Search This Blog

Wednesday, March 27, 2019

अष्टावक्र और जनक



अष्टावक्र और जनक
सनातनपुत्र देवीदास विपुल "खोजी" 
मो.  09969680093
 विपुल सेन उर्फ विपुल लखनवी,
(एम . टेक. केमिकल इंजीनियर) वैज्ञानिक एवं कवि
पूर्व सम्पादक : विज्ञान त्रैमासिक हिन्दी जर्नल “वैज्ञनिक” ISSN 2456-4818
  - मेल: vipkavi@gmail.com  वेब:  vipkavi.info वेब चैनलvipkavi
                 ब्लाग: freedhyan.blogspot.com,  फेस बुक:   vipul luckhnavi “bullet"



कई हजार साल पहले, अष्टावक्र नाम के एक महान गुरु हुए। वह धरती के महानतम ऋषियों में से एक थे जिन्होंने उस समय एक विशाल आध्यात्मिक आंदोलन चलाया था। ‘अष्टावक्र’ का मतलब है ‘वह इंसान जिसके शरीर में आठ अलग-अलग तरह की विकृतियां हो’। ये विकृतियां उनके पिता के श्राप के कारण उन्हें मिली थीं।
अष्टावक्र ने माता के गर्भ में ही कई शिक्षाएं पा ली
जब अष्टावक्र अपनी माता के गर्भ में थे, तभी उनके पिता कहोल, जो खुद एक प्रसिद्ध विद्वान और ऋषि थे, ने उनको कई तरह की शिक्षाएं दीं।
अष्टावक्र ने गर्भ में ही ये सारी शिक्षाएं पा ली थीं और जन्म लेने से पहले ही मां की कोख में उन्होंने आत्म के विभिन्न पहलुओं पर जबर्दस्त महारत हासिल कर ली थी।
एक दिन शिक्षा देते समय कहोल ने एक गलती कर दी। अजन्मे बच्चे अष्टावक्र ने अपनी मां की कोख से ‘हूं’ कहा। उसका आशय था कि कहोल की बात गलत है और वह जो कह रहे थे, वह सही नहीं है। दुर्भाग्य से उसके पिता अपना आपा खो बैठे और बच्चे को आठ अंगों से विकलांग होने का श्राप दे दिया। इसलिए बच्चा शारीरिक रूप से विकलांग पैदा हुआ – उसके दोनों पैर, दोनों हाथ, घुटने, छाती और गर्दन टेढ़े थे।


सबसे पहले यह जानें कि अष्टावक्र की जीवनी और जनक के साथ उनकी कथाओं पर विभिन्न मत हैं। परंतु यह सत्य है कि जनक उनके चेले थे और इस संवाद की गीता या संहिता सत्य है।  
कोई  कह देगा कि कहीं कोई गर्भ से बोलता है। यह बात ‘गलत है  असंभव है।
अष्टावक्र के संबंध में और जो ज्ञात है, वह है जब वे बारह वर्ष के थे।
तीसरा सत्य उनकी अष्टावक्र—गीता है; या कुछ लोग कहते हैं ‘अष्टावक्र—संहिता’।
बाकी की कथायें कुछ भिन्न हैं।

पहली कथा:
जब वे बारह वर्ष के थे तो एक बड़ा विशाल शास्त्रार्थ जनक ने रचा। जनक सम्राट थे और उन्होंने सारे देश के पंडितों को निमंत्रण दिया। और उन्होंने एक हजार गायें राजमहल के द्वार पर खड़ी कर दीं और उन गायों के सींगों पर सोना मढ़ दिया और हीरे—जवाहरात लटका दिये, और कहा, ‘जो भी विजेता होगा वह इन गायों को हांक कर ले जाये।’


बड़ा विवाद हुआ! अष्टावक्र के पिता भी उस विवाद में गये। खबर आई सांझ होते—होते कि पिता हार रहे हैं। सबसे तो जीत चुके थे, वंदिन नाम के एक पंडित से हारे जा रहे हैं। यह खबर सुन कर अष्टावक्र भी राजमहल पहुंच गया। सभा सजी थी। विवाद अपनी आखिरी चरम अवस्था में था। निर्णायक घड़ी करीब आती थी। पिता के हारने की स्थिति बिलकुल पूरी तय हो चुकी थी। अब हारे तब हारे की अवस्था थी।
अष्टावक्र दरबार में भीतर चला गया। पंडितों ने उसे देखा। महापंडित इकट्ठे थे! उसका आठ अंगों से टेढ़ा—मेढ़ा शरीर! वह चलता तो भी देख कर लोगों को हंसी आती। उसका चलना भी बड़ा हास्यास्पद था। सारी सभा हंसने लगी। अष्टावक्र भी खिलखिला कर हंसा। जनक ने पूछा. ‘और सब हंसते हैं, वह तो मैं समझ गया क्यों हंसते हैं, लेकिन बेटे, तू क्यों हंसा?’
अष्टावक्र ने कहा. ‘मैं इसलिए हंस रहा हूं कि इन चमारों की सभा में सत्य का निर्णय हो रहा है!’ बड़ा… आदमी अनूठा रहा होगा! ‘ये चमार यहां क्या कर रहे हैं?’



सन्नाटा छा गया!.. चमार! सम्राट ने पूछा. ‘तेरा मतलब?’ उसने कहा:सीधी—सी बात है। इनको चमड़ी ही दिखायी पड़ती है, मैं नहीं दिखायी पड़ता। मुझसे सीधा—सादा आदमी खोजना मुश्किल है, वह तो इनको दिखायी ही नहीं पड़ता; इनको आड़ा—टेढ़ा शरीर दिखायी पड़ता है। ये चमार हैं! ये चमड़ी के पारखी हैं। राजन, मंदिर के टेढ़े होने से कहीं आकाश टेढ़ा होता है? घड़े के फूटे होने से कहीं आकाश फूटता है? आकाश तो निर्विकार है। मेरा शरीर टेढ़ा—मेढ़ा है, लेकिन मैं तो नहीं। यह जो भीतर बसा है इसकी तरफ तो देखो! इससे तुम सीधा—सादा और कुछ खोज न सकोगे।’


यह बड़ी चौंकाने वाली घोषणा थी, सन्नाटा छा गया होगा। जनक प्रभावित हुआ, झटका खाया। निश्चित ही कहां चमारों की भीड़ इकट्ठी करके बैठा है! खुद पर भी पश्चात्ताप हुआ, अपराध लगा कि मैं भी हंसा। उस दिन तो कुछ न कहते बना, लेकिन दूसरे दिन सुबह जब सम्राट घूमने निकला था तो राह पर अष्टावक्र दिखायी पड़ा। उतरा घोड़े से, पैरों में गिर पड़ा। सबके सामने तो हिम्मत न जुटा पाया, एक दिन पहले। एक दिन पहले तो कहा था, ‘बेटे, तू क्यों हंसता है?’ बारह साल का लड़का था। उम्र तौली थी। आज उम्र नहीं तौली। आज घोड़े से उतर गया, पैर पर गिर पड़ा—साष्टांग दंडवत! और कहा : पधारें राजमहल, मेरी जिज्ञासाओं का समाधान करें! हे प्रभु, आयें मेरे घर! बात मेरी समझ में आ गई है! रात भर मैं सो न सका। ठीक ही कहा : शरीर को ही जो पहचानते हैं उनकी पहचान गहरी कहां! आत्मा के संबंध में विवाद कर रहे हैं, और अभी भी शरीर में रस और विरस पैदा होता है, घृणा, आकर्षण पैदा होता है! मर्त्य को देख रहे हैं, अमृत की चर्चा करते हैं! धन्यभाग मेरे कि आप आये और मुझे चौंकाया! मेरी नींद तोड़ दी! अब पधारो!
राजमहल में उसने बड़ी सजावट कर रखी थी। स्वर्ण—सिंहासन पर बिठाया था इस बारह साल के अष्टावक्र को और उससे जिज्ञासा की। पहला सूत्र जनक की जिज्ञासा है। जनक ने पूछा है, अष्टावक्र ने समझाया है।



एक तो जन्म के पहले की गर्भ से पिता को आवाज और घोषणा कि ‘क्या पागलपन में पड़े हो? शास्त्र में उलझे हो, शब्द में उलझे हो? जागो! यह ज्ञान नहीं है, यह सब उधार है। यह सब बुद्धि का ही जाल है, अनुभव नहीं है। इसमें रंचमात्र भी सार नहीं है। कब तक अपने को भरमाये रखोगे?’



