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Wednesday, September 30, 2020
ईश्वर कभी दण्ड नहीं देता है। वह परम दयालु है
स्वामी या ब्रह्मचारी क्या होते हैं। यह फैशन नहीं है
Tuesday, September 29, 2020
मां जग्दम्बे के नव रूप, दश विद्या, पूजन, स्तुति, भजन सहित पूर्ण साहित्य व अन्य
मां जग्दम्बे के नव रूप, दश विद्या, पूजन, स्तुति, भजन सहित पूर्ण साहित्य
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🙏🙏 मां तेरी जय हो जय हो जय हो 🙏🙏 दीपावली राम नाम की 🙏🙏 दीवाली कैसे हो सकती 🙏🙏 रामलला अब घरै बिराजे 🙏🙏 एक दिया राम नाम का 🙏🙏 राम ही राम 🙏🙏
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Sunday, September 20, 2020
ज्ञानी नहीं प्रेमी बनो ज्ञान खुद मिल जायेगा
ज्ञानी नहीं प्रेमी बनो ज्ञान खुद मिल जायेगा
सनातनपुत्र देवीदास विपुल "खोजी"
अध्यात्म में बहुत कुछ जानने के लिये यह लिंक दबायें👇👇
मां जग्दम्बे के नव रूप, दश विद्या, पूजन, स्तुति, भजन सहित पूर्ण साहित्य व अन्य जानकारी
उदाहरण:
प्राय: लोग यह प्रश्न करते हैं कि ज्ञान बडा या भक्ति। मेरा उत्तर होगा भक्ति। भक्ति प्रेम का शुद्दतम स्वरूप है। बोलते है परम प्रेमा भक्ति।
ज्ञान सिर्फ मन को बुद्धि को जिज्ञासा को शांत करता है, बिना आनंद दिये। पर भक्ति सम्पूर्ण इन्द्रियो को आनांदित करती है। जब प्रेमाश्रु निकलते हैं तो उसका आनंद प्रेम और विरह की अनुभुति कराता है और प्रेम का ज्ञान देता है। जो लेनेवाला वह नीचे हाथ करता है जो देता है उसका हाथ ऊपर रहता है यहां भक्ति ने प्रेम का अनुभव दिया उस अनुभव ने ज्ञान दिया। ज्ञान बिना अनुभव के मिलता नहीं।
ज्ञान भक्ति का अनुभव नहीं करा सकता पर भक्ति तो सारे अनुभव अनुभूति करा सकती है। यह तो समस्त ज्ञान की कुंजी है। यह प्रेम है जो जीवन का जगत का आधार है। सार है, अंतिम द्वार है। सच्चे प्रेमी को ज्ञान से क्या लेना देना उसको तो प्रीतम के दर्शन की एक झलक ही चाहिये। ज्ञान तो अपने आप आवश्कयता होने पर चला आता है। पर भक्ति तो सिर्फ प्रेम से समर्पण से स्मरण से ही आती है।
जहां एक ओर ज्ञान अहंकार को भी पैदा कर सकता है और निरंकुश बना सकता है वहीं भक्ति मन में दासत्व का भाव पैदा करती है जिसके कारण अहंकार पैदा होने का सवाल ही नहीं अत: पतन की सम्भावना कम रहती है।
यद्यपि ईश का अंतिम वास्तविक रूप निर्गुण निराकार और अद्वैत ही है। पर जो आनन्द भक्ति मार्ग और भक्तियोग में है वह कहीं नहीं।
ज्ञान योग हमें यह अनुभव कराता है कि हम ही ब्रह्म है। अद्वैत भाव पैदा कर ईश के निराकार भाव का ज्ञान करवाता है। जिसके कारण मनुष्य भ्रमित होकर पतन की ओर चल सकता है। स्वयं ईश होने का ओशो होने का भ्रम पाल सकता है। कुछ कारया सामाजिक दृष्टि से गलत कर सकता है और उस देश के कानून के अनुसार जेल तक जा सकता है।
पर द्वैत भाव और साकार सगुण उपासक सब अपने इष्ट की लीला जानकर और उत्साह से मनन स्मरण में जुट जाता है।
अत: मेरी निगाह में भक्ति श्रेष्ठ है और यही भक्ति सब कुछ प्रदान कर देती है। इस सन्दर्भ में कृष्ण उद्वव सम्वाद और गोपिका प्रेम की कथा विख्यात है और उत्कृष्ट उदाहरण भी।
एक बार की बात है भगवान कृष्ण के परम मित्र उद्धव जी को अपने ज्ञान पर अभिमान हो गया। वह सोंचने लगे भक्ति और प्रेम के गहरे प्रभाव को वह अपने ज्ञान रूपी योग से छिन्न भिन्न कर सकते हैं। श्री कृष्ण यह जान गये और उद्धव जी को वृज में प्रेम में पागल राधा को समझाने हेतु भेज दिया।
गर्व में चूर उद्धव जी ज्ञान की गठरी बांधे राधा एवम उनकी सहेलियाँ को समझाने हेतु वृज यानि गोकुल पहुँचते हैं तो वहां का वातावरण प्रकृति एवम् निवासिओं को देखकर दंग रह जाते हैं। श्री कृष्ण के वियोग में सभी पर सन्नाटे छाए हुए हैं। यहाँ तक कि वहां के निवासी या मात्र राधा ही नहीं उदास थे बल्कि प्रकृति को यानि पेड़, पौधे, गाय, यमुना तथा वातावरण सबके सब मुरझाये हुए थे।
जब उद्धव अपने ज्ञान रूपी प्रकाश से राधा एवम् उनकी सहेली को समझाने बैठे तो वहां ज्ञान का प्रकाश लाख समझाने पर भी की कृष्ण कुछ नहीं है, वह मेरा मित्र एक साधारण व्यक्ति है। उसके पीछे तुम सब इतना पागल क्यों हो रहे हो। इस पर कृष्ण के वियोग में घुट घुट कर जीने वाली गोप और गोपिकायें बोली अरे उधो मन नहीं दस बीस मन यानि ह्रदय जो एक होता है, हम सब कृष्ण को समर्पित हो चुकी हैं। उनके बिना एक पल भी जीना हम सब के लिए मुमकिन नहीं हैं। हमें तो वृज के हर वस्तु उनकी अनुपस्तिथि में ऐसा लगता है की काट रहा है। हम सब का जीना दुर्लभ है। हमें यहाँ की कोई भी वस्तु यहाँ तक की प्रकृति यानि के फल, फूल, गाय, बैल, यमुना कुछ भी नहीं भाता है। हम सब तो उनके बिना पागल की भांति यमुना के किनारे भूखे प्यासे लोट पोट कर इतना दुखी हैं की आँका नहीं जा सकता। हम सब तो अपना सुध बुध खो चुकी हूँ की मैं कहाँ की हूँ क्या करती हूँ और क्या करना चाहिए। बस श्री कृष्ण का ही चेहरा और उसके साथ की मस्ती ही याद है। बाद में उद्धव जी को अपनी ज्ञान की गठरी समेटकर वापस आना पड़ा। उन गोपिकाओं पर उनके ज्ञान का कुछ भी प्रभाव नहीं पड़ा। लाख ज्ञान की बात समझाने पर भी उन गोपिकाओं के बहते हुए प्रेमाश्रु को नहीं रोक पाए।
अंत में जब उद्धव लौट रहे थे सभी के आँखों से आंसू के धरा बह रही थी। उद्धव जी के ज्ञान पर प्रेम का प्रकाश रूपी बदल छा गया। यानि ज्ञान पर प्रेम का आच्छादित होना संभव हो गया। ज्ञान का बस प्रेम के उपर नहीं चल पाया। ज्ञान नदी बन गयी तो प्रेम सागर बन गया। उद्धव का ज्ञान प्रेम के सामने छोटा पड गया।
जब उद्धव श्री कृष्ण के पास पहुचे तो वहां का दृश्य उनको समझाने में सक्षम नहीं हो पाए। उद्धव जी ने कहा की मैं उन सबके सामने हार कर वापस लौट आया।
