विवातित जीसस और संतो द्वारा उल्लेख
सनातनपुत्र देवीदास विपुल "अन्वेषक"
विपुल सेन उर्फ विपुल “लखनवी”,
(एम . टेक. केमिकल इंजीनियर) वैज्ञानिक
एवं कवि
पूर्व सम्पादक : विज्ञान त्रैमासिक हिन्दी जर्नल
“वैज्ञनिक” ISSN
2456-4818
मो. 09969680093
Vipkavi.info
आप नेट पर कोई भी आध्यात्मिक लेख पढें तो आप पायेंगे कि अंत में जीसस का लिंक दिया होगा और उनका प्रचार दिया होगा। एक सनातन हिंदू होने कारण श्रीमद्भग्वद्गीता को समझने के कारण मैं इसमें कोई बुराई नहीं समझता किंतु दुख इस बात का होता है कि आज की तारीख में कोई भी जीसस को माननेवाला उनके रास्ते पर नहीं चल रहा है। फादर तो इस लिये बन जाते हैं ताकि जिंदगी में सेक्स के दारू के मजे उड़ा सके। दान में मिले पैसों से लोगों का धर्म परिवर्तन करवा सकें। जो चर्च जितना अधिक धर्म परिवर्तन करवाता है उसे उतना ही ऊंचा सम्मान और ओहदा मिलता है। हलांकि यह सभी धर्मों में कम ज्यादा है। किंतु यह लेख जीसस पर है अत: ईसाइत की बात ही करूंगा।
जीसस ने कभी नहीं कहा कि किसी गरीब की मजबूरी का फायदा लेकर उसे इसाई बनाओ। जीसस को मैं भी उतना ही सम्मान देता हूं जितना कोई और। कारण स्पष्ट है जीसस पर महाऋषि अमर ने और योगदा संस्थान के महाअवतार और संत श्यामाचरण लाहिड़ी परम्परा के स्वामी योगानंद ने अपने अनुभव बतायें हैं। महाऋषि अमर तो सप्तऋषि ही थे और उनके अनुभव उनके शिष्य महाऋषि कृष्णानंद ने लिखे हैं। जिनको मनसा फाउडेशन चिक्कीगुबी बंगलोर ने अभी हाल में ही छापा है। सन 2006 के आस पास।
विश्वभर में ना जाने कितने ही धर्मों और संप्रदायों को मानने वाले लोग रहते हैं। सभी की अपनी-अपनी मान्यता और अपने-अपने रिवाज हैं। लेकिन शायद ही कभी किसी ने एक बात पर गौर किया हो कि एक-दूसरे से पूरी तरह अलग ना होकर इन सबके बीच कुछ ना कुछ समानता या फिर किसी प्रकार का संबंध अवश्य होता है।
हालांकि यह बात एक बहुत बड़ा विवादित मसला है लेकिन बहुत से लोगों का मानना है कि सनातन धर्म, जो दुनिया का सबसे प्राचीन धर्म माना गया है, से ही अन्य किसी भी धर्म का उद्भव हुआ है। दूसरे शब्दों में आप ये कह सकते हैं कि सनातन धर्म एक सागर है जिससे धर्म रूपी विभिन्न नदियां निकली हैं। अब ये बात कितनी सच है या कितना फसाना, इस बात पर बहस करने से पूरी तरह बचते हुए मैं आपका ध्यान एक ऐसी रिपोर्ट पर लेकर जाना चाहती हूं जिसमें कहा गया है कि ईसा मसीह को जब सूली पर लटकाया गया था तब उनकी मृत्यु नहीं हुई थी।
इतना ही नहीं यह भी कहा गया है कि मौत के बाद जब ईसा मसीह वापस आ गए थे, जिस दिन को हम ईस्टर के तौर पर मनाते हैं, तब वह येरुसलम से सीधे भारत की ओर आए थे। भारत आकर वे कश्मीर में बसे थे और यहीं उनकी मृत्यु भी हुई थी। कश्मीर में आज भी जीसस क्राइस्ट की कब्र मौजूद है।
