प्रश्नों के उत्तर
सनातनपुत्र देवीदास विपुल "खोजी"
विपुल सेन उर्फ विपुल “लखनवी”,
(एम . टेक. केमिकल इंजीनियर) वैज्ञानिक
एवं कवि
पूर्व सम्पादक : विज्ञान त्रैमासिक हिन्दी जर्नल
“वैज्ञनिक” ISSN
2456-4818
मो. 09969680093
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जी करे। ब्लाग के लेख पढ़ लो। अधिकतर समाधान मिल जायेंगे।
इंद्रियों के बन्द होने का अर्थ है। मन से अलग होना। यानि सिर्फ कार्य करना। उसको बुद्धि में मन मे संचित न होने देना।
जैसे किसी ने बातचीत में कुछ किस्सा बोला। यदि वह मुझसे सम्बंधित नही तो उस चितन क्यो करे।
यह कान से सुना। दिमाग मे नही गया।
किसी की सहायता को कर देना स्वतः। मन मे कुछ सोंच न आने देना।
मतलब इंद्रियों अनावश्यक सम्बन्ध मन से बन्द हो जाना।
जैसे भोजन मिला। जो मिला खाया। यह क्या सोंचे अच्छा बुरा।
भाई गणित है। जब दिमाग खाली ही नही रहेगा तो विचार कैसे आ पायेगे।
मन्त्र जप विचारों को आने रोक देता है।
बैंक बैलेंस की तरह शक्ति को संचित करता जाता है।
आवश्यकता पड़ने पर सहायक हो जाता है। हमें मालूम भी नही पड़ता।
अंत मे स्वतः विलीन होकर ध्यान में सहायक हो जाता है।
कारण यह है समय के साथ सारे मन्त्र नाम जप सब अनेको बार सिद्ध हो चुके है।
http://freedhyan.blogspot.com/2018/04/blog-post.html
शक्तिपात दीक्षा के बाद यह अस्त्र अपना जौहर दिखा कर धीरे धीरे नष्ट हो जायेगे। बस इतना ध्यान रखो कि साधन की क्रिया में कर्म कर लो यदि आवेग हो उसको रोको मत। फिर पुनः साधन करो।
कोई भी संस्कार जिस भाव के कारण पैदा होता है। वह उसी भाव की क्रिया कर के ही बाहर निकलता है।
दीक्षा के बाद इनमे तेजी आ जाती है क्योकि एक तो जगत के क्रम और दूसरे क्रिया के संस्काररुपी कर्म। दोनो एक साथ तो अधिक महसूस होते है।
प्रभु जी, किसी धर्म या सम्प्रदाय के संतों महापुरषो पर केवल उस सम्प्रदाय या धर्म का अधिकार होता है या समस्त मानव जाति का
समस्त मानव जाति का। अब सन्त नापने के स्केल तो है नही। अतः सन्तो की भी श्रेणी बनाई जा सकती।
किंतु यह केवल सनातन और भारतीय सन्त ही समझते है।
ईसाई या मुस्लिम चूंकि संकुचन का ही पालन करते है। अतः वह वास्तविक सन्त नही धर्म प्रचारक ही होते है।
यह धारणा के कारण ही होता है। निराकार को कुछ नही। पर साकार को देव। यह धारणा के कारण।
जाकी रही भावना जैसी। प्रभु देखी तीन मूरत वैसी।।
सघन धारणा कहा है।
अब यह वह सन्त जाने। मैं क्या बताऊँ। अब बोलो कृष्ण ने पहले mmstm क्यो नही बनवाई।
अब अमर महर्षि सप्त ऋषियों के सम्पर्क में थे। क्यो थे मैं कैसे बता सकता हूँ।
ईश्वर अलग अलग कार्य हेतु अलग अलग पर विलग लोगो का चयन करता है। अब उसकी मर्जी। जो है तो है।
वे फोटो नही खिंचवाते थे। इक्का दुक्का उनके आश्रम में होंगी।
क्योकि वे आत्मज्ञानी थे। वे जानते थे ये रूप उनका नही ये तो मिथ्या आभास है। मुझे भी फोटो खिंचवाने में आनन्द नही आता। पर मित्रो की प्रसन्नता हेतु खिंचवा लेता हूँ।