इसीलिए मैं निवेदन करता हूं। प्रेमी बनो ज्ञानी नहीं। ज्ञान की चिंता मत करो। तुम्हारा प्रेम ज्ञान का सागर लाकर खडा कर सकता है। समर्पित हो जाओ अपने प्रेमी प्रभु को। आंचल को गीला होने दो। यह आन्नंद हर किसी को नसीब नहीं होता है। सिर्फ और सिर्फ सच्चे प्रेमी ही इसका पान कर सकते हैं। तुम भाग्यशाली हो जो इसका बिना आवाज आन्नद ले रहे हो।
भूल जाओ अपने आप को समर्पित कर दो अपने को देखो वो दौडा चला आयेगा। वो तो तुम्हारी तरफ सदा दया का भाव रखता है। क्योकि हम सब उसकी संतान हैं। वह तुम्हारे कष्ट नहीं सहन कर सकता। पर तुम तो सिर्फ स्वार्थ के लिए जगत को पाने के लिए उसको याद करते हो। तुम भूल चुके हो जब वह नारायण था तुम भी नर थे। उसी के समान पर तुम भूल गये भटकते गये जगत के सुख के लिये षड्यंत्र बुनते रहे जगत को पाने को। आज जब यह कृपा मिली तो लाभ उठाओ।
बस यही मैं कहता हूं। कलियुग में यदि तुम क्या हो यह न जान सकोगे तो फिर कभी जान सकोगे यह मुश्किल है। तुम क्या हो। तो कभी न जान सकोगे। ईश प्राणीधान एकमात्र सुगम मार्ग है। बस उस पर चल पडो।
अपने इष्ट का सघन सतत मंत्र जप करते रहो। यह मंत्र जप तुमको भक्ति से दर्शन तक, शक्ति तक। ज्ञान से वैराग्य तक और मोक्ष तक पहुंचाने का सामर्थ रखता है।
जय गुरूदेव जय मां काली।
Thursday, September 10, 2020
आत्म अवलोकन और योग की ज्ञान चर्चा
आत्म अवलोकन और योग की ज्ञान चर्चा
सनातन पुत्र देवीदास विपुल “खोजी”
तत्व व्याख्या
मन यह हमारे आकाश तत्व में स्थित भावों का भौतिक रूप से एक राजा है वास्तव में यह इंद्र है क्योंकि सभी इंद्रियां इसके अधीन होती है। आप यदि वैज्ञानिक दृष्टि से देखें तो आप देखेंगे जब आप भोजन करते हैं तो वह कहां जाता है आपके पेट में जाता है यानी वह भोजन का तल है या कोष है जो भौतिक है और आपको दिखता है।
फिर वह भोजन अग्नि तत्व के द्वारा जो आपको नहीं दिखता है आपको ऊर्जा देता है यानी ऊर्जा का तल या कोष।
इस ऊर्जा से हम जीवित रह पाते हैं यानी प्राण हमारे प्राण इसी से बचे रहते हैं तो हम कहां पर आए प्राण के तल पर या कोष पर।
फिर जब जीवित बचे तब हम अन्य विषयों में जब हमारा पेट भरा हुआ तब चिंतन करना आरंभ हुआ हम क्या करें क्या न करें यानी हमारा मन जो कहेगा हम करेंगे तो यह हो गया मनोमय तल यह हमारे मन का कोष।
लेकिन मन कोई कार्य करता है और उसका आदेश देता है तो हमारे अंदर से हमारी बुद्धि हमको एक आवाज देती है कि यह गलत है न करो।
यानी यह हुआ हमारा बुद्धि तल या बुधमय कोष।
लेकिन यह सारे तल तभी है जब हम जीवित हैं या इन सभी तलों में कोई विशिष्ट शक्ति कार्यरत है।
यानी तब आया आत्ममय कोश या तल।
फिर इसके बाद आता है आनंदमय कोश या तल।
जब हमारी बुद्धि हमारे मन के अधीन हो जाती है और मन बुद्धि के ऊपर चला जाता है तब हम प्रतीत होने लगते हैं और हम भ्रष्ट होने लगते हैं।
प्रयास किया जाए कि हमारी बुद्धि हमारे मन के ऊपर रहे इसके लिए भगवान श्री कृष्ण ने बताया है निरंतर अभ्यास और प्रभु चिंतन ही एकमात्र मार्ग है।
यदि गुरु कृपा मिल जाए या प्रभु अनुग्रह कर दे तो यह तुरंत हो जाता है।
प्रभु श्यामाचरण लहरी महाराज उनको भी जब महावतार बाबाजी ने एक तेल पिलाया तब लहरी महाराज के मन से जगत की वासनाएं शांत हुई और उनकी बुद्धि मन के ऊपर चली गई।
अब आप पूछे जो पूर्व जन्म के संत थे महाअवतार बाबा की मंडली के सदस्य थे उनका यह हाल था तो हम लोग तो बहुत छोटे लोग हैं।
Arya Samaj Vijaypal Shastri: परमपिता परमात्मा सर्वत्र व्याप्त होने के बाद भी हमें सहज प्राप्त क्यों नहीं है?
दूरियां 3 तरह की होती है एक देश गत दूरी अर्थात एक वस्तु पूर्व में तो है पर पश्चिम में नहीं है यह देश गत दूरी है लेकिन ईश्वर सर्वत्र हमारे अंदर और बाहर भी व्याप्त
है इसलिए ईश्वर और आत्मा के बीच देश गत दूरी नहीं है अर्थात स्थान की दूरी नहीं है।
दूसरी दूरी है कालगत अर्थात कोई वस्तु आज है पर वही कल ना हो लेकिन परमपिता परमात्मा हर समय मौजूद रहता है उसमें काल गत दूरी भी नहीं है। अर्थात् ईश्वर और आत्मा में समय की भी दूरी नहीं है।
तीसरी दूरी है ज्ञान गत। कोई वस्तु पास में हो और हम उसे जानते न हो तो वह हमसे दूर होती है पर जब हम जान जाते हैं तो वह वस्तु हमारे पास होती है।इसी तरह जब हम ईश्वर को जान लेते हैं तो वह हमारे पास है जब तक हम उसे नहीं जानते तब तक ही वह हमसे दूर है। इससे पता चलता है कि ईश्वर और हमारे बीच न तो देश गत दूरी है न ही काल गत दूरी है केवल ज्ञान गत दूरी है। अतः ईश्वर को जान कर सारी दूरी मिटा कर आनन्द प्राप्त करें।
विजयपाल शास्त्री
प्रभु जी क्या हम कर्मगत दूरी भी कह सकते हैं।
क्योंकि हमारे दुष्कर्म हमें उससे दूर कर देते हैं और सत्कर्म हमें उसके पास जाने की प्रेरणा को प्यास को और बढ़ा देते हैं।
Arya Samaj Vijaypal Shastri: आप महान चिंतक हैं भगवन् लखनवी जी। अवश्य कर्म की दूरी है👏👏👏
प्रभु जी आप सभी का आशीर्वाद है। आप ही के मंदिर के प्रांगण से वक्तव्य देना आरंभ किया था।
🙏🏻🙏🏻🙏🏻🙏🏻
इसलिए मां गायत्री का आशीर्वाद तो अवश्य है।
Arya Samaj Vijaypal Shastri: धन्य हो भगवन👏👏👏
Hb 96 A A Dwivedi: जगत बडि माया ।
खा जाये पुरी काया फिर भी तु पगले समझ नहीं पाया
जय हो प्रभु जय हो।
उठ गया है लाल अब कुछ कर दिखाएगा।
🙏🏻🙏🏻😀😀
गुरु जी हमारे अन्दर स्वय जब भगवान है तो हम बाहर किसकी पूजा करते है़ं
Swami Somendratirthji: जब तक हम स्वयं के अंदर स्वयं परमात्मा को जान नहीं लेते तब तक बाहर हम अनेक प्रकार के भगवान की पूजा करते हैं किंतु अंदर के परमात्मा को जानने के लिए बाहर के भगवान की पूजा भी जरूरी है वर्णमाला सीखे बिना आप जैसे पढ़ नहीं सकते इस प्रकार बहिरंग पूजा द्वारा ही अंतरंग में प्रवेश संभव है