बहुत से लोगों के लिए यह कॉंसेप्ट नया है, शायद मेरे लिए भी। दस्तावेजों के अनुसार जीसस क्राइस्ट 33 वर्ष की उम्र तक जीवित रहे थे, 33 वर्ष की उम्र में उन्हें सूली पर लटकाया गया था। लेकिन 13 वर्ष से लेकर 29 वर्ष तक उन्होंने क्या किया, इस बात से पर्दा उठाने की कोशिश भी शुरू हुई है। शोधकर्ताओं के अनुसार 13 वर्ष से लेकर 29 वर्ष तक जीसस क्राइस्ट भारत में रहे थे। इस दौरान उन्होंने भारत में ही रहते हुए शिक्षा ग्रहण की थी। 30 वर्ष की उम्र में वे येरुसलम गए और यहां आकर योहन्ना (जॉन) से दीक्षा ली। दीक्षा ग्रहण करने के पश्चात वे स्वयं शिक्षा का प्रसार-प्रचार करने लगे। अधिकांश विद्वानों का कहना है कि इस 29वीं ईसवीं में गधे पर चढ़कर येरुसलम आए और तभी से उनकी जान लेने का षड़यंत्र रचा जाने लगा। आखिरकार 33 वर्ष की आयु में उनके विरोधियों ने उन्हें सूली पर लटका ही दिया। लेकिन क्या वाकई सूली पर लटकाए जाने के बाद यीशू की मृत्यु हो गई थी?
वैज्ञानिकों की मानें तो “नहीं”। यीशू ने रविवार के दिन येरुसलम में प्रवेश किया था जिसे ‘पाम संडे’ कहा जाता है। शुक्रवार के दिन उन्हें सूली पर लटकाया गया जो ‘गुड फ्राइडे’ के नाम से मनाया जाता है। कहा जाता है अगले रविवार को एक स्त्री, मैरी मैग्डेलन, ने जीसस को अपनी ही कब्र के पास जीवित अवस्था में देखा था। उस दिन के बाद जीसस को कभी किसी ने नहीं देखा, क्योंकि शोध में ये बात सामने आई है कि उस दिन के पश्चात जीसस पुन: भारत लौट आए थे। भारत लौटकर उन्होंने कश्मीर के बौद्ध और नाथ संप्रदाय के लोगों के साथ समय बिताया और गहन तपस्या की। मठ में उन्होंने 13 से 29 वर्ष तक रहकर शिक्षा ग्रहण की थी, दोबारा वे उसी मठ में रहने लगे और आजीवन वहीं रहे, वहीं उनकी मृत्यु भी हुई। बहुत से लोग तो यह भी कहते हैं सन् 80 ई. में श्रीनगर में हुए प्रसिद्ध बौद्ध सम्मेलन में ईसा मसीह ने भी भाग लिया था। श्रीनगर के उत्तर दिशा में स्थित पहाड़ों पर बौद्ध विहार का एक खंडहर है, जहां सम्मेलन हुआ था।
हाल ही में एक खोजी टी.वी. चैनल द्वारा कश्मीर स्थित उनकी कब्र को भी अपने चैनल पर दिखाया था। रिपोर्ट की मानें तो श्रीनगर के पुराने शहर में 'रौजाबल' नाम से मशहूर इमारत स्थित है। पत्थर से बनी यह इमारत एक गली के नुक्कड़ पर है। कहा जा रहा है कि इस इमारत में एक मकबरा है, जिसमें जीसस क्राइस्ट का शव रखा हुआ है। वैसे आधिकारिक तौर पर तो यह मकबरा मध्यकालीन युग के मुस्लिम उपदेशक यूजा आसफ का कहा जाता है, लेकिन बहुत से लोग यह भी मानते हैं कि इस मकबरे में यूजा आसफ की नहीं जीसस क्राइस्ट की कब्र है। कश्मीर आने पर जीसस क्राइस्ट का पहला पड़ाव पहलगाम था। मान्यता तो यह भी है कि पहलगाम में ही ईसा मसीह ने अपने प्राण भी त्यागे थे। ओशो रजनीश की एक किताब 'गोल्डन चाइल्डहुड' के अनुसार यहूदी धर्म के पैंगबर (मोज़ेज) ने भी इसी स्थान पर अपनी देह छोड़ी थी। ईसा और मोजेस, दोनों की ही कब्र यहीं है।
