योग की वास्तविकता और गलत धारणायें
सनातन पुत्र देवीदास विपुल “खोजी”
यक्ष तत्व व्याख्या
प्रायः लोग योग का अर्थ पेट को पिचकाना या
कलाबाजी खाना या सर्कस के नट की तरह छलांगे मारना ही समझते है। इसमें योग की कोई गलती नही है जिनको नही पता उनको यही सब योग के नाम पर बताया जा रहा है इसमें
उनकी क्या गलती है। कारण स्पष्ट है
जो बोल रहे है उनको खुद नही पता योग क्या है बस सुना है तो कह रहे है और सिखा रहे हैं।
वास्तव में पहले भारत मे शरीर को मजबूत और स्वस्थ्य करने के लिए विनिन्न आसनों और प्रणायाम के द्वारा उसको इस लायक बनाते थे
कि वह शक्ति सहने लायक हो जाये।
इसी क्रम में पातञ्जलि महाराज ने योग प्राप्त करने हेतु आठ अंग यानी हिस्से बताये। जिनमे 5 वाहीक और तीन आंतरिक है। 5 वाहीक रूप से सिध्द होने के बाद गुरू देखते थे कि शिष्य का शरीर योग्य
हुआ तो उसको शक्तिपात के द्वारा
शक्ति प्रवाहित कर कुण्डलनी जागृत करते
थे। जो सामान्य मन्त्र देते देते
थे वह भी धारणा और ध्यान में द्वारा समाधि तक पहुँच जाते थे। कुल मिलाकर शिष्य की गुणवत्ता बहुत आवश्यक थी।
समय बीतता गया उपयुक्त शिष्यों का अभाव होने लगा। और विद्द्यायो को मरने का खतरा पैदा होने लगा। इसमें एक
कारण आक्रांताओं का आक्रमण और
भारत मे बढ़ता अज्ञानी ब्रह्माणवाद साथ मे छुआछूत जो स्वर्णिम भारत का एक काला युग बनने लगा। अतः अनुपयुक्त को भी
दीक्षाएं मिलने लगी। जरा से बैठने में कमर दर्द । चलेगा भाई लेट कर कर लो। यह मजबूरियां थी। ऐसी ही पतन होता गया और बिना गुरू परम्परा के गुरू होने लगे। इस
कारण योग और भृमित हुआ।
यहाँ तक कि जैसे आप दिल्ली जाने वाली कई ट्रैन में बैठे कि हो गया आप
दिल्ली पहुँच गए। कुछ वैसे ही अंतर्मुखी होने की विधियों के नामकरण कर उनके आगे योग लगा दिया। जैसे अष्टांग योग में पाँच न करो सिर्फ
तीन करो और आंख से त्राटक करो तो बन गया राजयोग।
अब चाहे अनुभव हो या न हो यदि तुम कर रहे हो तो राजयोगी।
कर्ण के द्वारा शब्द तो शब्द योग। नादयोग । मंत्रयोग। तमाम नामकरण हो गए।
जबकि ट्रेन दिल्ली गई नही रास्ते मे है पर दिल्ली पहुंचने का शोर। यही होता
है योग में।
किसी ने पेट को चला लिया तो बोला गया अरे तू तो योगी हो गया।
योग को केवल कसरत और स्वास्थ्य से जोड़ दिया।
यदि योग को क्रमवार समझा जाये। तो सबसे पहले वेदांत ने साधारण रूप में समझाया। जब किसी भी अंतर्मुखी विधि को करते करते " (तुम्हारी)
आत्मा में परमात्मा की एकात्मकता
का अनुभव हो" तो समझो योग हुआ। मेरे विचार से जब "द्वैत से अद्वैत का अनुभव हो तो समझो योग" ।
अब इसकी अवस्थाये क्या है वह समझे। साकार
आराधना वाले को जब दर्शन होते है। तब साकार परिपक्व होता है। और यदि देव आपको स्पर्श कर दे तो आपकी देव दीक्षा हो जाती है। इसी के आगे पीछे आपको अहम ब्रह्मास्मि के अनुभव हो जाते है तो समझो योग हो
गया।
