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Monday, August 26, 2019

आरती का पूजा में महत्व व प्रकार

आरती का पूजा में महत्व व प्रकार

 सनातनपुत्र देवीदास विपुल "खोजी"


 विपुल सेन उर्फ विपुल लखनवी,
(एम . टेक. केमिकल इंजीनियर) वैज्ञानिक एवं कवि
पूर्व सम्पादक : विज्ञान त्रैमासिक हिन्दी जर्नल “वैज्ञनिक” ISSN 2456-4818
  - मेल: vipkavi@gmail.com  वेब:  vipkavi.info वेब चैनलvipkavi
ब्लाग: freedhyan.blogspot.com,  फेस बुक:   vipul luckhnavi “bullet"

आरती का भगवान की पूजा में बहुत महत्त्व होता है। पूजा की समाप्ति पर इन्हे गाने से पूजा में अज्ञानवश या असावधानी से यदि कोई भी त्रुटी रह जाती है तो उसकी पूर्ति जाती है।


पुराणों में कहा गया है की जो प्राणी धूप आरती दोनों हाथों से  श्रद्धा पूर्वक लेता है वह अपनी करोड़ो पीढ़ियों का उद्धार कर लेता है और विष्णु लोक में परम पद को प्राप्त होता है।


इसके अलावा आरती के लिए जलाये जाने वाले घी , कपूर आदि से वातावरण शुद्ध होता है। कई प्रकार के नुकसान देह कीटाणु आदि इससे नष्ट होते है। वातावरण में एक पॉज़िटिव एनर्जी का संचार होता है। आरती करने और गाने से मन प्रसन्न होता है अतः सभी को बहुत अच्छा लगता है ।


आरती हिन्दू उपासना की एक विधि है। इसमें जलती हुई लौ या इसके समान कुछ खास वस्तुओं से आराध्य के सामाने एक विशेष विधि से घुमाई जाती है। ये लौ घी या तेल के दीये की हो सकती है या कपूर की। इसमें वैकल्पिक रूप से, घी, धूप तथा सुगंधित पदार्थों को भी मिलाया जाता है। कई बार इसके साथ संगीत (भजन) तथा नृत्य भी होता है। मंदिरों में इसे प्रातः, सांय एवं रात्रि (शयन) में द्वार के बंद होने से पहले किया जाता है। प्राचीन काल में यह व्यापक पैमाने पर प्रयोग किया जाता था। तमिल भाषा में इसे दीप आराधनई कहते हैं।


सामान्यतः पूजा के अंत में आराध्य भगवान की आरती करते हैं। आरती में कई सामग्रियों का प्रयोग किया जाता है। इन सबका विशेष अर्थ होता है। ऐसी मान्यता है कि न केवल आरती करने, बल्कि इसमें सम्मिलित होने पर भी बहुत पुण्य मिलता है। किसी भी देवता की आरती करते समय उन्हें तीन बार पुष्प अर्पित करने चाहियें। इस बीच ढोल, नगाडे, घड़ियाल आदि भी बजाये जाते हैं।


आरती  के लिए कैसा दीपक लेना चाहिए , दीपक मे कितनी बत्तियां होनी चाहिए , कपूर से करें या घी के दीपक से , दीपक को कितनी बार घुमाएँ , इष्ट देव के किस अंग की और करके घुमाएँ इत्यादि पर संशय बना रहता है। और मन में संशय रहता है कि पता नहीं आरती सही तरीके से हुई या नहीं।


आजकल एकल परिवार के कारण आरती के बोल  आरती लय भी पता नहीं होती कैसे गाते हैं।  वैसे ओम जय जगदीश हरे आरती सबसे अधिक गाई जाती है।

 

आरती अपने इष्ट देव की प्रतिमा के चारों ओर घी का दीपक ,  कपूर , धूप ,अगरबत्ती आदि को जलाकर उसे घूमाते हुए की जाती है। कृष्ण भगवान की आरती के समय घी का दीपक होना चाहिए। घर में एक बत्ती के दीपक से आरती की जाती है। अपनी श्रद्धा के अनुसार आरति करने के लिए दीपक , कपूर या अगरबत्ती आदि ले सकते हैं।


आरती करते हुए भक्त के मान में ऐसी भावना होनी चाहिए, मानो वह पंच-प्राणों की सहायता से ईश्वर की आरती उतार रहा हो। घी की ज्योति जीव के आत्मा की ज्योति का प्रतीक मानी जाती है। यदि भक्त अंतर्मन से ईश्वर को पुकारते हैं, तो यह पंचारती कहलाती है। आरती प्रायः दिन में एक से पांच बार की जाती है। इसे हर प्रकार के धामिक समारोह एवं त्यौहारों में पूजा के अंत में करते हैं। एक पात्र में शुद्ध घी लेकर उसमें विषम संख्या में बत्तियां जलाकर आरती की जाती है। इसके अलावा कपूर से भी आरती कर सकते हैं। 

 

आरती पांच प्रकार से की जाती है।

पहली दीपमाला से,

दूसरी जल से भरे शंख से,

तीसरी धुले हुए वस्त्र से,

चौथी आम और पीपल आदि के पत्तों से

और पांचवीं साष्टांग अर्थात शरीर के पांचों भाग (मस्तिष्क, हृदय, दोनों कंधे, हाथ व घुटने) से।

पंच-प्राणों की प्रतीक आरती मानव शरीर के पंच-प्राणों की प्रतीक मानी जाती है।


मंदिरों में पांच बत्ती , सात बत्ती या ग्यारह बत्ती वाला दीपक जलाकर आरति की जाती है। घर पर एक बत्ती वाले दीपक से आरती की जाती है।