वही कुछ लोग रोज फेस बुक पर नेट पर अलग अलग पोज में ज्ञान के उपदेश डालते है।
अब आप सोंचे वह किंतने बड़े ज्ञानी पर किताबी।
यदि हमारे अंदर अपने सम्मान के प्रचार की अपनी फोटो डालने की पृवृती है तो हम निवृत्त कैसे हो सकते है।
हमें सब व्यर्थ कर्मो से दूरी बनाने का प्रयास करना चाहिए।
महाराज जी कहते है। जो खुद बन्धन में बंधा हो वह तुमको कैसे मुक्त कर सकता है।
एक तो पर्यावरण प्रदूषण को बढ़ावा दे रहे हो। दूसरे आत्मश्लाघा में बंधे हो।
अपने चित्र व्यर्थ डालना आत्मश्लाघा का अज्ञानता का ही द्योतक है।
मिच्छामि दुक्कड़म।
जो मेरे पास आकर बोले मुझे ईश्वर को जानना है उसके रहस्यों को जानना है जो चिंतित हो इसके लिए ढूंढने पर भी कोई नहीं मिल रहा
सर आपके द्वारा भेजी गयीं mmstm छोटी पुस्तक का सदुपयोग में कैसे करूं।
किसको दूं कहां ढूंढूं।
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इस लिंक में जो विधि साधना की विपुल सर ने दी है वो ही पुस्तक में है समान है दोंनों
कोई अंतर नहीं
श्री कृष्ण भगवान का प्रसाद है ये विधि जो कोई भी करेगा
उसे राह मिलेगी
उसे ईश प्राप्त होंगे
धन्यवाद
चलिए। बधाई हो। आपकी फोटो पर काम हो गया।
देखिये। आपको जो बोला है वह भी करती रहे। रोज रोज आपकी फोटो काम नही करेगी।
http://freedhyan.blogspot.com/2018/09/blog-post_34.html
जैसा सर्व विदित है कि बगलामुखी साधना दस महा विधायों में से एक है ।अतः उचित होगा कि उक्त साधना किसी समर्थ गुरू की रेख देख में वैदिक विधि के अन्तरगत् ही शुरू करें। दूसरा उक्त साधना का मुख्य उदेशय अपने में बसे शत्रुओ यानी काम क्रोध मद लोभ मत्सर के शीघ्र शमन हेतु करे ताकि ईश प्राप्ति की ओर मार्ग प्रष्स्त हो ,नाकि बाहरी शत्रुओं हेतु। यह अलग बात कि उक्त साधना करने वाले के स्वयं ओर उनसे रक्षित लोगो के शत्रु भी माँ की कृपा से स्तम्भित हो जाते हैं। हाँ साधक का ध्येय सदैव जन कल्याण राष्ट कल्याण ही होना चाहिये। जैसा राष्ट गुरू, स्वामी महाराज जी दतिया ने सन् 1962 में चीन को स्तम्भित करने हेतु किया था जिस से चीन कुछ भूभाग हठपने के बाद आज तक एक ईंच भूमि नही हथिया पाया है।यह महा षुरूषो के संकल्प से ही सम्भव है।
इस हेतु उचित होगा कि साधक दतिया मध्य प्रदेश झाँसी के पास माता पीताम्बरा पीठ से इस साधना हेतु उचित मार्ग दर्शन प्रात कर लें।इसके अतिरिक्त् कांगडा या हरिद्वार में बगुलामुखी पीठ या अन्य समर्थ गुरूओ से साधना के मर्म जान कर ही साधना शुरू करे।
एक ओर स्थान फैजाबाद से 22कि मी पहले मुबाकरगंज में अनादी आस्था पीठ भी है जहाँ से मार्ग दर्शन प्रात किया जा सकता है।
http://freedhyan.blogspot.com/2018/09/blog-post_13.html
आदमी कैसे देखता है आंख से। मतलब क्या आंख देखती है। ठीक है।
एक व्यक्ति जिसे मृत्य बोला जाता है उसके आंख तो होती है तो वह क्यो नही देखता??
