कुछ
तो समझो
सनातनपुत्र देवीदास विपुल "खोजी"
मो. 09969680093
विपुल सेन उर्फ विपुल “लखनवी”,
(एम . टेक. केमिकल इंजीनियर) वैज्ञानिक
एवं कवि
पूर्व सम्पादक : विज्ञान त्रैमासिक हिन्दी जर्नल
“वैज्ञनिक” ISSN
2456-4818
ई - मेल: vipkavi@gmail.com वेब: vipkavi.info वेब चैनल: vipkavi
ब्लाग: freedhyan.blogspot.com, फेस बुक: vipul luckhnavi
“bullet"
बधाई
हो उनको जिनका नव जीवन शक्तिपात की दीक्षा के साथ आरम्भ हुआ।
कुछ
को तो उड्डयन बंध स्वतः लगने की तैयारी है।
यह
सब खुद लग जाते है साधन करने में।
अपने
ग्रुप के द्विवेदी तो इन बन्धो से परेशान हो गए थे। कही भी लग जाते थे। अब धीरे धीरे शांत हो रहे है।
यह
सब क्रियात्मक रूप में लगते थे।
भाई
मुझे दोनो नही लग पाते है। और न मैं प्रयास करता हूँ। यह आप किसी जानकार से ही पूछे। मैं तो अनभिज्ञ
हूँ।
इन
मे गुदा और लिंग के संकुचन के साथ पेट नाभि से खिंचकर पीठ से लग जाते है। यह बहुत कठिन और दुर्लभ
बन्ध है।
प्रायः
यह बड़े बड़े नही कर पाते।
दम
घुटने लगती है। वास्तव में यह मृत्यु का अनुभव जैसा होता है
मतलब
सांस रुक जाना। लगता है तुमको कुछ हुआ है।
जो
होता है होने दो। खुद कोई प्रयास मत करना। यह बन्ध
के संस्कार क्रिया रूप में निकल कर
बन्द हो जायेगे। तुमने कुछ नाक घुसेड़ी
तो मुश्किल हो सकती है।
शक्तिपात
साधन में ये स्वतः लग जाते है।
जिन
आश्रमो में सुविधाएं अधिक होती है। वहाँ साधन के अलावा सब प्रपंच होता है।
आश्रम
आ श्रम होना चाहिए। होटल नही। जो सुविधाएं देखता है
उसकी उन्नति नही हो सकती।
मन्त्र
को हम कई भागों में बांट सकते है।
बीज
मंत्र
प्रचलित
मन्त्र
सिद्ध
मन्त्र
सामान्य
मन्त्र
अनुष्ठानिक
मन्त्र
गुरु
मन्त्र
बीज
मंत्र वो जिनके पाठ से शरीर के चक्र आंदोलित हो।
प्रचलित
मन्त्र जैसे राम कृष्ण शिव इत्यादि।
सामान्य
कोई भी सामान्य नाम। जैसे सिरफ गणेश शिव काली दुर्गा इत्यादि।
सामान्य
में सबके नाम के आगे ॐ लगाकर नाम बोलते है।
अनुष्ठानिक
किसी विशेष कार्य हेतु किसी विशेष देव हेतु निर्मित होते है। जैसे मारन मोहन
इत्यादि। गोरखनाथ के साबर मन्त्र
गुरु
मन्त्र। जो शब्द मन्त्र नाम जप या कुछ भी समर्थ गुरू अपनी शक्ति से हमको दे।
इनमें
मिश्रित भी हो सकता है जैसे गुरू बीज मंत्र। सामान्य सिद्ध मन्त्र।
हा
सिद्ध मन्त्र वो जो किन्हीं महापुरुषों ने सिद्ध किये हो जीवित किये हो।
जैसे
मछन्दरनाथ ने अलख निरंजन। तुलसी ने राम। मीरा ने कृष्ण। इसी प्रकार।
वैसे
आज की परिस्थिति में सभी मन्त्र सिद्ध
हो चुके है। हर शब्द तक सिद्ध हो चुका है। अतः कोई छोटा बड़ा नही। जो मन को भाए वो आपके
लिए सर्वश्रेष्ठ।
किसी