केवल दो ही वर्ग हैं एक वह जो ज्ञानी कहलाते हैं वह वर्ग है जो यह जानता है कि अयम आत्मा ब्रह्म। वेद महावाक्य का अनुभव कर अनुभूति कर यह जान लेता है कि ईश्वर उसके अंदर है।
दूसरा वह जिसने केवल सुना रख है लेकिन वह जानता नहीं है ईश्वर अंदर है यानी अयम आत्मा ब्रह्म।
प्रश्न यह है कि हम कैसे जाने।
ज्ञानियों ने कहा है कि जब हम अंतर्मुखी हो जाएंगे यानी हमारी जो ऊर्जा बाहर की ओर निकल रही है वह अंदर की ओर प्रवाहित हो जाएगी तब हम शायद वेद महावाक्य का अनुभव कर इसकी अनुभूति कर सकें।
अब प्रश्न यह है कि हम अंतर्मुखी कैसे हो।
हमारे जिस इंद्री से जो ऊर्जा निकल रही है हम उसी ऊर्जा के सहारे अंतर्मुखी हो सकते हैं।
सबसे ऊपर है नेत्र। नेत्रों से त्राटक फिर आते हैं कान। कांन के द्वारा कर्ण सिद्धि नाद योग ध्वनि योग इत्यादि के द्वारा।
फिर आते हैं नाक। नाक के द्वारा हम प्राणवायु लेते हैं जब उस पर ध्यान करते हैं तो बन जाता है विपश्यना और जब हम नाक के द्वारा प्राणायाम करते हुए अपना मंत्र जप करते रहते हैं और एक विभिन्न तरीके से करते हैं तब बन जाता है क्रियायोग। और जब नाक की वायु पर ध्यान करते हुए हम बीच-बीच में परायम का सहारा लेते हैं और अपने ध्यान को विशेष जगह पर केंद्रित करते हैं तब बन जाता है प्रेक्षा ध्यान।
इसी के द्वारा सुगंध सिद्धि।
फिर आता है मुख। मुख से सबसे आसान है मंत्र जप। जबकि भी तीन अवस्थाएं होती है वैखरी मध्यमा पश्यन्ति।
बैखरी में मुख से आवाज निकलती रहती है यह आरंभिक अवस्था होती है लेकिन अनुष्ठान हेतु वैखरी ही सहायक होती है क्योंकि सारे अनुष्ठान को बैखरी में ही करना पड़ता है।
मध्यमा में होठ हिलते हैं आवाज नहीं निकलती यह अवस्था बैखरी के परिपक्व होने के बाद आती है।
फिर होता है पश्यन्ती। यानी हम सोचने लगते हैं और मंत्र जप आरंभ हो जाता है।
यह काफी मंत्र जप करने के बाद आती है।
फिर आता है परा पश्यन्ति। जिसमें हम शरीर के किसी भी अंग से मंत्र जप कर सकते हैं अनुभव कर सकते हैं।
यह परा पश्यन्ती एक प्रकार से टच थेरेपी को जन्म देती है। यदि हम अपनी हथेली के कंपन रोगी के कंपन के साथ मिलाकर संकल्प करें तो रोगी का रोग ठीक हो सकता है लेकिन यदि आप में सामर्थ नहीं तो आपके ऊपर आ सकता है।
इसी द्वारा आप अपनी ऊर्जा उसमें प्रवाहित कर सकते हैं।
जो अंतर्मुखी हो जाते हैं तो मंत्र जबकि एक अवस्था के बाद। यह उनके लिए जिनके गुरु नहीं है।
शक्तिपात साधकों में तो शिष्य आलसी बन जाता है। केवल आसन पर बैठना है फिर भी नहीं बैठता है क्योंकि कुछ करने की आदत है बिना करें चैन मिलता ही नहीं।
मंत्र जप के बाद हो सकता है अनायास आपका साकार मंत्र आपका इष्ट मंत्र आपके इष्ट को प्रसन्न कर इष्ठ मंत्र के देव को प्रकट ही कर दे। आपको सघन दर्शनाभूति हो जाए। और फिर उस देव की कृपा से हो सकता है आपको द्वैत से अद्वैत का अनुभव हो जाए और आपको अहम् ब्रह्मास्मि का भी अनुभव हो जाए। धीरे-धीरे अन्य वेद महावाक्यों के अनुभव भी आ सकते हैं।
इसीलिए मेरा यह मानना है जिनके गुरु नहीं है। वह गुरु के लिए बिल्कुल परेशान न हो अपने इष्ट का सतत निरंतर निर्बाध मंत्र करते रहे यह मंत्र जप में इतनी शक्ति है कि वह गुरु से लेकर निवार्ण तक और सिद्धियों से लेकर किसी भी लोक तक ले जा सकता है।
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यक्ष बात
विपुल लखनवी
कहां क्या कहे हम अक्सर भूल जाते हैं।
किस दिशा में बहें हम अक्सर भूल जाते हैं।।
आवेग में हम क्या करें हम अक्सर भूल जाते हैं।
अत्याचारों को कब तक सहें हम अक्सर भूल जाते हैं।
किस अस्त्र से होंगे हम विजयी यह चुनना भूल जाते हैं।
हर मानव की सोच है अलग हम अक्सर भूल जाते हैं।।
कर बैठते हैं कुछ गलत बाद में हम अक्सर पछताते हैं।।
सद्गुरु कौन हो उसके क्या लक्षण है। इस विषय पर परम् पूज्य गुरुमहाराज विष्णुतीर्थ जी ने जो वक्तव्य दिया, जिनका उल्लेख उन्होंने अन्तर्विथी पुस्तक में किया है।
Swami Triambak giri Fb: परमात्मा है यह बात मानते हैं परमात्मा अंग संग है यह बात जानते हैं, इसका बोध हो चुका हैं अब और कौन सा ज्ञान चाहिए अब अंग संग परमात्मा है तो इसकी प्रार्थना कीजिए और उसकी प्रार्थना करते हुए अपने सच्चाई और ईमानदारी से कर्म कीजिए और अगर इससे भी आगे बढ़ना है तो परमात्मा से परमात्मा की पहचान पूछिए और भी इससे आगे बढ़ना है तो द्रष्टा भाव में आ जाइए जो भी कुछ हो रहा है होने दीजिए उसको देखते रहिए अपने आप हो रहा है होता रहेगा होगा करवाने वाला करवा रहा है कर्म फल से अब ऊपर उठ जाएंगे मोक्ष की ओर अग्रसर हो जाएंगे अब इसमें और किसी चीज की कहां जरूरत है कौन से ज्ञान की जरूरत है किस गुरु की जरूरत है क्यों जरूरत है गुरु की |
परमात्मा को ही गुरु बना लीजिए परमात्मा को ही अपना सतगुरु बना लीजिए |
परमात्मा आपके अंदर की आवाज को अंदर ही सुनता है आपको विचार भी प्रदान करता है जो विचार आपने दुनिया में कहीं नहीं सुने कहीं नहीं पढ़े कहीं जिन का अवलोकन भी नहीं किया तो परमात्मा आपके अंदर ही है आप परमात्मा से परमात्मा की पहचान पूछ |
परमात्मा की पहचान होने के बाद हर पल परमात्मा में ध्यान रहे शरीर को सुलाकर भी परमात्मा में विचरण हो तो ही मोक्ष मुक्ति संभव |
Swami Triambak giri Fb:
एष उक्तः सूक्तेऽपि पौरुषे।
धात्रादिस्तम्बपर्यन्तानेतस्यावयवान् विदुः।।
विश्वरूपाध्याय के पुरुषसूक्त में जो वर्णन है वह इसी 'विराट्' का है। ब्रह्मा से लेकर स्तम्बपर्यन्त जगत् को इसी विराट् का अवयव बताया जाता है।
ईशसूत्रविराड्वेधोविष्णुरुद्रेन्द्रवन्हयः।
विघ्नभैरवमैरालमरिकायक्षराक्षसाः।।
विप्रक्षत्रियविट्शूद्रा गवाश्वमृगपक्षिणः।
अश्वत्थवटचूताद्या यवव्रीहितृणादयः।।
जलपाषाणमृत्काष्ठवास्यकुद्दालकादयः।
ईश्वराः सर्व एवैते पूजिताः फलदायिनः।।