अपनी किताब में ओशो ने लिखा था “यह बहुत अच्छा हुआ कि जीसस और मोजेज दोनों की मृत्यु भारत में ही हुई। भारत न तो ईसाई है और न ही यहूदी। परंतु जो आदमी या जो परिवार इन कब्रों की देखभाल करते हैं वह यहूदी हैं। दोनों कब्रें भी यहूदी ढंग से बनी हैं। हिंदू कब्र नहीं बनाते। मुसलमान बनाते हैं किन्तुक दूसरे ढंग की। मुसलमान की कब्र का सिर मक्काह की ओर होता है। केवल वे दोनों कब्रें ही कश्मीमर में ऐसी हैं जो मुस्लिम नियमों के अनुसार नहीं बनाई गईं।“ हालांकि ईसा मसीह की मृत्यु और मृत्यु के बाद भारत आकर उनके रहने जैसी बातें अत्याधिक विवादित मसला है। विभिन्न भाषा में, विभिन्न काल खंडों में ईसा के रहस्यमय जीवन और फिर मृत्यु के बाद के जीवन पर न जाने कितनी बातें लिखी गई हैं, कई शोध भी किए गए हैं। लेकिन किसी एक तथ्य पर मुहर लगना ना आज संभव है, ना था और ना होगा।
ये दुनिया दो तरह के लोगों के बीच बंटी हुई है। एक वो जो ईश्वर के अस्तित्व पर विश्वास करते हैं और दूसरे वो जो ऐसी किसी भी धारणा को मनगढ़ंत मानते हैं। जो लोग ईश्वर पर आस्था रखते हैं उनके लिए यह समस्त ब्रह्मांड सर्वोच्च सत्ता के हाथ में है, इन्हें आस्तिक कहा जाता है। वहीं दूसरी ओर वे लोग जिनके लिए ईश्वर का कोई अस्तित्व नहीं है, जिनके लिए दैवीय सत्ता कोई महत्व नहीं रखती, उनका मानना है कि ईश्वर के अस्तित्व की खोज उन लोगों ने की है जो अपनी परेशानियां खुद नहीं सुलझा सकते और हर बात पर ईश्वर से सहारा मांगते हैं या ईश्वर को दोष देते हैं। आस्तिकों और नास्तिकों की अवधारणाओं में बहुत से मौलिक अंतर हैं, जिसकी वजह से दोनों ही किसी भी बिन्दु पर एकमत होना नहीं चाहते। इसकी वजह से हर मसला एक बहस का मुद्दा बन जाता है।
ऐसा ही एक बहस का मुद्दा है जीसस, ईशू, या ईसा मसीह के अस्तित्व से जुड़ा। हालिया एक शोध के अनुसार यह बात सामने आई है कि ईसा मसीह का जन्म कभी हुआ ही नहीं था। अर्थात जिस व्यक्ति को ईसाई धर्म के संस्थापक के रूप में देखा जाता है असल में वह कभी था ही नहीं। ईश्वर के अस्तित्व पर विश्वास ना करने वाले प्रसिद्ध नास्तिक लेखक डेविड फिट्जगेराल्ड का कहना है कि ऐसा कोई प्रमाण नहीं मिला है जिसके आधार पर यह कहा जाए कि ईसा मसीह का धरती पर जन्म हुआ था। डेविडका कहना है कि जीसस क्राइस्ट कोई वास्तविक इंसान नहीं थे, बल्कि बहुत सी कहानियों, व्यक्तित्वों और घटनाओं को एक-दूसरे से जोड़कर जीसस के जन्म की कहानी गढ़ी गई है। लेखक का यह भी दावा है कि उनके द्वारा किए गए शोध में यह बात पुख्ता हुई है कि जिस काल को जीसस के जन्म से जोड़ा जाता है, उस काल से जुड़े दस्तावेजों से कहीं भी ईसा मसीह का जुड़ाव प्रदर्शित नहीं होता। जबकि यहूदी धर्म के अन्य धर्म प्रचारक और संस्थापकों का जिक्र फिर भी मिल जाता है।