तो प्रश्न है कि कौन देखता है।
आंख के माध्यम से कौन देखता है।
मतलब देखने का कर्म कौन रहा है। आंख पर कौन देख रहा है?? आत्मा।
जब वह निकल गई शरीर एक लकड़ी का टुकड़ा। जो धू धू कर जल उठता है।
मतलब साफ कार्य करने के पीछे किसका सहयोग। आत्मा का। यह साकार शरीर उस निराकार आत्मा के सहयोग से कुछ कर पाता है। तो कारक कौन।
कुछ हद तक कह सकते है। देखो ऊर्जा क्या hn. h प्लैंक कॉन्स्टेनट। nआवृति।
जब हम कर्म करते है तो हमारे चित्त में तरंग के रूप में एक अलग ऊर्जा के रूप में आत्मिक ऊर्जा जो शुद्ध है और जीवित है। ईश का अंश है। उस ऊर्जा के साथ चित्त रूपी अन्य तरंगिक ऊर्जा मिल जाती है। जब तक यह मिश्रित ऊर्जा ईश की शुद्ध ऊर्जा की आवृत्ति के बराबर नही होती। मुक्ति नही मिलती। मोक्ष नही मिलता।
नही कर्ता आत्मा ही है। इसी को जानना और अनुभव करना ज्ञान है।
शरीर सिर्फ माध्यम है।
आत्मा तो शुध्द चैतन्य ही होती है
उसके ऊपर लेयर के रूप में चित्त की तरंगें होती हैं
तब ही तो परमात्मा को कर्ता कहते है।
सूक्ष्म बुद्धि से समझो तो।
कर्ता
भर्ता
हर्ता
सब परमात्मा ही।
क्यो
क्योकि यह शरीर पदार्थ है और आइंस्टाइन के अनुसार पदार्थ भी ऊर्जा से बनता है।
जब सब अंत ऊर्जा। तो हम तुम कहाँ।
सत्य है। लोगो को समझाने के लिए कर्ता लिखना पड़ता है।
मतलब एक बार ईश की ऊर्जा की आवृत्ति तक छू कर भी आ गए। तो सब स्पष्ट हो जाता है।
यह उच्चतम अवस्था है। बंदा बैरागी और तमाम सिख गुरुओ के साथ औरंगजेब ने क्या नही किया। पर उन्होंने अपना धर्म नही बदला।
रमन महृषि का ऑपरेशन बिना एनस्थीसिया के हुआ था।
वास्तव में जो वहाँ स्तिथ हो जाते है वे ही इस अवस्था मे पहुचते है।
आम आत्मज्ञानी। वहाँ गए कुछ पल। फिर वापिस। यही आना जाना लगा रहता है।
कलियुग में सेवा ही सबसे बड़ा कर्म माना जाता है।
प्रायः बड़े बड़े गुरुओ के ऑपरेशन एनस्थीसिया देकर ही होते थे है और रहेगे।
इस समय मातृ शक्ति की आराधना पूरे विश्व मे होती है। अतः संकल्पों के कारण इस रूप में ईश शक्ति जागृत होती है। अतः ईश की माँ के रूप में पूजा करनी चाहिए। देवी की आराधना मन्त्र नाम जप कैसे भी करना बेहतर होगा।
इस जन्म में भी मनुष्य किसी न किसी बहाने अपने पूर्व साथियों से मिल जाता है।
http://freedhyan.blogspot.com/2018/09/1.html
प्रभु के मार्ग में बनिया बुद्धि नहीं चलती। लाभ हानि नही देखते।दोनों का महत्व है।
साधना एकान्तता का परिचायक है। अंदर की ओर ले जाती है।
सत्संग वाहीक वातावरण से होनेवाले दुष्प्रभावों से दूर रखता है।
अतः दोनो आवश्यक है।
क्योकि संगति ही सत्मार्ग या कुमार्ग पर ले जाती है। हमे दिखाती है।
