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Sunday, March 31, 2019

33 करोड नहीं 33 प्रकार के देवता पूर्ण ज्ञान कथा




33 करोड नहीं 33 प्रकार के देवता
पूर्ण ज्ञान कथा 
सनातनपुत्र देवीदास विपुल "खोजी"

 विपुल सेन उर्फ विपुल लखनवी,
(एम . टेक. केमिकल इंजीनियर) वैज्ञानिक एवं कवि
सम्पादक : विज्ञान त्रैमासिक हिन्दी जर्नल “वैज्ञनिक” ISSN 2456-4818
- मेल: vipkavi@gmail.com  वेब:  vipkavi.info वेब चैनलvipkavi
ब्लाग: freedhyan.blogspot.com,  फेस बुक:   vipul luckhnavi “bullet

प्राय: मूर्ख हिंदू, सनातन विरोधी व हिंदू विरोधी 33 करोड देवताओं के नाम से उपहास उडाते हैं। शास्त्रों के अनुसार यह 33 कोटि यानि प्रकार या देवताओं की श्रेणी का कुल योग 33 है। देवता दिव् धातु से बना है जिसका अर्थ होता है देने वाला। जो शक्तियां हमको भौतिक और परालौकिक जो कुछ भी देती हैं उनकेकुल  33 प्रकार होते हैं। मराठी इत्यादि भाषा में कोटि का अर्थ करोड होता है। अत: मूर्ख लोग उल्टे अर्थ लगाकर उपहास बनाते हैं। 


12 आदित्य, 8 वसु, 11 रुद्र और 2 अश्वनि कुमार या इन्द्र और प्रजापति को मिलाकर कुल 33 देवता होते हैं। कुछ विद्वान इन्द्र और प्रजापति की जगह 2 अश्विनी कुमारों को रखते हैं। प्रजापति ही ब्रह्मा हैं। 12 आदित्यों में से 1 विष्णु हैं और 11 रुद्रों में से 1 शिव हैं। उक्त सभी देवताओं को परमेश्वर ने अलग-अलग कार्य सौंप रखे हैं। इन सभी देवताओं की कथाओं पर शोध करने की जरूरत है।

जिस तरह देवता 33 हैं उसी तरह दैत्यों, दानवों, गंधर्वों, नागों आदि की गणना भी की गई है। देवताओं के गुरु बृहस्पति हैं, जो हिन्दू धर्म के संस्थापक 4 ऋषियों में से एक अंगिरा के पुत्र हैं। बृहस्पति के पुत्र कच थे जिन्होंने शुक्राचार्य से संजीवनी विद्या सीखी। शुक्राचार्य दैत्यों (असुरों) के गुरु हैं। भृगु ऋषि तथा हिरण्यकशिपु की पुत्री दिव्या के पुत्र शुक्राचार्य की कन्या का नाम देवयानी तथा पुत्र का नाम शंद और अमर्क था। देवयानी ने ययाति से विवाह किया था।

ऋषि कश्यप की पत्नी अदिति से जन्मे पुत्रों को आदित्य कहा गया है। वेदों में जहां अदिति के पुत्रों को आदित्य कहा गया है, वहीं सूर्य को भी आदित्य कहा गया है। वैदिक या आर्य लोग दोनों की ही स्तुति करते थे। इसका यह मतलब नहीं कि आदित्य ही सूर्य है या सूर्य ही आदित्य है। हालांकि आदित्यों को सौर-देवताओं में शामिल किया गया है और उन्हें सौर मंडल का कार्य सौंपा गया है।

पुराण के अनुसार भगवान शिव के 11 रुद्र अवतार हैं। इनकी उत्पत्ति की कथा इस प्रकार है-
एक बार देवताओं और दानवों में लड़ाई छिड़ गई। इसमें दानव जीत गए और उन्होंने देवताओं को स्वर्ग से बाहर निकाल दिया। सभी देवता बड़े दु:खी मन से अपने पिता कश्यप मुनि के पास गए। उन्होंने पिता को अपने दु:ख का कारण बताया। कश्यप मुनि परम शिवभक्त थे। उन्होंने अपने पुत्रों को आश्वासन दिया और काशी जाकर भगवान शिव की पूजा-अर्चना शुरु कर दी। उनकी सच्ची भक्ति देखकर भगवान भोलेनाथ प्रसन्न हुए और दर्शन देकर वर मांगने को कहा।

कश्यप मुनि ने देवताओं की भलाई के लिए उनके यहां पुत्र रूप में आने का वरदान मांगा। शिव भगवान ने कश्यप को वर दिया और वे उनकी पत्नी सुरभि के गर्भ से ग्यारह रुपों में प्रकट हुए। यही ग्यारह रुद्र कहलाए। ये देवताओं के दु:ख को दूर करने के लिए प्रकट हुए थे इसीलिए इन्होंने देवताओं को पुन: स्वर्ग का राज दिलाया। धर्म शास्त्रों के अनुसार यह ग्यारह रुद्र सदैव देवताओं की रक्षा के लिए स्वर्ग में ही रहते हैं।