डेविड फिट्जगेराल्ड की स्थापनाएं पूर्व में मार्क, मैथ्यू और ल्यूक की स्थापनाओं से अंतर रखती हैं। इन सभी लेखकों ने जीसस के होने का सबूत पेश किया था लेकिन इनसे असहमति दिखाते हुए डेविड का कहना है कि ये सभी सिद्धांत जीसस के कथित समय के बहुत बाद में लिखे गए हैं। अपनी किताब में डेविड ने लिखा है कि जीसस का स्वरूप असल में उस कुछ मूर्तिपूजा करने वाले लोगों के धर्म और अन्य कुछ कहानियों के आधार पर व्यवस्थित किया गया है। इतना ही नहीं डेविड के अनुसार जीसस के चमत्कारी जीवन से जुड़ी कहानियां या उनके द्वारा किए गए चमत्कार सिर्फ उनके आसपास के लोगों के अलावा ना किसी ने देखे और ना ही उनके जाने के करीब 100 सालों तक किसी ने सुने। इसका अर्थ स्पष्ट है कि जीसस ने ऐसा कुछ किया ही नहीं था।
ईसाई धर्म के सिद्धांत, एक साहित्यिक कहानी जैसी हैं, जिन्हें गठित भी कथित समय के बहुत बाद में किया गया है। ऐसा लगता है ईसाई पंथ, यहूदी धर्म का कोई रहस्यमय धर्म है। फिट्जगेराल्ड के अनुसार जीसस का जन्म इस धरती पर कभी नहीं हुआ था और अगर हुआ भी था तो वह कोई एक नहीं बल्कि बहुत से अलग-अलग व्यक्तित्वों से मिलकर बना एक स्वरूप है। लेखक का दावा है कि ईसाई धर्म के लाखों अनुयायी, जीसस द्वारा हुए चमत्कारों का सिर्फ दावा करते हैं जबकि ऐसा कोई भी प्रमाण नहीं है जो इन दावों को सच साबित करे। अपने दावों को पुख्ता करने के लिए डेविड का कहना है कि ऐसा माना कि तथाकथित जीसस को यहूदियों ने सूली पर लटका दिया था। लेकिन उस समय यहूदियों की यह परंपरा थी कि वह अपने बंधकों या अपराधियों को पत्थर से मारते थे। फिर जीसस को पत्थर से क्यों नहीं मारा गया?
वहीं दूसरी ओर एक अन्य शोध और कुछ ऐतिहासिक प्रमाण हाथ लगने के बाद भूवैज्ञानिक डॉ. आर्ये शिमरॉन का कहना है कि जीसस का ना सिर्फ अस्तित्व मौजूद था बल्कि वे विवाहित होने के साथ-साथ एक बच्चे के पिता भी थे। आर्ये के अनुसार उन्होंने जेरूसेलम में जीसस के उस मकबरे को खोजा है जिसमें उनकी पत्नी मैरी और भाई जेम्स को दफनाया गया था। बहुत से रसायन परीक्षणों को करने के बाद आइरिश भूवैज्ञानिक ने अपनी खोज में चूना पत्थर के उस बक्से की खोज की है जिसमें जीसस, उनकी पत्नी और उनके भाई की अस्थियां रखी गई थीं। आर्ये शिमरॉन के अनुसार जीसस को नौ अन्य लोगों के साथ दफनाया गया था जिनमें उनके भाई, उनकी पत्नी और उनका बेटा जुडा शामिल था। शिमरॉन की इस खोज ने वर्षों से चली आ रहे उस विवाद को फिर से हवा दे दी है, जो तलपायत मकबरे के मिलने बाद शुरू हुई थी। यह मकबरा वर्ष 1980 में सर्वप्रथम खोजा गया था।