साधना मार्ग पर बढ़ने का इंजन है। और सत्संग मार्ग।
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नवरात्रि आ रही है। शक्ति आराधना हेतु इन मन्त्रो को किया जा सकता है।
उठकर जप पर बैठ जाया करो।
मित्रो यदि नींद नही आती है तो समय का सदुपयोग करे। हाथ पैर धोकर अपने बिस्तर पर ही आसन लगाकर मन्त्र जप साधन साधना जो भी मन करे। आरम्भ कर दे। कुछ समय बाद स्वतः नीद आ जायेगी।
पर याद रहे मोबाइल न देखे। यह नींद को ध्यान को बहुत भटकाती है।
यार अपना तो कोई समय ही नही। जब मूड बना तो समय बना।
देखो रात्रि भोजन 7.30 तक खा लो। 9 बजे सोने के पहले ध्यान में बैठ जाओ। जब नींद आ जाये। ध्यान करते करते ही सो जाओ। रात को यदि नींद खुल जाए तो फिर बैठ जाओ।
कोई बात नही जब भी सोओ।
ये ही बात मैं समझाने का प्रयास करता हूँ। निराकार ही वास्तविक रूप। इसका अनुभव होने के बाद साकार निराकार का भेद स्पष्ट होता है।
सारे जीव सब कुछ मात्र क्षणिक ही प्रतीत होते है। वास्तव में यह ही ब्रह्म ज्ञान का अंतिम ज्ञान है। जगत मिथ्या ब्रह्म सत्य।
परन्तु इस स्थिति के लोग किंतने। लगभग शून्य।
बीच की स्थिति के कुछ अधिक तो वे निराकार का ढोल पीटते है।
दूसरो सुख से सुख नही मिलता उसी बात दूसरो के ज्ञान से तुमको मुक्ति कैसे मिलेगी।
नही दुनिया मे किंतने लोग बिना अनुभव के निराकार चिल्लाते है चूंकि कही पढा गुरु जी ने बोला। अब पूछो तो गुरु जी को उनके गुरु ने बोला। यही साकार का।
अब देखो अनीश्वरवादी निराकार उपासक बुध्द ने चूंकि ईश्वर नही यह माना और उस अवस्था मे अपनी प्रारंभिक शिक्षा यानि दुःख को याद किया। उनको दुःख का एहसास हुआ। तो लिखा दुःख है। और उनकी शिक्षा का आरम्भ जीवन दुःखों से भरा है। इससे कैसे निजासत पाए। यहाँ से आरम्भ हुई।
अब उनके चेले भी यही माला जपते है।
परन्तु सनातन साकार से यहाँ पहुंचनेवाले आनन्दमय हो जाते है सुख दुख से ऊपर आनन्दमय कोष की बात करते है।
तो वे समझाते है यहाँ तक कैसे पहुँचो।
तो कुछ यह माला जपते है।
लक्ष्य एक पर धारणाएं अलग एक दाएं हाथ चलो । दूसरा बाएं हाथ चलो।
पर अंत एक।
यही फर्क हो जाता है। ज्ञानियों के व्याख्यानों में।
वसिष्ठ के उपदेश की बात एक है। पर हर बुद्धि वाला उसको अपने तरीके बताएगा और समझेगा।
और यदि रामपाल होगा तो अंत मे कबीर डाल कर व्याख्या कर देगा।
ओशो उस आनन्द को सेक्स से जोड़ देगा।
पर बोलना इस लिए आवश्यक हो गया। क्योकि सदस्य अपनी अपनी सोंच को लेकर लिखना चालू करेगे। तो व्यर्थ का विवाद खड़ा हो सकता है।
अतः भाई सब सही। क्योकि सबका स्तर और सोंच अलग अलग।