राजमहल में हंसना पंडितों का और कहना अष्टावक्र का, कि जीवन में देखने की दो दृष्टियां हैं—एक आत्म—दृष्टि, एक चर्म—दृष्टि। चमार चमड़ी को देखता है। प्रज्ञावान आत्मा को देखता है।
जनक न्यायप्रिय और जीवों पर दया करते थे| उनके पास एक शिव धनुष था| वह उस धनुष की पूजा किया करते थे| आए हुए साधू-संतों को भोजन खिलाकर स्वयं भोजन करते थे|
लेकिन एक दिन एक महात्मा ने राजा जनक को उलझन में डाल दिया| उस महात्मा ने राजा जनक से पूछा-हे राजन! आप ने अपना गुरु किसे धारण किया है?
यह सुन कर राजा सोच में पड़ गया| उसने सोच-विचार करके उत्तर दिया-हे महांपुरुष! मुझे याद है कि अभी तक मैंने किसी को गुरु धारण नहीं किया| मैं तो शिव धनुष की पूजा करता हूं|



यह सुनकर उस महात्मा ने राजा जनक से कहा-राजन! आप गुरु धारण करो| क्योंकि इसके बिना जीवन में कल्याण नहीं हो सकता और न ही इसके बिना भक्ति सफल हो सकती है| आप धर्मी एवं दयावान हैं|
सत्य वचन महाराज|’ राजा जनक ने उत्तर दिया और अपना गुरु धारण करने के लिए मन्त्रियों से सलाह-मशविरा किया| तब यह फैसला हुआ कि एक विशाल सभा बुलाई जाए| उस सभा में सारे ऋषि, मुनि, पंडित, वेदाचार्य बुलाए जाएं| उन सब में से ही गुरु को ढूंढा जाए|


सभा बुलाई गई| सभी देशो में सूझवान पंडित, विद्वान और वेदाचार्य आए| राजा जनक का गुरु होना एक महान उच्च पदवी थी, इसलिए सभी सोच रहे थे कि यह पदवी किसे प्राप्त हो, किसको राजा जनक का गुरु बनाया जाए| हर कोई पूर्ण तैयारी के साथ आया था| सभी विद्वान आ गए तो राजा जनक ने उठकर प्रार्थना किहे विद्वान और ब्राह्मण जनो! यह तो आप सबको ज्ञात ही होगा कि यह सभा मैंने अपना गुरु धारण करने के लिए बुलाई है| परन्तु मेरी एक शर्त यह है कि मैं उसी को अपना गुरु धारण करना चाहता हूं जो मुझे घोड़े पर चढ़ते समय रकाब के ऊपर पैर रखने पर काठी पर बैठने से पूर्व ही ज्ञान कराए| इसलिए आप सब विद्वानों, वेदाचार्यों और ब्राह्मणों में से अगर किसी को भी स्वयं पर पूर्णत: विश्वास है तो वह आगे आए| आगे आ कर चन्दन की चौकी पर विराजमान हो पर यदि चन्दन की चौकी पर बैठ कर मुझे ज्ञान न करा सका तो उसे दण्डमिलेगा| क्योंकि सभा में उस की सबने हंसी उड़ानी है और इससे मेरी भी हंसी उड़ेगी| इसलिए मैं सबसे प्रार्थना करता हूं कि योग्य बल बुद्धि वाला सज्जन ही आगे आए|


यह प्रार्थना करके धर्मी राजा जनक अपने आसान पर बैठ गया| सभी विद्वान और ब्राह्मण राजा जनक की अनोखी शर्त सुनकर एक दूसरे की तरफ देखने लगे| अपने-अपने मन में विचार करने लगे कि ऐसा कौन-सा तरीका है जो राजा जनक को इतने कम समय में ज्ञान करा सके| सब के दिलों-दिमाग में एक संग्राम शुरू हो गया| सारी सभा में सन्नाटा छा गया| राजा जनक का गुरु बनना मान्यता और आदर हासिल करना, सब सोचते और देखते रहे| चन्दन की चौकी की ओर कोई न बढ़ा| यह देखकर राजा जनक को चिंता हुई| वह सोचने लगा कि उसके राज्य में ऐसा कोई विद्वान नहीं? राजा ने खड़े हो कर सभा में उपस्थित हर एक विद्वान के चेहरे की ओर देखा| लेकिन किसी ने आंख न मिलाई| राजा जनक बड़ा निराश हुआ|


कुछ पल बाद एक ब्राह्मण उठा, उसका नाम अष्टावकर था| जब वह उस चन्दन की चौकी की ओर बढ़ने लगा तो उसकी शारीरिक संरचना देखकर सभी विद्वान और ब्राह्मण हंस पड़े| राजा भी कुछ लज्जित हुआ| उस ब्राह्मण की कमान पर दो बल थे| छाती आगे को और पेट पीछे को गया हुआ था| टांगें टेढ़ी थीं और हाथों का तो क्या कहना, एक पंजा है ही नहीं था तथा दूसरे पंजे की उंगलियां जुड़ी हुई थीं| जुबान चलती थी और आंखें तथा चेहरा भी ठीक नहीं था| वह आगे होने लगा तो मंत्री ने उसको रोका और कहा-पुन: सोच लीजिए! राजा जनक की संतुष्टि न हुई तो मृत्यु दण्ड मिलेगा| यह कोई मजाक नहीं है, यह राजा जनक की सभा है|


अष्टावकर बोला-हे मन्त्री! यह बात आपको कहने का इसलिए साहस पड़ा है क्योंकि मैं शरीर से कुरुप दिखता हूं| हो सकता है गरीब और बेसहारा हूं| आपके मन में भी यह भ्रम आया होगा कि मैं शायद लालच के कारण आगे आने लगा हूं| इससे यह प्रतीत होता है कि जैसे इस भरी सभा में कोई ज्ञानी नहीं, कोई राजा का गुरु बनने की योग्यता नहीं रखता, वैसे आप भी अज्ञानी हो| आप ने अपने जैसे अज्ञानियों को ही बुलाया है| पर मैं सभी से पूछता हूं क्या ज्ञान का सम्बन्ध आत्मा और दिमाग के साथ है या किसी के शरीर के साथ? जो सुन्दर शरीर वाले, तिलक धारी, ऊंची कुल और अच्छे वस्त्रों वाले बैठे हैं, वह आगे क्यों नहीं आते? सभी सोच में क्यों पड़ गए होमेरे शरीर की तरफ देख कर हंसते हुए शर्म नहीं आती, क्योंकि शरीर ईश्वर की रचित माया है| उसने अच्छा रचा है या बुरा| जिसको तन का अभिमान है, उसको ज्ञान अभिमान नहीं हो सकता, अष्टावकर गुस्से से बोला| उसकी बातें सुन कर सभी तिलकधारी राज ब्राह्मण शर्मिन्दा हो गए| उन सब को अपनी भूल पर पछतावा हुआ|
राजा जनक आगे बढ़ा| उसने हाथ जोड़ कर कहा, ‘आओ महाराज! अगर आप को स्वयं पर विश्वास है तो ठीक है| मेरी संतुष्टि कर देना|’


अष्टावकर चन्दन की चौकी पर विराजमान हो गया| उसी समय राजा ने घोड़ा मंगवाया| वह घोड़ा हवा से बातें करने वाला था| उसकी लगाम बहुत पक्की थी| अष्टावकर ने घोड़े की ओर देखा| तदुपरांत राजा जनक की तरफ देख कर कहने लगा, ‘हे राजन! यदि मैंने आपको ज्ञान करा दिया तो आप ने मेरा शिष्य बन जाना है|’
यह तो पक्की बात है!’ राजा जनक ने उत्तर दिया|
जब मैं आपका गुरु बन गया और आप मेरे शिष्य तो मुझे दक्षिणा भी अवश्य मिलेगी|’ अष्टावकर ने कहा|
यह भी ठीक है महाराज! आपको दक्षिणा मिलनी चाहिए|’ राजा जनक ने आगे से कहा|


क्योकि मैंने आप को ज्ञान का उपदेश उस समय देना है, जब आपने रकाब के ऊपर पैर रखना है और फिर आपने घोड़ा दौड़ा कर दूर निकल जाना है,  इसलिए मेरी दक्षिणा पहले दे दीजिए| परन्तु दक्षिणा तन, मन और धन किसी एक वस्तु की हो|’ अष्टावकर बोला|


राजा जनक सोच में पड़ गया कि बात तो ठीक है| दक्षिणा तो पहले ही देनी पड़ेगी| पर दक्षिणा दूं किस वस्तु की तन की, मन की या धन की| इन तीनों का सम्बन्ध ही जीवन से है| अगर एक भी कम हो जाए तो हानि होगी, जीवन सुखी नहीं रहता| यह अनोखा ऋषि है, इसकी बातें भी अनोखी हैं| राजा सोचता रहा पर उसको कोई बात न सूझी| वह कोई भी फैसला न कर सका|
राजा जनक ने कहा, ‘महाराज! मुझे राजमहल में जाने की आज्ञा दीजिए|  मैं वापिस आ कर आपको बताऊंगा कि मैं किस वस्तु की दक्षिणा दे सकता हूं|’
आप जा सकते हैं|’ अष्टावकर ने आज्ञा दी|
यह सुन कर सारी सभा में सन्नाटा छा गया| सभी विद्वान सोचने लगे कि यह कुरुप ब्राह्मण अवश्य गुणी है|


राजा जनक राजमहल में चला गया और अष्टावकर चंदन की चौकी पर विराजमान हो गया| उसकी पूजा होने लगी| जैसे कि गुरु धारण करने से पहले गुरु पूजा करनी पड़ती है|
राजा जनक महल में पहुंचा और रानी से कहा-जिसको मैं गुरु धारण करने लगा हूं, वह तन, मन और धन में से एक को दक्षिणा में मांगता है| बताओ मैं क्या दूं, क्योंकि आप मेरी दुःख सुख की साथी हो|


यह सुन कर रानी सोच में पड़ गई| कुछ समय सोच कर उसने कहा-‘हे राजन! यदि धन दान किया तो दुःख प्राप्त होगा, गरीबी आएगी, यदि तन दान किया तो कष्ट उठाना पड़ेगा, अच्छा यही है कि आप मन को दक्षिणा में दे दीजिए| मन को देने से कोई कष्ट नहीं होगा|
राजा जनक विचार करने लगा कि रानी ने जो सलाह दी है वह ठीक है या नहीं| पर विचार करके वह भी इसी परिणाम पर पहुंचा और सभा में आकर उसने हाथ जोड़ कर अष्टावकर को कहा-‘मैं गुरु दक्षिणा में मन अर्पण करता हूं| अब मेरे मन पर आपका अधिकार हुआ|’
चलो ठीक है| अब आप घोड़े पर चढ़ने की तैयारी करें| आपका मन मेरा है तो मेरा कहना अवश्य मानेगा|’ अष्टावकर ने आज्ञा की| सभा में बैठे सब हैरान हो गए कि यह राजा जनक का गुरु बनने लगा है, कैसे कुरुप व्यक्ति के भाग्य जाग पड़े|



