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Friday, August 23, 2019

शक्तिपात बनाम क्रिया योग (संशोधित लेख)

शक्तिपात बनाम क्रिया योग (संशोधित लेख)

 सनातनपुत्र देवीदास विपुल "खोजी"


 विपुल सेन उर्फ विपुल लखनवी,
(एम . टेक. केमिकल इंजीनियर) वैज्ञानिक एवं कवि
पूर्व सम्पादक : विज्ञान त्रैमासिक हिन्दी जर्नल “वैज्ञनिक” ISSN 2456-4818
मो.  09969680093
  - मेल: vipkavi@gmail.com  वेब:  vipkavi.info वेब चैनलvipkavi
ब्लाग: freedhyan.blogspot.com,  फेस बुक:   vipul luckhnavi “bullet

यदि योग को क्रमवार समझा जाये। तो सबसे पहले वेदांत ने साधारण रूप में समझाया। जब किसी भी अंतर्मुखी विधि* को करते करते " (तुम्हारी) आत्मा में परमात्मा की एकात्मकता का अनुभव हो" तो समझो योग हुआ। मेरे विचार से जब "द्वैत से अद्वैत का अनुभव हो तो समझो योग" हुआ।


अपनी आत्मा को पहचानना शब्दो मे नही अनुभूति कर जिसे आत्म साक्षात्कार कहते है। अब आत्मा ही परमात्मा है। यानि योग की अनुभूति। वेदान्त महावाक्य है आत्मा में परमात्मा की सायुज्यता का अनुभव ही योग है। यह योग हमे परमसत्ता का अंश है आत्मा,  यह अनुभूति देता है। जब अहम्ब्रह्मास्मि की अनुभूति होती है तो हमे अद्वैत का अनुभव होता है। कुल मिलाकर यह अनुभव कर लेना कि मैं उस परमसत्ता का अंश हूँ। उससे अलग नही। यह शरीर यह आत्मा अलग है। सुख दुख शरीर भोग रहा है मैं नही। मैं उस परमसत्ता के अनुसार ही चल रहा हूँ। वो ही सब करता है। मैं कुछ नही। यह अनुभूतिया हमे ज्ञान देती है। यही ज्ञान और अनुभव होना योग है।


अपने व्यक्तिगत अनुभवों, जो मैंनें ब्लाग पर समय समय पर लिखें हैं। विभिन्न दीक्षा विधियों का अध्ययन किया तो मुझे अपनी “शक्तिपात दीक्षा परम्परा”  के अतिरिक्त महाअवतार बाबा के शिष्य लाहिडी महाशय द्वारा प्रणित “क्रिया योग” ही प्रमुख लगे। यद्यपि कलियुग में भक्ति योग ही सबसे आसान सस्ता सुंदर और टिकाऊ है किंतु इसमें समय अधिक लग सक्ता है। यदि पूर्व जन्म की साधनायें हों तो यह जल्दी भी घटित  हो जाता है। अत: मात्र शक्तिपात  और क्रिया योग पर ही चर्चा करूंगा।


उनके अनुसार मैंनें कुछ निष्कर्ष निकाले हैं।


1.    शक्तिपात अंतिम दीक्षा है किंतु इसे सोच समझ कर ही प्रदान करना चाहिये। कारण यह साधक को आलसी बना सकती है। क्योकिं जिसके लिये आदमी युगों तक तमाम साधनायें करता है वह सहज ही फलित हो जाती हैं। क्योकिं इसमें गुरू अपने तप से संचित साधना संचित शक्ति से शिष्य की कुंडलनी ही जागृत कर देता है। जिसमें शिष्य को मात्र अपनी दीक्षा में लिये गये कम्बल आसन पर मात्र बैठना होता है बाकी काम गुरू शक्ति द्वारा जागृत कुंडलनी करती है। जो स्वत: क्रिया के माध्यम से पूर्व संचित संस्कारों को भीतर से निकाल कर क्रिया के माध्यम से बाहर फेंकती है। यानि पातांजलि के दिवतीय सूत्र “चित्त वृत्ति निरोध:” चित्त में वृत्ति का निरोध करने की दिशा में कदम बढाती है। 

 

आप यह जानें कि जब इस परम्परा को आगे बढाने हेतु, आज से लगभग 150 वर्ष पूर्व स्वामी गंगाधर तीर्थ जी महाराज ने अपने एक मात्र शिष्य स्वामी नरायणदेव तीर्थ जी महाराज को शक्तिपात किया तो उन्होने बताया कि उस समय मात्र चार ही ऋषि पूरे विश्व में हैं जो शक्तिपात कर सकते हैं। आज यह संख्या अधिक से अधिक पचास के लगभग ही होगी। अब आप इसका महत्व समझ लें।
यहां तक इसकी गुरू आरती की कुछ पंक्तियों से भी स्पष्ट होता है।
दृष्टिपात संकल्प मात्र से जगती कुण्डलनी।

षट् चक्रों को वेध उर्ध्व गति प्राणों की होती।

ब्रह्म ज्ञान कर प्राप्त छूट भव बंधन से जावे।

 