मन्त्र की शक्ति नही बल्कि आपकी शक्ति होती है जो मन्त्र कार्यरत होता है।
क्योकि
शब्द ब्रह्म। अतः सब बराबर। बस औकात आपकी।
अनुष्ठानिक
को छोड़कर मात्र अनन्त मन्त्र या नाम जप ही सिद्धि दे पाता है।
सर
जी मैंने कुछ नही पढा था। बस अनुभव के बाद पढ़ना चालू
किया क्योकि मैं खोजी हूँ। फिर पाया
पहले भी लोग मूरख और अल्प ज्ञानी होते
थे।
मैं
सारे दावे करता रहूंगा। क्योकि ये मेरे
अनुभव है। अब चाहे वो जेमिनी हो या
कपिल बादरायण हो या कोई और। मैं अपने
अनुभव से सत्य को जान चुका हूँ। ये
अनुभव जीवन मे एक ही बार हो पर सब समझा
जाते है।
मैं
फिर दावा करूंगा जो सिर्फ साकार का ढोल पीटे वो भी अल्पज्ञानी और जो सिर्फ निराकार
का पीटे वो तो है ही अल्पज्ञानी।
अपने ग्रुप में भी साकार अनुभूतियों से
भरे पड़े है।
निश्चित रूप से माँ काली की असीम कृपा है
जो मुझे सभी अनुभव दिए। प्रथम दीक्षा दी।
गुरुदेव की कृपा जो मुझे मरने से बचाया।
नो स्वयं मानव रूप में शिव।
नारी शक्ति
इसलिये क्योकि उसमे सृष्टि के बीज से निर्माण करने की क्षमता होती है।
परा और प्रकृति को समझ कर उसका अनुभव करना
होगा।
तत्व मीमांसा से सब स्पष्ट
हो जाता है।
लगभग वही अंतर आप दोनो में जो उपनिषद और षट दर्शन में
है। गणितीय दृष्टि से एक निर्मेय एक प्रमेय।
मित्र बिना पूर्वाग्रह के वेद फिर से पढो। ऋग्वेद में
देवी शक्ति के क्या उद्गार है।क्या यह साकार नही।
कौन क्या है मुझे क्या मतलब बस ईश साकार भी है। दर्शन के समय आप वह नही रहते जो आप सोंचते है। पूरा शरीर
बदल जाता है। अपनी बुद्धि गायब। सब कुछ अचानक
होता है कि सोंचने का समय ही नही मिलता।
जिनको यह अनुभव नही है वह कृपया इसकी व्याख्या न करे
तो बेहतर है।
क्योकि पॉचवी का छात्र कभी बी ए को नही पढा सकता।
आप सब कयास लगाकर अपनी बुद्धि को परेशान कर रहे है।
लोग मोटे क्यो। कारण है
जेनेटिक
अधिक भोजन
पाचन प्रणाली
अधिक कैलोरी का भोजन
स्वास्थ्य के प्रति लापरवाही
कसरत व्यायाम न करना।
कोई रोग
माँस मदिरा
इत्यादि का सेवन कारण बनता है। किंतु फिर जो नही करता है वो क्यो। वहाँ
पर अधिक भोजन । लेकिन जो सामान्य भोजन ही करता हो पर मोटा। तो उसकी पाचन
प्रणाली जो उसके पाचन रस का परिवर्तन चर्बी में अधिक प्रतिशत करती है।
विज्ञान के अनुसार मनुष्य जो खाता है उंसक
मात्र 5 से 7 प्रतिशत ही शरीर ग्रहण करता है। बाकी व्यर्थ चला जाता है।
जिनका रस 3 प्रतिशत
से कम परिवर्तित होता है वे दुबले रहेगे कुछ भी खाए।
जिनका 3 से
5 वे सामान्य
जिनका 5 से
अधिक वे मोटे ही रहेगे चाहे कम ही खाये।
इनमें जेनेटिक कारन भी होते है।
अब बात आई आध्यतम की मेरा अनुभव है जो हठ