ईश (अन्तर्यामी) हिरण्यगर्भ, विराट्, ब्रह्मा, विष्णु, महेश, इन्द्र, अग्नि, गणेश, मैराल, मरिका, यक्ष, राक्षस, ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र, गौ, घोड़ा, मृग, पक्षी, पीपल, बढ़, आम आदि वृक्ष जौ, धान, तिनके आदि औषधियां, जल, पाषाण, मिट्टी, काठ, यहां तक कि बिसोला और कुदाल तक ये सभी ईश्वर हैं। जब कोई इनकी पूजा करता है तब ये अपनी अपनी शक्ति के अनुसार उसको फल दे देते हैं |
इस ईश्वर की जैसे जैसे उपासना करते हैं, वैसे वैसे ही फल मिल जाते हैं क्योंकि उपासना भी एक कर्म है। जब कि ये सभी ईश्वर हैं तब समान ही फल मिलना चाहिये था। परन्तु फल की जो न्यूनाधिकता होती है वह तो पूज्यों और पूजाओं के अनुसार हो जाती है घट बढ़ जाती है। पूज्यों और पूजाओं के सात्विक राजस आदि होने से भिन्न भिन्न फल मिल जाते हैं।
सांसारिक फलों की प्राप्ति इन छोटे मोटे ईश्वरों से हो जाए , परन्तु मुक्ति तो अद्वितीय परम्ब्रह्मतत्व के ज्ञान से ही होती है। इस के अतिरिक्त मुक्ति का कोई भी अन्य मार्ग नहीं है। देखते नहीं हो कि - अपने जागे बिना अपनी निद्रा में जिस स्वप्न को बना रखा है उस अपने सुपने का भंग नहीं होता है। इस दृष्टान्त से यह बात समझ लेनी चाहिये कि आत्मतत्व को जाने बिना, (आत्मतत्व को न जानने से ही बना हुआ,) यह अपना संसार रूपी सुपना कदापि निवृत नहीं हो सकता | इस #आत्मतत्व को जानने के लिए परमब्रह्मतत्व को पहचानना बहुत जरुरी है |
ईश्वर और जीव आदि के रूप से वर्तमान जो यह जडात्मक और चेतनात्मक सम्पूर्ण जगत् है यह सब इस अद्वितीय परमब्रह्मतत्व में एक बड़ा सुपना है क्योंकि यह सब अद्वितीय परमब्रह्मतत्व को ही तो अन्यथा समझ लिया गया है।
सुपना 'सुपना' है, यथार्थ ज्ञान नहीं है यह बात जागने से पहले मालूम नहीं पड़ सकती, जागने पर ही यह मालूम पड़ा करता है। इसी प्रकार 'यह जगत् एक सुपना है' ऐसा ज्ञान ब्रह्मविद्या नाम के जागरण के हो जाने पर ही हो सकता है, पहले नहीं।
आनन्दमय और विज्ञानमय जिनको ईश्वर और जीव भी कहते हैं, दोनों ही माया के कल्पित किये हुए हैं। इस कारण ये ईश्वर तथा जीव यद्यपि परमब्रह्म से अभिन्न हैं तो भी ये जगत् के अन्दर की ही वस्तुएँ हैं, ये जगत् के बाहर की वस्तुएँ नहीं हैं। इन ईश्वर और जीव दोनों ने मिलकर पीछे से यह सब कल्पित कर डाला है।
विज्ञान के बाद आनन्द आता है। विज्ञान भिन्न भिन्न होते हैं। आनन्द सब को एक जैसा ही आता है। शूकर को शूकरी से जितना आनन्द आता है, राजा को रानी से भी उतना ही - उस जैसा ही आनन्द आता है। यों आनन्द नाम का जो ईश्वर तत्व है वह एक जैसा है - एक है। परन्तु आनन्द को प्रकट करनेवाले - उसका दर्शन करने वाले, जो विज्ञानमय कोश ये शरीर हैं, वे भिन्न भिन्न हैं। यही तो ईश्वर और जीव का वेदान्तसम्मत भेद है। ये दोनों ही माया के कल्पित हैं।
ईश्वर से लेकर कि उसने बहुभाव का ईक्षण किया किंवा संकल्प किया] प्रवेश तक [कि इस जीव रूप से इसी सृष्टि में प्रवेश कर जाऊँ] कि सब सृष्टि तो ईश्वर की बनायी हुई है। जाग्रत् से लेकर मोक्षपर्यन्त सब संसार जीव का बनाया हुआ है। क्योंकि वही अपने आप को जागता हुआ या मुक्त होता हुआ माना करता है। वह इसमें अभिमान रखता है। यदि यह जीव साधना करके इन सब अवस्थाओं में से अपना अभिमान हटा ले तो जाग्रदादि संसार का एकपदे विध्वंस हो जाय। जाग्रदादि संसार का वर्णन तो यों है कि - यह प्राणी माया से मोहित होकर इस मांस के झोंपड़े में अहंभाव से निवास कर लेता है तो फिर भले बुरे सभी काम करने लगता है। यह जाग्रत् काल में अन्न पान आदि नाना भोगों से अपने शरीर की तृप्ति करना मानता है। स्वप्न में यह इश्वर अपनी माया से ही सम्पूर्ण लोक को बनाता है और अपने बनाये हुए इसी से सुख दुःख भोगा करता है। सुषुप्तिकाल में जब सब कुछ विलीन हो जाता है, जब अज्ञान से अभिभूत हो जाता है, तब सुखरूप हुआ रहता है। यह तो एक शरीर की जाग्रत् आदि अवस्थायें हुईं। जब एक शरीर में निवास के कर्म समाप्त हो जाते हैं और जन्मान्तर देनेवाले कर्मों की बारी आ जाती है तब वही जीव फिर जन्म लेता है और फिर यों ही जागता है, सुपने देखता है और सोया करता है। यों यह जीव इन जाग्रदादि तीनों अवस्थाओं और स्थूल, सूक्ष्म आदि तीनों शरीरों में खेल से करता फिरा करता है। इसी जीव के कर्मों के प्रताप से यह सब विचित्र जगत् उत्पन्न हो गया है। जाग्रत् स्वप्न सुषुप्ति आदि के इस प्रपंच को जो परमब्रह्यम्तत्व प्रकाशित कर रहा है, इसी परमब्रह्म रुप के तत्व का अंश मैं ब्रह्म हूँ, ऐसा यदि किसी को मालूम हो जाय, तो उसका बन्धनों से छुटकारा हो जाय, उसका कल्पित संसार विलीन हो जाय।
इस संसार में जो एक अद्वितीय तथा असंग परम्ब्रह्मतत्व है इसको तो आप पहचानते ही नहीं हैं और फिर वृथा ही मायाकल्पित जीव तथा मायाकल्पित ईश्वर के विषय में परस्पर लड़े मरे जाते हैं। आप किसी को भी श्रुतिसिद्ध परमार्थ तत्व का परिज्ञान नहीं हैं।
विद्वान ज्ञानी नीतिनिपुण पुरुष इसी ईश्वर के कहने से प्रशंसनीय व्यवहार करता है। इसका ईश्वर इससे अच्छा व्यवहार कराता है। दूसरे प्रकार के पुरुष दूसरी तरह का वर्ताव करते हैं।इनका ईश्वर इनसे बुरा व्यवहार कराता है। यों ईश्वरतत्व प्राणियों का भागी बन कर रहता है। यह इनसे भिन्न कोई तटस्थ शासक कदापि नहीं है। जबकि यह ईश्वर को अपने ऊपर शासक नियंत्रक मानकर चल रहे हैं |
इस अद्वितीय परमब्रह्मतत्व को जब से हम पहचान गये हैं, तभी से तत्वनिष्ठ होकर हम तो बड़े ही प्रसन्न रहने लगे हैं। जिन मन्द भागियों को इस तत्व का ज्ञान नहीं हुआ है उन पर तो हमें केवल थोड़ा सा शोक ही होता है। भ्रान्ति में फँसकर हम उनके साथ विवाद करना पसन्द नहीं करते हैं।पर आप लोगों तक हमारी बात को पहुंचाने के लिए थोड़ा सा वाद विवाद आप लोगों से करना पड़ता है क्योंकि आप लोग लालच में इतने अंधे हो चुके हो कि आपको सत्य और असत्य का भान कभी हो ही नहीं रहा है |