राजा घोड़े के ऊपर चढ़ने लगा, सभी रकाब में पैर रखा ही था कि अष्टावकर बोला, राजन! मेरे मन की इच्छा नहीं कि आप घोड़े के ऊपर चढ़ो| यह सुनकर राजा ने उसी समय रकाब से पैर उठा कर धरती पर रख लिए तथा अष्टावकर की ओर देखने लगा| घोड़े के ऊपर चढ़ने की उसकी मन की इच्छा दूर हो गई| उसी समय अष्टावकर ने दूसरी बार कहा-राजन! मेरा मन चाहता है कि आस-पास का लिबास उतार दिया जाए| राजा जनक उसी समय वस्त्र उतारने लगा तो उसको ज्ञान हुआ, मन पर काबू पाना, मन के पीछे स्वयं न लगना ही सुखों का ज्ञान है| मन भटकता रहता है| राजा जनक ने उसी समय अष्टावकर के चरणों में माथा झुका दिया और कहा, ‘आप मेरे गुरु हुए|’
उसी समय खुशी के मंगलाचार होने लग पड़े| यज्ञ शुरू हो गया| बड़े-बड़े ब्राह्मणों को अष्टावकर के चरणों में लगना पड़ा|


राजा जनक बहुत बड़ा प्रतापी हुआ, जो माया में उदास था| गुरु धारण करने के बाद उसने बहुत भक्ति की| मन को ऐसा बना लिया कि माया का कोई भी रंग उस पर प्रभाव नहीं डालता था| मोह माया, लोभ, अहंकार तथा वासना, काम का जोश भी उसके मन की इच्छा अनुसार हो गया| वह राजा भक्त बन गया|
एक दिन उसके मन में आया कि आखिर मैं भक्ति करता हूं…..क्या पता भक्ति का असर हुआ है कि नहीं? क्यों न परीक्षा लेकर देखा जाए| बात तो अहंकार वाली थी पर उसके मन में आ गई| जो मन में आए वह हो जाता है|
एक दिन राजा ने अद्भुत ही कौतुक रचा| उसने एक तेल का कड़ाहा गर्म करवाया| उस छोटे कड़ाहे के पास बिछौना बिछा कर उस पर अपनी सबसे सुन्दर स्त्री को कहा कि वह लेट जाए| जब स्त्री लेट गई तो राजा जनक ने एक पैर कड़ाहे में रखा और एक उस स्त्री के बदन पर| वह अडोल खड़ा रहा| अग्नि ने उसको जरा भी आंच न आने दी|….और रानी की सुन्दरता, पैर द्वारा शरीर के स्पर्श ने उसके खून को न गरमाया, गर्म तेल उबलता था, रानी की जवानी दोपहर में थी| यह देखकर लोग राजा जनक की जै जै बोलने लगे| वह धर्मात्मा-बड़ा भक्त बन गया| उसके पश्चात राजा को कभी माया ने न भरमाया|


कहते हैं, जनक ने जो भक्ति का दिखावा किया था, वह परमात्मा के दरबार में उसका अहंकार लिखा गया| जब देवता लेने के लिए आए तो परमात्मा ने हुक्म दिया-हे देवताओं! राजा जनक को नरक वाले रास्ते से देवपुरी ले आना,  क्योंकि उसके अहंकार का फल उसको अवश्य मिले| यहां बे-इंसाफी नहीं होती, इंसाफ होता है| बस इतना ही काफी है| उसका फूलों वाला बिबान उधर से ही आए|
जिस तरह परमात्मा का हुक्म था, सब ने उसी तरह ही मानना था| देवताओं ने राजा जनक का बिबान नरकों की तरफ मोड़ लिया| नरक आया| नरकों में हाहाकार मची हुई थी| जीव पापों और कुकर्मों का फल भुगत रहे थे| कोई आग में जल रहा था तो कोई उल्टा लटकाया हुआ था और नीचे आग जल रही थी| कई आत्माओं को गर्म तेल के कड़ाहों में डाला हुआ था| तिलों की तरह कोहलू में पीसे जा रहे थे|  हैरानी की बात यह थी कि वह न मरते थे और न जीते थे| आत्माएं दुःख उठाती हुई तड़प रही थीं| नरक की तरफ देख कर राजा जनक ने पूछा-यह कौन-सा स्थान है? नरक के राजा यमदूत ने कहा-महाराज! यह नरक है, उन लोगों के लिए जो संसार में अच्छे काम नहीं करते रहें, अब दुःख उठा रहे हैं|


राजा जनक ने कहा-इन सब को अब छोड़ देना चाहिए| बहुत दुःख उठा लिया है| देखो कैसे मिन्नतें कर रहे हैं|
यम-परमात्मा की आज्ञा के बिना एक पत्ता भी नहीं हिल सकता| हां, यदि कोई पुण्य का फल दे तो इनको भी छुटकारा मिल सकता है|
राजा जनक को रहम आ गया| उसने कहा-मेरे एक पल के सिमरन का फल लेकर इन को छोड़ दो|
यमों ने तराजू मंगवाया| एक तरफ राजा जनक के सिमरन का फल रखा गया और दूसरी तरफ नरकगामी आत्माएं बिठाईं| धीरे-धीरे सभी नरकगामी आत्माएं तराजू पर चढ़ गईं| नरक खाली हो गया| आत्माएं राजा जनक के साथ ही स्वर्ग की ओर चल पड़ीं| बड़े प्रताप और शान से राजा जनक परमात्मा के दरबार में उसके देव लोक में पहुंचा|



अन्य कथा: - (विष्णुपुराण)
एक ऋषि थे उद्दालक। उनकी पुत्री सुजाता अपने पति के देहान्त के पश्चात् अपने इकलौते छोटे से बेटे को लेकर पिता के आश्रम में आ गयी।
सुजाता का पुत्र दुर्भाग्य से टेढ़े-मेढ़े अंगों वाला था। उसके हाथ-पैर टेढ़े-मेढ़े थे, कद नाटा था, पीठ पर कूबड़ निकला था, चेहरा भद्दा था, इसीलिए उसका नाम अष्टावक्र रखा गया। पर माँ सुजाता का वही एक आसरा था, अतः उसी का मुँह देखकर आगे चलकर अपने अच्छे दिनों की आशा लगाये थी।
अपनी विधवा बेटी तथा धेवते को उद्दालक अपने आश्रम में बड़े आदर और प्यार से रखते थे, ताकि उनके मन में किसी तरह का दुख या हीन-भावना न आए।
अष्टावक्र शरीर से भले ही टेढ़ा-मेढ़ा तथा बेढंगा था, मगर उसकी बुद्धि बड़ी तीव्र थी। वह अपने नाना के आश्रम में पढ़ने वाले अन्य विद्यार्थियों में सबसे कम उम्र का था, पर पढ़ने में सबसे तेज था। अपनी तीव्र बुद्धि के कारण उसने थोड़ी ही उम्र में वेद-शास्त्रों तथा धर्म-ग्रन्थों का अच्छा अध्ययन कर लिया।


अपनी माँ और नाना के प्यार में अष्टावक्र को यह सोचने का कभी मौका ही न मिला कि उसके पिता नहीं हैं और वह अपने नाना के आश्रित है? एक दिन संयोग से एक घटना घटी। आश्रम के सब विद्यार्थी छुट्टी पाकर अपने-अपने घर चले गये थे। अष्टावक्र अपने नाना की गोद में बैठा था। इतने में उद्दालक का अपना पुत्र श्वेतकेतु आया और अष्टावक्र को अपने पिता की गोद में बैठा देखकर बोला, ‘‘अष्टावक्र, तू यहाँ से हट। अपने पिता की गोद में मैं बैठूँगा।’’
अष्टावक्र बोला, ‘‘मैं पहले से बैठा हूँ, मैं नहीं हटता।’’


श्वेतकेतु अष्टावक्र का हाथ पकड़कर बोला, ‘‘यह तेरे पिता की गोद नहीं है, तू अपने पिता की गोद में जाकर बैठ।’’
महर्षि उद्दालक को श्वेतकेतु की यह बात बुरी लगी। उन्होंने उसे इस व्यवहार के लिए डाँटा तथा अष्टावक्र को पुचकारकर बुलाया। मगर वह अपमानित मन से अपनी माँ के पास चला गया और बोला, ‘‘माँ! मेरे पिताजी कहाँ हैं?’’
बेटे से आज पहली बार सुजाता ने यह सवाल सुना तो धक् से रह गयी। अपने को सँभालकर बोली, ‘‘महर्षि उद्दालक ही तेरे पिता हैं।’’
‘‘वह मेरे नाना हैं, गुरु हैं। मैं अपने पिता के बारे में पूछ रहा हूँ माँ!’’
सुजाता ने प्यार से पूछा, ‘‘आज तुझे पिता के बारे में जानने की क्या जरूरत पड़ गयी?’’
अष्टावक्र ने श्वेतकेतु से हुई सारी बातें माँ को बतायीं। सुनकर सुजाता की आँखें भर आयीं। अभी वह अपने बेटे को उसके पिता के बारे में कुछ बताना नहीं चाहती थी, पर अब बताना पड़ा।