योग का मार्ग अपनाते हैं अथवा ब्रह्मचारी हो वे दुबले होते है।
जो गृहस्थ्य होते है फिर सन्यासी बनते है
वे प्रायः मोटे होते है।
वृद्धावस्था में जेनेटिक कारण अपना रंग
जरूर दिखाते है। जब हाथ पैर नही चलते तब।
प्रायः
आध्यात्म मार्ग पर चलनेवाला यदि कुछ
प्राप्त कर लेता है तो उसे यह अनुभव हो जाता है कि सब ईश ही करता है। अपने समर्पणवश,
भरमवश या आलस्यवश वो सब ईश
पर छोड़कर स्वास्थ्य के प्रति लापरवाह
हो जाता है। अतः शरीर की चिंता छोड़ने
से उसे व्यायाम इत्यादि की चिंता नही
रहती।
मूल
मिलाकर यह एक काम्प्लेक्स समस्या है जिसको हम किसी की फिछन से नही जोड़ सकते।
गुरु
गोरखनाथ आजीवन ब्रह्मचारी थे अतः उन्हे नारीशास्त्र का कोई ज्ञान नही। ऐसे ही शंकराचार्य।
उससे
पूर्णतया अलग। बुद्धि और मन विस्मित और भौंचक्के
हो जाते है। ये सब अनायास होता है। उस
वक्त जगत याद ही नही रहता।
पहले
तीव्र भगवा चमकदार प्रकाश दिखता है। सूर्य की भांति पर शीतल।
उसमे से आकृतियां आती है। वे आपसे बिना
होठ खोले मॉनसिक वार्तालाप कर सकती है। इस अनुभव को बयांन करना सम्भव नही। फिर यह
आकृतियां आपको आशीष भी दे सकती है किंतु माँ काली तो दादा है। जिनके आते ही
अन्य शक्तियां आपको हाथ जोड़कर विनती करती दिखाई दे सकती है। माँ सरस्वती सबसे
सुंदर मौन स्नेहमयी और शांत रूप है। काली का क्रोध रूप। हमेशा गर्वित।
गणेश जी तो बस एक अबोध पोलू पोलू प्यारे से देव है। इन शक्तियों के आगे चुप
रहते है।
जय
महाकाली।
महामाया
का रूप कुछ अजीब ऊपर से नीचे तक बिना छोर का एक
बड़े से स्त्री आकृति का किसी ड्रिल की
भांति घूमना। जो समझ के परे है। मुझे 25 साल बाद समझ मे आया यह महामाया का रूप है।
ये
सब बिल्कुल नवार्ण मन्त्र के क्रम में प्रकट होते है।
पहले
गणेश। फिर सरस्वती गिर महामाया फर
काली। काली का प्रकट होना किसी विस्फोट
से कम नही। ऐसा लगता है पूरी कायनात
हिल जाती है। कोई कुछ कार्य नही करता
सब हाथ जोड़कर काली प्रार्थना करने लगते
है। जबकि अन्य देवियों के साथ ऐसा नही।
आप
सही बोलते है किंतु जब यह महसूस हो जाये। सब वो तो खुद कुछ करने का
मन नही होता।
रोग
भोग और योग सब तेरे।
अब
आप देखे। सुंदर काया दुर्घटनाग्रस्त हो गई। या कोई भयंकर रोग हो जाये तो।
किंतु
शरीर पर ध्यान देना चाहिए। जितना मन्दिर पर देते हो उतना ही। क्योकि यह शरीर
ब्रह्म का मंदिर ही है।
तेरे
शब्द तेरे जंजाल।
मेरी
बस न तू ही सम्भाल।।
तेरी
मोहक मूरत वारूँ।
न
वर्णित बन शब्द ही भाल।।
जग
बोले तू निराकार है।
मैं
बोलूं तू है साकार।।
निराकार
नीरस है आभा।
तू
ही जग का पालनहार।।
पर्व
पर्व न हुआ अपर्व जब।
तुमने
कान उमेठे तब तब।।
यह
जीवन पर्व हो जाये।
