्टा भाव में एक सिनेमा की तरह  बिना बुद्धि या आसक्ति के निष्काम कर्ता हो गये। पर होता उल्टा है हम क्रिया में खुद सम्मिलित हो जाते हैं जिसके कारण हमारे संस्कार नष्ट न होकर चित्त में दूने संस्कार जोड देते हैं। हम सोंचने लगते हैं कि  ‘मैं निष्काम कर्म करता हूँ’ ऐसा मानना ही बंधन है। निष्काम कर्म की जगह सकाम कर्म हो गया। 


उदाहरण लें। आपके घर की आय आती है। ज़मीन की आती है, उसके अलावा एक दुकान खोली उसमें से आय मिलेगी। ऐसे, बारह महीनों में बीस-पच्चीस हज़ार मिलेंगे, ऐसा अनुमान लगाकर कार्य करने जाएँ, और फिर पाँच हज़ार मिलें तो बीस हज़ार का घाटा हुआ, ऐसा लगता है तो सकाम हो गया। धारणा ही नहीं रखी हो तो  निष्काम कर्म यानी उसके आगे के परिणाम का अनुमान लगाए बगैर करते जाओ।

 
कृष्ण भगवान ने बहुत सुंदर वस्तु दी है, लेकिन किसी से वह हो सकता नहीं न? मनुष्य की बिसात नहीं न! इस निष्काम कर्म को यर्थाथ समझना मुश्किल है। इसलिए तो कृष्ण भगवान ने कहा था कि मेरी गीता का सूक्ष्मतम अर्थ समझने वाला कोई एकाध ही होगा!

निष्काम भाव से कर्म कर भी लिया  परन्तु ‘आप विपुल सेन हो या मै विपुल सेन हूं यह विश्वास है, तब तक निष्काम भाव से भी कर्म करोगे तो उसका पुण्य बंधेगा। कर्म तो बंधेगा ही। कर्ता हुआ कि कर्मबंधन हुआ।

परिणाम का विचार किए बिना काम करते जाओ। साहब मुझे गुस्सा करेंगे, डाँटेंगे, ऐसे विचार किए बिना काम करे जाओ। परीक्षा देने का विचार किया हो तो फिर ‘पास हुआ जाएगा या नहीं, पास हुआ जाएगा या नहीं’ ऐसे विचार किए बिना परीक्षा देते जाओ।
अधिकतर लोग कृष्ण भगवान की एक भी बात नहीं समझे और ऊपर से कहते हैं कि कृष्ण लीलावाले थे! अरे, आप लीलावाले या कृष्ण लीलावाले? कृष्ण तो वासुदेव थे, नर में से नारायण हुए थे! लीलावाले आप हो। 

निष्काम कर्म अर्थात बिना किसी परिणाम की इच्छा के किया गया कार्य  पूर्व के सारे धर्म एवं दर्शन इसे अत्यंत महत्वपूर्ण- मानते है श्रीमद भगवत गीता में श्री कृष्ण भी अर्जुन को निष्काम कर्म एवं बिना किसी मोह के कार्य करने को प्रेरित करते है यदि हम बौद्ध धर्म में देखे तो हमे वू वई का वर्णन मिलता है जिसका अर्थ है – करो या न करो। 

जिसका अन्य विवरण इस प्रकार मिलता है कि प्राक्रतिक- के कर्म में बिना किसी हस्तक्षेप के किया गया कार्य| यदि हम इन सब तथ्यों पर चिंतन करे तो एक बात तो स्पष्ट है कि निष्काम कर्म का सिद्धांत मनुष्य को कर्ता न मानकर कार्य को करने वाला माध्यम मानता है परन्तु कोई भी कर्म निष्काम है इसे जानना या कार्य को उसके परिणाम से अलग रख कर करना या बिना किसी मोह के करना कैसे संभव है ? यदि संभव भी है तो क्या निष्काम कर्म सापेक्ष  है या पूर्ण शुद्ध ? यह कुछ प्रश्न है जो कि इसे अत्यंत पेचीदा बनाता है, इसे समझने के लिए एक प्राचीन  कथा से समझा जा सकता है


एक किस्सा है। अरुंधती को दुर्वासा ऋषि के पास भोजन प्रसाद लेकर जाना था तो वे अपने पति वशिष्ठ ऋषि के पास आई व बोलीं कि नदी तो प्रबल वेग से उफन रही है। हम कैसे जाएँ?  ऋषि बोले - नदी के पास जाकर कहना कि यदि वशिष्ठ ऋषि ब्रह्मचारी हैं तो मुझे रास्ता दे दें। पशोपेश में पड़ गई अरुंधती। हमारे तो बच्चे हैं। हमारे पति ब्रह्मचारी कैसे हुए? फिर भी सोचा कि ऋषि की वाणी हैं मिथ्या, नहीं हो सकती। गई नदी से बोलीं, नदी ने मार्ग दे दिया।

दुर्वासा ऋषि को भोजन करा दिया। पूछा अब मैं वापस कैसे जाऊँ। नदी तो पुनः उसी वेग से बह रही है। ऋषि बोले-जाओ नदी से कहना कि यदि दुर्वासा ऋषि निराहारी हो तो मुझे रास्ता दे दो। अरुंधती सोचने लगीं अभी तो ऋषि ने इतना भोजन किया है। निराहारी कैसे हुए?  फिर भी चल पड़ी। नदी से बोली और मार्ग मिल गया। लौटने पर वशिष्ठ मुनि ने समझाया कि मर्म तुम समझी कि नहीं?  हमारी इंद्रियाँ भोग में लिप्त नहीं हैं। अंतःकरण निर्मल है। देह-व्यापार चलता रहता है। अंतरात्मा अपन विशुद्ध रूप में बनी रहती है। हम जब उस रूप में स्थित होते हैं तो जिसका अर्थ जगत त्याग चुके होते हैं। 

दुर्वासा इंद्रिय तृप्ति के लिए आहार लेते तो ग्रहण करने वाले कहलाते। ईश्वरीय चिंतन में लीन ऋषि -महापुरुषों को इंद्रियभोग नहीं व्यापते। जहाँ इंद्रियों को तृप्ति मिलती है, वहाँ आदमी के समुद्र में हलचल पैदा हो जाती है। आत्मारूपी समुद्र में हलचल पैदा हो जाती है। आत्मारूपी समुद्र में यदि कोई हलचल न पैदा हो, ऐसा व्यक्ति इंद्रियभोग करता हुआ दिखाई देकर भी वैसा होता नहीं है। यह निष्काम कर्म है। 

(कुछ तथ्य व कथन गूगल से साभार)


MMSTM समवैध्यावि ध्यान की वह आधुनिक विधि है। कोई चाहे नास्तिक हो आस्तिक हो, साकार, निराकार कुछ भी हो बस पागल और हठी न हो तो उसको ईश अनुभव होकर रहेगा बस समयावधि कुछ बढ सकती है। आपको प्रतिदिन लगभग 40 मिनट देने होंगे और आपको 1 दिन से लेकर 10 वर्ष का समय लग सकता है। 1 दिन उनके लिये जो सत्वगुणी और ईश भक्त हैं। 10 साल बगदादी जैसे हत्यारे के लिये। वैसे 6 महीने बहुत है किसी आम आदमी के लिये।"  सनातन पुत्र देवीदास विपुल खोजी
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