शरीर से मांस के गलने के बाद अस्थियों को एक बक्से में बंद कर दिया जाता है, जिसे ओशरी कहा जाता है। इस मकबरे से मिले ओशरी के ऊपर लिखा था, ‘जीसस, सन ऑफ गॉड’ अर्थात ईश्वर का बेटा। उसके अलावा अन्य नामों में मारिया, मैरी, जोसफ, योस, मैथ्यू और सबसे विवादित, जॉन, जिसे जीसस का पुत्र कहा जा रहा है। बहुत से लोग यह भी कह रहे हैं कि उस समय, जोसफ, मैरी, मैथ्यू आदि जैसे नाम बहुत कॉमन थे। लगभग 8 प्रतिशत ईसाई आबादी इन्हीं नामों से जानी जाती थी इसलिए पुख्ता तौर पर यह कहना कि यह वाकई ईसा मसीह और उनके परिवार के ही अवशेष हैं, जल्दबाजी है। तब से लेकर अब तक ओशरी एक विवाद का विषय ही बनी हुई है कि क्या वाकई इसमें ईसा मसीह के अवशेष हैं या नहीं। क्योंकि ऐसा बहुत कम ही होता है जब कथित ईसा मसीह के परिवार के सदस्यों के नाम किसी अन्य परिवार के सदस्य के भी हों।
खैर जो भी हो, धर्म, ईश्वर और उसका अस्तित्व ये पूर्णत: व्यक्ति की आस्था के ही मसले हैं। अगर आस्था है तो पत्थर भी भगवान है और अगर नहीं तो बड़े से बड़ा चमत्कार भी इत्तेफाक सा लगता है।
ये दुनिया बहुत रहस्यमयी है. कब, कैसे और क्या हो जाए इस रहस्य से ना तो कभी पर्दा उठ पाया है और जहां तक उम्मीद है कभी उठेगा भी नहीं. क्योंकि आए दिन हमारे सामने कोई ना कोई ऐसा रहस्य उठ खड़ा होता है जिसे देखने और जानने के बाद यह लगता है कि शायद इस रहस्यमयी दुनिया की रहस्यमयी दास्तां का कोई अंत नहीं है.
ताजा मामला जीसस क्राइस्ट से जुड़ा है, जिनकी पत्नी का उल्लेख कागज के एक बहुत पुराने टुकड़े के जरिए सामने आया है. प्राचीन काल से जुड़े इस पत्र की लिखाई को जब विशेषज्ञों द्वारा समझा गया तो जो तथ्य सामने आया वो काफी हैरान करने वाला था क्योंकि इस टुकड़े पर स्पष्ट रूप से लिखा है कि जीसस क्राइस्ट की एक पत्नी भी थीं. पूरी तरह से क्षतिग्रस्त कागज के इस टुकड़े की लिखाई को जब ट्रांसलेट किया गया तो इसका अर्थ ‘जीसस सैड टू देम…माइ वाइफ’ अर्थात ‘जीसस ने उन्हें कहा….मेरी पत्नी…’ इस पंक्ति के साथ जीसस ने ‘मैरी’, बहुत हद तक संभव है मैरी मैगडेलन का भी जिक्र किया है. गॉस्पेल ऑफ जीसस वाइफ के तौर पर प्रचारित कागज के इस टुकड़े की खोज वर्ष 2012 में हॉर्वर्ड यूनिवर्सिटी से जुड़े केरन किंग ने की थी. जैसे-जैसे गॉस्पेल ऑफ जीसस वाइफ को लोकप्रियता मिलने लगी, वैसे-वैसे इसकी सच्चाई और प्रमाणिकता की भी खोज शुरू हो गई.
परंतु अफसोस, जांच जैसे-जैसे आगे बढ़ती जा रही है वैसे-वैसे ये बात सामने आ रही है कि जीसस की पत्नी की खबर से जुड़ा यह टुकड़ा नकली है. केरन किंग को यह टुकड़ा कहां से मिला और किसने उन्हें यह दिया, वह इस बात को शेयर नहीं करना चाहते और ना ही इस ‘गॉस्पेल ऑफ जीसस वाइफ’ के इस टुकड़े के असली मालिक का नाम बताना चाहते हैं. जिस समय इस टुकड़े की खोज की गई थी उस समय केरन किंग ने इसे दूसरी शताब्दी में ग्रीक लोगों द्वारा लिखे गए गॉस्पेल की कॉपी कहा था जिसे चौथी शताब्दी में प्राप्त किया गया था. अब जबकि कार्बनडेटिंग तकनीक के जरिए इस टुकड़े की उम्र का पता लगाया गया तो यह सामने आया कि यह आठवीं या नौवीं शताब्दी का है.
