श्री दुर्गा नाम महात्म्य
( ब्रह्मलीन परमपूज्य राष्ट्रगुरू श्री अनंतश्री स्वामी जी महराज पीताम्बरापीठ दतिया, मप्र के लेख संग्रह से साभार )
मनुष्य
शक्तिशाली होने की महत्वाकांक्षा रखता है’ इसी सिद्धांत के अनुसार
अपनी-अपनी अभिरुचि को लक्ष्य करके सभी प्रयत्न कर रहे हैं। जगत के जितने भी
विचार प्रधान प्राणी हैं, उनमें यह अभिकांक्षा स्वाभाविक रूप से
दृष्टिगोचर होती है। इसी के अनुसार इस विषय के तत्वज्ञ, ऋषि, मुनि, आचार्य,
गुरु आदि महापुरुषों ने भिन्न-भिन्न पथ निर्दिष्ट करके जगत को उक्त
आकांक्षा की सिद्धि के लिए अग्रसर किया है। चाहे वे सारे मार्ग ‘शाक्त’ नाम
से अभिहित न हो तथा उस मार्ग के अनुयायी ऐसा करने में आनाकानी करें तथापि
तत्वदृष्टि से वे सभी शाक्त ही हैं, क्योंकि वे अपनी अभिलषित वस्तु ‘शक्ति’
को चाहते हैं। ‘महत्ता’ पदार्थ और शक्ति दोनों अभिनाभाव सिद्ध हैं। अर्थात
इन दोनों में अटूट एवं पूर्व संबंध हैं। यद्यपि जगत के सारे मार्ग तथा
मनुष्य शाक्त ही हैं तथापि हमारे इस भारतवर्ष में यह शब्द एक विशिष्ट साधना
पद्धित का वाचक है और उस पद्धति के अनुसार चलने वाले साधक को ही शाक्त
कहते हैं। यह सनातन मार्ग अनादि काल से हमारे देश में प्रचिलित है। गुप्त
प्रकट रूप में सभी जगह इसका अस्तित्व आज भी विद्यमान है। समय के हेरफेर से
इसके मूल स्वरूप में अवश्य ही विकृति हो गई है तथापि इसकी सत्ता में काई
शंका नहीं हो सकती। सारे जगत के योग क्षेम की अधिष्ठात्री जगन्माता ही एक
तत्व स्वरूप है। उसी की उपासना से जीव अपनी त्रुटियों को हटाकर पूर्णता लाभ
कर सकता है, ऐसा सिद्धांत है। उसके अनेक नाम रूप निर्दिष्ट हैं तथापि
दुर्गा नाम सर्व प्रधान और भक्तों का अति प्रिय लगता है।
नामार्थ: दकार, उकार, रेफ, गकार और आकार इन वर्णों के योग
से मंत्र स्वरूप इस ‘दुर्गा’ नाम की निष्पति होती है। इसका अर्थ इस प्रकार
है-
दैत्यनाशार्थवचनो दकार: परिकीर्तित:।
उकारो विघ्ननाशस्य वाचको वेदसम्मत:।।
रेफो रोगघ्नवचनो गश्च पापध्न वाचक:।
भय शत्रुघ्नवचनश्चाकार: परिकीर्तित।।
अर्थात-दैत्यों के नाश के अर्थ को दकार बतलाता है, उकार विघ्न
का नाशक वेद सम्मत है। रकार रोग का नाशक, गकार पाप का नाशक और अकार भय का
तथा शत्रु का विनाशक है। इस प्रकार ‘दुर्गा’ नाम अपने अर्थ का यथार्थ बोधक
है। इसी के अनुसार देव्युपनिषद में कहा गया है-
तामग्निवर्णा तपसा ज्वलंतीं, वैरोचनीं कर्मफलेषु जुष्टाम् ।
दुर्गा देवीं शरणं प्रपद्यामहे सुरान्नाशयित्र्यै ते नम:।।
अर्थ-अग्नितत्व के समानवर्ण (रंग) वाली अर्थात् लाल वर्णवाली
तपसा अपने ज्ञानमय रूप से प्रदीप्त, कर्म फलार्थियों द्वारा वैरोचिनी
अग्नितत्व की शक्ति, विशेष रूप से सेवनीय अथवा विरोचन द्वारा उपास्य श्री
छिन्नमस्ता स्वरूप वाली श्री दुर्गा देवी की शरण को हम प्राप्त करें, जो