यहाँ पर एक बात ध्यान देनेवाली है कि यदि यही अनुभव यानि अहम ब्रह्मास्मि का अनुभव निराकार को होगा तो वह भ्रमित हो जाता है क्योंकि वह किसी को मानता नही। फिर वो ही मूर्तिपूजा साकार का खंडन करने की मूर्खता कर बैठता है।
मोहम्मद साहब ने साकार मूर्ति पूजा का खंडन किया। ओशो तो अपने को भगवान समझ महा पाप कर बैठे। वही साकार वाला यह प्रभु की लीला समझकर और अधिक समर्पित ही जाता है। अब आगे यह सब अनुभूति मात्र कुछ मिनट की होती है पर यह ज्ञान और अनुभव जीवन
भर चलता है।
इसको आगे पातञ्जलि महाराज ने समझाया। वेदांत घटना घटित होने के बाद योग का अभ्यास और पहिचान क्या है
"चित्त में वृत्ति का निरोध" यानी हमारे भीतर संस्कार उदित न हो। हम निष्काम भाव से बिना कर्म में लिप्त हुए। जगत के प्रति आसक्त हुए बिना कर्म करे। तब संस्कार संचित नही होंगे। यह हो जाएगा कर्म योग।
जिसको श्रीमद्भगवद्गीता में कहा योगी के लक्षण। पहला हर कार्य को कुशलता से करेगा। सबमे मुझको मुझमे सबको देखेगा। सुख दुख में स्थिर
रहेगा। और उसकी बुद्धि सदा मुझमे स्थिर रहेगी।
यानी वह स्थिरबुद्दी स्थितप्रज्ञ। जिसकी प्रज्ञा यानी आंतरिक बुद्धि भी ईश में स्थित हो जाती है।
इसी बात को तुलसीदास ने कहा "जा पावे संतोष धन सब धन धूरि समान"। यानी जिसमे संतोष हो हर हाल में खुश वो योगी।
वास्तव में योग केवल तीन ही है। भक्ति कर्म और ज्ञान। और यदि 24 घण्टे ये ही भाव कि हम ब्रह्मास्मि तो सांख्य योग।
बाकी सब नाम है योग नही।
यानि पहले भक्त बनो फिर दर्शन लो फिर अहम ब्रह्मास्मि का अनुभव लो फिर साकार के द्वारा ही निराकार का अनुभव
लो तो पूर्ण ज्ञान। और फिर
ज्ञान योग पैदा होता है।
मैं समझता हूँ इससे अधिक साफ साफ मेरे लिए तो बता पाना मुश्किल है। अब आप ज्ञानीजन टिप्पणी कर मुझे वास्तविकता का ज्ञान
दे।
कुछ उत्तर जो “आत्म अवलओकन और योग" में ग्रुप में दिये:
जो दूसरे की पद्दति को गलत बोले और बोले वो सही वह अपूर्ण ही है।
जो दूसरे की पद्दति को गलत बोले और बोले वो सही वह अपूर्ण ही है।
बुध्द ने साकार का मूर्ति पूजा का खण्डन किया। अतः अपूर्ण।
ओशो ने अपने को भगवान बोला अतः पॉपी। दण्ड भोगा। जेल में सड़ कर मरे।
दूसरों की उपासना की मजाक बनानेवाला अज्ञानी ही होता है।
तर्क वितर्क समय के साथ परिवर्तित होता है अतः यह व्यर्थ की वस्तु है।
वह अज्ञान था। सनातन ने नही कहा।
बुध्द ने खण्डन अधिक किया।
खण्डन दूसरों को मूर्ख साबित करना है।
ओशो को जहर भी उनके शिष्य ने दिया था।
देखो मित्रो यह व्यर्थ की बहस है। मरते समय ओशो ने स्वीकार किया वह भगवान
नही है उसे भरम हुआ था।
मेरा सीधा मानना है जो दूजे के मार्ग को गलत समझे वह महा अज्ञानी।
जो अपने को भगवान बोले वह महा पापी।
बस सीधा सा सिध्दांत।
मुझे किसी ओशो भक्त ने ही बताया था।
पर मूर्तिपूजा का मजाक बनाया।
दूसरे बुद्द आत्म मय कोष के ऊपर दुःख मय कोष मानते है। जबकि सनातन आनन्दमय कोष
मानता है। और मैं भी यही मानता हूँ।
बन्दा बैरागी का सर आधा काट दिया था औरंगजेब ने, पर वह नही झुके।
