निर्वाण षट्कम नहीं निर्वाण सप्तकम् (काव्यात्मक)
सनातनपुत्र देवीदास विपुल "खोजी"
आदिशंकराचार्य लिखित इस स्तुति को काव्यांतर करने हेतु कुछ शब्दो को जोड़ा भी गया है।
मनोबुद्ध्यहंकार चित्तानि नाहं न च श्रोत्रजिह्वे न च घ्राणनेत्रे ।
न च व्योम भूमिर्नतेजो न वायुः चिदानन्दरूपः शिवोऽहम् शिवोऽहम् ॥१॥
न तो मन या बुद्धि ही हूं मैं।
अहंकार चित्त कदापि नहीं हूं॥
न मैं कर्ण हूं नही मैं जिव्हा।
नाक या नेत्र कदापि नहीं हूं॥
न तो मैं हूं आकाश, धरती।
अग्नि या वायु कदापि नहीं हूं॥
मैं हूं चित्त का आनन्द रूप।
आदि अनादि अनंत शिवा मैं।
न च प्राणसंज्ञो न वै पञ्चवायुः न वा सप्तधातुः न वा पञ्चकोशः ।
न वाक्पाणिपादं न चोपस्थपायु चिदानन्दरूपः शिवोऽहम् शिवोऽहम् ॥२॥
न ही प्राण रूप मेरा कोई है।
नहीं पंच प्रकार की कोई वायु।
न सात धातु मिश्रण ही समझो।
न पंचकोष शरीर ही जानो॥
न मैं हूं वाणी न हाथ न पैर।
न उत्सर्जन इन्द्री मुझको मानो॥
मैं हूं चित्त का आनन्द रूप।
आदि अनादि अनंत शिवा मैं।
न मे द्वेषरागौ न मे लोभ मोहौ मदो नैव मे नैव मात्सर्यभावः।
न धर्मो न चार्थो न कामो न मोक्षः चिदानंदरूपः शिवोऽहं शिवोऽहम् ॥३॥
मैं हूं चित्त का आनन्द रूप।
आदि अनादि अनंत शिवा मैं।
न मैं द्वेष न रागों में बसता।
न लोभ कोई मुझे है डसता॥
न मैं मद न ईर्ष्या वरे हूं।
मैं धर्म काम मोक्ष परे हूं॥
मैं हूं चित्त का आनन्द रूप।
आदि अनादि अनंत शिवा मैं।
न पुण्यं न पापं न सौख्यं न दुःखम् न मंत्रो न तीर्थ न वेदा न यज्ञाः।
अहं भोजनं नैव भोज्यं न भोक्ता चिदानंदरूपः शिवोऽहं शिवोऽहम् ॥४॥
न पुण्य का कोई लेखा जोखा।
न पापों की गठरी मैं हूं कोई॥
न मैं सुख अथवा न मैं दुख हूं।
न मंत्र, तीर्थ, ज्ञान या यज्ञ हूं॥
न मैं भोगने की वस्तु कोई।
न भोग अनुभव न कोई भोक्ता॥
मैं हूं चित्त का आनन्द रूप।
आदि अनादि अनंत शिवा मैं।
न मे मृत्युशंका न मे जातिभेदः पिता नैव मे नैव माता न जन्म।
न बन्धुर्न मित्रं गुरुर्नैव शिष्यः चिदानंदरूपः शिवोऽहं शिवोऽहम् ॥५॥
न मृत्यु का कोई भय है मुझको।
न जाति न भेद भाव है कोई॥
न मेरे मात न कोई पिता है।
कोई न भाई न कोई सखा है॥
न गुरू कोई दिखता जगत में।
न शिष्य कोई जग में है दीखे॥
मैं हूं चित्त का आनन्द रूप।
आदि अनादि अनंत शिवा मैं।
अहं निर्विकल्पो निराकाररूपः विभुर्व्याप्य सर्वत्र सर्वेन्द्रियाणाम्।
सदा मे समत्वं न मुक्तिर्न बन्धः चिदानंदरूपः शिवोऽहं शिवोऽहम्॥६॥
न कोई जग में विकल्प है मेरा
मैं हूं निराकार न रूप कोई।
मैं सर्वव्यापी चैतन्य रूप हूं।
सब इंद्रियों में मैं हूं उपस्थित॥
समत्व का भाव सदा साथ मेरे।
न कोई बंधन न मुक्त है स्थित॥
मैं हूं चित्त का आनन्द रूप।
आदि अनादि अनंत शिवा मैं।
॥ इति श्रीमच्छशंराचार्य विरचित दास विपुल काव्यानुवादम्
श्री निर्वाण षट्कम् सम्पूर्णम् ॥
यह श्लोक मैंनें जोड़ने का प्रयास किया है। संस्कृत के ज्ञानीजन विचार बतायें।
यह श्लोक मैंनें जोड़ने का प्रयास किया है। संस्कृत के ज्ञानीजन विचार बतायें।
न यञो न अग्निर्न काष्ठ न समिधा। नच सूर्य तेजो न दीप्त न ताप:॥
अहं न क्षुधा न जलं पिपाषा। चिदानन्द रूप: शिवोहं शिवोहम॥
न मैं यज्ञ हूं न हूं मैं अग्नि।
लकड़ी या समिधा कदापि नहीं हूं॥
नहीं सूर्य तेज से निर्मित बना हूं।
न ज्वाला न ताप से हूं मैं जन्मा।
न मैं हूं भूख न भूख से जन्मा।
न प्यास हूं मैं और जल भी नहीं हूं॥
मैं हूं चित्त का आनन्द रूप।
आदि अनादि अनंत शिवा मैं॥
MMSTM समवैध्यावि ध्यान की वह आधुनिक
विधि है। कोई चाहे नास्तिक हो आस्तिक हो, साकार, निराकार कुछ भी हो बस पागल और हठी
न हो तो उसको ईश अनुभव होकर रहेगा बस समयावधि कुछ बढ सकती है। आपको प्रतिदिन लगभग
40 मिनट देने होंगे और आपको 1 दिन से लेकर 10 वर्ष का समय लग सकता है। 1 दिन उनके
लिये जो सत्वगुणी और ईश भक्त हैं। 10 साल बगदादी जैसे हत्यारे के लिये। वैसे 6
महीने बहुत है किसी आम आदमी के लिये।" सनातन पुत्र देवीदास विपुल खोजी
ब्लाग :
https://freedhyan.blogspot.com/
No comments:
Post a Comment