यदि आप एक से अधिक बत्ती वाले दीपक से आरती करना चाहते है तो विषम संख्या में बत्ती होनी चाहिए , उनमे भी तीन , नौ व तेरह बत्ती नहीं होने चाहिए। पांच , सात , ग्यारह , इक्कीस संख्या शुभ होती है।


पहले दीपक को चार बार इष्ट देव के चरणों की तरफ घुमाएँ ,

फिर दीपक को दो बार इष्ट देव की नाभि की ओर करके घुमाएँ  ,

इसके बाद एक बार इष्ट देव के मुख मंडल की ओर करके घुमाएँ ,

फिर एक बार इष्ट देव के चारों ओर घुमाएं ।

इस तरह सात बार दीपक को घूमाना चाहिए ।


आरती की थाली या दीपक (या सहस्र दीप) को ईष्ट देव की मूर्ति के समक्ष ऊपर से नीचे, गोलाकार घुमाया जाता है। इसे घुमाने की एक निश्चित संख्या भी हो सकती है, व गोले के व्यास भी कई हो सकते हैं। इसके साथ आरती गान भी समूह द्वारा गाय़ा जाता है जिसको संगीत आदि की संगत भी दी जाती है। आरती होने के बाद पंडित या आरती करने वाला, आरती के दीपक को उपस्थित भक्त-समूह में घुमाता है, व लोग अपने दोनों हाथों को नीचे को उलटा कर जोड़ लेते हैं व आरती पर घुमा कर अपने मस्तक को लगाते हैं। इसके दो कारण बताये जाते हैं। एक मान्यता अनुसार ईश्वर की शक्ति उस आरती में समा जाती है, जिसका अंश भक्त मिल कर अपने अपने मस्तक पर ले लेते हैं। दूसरी मानयता अनुसा ईश्वर की नज़र उतारी जाती है, या बलाएं ली जाती हैं, व भक्तजन उसे इस प्रकार अपने ऊपर लेने की भावना करते हैं, जिस प्रका एक मां अपने बच्चों की बलाएं ले लेती है। ये मात्र सांकेतिक होता है, असल में जिसका उद्देश्य ईश्वर के प्रति अपना समर्पण व प्रेम जताना होता हैआरती पूरी श्रद्धा व निष्ठा के साथ करनी चाहिए। ताली , घंटी , मंजीरे आदि बजाने से इष्ट देव में ध्यान अच्छे से लगता है और आरति का आनंद मिलता है।


घंटी अपनी श्रद्धा के अनुसार सोने , चाँदी की या पीतल की ले सकते है । घंटी से मधुर ध्वनी निकालनी चाहिए। आरती में परिवार के सभी लोगों को इकठ्ठा होना  चाहिए । इससे परिवार में प्रेम बढ़ता है और ईश्वर की कृपा पूरे परिवार पर बनी रहती है।

 

आरती का थाल धातु का बना होता है, जो प्रायः पीतल, तांबा, चांदी या सोना का हो सकता है। इसमें एक गुंधे हुए आटे का, धातु का, गीली मिट्टी आदि का दीपक रखा होता है। ये दीपक गोल, या पंचमुखी, सप्त मुखी, अधिक विषम संख्या मुखी हो सकता है। इसे तेल या शुद्ध घी द्वारा रुई की बत्ती से जलाया गया होता है। प्रायः तेल का प्रयोग रक्षा दीपकों में किया जाता है, व आरती दीपकों में घी का ही प्रयोग करते हैं। बत्ती के स्थान पर कपूर भी प्रयोग की जा सकती है। इस थाली में दीपक के अलावा पूजा के फ़ूल, धूप-अगरबत्ती आदि भी रखे हो सकते हैं। इसके स्थान पर सामान्य पूजा की थाली भी प्रयोग की जा सकती है। कई स्थानों पर, विशेषकर नदियों की आरती के लिये थाली की जगह आरती दीपक प्रयोग होते हैं। इनमें बत्तियों की संख्या 101 भी हो सकती है। इन्हें शत दीपक या सहस्रदीप भी कहा जाता है। ये विशेष ध्यानयोग्य बात है, कि आरती कभी सम संख्य़ा दीपकों से नहीं की जाती है।

 

आरती पूरी होने के बाद दो तीन बार इष्ट देव का जयकारा करना चाहिए। इसके बाद सभी को दीपक की लौ के ऊपर दोनों हाथ श्रद्धा पूर्वक फेरकर अपने सिर ,आँख और मुँह पर फेरना चाहिए। इससे सारे शरीर की शुद्धि हो जाती है।


अंत में इष्ट को दंडवत प्रणाम कर विनती करनी चाहिये। 

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"MMSTM समवैध्यावि ध्यान की वह आधुनिक विधि है। कोई चाहे नास्तिक हो आस्तिक हो, साकार, निराकार कुछ भी हो बस पागल और हठी न हो तो उसको ईश अनुभव होकर रहेगा बस समयावधि कुछ बढ़ सकती है। आपको प्रतिदिन लगभग 40 मिनट देने होंगे और आपको 1 दिन से लेकर 10 वर्ष का समय लग सकता है। 1 दिन उनके लिये जो सत्वगुणी और ईश भक्त हैं। 10 साल बगदादी जैसे हत्यारे के लिये। वैसे 6 महीने बहुत है किसी आम आदमी के लिये।"  देवीदास विपुल 
ब्लाग :  https://freedhyan.blogspot.com/2018/04/blog-post_45.html



 



1 comment:

  1. Useful information.. We will not get it from internet.. .. Thank you🙏💕

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