ऐसा
दो मुझको उपहार।।
यह
सत्य है। पूरा जगत एक बड़ा सा घर लगता है। हम स्वप्न देखते है। यह लगता है।
दृष्टाभाव
ध्यान में । एक धारणा का ही स्वरूप है।
इसी
के सहारे हम ध्यान और समाधि के विभिन्न आयामो अलग
हट कर देख सकते है। क्योकि समाधि
इत्यादि में देह भान नही रहता तो याद क्या
रहेगा।
याद
रहने के लिए धारणा का सहारा लेकर हम कही भी भृमण कर सकते है।
जैसे
हर लोक की गति अलग। यदि आप वहाँ गए तो समय की गति में अंतर समस्या पैदा करेगा।
अतः
धारणा के द्वारा बाहर से देख कर चले आओ।
एक राम रस के नशे का आनन्द लेलो। होश नही रहेगा।
मैं प्रायः नशे में ही रहता हूँ। दुनिया की परवाह
किसे।
तभी बोला बच्चे हो। नशा नही किया मतलब किसी भी सीढी
पर न चढ़ना।
नशा तो आता है इस मार्ग पर। यह पहला लक्षण है।
यह आनन्ददायक होता है। सहस्त्रसार से रस टपकता है।
जब अन्तरानन्द आएगा तब ही जगत छूटेगा।
जब अपने मे मस्त तो दुनिया पस्त
भाई यह बात तुम पर भी लागू। तुम दूसरे को तोलना बन्द
करो। दूसरा तुमको तोलना बन्द कर देगा।
जब तक दूसरे को तौलते रहोगे। अपने पर समय नही दे
पाओगे।
सिर्फ अपने को देखो। दूसरो को सलाह देना बंद करो।
इसी में कल्याण है।
फिर नशे की बात लाहिड़ी महाराज ने खूब की है।
तभी बोला है तुम बच्चे हो। नौकरी कुशलता पूर्वक कर
रहा हूँ।
कोई ठग भी नही पाता।
तभी कहता हूँ। बच्चे हो।
बिटिया तुम देखती कम हो।
बेटा। यह सब अपनेआप हो जाता है। सब उसकी लीला है।
शक्तिपात में क्रिया क्या क्या नही कर दिखाती है।
इस ग्रुप में लोग केवल कयास लगाकर
शक्तिपात का नाम लेते है। बाकी कुछ नही। मैं बस मन ही मन हंस लेता हूँ।
मेरे आत्म अवलोकन और योग ग्रुप में छोटी
पाटन देवी पटना के पुजारी सदस्य बन गए। मन्दिर गया था। कुछ मिनट के ध्यान में पूरी कहानी बताई
तो वे आश्चर्यचकित हो गए। गूढ़ बाते दिख गई।
वे हाथ जोड़कर अलग से सब बताने लगे।
अब आगे क्या बोलू।
सब काली मां और गुरु की कृपा है।
कुछ पता नही। सब अपने आप होता है।
यह सब मन्त्र जप का प्रसाद है।
इसी लिए कहता हूँ। बकवास और नेट बन्द करो।
अपने को देखो। अपना मन्त्र जप का बैंक बैलेंस बढ़ाओ। इसी में कल्याण है। सब खुद मिल जाता
है।
: बासी रोटी कब तक खाओगे।
मूर्खो समझने हेतु परिचय देना जरूरी होता
है। वैसे भी मेरी यात्रा कथा मेरे ब्लॉग पर दी है 13 अंकों
में।
शायद लोग मन्त्र जप करे महत्ता समझे। और
ईश भक्ति में लग जाये।
यह
स्वतः होता है। जब आपको द्वैत से अद्वैत का अनुभव
होता है तो योग घटित हो जाता है। फिर
उसके बाद कर्मयोग स्वतः आ जाता है। जगत की चिंता मर जाती है। कोई भी काम करने में चाहे