‘‘बेटा! तेरे जन्म से पहले की बात है। तेरे पिता एक बार कुछ धन-प्राप्ति के लिए राजा जनक के दरबार में गये। उनके दरबार में बन्दी नामक एक तार्किक शास्त्री रहता है। उस दुष्ट की यह आदत है कि जो भी उससे शास्त्रार्थ में हार जाता है, उसे वह जल में डुबोकर मार डालता है। दुर्भाग्य से तेरे पिता उसके कुतर्कों से हार गये। उस दुष्ट ने निर्दयता से उन्हें जल में डुबोकर मार डाला। जब भरण-पोषण का कोई सहारा नहीं रह गया तो तुझे लेकर मैं यहाँ अपने पिता के पास आ गयी। तब से आज तक यहीं हूँ।’’ कहते-कहते सुजाता की आँखों में आँसू भर आये।
अष्टावक्र बोला, ‘‘माँ! रोओ मत। क्या तुम बता सकती हो कि वह बन्दी अब कहाँ है?’’
‘‘हाँ बेटा! अब भी वह राजा जनक के दरबार में रहता है, पर तू उसे जानकर क्या करेगा? अभी पढ़-लिखकर खूब विद्वान बन। उस पापी के पास जाने की जरूरत नहीं।’’
‘‘जरूरत है माँ! इस तरह के दुष्टों को उन्हीं की खोदी हुई खाई में गिराने से कल्याण होगा। मैं उससे अपने पिता की हत्या का बदला लूँगा।’’ यह कहकर अष्टाव्रक सीधा उद्दालक के पास पहुँचा।
‘‘गुरुदेव! मुझे राजा जनक के दरबार में जाकर बन्दी से शास्त्रार्थ करने की आज्ञा दीजिए।’’


महर्षि बोले, ‘‘बेटा! शान्त होओ। अभी तुम्हारी शिक्षा पूरी नहीं हुई है। तुम्हारे शरीर तथा उम्र को देखते हुए तुन्हें जनक के दरबार में कोई घुसने भी न देगा, शास्त्रार्थ तो दूर की बात है।’’
अष्टावक्र बोला, ‘‘गुरुदेव! आप अपना आशीर्वाद दीजिए। आपकी कृपा से मैं बन्दी से शास्त्रार्थ अवश्य करूँगा।’’
उद्दालक अपने धेवते की बुद्धि तथा वेद-शास्त्रों के गहन अध्ययन को जानते थे। उसका दृढ़ निश्चय देखकर कहा, ‘‘जाओ वत्स, तुम्हारी मनोकामना पूरी हो। ईश्वर तुम्हें सफलता दे।’’



अष्टावक्र माँ तथा गुरु की आज्ञा लेकर चल पड़ा। जब वह नगर में पहुँचा तो संयोगवश महाराजा जनक उसी राजमार्ग से आ रहे थे। आगे चलने वाले नौकरों ने इसे देखकर कहा, ‘‘ऐ लड़के, एक तरफ हो जा। देखता नहीं, महाराजा इधर से पधार रहे हैं।’’
अष्टावक्र बोला, ‘‘मार्ग पर चलने की प्राथमिकता अन्धे, बहरे, स्त्री, अपंग, असहाय तथा भारवाही व्यक्तियों को दी जानी चाहिए। राजा को अपने लिए ऐसी प्रथम सुविधा नहीं लेनी चाहिए।’’
राजा जनक तब तक पास आ गये थे और अष्टावक्र की सारी बातें सुन लीं। वे विद्वान थे। सोचा, यह कुमार ठीक कह रहा है। उसे रास्ते से हटाये बिना वह एक किनारे से आगे बढ़ गये।
अष्टावक्र दूसरे दिन प्रातः राजदरबार में जाने को तैयार हुआ। राजमहल के द्वार पर द्वारपाल ने उसे रोककर पूछा कि वह कौन है और क्यों अन्दर जाना चाहता है?
अष्टावक्र ने अपना परिचय तथा आने का कारण बताया। सुनकर द्वारपाल बोला, ‘‘अभी तुम बालक हो। यज्ञ-वेदी पर वेद-पाठ करने की बजाय, किसी आचार्य के आश्रम में जाकर अध्ययन करो।’’



‘‘ज्ञान का उम्र से क्या सम्बन्ध! मेरी उम्र भले ही कम है, लेकिन मैंने वेद-शास्त्रों का अध्ययन किया है। शरीर से मैं कुरूप हूँ, इसका अर्थ यह नहीं कि बुद्धि से भी मैं कुरूप हूँ, सेमल का वृक्ष बड़ा हो जाने पर भी शक्तिशाली नहीं होता। आग की छोटी-सी चिनगारी में भी किसी को जला देने की वैसी ही ताकत होती है जैसी आग के बड़े अंगारे में। कोई ऋषि बाल पक जाने से ही विद्वान नहीं होता। देवता भी युवक ऋषियों का आदर करते हैं। तुम मेरे आने की सूचना महाराजा जनक को दो।’’ अष्टावक्र ने बड़े आत्मविश्वास से कहा।



अष्टावक्र की जोर की आवाज दरबार में महाराजा जनक तक पहुँच रही थी। उन्होंने अपने एक सेवक को भेजकर उस तेजस्वी स्वाभिमानी ब्राह्मण को अन्दर आने की आज्ञा दी।
अष्टावक्र के राजदरबार में पधारते ही उसकी उम्र तथा टेढ़े-मेढ़े अंगों को देख कर सब दरबारी हँसने लगे। उन्हें हँसता देख अष्टावक्र भी बड़े जोर से हँस पड़े। राजा जनक ने उत्सुकता से पूछा, ‘‘ब्राह्मण देवता! आप क्यों हँस रहे हैं?’’
अष्टावक्र ने उसी तेजस्विता से कहा, ‘‘मैं तो यहाँ यह समझ कर आया था कि यह विद्वज्जनों की सभा है और मैं बन्दी से शास्त्रार्थ करूँगा, पर मुझे लगता है कि मैं मूर्खों की सभा में आ गया हूँ। राजन्! मैंने अपने हँसने का कारण तो बता दिया, अब आप अपने मूर्ख विद्वज्जनों से पूछिए कि वे मोहि हँसे या कोहरहिं? अपनी इस शारीरिक दशा का कारण मैं नहीं हूँ। कारण तो वह कुम्हार (ईश्वर) है, जिसने मुझे ऐसा बनाया है। पूछो, किस पर हँसे वे सब?’’
उन्होंने अष्टाव्रक को आसन पर बैठने के लिए आदर देते हुए कहा, ‘‘ब्राह्मण कुमार! मुझे तथा मेरे दरबारियों को इसके लिए क्षमा करें। मेरा एक निवेदन है। अभी आप बन्दी से शास्त्रार्थ करने में वयस्क नहीं हैं। बन्दी से शास्त्रार्थ करना कठिन है। उससे शास्त्रार्थ में हारने वाले को जल-समाधि लेनी पड़ती है। अभी आप और विद्या अध्ययन करें।’’
‘‘राजन्! मैंने गुरु के चरणों में बैठकर जितनी शिक्षा प्राप्त की है, बन्दी जैसे शास्त्री से शास्त्रार्थ करने को वह पर्याप्त है। हारने पर मृत्यु का क्या भय? किसी अच्छे उद्देश्य के लिए प्राण भी देना पड़े तो डरना नहीं चाहिए।’’ - अष्टावक्र ने विश्वास से कहा।
बन्दी बुलवाया गया। शास्त्रार्थ शुरू हुआ। बन्दी के प्रश्नों और तर्कों का उत्तर अष्टावक्र बड़ी सरलता से दिये जा रहा था। अपने कठिन तर्कों और प्रश्नों का उत्तर पाता हुआ बन्दी घबराने लगा। उसे लगा कि शायद मुझे ही जल-समाधि लेनी पड़ेगी। थोड़ी देर बाद जब अष्टावक्र ने प्रश्न पूछने शुरू किये तो बन्दी उत्तर न दे सका। अन्त में उसने अपनी हार मान ली और शर्त के अनुसार स्वयं जल-समाधि लेने के लिए तैयार हो गया।



अष्टावक्र ने कहा, ‘‘बन्दी! मैं ऋषि काहोड़ का पुत्र हूँ। तुम्हें याद होगा, तुमने अपने कुतर्कों से शास्त्रार्थ में उन्हें पराजित कर जल-समाधि दे दी थी। मैं भी तुम्हें शर्त के अनुसार जल-समाधि दे सकता हूँ, पर मैं वैसा करूँगा नहीं। जीवन लेना सहज है, पर जीवन देना बड़ी बात है। ज्ञान मानवता के विकास के लिए होना चाहिए, न कि उसको नष्ट करने के लिए। तुम्हें आज मुझे यह वचन देना होगा कि इस प्रकार तुम गर्व में आकर किसी के जीवन को नष्ट नहीं करोगे।’’
बन्दी का घमण्ड चूर-चूर हो गया था। दौड़कर अष्टावक्र के चरणों में गिर पड़ा और बोला, ‘‘प्राण लेने से भी बड़ा दण्ड दिया है आपने मुझे। मैंने अहंकार में अब तक जो कुछ पाप किया है, उसका प्रायश्चित्त आपकी सेवा से करूँगा। बाल ज्ञानी! मेरे अपराधों को क्षमा कर मुझे अपना शिष्य बना लीजिए।’’



