आखिर क्या होती है शक्तिपात योग दीक्षा
सनातनपुत्र देवीदास विपुल "खोजी"
विपुल सेन उर्फ विपुल “लखनवी”,
(एम . टेक. केमिकल इंजीनियर) वैज्ञानिक
एवं कवि
पूर्व सम्पादक : विज्ञान त्रैमासिक हिन्दी जर्नल
“वैज्ञनिक” ISSN
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कई हजार साल पहले, अष्टावक्र नाम के एक महान गुरु हुए। वह धरती के महानतम ऋषियों में से एक थे जिन्होंने उस समय एक विशाल आध्यात्मिक आंदोलन चलाया था। ‘अष्टावक्र’ का मतलब है ‘वह इंसान जिसके शरीर में आठ अलग-अलग तरह की विकृतियां हो’। ये विकृतियां उनके पिता के श्राप के कारण उन्हें मिली थीं। मैं पूरी कथा न लिखूंगा आप नेट पर पढ लें। अष्टावक्र ने राजा जनक से कहा था “राजन जितना पैर घोडे की एक रकाब पर एक पैर रखकर दूसरा पैर दूसरे रकाब पर रखने में लगता है। ब्रह्म ज्ञान प्राप्त करनें में सिर्फ इतना ही समय लगता है”। बाद में उन्होने राजा जनक को शक्तिपात दीक्षा दी थी। पर दक्षिणा पहले ही मांग ली। जनक के बोलने पर अष्टावक्र ने कहा “राजन ब्रह्म ज्ञान होने के बाद तुम मुझमें और अपने में भेद न कर पाओगे तो कौन किसको देगा और कौन किससे लेगा। अत: तुम फिर दक्षिणा न दे पाओगे”।
शक्तिपात एक ऐसी आध्यात्मिक प्रक्रिया है जिसके माध्यम से सद्गुरु अपनी शक्ति को शिष्य में संचरित करता है ताकि उसकी सुप्त आध्यात्मिक शक्तियों का जागरण हो जाए अथवा उसकी बुद्धि अतीन्द्रिय विषय को समझ सके। गुरु कृपा शक्तिपात गुरु कृपा पर निर्भर करती है। सद्गुरु सर्वतत्त्व वेत्ता और अध्यात्म विद्या के जानने वाले होते हैं। ‘मालिनी विजय’ में भी कहा है- स गुरुमंत्समः प्रोक्तो मंत्रवीर्य प्रकाशकः। अर्थात् वही गुरु मेरे समान कहा गया है जो तंत्रों के वीर्य का प्रकाश करने वाला हो। सिद्धि प्राप्त करने के लिए शक्तिपात आवश्यक माना गया है जिसके लिए गुरु ही एकमात्र साधन है। शक्तिपात के न होने से सिद्धि की प्राप्ति नहीं हो सकती।
आप यह जानें कि जब इस परम्परा को आगे बढाने हेतु, आज से लगभग 150 वर्ष पूर्व स्वामी गंगाधर तीर्थ जी महाराज ने अपने एक मात्र शिष्य स्वामी नरायणदेव तीर्थ जी महाराज को शक्तिपात किया तो उन्होने बताया कि उस समय मात्र चार ही ऋषि पूरे विश्व में हैं जो शक्तिपात कर सकते हैं। आज यह संख्या अधिक से अधिक पचास के लगभग ही होगी। अब आप इसका महत्व समझ लें।
यहां तक इसकी गुरू आरती की कुछ पंक्तियों से भी स्पष्ट होता है।
दृष्टिपात संकल्प मात्र से जगती कुण्डलनी।
व
षट् चक्रों को वेध उर्ध्व गति प्राणों की होती।
व
ब्रह्म ज्ञान कर प्राप्त छूट भव बंधन से जावे।
बात
सही भी है मेरे वाट्सप ग्रुप “आत्म अवलोकन और योग” के माध्यम से जिन किसी
को भी शक्तिपात दीक्षा हुई है वे आश्चर्य चकित एवं अचम्भित हैं। स्वत:
क्रिया रूप में किसी का आसन उठ गया यह अनुभुति हुई तो किसी का सूक्ष्म शरीर
बाहर निकल कर अंतरिक्ष में घूमने लगा तो किसी को अन्य भाषायें स्वत:
निकलने लगीं। किसी को देव दर्शन सहित अनेकों विचित्र करनेवाले अनुभव होने
लगे।
मैंने शक्तिपात पर व स्वत: क्रिया पर कई लेख ब्लाग पर दिये हैं। जो आप पाठक देख सकते हैं।
सच्चे आध्यात्मिक गुरु अपने शिष्य को जो दैवी शक्ति संक्रमण (Transmission ) करते है, उसके अलग अलग विशिष्ट प्रकार हैं, जिसे ‘शक्तिपात’ या ‘दैवी शक्ति का संक्रमण’ कहते हैं । ऐसे शक्तिपात करने का सामर्थ्य रखनेवाला सद्गुरु ‘सत्य का ज्ञान’ एवं ‘परमात्मा से एकरूप’ होने का ज्ञान, सुयोग्य शिष्य को बिना किसी कष्ट के क्षण मात्र में दे सकता हैं । इतना ही नहीं, वह अपने शिष्य को अपने जैसा बना सकता है । ’स्वीयं साम्यं विधत्ते ।‘ ऐसी घोषणा श्री आद्य शंकराचार्य ने अपने ‘वेदान्त केसरी’ इस महान ग्रंथ के पहले ही श्लोक में की हैं। महाराष्ट्र के महान संत श्री तुकाराम महाराज ने अपने एक भक्तिगीत में इन्हीं विचारोंकी पुनरावृत्ती की है । उन्होंने कहा है – “आपुल्या सारिखे करिती तात्काळ, नाही काळ वेळ तयां लागीं ” ऐसे सद्गुरु का वर्णन करने के लिए पारस की उपमा भी कम पडती है, एवं वह सीमा से परे हैं। ‘भावार्थदीपिका’ इस भगवत् गीतापर टीका में संत शिरोमणी श्री. ज्ञानेश्वर महाराज अपने शब्दों में कहते हैं– “सच्चे गुरु की महानता इतनी है कि जिस व्यक्ति पर उसकी दृष्टी पडती है, एवं जिसके मस्तक पर वह अपने कमल हस्त रखता है वह व्यक्ति कितना भी निकृष्ट एवं दुर्जन भी हो उसे तत्काल परमेश्वर का दर्जा प्राप्त होता है ।जिस किसी को भी ऐसे सद्गुरु कि कृपा पाने का सौभाग्य मिलता है वह सारे दु:खों से मुक्त होता है और उसे आत्मज्ञान की प्राप्ति होती है । गुरु “मंत्र” देते हैं और शिष्य तत्काल उसे स्वीकार करता है और उसी क्षण उसे मंत्र का प्रत्यक्ष अनुभव भी मिलता है । श्री. ज्ञानेश्वर महाराज ने बताया है की श्रीकृष्ण ने अपने परम भक्त अर्जुन पर दिव्य शक्ति संक्रमित कर उसे अपने जैसा बनाया ।
‘ब्रह्म की प्राप्ति केवल शास्त्र पढनेसे कभी नहीं होती, उसे केवल सद्गुरु कृपासे ही प्राप्त किया जा सकता है।‘श्री समर्थ रामदास स्वामी ऊँचे स्वर से घोषणा करते है,”सद्गुरु के बिना सच्चा ज्ञान प्राप्त होना असंभव है ।“ शास्त्र भी उससे सहमत हैं । केवल शब्द एवं बुद्धि एवं उपनिषद या उसपर चर्चायें सुनकर तीक्ष्ण आत्मज्ञान हो ही नहीं सकता ।” वह सिर्फ़ सद्गुरु के कृपा प्रसाद से ही मिल सकता हैं । श्री. शंकराचार्य ने एक सुंदर काव्य में श्री गुरु के अमृतमय दृष्टिकटाक्षसे शक्तिका वर्णन किया है– जिसकी तुलना अवर्णनीय हैं।
तद् ब्रह्मैवाहमस्मीत्यनुभव उदितो यस्य कस्यापि चेद्वै ।
पुंस: श्रीसद्गुरुणामतुलितकरुणापूर्णपीयूषदृष्ट्या ।