तृणपूजकों से लेकर योग पर्यन्त वादियों को 'ईश्वरतत्व' के विषय में भ्रान्ति हो रही है। लोकायत से लेकर सांख्य पर्यन्त वादियों को 'जीव' के विषय में बड़ा भ्रम हो रहा है।
अद्वितीय परमब्रह्मतत्वं न जानन्ति यदा तदा।
भ्रान्ता एवाखिलास्तेषां क्व मुक्तिः क्वेह वा सुखम्।।
अद्वितीय परमब्रह्मतत्व को नहीं जानते हैं वे तो सभी भ्रान्त हैं। उनको मर जाने पर न तो विदेहमुक्ति ही मिलती है और न इस लोक में ही वे सुख पा सकते हैं।
परमब्रह्म का तत्वज्ञान न होने से आपलोगो को मुक्ति नहीं मिलेगी तथा वैराग्यसम्पन्न न होने के कारण इस लोक के सुखों से भी आप लोग स्वयं ही परहेज़ कर बैठेंगे। यों आप दोनों सुखों से वंचित हो जायेंगे।
ब्रह्मविद्या के अतिरिक्त और विद्याओं के कारण यदि आपमें ऊँच नीच भाव होता हो तो हुआ करो। ऐसे उत्तमाधम भाव से मुमुक्षु लोगों को लाभ ही क्या? देखते नहीं हो कि सुपने में राज्य करने से और सुपने में भीख माँगने से, जागे हुए आदमी का कुछ भी घटता बढ़ता नहीं है।इस कारण हमारा तो यही कहना है कि - जो लोग मुक्ति चाहते हों, वे 'जीववाद' और 'ईश्वरवाद' के झगड़े में कभी भी न पड़ें। उन्हें तो चाहिये कि वे सदा परम्ब्रह्मतत्व का ही विचार करें और विचार कर इस परमब्रह्मतत्व को पहचान जाँय।
परम प्रभु की जय
Swami Toofangiri Bhairav Akhada: *राजयोग, लययोग,स्तंभन की प्रतिमूर्ति, समस्त दुःखों एवं पापों का शमन करने वाली देवी माँ बगलामुखी के प्राकट्य उत्सव की आप सभी को ढेरों बधाई सहित कोटिशः मंगल शुभकामनाएं।माँ का आशीर्वाद ऐसे ही चराचर जगत को प्राप्त होता रहे और देश निरन्तर नवीन कीर्तिमान स्थापित करे। आज के दिन इस मंत्र का उच्चारण करें वैशाख शुक्ल अष्टमी को देवी बगलामुखी का अवतरण दिवस कहा जाता है इसे मां बगलामुखी जयंती के रूप में मनाया जाता है.
मां बगलामुखी जयंती 1 मई 2020 को है। इस दिन को मां पीतांबरा जयंती के नाम से भी जाना जाता है
ये स्तम्भन की देवी भी हैं। सारे ब्रह्मांड की शक्ति मिलकर भी इनका मुकाबला नहीं कर सकती। शत्रु नाश, वाक सिद्धि, वाद-विवाद में विजय के लिए देवी बगलामुखी की उपासना की जाती है।
मां बगलामुखी मंत्र :-
'ह्रीं बगलामुखी सर्व दुष्टानां वाचं मुखं पदं स्तम्भय जिह्वां कीलम बुद्धिं विनाशय ह्रीं ॐ स्वाहा।'
*आपके चरणों का दास-* स्वामी तूफान गिरी जी महाराज मां बगलामुखी उपासक श्री पंच दशनाम भैरव जूना अखाड़ा {राष्ट्रीय प्रवक्ता व प्रचारक श्री हिंदू तख्त एवं राष्ट्रीय महामंत्री अखिल भारतीय हिंदू सुरक्षा समिति}
Bhakt Lokeshanand Swami: इधर, भगवान प्रतीक्षा में खड़े हैं, कि ये आया, लगा चरण धोने और धो धोकर पीने। रामजी ने एक चरण तो धुलवा लिया, पर दुसरा तो कठोते में तब रखें, जब पहला कहीं टिकाएँ। जैसे ही चरण रखने लगे, केवट कहता है- खबरदार! फिर से धूल न लगा लेना।
-तो इसे कहाँ रखूँ?
-हवा में ही रखें रहें।
तो रामजी एक पैर पर ही खड़े रहे। पर कितनी देर खड़े रहते? थक गए, तब केवट बोला, आप थक गए हों तो मेरे सिर का सहारा ले लें।
लक्षमणजी कहते हैं कि सारी दुनिया भगवान से कहती है कि भगवान! मेरे सिर पर हाथ रख दो, हमें सहारा हो जाएगा। ये कहता है मेरे सिर पर हाथ रख लो, आपको सहारा हो जाएगा?
भगवान कहते हैं- लक्षमण! मैं जो सारी दुनिया को सहारा देता हूँ, वह इन केवट जैसे संतों के सहारे ही तो देता हूँ।
"मोते अधिक संत करि लेखा।"
दोनों चरण धुल चुके, तो केवट ने भगवान को गोद में उठा लिया। रामजी केवट की छाती से चिपक गए। सबको नाव में चढ़ाकर केवट नाव चलाने लगा।
आज भगवान के पार जाने का तो बहाना है, केवट के जीवन की नैय्या पार हो रही है।
दूसरा किनारा आया, रामजी उतरकर खड़े हुए, केवट ने दण्डवत् कर चरण पकड़ लिए।
लक्षमणजी ने पूछा कि उधर तो अकड़ रहा था, इधर पकड़ रहा है?
केवट रोने लगा, बोला- छोटे सरकार! अकड़ के या पकड़ के, कैसे भी, मुझे तो भगवान को रोकने का बहाना चाहिए। और लक्षमण भैया! मुझे आपका भी तो भय है, आप शुरु से ही, मेरी ओर ही घूर रहे हैं, और मैं यह रहस्य जानता हूँ कि जो मनुष्य इन चरणों में दण्डवत् करता है, उसे दण्ड नहीं मिलता।
लोकेशानन्द केवट की बुद्धिमता पर मुस्कुराने लगा।
जय मां जगदंबे हे मां।
सभी तेरे रूप हर रूप में तू है मां।
एक राजा शिकार करने जंगल में गया था। शिकार के पीछे दौड़ते हुए, वह बहुत दूर निकल गया, सैनिक तो पीछे छूट ही गए, अंधेरा भी हो गया।
'अब इस जंगल में यह रात कैसे बीतेगी?' यह विचार उसे मारे दे रहा था। कि तभी उसे दूर एक रोशनी दिखाई दी। रोशनी है, तो जरूर कोई मनुष्य वहाँ होगा ही। तो वह रोशनी की ओर बढ़ चला।
वहाँ एक टूटी फूटी झोपड़ी नें एक गरीब फटेहाल आदमी मिला। मजबूरी थी, दूसरा कोई चारा न था, राजा वहीं रुक गया।
बातचीत हुई, मालूम पड़ा कि वह एक लकड़हारा है, जंगल से लकड़ी काट कर, उसका कोयला बनाकर बेचता है।
भूख और थकान से बेहाल राजा, भूमि पर ही सो गया। सुबह सैनिक आए, और राजा को लिवा ले गए।
दरबार में पहुँचते ही राजा ने उस लकड़हारे को बुलवा कर, अपनी जान बचने की खुशी में, एक सौ एकड़ का चंदन का बाग उसे ईनाम में दे दिया।
इस घटना के कईं वर्षों बाद, राजा को उस लकड़हारे की याद आई। मंत्रियों से कहा कि उसे ढूंढो, पता करो कि वो कहाँ है और क्या मौज ले रहा है?
मंत्रियों ने उसे बहुत जगह खोजा। और उनकी हैरानी की कोई सीमा न रही जब उन्होंने उस लकड़हारे को उसी जंगल की, उसी टूटी फूटी झोपड़ी में, उसी हाल में पाया।
उसे राजा के सामने दरबार में पेश किया गया। राजा ने उसकी अवस्था देखकर, बड़ी हैरानी से, उससे पूछा- भले आदमी! तुझे सौ एकड़ का चंदन का बाग दिया गया था। चंदन की तो एक ही लकड़ी की कीमत भी हजारों रुपए होती है। तब भी तूं वैसे के वैसा ही रहा? आखिर तूंने उस बाग का किया क्या?