मेरी दृष्टि में इन्द्र और प्रजापति ब्रह्मा ही सही लगते हैं। क्योकि कोई भी जीवन तीन आयामों में होता है। पहला सत्वगुण लेकर जन्म जिसका मालिक ब्रह्मा जी। दूसरा पालन कर्ता यानि विष्णु। सूर्य जीवन की उत्पत्ति का कारण है अत: आदित्य कहकर इनको बुलाया। संहारकर्ता और मृत्यु के बाद के जीवन के मालिक रूद्र और उनका रूप शिव। सभी कर्म इनद्रियां करती है यानि इनका मालिक है इंद्र। फिर जीवन जीने हेतु प्राण वायु और अन्य साम्रगी मिलती है वसुओं से। जिनके आठ प्रकार है।

यदि यह सब ठीक रहते हैं तो शरीर के आयाम स्वस्थ्य ही रहेगें। अत: अश्वनि कुमार को मैं नहीं गिनता पर उनकी पुराणों में उत्पत्ति अवश्य वर्णन करूंगा।
12 आदित्य:
12 आदित्य देव के अलग अलग नाम : ये कश्यप ऋषि की दूसरी पत्नी अदिति से उत्पन्न 12 पुत्र हैं। ये 12 हैं : अंशुमान, अर्यमन, इन्द्र, त्वष्टा, धातु, पर्जन्य, पूषा, भग, मित्र, वरुण, विवस्वान और विष्णु। इन्हीं पर वर्ष के 12 मास नियु‍क्त हैं। पुराणों में इनके नाम इस तरह मिलते हैं : धाता, मित्र, अर्यमा, शुक्र, वरुण, अंश, भग, विवस्वान, पूषा, सविता, त्वष्टा एवं विष्णु।
कई जगह इनके नाम हैं : इन्द्र, धाता, पर्जन्य, त्वष्टा, पूषा, अर्यमा, भग, विवस्वान, विष्णु, अंशुमान और मित्र।
तो कहीं यह भी। 12. विवस्वान्, अर्यमा, पूषा, त्वष्टा, सविता, भग, धाता, विधाता, वरुण, मित्र, इंद्र और त्रिविक्रम (भगवान वामन)।
इन्द्र : यह भगवान सूर्य का प्रथम रूप है। यह देवों के राजा के रूप में आदित्य स्वरूप हैं। इनकी शक्ति असीम है। इन्द्रियों पर इनका अधिकार है। शत्रुओं का दमन और देवों की रक्षा का भार इन्हीं पर है।
इन्द्र को सभी देवताओं का राजा माना जाता है। वही वर्षा पैदा करता है और वही स्वर्ग पर शासन करता है। वह बादलों और विद्युत का देवता है। इन्द्र की पत्नी इन्द्राणी थी। छल-कपट के कारण इन्द्र की प्रतिष्ठा ज्यादा नहीं रही। इसी इन्द्र के नाम पर आगे चलकर जिसने भी स्वर्ग पर शासन किया, उसे इन्द्र ही कहा जाने लगा। तिब्बत में या तिब्बत के पास इंद्रलोक था। कुछ लोग कहते हैं कि कैलाश पर्वत के कई योजन उपर स्वर्ग लोक है।
इन्द्र किसी भी साधु और धरती के राजा को अपने से शक्तिशाली नहीं बनने देते थे। इसलिए वे कभी तपस्वियों को अप्सराओं से मोहित कर पथभ्रष्ट कर देते हैं तो कभी राजाओं के अश्वमेध यज्ञ के घोड़े चुरा लेते हैं।

ऋग्वेद के तीसरे मंडल के वर्णनानुसार इन्द्र ने विपाशा (व्यास) तथा शतद्रु नदियों के अथाह जल को सुखा दिया जिससे भरतों की सेना आसानी से इन नदियों को पार कर गई। दशराज्य युद्ध में इन्द्र ने भरतों का साथ दिया था। सफेद हाथी पर सवार इन्द्र का अस्त्र वज्र है और वह अपार शक्ति संपन्न देव है। इन्द्र की सभा में गंधर्व संगीत से और अप्सराएं नृत्य कर देवताओं का मनोरंजन करते हैं।

2. धाता : धाता हैं दूसरे आदित्य। इन्हें श्रीविग्रह के रूप में जाना जाता है। ये प्रजापति के रूप में जाने जाते हैं। जन समुदाय की सृष्टि में इन्हीं का योगदान है। जो व्यक्ति सामाजिक नियमों का पालन नहीं करता है और जो व्यक्ति धर्म का अपमान करता है उन पर इनकी नजर रहती है। इन्हें सृष्टिकर्ता भी कहा जाता है।
केदारनाथ राष्ट्रीय राजमार्ग पर बासवाड़ा से 12 किमी की दूरी पर है प्रचीन बसुकेदार मंदिर समूह। शंकराचार्यकालीन यह मंदिर कत्यूरी शिल्प में निर्मित 18 छोटे बड़े मंदिरो का समूह है। मुख्य मंदिर शिव के केदार स्वरूप को समर्पित है, जिसके अंदर गर्भगृह के पहले द्वार पर गणेश और विष्णु भगवान की पाषाण प्रतिमाऐ हैं। मुख्य मंदिर से लगते अन्य मंदिरो में भी शिव रूप स्थापित है। मान्यता है कि यहां अष्ट वसुओं ने भगवान आदिकेदार की तपस्या की थी। इसलिऐ यह स्थान बसुकेदार नाम से प्रसिद्ध हुआ।