अष्टावक्र ने कहा, ‘‘मैं गुरु नहीं बन सकता। तुम्हारा दण्ड यही है कि तुम अपने शास्त्र-ज्ञान से दूसरों को पराजित कर उसका जीवन नष्ट करने की बजाय, उन्हें अच्छे उपदेश देकर ज्ञानी बनाओ। मनुष्य और मानवता के विकास में सहायक बनो। शास्त्र को शस्त्र मत बनाओ। शास्त्र-ज्ञान जीवन का विकास करता है। जबकि शस्त्र जीवन का विनाश करता है। ज्ञानी होने के अहंकार ने तुम्हारी बुद्धि दूषित कर दी है। भविष्य में तुम्हें मृत्यु-पर्यन्त कभी भी ज्ञानी ऋषियों की प्रतिष्ठा नहीं मिलेगी।’’
ऐसा कहकर अष्टावक्र महाराजा जनक की सभा से बाहर चले गये।


गुरू ढूढने का कारण:
एक बार राजा जनक को स्वप्न आया कि जैसे कि वह किसी जंगल में अकेला भटक गया है और उसको बहुत अधिक भूख लगी हुई है । वह जंगल में देखता है कि एक छोटी सी झोपड़ी है । राजा झोपड़ी के पास गया तो वहां पर एक वृद्ध महिला थी । महिला से राजा जनक ने कहा कि हे माता क्या आपके पास खाने के लिए मुझे कुछ मिलेगा । वृद्ध महिला ने कहा कि मेरे पास फिलहाल खिलाने के लिए तो कुछ नहीं है हां थोड़े से चावल है और मेरे पास हांडी है थोड़ा पानी है । अगर आप चाहो तो उनको पका कर खा सकते हो । राजा जनक ने खाना बनाना शुरु किया । वह चूल्हे में आग जला जलाने के लिए बहुत फूँक मार रहा था लेकिन आग नहीं जल पा रही थी । राजा जनक बहुत परेशान थे लेकिन थोड़ी-थोड़ी आग जल जाने के बाद चावल पकने लगे । चावल जब तक पकने ही वाले थे बल्कि अधकचरे ही थे तभी दो जंगली भैंसे आपस में लड़ते लड़ते उतर आए और हांडी के ऊपर ही चढ़ गए और वह सारा खाना मिट्टी में मिला दिया । इतनी ही देर बाद राजा जनक की आंख खुल गई तो वह सोचने लगे कि मैं इतने बड़े राज्य का राजा और सोने के पलंग पर सोया हुआ था लेकिन इस सपने में मैंने इतना भयंकर दृश्य देखा । राजा ने अपने राज्य के विद्वानों और उसने मंत्रियों आदि से सलाह ली कि यह ऐसी मेरी दुर्दशा सपने में थी इसका क्या अर्थ है वह सपना सच्चा था या फिर मेरा यह जीवन सच्चा है । लेकिन उसके राज्य में ऐसा कोई बताने वाला नहीं था । बहुत से विद्वान और मंत्री आए लेकिन राजा की संतुष्टि के लायक उत्तर ना दे सके । राजा जनक में एक घोषणा करवा दी कि जो भी उसके इस प्रश्न का उत्तर देगा उसको आधा राज्य दे दिया जाएगा लेकिन अगर उत्तर सही नहीं दिया तो उसको या तो हमेशा हमेशा के लिए कारागृह में डाल दिया जाएगा या फिर फांसी पर लटका दिया जाएगा । राजा के पास बहुत से लोग प्रश्नों का उत्तर देने के लिए आए और बहुत सारे लोग कारागृह में डाल दिए गए । राजा ने दो मंच बनवाए थे । पहले मंच पर बैठकर अगर कोई उत्तर देगा अगर उत्तर सही बैठ गया तो उसको आधा राज्य दे दियी जाएगा अगर उत्तर सही नहीं बैठा उसको उचित इनाम दिया जाएगा और अगर उत्तर सही नहीं बैठा तो उसको का आजीवन कारावास दिया जाएगा । दूसरा मंच बनवाया था जिस पर बैठकर यदि कोई उत्तर देगा तो या तो उसको आधा राज्य दिया जाएगा या फिर उस को फांसी की सजा दी जाएगी ।


 
इसी कथा को यहां रोक कर एक दूसरे कथा सुनाना उल्लेखनीय होगा वह यह कि अष्टकवर्ग जब 12 साल के बच्चे थे तो अपने कुछ दोस्तों के साथ खेल रहे थे तो किसी बात पर विवाद खड़ा हो गया तो एक लड़के ने कसम खाई कि मैं अपने पिता की कसम खाता हूं कि यह बात सच है । अष्टरावक्र ने भी बोला कि मैं भी अपने पिता की कसम खाता हूं कि यह बात सत्य है । लड़के बोलने लगे तेरे पिताजी कहां ? तू तो बिना बात का है । अब हुआ ऐसा था कि जब राजा जनक ने उक्त स्वप्न से संबन्धित प्रश्न को जानने के ल्ये उत्तर मांगा था तो स्वप्न का अर्थ बताने के लिए राजा अष्टरावक्र के पिता को जेल में डाल दिया गया था । अष्टावक्र को अपने दोस्तों की बात सुनकर बड़ा दुख हुआ उसने अपनी माता जी से जाकर बोला कि मेरे पिताजी कहां हैं ? उसकी माता बोली तेरे कोई पिताजी नहीं है । वह बोले कि नहीं सब के पिताजी हैं तो मेरे भी पिताजी होंगे आप बताओ नहीं तो मैं आत्महत्या कर लूंगा । तब बूढ़ी माता ने बताया कि जब तू पैदा नहीं हुआ था तेरे पिताजी राजा जनक के यहां उनके स्वप्न का अर्थ बताने के लिए उनके दरबार में गए थे और वहां सही उत्तर नहीं दे पाने की वजह से राजा जनक के कारावास में डाल दिये गए थे । अष्टरावक्र बोला कि माता मैं अपने पिताजी को कारावास से छुड़वा कर वापस लेकर आऊँगा । उसकी माता बोली नहीं बेटा तू तो मेरा एक सहारा है अगर तू भी चला जाएगा । तुझे भी कारावास में डाल दिया गया तो क्या होगा । अष्टरावक्र बोला या तो मुझे जाने दो नहीं तो मैं आत्महत्या कर लूंगा । डर की वजह से बच्चे को राजा जनक के स्वप्न का अर्थ बताने के लिए दरबार में भेज दिया गया । अष्टरावक्र थोड़ा टेढा मेढा होकर चलते थे इसलिए वह अपने दोस्तों को साथ लेकर राजा जनक के दरबार के बाहर पहुंचे ।


 
अष्टरावक्र टेढ़े-मेढ़े इसलिए चलते थे क्योंकि जिस समय अष्टरावक्र गर्भ में थे तो उनके पिताजी ने उनको शाप दे दिया था कि तुम टेढ़े मेढ़े होकर चला करोगे । उल्लेखनीय है कि अष्टरावक्र के पिताजी शास्त्र और वेदों और कर्मकांडों में बहुत ज्यादा विश्वास करते थे और उनके हिसाब से अपने आप को बहुत ज्यादा विद्वान मानते थे और उसी के अनुसार कर्मकांडी भक्ति करते थे । अष्टरावक्र ने जन्म से पूर्व एक दिन गर्भ से ही उनको बोला कि पिता जी आप इस कर्मकांडी भक्ति को छोड़कर परमपिता की सच्ची भक्ति करो । ज्ञानी प्राय: अहंकारी होते हैं उन्होंने उसको बोला तू अभी पैदा भी नहीं हुआ है और मुझे ज्ञान सिखाता है इसलिए मैं तुझे श्राप देता कि तू टेढ़ा मेढा होकर चला करेगा ।

 
अष्टरावक्र राजा जनक के दरबार के बाहर पहुंचे तो वहां सैनिकों ने उनको रोक लिया और पूछा कि कहां जा रहे हो ? अष्टरावक्र बोला कि मैं राजा के सपने का उत्तर देने के लिए जा रहा हूं । सैनिक बोले नहीं तुम वहाँ नही जा सकते । अष्टरावक्र बोले कि देखो सैनिक बोर्ड पर लिखा है कि कोई भी चाहे तो राजा के स्वपन से संबन्धित प्रश्नों का उत्तर दे सकता है । सैनिकों ने अष्टरावक्र को राजदरबार में जाने दिया । अष्टरावक्र ने अंदर जाकर बोला कि मैं राजा जनक के सपने से संबन्धित प्रश्नों का उत्तर बताने के लिए आया हूँ । राजा जनक ने अपने मंत्रियों को बोला कि ठीक है इसको इसके आसन पर बैठाया बैठा दिया जाए ।



अष्टरावक्र उस आसान पर जाम कर बैठ गए जिस पर उत्तर देने पर फांसी की सजा थी । राजा के दरबार में सभी मंत्री और विद्वान लोग अष्टरावक्र को देखकर हँसने लगे । कुछ पल रूककर अष्टरावक्र भी उनके साथ बहुत जोर से हँसने लगे । राजा ने बोला कि यह सभी विद्वान और मंत्री लोग आप पर हँसे यह तो समझ आता है कि आप टेढ़े-मेढ़े होकर चलते हो लेकिन आपकी हँसी का क्या तात्पर्य है । तब अष्टरावक्र बोले कि यह सब जो आप के दरबार में बैठे हुए विद्वान और मंत्री हैं सभी अच्छे चर्मकार हैं क्योंकि इन सभी को चमड़े की अच्छी परख है । इनको मेरे ज्ञान की नहीं बल्कि मेरे टेढ़े-मेढ़े शरीर की परख है । 