असुरों का नाश करती है, उसे हमारा नमस्कार हो। अथवा ‘दु र गा्’ ये तीनों
वर्ण अग्नि वर्ण के नाम से प्रसिद्ध हैं, दकार को अत्रिनेत्रज या अत्रीश
कहते हैं। अत: बीजाभिधान के मत से यह वर्ण आग्नेय है। रेफ अग्निबीज
प्रसिद्ध है। गकार की संज्ञा ‘पज्चान्तक’ है। महा प्रलयाग्नि का बोधक होने
से इसकी (गकार) यह संज्ञा है। इस प्रकार (अग्निवर्णा) यह ‘दुर्गा’ नाम उक्त
मन्त्र से उद्धृत होता है। नाम तथा देवता के अभेद रूप से दोनों ही पक्षों
में यह मंत्र अपना स्वरूप बता रहा है। सर्वतोभावेन देवताओं के शरणभाव
प्राप्त होने पर दुर्ग नामक असुर को मारने से श्री दुर्गा का नाम प्रसिद्ध
हुआ है। यह सप्शती में भी कहा गया है-
तत्रैव च वधिष्यामि दुर्गमाख्यां महासुरम्।
दुर्गादेवीति विख्यातं तन्मे नाम भविष्यति।।
अविमुक्तक काशी क्षेत्र में जीवों के मरने पर भगवान शंकर इसी
पावन नाम का उपदेश देकर मुक्ति प्रदान करते हैं, यह प्रसंग महाभागवत में
नारद-शंकर संवाद में कहा गया है। इन उक्त प्रमाणों से दुर्गा नाम की महत्ता
सार्थक रूप से अवगत होती है। इन्हीं अर्थों को लक्ष्य करके इस नाम की
महिमा रुदयामल तंत्र से भगवान शिव ने बताई है, जिसमें इसके जपने की संख्या
एवं महत्व बताया गया है-
दुर्गा नाम जपो यस्य किं तस्य कथयामि ते।
अहं पज्चानन: कान्ते तज्जपादेव सुव्रते।। 1।।
हे देवि! इस दुर्गा नाम की महिमा मैं क्या कहूं। इसी के जप की वजह से मैं पज्चानन कहा जाता हूं।
धनी पुत्री तथा ज्ञानी चिरंजीवी भवेद्भवी।
प्रत्यहं यो जपेद् भक्त्या शतमष्टोत्तंर शुचि।। 2।।
प्रतिदिन पवित्र होकर भक्तिपूर्वक अष्टोत्तर शत (एक सौ आठ बार जो कोई इसे जपता है वह धनी, पुत्रवान, ज्ञानी तथा चिरंजीवी होता है।)
अष्टोत्तरसहस्त्रं तु यो जपेद् भक्ति संयुक्त।
प्रत्यहं परमेशानि तस्य पुण्यफलं श्रृणु ।। 3।।
धनार्थी धनमाप्नोति ज्ञानार्थी ज्ञानमेव च।
रोगार्तो मुच्यते रोगात् बद्धो मुच्येत् बन्धनात् ।। 4।।
भीतो भयात्मुच्येत पापान्मुच्येत पातकी।
पुत्रार्थी लभते पुत्रं देवि सत्यं न संशय: ।। 5।।
हे देवि! अष्टोत्तर सहस्त्र (1008) जो कोई भक्ति से प्रतिदिन
जपता है, उसके पुण्यफल को सुनो। धनार्थी धन, ज्ञानार्थी ज्ञान प्राप्त करते
हैं, रोगात्र्त रोग से मुक्त होता है, कैदी बंधन से मुक्त होता है, डरा
हुआ भय से, प्राणी पाप से मुक्त होता है एवं पुत्रार्थी पुत्र प्राप्त करते
हैं।
एवं सत्य विजानीहि समर्थ: सर्व कर्मसु।
अयुतं यो जपेत् भक्त्या प्रत्यहं परमेश्वरि ।। 6।।
निग्रहापुग्रहे शक्त: स भपेद् कल्पपादप:।
तस्य क्रोधे भवेन्मृत्यु प्रसादे परिपूर्णता।। 7।।
हे परमेश्वरी! दस हजार जो प्रतिदिन जप करते हैं, वे
निग्रहानुग्रह करने में समर्थ हो जाते हैं तथा दूसरे कल्पवृक्ष हो जाते
हैं। उसके क्रोध में मृत्यु तथा प्रसन्नता में परिपूर्णता होती है। इसी
प्रकार सभी कर्म में वह समर्थ होता है, इसे सत्य ही समझो।