लकड़हारा बोला- महाराज! मैंने उसकी लकड़ी का भी कोयला बना बनाकर बेच दिया।
राजा ने अपना सिर पीट लिया और कहा- मूर्ख! चंदन की लकड़ी का भी कोई कोयला बनाता है?
लोकेशानन्द कहता है कि हम भी उस लकड़हारे जैसे ही मूर्ख हैं। हम वही वही करते हैं, जो हम अभी तक करते आए हैं।
संत लाख कृपा करते हैं, कीमती से कीमती ज्ञान की बात बताते हैं, पर हम उन बातों की वास्तविक कीमत न जानने के कारण, उनका लाभ नहीं उठा पाते। हम भी उनका कोयला ही बनाते हैं।
Bhakt Ashish Tyagi Delhi: क्रपया ज्ञानीजन मेरे एक मन मे आ रहे विचार को मुझे समझाय।
भगवान राम विष्णु जी के अवतार थे या महाविष्णु जी के।
ओर ऐसा क़ बोला जाता है कि जो काम भगवान राम भी नही कर सकते थे वो कम राम नाम जाप हो जाता है।
क्रपया उचित जवाब दे । ओर बहस के पात्र ना बने।
आपको मेरा ह्दय से प्रड़ाम 🙏🙏
क्या आप यह जानते हैं कि विष्णु या महाविष्णु में अंतर क्या है।
क्या महा लगा लेने से कोई वस्तु विशालकाय हो जाती है।
यही मिथक टीवी में दिखाया जाता है
यह सत्य है ब्रह्मा विष्णु महेश यह भी पद है।
इस तरह की तमाम गणनाएं नेट पर मौजूद है।
देखो मेरा यह मानना है इस महा लगा देने से उस शक्ति का अर्थ हो जाता है निराकार से।
क्योंकि ब्रह्म का वास्तविक स्वरूप निराकार ही है और आवश्यकता पड़ने पर वह साकार रूप में भी है।
मानव इतना शक्तिशाली है कि वह अपनी आराधनाओं से प्रार्थना उसे उस निराकार ब्रह्म को रूप धारण करने को बाध्य कर देता है।
और यह भी सत्य है कि मोक्ष हेतु निर्वाण हेतु हमको निराकार के अनुभव और ज्ञान होना चाहिए।
जहां तक मुझे समझाया गया कृष्ण के द्वारा की महा लगाने से वस्तु असीमित हो जाती है उसकी कोई सीमा नहीं होती है इसलिए उसको महा कह देते हैं।
यदि हम मात्र गणेश कहैं। तो साकार प्रतिमूर्ति है और साकार की सीमाएं होती है लेकिन निराकार अनंत होता है।
यदि हम महागणेश के हैं तो उस साकार के निराकार के उनके अर्थ है इसलिए उसको कथानक में आकार में बड़ा कर देते हैं।
सर्वस्व ब्रह्म सर्वत्व ब्रह्मा।
सृष्टि का कोई भी कण बिना ब्रह्म के नहीं है जहां तक हम सोच सकते हैं उसके आगे और पीछे ब्रह्म ही है।
राम नाम इतना अधिक लिया गया है कि यह सिद्ध हो चुका है।
यह अंतर्मुखी होने के एक माध्यम के रूप में स्थापित हो चुका है।
राम के लोगों ने कई अर्थ बताएं हैं और यह वास्तव में हमारे शरीर के अग्नि तत्व को इंगित करता है। क्योंकि जो इसका बीज मंत्र है वह अग्नि तत्व का मंत्र है।
मेरा तो यह भी मानना है यदि आप अपने नाम का जाप करें किसी भी शब्द का जाप करें तो उसमें समय लग सकता है क्योंकि शायद वह सिद्ध ना हुआ हो किंतु आप उसके द्वारा भी अंतर्मुखी हो सकते हैं।
क्योंकि अक्षर ब्रह्म।
साथ ही जो वेद महावाक्य का सार वाक्य है सर्व खलु इदम् ब्रह्म।
वह भी हमें यही बताता है और समझाता है।
रामकथा का सुनना या कहना रामनाम का जाप करना एक ही चीज है क्योंकि दोनों में आप का भाव भक्ति का होता है।
नवधा भक्ति में भी यह चीज देखी जा सकती है।
देखो विष्णु हमारी पैदा होने से लेकर मृत्यु तक के मालिक हैं लक्ष्मी उनकी पत्नी है क्योंकि लक्ष्मी का जो आवश्यकता है वह जीवित शरीर को ही होती है।
अत: मनुष्य रूप में अवतार लेने का कार्य कृष्ण का ही है विष्णु का ही है।
आपने पढ़ा होगा नर के साथ नारायण लिखा है यानी विष्णु का रूप लिखा है नर के साथ ब्रह्मा या शिव नहीं लिखा है।
हर कार्य के लिए एक शक्ति का निर्माण हुआ है जिसको की उस महामाया ने निर्मित किया जिसको हम महाकाली के रूप से जानते हैं। जो निराकार है।
जब मां काली जो साकार है अपने सभी दसों विद्धाओं को रूपों को समेट लेती है तो वह महाकाली बन जाती हैं।
एक बात और जब तक हमारा द्वैत पक्का नहीं होगा वह सिद्ध नहीं होगा तब तक हम अद्वैत को नहीं समझ सकते।
सनातन में इन दो विचारधाराओं को लेकर परस्पर टकराव होते रहते हैं जोकि वास्तव में कुछ हद तक मूर्खता को प्रदर्शित करते हैं।
जब सर्वस्व ब्रह्म सर्वत्र ब्रह्म है तो उससे छूटा क्या है।
अब देखो भगवान आदि गुरु शंकराचार्य ने जगत मिथ्या ब्रह्म सत्य। उनके मानने वाली आंख बंद करके इस बात को बिना अनुभव किए बिना जाने चिल्लाते रहते हैं।
उन्होंने यह बात क्यों बोला इस पर कोई जानने की कोशिश नहीं करता।
वही माधवाचार्य रामानुजम ने बोला जगत भी सत्य ब्रह्म ही सत्य।
और माधवाचार्य तो सब कुछ कुछ बता कर वहीं पर समाप्त कर दिया।
इन दोनों के मानने वालों के बीच में परस्पर विवाद होते रहते हैं।
लेकिन मेरे विचार से दोनों ने एक ही बात कही है अब यह हमारी सोच पर हैं कि हम उसके क्या अर्थ निकाले।
"MMSTM समवैध्यावि ध्यान की वह आधुनिक विधि है। कोई
चाहे नास्तिक हो आस्तिक हो, साकार, निराकार कुछ भी हो बस
पागल और हठी न हो तो उसको ईश अनुभव होकर रहेगा बस समयावधि कुछ बढ सकती है। आपको
प्रतिदिन लगभग 40 मिनट देने होंगे और आपको 1 दिन से लेकर 10 वर्ष का समय लग सकता
है। 1 दिन उनके लिये जो सत्वगुणी और ईश भक्त हैं। 10 साल बगदादी जैसे हत्यारे के
लिये। वैसे 6 महीने बहुत है किसी आम आदमी के लिये।" देवीदास विपुल
जय गुरूदेव । जय महाकाली
चर्चा, कुण्डलनी जागरण, योग और ब्राह्मण
चर्चा, कुण्डलनी जागरण, योग और ब्राह्मण
सनातन पुत्र देवीदास विपुल “खोजी”
Thursday, September 3, 2020
योग की वास्तविकता और गलत धारणायें
योग की वास्तविकता और गलत धारणायें
सनातन पुत्र देवीदास विपुल “खोजी”
यक्ष तत्व व्याख्या
प्रायः लोग योग का अर्थ पेट को पिचकाना या
कलाबाजी खाना या सर्कस के नट की तरह छलांगे मारना ही समझते है। इसमें योग की कोई गलती नही है जिनको नही पता उनको यही सब योग के नाम पर बताया जा रहा है इसमें
उनकी क्या गलती है। कारण स्पष्ट है
जो बोल रहे है उनको खुद नही पता योग क्या है बस सुना है तो कह रहे है और सिखा रहे हैं।