मित्रो अब यह व्यर्थ का विवाद बन्द करो औरो को पसन्द नही। आप सब सही है अपनी जगह पर चूंकि यह आपका अनुभव
है। अतः दूसरे पर अपने विचार थोपने
से कुछ लाभ न होगा।
मेरा कहना है। करो और करो। बस व्यर्थ विवाद में मत पड़ो।
मैं जो सोंचता हूँ वह औरो के लिए गलत हो सकता है।
मैं बुध्द जीसस और मोहहमद तीनों को अपूर्ण ही मानता हूँ। मेरे पास तर्क है और कसौटी है पर कोई फायदा नही।
मेरी सोंच मेरी आपकी आपकी।
देखो मित्र मैं गुरू नही प्रवचक
नही और न ही सन्यासी हूँ। मैं एक खोजी हूँ। जिनको अपने अनुभवों से भय होने कारण साधनाये छोड़ देते है या जिनके भीषण अनुभव होते है उनको सही मार्ग
दिखाता हूँ।
जो नकली गुरू दुकानदार है उनको पर्दाफाश करता हूँ।
जो अपने नाम के आगे बड़े बड़े पट्ट लगाते है उनसे पिलता हूँ।
जिनको सदगुरू की आवश्यकता होती है उनको अनुभव के अनुसार सदगुरूओं तक
पहुचाता हूँ।
बिना अनुभव के ज्ञानियों से किताबी बहस शुरू होने के पहले ही हार मान लेता
हूँ। बकवास का अंत नही। अनुभव की सीमा नही।
मैं सनातन का सेवक हूँ।
किसी से पूछो तुम कैसे देखते
हो वह कहेगा आखों से। यानी आंख फोड़ दे तो नही दिखेगा। पर जब मनुष्य को मर जाना कहते है तो न देख पाता न सुन पाता
कुछ कर्म नही कर पाता। इसका क्या
अर्थ हुआ। जो शक्ति आपसे कर्म करवा रही थी वह चली गई। शरीर के बाहर। इसी को आत्मा कहते है। विज्ञान वाइटल फोर्स
कहता है।
इसी आत्मा को जानना है आत्मबोध। जब हमें यह अनुभव होता है कि कर्ता हम नही वह तो कोई और है तो आत्मबोध होता
है।
मनुष्य प्रायः इस भौतिक जगत में इतना लिप्त हो जाता है कि उसे ध्यान नही रहता कि वह कौन है। कौन उसके कार्य
करता है। वह सोंचता है मैं ज्ञानी
मैं कर्ता मैं भर्ता यही कारण उसकी भटकन बन जाता है। बाद में वह वाहीक जगत में सुख खोजता है।
जो मनुष्य अंतर्मुखी होने का प्रयास करेगा। उसको आज नही तो कल आत्मबोध हो ही जायेगा। mmstm इसी लिए निर्मित हुई है कि आदमी आत्मबोध करे।
सरल सहज मार्ग प्रत्येक मनुष्य के लिए अलग अलग है। इस पर विस्तार से चर्चा लेख अन्तर्मुखी कैसे हो। इस मे
समझाई गई है।
वैसे मन्त्र जप सबसे सस्ता सुदर टिकाऊ मार्ग है।
हम अपने को ज्ञानी और दूसरे को मूर्ख समझने की भूल कर बैठते है यही अज्ञानता की जन्मदाता है।
हम अपने को ज्ञानी और दूसरे को मूर्ख समझने की भूल कर बैठते है यही अज्ञानता की जन्मदाता है।
हम सही दूजे गलत यह मूर्खता है।
जब तक हम मूर्ख नही बनेंगे। जगत से
कुछ सीख न पाएंगे।
जिसकी कुण्डलनी जागृत हो जाती वह यह सब आरम्भिक प्रश्नों को अनुभव कर ब्रह्मज्ञान की ओर प्रशस्त हो
जाता है।
आपके प्रश्नों के साधारण तरीक़े उत्तर।
आप ग्रुप में अपनी धर्म की दुकान जिसे करोड़ो लोगो को मूर्ख बनाकर सनातन की धज्जियां उड़ाकर पूर्वाग्रही लोग
चला रहे है। उसके प्रचार हेतु विभिन्न ग्रुप में
शामिल होते है। आप इस ग्रुप में किसी को भी प्रभावित नही कर पाएंगे।
आप गुरू मानते नही।
आप कुण्डनलनी मानते नही।