जनक समझ गए कि यह लड़का कोई साधारण लड़का नहीं है यह कोई विद्वान या बहुत बड़ा संत है । राजा जनक ने अपने मंत्री को बोला कि जाओ इससे सपने का अर्थ पूछो । जैसे ही मंत्री अष्टावक्र से सपने का अर्थ पूछने लगा तो तुरंत अष्टरावक्र बोले कि यह कोई अदालत नहीं है कि प्रश्न किसी और का हो और प्रश्न कोई और करें तथा उत्तर कोई और दे । क्या आप का राजा गूंगा है या लंगड़ा है जो यहाँ आकार स्वयं प्रश्न नहीं कर सकता । मंत्री ने राजा को जाकर अष्टरावक्र के वचन सुनाये । 



राजा जनक सिंहासन से उतरकर शास्त्रों के अनुसार शिष्टाचार से इस लड़के के पास गए और अष्टरावक्र के आसान के नीचे जाकर खड़े हो गए और बोले कि मैं अपने सपने का अर्थ जानना चाहता हूं । राजा जनक के सपने का वार्तान्त सुनने के बाद अष्टरावक्र बोले न तो सपना सच्चा है न हीं यह जीवन सच्चा है । सपना थोड़े समय के लिए सच महसूस हो रहा था । यह जीवन एक लंबे समय के लिए सच महसूस हो रहा है । यह दोनों ही झूठे हैं राजा जनक प्रश्न से संतुष्ट हो गए और उनको बोला कि ठीक है जब आप बोलें दोनों ही झूठे हैं तो सत्य है सत्य से अवगत कराइए । 



अष्टरावक्र बोला इसके लिए आपको जंगल में एकांत में चलना होगा । जंगल में जाकर अष्टरावक्र ने राजा जनक से कहा कि मैं आपको दीक्षा दे देता हूँ आप दक्षिणा में मुझे तन मन धन अर्पित कीजीए । राजा ने ऐसा ही किया और राजा ने बोला कि ठीक है मैं अपना तन मन धन सब कुछ आपको अर्पित करता हूं कृपया सभी ज्ञान कराने की कृपा करें । राजा जनक बोले कि गुरुदेव मैंने सुना है कि ज्ञान प्राप्त करने के लिए केवल इतना ही समय पर्याप्त है जितनी देर में कोई घुड़सवार घोड़े पर बैठने में समय लगाता है । अष्टरावक्र ने अपने ध्यान के जरिए राजा जनक के ध्यान को आकर्षित किया अपने ध्यान द्वारा उनके ध्यान को खींचकर उनके ध्यान को समाधिस्थ कर दिया और राजा जनक की समाधि लग गई । समाधि इतनी लंबी थी कि उनको दो-तीन दिन तक होश नहीं आया । इसी बीच राजा के सैनिक और मंत्री कानून को खोजते खोजते जंगल में आए । उनको उठाया गया और बोले कि हे महाराज पूरे राज्य में हलचल है कि राजा पता नहीं कहां चले गए । राजा जनक ने अष्टावक्र के पैर छुए और उनको बोला कि मैं अभी आपके साथ ही चलना चाहूंगा । अष्टावक्र बोले नहीं यह जो आपने मुझे तन मन धन सब कुछ दिया था मैं आपको वापस करता हूं । आप इसमें ध्यान में रखकर प्रभु ध्यान रखते हुए राजपाठ चलाओ । इसी आदेश के अनुसार राजा जनक ने अपना जीवन प्रभु भक्ति करते हुए व्यतीत किया । राजा जनक ही एक महान योगी और विदेह कहलाए ।


अन्य कथा: महाभारत वन पर्व


कृष्ण कोश के अनुसार महाभारत वनपर्व के तीर्थयात्रापर्व के अंतर्गत अध्याय 132 में अष्टावक्र का जनक के दरबार में जाने का वर्णन हुआ है। यहाँ वैशम्पायन जी ने जनमेजय से अष्टावक्र का जनक के दरबार में जाने की कथा कही है।


जब पेट में गर्भ बढ़ रहा था, उस समय सुजाता ने उससे पीड़ि‍त होकर एकान्त में अपने निर्धन पति‍ से धन की इच्‍छा रखकर कहा- ‘महर्षे! यह मेरे गर्भ का दसवां महीना चल रहा है मैं धनहींन नारी खर्च की कैसे व्‍यवस्‍था करूंगी। आपके पास थोड़ा सा भी धन नहीं है, जि‍ससे मै प्रसवकाल के इस संकट से पार हो सकूं। पत्‍नी के ऐसा कहने पर कहोड़ मुनि‍ धन के लि‍ये राजा जनक के दरबार में गये। उस समय शास्‍त्रार्थी पण्‍डि‍त बन्‍दी ने उन ब्रह्मर्षि‍ को वि‍वाद में हराकर जल में डुबो दि‍या। जब उद्दालक को यह समाचार मि‍ला कि‍ कहोड़ मुनि‍ शास्‍त्रार्थ में पराजि‍त होने पर सूत (बन्‍दी) के द्वारा जल में डुबो दि‍ये गये।



श्‍वेतकेतु द्वारा माता से पिता के विषय में जाननातब उन्‍होंने सुजाता से सब कुछ बता दि‍या और कहा, ‘बेटी! अपने बच्‍चे से इस वृतान्‍त को सदा ही गुप्‍त रखना’। सुजाता ने भी अपने पुत्र से उस गोपनीय समाचार को गुप्‍त ही रक्‍खा। इसी से जन्‍म लेने के बाद भी उस ब्राह्मण बालक को इसके वि‍षय में कुछ पता न लगा। अष्‍टावक्र अपने नाना उद्दालक को ही पि‍ता के समान मानते थे और श्‍वेतकेतु को अपने भाई के समान समझते थे।



तदनन्‍तर एक दि‍न, जब अष्‍टावक्र की आयु बारह वर्ष की थी और वे पि‍तृतुल्‍य उद्दालक मुनि‍ की गोद में बैठे हुए थे, उसी समय श्‍वेतकेतु वहाँ आये और रोते हुए अष्‍टावक्र का हाथ पकड़कर उन्‍हे दूर खींच ले गये। इस प्रकार अष्‍टावक्र को दूर हटाकर श्‍वेतकेतु ने कहा- ‘यह तेरे बाप की गोद नहीं है’। श्‍वेतकेतु की उस कटूक्‍ति‍ ने उस समय अष्‍टावक्र के हृदय में गहरी चोट पहूंचायी। इससे उन्हें बड़ा दु:ख हुआ। उन्‍होंने घर में माता के पास जाकर पूछा- ‘मां! मेरे पि‍ताजी कहाँ है’। बालक के इस प्रश्‍न से सजाता के मन में बड़ी व्‍यथा हुई, उसने शाप के भय से घबराकर सब बात बता दी। यह सब रहस्‍य जानकर उन्‍होंने रात में श्‍वेतकेतु से इस प्रकार कहा- ‘हम दोनों राजा जनक के यज्ञ में चलें। सुना जाता है, उस यज्ञ में बड़े आश्‍चर्य की बातें देखने में आती हैं। हम दोनों वहाँ वि‍द्वान ब्राह्मणों का शास्‍त्रार्थ सुनेगें और वही उत्‍तम पदार्थ भोजन करेगें। ऐसा नि‍श्‍चय करके वे दोनों मामा भानजे राजा जनक के समृद्धि‍शाली यज्ञ में गये। अष्‍टावक्र की यज्ञमण्‍डल के मार्ग में ही राजा से भेंट हो गयी। उस समय राजसेवक उन्‍हें रास्‍तें से दूर हटाने लगे, तब वे इस प्रकार बोले।


महाभारत वनपर्व के तीर्थयात्रापर्व के अंतर्गत अध्याय 133 में अष्टावक्र का जनक के द्वारपाल से वार्तालाप का वर्णन हुआ है। यहाँ वैशम्पायन जी ने जनमेजय से अष्टावक्र का जनक के द्वारपाल से वार्तालाप के वर्णन की कथा कही है। 



अष्‍टावक्र-द्वारपाल- जनक संवाद
अष्‍टावक्र बोले- राजन! जब तक ब्राह्मण से अपना न हो, तब तक अंधे का मार्ग, बहरे का मार्ग, स्त्री का मार्ग, बौझ ढोने वाले का मार्ग तथा राजा का मार्ग उस उसके जाने के लिये छोड़ देना चाहिये; परंतु यदि ब्राह्मण सामने मिल जाय तो सबसे पहले उसी को मार्ग देना चाहिये।
राजा ने कहा- ब्राह्मण कुमार! लो मैनें तुम्हारे लिये आज यह मार्ग दे दिया है। तुम जिससे जाना चाहो उसी मार्ग से इच्छानुसार चले जाओ। आग कभी छोटी नहीं होती। देवराज इन्द्र भी सदा ब्राह्मणों के आगे मस्तक झुकाते हैं।
अष्‍टावक्र बोले- राजन! हम दोनों आपका यज्ञ देखने के लिये आये हैं। नरेन्द्र! इसके लिये हम दोनों के हृदय में प्रबल उत्कण्डा हैं। हम दोनों यहाँ अतिथि के रुप में उपस्थित हैं और यज्ञ में प्रवेश करने के लिये हम तुम्हारे द्वारपाल की आज्ञा चाहते हैं। इन्द्र धुम्नकुमार जनक! हम दोनों यहाँ यज्ञ देखने के लिये आये है और आप जनकराज से मिलना तथा बात करना चाहते हैं, परंतु यह द्वारपाल हमें रोकता हैं; अत: हम क्रोध रुप व्याधि से दग्ध हो रहे हैं।