वास्तव में पहले भारत मे शरीर को मजबूत और स्वस्थ्य करने के लिए विनिन्न आसनों और प्रणायाम के द्वारा उसको इस लायक बनाते थे
कि वह शक्ति सहने लायक हो जाये।
इसी क्रम में पातञ्जलि महाराज ने योग प्राप्त करने हेतु आठ अंग यानी हिस्से बताये। जिनमे 5 वाहीक और तीन आंतरिक है। 5 वाहीक रूप से सिध्द होने के बाद गुरू देखते थे कि शिष्य का शरीर योग्य
हुआ तो उसको शक्तिपात के द्वारा
शक्ति प्रवाहित कर कुण्डलनी जागृत करते
थे। जो सामान्य मन्त्र देते देते
थे वह भी धारणा और ध्यान में द्वारा समाधि तक पहुँच जाते थे। कुल मिलाकर शिष्य की गुणवत्ता बहुत आवश्यक थी।
समय बीतता गया उपयुक्त शिष्यों का अभाव होने लगा। और विद्द्यायो को मरने का खतरा पैदा होने लगा। इसमें एक
कारण आक्रांताओं का आक्रमण और
भारत मे बढ़ता अज्ञानी ब्रह्माणवाद साथ मे छुआछूत जो स्वर्णिम भारत का एक काला युग बनने लगा। अतः अनुपयुक्त को भी
दीक्षाएं मिलने लगी। जरा से बैठने में कमर दर्द । चलेगा भाई लेट कर कर लो। यह मजबूरियां थी। ऐसी ही पतन होता गया और बिना गुरू परम्परा के गुरू होने लगे। इस
कारण योग और भृमित हुआ।
यहाँ तक कि जैसे आप दिल्ली जाने वाली कई ट्रैन में बैठे कि हो गया आप
दिल्ली पहुँच गए। कुछ वैसे ही अंतर्मुखी होने की विधियों के नामकरण कर उनके आगे योग लगा दिया। जैसे अष्टांग योग में पाँच न करो सिर्फ
तीन करो और आंख से त्राटक करो तो बन गया राजयोग।
अब चाहे अनुभव हो या न हो यदि तुम कर रहे हो तो राजयोगी।
कर्ण के द्वारा शब्द तो शब्द योग। नादयोग । मंत्रयोग। तमाम नामकरण हो गए।
जबकि ट्रेन दिल्ली गई नही रास्ते मे है पर दिल्ली पहुंचने का शोर। यही होता
है योग में।
किसी ने पेट को चला लिया तो बोला गया अरे तू तो योगी हो गया।
योग को केवल कसरत और स्वास्थ्य से जोड़ दिया।
यदि योग को क्रमवार समझा जाये। तो सबसे पहले वेदांत ने साधारण रूप में समझाया। जब किसी भी अंतर्मुखी विधि को करते करते " (तुम्हारी)
आत्मा में परमात्मा की एकात्मकता
का अनुभव हो" तो समझो योग हुआ। मेरे विचार से जब "द्वैत से अद्वैत का अनुभव हो तो समझो योग" ।
अब इसकी अवस्थाये क्या है वह समझे। साकार
आराधना वाले को जब दर्शन होते है। तब साकार परिपक्व होता है। और यदि देव आपको स्पर्श कर दे तो आपकी देव दीक्षा हो जाती है। इसी के आगे पीछे आपको अहम ब्रह्मास्मि के अनुभव हो जाते है तो समझो योग हो
गया।
यहाँ पर एक बात ध्यान देनेवाली है कि यदि यही अनुभव यानि अहम ब्रह्मास्मि का अनुभव निराकार को होगा तो वह भ्रमित हो जाता है क्योंकि वह किसी को मानता नही। फिर वो ही मूर्तिपूजा साकार का खंडन करने की मूर्खता कर बैठता है।
मोहम्मद साहब ने साकार मूर्ति पूजा का खंडन किया। ओशो तो अपने को भगवान समझ महा पाप कर बैठे। वही साकार वाला यह प्रभु की लीला समझकर और अधिक समर्पित ही जाता है। अब आगे यह सब अनुभूति मात्र कुछ मिनट की होती है पर यह ज्ञान और अनुभव जीवन
भर चलता है।
इसको आगे पातञ्जलि महाराज ने समझाया। वेदांत घटना घटित होने के बाद योग का अभ्यास और पहिचान क्या है
"चित्त में वृत्ति का निरोध" यानी हमारे भीतर संस्कार उदित न हो। हम निष्काम भाव से बिना कर्म में लिप्त हुए। जगत के प्रति आसक्त हुए बिना कर्म करे। तब संस्कार संचित नही होंगे। यह हो जाएगा कर्म योग।
जिसको श्रीमद्भगवद्गीता में कहा योगी के लक्षण। पहला हर कार्य को कुशलता से करेगा। सबमे मुझको मुझमे सबको देखेगा। सुख दुख में स्थिर
रहेगा। और उसकी बुद्धि सदा मुझमे स्थिर रहेगी।
यानी वह स्थिरबुद्दी स्थितप्रज्ञ। जिसकी प्रज्ञा यानी आंतरिक बुद्धि भी ईश में स्थित हो जाती है।
इसी बात को तुलसीदास ने कहा "जा पावे संतोष धन सब धन धूरि समान"। यानी जिसमे संतोष हो हर हाल में खुश वो योगी।
वास्तव में योग केवल तीन ही है। भक्ति कर्म और ज्ञान। और यदि 24 घण्टे ये ही भाव कि हम ब्रह्मास्मि तो सांख्य योग।
बाकी सब नाम है योग नही।
यानि पहले भक्त बनो फिर दर्शन लो फिर अहम ब्रह्मास्मि का अनुभव लो फिर साकार के द्वारा ही निराकार का अनुभव
लो तो पूर्ण ज्ञान। और फिर
ज्ञान योग पैदा होता है।
मैं समझता हूँ इससे अधिक साफ साफ मेरे लिए तो बता पाना मुश्किल है। अब आप ज्ञानीजन टिप्पणी कर मुझे वास्तविकता का ज्ञान
दे।
कुछ उत्तर जो “आत्म अवलओकन और योग" में ग्रुप में दिये:
जो दूसरे की पद्दति को गलत बोले और बोले वो सही वह अपूर्ण ही है।
जो दूसरे की पद्दति को गलत बोले और बोले वो सही वह अपूर्ण ही है।
बुध्द ने साकार का मूर्ति पूजा का खण्डन किया। अतः अपूर्ण।
ओशो ने अपने को भगवान बोला अतः पॉपी। दण्ड भोगा। जेल में सड़ कर मरे।
दूसरों की उपासना की मजाक बनानेवाला अज्ञानी ही होता है।
तर्क वितर्क समय के साथ परिवर्तित होता है अतः यह व्यर्थ की वस्तु है।
वह अज्ञान था। सनातन ने नही कहा।
बुध्द ने खण्डन अधिक किया।
खण्डन दूसरों को मूर्ख साबित करना है।
ओशो को जहर भी उनके शिष्य ने दिया था।
देखो मित्रो यह व्यर्थ की बहस है। मरते समय ओशो ने स्वीकार किया वह भगवान
नही है उसे भरम हुआ था।
मेरा सीधा मानना है जो दूजे के मार्ग को गलत समझे वह महा अज्ञानी।
जो अपने को भगवान बोले वह महा पापी।
बस सीधा सा सिध्दांत।
मुझे किसी ओशो भक्त ने ही बताया था।
पर मूर्तिपूजा का मजाक बनाया।
दूसरे बुद्द आत्म मय कोष के ऊपर दुःख मय कोष मानते है। जबकि सनातन आनन्दमय कोष
मानता है। और मैं भी यही मानता हूँ।
बन्दा बैरागी का सर आधा काट दिया था औरंगजेब ने, पर वह नही झुके।
मित्रो अब यह व्यर्थ का विवाद बन्द करो औरो को पसन्द नही। आप सब सही है अपनी जगह पर चूंकि यह आपका अनुभव
है। अतः दूसरे पर अपने विचार थोपने
से कुछ लाभ न होगा।
मेरा कहना है। करो और करो। बस व्यर्थ विवाद में मत पड़ो।