जीवन्मुक्त: स एव भ्रमविधुरमना निर्गते नाद्युपधौ ।
नित्यानन्दैकधाम प्रविशति परमं नष्टसंदेहवृत्ति: ॥
“मै ब्रह्म हूँ” इसकी प्राप्ति सद्गुरु की अतुलनीय कृपादृष्टिसे जिसे प्राप्त होती है वह शरीर में रहकर भी मन से सारे संशय एवं मोह से मुक्त हो जाता हैं । और वह चिरंतन आनंद के प्रांगण में प्रवेश करता हैं।
इस प्रकार से वेद, पुराण, तंत्र, मंत्र और सर्व काल के संतोंने शक्तिसंक्रमण मार्ग के स्वानुभव लिख रखे हैं । योगवाशिष्ठ में वशिष्ठ ऋषीने स्वत: श्री. रामचंद्र पर किये गये शक्तिपात के सत्य का वर्णन किया हैं, जिस वजहसे सविकल्प समाधी या पूर्णब्रह्म स्थिती तक उसे ले जाना संभव हुआ। इस विषय में स्वयं विश्वामित्रने वशिष्ठ से ऐसा कहा है – “महात्मा ब्रह्मपुत्र वशिष्ठमुनी आप सचमुच श्रेष्ठ हैं एवं आपने अपना महत्त्व क्षणभर में शक्ति- संक्रमण कर सिद्ध कर दिया । ” योगवाशिष्ठ में शिष्यों में शक्तिसंक्रमण करने के इस प्रकार की पद्धती का वर्णन इस प्रकार किया है ।
‘दर्शनात्स्पर्शनाच्छब्दात्कृपया शिष्यदेहके ।‘ (सद्गुरु के कृपायुक्त दृष्टि, कटाक्षसे, स्पर्शसे एवं प्रेमभरे शब्द से शक्तिसंक्रमण होता हैं। ) ‘स्कंद पुराण’ के ‘सूतसंहिता’ में शक्तिसंक्रमण की पद्धतिकी विस्तृत जानकारी दी गयी हैं। तंत्र ग्रंथ में भी शक्तिसंक्रमण से कुण्डलिनी जागृत होने की विस्तृत जानकारी है| शक्ति संक्रमण द्वारा शिष्यों में सुप्त शक्ति जागृत करने के बारे में सभी ग्रंथों में नाथसंप्रदाय के ग्रंथ ज्यादा प्रसिद्ध हैं । यह ग्रंथ अध्यात्मज्ञान एवं योगशास्त्र प्राचीन हैं । आजकल इस दैवी शक्ति को संक्रामित करनेवाले सद्गुरु बहुतही कम रह गये है । पर वे बिल्कुल नहीं हैं ऐसा भी नहीं। इस प्रकार के कुछ महात्मा संसार में गुप्त रूप से शक्ति का संचार करते हैं, और जब उनकी भेंट लायक शिष्यसे होती है, उस वक्त वे अपनी शक्ति शिष्य में संक्रामित करते हैं ।
शक्तिपात होने पर शिष्य में जो बाहरी और आन्तरिक लक्षण (विशेषताऐं) उत्पन्न हो जाते हैं उनका विवरण शास्त्रों में इस प्रकार दिया गया है। वे सब कुण्डलनी जागरण के बाद ही होते हैं।
''देहपात: तथा कम्प:-परमानन्द हर्षणे। स्वेदो, रोमांच इत्येत-शक्तिपातस्य लक्षणम्'' । ''प्रहर्ष: स्वरनेत्रांग विक्रिया कम्पनं तथा स्तोम: शरीरपातश्च भ्रमणं चोदगतिस्तथा। अदर्शनं च देहस्य........निग्रहानुग्रहे शक्ति:''। ''शिष्यस्य देहे विप्रेन्द्रा-धरिण्यां पतते सति प्रसाद: शंकरस्तस्य-द्विजा संजात एव हि''॥
अर्थात् शक्तिपात होने से शिष्य का देहपात (शरीर का भूमि पर गिरना) होता है। शरीर में कम्पन्न उत्पन्न होता है। अत्यधिक आनन्द प्राप्त होने से शिष्य जोर-जोर से हॅंसने लगता है। शरीर का रोमांचित होना तथा पसीना होना भी शक्तिपात का ही लक्षण है। इसके अतिरिक्त निद्रा आना, मूर्छित हो जाना तथा दिमाग का घूमना भी शक्तिपात हो जाने के ही लक्षण होते हैं। इस विषय पर प्रसिद्ध ग्रन्थ 'सूतसंहिता'' के अन्तर्गत ब्रह्मगीता में अनेकों लक्षणों का विवरण दिया गया है।