 
द्वारपाल बोला- ब्राह्मणकुमार! सुनो, हम बंदी के आज्ञापालक हैं। आप हमारी कही हुई बात सुनिये। इस यज्ञशाला में बालक ब्राह्मण नहीं प्रवेश करने पाते हैं। जो बूढ़े और बुद्धिमान ब्राह्मण हैं, उन्हीं का यहाँ प्रवेश होता है।
अष्‍टावक्र बोले- द्वारपाल! यदि यहाँ वृद्ध ब्राह्मण के लिये प्रवेश का द्वार खुला है, तब तो हमारा प्रवेश होना भी उचित ही है; क्योंकि हमलोग वृद्ध ही है, हमने ब्रहचर्य व्रत का पालन किया है तथा हम वेद के प्रभाव से भी सम्पन्न हैं। साथ ही, हम गुरु जनों के सेवक, जितेन्द्रिय तथा ज्ञानशास्त्र में परिनिष्‍ठि‍त भी हैं। अवस्था में बालक होने के कारण ही किसी ब्राह्मण को अपमानित करना उचित नहीं बताया गया है; क्योंकि आग की छोटी सी चिनगारी भी यदि छू जाय तो वह जला डालती हैं।
द्वारपाल ने कहा- ब्राह्मणकुमार! तुम वेदप्रतिपादित, एकाक्षरब्रह्म का बोध कराने वाली, अनेक रुपवाली, सुन्दर वाणी का उच्चारण करो और अपने आपको बालक समझों, स्वयं ही अपनी प्रशंसा क्यो करते हो। इस जगत में ज्ञानी दुर्लभ हैं।


 
अष्‍टावक्र बोले- द्वारपाल! केवल शरीर बढ़ जाने से किसी की बढ़ती नहीं समझी जाती है। जैसे सेमल के फल की गांठ बढने पर भी सारहीन होने के कारण वह व्यर्थ ही है। छोटा और दुबला पतला वृक्ष भी यदि फलों के भार से लदा है तो उसे ही वृद्ध (बड़ा) जानना चाहिये। जिससे फल नहीं लगते, उस वृक्ष का बढ़ना भी नहीं के बराबर है।
द्वारपाल ने कहा- बालक बड़े बूढ़ों से ही ज्ञान प्राप्त करते है और समयानुसार वे भी वृद्ध होते हैं। थोड़े समय में ज्ञान की प्राप्ति असम्भव है, अत: तुम बालक होकर भी क्यों वृद्ध की सी बातें करते हो। अष्‍टावक्र बोले- अमूक व्यक्ति के सिर के बाल पक गये है, इतने ही मात्र से वह बूढ़ा नहीं होता है, अवस्था में बालक होने पर भी जो ज्ञान में बढ़ा बूढ़ा है, उसी को देवगण वृद्ध मानते है।


 
अधि‍क वर्षों की अवस्‍था होने से, बाल पकने से, धन बढ़ जाने से और अधि‍क भाई बन्‍धु हो जाने से भी कोई बड़ा हो नहीं सकता; ऋषि‍यों ने ऐसा नि‍यम बनाया है कि‍ हम ब्राह्मणों मं जो अंगो सहि‍त सम्‍पूर्ण वेदो कों स्‍वाध्‍याय करने वाला तथा वक्‍ता है, वही बड़ा है। द्वारपाल! मै राज्‍यसभा में बन्‍दी से मि‍लने के लि‍ये आया हं। तुम कमलपुष्‍प की माला धारण कि‍ये हुए महाराज जनक को मेरे आगमन की सूचना दे दो। द्वारपाल! आज तुम हमें वि‍द्वानो के साथ शास्‍त्रार्थ करते देखोंगे, साथ ही वि‍वाद बढ़ जाने पर बंदी को परास्‍त हुआ पाओगे। आज सम्‍पूर्ण समासद चुपचाप बैठे रहें तथा राजा और उनके प्रधान पुराहि‍तों के साथ पूर्णत: ब्राह्मण मेरी लघुता अथवा श्रैष्‍ठता को प्रत्‍यक्ष देखें।


 
द्वारपाल ने कहा- जहाँ सुशि‍क्षि‍त वि‍द्वानों का प्रवेश होता है; उस यज्ञमण्‍डल में तुम जैसे दस वर्ष के बालक का प्रवेश होना कैसे सम्‍भव है। तथपि‍ मै कि‍सी उपाय से तुम्‍हें उसके भीतर प्रवेश कराने का प्रयत्‍न करूंगा, तुम भी भीतर जाने के लि‍ये यथोचि‍त प्रयत्‍न करो। ये नरेश तुम्‍हारी बात सुन सके, इतनी ही दूरी पर यज्ञमण्‍डल में स्‍थि‍त है, तुम अपने शुद्ध वचनों के द्वारा इनकी स्‍तुति‍ करो। इससे ये प्रसन्‍न होकर तुम्‍हें प्रवेश करने की आज्ञा दे देगें तथा तुम्‍हारी और भी कोई कामना हो तो वे पूरी करेगें।

 

राजा जनक हर दिन अपने सांसारिक कामों को फटाफट निबटाकर घंटों इन लोगों का उपदेश सुनते थे, चर्चा और वाद-विवाद आयोजित करते थे ताकि वह आत्मज्ञान की राह को जान सकें। अलग-अलग आध्यात्मिक धर्मग्रंथों का अध्ययन कर चुके कई विद्वान साथ बैठकर महान शास्त्रार्थ करते थे, जो कई दिनों, सप्ताहों और महीनों तक चलता था। आम तौर पर बहस में जीतने वाले को एक बड़ा पुरस्कार मिलता था। उसे ढेर सारा धन मिलता था या राज्य में किसी ऊंची पदवी पर बिठाया जाता था। ये लोग आम लोग नहीं थे। राजा ने महान आध्यात्मिक लोगों को इकट्ठा किया था मगर कोई उन्हें आत्मज्ञान नहीं दिला पाया था।

ऐसे ही एक शास्त्रार्थ में कहोल को आमंत्रित किया गया था, जिसमें वह अष्टावक्र के साथ गए थे। शास्त्रार्थ शुरू हुआ और वहां मौजूद सर्वश्रेष्ठ विद्वानों के बीच तर्क-वितर्क होने लगा। कई बौद्धिक प्रश्न उठाए गए और धर्मग्रंथों की गूढ़ बातों पर विचार-विमर्श हो रहा था, तब अचानक अष्टावक्र उठ कर खड़े हुए और बोले, ‘ये सब खोखली बातें हैं। इनमें से कोई आत्म के बारे में कुछ नहीं जानता। ये सब उसके बारे में बातें जरूर कर रहे हैं, मगर मेरे पिता समेत यहां मौजूद कोई भी व्यक्ति आत्म के बारे में कुछ नहीं जानता।’


राजा जनक ने अष्टावक्र की ओर देखा – टेढ़े-मेढे शरीर वाला यह युवक इस तरह बोल रहा था – और बोले, ‘क्या तुमने अभी जो कहा, उसे सही साबित कर सकते हो? अगर नहीं, तो तुम अपना यह विकलांग शरीर भी खो बैठोगे।’
अष्टावक्र ने जवाब दिया, ‘हां, मैं साबित कर सकता हूं।’
फिर तुम्हारे पास हमें देने के लिए क्या है?’ जनक ने पूछा।


अष्टावक्र ने कहा, ‘अगर आप इसे पाना चाहते हैं, तो आपको अंतिम हद तक मेरी बात मानने के लिए तैयार रहना होगा। तभी मैं आपको यह दे सकता हूं। अगर आप वही करें, जो मैं आपको करने के लिए कहूं, तो मैं ये पक्का करूंगा कि आप आत्म को जान जाएँ।’
जनक को अष्टावक्र का सीधी बात करना पसंद आया और उन्होंने कहा, ‘मुझे कुछ भी कहो, मैं करने के लिए तैयार हूं।’ वह सिर्फ बोल नहीं रहे थे। वह वाकई इस बात पर गंभीर थे।
अष्टावक्र बोले, ‘मैं जंगल में रहता हूं। वहां आइए, फिर देखेंगे कि हम क्या कर सकते हैं।’ और वह वहां से चले गए।


कुछ दिन बाद, जनक अष्टावक्र की तलाश में जंगल में गए। जब कोई राजा कहीं जाता है, तो वह हमेशा सिपाहियों और मंत्रियों की फौज के साथ जाता है। जनक अपने लाव-लश्कर के साथ जंगल के लिए चले। लेकिन जब वे जंगल में घुसे, तो आगे-आगे जंगल और घना होता गया। धीरे-धीरे कई घंटों की खोज के बाद जनक अपने बाकी लोगों से अलग होकर रास्ता भटक गए। जब वह जंगल में रास्ता खोजते हुए भटक रहे थे, तो अचानक से उन्हें पेड़ के नीचे बैठे हुए अष्टावक्र दिख गए।
अष्टावक्र को देखते ही, जनक घोड़े से नीचे उतरने लगे। उनका एक पांव रकाब पर था और दूसरा हवा में, तभी अष्टावक्र बोले, ‘रुको! वहीं रुको!’ जनक उसी असुविधाजनक स्थिति में ठहर गए। वह घोड़े के ऊपर झूल रहे थे और उनका एक पैर हवा में था।