छोटा हो या बड़ा हो संकोच नही होता। सब अपने ही दिखते है। मन मे केवल
इष्ट का स्मरण या ईश सम्बन्धी ध्यान ही रहता है।
कुल
मिलाकर जब तक वेद महावाक्य का अनुभव न होगा। कर्म योग यानि निष्काम कर्म नही आएगा।
भाई
मैं 25 साल तक चुप रहा मेरे रिश्ते के भाई बंधुओ के
अलावा। फरवरी 18
में प्रारब्धवश या दैवत वश प्रकट होना
पड़ा मजबूरी में।
यह
सब पुस्तकीय ज्ञान है जो अंततः सूक्ष्म स्तर पर ही
सत्य है। पर कोई एक झापड़ रसीद कर दे या
जरा सी चोट लग जाये तो सारा ज्ञान पुनः किताब में लौट जाएगा।
रामेश्वर
जी का प्रश्न सही है। बिना फल के इस जगत में कोई कर्म नही करता।
यदि
करता है तो वह योगी है। योग का अनुभव कर चुका है।
किसी
के चाहने से निष्काम कर्म नही हो सकता है क्योकि यह मॉनसिक स्तर पर है जो एक अनुभव
और अवस्था है।
एक
बार योग का अनुभव यानि वेद महावाक्य का अनुभव हो जाये तो यह स्वतः आने लगता है।
उसके
पहले मात्र बौद्धिक विलास के प्रश्न और उत्तर ही होते है।
कुछ
इसे तरह कि नदी के तट पर खड़े होकर तैराकी सीखो।
हम
यही कर सकते है कि कर्म करते समय भी मन्त्र जप के माध्यम से ईश प्राणिधान में रहे।
आत्मा
करता नही। आत्मा शक्ति है जो इस शरीर को संचालित करती है
मतलब
जब हम कोई भी काम आरम्भ करे तो काम तो यह शरीर कर
रहा है। जैसे चल रहे है। खा रहे है। यह
सब शरीर कर रहा है। हम अपने मन्त्र का मॉनसिक या पश्यंती जाप चालू कर दे।
लेकिन
जिस कार्य मे बुद्धि का उपयोग हैं अर्थात आंतरिक है वहाँ यह लागू नही क्योकि आपका
चिंतन भटक जाएगा
जैसे
मेरा नहाना एक ध्यान होता है। बाथ रूम में
रुद्राष्टक गाते हुए नहाता है। शरीर
नहाता है पर चिंतन शिव की स्तुति का रहता है।
आपके
पास एक लोटा गंगाजल है। अब आप उसको गंदा
कर दे तो लोटे के अंदर की मौजूद गन्दगी साफ दिखगी।
यदि
यह जल गंगा में डाल दे तो गन्दगी नही दिखेगी।
क्यो।
क्योकि
गंगा विशाल है।
उसी
भांति यह ब्रह्म सर्वत्र व्यापी है। किंतु आपके अंदर एक कण के समान वह बन्द है।
जैसे एक पानी के टब में पानी भरे गुब्बारे।
गुब्बारों
का पानी और टब का पानी एक हॉइ किंतु है अलग अलग।
बस
ऐसे ही आपके ब्रह्म अंश के कर्म आपके शरीर को ही भोगने होंगे।
वह
ब्रह्म अछूता है क्योकि वह कर्म नही कर रहा है।
कर्म
आपके गुबारे रुपी शरीर मे बन्द ब्रह्म कर रहा है तो अंदर के पानी का असर गुब्बारे
पर ही पड़ेगा।
किंतु
फल भी एक निश्चित रूप में हमारे कर्मो पर निर्भर करता हैं। ब्रह्म उसमे कोई घुसपैठ
नही करता।
सही
है। आत्मा सभी भावों से रहित होती है।
दही
दूध में उपस्थित जीवाणुओं का कर्म फल है।
अलग
कर्मो के एक से फल भी हो सकते है।
यहाँ
पर धरातल का अंतर पूर्व प्रारब्ध के कारण हो जाता है।