3. पर्जन्य : पर्जन्य तीसरे आदित्य हैं। ये मेघों में निवास करते हैं। इनका मेघों पर नियंत्रण हैं। वर्षा के होने तथा किरणों के प्रभाव से मेघों का जल बरसता है। ये धरती के ताप को शांत करते हैं और फिर से जीवन का संचार करते हैं। इनके बगैर धरती पर जीवन संभव नहीं।
4. त्वष्टा : आदित्यों में चौथा नाम श्रीत्वष्टा का आता है। इनका निवास स्थान वनस्पति में है। पेड़-पौधों में यही व्याप्त हैं। औषधियों में निवास करने वाले हैं। इनके तेज से प्रकृति की वनस्पति में तेज व्याप्त है जिसके द्वारा जीवन को आधार प्राप्त होता है।

त्वष्टा के पुत्र विश्वरूप। विश्वरूप की माता असुर कुल की थीं अतः वे चुपचाप असुरों का भी सहयोग करते रहे। एक दिन इन्द्र ने क्रोध में आकर वेदाध्ययन करते विश्वरूप का सिर काट दिया। इससे इन्द्र को ब्रह्महत्या का पाप लगा। इधर, त्वष्टा ऋषि ने पुत्रहत्या से क्रुद्ध होकर अपने तप के प्रभाव से महापराक्रमी वृत्तासुर नामक एक भयंकर असुर को प्रकट करके इन्द्र के पीछे लगा दिया। ब्रह्माजी ने कहा कि यदि नैमिषारण्य में तपस्यारत महर्षि दधीचि अपनी अस्थियां उन्हें दान में दें दें तो वे उनसे वज्र का निर्माण कर वृत्तासुर को मार सकते हैं। ब्रह्माजी से वृत्तासुर को मारने का उपाय जानकर देवराज इन्द्र देवताओं सहित नैमिषारण्य की ओर दौड़ पड़े।
5. पूषा : पांचवें आदित्य पूषा हैं जिनका निवास अन्न में होता है। समस्त प्रकार के धान्यों में ये विराजमान हैं। इन्हीं के द्वारा अन्न में पौष्टिकता एवं ऊर्जा आती है। अनाज में जो भी स्वाद और रस मौजूद होता है वह इन्हीं के तेज से आता है।
6. अर्यमन : अदिति के तीसरे पुत्र और आदित्य नामक सौर-देवताओं में से एक अर्यमन या अर्यमा को पितरों का देवता भी कहा जाता है। आकाश में आकाशगंगा उन्हीं के मार्ग का सूचक है। सूर्य से संबंधित इन देवता का अधिकार प्रात: और रात्रि के चक्र पर है। आदित्य का छठा रूप अर्यमा नाम से जाना जाता है। ये वायु रूप में प्राणशक्ति का संचार करते हैं। चराचर जगत की जीवन शक्ति हैं। प्रकृति की आत्मा रूप में निवास करते हैं।
7. भग : सातवें आदित्य हैं भग। प्राणियों की देह में अंग रूप में विद्यमान हैं। ये भग देव शरीर में चेतना, ऊर्जा शक्ति, काम शक्ति तथा जीवंतता की अभिव्यक्ति करते हैं।

8. विवस्वान : आठवें आदित्य विवस्वान हैं। ये अग्निदेव हैं। इनमें जो तेज व ऊष्मा व्याप्त है वह सूर्य से है। कृषि और फलों का पाचन, प्राणियों द्वारा खाए गए भोजन का पाचन इसी अग्नि द्वारा होता है। ये आठवें मनु वैवस्वत मनु के पिता हैं।

9. विष्णु : नौवें आदित्य हैं विष्णु। देवताओं के शत्रुओं का संहार करने वाले देव विष्णु हैं। वे संसार के समस्त कष्टों से मुक्ति कराने वाले हैं। माना जाता है कि नौवें आदित्य के रूप में विष्णु ने त्रिविक्रम के रूप में जन्म लिया था। त्रिविक्रम को विष्णु का वामन अवतार माना जाता है। यह दैत्यराज बलि के काल में हुए थे। हालांकि इस पर शोध किए जाने कि आवश्यकता है कि नौवें आदित्य में लक्ष्मीपति विष्णु हैं या विष्णु अवतार वामन।

12
आदित्यों में से एक विष्णु को पालनहार इसलिए कहते हैं, क्योंकि उनके समक्ष प्रार्थना करने से ही हमारी समस्याओं का निदान होता है। उन्हें सूर्य का रूप भी माना गया है। वे साक्षात सूर्य ही हैं। विष्णु ही मानव या अन्य रूप में अवतार लेकर धर्म और न्याय की रक्षा करते हैं। विष्णु की पत्नी लक्ष्मी हमें सुख, शांति और समृद्धि देती हैं। विष्णु का अर्थ होता है विश्व का अणु।
10. अंशुमान : दसवें आदित्य हैं अंशुमान। वायु रूप में जो प्राण तत्व बनकर देह में विराजमान है वही अंशुमान हैं। इन्हीं से जीवन सजग और तेज पूर्ण रहता है।
11. वरुण : ग्यारहवें आदित्य जल तत्व का प्रतीक हैं वरुण देव। ये मनुष्य में विराजमान हैं जल बनकर। जीवन बनकर समस्त प्रकृति के जीवन का आधार हैं। जल के अभाव में जीवन की कल्पना भी नहीं की जा सकती है।
वरुण को असुर समर्थक कहा जाता है। वरुण देवलोक में सभी सितारों का मार्ग निर्धारित करते हैं। वरुण तो देवताओं और असुरों दोनों की ही सहायता करते हैं। ये समुद्र के देवता हैं और इन्हें विश्व के नियामक और शासक, सत्य का प्रतीक, ऋतु परिवर्तन एवं दिन-रात के कर्ता-धर्ता, आकाश, पृथ्वी एवं सूर्य के निर्माता के रूप में जाना जाता है। इनके कई अवतार हुए हैं। उनके पास जादुई शक्ति मानी जाती थी जिसका नाम था माया। उनको इतिहासकार मानते हैं कि असुर वरुण ही पारसी धर्म में 'अहुरा मज़्दा' कहलाए।