वह उस अजीबोगरीब स्थिति में पता नहीं कितनी देर रुके रहे। हमें नहीं पता वे कितनी देर रुके रहे। कुछ कथाओं में कहा गया है कि वह कई सालों तक वैसे ही रुके रहे, कुछ कहते हैं कि वह सिर्फ एक पल था। समय की अवधि मायने नहीं रखती। वह अच्छे-खासे समय तक उसी स्थिति में खड़े रहे। अच्छा-खासा समय एक पल भी हो सकता है। निर्देश का पालन करने की उस पूर्णता के कारण वह पूर्ण आत्मज्ञानी हो गए। वह उसी जगह रुक गए, जहां उन्हें रुकना था।


आत्मज्ञान पाने के बाद जनक घोड़े से उतरे और अष्टावक्र के पैरों पर गिर पड़े। वह अष्टावक्र से बोले, ‘मैं अपने राज्य और महल का क्या करूं? अब मेरे लिए ये चीजें कोई अहमियत नहीं रखतीं।
मैं बस आपके चरणों में बैठना चाहता हूं। कृपया मुझे यहीं अपने आश्रम में अपने साथ रहने दें।’
मगर अष्टावक्र ने जवाब दिया, ‘अब जब आपने आत्म-ज्ञान पा लिया है तो आपका जीवन आपकी पसंद- नापसंद से जुड़ा नहीं रह गया है। अब आपका जीवन आपकी जरूरतों के बारे में नहीं है क्योंकि वास्तव में अब आपकी कोई जरूरत ही नहीं है। आपकी जनता को हक है कि उन्हें एक आत्मज्ञानी राजा मिले। आपको उनका राजा बने रहना चाहिए।’


जनक अनिच्छा से महल में ही रहे और बहुत अच्छी तरह अपना राज-पाट चलाया।
जनक अपनी जनता के लिए एक वरदान थे क्योंकि वह एक पूर्ण आत्मज्ञानी व्यक्ति होते हुए भी राजा का कर्तव्य निभा रहे थे। भारत में कई साधु-संत पहले राजा और सम्राट थे, जिन्होंने अपनी इच्छा से सब कुछ छोड़ दिया और बहुत गरिमा के साथ भिक्षुकों की तरह रहने लगे। गौतम बुद्ध, महावीर, बाहुबली – ऐसे बहुत से लोग हुए हैं। मगर एक आत्मज्ञानी राजा होना दुर्लभ चीज थी। जनक राजा बने रहे मगर राजकाज की जिम्मेदारियों से उन्हें जितनी बार थोड़ी फुर्सत मिलती, वह अष्टावक्र से मिलने उनके आश्रम चले जाते थे।


आश्रम में अष्टावक्र ने कुछ भिक्षुओं को जमा किया था, जिन्हें वह शिक्षा देते थे। ये सभी भिक्षु धीरे-धीरे जनक से चिढ़ने लगे क्योंकि जब भी जनक आते, अष्टावक्र सब कुछ छोड़कर उनके साथ ढेर सारा समय बिताते क्योंकि दोनों के बीच बहुत अच्छा तालमेल था। जैसे ही जनक आते, दोनों खिल उठते। जिन भिक्षुओं को अष्टावक्र शिक्षा दे रहे थे, उनके साथ वह उस तरह नहीं चमकते थे। इससे भिक्षु बहुत नाराज रहते थे।


भिक्षु एक-दूसरे के कान में फुसफुसाते, ‘हमारे गुरु ऐसे आदमी के हाथों क्यों बिक गए हैं? लगता है कि हमारे गुरु भ्रष्ट हो रहे हैं। यह आदमी एक राजा है, महल में रहता है। उसकी ढेर सारी पत्नियां और ढेर सारे बच्चे हैं। उसके पास बहुत धन-दौलत है। उसके चलने का अंदाज देखो। वह राजा की तरह चलता है। और उसके कपड़े देखो। उसके आभूषण देखो। उसके अंदर कौन सी चीज आध्यात्मिक है कि हमारे गुरु उस पर इतना ध्यान देते हैं? यहां हम अपनी आध्यात्मिक प्रक्रिया के लिए पूरी तरह समर्पित हैं। हम भिक्षु के रूप में उनके पास आए हैं, मगर वह हमें अनदेखा कर रहे हैं।’



अष्टावक्र जानते थे कि उनके शिष्यों में यह भावना बढ़ रही है। इसलिए एक दिन उन्होंने एक योजना बनाई। वह एक कक्ष में भिक्षुओं के साथ बैठे उन्हें उपदेश दे रहे थे, वहां राजा जनक भी मौजूद थे। जब प्रवचन चल रहा था, तभी एक सिपाही दौड़ते हुए कमरे में आया। वह जनक के आगे झुका, मगर अष्टावक्र के सामने नहीं और बोला, ‘महाराज, महल में आग लग गई है। सब कुछ जल रहा है। पूरे राज्य में हंगामा मचा हुआ है।’


जनक खड़े होकर सिपाही पर चिल्लाए, ‘निकलो यहां से। यहां आकर सत्संग में बाधा डालने की तुम्हारी हिम्मत कैसे हुई और तुम्हारी इतनी मजाल कि तुमने मुझे प्रणाम किया और मेरे गुरु को नहीं! तुरंत यहां से निकल जाओ।’ सिपाही कमरे से भाग गया। जनक फिर बैठ गए और अष्टावक्र ने प्रवचन देना जारी रखा।



कुछ दिन बाद, अष्टावक्र ने एक और काम किया। सभी लोग फिर से हॉल में बैठे हुए थे और अष्टावक्र प्रवचन दे रहे थे। प्रवचन के बीच में ही आश्रम का एक सहायक दौड़ते हुए कमरे में आया और बोला, ‘बंदरों ने सूख रहे सभी कपड़े उतार लिए हैं और भिक्षुओं के कपड़े फाड़ रहे हैं।’



सभी भिक्षु तुरंत उठकर अपने कपड़ों को बचाने भागे। वे नहीं चाहते थे कि बंदर उनके कपड़े खराब कर दें। मगर जब वे कपड़े सुखाने वाली जगह पहुंचे, तो वहां कोई बंदर नहीं था और उनकी लंगोटें अभी भी वहां लटक रही थीं। उन्हें बात समझ में आ गई। वे सिर झुकाकर वापस आ गए।


फिर अष्टावक्र ने अपने प्रवचन के दौरान समझाया, ‘यह देखो। यह आदमी राजा है। कुछ दिन पहले उसका महल जल रहा था। पूरा राज्य तहस-नहस हो रहा था। इतनी दौलत जल रही थी, मगर उन्हें चिंता इस बात की थी कि उनके सिपाही ने सत्संग में बाधा डाल दी थी। तुम लोग भिक्षु हो। तुम्हारे पास कुछ नहीं है। तुम्हारे पास महल नहीं है, पत्नी नहीं है, बच्चे नहीं हैं, तुम्हारे पास कुछ नहीं है। लेकिन जब बंदरों ने आकर तुम्हारे कपड़े उठाए, तो तुम लोग उसे बचाने के लिए भागे। तुम लोग ऐसे कपड़े पहनते हो, जिसका ज्यादातर लोग पोंछा तक नहीं बनाएंगे। मगर उस लंगोट के लिए भी तुम लोग मेरी बातों पर ध्यान दिए बिना उन बेकार कपड़ों को बचाने के लिए भागे। कहां है तुम्हारा आत्मत्याग? वह असली आत्मत्यागी हैं। वह राजा होते हुए भी त्यागी हैं। तुम लोग भिक्षु हो। दूसरों की त्यागी हुई चीजों का प्रयोग करते हो, मगर तुम्हारे अंदर आत्मत्याग की कोई भावना नहीं है। देखो तुम कहां हो और वह कहां हैं।’



एक व्यक्ति अपने अंदर कैसा है, उसका इस बात से कोई संबंध नहीं है कि वह बाहरी तौर पर कैसा है। सबसे महत्वपूर्ण यह है कि कोई व्यक्ति अपने भीतर कैसा है। बाहरी दुनिया के साथ आप क्या करते हैं, ये सामाजिक चीजें होती हैं। आप जिन स्थितियों में रहते हैं, उनके अनुरूप खुद को संचालित करते हैं। उसका सामाजिक महत्व है मगर कोई अस्तित्व संबंधी या आध्यात्मिक महत्व नहीं है। आप अपने अंदर कैसे हैं, बस यही बात मायने रखती है।

(कुछ तथ्य व कथन गूगल से साभार)


MMSTM समवैध्यावि ध्यान की वह आधुनिक विधि है। कोई चाहे नास्तिक हो आस्तिक हो, साकार, निराकार कुछ भी हो बस पागल और हठी न हो तो उसको ईश अनुभव होकर रहेगा बस समयावधि कुछ बढ सकती है। आपको प्रतिदिन लगभग 40 मिनट देने होंगे और आपको 1 दिन से लेकर 10 वर्ष का समय लग सकता है। 1 दिन उनके लिये जो सत्वगुणी और ईश भक्त हैं। 10 साल बगदादी जैसे हत्यारे के लिये। वैसे 6 महीने बहुत है किसी आम आदमी के लिये।"  सनातन पुत्र देवीदास विपुल खोजी
ब्लाग :  https://freedhyan.blogspot.com/
 

No comments:

Post a Comment

 गुरु की क्या पहचान है? आर्य टीवी से साभार गुरु कैसा हो ! गुरु की क्या पहचान है? यह प्रश्न हर धार्मिक मनुष्य के दिमाग में घूमता रहता है। क...