वास्तव
में यदि हम इस जीवन मे बेहद सुखी है तो हम अपने
संचित पुण्य खर्च कर रहे है। यदि दुखी
है तो पाप नष्ट कर रहे है।
बस
इसमें लिपपता गलत हो जाती है।
यह
भावना और मन मे कोई भाव न आना ही निष्काम कर्म है।
एक
बात समझने की है हम अपने कर्मफल भोग रहे है चाहे अच्छे या बुरे जो संस्कार रूप में
चित्त में संचित है।
अब
यदि यह करम भोगते समय इनमें लिप्त न हो तो यह संस्कार कट जाते है किंतु यदि लिप्त
हो गए तो पुनः यह करम बनकर फल पैदा कर देते है।
जिस
जन्म में हम अपने कर्मफल भोगने में पुनः लिप्त नही होंगे यानि निष्काम होंगे। तब
ही हमे निर्वाण मिलेगा।
बाको
सीख दीजिए जाको सीख सुहाय।
बानरा
को सीख दी बया को घर जाय।
ब्रह्म
की भावना से काम नही चलता है। यदि हम अनिल
अंबानी की संपत्ति की भावना करे तो
क्या हमें सम्पत्ति मिल जाएगी।
भावना
से कुछ नही उस दिशा में किसी भी रास्ते से हमे चलने का प्रयास करना होगा।
पहले
अंतर्मुखी होना होगा। फिर शक्ति जागरण
होना होगा। फिर वेद महावाक्यों का अनुभव चाहिए। फिर समझ मे आएगा ब्रह्म क्या है हम क्या
है।
इनके
बाद यह भावना रख सकते है।
वैसे
मेरी दृष्टि में वेद महावाक्य भी अंतिम क्रिया है।
कारण
ब्रह्म
वह जिसके अधींन माया।
मानव
वह जो माया के अधीन।।
मानव
जब तक ब्रह्म स्वरूप नही होता वह माया के अधीन ही रहता है। अतः यह अनुभव भी मात्र
पड़ाव।
ब्रह्म
ज्ञान बेहद आसान है पर ब्रह्म स्वरूप यानि उस ज्ञान अनुभव को आत्मसात करना कठिन।
इसी
कारण ब्रह्म ज्ञानी भी जगत की माया से फंसकर निंदा और दण्ड के भागी हो जाते है।
प्रयास
यह कि हम ब्रह्म स्वरूप हो।
आपको
अपनो के बीच मे भी अपने मे रहना होगा यदि आप अपना कल्याण चाहते हो।
यह
भावना नही लक्ष्य हेतु संकल्प हुआ। भावना मतलब हम यह है ही।
जब
तक मे पागल न बनोगे। पा गल न सकोगे।।
नही
सर दोनो के अर्थ अलग है।
भावना
भूत वर्तमान और भविष्य तीनो को समझ सकता है।
संकल्प
मात्र भविष्य को ही समझाता है।
गीता
एक अनुभव है। यह स्वतः प्रकट होती है।
योग
या वेद महावाक्यों की अनुभूति अनुभव के बाद आप जो बोलेंगे वह गीता में लिखा होगा।
इसी
आधार पर मैं बादरायण के ब्रह्म सूत्रों पर लिख पा रहा हूँ। जो अर्थ औरो ने दिए
उनसे भी अलग।
सँस्कृत को कैसे तोड़ो। अर्थ उस पर निर्भर हो गाते है।
जैसे तथागत
तथ धन आगत
तथा धन गत।
दोनो के अर्थ अलग।
जैसे रोको मत जाने दो।
इसमें कामा कहां लगे। अर्थ अलग।
रोको, मत जाने दो।
रोको मत, जाने दो।
कहां पर क्या फिट है। यह सिर्फ अनुभव के आधार पर ही
बता सकते है।
श्री रमण महर्षि ----
प्र० - क्या धर्म-ग्रन्थों एवं पुस्तकों
के अध्ययन से सत्य की अनुभूति हो सकती है ?