12 मित्र : बारहवें आदित्य हैं मित्र। विश्व के कल्याण हेतु तपस्या करने वाले, साधुओं का कल्याण करने की क्षमता रखने वाले हैं मित्र देवता हैं। ये 12 आदित्य सृष्टि के विकास क्रम में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।

वैदिक धर्म के देवतागण अनेक हैं। उनमें एक रुद्रदेवता भी हैं। वेदों में रुद्र नाम परमात्मा, जीवात्मा, तथा शूरवीर के लिए प्रयुक्त हुआ है। यजुर्वेद के रुद्राध्याय में रुद्र के अनंत रूप वर्णन किए हैं। इस वर्णन से पता चलता है कि यह संपूर्ण विश्व इन रुद्रों से भरा हुआ है।
यास्काचार्य ने इस रुद्र देवता का परिचय इस प्रकार दिया है -
रुद्रो रौतीति सत:, रोरूयमाणो द्रवतीति वा, रोदयतेर्वा, यदरुदंतद्रुद्रस्य रुद्रत्वं' इति काठकम्। (निरुक्त देखें, १०.१.१-५)
रु' का अर्थ 'शब्द करना' है - जो शब्द करता है, अथवा शब्द करता हुआ पिघलता है, वह रुद्र है।' ऐस काठकों का मत है।
शब्द करना, यह रुद्र का लक्षण है। रुद्रों की संख्या के विषय में निरुक्त में कहा है-
एक ही रुद्र है, दूसरा नहीं है। इस पृथवी पर असंख्य अर्थात् हजारों रुद्र हैं।' (निरुक्त १.२३) अर्थात् रुद्र देवता के अनेक गुण होने से अनेक गुणवाचक नाम प्रसिद्ध हुए हैं। एक ही रुद्र है, ऐसा जो कहा है, वहाँ परमात्मा का वाचक रुद्र पद है, क्योंकि परमात्मा एक ही है। परमात्मा के अनेक नाम हैं, उनमें रुद्र भी एक नाम है। इस विषय में उपनिषदों का प्रमाणवचन देखिए-
एको रुद्रो न द्वितीयाय तस्यु:। य इमाल्लोकानीशत ईशनीभि:॥ ( श्वेताश्वतर उप. ३.२)
'एक ही रुद्र है, दूसरा रुद्र नहीं है। वह रुद्र अपनी शक्तियों से सब लोगों पर शासन करता है।'
इसी तरह रुद्र के एकत्व के विषय में और भी कहा है - रुद्रमेंकत्वमाहु: शाश्वैतं वै पुराणम्। (अथर्वशिर उप. ५) अर्थात् 'रुद्र एक है और वह शाश्वत और प्राचीन है।'
'जो रुद्र अग्नि में, जलों में औषधिवनस्पतियों में प्रविष्ट होकर रहा है, जो रुद्र इन सब भुवनों को बनाता है, उस अद्वितीय तेजस्वी रुद्र के लिए मेरा प्रणाम है।' (अथर्वशिर उप. ६)
यो देवना प्रभवश्चोद्भवश्च। विश्वाधिपो रुद्रो महर्षि:॥ (-श्वेताश्व. उ. ४.१२)
'जो रुद्र सब देवों को उत्पन्न करता है, जो संपूर्ण विश्व का स्वामी है और जो महान् ज्ञानी है।' यह रुद्र नि:संदेह परमात्मा ही है।
जगत् का पिता रुद्र - संपूर्ण जगत् का पिता रुद्र है, इस विषय में ऋग्वेद का मंत्र देखिए-
भुवनस्य पितरं गीर्भिराभी  रुद्रं दिवा वर्धया रुद्रमक्तौ।
बृहन्तमृष्वमजरं सुषुम्नं ऋधग्हुवेम कविनेषितार:॥ (-ऋग्वेद ६.४९.१०)
'दिन में और रात्रि में इन स्तुति के वचनों से इन भुवनों के पिता बड़े रुद्र देव की (वर्धय) प्रशंसा करो, उस (ऋष्वं) ज्ञानी (अ-जरं सुषुम्नं) जरा रहित और उत्तम मनवाले रुद्र की (कविना इषितार:) बुद्धिवानें के साथ रहकर उन्नति की इच्छा करनेवाले हम (ऋषक् हुवेम) विशेष रीति से उपासना करेंगे।'
यहाँ रुद्र को 'भुवनस्य पिता' त्रिभुवनों का पिता अर्थात् उत्पन्नकर्ता और रक्षक कहा है। रुद्र ही सबसे अधिक बलवान् है, इसलिए वही अपने विशेष सामर्थ्य से इन संपूर्ण विश्व का संरक्षण करता है। वह परमेश्वर का गुहानिवासी रुद्र के रूप में वर्णन भी वेद में है-
स्तुहि श्रुतं गर्तसंद जनानां राजानं भीममुपहलुमुग्रम्।
मृडा जरित्रे रुद्र स्तवानो अन्यमस्मत्ते निवपन्तु सैन्यम्॥ (-अथर्व १८.१.४०)
'(उग्रं भीमं) उग्रवीर और शक्तिमान् होने से भयंकर (उपहलुं) प्रलय करनेवाला, (श्रुतं) ज्ञानी (गर्तसदं) सबके हृदय में रहनेवाला, सब लोगों का राजा रुद्र है, उसकी (स्तुहि) स्तुति करो। हे रुद्र! तेरी (स्तवान:) प्रशंसा होने पर (जरित्रे) उपासना करनेवाले भक्त को तू (मृड) सुख दे। (ते सैन्यं) तेरी शक्ति (अस्मत् अन्यं) हम सब को बचाकर दूसरे दुष्ट का (निवपन्तु) विनाश करे।' इस मंत्र में 'जनानां राजांन रुद्र' ये पद विशेष विचार करने योग्य हैं। 'सब लोगों का एक राजा' यह वर्णन परमात्मा का ही है, इसमें संदेह नहीं है।