मैं जो सोंचता हूँ वह औरो के लिए गलत हो सकता है।
मैं बुध्द जीसस और मोहहमद तीनों को अपूर्ण ही मानता हूँ। मेरे पास तर्क है और कसौटी है पर कोई फायदा नही।
मेरी सोंच मेरी आपकी आपकी।
देखो मित्र मैं गुरू नही प्रवचक
नही और न ही सन्यासी हूँ। मैं एक खोजी हूँ। जिनको अपने अनुभवों से भय होने कारण साधनाये छोड़ देते है या जिनके भीषण अनुभव होते है उनको सही मार्ग
दिखाता हूँ।
जो नकली गुरू दुकानदार है उनको पर्दाफाश करता हूँ।
जो अपने नाम के आगे बड़े बड़े पट्ट लगाते है उनसे पिलता हूँ।
जिनको सदगुरू की आवश्यकता होती है उनको अनुभव के अनुसार सदगुरूओं तक
पहुचाता हूँ।
बिना अनुभव के ज्ञानियों से किताबी बहस शुरू होने के पहले ही हार मान लेता
हूँ। बकवास का अंत नही। अनुभव की सीमा नही।
मैं सनातन का सेवक हूँ।
किसी से पूछो तुम कैसे देखते
हो वह कहेगा आखों से। यानी आंख फोड़ दे तो नही दिखेगा। पर जब मनुष्य को मर जाना कहते है तो न देख पाता न सुन पाता
कुछ कर्म नही कर पाता। इसका क्या
अर्थ हुआ। जो शक्ति आपसे कर्म करवा रही थी वह चली गई। शरीर के बाहर। इसी को आत्मा कहते है। विज्ञान वाइटल फोर्स
कहता है।
इसी आत्मा को जानना है आत्मबोध। जब हमें यह अनुभव होता है कि कर्ता हम नही वह तो कोई और है तो आत्मबोध होता
है।
मनुष्य प्रायः इस भौतिक जगत में इतना लिप्त हो जाता है कि उसे ध्यान नही रहता कि वह कौन है। कौन उसके कार्य
करता है। वह सोंचता है मैं ज्ञानी
मैं कर्ता मैं भर्ता यही कारण उसकी भटकन बन जाता है। बाद में वह वाहीक जगत में सुख खोजता है।
जो मनुष्य अंतर्मुखी होने का प्रयास करेगा। उसको आज नही तो कल आत्मबोध हो ही जायेगा। mmstm इसी लिए निर्मित हुई है कि आदमी आत्मबोध करे।
सरल सहज मार्ग प्रत्येक मनुष्य के लिए अलग अलग है। इस पर विस्तार से चर्चा लेख अन्तर्मुखी कैसे हो। इस मे
समझाई गई है।
वैसे मन्त्र जप सबसे सस्ता सुदर टिकाऊ मार्ग है।
हम अपने को ज्ञानी और दूसरे को मूर्ख समझने की भूल कर बैठते है यही अज्ञानता की जन्मदाता है।
हम अपने को ज्ञानी और दूसरे को मूर्ख समझने की भूल कर बैठते है यही अज्ञानता की जन्मदाता है।
हम सही दूजे गलत यह मूर्खता है।
जब तक हम मूर्ख नही बनेंगे। जगत से
कुछ सीख न पाएंगे।
जिसकी कुण्डलनी जागृत हो जाती वह यह सब आरम्भिक प्रश्नों को अनुभव कर ब्रह्मज्ञान की ओर प्रशस्त हो
जाता है।
आपके प्रश्नों के साधारण तरीक़े उत्तर।
आप ग्रुप में अपनी धर्म की दुकान जिसे करोड़ो लोगो को मूर्ख बनाकर सनातन की धज्जियां उड़ाकर पूर्वाग्रही लोग
चला रहे है। उसके प्रचार हेतु विभिन्न ग्रुप में
शामिल होते है। आप इस ग्रुप में किसी को भी प्रभावित नही कर पाएंगे।
आप गुरू मानते नही।
आप कुण्डनलनी मानते नही।
और दूसरो को त्राटक को राजयोग बताकर पागल बनाकर छोड़ देते है।
काम को आप गलत मानते है पति पत्नी
को भाई बहन बनाते है।
यह सोंचो तुम्हारे जनक ने क्या पाप किया जो तुम आये थे।
सही है आतंकवाद हर धर्म जाती में होती है। कही कम कही ज्यादा। कही धर्म के
नाम पर कही भाषा के नाम पर कही गरीबी अमीरी के नाम पर।
नक्सलवाद क्या है जो अपनी तानाशाही चलाने हेतु आतंक करता है। हिटलर ने जाति के नाम पर हिंसा की।
मुसोलनी ने गरीबी अमीरी के नाम पर।
आज मुस्लिम आतंकवादी धर्म के नाम पर। 1984 के दंगे सिर्फ कौम के नाम पर। बंगाल में केरल में धर्म के नाप
हिंसाएं हो रही है।
दुनिया मे सबसे अधिक हिंसा धर्म के नाम पर और हत्याएं भी धर्म के नाप होती है।
सनातन ही सभी विधियों का जन्म दाता है।
Janak
kaviratna: विपुल भाई, आचार्य रजनीश की आत्मा को बुलाने के बारे में मैंने प्रतिष्ठित पत्रिका कादम्बिनी में एक लेख में कुछ पढ़ा था। आज वो पत्रिका मेरे हाथ
लग गई।सन 1992 का अंक है। उसका मुखपृष्ठ, और वो लेख, दोनों की स्कैन कॉपी यहाँ दे रहा
हूँ।
यार यह बताओ ओशो को इसके मतलब मुक्ति नही मिली।
मेरे हिसाब से वह प्रेत के रूप में भटक रहा है। एक कमरे में बन्द है।
इस बात का कारण यह हो सकता है बढ़ती प्रसिध्दी और धन के साथ माया अपना प्रभाव डालने में सफल हो जाती है।
विभिन्न प्रपंचो में उलझे रहने के कारण स्वयं को तप का साधन का समय निकालना कठिन होता जाता है। अतः वह सन्त फिसलने लगता है। माया के अधीन होकर वह मनमाना
व्यवहार करने लगता है। कभी कभी कानून में कई बार बचने
के बाद भी फंस जाता है।
इसी लिए स्वामी शिवोम तीर्थ जी महाराज प्रचार प्रसार और शो बाजी के बिल्कुल
खिलाफ थे।
यहाँ तक प्रवचन में सजावट अधिक हो गई तो जाते ही नही थे।
उनका मत था। आश्रम में यदि तेल साबुन बनना चालू करोगे तो यह व्यापार पर अधिक साधन और शिष्य की उन्नति पर
ध्यान नही देगा।
महाराज जी कहते थे पहले एक फिर दो और कुछ वर्षों बाद समाधि दुकानदारी हो
जाएगी।
मेरा अनुभव है मैं जरा सा ग्रुप सम्भाल नही पा रहा हूँ। मुझे मेरी साधना हेतु समय नही निकल पाता। सोने के समय
को काटकर कर पाता हूँ। वह भी बिगड़ गई है। क्योंकि
जगत के व्यवहार। तो इन गुरुओ को समय कब मिलता होगा।
वहाँ तो गुरू मो मर्यादा में भी रहना होता है।
भाई इसी लिए मां शक्ति ने शिव कृपा से mmstm बनवाकर आशीष दिया। जाओ
सब घर पर करो। कोई गुरु चेला का चक्कर नही। जब समय होगा गुरू मिल जाएगा बसअपने उत्थान पर ध्यान दो।
"MMSTM समवैध्यावि ध्यान की वह आधुनिक विधि है। कोई
चाहे नास्तिक हो आस्तिक हो, साकार, निराकार कुछ भी हो बस
पागल और हठी न हो तो उसको ईश अनुभव होकर रहेगा बस समयावधि कुछ बढ सकती है। आपको
प्रतिदिन लगभग 40 मिनट देने होंगे और आपको 1 दिन से लेकर 10 वर्ष का समय लग सकता
है। 1 दिन उनके लिये जो सत्वगुणी और ईश भक्त हैं। 10 साल बगदादी जैसे हत्यारे के
लिये। वैसे 6 महीने बहुत है किसी आम आदमी के लिये।" देवीदास विपुल
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