मासि मासि च यो लक्षं जपं कुर्याद् वरानने।
न तस्य ग्रहपीडा स्यात् कदाचिदपि शांकरि।।
न चैश्वर्यक्षयं याति नच सर्पभयं भवेत्।
नाग्नि चौरभयं वापि न चारण्ये जले भयम्।।
पर्वतारोहणे नापि सिंह व्याघ्रभयं तथा-।
भूतप्रेतपिशाचानां भयं नापि भवेत कदचित्।।
न च वैरिभयं कान्ते नापि दुष्टभयं भवेत्।
परलोके भवेत् स्वर्गी सत्यं वै वीरवन्दित।।
चन्द्रसूर्यसमोभूत्वा वसेत् कल्पायुतं दिवि।
वाजपेय सहस्त्रस्य यत् फलं वरानने।।
तत्फलं समवाप्नोति दुर्गा नाम जपात् प्रिये।
न दुर्गा नाम सदृशं नामास्ति जगती तले।
तस्मात् सर्व प्रयत्नेन स्मर्तव्यं साधकोत्तमै:।
यस्य स्मरण मात्रेण पलायन्ते महापद:।।
अर्थात हे देवि! प्रत्येक मास में जो लक्ष संख्या में जप करता
है, उसे ग्रहपीड़ा नहीं होती, न उसका ऐश्वर्य ही नष्ट होता है, न उसे सर्प
का भय होता है। अग्नि, चोर, अरण्य, जल आदि का भी भय नहीं होता, पर्वतारोहण
में सिंह, व्याघ्र, भूत, प्रेत, पिचाश आदि का भय तो उसे होता ही नहीं।
शत्रुभय तथा दुष्टभय नहीं होता और वह जातक स्वर्ग का भागी होता है। चन्द्र
सूर्य के समान कल्प पर्यन्त वह द्यौलोक में रहता है। एक सहस्त्र वाजपेय
यज्ञ करने का फल ‘दुर्गा’ नाम जप के प्रभाव से उसे मिलता है। दुर्गा नाम के
सदृश इस संसार में और कोई नाम नहीं है। इसलिए प्रयत्नपूर्वक साधकों को यह
नाम जपना चाहिए। इसके स्मरण मात्र से सभी आपत्तियां भाग जाती हैं। इन उक्त
श्लोकों में जो अर्थ दुर्गा नाम के विषय में कहे गए हैं, वे केवल अर्थवाद
या प्रशंसा ही नहीं है, प्रत्युत सर्वथा सत्य एवं अनुभवगम्य है। पुराणों
में भी दुर्गा नाम के विषय में ऐसा ही कहा गया है। पद्य्म पुराण पुष्कर
खंण्ड में लिखा है-
मेरुपर्वतमात्रोपि राशि: पापस्य कर्मण:।
कात्यायनीं समासद्य नश्यति क्षणमात्रत:।।
दुर्गार्चनरतो नित्यं महापातक सम्भवै:।
दोषैर्न लिप्यते वीर: पद्य्पत्रमिवाम्भसा।।
मेरु के समान पापराशि भी श्री दुर्गा भगवती के शरण में आने पर
नष्ट हो जाती है। दुर्गार्चनरत पुरुष पाप से इस प्रकार निर्लिप्त रहता है
जैसे जल में कमल। इस कलिकाल में नाम जप का बड़ा माहात्म्य है, अन्य साधन
कठिन, दुरूह तथा सर्वसामान्य के लिए कष्टसाध्य हैं, उनमें नियामदि की
कठिनता होने से सिद्ध सुलभ नहीं है। यह दुर्गा नाम सर्वथा सुलभ और महान फल
इेने वाला है, इसलिए इसका स्मरण सर्वदा करना चाहिए।
भूतानि दुर्गा भुवनानि दुर्गा, स्त्रियो नरश्चापि पशुश्च दुर्गा।
यद्यद्धि दृश्यं खलु सैव दुर्गा, दुर्गास्वरूपादपरं न किंचित्।।
इस संसार के समस्त स्थानों, समस्त प्राणियों, सभी स्त्रियों,
सभी प्रकार के पशु वर्गों और संपूर्ण वांग्यमय में जो कुछ भी दृष्टिगोचर
होता है, वह बस दुर्गा ही है। और दुर्गा स्वरूप के सिवा कुछ भी नहीं है।
।। ऊं शम्।।
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