इस मंत्र के कुछ पद विशेष मनन करने योग्य हैं, वे ये हैं-
(१) गर्त-सद: - हृदय की गुहा में रहनेवाला, (निहिर्त गुहा यत्) (वा. यजु. ३८.२) जो हृदय रूपी गुहा में रहता है।
(२) गुहाहित: - बुद्धि में रहनेवाला, हृदय में रहनेवाला, (परमं गुहा यत्। अथर्व. २.१.१-२) जो हृदय की गुहा में रहता है।
(३) गुहाचर: , गुहाशय: - (गुह्यं ब्रह्म) - बुद्धि के अंदर रहनेवाला, यह परमात्मा ही है।
'रुद्र' पद के ये अर्थ स्पष्ट रूप से बता रहे हैं कि यह रुद्र सर्वव्यापक परमात्मा ही है। यही भाव इस वेदमंत्र में है-'अंतरिच्छन्ति तं जने रुद्रं परो मनीषया। (ऋ.८.७२.३)
'ज्ञानी जन (तं रुद्रं) उस रुद्र को (जने पर: अन्त:) मनुष्य के अत्यंत बीच के अंत:करण में (मनीषया) बुद्धि के द्वारा जानने की (इच्छन्ति) इच्छा करते हैं।' ज्ञानी लोग उस रुद्र को मनुष्य के अंत:करण में ढूँढते हैं। अर्थात् यह रुद्र सबसे अंत:करण में विराजमान परमात्मा ही है। यही वर्णन अन्य वेदमंत्रों में है-
अनेक रुद्रों में व्यापक एक रुद्र - इस विषय का प्रतिपादन करने वाले ये मंत्र हैं-
(१) रुद्रं रुद्रेषु रुद्रियं हवामहे (ऋ. १०.६४.८);
(२) रुद्रो रुद्रेभि: देवो मृलयातिन: (ऋ. १०.६६.३);
(३) रुद्रं रुद्रेभिरावहा बृहन्तम् (ऋ. ७.१०.४);
अर्थात्
(१) अनेक रुद्रों में व्यापक रूप में रहनेवाले पूजनीय एक रुद्र की हम प्रार्थना करते हैं;
(२) अनेक रुद्रों के साथ रहनेवाला एक रुद्र देव हमें सुख देता है;
(३) अनेक रुद्रों के साथ रहनेवाले एक बड़े रुद्र का सत्कार करो।'
इससे स्पष्ट हो जाता है कि अनेक छोटे रुद्र अनेक जीवात्मा हैं और उन सब में व्यापनेवाला महान् रुद्र सर्वव्यापक परमात्मा ही है। इस विषय में यजुर्वेद का मंत्र (वा. यजु. १६.५४) भी दृष्टव्य है।
सायनाचार्य का मत - रुद्र पद के ये अर्थ अपने भाष्य में उन्होंने किए हैं-
(१) रुद्रकालात्मक परमेश्वर है;
(२) रुलानेवाने प्राण है;
(३) शत्रुओं को रुलानेवाले वीर रुद्र हैं;
(४) रोग दूर करनेवाला औषध रूप;
(५) संहार करनेवाला देव रुद्र है; सबको रुलाता है;
(६) रुत् का अर्थ दु:ख है, उनको दूर करनेवाला परमेश्वर रुद्र है;
(७) ज्वर का अभिमानी देव रुद्र है।
श्री उवटाचार्य का मत -
(१) शत्रु को रुलानेवाली वीर रुद्र है;
(२) रुद्र का अर्थ धीर वीर है।
श्री महीधराचार्य का मत -
(१) रुद्र का अर्थ शिव है।
(२) रुद्र का अर्थ शंकर है।
(३) पापी जनों को दु:ख देकर रुलाता है वह रुद्र है।
(४) रुद्र का अर्थ धीर बुद्धिमान्,
(५) रुद्र का अर्थ स्तुति करनेवाला है,
(६) शत्रु को रुलानेवाला रुद्र है।
(१) रुद्र दु:ख का निवारण करनेवाला;
(२) दुष्टों को दंड देनेवाला;
(३) रोगों का नाशकर्ता;
(४) महावीर;
(५) सभा का अध्यक्ष,
(६) जीव,
(७) परमेश्वर,
(८) प्राण, तथा
(९) राजवैद्य है।
पुराणों में 'रुद्र' को शिव के साथ समीकृत कर दिया गया है। शिव का ही पर्याय रुद्र को माना गया है। इनकी अष्टमूर्ति का संकेत तो यजुर्वेद में भी है; परन्तु अनेक पुराणों में इससे सम्बद्ध कथा विस्तार से दी गयी है।