उ० - नहीं। जब तक पूर्व संस्कार मन में गुप्त होकर रहेंगे, साक्षात्कार
की प्राप्ति नहीं हो सकती। शास्त्रों का अध्ययन भी वासना ही है। साक्षात्कार केवल
समाधि में होता है।
इसीलिए बस एक मात्र निवेदन सलाह और ज्ञान।
अपने इष्ट की भक्ति में लीन हो
जाओ। उंसक साकार मन्त्र जप करो। सतत निरन्तर निर्बाध। ये ही तुम्हे गुरु से ज्ञान तक। साकार से
निराकार तक। मुक्ति से निर्वाण तक ले जाएगा।
यह बात हर सन्त ने कही है। जो आज भी फलित होती है।
कारण
यह है। मात्र निराकार अपूर्ण ज्ञान देता है। क्योकि उसे केवल निराकार का अनुभव।
जो साकार से निराकार जाता है उसे सगुन निर्गुण सहित दोनो
के अनुभव हो जाते है। जिस कारण उसमे पूर्णता का ज्ञान हो जाता है।
दूसरे भक्ति रस का प्याला इस जीवन मे अपूर्व आंनद भर देता है।
जैसे
ईश को गृहस्थ्य भी प्राप्त करता है सन्यासी भी। किंतु जगत का पूर्ण ज्ञान गृहस्थ्य
को ही है। आजीवन ब्रह्मचारी जगत से अज्ञान।
यह
बात आप शायद अपूर्ण समझे।
मतलब
मात्र थ्योरी से न चलेगा। जब तक आप प्रयोग न करेगे।
दूसरे
पुस्तकीय ज्ञान समय की बर्बादी भी हो सकता है क्योकि जीवन सीमित है।
तीसरे
भावविहीन होना ही योग की निशानी है। किसी की भावना रखना वासना ही है।
आप
बिना साक्षात्कार करे भावना से मन्त्र जप करे।
यह
सब बाई प्रोडक्ट है। जो खुद मिलेंगे।
कुछ
यूं समझो दिल्ली की तरफ चले तो सीधे प्लेन में बैठे।
वही
बीच के मार्ग की हरियाली का आनन्द लेते चले।
दोनो
दिल्ली पहुँचे पर एक बिना आनन्द एक आनन्द के साथ।
यानी
प्लेन निराकार। दूसरा साकार समझो।
आत्म
गुरू के साथ मनोमय भी स्वतः जागृत हो जाता है।
आत्म
गुरू एक प्रकार की ज्ञान ग्रन्थी है जो कुण्डलनी का ही रूप है पर क्रियाशील नही।
मनुष्य
इस सृष्टि का सबसे शक्तिशाली जीव है। 16 कला का ब्रह्म है तो मानव 8 कला का आधा ब्रह्म।
ब्रह्मा
भी मात्र 8 कला तक निर्माण कर पाए। आगे नही।
: आगे के निर्माण यह 8 कला का आधा ब्रह्म करता है। जो कर्म योनी के कारण ऊपर
या नीचे गिरता है।
10 कला तक देव। 12 तक सिद्ध पुरुष। 14
कला श्री राम। 16
कला कृष्ण।
मनुष्य
के हर जन्म के ज्ञान साधनाओ के फल संस्कार के रूप में चित्त में एकत्र होते है। जो आत्मा में तरंग
के रूप में समाहित रहते है। यही ज्ञान अगले जन्म में आत्मा के साथ चला
जाता है।
उसी
प्रकार मनुष्य के शरीर के निर्माण के बॉस बची ऊर्जा कुण्डलनी शक्ति के रूप में मूलाधार में सोई रहती है।
कभी
कभी संस्कार के कारण अथवा पूर्व जन्म की अधूरी साधनाओ के कारण अथवा इस जन्म की साधनाओ जैसे बीज
मन्त्र जप के कारण इन दोनों में कोई भी खुल जाती है।
जब
कुण्डलनी खुलती है तो ज्ञान ग्रन्थी खुद खुल जाती है जिसे आत्म गुरू कहते है।