हार्वर्ड थियोलॉजिकल रिव्यू द्वारा लिखी गई रिपोर्ट में यह कहा गया कि गॉस्पेल ऑफ जीसस वाइफ को हैंस-उलरिश लाकांप द्वारा वर्ष 1999 में खरीदा गया था. स्पष्ट तौर पर कोई नहीं जानता कि ‘गॉस्पेल ऑफ जीसस वाइफ’ कहां से आया और कौन इसे केरन किंग को देकर गया. जीसस की पत्नी की बात जहां तक है प्राचीन काल में बहुत से लोग यह मानते थे कि जीसस और मैरी मैगडेलन ने विवाह किया था, परंतु यह विवाह कभी उजागर नहीं हुआ. हॉर्वर्ड विश्वविद्यालय के स्कॉलर्स इस टुकड़े की प्रमाणिकता की जांच नहीं कर पा रहे हैं. वह ना इसे सच मान पा रहे हैं और ना ही इसे झुठला पा रहे हैं. बहुत समय से जीसस की पत्नी से जुड़ी यह खबर चर्चा का विषय बनी हुई है और हॉर्वर्ड विश्वविद्यालय के प्रोफेसर इस बात को लेकर अपनी पीठ भी थपथपा रहे थे. लेकिन अब जब ‘गॉस्पेल ऑफ जीसस वाइफ’ की सच्चाई सबके सामने आने लगी है तो हॉर्वर्ड स्कॉलर खुद को ठगा हुआ महसूस कर रहे हैं.
जिसस क्राईस्ट यानी ईसा मसीह के बारे में कहा जाता है कि यहूदियों को ईसा की बढ़ती लोकप्रियता से तकलीफ होने लगी। उन्हें लगने लगा कि ईसा उनसे सत्ता न छीन लें। इसलिए साजिश के तहत इन्हें सूली पर चढ़ा दिया गया। सूली पर चढ़ाए जाने के बाद यह माना गया कि ईसा की मौत हो गई है। लेकिन असलियत यह है कि ईसा सूली पर चढ़ाए जाने के बाद भी जीवित रह गए थे। यह कहना है रूसी स्कालर 'निकोलाई नोटोविच' का। इन्होंने अपनी पुस्तक 'द अननोन लाईफ ऑफ जीसस क्राइस्ट' में लिखा है कि सूली पर चढ़ाए जाने के जिसस मरे नहीं थे। सूली पर चढ़ाए जाने के तीन दिन बाद यह अपने परिवार और मां मैरी के साथ तिब्बत के रास्ते भारत आ गए। भारत में श्रीनगर के पुराने इलाके को इन्होंने अपना ठिकाना बनाया। 80 साल की उम्र में जिसस क्राइस्ट की मृत्यु हुई। माना जाता है कि क्राइस्ट का मकबरा श्री नगर के रोजबाल बिल्डिंग में आज भी है।
इतिहासकार सादिक ने अपनी ऐतिहासिक कृति 'इकमाल-उद्-दीन' में उल्लेख किया है कि जीसस भारत में कई बार आए थे। अपनी पहली यात्रा में इन्होंने तांत्रिक साधना एवं योग का अभ्यास किया। इसी के बल पर सूली पर लटकाये जाने के बावजूद जीसस जीवित रह गए। बाईबल में भी इस बात का उल्लेख है कि ईसा मसीह सूली पर लटकाए जाने के तीन दिन बाद अपने समर्थकों के बीच आए थे। लुईस जेकोलियत ने 1869 ई. में अपनी एक पुस्तक 'द बाईबिल इन इंडिया' में लिखा है कि जीसस क्रिस्ट और भगवान श्री कृष्ण एक थे। लुईस जेकोलियत फ्रांस के एक साहित्यकार और वकील थे। इन्होंने अपनी पुस्तक में कृष्ण और क्राईस्ट का तुलना प्रस्तुत की है। इन्होंने अपनी पुस्तक में यह भी कहा है कि क्राईस्ट शब्द कृष्ण का ही रूपांतरण है। क्राइस्ट के अनुयायी क्रिश्चियन कहलाये।