और दूसरो को त्राटक को राजयोग बताकर पागल बनाकर छोड़ देते है।
काम को आप गलत मानते है पति पत्नी
को भाई बहन बनाते है।
यह सोंचो तुम्हारे जनक ने क्या पाप किया जो तुम आये थे।
सही है आतंकवाद हर धर्म जाती में होती है। कही कम कही ज्यादा। कही धर्म के
नाम पर कही भाषा के नाम पर कही गरीबी अमीरी के नाम पर।
नक्सलवाद क्या है जो अपनी तानाशाही चलाने हेतु आतंक करता है। हिटलर ने जाति के नाम पर हिंसा की।
मुसोलनी ने गरीबी अमीरी के नाम पर।
आज मुस्लिम आतंकवादी धर्म के नाम पर। 1984 के दंगे सिर्फ कौम के नाम पर। बंगाल में केरल में धर्म के नाप
हिंसाएं हो रही है।
दुनिया मे सबसे अधिक हिंसा धर्म के नाम पर और हत्याएं भी धर्म के नाप होती है।
सनातन ही सभी विधियों का जन्म दाता है।
Janak
kaviratna: विपुल भाई, आचार्य रजनीश की आत्मा को बुलाने के बारे में मैंने प्रतिष्ठित पत्रिका कादम्बिनी में एक लेख में कुछ पढ़ा था। आज वो पत्रिका मेरे हाथ
लग गई।सन 1992 का अंक है। उसका मुखपृष्ठ, और वो लेख, दोनों की स्कैन कॉपी यहाँ दे रहा
हूँ।
यार यह बताओ ओशो को इसके मतलब मुक्ति नही मिली।
मेरे हिसाब से वह प्रेत के रूप में भटक रहा है। एक कमरे में बन्द है।
इस बात का कारण यह हो सकता है बढ़ती प्रसिध्दी और धन के साथ माया अपना प्रभाव डालने में सफल हो जाती है।
विभिन्न प्रपंचो में उलझे रहने के कारण स्वयं को तप का साधन का समय निकालना कठिन होता जाता है। अतः वह सन्त फिसलने लगता है। माया के अधीन होकर वह मनमाना
व्यवहार करने लगता है। कभी कभी कानून में कई बार बचने
के बाद भी फंस जाता है।
इसी लिए स्वामी शिवोम तीर्थ जी महाराज प्रचार प्रसार और शो बाजी के बिल्कुल
खिलाफ थे।
यहाँ तक प्रवचन में सजावट अधिक हो गई तो जाते ही नही थे।
उनका मत था। आश्रम में यदि तेल साबुन बनना चालू करोगे तो यह व्यापार पर अधिक साधन और शिष्य की उन्नति पर
ध्यान नही देगा।
महाराज जी कहते थे पहले एक फिर दो और कुछ वर्षों बाद समाधि दुकानदारी हो
जाएगी।
मेरा अनुभव है मैं जरा सा ग्रुप सम्भाल नही पा रहा हूँ। मुझे मेरी साधना हेतु समय नही निकल पाता। सोने के समय
को काटकर कर पाता हूँ। वह भी बिगड़ गई है। क्योंकि
जगत के व्यवहार। तो इन गुरुओ को समय कब मिलता होगा।
वहाँ तो गुरू मो मर्यादा में भी रहना होता है।
भाई इसी लिए मां शक्ति ने शिव कृपा से mmstm बनवाकर आशीष दिया। जाओ
सब घर पर करो। कोई गुरु चेला का चक्कर नही। जब समय होगा गुरू मिल जाएगा बसअपने उत्थान पर ध्यान दो।
"MMSTM समवैध्यावि ध्यान की वह आधुनिक विधि है। कोई
चाहे नास्तिक हो आस्तिक हो, साकार, निराकार कुछ भी हो बस
पागल और हठी न हो तो उसको ईश अनुभव होकर रहेगा बस समयावधि कुछ बढ सकती है। आपको
प्रतिदिन लगभग 40 मिनट देने होंगे और आपको 1 दिन से लेकर 10 वर्ष का समय लग सकता
है। 1 दिन उनके लिये जो सत्वगुणी और ईश भक्त हैं। 10 साल बगदादी जैसे हत्यारे के
लिये। वैसे 6 महीने बहुत है किसी आम आदमी के लिये।" देवीदास विपुल