कभी
कभी ज्ञान ग्रन्थी अकेले खुल जाती है किसी विशेष कृपा या साधना से तो भी यात्म
गुरु खुल जाता है।
उसको
भटकाने हेतु मन गुरू भी खुल जाता है।
मन
गुरू मानव को भटकाता है वेद विरूद्ध तक उकसा देता है।
अतः
स्वामी शिवओम तीर्थ जी महाराज कहते है।
जब
तक तुमको साफ लिखा हुआ या स्वप्न ध्यान में स्पष्ट आदेश न हो तब तक उसे मन गुरू की
बात समझो।
नही
वो जाने अनजाने में ही बिना पढ़े चला जाता है। बाकी लोग उसे बताते है कि वह वेद
विरूद्ध है।
वेद
ने महावाक्यों के रूप में एक टेस्ट दे दिया है। जिसको बिना पास किये सब भरम है।
जब
तक वेद महावाक्य का अनुभव न हो। सब गलत बात।
इसी
लिए मैंने तुमसे पूछा तुम्हारे शारीरिक और मॉनसिक परिवर्तन की अनुभूतिया क्या होती
है। उनके आधार पर कुछ निष्कर्ष निकल सकता है।
नही
तो मात्र बासी रोटी खाकर डकार रहे हो।
जैसे
कामपाल ने जो व्याख्याएं की वो उसके लिए सही पर औरो के लिए गलत।
अब
इस पर क्या कहा जाए।
जैसे
आसाराम बापू ज्ञान योग में अधिक स्थित होकर निरंकुश और अहंकारी हो गए। पाप कर्म हो गया। सजा हो
गई। यही राम रहीम से हुआ।
मेरी
निगाह में सभी बाबाओं की दुकानों में आसाराम के प्रवचन सर्वश्रेष्ठ थे।
इसी
लिए ज्ञान योग में मात्र मृत्यु के निकट ही स्थित होना चाहिए।
बाकी
समय द्वैत भक्ति में डूबने के प्रयास करते रहना चाहिए।
मुझे
स्वयम कितनी बार निराकार ज्ञान योग में धक्का दिया गया। पर मैं जबरिया संघर्ष पूर्वक कोशिश कर भक्ति
द्वैत में आ जाता हूँ।
अब शक्ति ने धक्का मारना बन्द कर दिया।
MMSTM समवैध्यावि ध्यान की वह आधुनिक विधि है। कोई चाहे नास्तिक हो आस्तिक हो, साकार, निराकार कुछ भी हो बस पागल और हठी न हो तो उसको ईश अनुभव होकर रहेगा बस समयावधि कुछ बढ सकती है। आपको प्रतिदिन लगभग 40 मिनट देने होंगे और आपको 1 दिन से लेकर 10 वर्ष का समय लग सकता है। 1 दिन उनके लिये जो सत्वगुणी और ईश भक्त हैं। 10 साल बगदादी जैसे हत्यारे के लिये। वैसे 6 महीने बहुत है किसी आम आदमी के लिये।" सनातन पुत्र देवीदास विपुल खोजी
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MMSTM समवैध्यावि ध्यान की वह आधुनिक विधि है। कोई चाहे नास्तिक हो आस्तिक हो, साकार, निराकार कुछ भी हो बस पागल और हठी न हो तो उसको ईश अनुभव होकर रहेगा बस समयावधि कुछ बढ सकती है। आपको प्रतिदिन लगभग 40 मिनट देने होंगे और आपको 1 दिन से लेकर 10 वर्ष का समय लग सकता है। 1 दिन उनके लिये जो सत्वगुणी और ईश भक्त हैं। 10 साल बगदादी जैसे हत्यारे के लिये। वैसे 6 महीने बहुत है किसी आम आदमी के लिये।" सनातन पुत्र देवीदास विपुल खोजी
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