बात सही भी है मेरे वाट्सप ग्रुप “आत्म अवलोकन और योग” के माध्यम से जिन किसी को भी शक्तिपात दीक्षा हुई है वे आश्चर्य चकित एवं अचम्भित हैं। स्वत: क्रिया रूप में किसी का आसन उठ गया यह अनुभुति हुई तो किसी का सूक्ष्म शरीर बाहर निकल कर अंतरिक्ष में घूमने लगा तो किसी को अन्य भाषायें स्वत: निकलने लगीं। किसी को देव दर्शन सहित अनेकों विचित्र करनेवाले अनुभव होने लगे।
मैंने शक्तिपात पर व स्वत: क्रिया पर कई लेख ब्लाग पर दिये हैं। जो आप पाठक देख सकते हैं।

2.    वहीं क्रिया योग में शिष्य को स्वयं परिश्रम करके कई अवस्थाओं से गुजरना होता है। लाहिडी महाशय ने चार चर्ण बना दिये। मार्शल गोवोंदन ने तीन सोपान बना दिये। वास्तव में यह पूरा का पूरा पातांजलि का अष्टांग योग से भरा है जिसमें प्राणायाम और आसनों की भरमार रहती है। कोई एक ही इन सभी चरणों को पार कर पाता है।


आधुनिक समय में महावतार बाबाजी के शिष्य लाहिरी महाशय के द्वारा 1861 के आसपास पुनर्जीवित किया गया और परमहंस योगानन्द की पुस्तक ऑटोबायोग्राफी ऑफ़ ए योगी (एक योगी की आत्मकथा) के माध्यम से जन सामान्य में प्रसारित हुआ।  उनके वंशज शिवेंदू लाहिडी भी क्रिया योग के शिक्षक हैं।


नवीनतम इतिहास में  हिमालय पर्वत पर स्थित बद्रीनाथ में सन् 1954 और 1955 में महावतार बाबाजी ने महान योगी एस. ए. ए. रमय्या को इस तकनीक की दीक्षा दी। 1983 में योगी रमय्या ने अपने शिष्य मार्शल गोविन्दन को 144 क्रियाओं के अधिकृत शिक्षक बनने से पहले उन्हें अनेक कठोर नियमों का पालन करने को कहा। 1988 में मार्शल गोविन्दन लोगों को क्रिया योग में दीक्षा देना शुरू करें। एम. गोविंदन सत्चिदानन्द को सन् 2014 में सम्मानित "पतंजलि पुरस्कार" दिया गया है।

3.    क्रिया योग दीक्षा में शरीर को युवा और पूर्ण रुपेण स्वस्थ्य होना चाहिये। शक्तिपात में यह बंधन नहीं है।

4.    शक्तिपात दीक्षा में शिष्य सीधे सीधे क्रिया योग के तीसरे चरण (लाहिडी महाशय) या एम. गोविंदन के दूसरे सोपान में सीधे ही पहुंच जाता है। लाहिडी महाराज ने चार चरण अर्चना, जप, ध्यान और प्राणायाम बताये हैं। वहीं मार्शल जी ने छह बतायें हैं।

वैसे मैंनें यह जाना कि मैं शक्तिपात दीक्षा के पहले मंत्र जप करता था तो क्रिया योग के चरण भी करता था। मतलब प्राणायाम के साथ मंत्र जप करता हुआ ध्यान लगाता था। उसी का परिणाम हुआ कि मुझे देव दर्शन के साथ मां काली द्वारा दीक्षा अनुभुति हुई और मुझे शक्तिपात दीक्षा में वर्णित भयंकर क्रियायें आरम्भ हुई किंतु मेरा पापी शरीर उसको सम्भाल न सका और मैं मरणासन्न स्थित में गुरू के लिये भटकता हुआ मां की कृपा से स्वप्न और ध्यान के माध्यम से अपनी शक्तिपात परम्परा में पहुंचा जहां मुझे सम्भाला गया।

इससे यह स्पष्ट होता है कि क्रिया योग को शक्तिपात ही नियंत्रित कर सकता है। मतलब साफ है कि शक्तिपात परम्परा ही सर्वश्रेष्ठ और अंतिम है। क्रिया योग का शिष्य भी क्रिया करते करते स्वत: क्रिया योग यानि शक्तिपात में पहुंचता है।


MMSTM समवैध्यावि ध्यान की वह आधुनिक विधि है। कोई चाहे नास्तिक हो आस्तिक हो, साकार, निराकार कुछ भी हो बस पागल और हठी न हो तो उसको ईश अनुभव होकर रहेगा बस समयावधि कुछ बढ सकती है। आपको प्रतिदिन लगभग 40 मिनट देने होंगे और आपको 1 दिन से लेकर 10 वर्ष का समय लग सकता है। 1 दिन उनके लिये जो सत्वगुणी और ईश भक्त हैं। 10 साल बगदादी जैसे हत्यारे के लिये। वैसे 6 महीने बहुत है किसी आम आदमी के लिये।"  सनातन पुत्र देवीदास विपुल खोजी
ब्लाग :  https://freedhyan.blogspot.com/


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