इन सभी लक्षणों में महत्वपूर्ण लक्षण है 'देहपात होना' अर्थात् शक्तिपात होते ही शिष्य का शरीर तत्क्षण भूमि पर गिर जाता है और वह निर्वाध गति से भूमि पर दीर्घकाल तक चक्कर काटता रहता है। इसका महत्व बताते हुए शास्त्र कहता है-
अर्थात् जब शिष्य का शरीर धरती पर गिरता है तो इसे भगवान शंकर की कृपा समझना चाहिए। ऐसा शिष्य श्री गुरूकृपा से कृतार्थ हो जाता है तथा उसका पुनर्जन्म नहीं होता।
''तस्य प्रसाद युक्तस्य........तम: सूर्योदयो यथा''
इस प्रकार शक्तिपात प्राप्त सत्शिष्य की समस्त-अविद्याऐं उसी प्रकार भस्म हो जाती है जैसे सूर्योदय हो जाने पर समस्त अंधकार नष्ट हो जाता है।
इस विषय पर पूज्यपाद वामनदत्तात्रेय गुलवणी महाराज (महाराष्ट्र-पुणे निवासी) शक्तिपात के पश्चात शिष्य में उत्पन्न होने वाले विभिन्न लक्षणों का विवरण अपने अद्वितीय लेख 'शक्तिपात से आत्मसाक्षात्कार' में दिया गया है।
''गुरूकृपा से जब शक्ति प्रबुद्ध हो उठती है, तब साधक को आसन, प्राणायाम, मुद्रा आदि करने की कुछ भी आवश्यकता नहीं होती। प्रबुद्ध कुण्डलिनी ऊपर ब्रह्मरन्ध्र की ओर जाने के लिए छटपटाती है। उसके उस छटपटाने में जो कुछ क्रियाऐं अपने-आप होती है वे ही आसन, मुद्रा, बन्ध और प्राणायाम है। शक्ति का मार्ग खुल जाने के बाद से सब क्रियाऐं अपने-आप होती है और उनसे चित्त को अधिकाधिक - स्थिरता प्राप्त होती है..........................जिस साधक के द्वारा जिस क्रिया का होना आवश्यक है, वही क्रिया उसके द्वारा होती है, अन्य नहीं। ........................... योगशास्त्र में वर्णित विधि के अनुसार इन सब-क्रियाओं का अपने-आप होना देखकर बड़ा ही आश्चर्य होता है। ...............इस प्रकार होने वाली यौगिक क्रियाओं से साधक को कोई कष्ट नहीं होता। किसी अनिष्ट के भय का कोई कारण नहीं रहता। प्रबुद्ध शक्ति स्वयं ही ये सब क्रियाऐं साधक से उसके प्रकृति के अनुरूप करा लिया करती है। शक्तिपात से प्रबुद्ध होने वाली शक्ति के द्वारा साधना से जो क्रियाऐं होती हैं, उनसे शरीर रोगरहित होता है, बड़े-बड़े असाध्य रोग भी भस्म हो जाते हैं। ........... परन्तु इस साधना में आरम्भ से ही सुख की अनुभूति होने लगती है। शक्ति का जागना जहॉं एक बार हुआ वहॉं फिर वह शक्ति स्वयं ही साधक को परमपद की प्राप्ति कराने तक अपना काम करती रहती है। इस बीच साधक के जितने भी जन्म बीत जायें, एक बार जागी हुई कुण्डलिनी फिर कभी सुप्त नहीं होती।''
शास्त्रों में शक्तिपात सम्पन्न (कुण्डलिनी जागरण) साधक में पाये जाने वाले जिन विभिन्न लक्षणों का उल्लेख मिलता है। उनमें से प्रमुख है –