एकादश रुद्र का विवरण सर्वप्रथम महाभारत में मिलता है। तत्पश्चात् अनेक पुराणों में एकादश रुद्र के नाम मिलते हैं, परन्तु सर्वत्र एकरूपता नहीं है। अनेक नामों में भिन्नता मिलती है।
बहुस्वीकृत नाम इस प्रकार हैं :-
  1. हर-रुद्र्
  2. बहुरूप
  3. त्र्यम्बक
  4. अपराजित-रुद्र्
  5. वृषाकपि
  6. शम्भु
  7. कपर्दी
  8. रैवत
  9. मृगव्याध
  10. शर्व
  11. कपाली
विभिन्न ग्रन्थों में एकादश रुद्रों के नामों में भिन्नताएँ मिलती हैं। उनका विवरण निम्नांकित बिन्दुओं के अन्तर्गत द्रष्टव्य है:-
महाभारत के आदिपर्व में दो भिन्न अध्यायों में एकादश रुद्र के नाम आये है। दोनों जगह नाम और क्रम समान हैं।  
  • 1.मृगव्याध
  • 2.सर्प
  • 3.निऋति
  • 4.अजैकपाद
  • 5.अहिर्बुध्न्य
  • 6.पिनाकी
  • 7.दहन
  • 8.ईश्वर
  • 9.कपाली
  • 10.स्थाणु
  • 11.भव
मत्स्यपुराण, पद्मपुराण, स्कन्दपुराण आदि पुराणों में समान रूप से एकादश रुद्रों के नाम मिलते हैं; परन्तु ये नाम महाभारत के खिल भाग हरिवंश तथा अग्निपुराण, गरुडपुराण आदि की उपरिलिखित सूची से कुछ भिन्न हैं।  
  • 1.अजैकपाद
  • 2.अहिर्बुध्न्य
  • 3.विरूपाक्ष
  • 4.रैवत
  • 5.हर
  • 6.बहुरूप
  • 7.त्र्यम्बक
  • 8.सावित्र
  • 9.जयन्त
  • 10.पिनाकी
  • 11.अपराजित
हरिवंश(1.3.49,50) तथा अग्निपुराण (18.41,42) के अनुसार दक्ष-पुत्री सुरभि ने महादेव जी से वर पाकर कश्यप जी के द्वारा ग्यारह रुद्रों को उत्पन्न किया। यहाँ अजैकपाद, अहिर्बुध्न्य, त्वष्टा तथा रुद्र को महादेव जी के ही प्रसाद से उत्पन्न भिन्न सन्तानों के रूप में गिना गया है। इन चारों को गरुड़पुराण में विश्वकर्मा के पुत्र कहा गया है। ऋग्वेद में अजैकपाद एवं अहिर्बुध्न्य को रुद्र से भिन्न देवता के रूप में स्थान प्राप्त है। पुराणों में दो परम्पराएँ चल रही हैं। एक इन दोनों को रुद्र के ही रूप मानने की, तथा दूसरी इन्हें रुद्र से भिन्न मानने की। हरिवंश में रुद्रों की संख्या सैकड़ों तथा अग्निपुराण में सैकड़ों-लाखों भी बतायी गयी है, जिनसे यह चराचर जगत् व्याप्त है।
शिवपुराण में शतरुद्रीय संहिता के अन्तर्गत एकादश रुद्रों को शिव के एक अवतार के रूप में वर्णन है। यहाँ कहा गया है कि कश्यप जी की तपस्या से प्रसन्न होकर भगवान् शिव ने कश्यप जी की पत्नी सुरभी के गर्भ से ग्यारह रुद्रों के रूप में जन्म लिया। यहाँ दिये गये नाम पूर्वोक्त सभी सूचियों से कुछ भिन्न हैं।  
  1. कपाली
  2. पिंगल
  3. भीम
  4. विरूपाक्ष
  5. विलोहित
  6. शास्ता
  7. अजपाद
  8. अहिर्बुध्न्य
  9. शम्भु
  10. चण्ड
  11. भव
शैवागम में एकादश रुद्रों के नाम इस प्रकार बतलाये गये हैं।  
  1. शम्भु
  2. पिनाकी
  3. गिरीश
  4. स्थाणु
  5. भर्ग
  6. सदाशिव
  7. शिव
  8. हर
  9. शर्व
  10. कपाली
11. भव