यह पोस्ट उस समय की लगती है जब शक्तिपात के बाद राम जी ध्यान समाधि में ब्रह्मांड की उतपति देखी तो वसिष्ठ से प्रश किये। तब वसिष्ठ ने उत्तर दिए।
यह मैं समझता हूँ। बाकी मैंने पढ़ी नही है।
पर प्रश्न से मुझे प्रसन्नता हुई कि यही प्रश्न है जो मैने अनुभव कर ब्रह्मांड उत्तपत्ति में लिखा। तो फिर क्या मेरा अनुभव सही था। क्योकि राम जी भी यही जिज्ञासा कर रहे है।
जय श्री राम।
भूताकाश यह दृश्य जगत।
चिदाकाश जहाँ हमारी आत्मा मन बुद्धि अहंकार सोंच इत्यादि की दुनिया है। यह सब ऊर्जा के ही विभिन्न आयाम और रूप है।
मित्र गुरु है कहाँ अधिकतर दुकानदार। बिना परम्परा के गुरु। बाकी अधकचरे।
सृष्टि उत्तपत्ति के बाद जब मानव की उत्तपत्ति हुई तब मानव ज्ञान हेतु रुद्र ने ही निराकार दुर्गा की इच्छा से शिव का रूप लिया और स्वयं पहली शिष्या के रूप में पार्वती का रूप धारण किया यह सब साकार ही थे।
फिर शिव ने अन्य ऋषियों को ज्ञान देकर गुरु नियुक्त किया।
कुछ हद तक कह सकते है। देखो ऊर्जा क्या hn. h प्लैंक कॉन्स्टेनट। nआवृति।
जब हम कर्म करते है तो हमारे चित्त में तरंग के रूप में एक अलग ऊर्जा के रूप में आत्मिक ऊर्जा जो शुद्ध है और जीवित है। ईश का अंश है। उस ऊर्जा के साथ चित्त रूपी अन्य तरंगिक ऊर्जा मिल जाती है। जब तक यह मिश्रित ऊर्जा ईश की शुद्ध ऊर्जा की आवृत्ति के बराबर नही होती। मुक्ति नही मिलती। मोक्ष नही मिलता।
नही कर्ता आत्मा ही है। इसी को जानना और अनुभव करना ज्ञान है।
तब ही ही तो परमात्मा को कर्ता कहते है।
सूक्ष्म बुद्धि से समझो तो।
कर्ता
भर्ता
हर्ता
सब परमात्मा ही।
क्यो
क्योकि यह शरीर पदार्थ है और आइंस्टाइन के अनुसार पदार्थ भी ऊर्जा से बनता है।
सर मैं आपको गलत नही कह रहा हूँ। बस अपना अनुभव लिखा। पढा बहुत कम।
मतलब
निराकार कृष्ण सुप्त ऊर्जा
महामाया का पर्दा
इसका कम्पन
जागृत ऊर्जा बनी निराकार दुर्गा
ब्रह्म बने
रुद्र बने
विष्णु बने
शिव बने
गायत्री निर्माण
वेद ज्ञान
मन्त्र बने आराधना बनी
विभिन शक्तियां अलग अलग दिखी
देव बने
साकार हुए ये सब
मानव की कहानी आरम्भ।
http://freedhyan.blogspot.com/2018/09/blog-post_21.html
मेरे पास कुछ ऐसे लोग व्हाट्सएप ग्रुप और व्यक्तिगत भी आते है जो यू ट्यूब को देखकर चक्र साधना, कुण्डलनी जागरण, या क्रिया योग या अन्य कुछ आरंभ करते है। कुछ दिनों बाद अधिकतर लोग आज्ञा चक्र या कनपटी पर तीव्र दर्द, कमर में दर्द, अत्याधिक पसीना, खुजली, दाने इत्यादि की शिकायत करते है। कोई कोई तो अनुभव से भयभीत होकर सलाह मागने लगता है।