मूलाधार में कम्पन होना, शरीर में अत्यन्त स्फूर्ति उत्पन्न होना, स्वत: ही कुम्भक लग जाना, आखों के तारे घूमना तथा दृष्टि का भ्रूमध्य की तरफ आकर्षित होना, शराब तथा भॉंग पिये बिना ही हर समय नशे की हालत बनी रहना, आखें बन्द करते ही गर्दन तथा शरीर का चक्राकार घूमना, अनेक भाषाऐं (ज्ञात–अज्ञात) वोल सकने की क्षमता उत्पन्न होना तथा स्तोत्रादि, कीर्तन के शब्द स्वत: ही उच्चरित होने लगना, ध्यान में बैठते ही भविष्य की घटनाओं का पूर्वाभास होने लगना, कम समय में वेदों तथा उपनिषदों का सार तत्व समझ लेना, दिन, प्रात: सांय एवं रात्रि में पूजा-ध्यान का समय होते ही शरीर, मन तथा प्राण में आनन्दमय स्थिति उत्पन्न हो जाना। स्पष्ट है कि सत्गुरू से प्राप्त शक्तिपात सम्पन्न साधक शीघ्र ही मनुष्यत्व से देवत्व की तरफ अनायास ही अग्रसर होने लग जाता है।
अंत में मैं इतना ही कहूंगा जिस व्यक्ति के प्रभु भक्ति में प्रेमाश्रु न निकले उसका जीवन व्यर्थ है। क्योकिं वह व्यक्ति प्रेम और विरह को नहीं समझ सकता। जिस व्यक्ति ने आंतरिक नशा न किया जिसे रामरस या शिव का नशा कहते हैं। उसने असली नशा जाना ही नहीं। मूर्ख और पाखंडी शिव के नाम पर भांग धतूरा गांजा चढाकर आनंद की बात भक्ति की बात करते हैं। वे महा अज्ञानी और ढोग़ी हैं। कारण राम रस का जो नशा आंतरिक रूप में मिलता है वह कुछ कुछ भांग धतूरे के नशे से मिलता है। अत: मूर्ख लोग इनका वाहिक सेवन करते हैं। जो नुकसान दायक होता है। अरे राम रस से सर्वोच्च आनन्द के साथ शारिरिक शक्ति मिलती है।
और यह सब स्वत: शक्तिपात में होने लगता है।
आनंदम। अति आनंदम्॥ सर्वत्र आनंदम्। जय गुरूदेव। जय महाकाली । जय महाकाल
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MMSTM समवैध्यावि ध्यान की वह आधुनिक विधि है। कोई चाहे नास्तिक हो आस्तिक हो, साकार, निराकार कुछ भी हो बस पागल और हठी न हो तो उसको ईश अनुभव होकर रहेगा बस समयावधि कुछ बढ सकती है। आपको प्रतिदिन लगभग 40 मिनट देने होंगे और आपको 1 दिन से लेकर 10 वर्ष का समय लग सकता है। 1 दिन उनके लिये जो सत्वगुणी और ईश भक्त हैं। 10 साल बगदादी जैसे हत्यारे के लिये। वैसे 6 महीने बहुत है किसी आम आदमी के लिये।" सनातन पुत्र देवीदास विपुल खोजी
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सामाजिक बदलाव के चिन्तन हेतु ही हैं। कुछ लेखन साम्रगी लेखक के निजी अनुभव और विचार हैं। अतः किसी की व्यक्तिगत/धार्मिक भावना को आहत करना, विद्वेष फ़ैलाना हमारा उद्देश्य नहीं है। इसलिये किसी भी पाठक को कोई साम्रगी आपत्तिजनक लगे तो कृपया उसी लेख पर टिप्पणी करें। आपत्ति उचित होने पर साम्रगी सुधार/हटा दिया जायेगा।
सुंदर
ReplyDeleteDHAMYAWAD.
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