8 वसु :
वसु’ शब्द का अर्थ ‘बसने वाला’ या ‘वासी’ है। धरती को वसुंधरा भी कहते हैं। 8 पदार्थों की तरह ही 8 वसु हैं। इन्हें ‘अष्ट वसु’ भी कहते हैं। इन आठों देवभाइयों को इन्द्र और विष्णु का रक्षक देव माना जाता है। सभी का जन्म दक्ष कन्या और धर्म की पत्नी वसु से हुआ है। दक्ष कन्याओं में से एक सती भी थी, जो शिव की पत्नी थीं। सती ने दूसरा जन्म पार्वती के रूप में लिया था। स्कंद पुराण के अनुसार महिषासुर मर्दिनी दुर्गा के हाथों की अंगुलियों की सृष्टि अष्ट वसुओं के ही तेज से हुई थी। रामायण में वसुओं को अदिति पुत्र कहा गया है। हालांकि यह शोध का विषय भी है।
आठ वसुओं के नाम :
वेद और पुराणों में इनके अलग-अलग नाम मिलते हैं। स्कंद, विष्णु तथा हरिवंश पुराणों में 8 वसुओं के नाम इस प्रकार हैं:-
  1. आप
  2. ध्रुव
  3. सोम
  4. धर
  5. अनिल
  6. अनल
  7. प्रत्यूष
  8. प्रभाष।
जालंधर दैत्य के अनुचर शुंभ को वसुओं ने ही मारा था। पद्मपुराण के अनुसार वसुगण दक्ष के यज्ञ में उपस्थित थे और हिरण्याक्ष के विरुद्ध युद्ध में इन्द्र की ओर से लड़े थे। भागवत में कालकेयों से इनके युद्ध का वर्णन है। एक कथा के अनुसार पितृशाप के कारण एक बार वसुओं को गर्भवास भुगतना पड़ा, फलस्वरूप उन्होंने नर्मदातीर जाकर 12 वर्षों तक घोर तपस्या की। तपस्या के बाद भगवान शंकर ने इन्हें वरदान दिया। तदनंतर वसुओं ने वही शिवलिंग स्थापित करके स्वर्ग की ओर प्रस्थान किया।
8 वसुओं में सबसे छोटे वसु ‘द्यो’ ने एक दिन वशिष्ठ की गाय नंदिनी को लालचवश चुरा लिया था। वशिष्ठ को जब पता चला तो उन्होंने आठों वसुओं को मनुष्य योनि में जन्म लेने का शाप दे दिया। वसुओं के क्षमा मांगने पर वशिष्ट ने 7 वसुओं के शाप की अवधि केवल 1 वर्ष कर दी।
द्यो’ नाम के वसु ने अपनी पत्नी के बहकावे में आकर उनकी धेनु का अपहरण किया था अत: उन्हें दीर्घकाल तक मनुष्य योनि में रहने तथा संतान उत्पन्न न करने, महान विद्वान और वीर होने तथा स्त्री-भोग परित्यागी होने को कहा। इसी शाप के अनुसार इनका जन्म शांतनु की पत्नी गंगा के गर्भ से हुआ। 7 को गंगा ने जल में फेंक दिया, 8वें भीष्म थे जिन्हें बचा लिया गया था। लेकिन इससे इतर भी उनकी मनुष्य योनि में जन्म से पूर्व की कथा प्राचीन है।
संस्कृत विद्वानों के अनुसार सौर परिवार के प्रमुख सूर्य के एक ओर से 9 रश्मियां निकलती हैं और ये चारों ओर से अलग-अलग निकलती हैं। इस तरह कुल 36 रश्मियां हो गईं। इन 36 रश्मियों के ध्वनियों पर संस्कृत के 36 स्वर बने। इस तरह सूर्य की जब 9 रश्मियां पृथ्वी पर आती हैं तो उनकी पृथ्वी के 8 वसुओं से टक्कर होती है। सूर्य की 9 रश्मियां और पृथ्वी के 8 वसुओं के आपस में टकराने से जो 72 प्रकार की ध्वनियां उत्पन्न हुईं, वे संस्कृत के 72 व्यंजन बन गईं। इस प्रकार ब्रह्मांड में निकलने वाली कुल 108 ध्वनियों पर संस्कृत की वर्ण माला आधारित हैं।
बसुकेदार क्षेत्र पहाड़ी ढलानो पर बसुकेदार से एक रस्ता वीरो देवल चण्डिका मंदिर को जाता है यहा पर भी शंकराचार्य कालीन मंदिरो का छोटा समूह है।
2. अश्विनीकुमार
अश्विनीकुमार सूर्य के औरस पुत्र, दो वैदिक देवताओं को कहा जाता है। ये कल्याणकारी देवता हैं। इनका स्वरूप युगल रूप में था। अश्विनीकुमार 'पूषन' के पिता और 'ऊषा' के भाई कहे गए हैं। इनको 'नासांत्य' भी कहा जाता है।
अश्विनीकुमारों को चिकित्सा के देवता माना जाता है। ये अपंग व्यक्ति को कृत्रिम पैर प्रदान करते थे। दुर्घटनाग्रस्त नाव के यात्रियों की रक्षा करते थे। युवतियों के लिए वर की तलाश करते थे।
'पूषन' को पशुओं के देवता के रूप में संबोधित किया गया है। ये देव चिकित्सक थे।
उषा के पहले ये रथारूढ़ होकर आकाश में भ्रमण करते हैं और सम्भव है, इसी कारण ये सूर्य-पुत्र मान लिये गये हों।
एक का नाम 'नासत्य' और दूसरे का नाम 'द्स्त्र' है।
पुराणों के अनुसार पाण्डव नकुल और सहदेव इन्हीं के अंश से उत्पन्न हुए थे।
निरूक्तकार इन्हें 'स्वर्ग और पृथ्वी' और 'दिन और रात' के प्रतीक कहते हैं।
राजा शर्याति की पुत्री सुकन्या के पतिव्रत से प्रसन्न होकर महर्षि च्यवन का इन्होंने वृद्धावस्था में कायाकल्प करा उन्हें चिर-यौवन प्रदान किया था।
चिकित्सक होने के कारण अश्विनीकुमारों को देवताओं का यज्ञ भाग प्राप्त नहीं था। च्यवन ने इन्द्र से इनके लिए संस्तुति कर इन्हें यज्ञ भाग दिलाया था।
दध्यंग ऋषि के सिर को इन्होंने ही जोड़ा था, पर राम के विराट रूप का उल्लेख करते हुए मन्दोदरी ने रावण के समक्ष इन्हें राम का लघु-अंश बताया था।