जीसस शब्द के विषय में लुईस ने कहा है कि क्राईस्ट को 'जीसस' नाम भी उनके अनुयायियों ने दिया है इसका संस्कृति में अर्थ होता है 'मूल तत्व'। भगवान श्री कृष्ण को गीता एवं धार्मिक ग्रंथों में इस रूप में ही व्यक्त किया गया है। जीसस क्राइस्ट के विषय में यह भी उल्लेख मिलता है कि इन्होंने अपने जीवन का एक बड़ा हिस्सा भारत में बिताया। निकोलस नातोविच नामक एक रूसी युद्घ संवाददाता ने अपनी पुस्तक 'द अननोन लाईफ ऑफ जीसस क्राइस्ट' में लिखा है कि जीसस ने अपने जीवन का 18 वर्ष भारत में बिताया। जीसस प्राचीन व्यापारिक मार्ग सिल्क रूट से भारत आये थे। इन्होंने तिब्बत और कश्मीर के मोनेस्ट्री में काफी समय बिताया और बौद्घ एवं भारतीय धर्म ग्रंथों एवं आध्यात्मिक विषयों का अध्ययन किया।
अपनी भारत यात्रा के दौरान जीसस ने उड़ीसा के जगन्नाथ मंदिर की भी यात्रा की थी एवं यहां रहकर इन्होंने अध्ययन किया था। माना जाता है कि भारत में जब बौद्घ धर्म एवं ब्राह्मणों के बीच संघर्ष छिड़ा तब जीसस भारत छोड़कर वापस चले गये। भारत से वापसी के समय जीसस पर्सिया यानी वर्तमान ईरान गये। यहां इन्होंने जरथुस्ट्र के अनुयायियों को उपदेश दिया। जीसस के विषय में यह भी मान्यता है कि जीसस जीवन के अंतिम समय में पुनः भारत आये थे। सादिक ने अपनी ऐतिहासिक कृति 'इकमाल-उद्-दीन' में उल्लेख किया है कि जीसस ने अपनी पहली यात्रा में तांत्रिक साधना एवं योग का अभ्यास किया। इसी के बल पर सूली पर लटकाये जाने के बावजूद जीसस जीवित हो गये। इसके बाद ईसा फिर कभी यहूदी राज्य में नज़र नहीं आये। यह अपने योग बल से भारत आ गये और 'युज-आशफ' नाम से कश्मीर में रहे। यहीं पर ईसा ने देह का त्याग किया।
जीसस पर चाहे कितने विवाद हों किंतु मैं अपने मित्रों से अनुरोध करूंगा कि आप धर्म परिवर्तन का विरोध करें किंतु जीसस जैसे संत का विरोध नहीं। मैं उनको एक अवतार ही मानता हूं। आज के ईसाई चाहे कितने पापी और भृष्ट किंतु जीसस उतने ही सच्चे और निर्दोष। आज धर्म के नाम पर दुकानदारी गलत है और पाप है।
MMSTM समवैध्यावि ध्यान की वह आधुनिक
विधि है। कोई चाहे नास्तिक हो आस्तिक हो, साकार, निराकार कुछ भी हो बस पागल और हठी
न हो तो उसको ईश अनुभव होकर रहेगा बस समयावधि कुछ बढ सकती है। आपको प्रतिदिन लगभग
40 मिनट देने होंगे और आपको 1 दिन से लेकर 10 वर्ष का समय लग सकता है। 1 दिन उनके
लिये जो सत्वगुणी और ईश भक्त हैं। 10 साल बगदादी जैसे हत्यारे के लिये। वैसे 6
महीने बहुत है किसी आम आदमी के लिये।" सनातन पुत्र देवीदास विपुल खोजी
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सामाजिक बदलाव के चिन्तन हेतु ही हैं। कुछ लेखन साम्रगी लेखक के निजी अनुभव और विचार हैं। अतः किसी की व्यक्तिगत/धार्मिक भावना को आहत करना, विद्वेष फ़ैलाना हमारा उद्देश्य नहीं है। इसलिये किसी भी पाठक को कोई साम्रगी आपत्तिजनक लगे तो कृपया उसी लेख पर टिप्पणी करें। आपत्ति उचित होने पर साम्रगी सुधार/हटा दिया जायेगा।
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