परमपिता परमेश्वर की कृपा से इस संसार में हर जीव की उत्पत्ति बीज के द्वारा ही होती है चाहे वह पेड़-पौधे हो, कीडे – मकोडे, जानवर या फिर मनुष्य योनी। चित्त में भी कर्मफल बीज के रूप संचित होते हैं। यानी बीज को जीवन की उत्पत्ति का कारक माना गया है।बीज मंत्र भी कुछ इस तरह ही कार्य करते है। हिन्दू धरम में सभी देवी-देवताओं के सम्पूर्ण मन्त्रों के प्रतिनिधित्व करने वाले शब्द को बीज मंत्र कहा गया है।
वस्तुतः बीजमंत्रों के अक्षर उनकी गूढ़ शक्तियों के संकेत होते हैं। इनमें से प्रत्येक की स्वतंत्र एवं दिव्य शक्ति होती है। और यह समग्र शक्ति मिलकर समवेत रूप में किसी एक देवता के स्वरूप का संकेत देती है। जैसे बरगद के बीज को बोने और सींचने के बाद वह वट वृक्ष के रूप में प्रकट हो जाता है, उसी प्रकार बीजमंत्र भी जप एवं अनुष्ठान के बाद अपने देवता का साक्षात्कार करा देता है।
अब आप कुछ समझे होंगे। वास्तव में ध्यान चाहे वह कोई भी विधि हो। त्राटक, विपश्यना, शब्द, नाद, स्पर्श योग या मन्त्र जप या और कुछ। इनके द्वारा हमारी ऊर्जा बढ़ती है। आप जानते है शक्ति मतलब ऊर्जा। अब होता यह है यदि हमारे शरीर को इस प्रकार की ऊर्जा सहने की आदत नही होती तो हमको रोग या शारीरिक कष्ट हो सकते है।
आप जानते है ऊर्जा मतलब hn h is plank constant n is frequency. इस कारण विभिन्न विधियों और मन्त्रो के अलग अलग ऊर्जा के आयाम अलग आवृत्तियों के कारण हो जाते है।
उदाहरण आपने किसी विशेष चक्र पर उसके बीज मंत्र से ध्यान किया। उस ऊर्जायित आयाम के कारण चक्र के बीज मंत्र उद्देलित हो गए। अब चक्र की एक विशिष्ट ऊर्जा निकली। उस चक्र के ऊपर नीचे का चक्र तो जागृत नही तो यह ऊर्जा कहा से निकलेगी। रास्ता न मिलने पर यह रोग पैदा कर सकता है जो असाध्य भी हो सकता है।
यदि आपके चक्र कुण्डलनी जागरण के पश्चात मूलाधार को भेदकर धीरे धीरे ऊपर के चक्रो में आते है तो यह ऊर्जा नीचे के चक्रो से निकल जाती है और शरीर मे रोग नही होता।
अब यदि बिना कुण्डलनी जगे चक्रो के बीज मंत्र उर्जित हो गए तो भगवान मालिक।
वही समर्थ गुरु अपनी ऊर्जा से शिष्य की अधिक ऊर्जा को नियंत्रित कर सकता है।
अब मान लीजिए आपने त्राटक किया वह भी बिंदु या रंग और जो निराकार है। तो आपके आज्ञा चक्र की ऊर्जा बढ़ी। यदि वह बाहर नही निकल पाई तो वह आपके मस्तिष्क के न्यूरॉन्स को प्रभावित कर सकती है। ये न्यूरॉन्स बहुत कोमल और याददाश्त को गुत्थियों में संग्रहित करते है। इस कारण आपका मस्तिष्क संतुलन बिगड़ सकता है। आप जिद्दी या कुछ हद तक पागल भी हो सकते है।
इस सबका एक ही उपचार है कि प्रणायाम के द्वारा अपनी अतिरिक्त ऊर्जा को श्वास से बाहर निकाले और आसनों द्वारा शरीर मजबूत करे।