हिंदु धर्म में पूजनीय वेद और पुराणों में कई ऐसे रहस्य छिपे हुए हैं, जिनके बारे में अगर जानना है तो संस्कृत के श्लोकों के सही अर्थ पहचानना जरूरी है. इन धर्म ग्रंथों में पृथ्वी और ब्रंम्हाण के जुड़े सारे रहस्यों का खुलासा किया गया है.
इसी तरह ऋग्वेद और अथर्व वेद की कुछ रचनाओं के आधार पर यह दावा किया गया है कि बरमूडा ट्राएंगल अर्थात समुद्र में भुतहा त्रिकोण का निर्माण हिंदु देवता अश्विनी कुमार ने किया था.

वेदों के प्रमुख 33 देवताओं में से दो देवताओं को अश्विनी कुमार कहा जाता है. अश्‍विनी देवों से उत्पन्न होने के कारण इनका नाम अश्‍विनी कुमार रखा गया. ये मूल रूप से चिकित्सक थे. ये कुल दो हैं. एक का नाम 'नासत्य' और दूसरे का नाम 'द्स्त्र' है.
उल्लेखनीय है कि कुंती ने माद्री को जो गुप्त मंत्र दिया था, उससे माद्री ने इन दो अश्‍विनी कुमारों का ही आह्वान किया था. 5 पांडवों में नकुल और सहदेव इन दोनों के पुत्र हैं. इन्हें सूर्य का औरस पुत्र भी कहा जाता है. सूर्यदेव की दूसरी पत्नीं संज्ञा इनकी माता थी.
संज्ञा से सूर्य को नासत्य, दस्त्र और रैवत नामक पुत्रों की प्राप्ति हुई. नासत्य और दस्त्र अश्विनीकुमार के नाम से प्रसिद्ध हुए. एक अन्य कथा के अनुसार अश्विनीकुमार त्वष्टा की पुत्री प्रभा नाम की स्त्री से उत्पन्न सूर्य के 2 पुत्र हैं.

पूर्वी-पश्चिमी अटलांटिक महासागर में बरमूडा त्रिकोण है अर्थात समुद्र में एक ऐसा त्रिकोण क्षेत्र है जिसके पास जाने या जिसके उपर उड़ने पर यह किसी भी जहाज, वायुयान आदि को अपने भीतर खींच लेता है और फिर उसका कोई पता नहीं चलता. इसी कारण इसे भुतहा त्रिकोण भी कहा जाता है.
यह त्रिकोण बरमूडा, मयामी, फ्लोरिडा और सेन जुआनस से मिलकर बनता है. इसक परिधि फ्लोरिडा, बहमास, सम्पूर्ण कैरेबियन द्वीप तथा महासागर के उत्तरी हिस्से के रूप में बांधी गई है. कुछ ने इसे मैक्सिको की खाड़ी तक बताया है. आपको बता दें कि इस क्षेत्र में अब तक हजारों समुद्र और हवाई जहाज आश्चर्यजनक रूप से गायब हो चुके हैं और लाख कोशिशों के बाद भी उनका पता नहीं लगाया जा सका है.
कुछ लोगों का मानना है कि यह किसी परालौकिक ताकत के कारण होता है वहीं कुछ लोग मानते हैं कि इसके भीतर जबरदस्त चुम्बकीय आकर्षण विद्यमान होने के लिए कारण ऐसा होता है. मशहूर अन्वेषक क्रिस्टोफर कोलंबस पहले लेखक थे, जिन्होंने यहां के अजीबो-गरीब घटनाक्रम के बारे में लिखा था.
बकौल कोलंबस- उन्होंने और उनके साथियों ने आसमान में बिजली का अनोखा करतब देखा. उन्हें आग की कुछ लपटें दिखाई दीं. इसके बाद समुद्री यात्रा पर निकले दूसरे लेखकों ने अपने लेखों में इस तरह के घटनाक्रम का उल्लेख किया है.
पौराणिक इतिहासा के जानकार की माने तो ऋग्वेद के अस्य वामस्य सुक्त में कहा गया है कि मंगल की जन्म धरती पर हुआ है. जब धरती ने मंगल को जन्म दिया तब मंगल को उससे दूर कर दिया गया. इस घटना के चलते धरती अपना संतुलन खो बैठी और अपनी धुरी पर तेजी से घूमने लगी.
ऐसा माना जाता है कि उस समय धरती को संभालने के लिए दैवीय वैध, अश्विनी कुमार ने त्रिकोणीय आकार का लोहा उसके स्थान पर लगा दिया, जहां से मंगल की उत्पत्ति हुई थी. इसके बाद धरती अपनी उसी अवस्था में धीरे-धीरे रुक गई. माना जाता है कि इसी कारण से पृथ्वी एक विशेष कोण पर झुकी हुई है. यही झुका हुआ स्थान बरमूडा त्रिकोण कहा जाता है.

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