यदि यह नही कर सकते हो किसी साकार मन्त्र का जप करे। यह जाप सुनार के हथौड़े की चोट कर आपके शरीर और चक्रो को कम्पन देकर उन्हें ऊर्जा सहने लायक बनाता है।
समस्या वहाँ अधिक आती है जो निराकार विधियों से ध्यान करता है। क्योंकि निराकार आकार रहित होता है तो आपकी ऊर्जा जो ब्रह्म शक्ति का रुप है वह आपको किस रूप में किस प्रकार सहायता करेगी।
वही साकार मन्त्र जप और विधियाँ उस ब्रह्म शक्ति को उस मन्त्र के सगुण रूप में आने को विवश हो जाती है। सहायता करने के अतिरिक्त वह उस साकार और मन्त्र संकल्पना का रूप धारण कर दर्शन देकर अतिरिक्त ऊर्जा को शारीरिक ऊर्जा में समाहित कर देती है।
आप देखे माउंट आबू में मस्तिष्क रोगी अधिकतर पाए है। जो नही वह किसी हद तक झक्की हो जाते है। कारण वहाँ जो है वह कुण्डलनी शक्ति मानते नहीं। गुरु मानते नही। लाल प्रकाश जो मूलाधार का रंग है उस प्रकाश पर निराकार त्राटक करवाते है। पति पत्नी के बीच सम्बन्ध से जो ऊर्जा निकलती है उसे रोककर दोनो को भाई बहन बना देते है। तो ऊर्जा किधर जाए।
लिखने को हर विधि पर हैं पर संक्षेप में आप कोई भी विधि यदि साकार सगुण करते है तो खतरा कम। दूसरे सबसे सरल सहज आसान है मन्त्र जप। नाम जप। आपको जो इष्ट अच्छा लगे उसका मन्त्र जप करे। सघन सतत निरन्तर। यह साकार मन्त्र आपको आपके गुरू से लेकर निराकार तक की यात्राओं के अतिरिक्त ब्रह्म ज्ञान भी दे जाएगा। बस अपने इष्ट को समर्पित होने का प्रयास करो।
जय महाकाली। जय गुरुदेव।
MMSTM समवैध्यावि ध्यान की वह आधुनिक
विधि है। कोई चाहे नास्तिक हो आस्तिक हो, साकार, निराकार कुछ भी हो बस पागल और हठी
न हो तो उसको ईश अनुभव होकर रहेगा बस समयावधि कुछ बढ सकती है। आपको प्रतिदिन लगभग
40 मिनट देने होंगे और आपको 1 दिन से लेकर 10 वर्ष का समय लग सकता है। 1 दिन उनके
लिये जो सत्वगुणी और ईश भक्त हैं। 10 साल बगदादी जैसे हत्यारे के लिये। वैसे 6
महीने बहुत है किसी आम आदमी के लिये।" सनातन पुत्र देवीदास विपुल खोजी
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इस ब्लाग पर प्रकाशित मेरे ग्रुप “आत्म अवलोकन और योग” से लिये गये हैं। जो सिर्फ़
सामाजिक बदलाव के चिन्तन हेतु ही हैं। कुछ लेखन साम्रगी लेखक के निजी अनुभव और विचार हैं। अतः किसी की व्यक्तिगत/धार्मिक भावना को आहत करना, विद्वेष फ़ैलाना हमारा उद्देश्य नहीं है। इसलिये किसी भी पाठक को कोई साम्रगी आपत्तिजनक लगे तो कृपया उसी लेख पर टिप्पणी करें। आपत्ति उचित होने पर साम्रगी सुधार/हटा दिया जायेगा।
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