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Tuesday, August 13, 2019

आर्य समाज की पतली गली और खमत खामणा

आर्य समाज की पतली गली और खमत खामणा 

 

 सनातनपुत्र देवीदास विपुल "खोजी"


 विपुल सेन उर्फ विपुल लखनवी,
(एम . टेक. केमिकल इंजीनियर) वैज्ञानिक एवं कवि
पूर्व सम्पादक : विज्ञान त्रैमासिक हिन्दी जर्नल “वैज्ञनिक” ISSN 2456-4818
मो.  09969680093
  - मेल: vipkavi@gmail.com  वेब:  vipkavi.info वेब चैनलvipkavi
ब्लाग: freedhyan.blogspot.com,  फेस बुक:   vipul luckhnavi “bullet

सभी से विनम्र निवेदन है कि सभी देशवासियों को  अपने  सभ्यता के  स्वर्णिम   युग के गौरवशाली  अतीत के  बारे में बताइये

कुछ भी करो बस प्रेम से। समर्पण से। कोई भी मन्त्र नाम या स्तुति।


इसमें कोई संदेह नहीं है आर्य समाज ने हिंदुत्व को बचाया साथ हिंदी को स्थापित किया पर जहां तक ज्ञान की बात है यह बहुत छोटे और संकीर्ण मानसिकता के शिकार हो जाते हैं। कारण ये पूर्वाग्रहित होकर सनातन को जानना चाहते हैं वह भी मात्र सत्यार्थ प्रकाश पढ़कर और दूसरों के पढ़े को सत्य मानकर। जो कि पूर्णतया: गलत है।  


मित्र तुषार मुखर्जी ने वेद के कुछ उदाहरण मेरी बात सिद्ध करने हेतु भेजे हैं।  अतः इस विषय का विश्लेषण करने के लिए मैं कुछ वैदिक उद्धरण देना चाहूंगा.


वेद चुकी सनातन धर्म का आधार है अतः वेदों के कुछ मन्त्रों का उद्धरण देना चाहूंगा.

मैं आर्य समाज का सदस्य नहीं हूँ पर उनके कार्यक्रमों से जुड़ा हूँ. आर्य समाज वैदिक मान्यताओं पर चलते हैं.

लेकिन मेरे विचार से उन्होंने वेद-उपनिषद् और भागवत गीता के सूछ्म बातों की ओर पूरी तरह से ध्यान नहीं दिया है.

और यह आर्य समाज की एक बहुत बड़ी समस्या है.

वेद जहाँ एक ओर एक ही ईश्वर (ब्रह्म) जो कि निराकार और निर्गुण है जिसकी प्रतिमा नहीं हो सकती, इस बात का प्रतिपादन करते हैं, अतः आर्य समाज वाले मूर्ती पूजा को नहीं मानते, देवी देवताओं को नहीं मानते.


न तस्य प्रतमिा अस्ति यस्य नाम महद्यशः ।

हिरण्यगर्भऽ इत्येष मा मा हिन्सीदित्येषा यस्मान्न जातऽ इत्येषः ।।

यजुर्वेद- अध्याय-32 - मंत्र-3


संधि विच्छेद के बाद –

न तस्य  प्रतिमा अस्ति यस्य नाम महत् यशः ।

हिरण्यगर्भः इति एषः मा मा हिंसित् इति एषा यस्मात् न जातः इति एषः ।।


भावार्थ  –    

जिस सृष्टिकर्ता परमेश्वर को (महिमा का वर्णन करते हुए) सूर्यादि प्रकाशमान लोकों को धारण करने वाला (कहा गया) है, यह अनादि अजन्मा (कहा गया) है, यह अपने से हमें मत विमुख करे (इस प्रकार प्रार्थना किया गया है), जिसकी  प्रसिद्धि, कीर्त्ति बहुत बड़ी है, (लेकिन) उस (सृष्टिकर्ता परमेश्वर) की तुल्य (कोई भी एक विशेष) मूर्ति या प्रतिकृति नहीं है (क्योंकि सृष्टि में स्थित हर चीज उसी एक ईश्वर का ही रूप या प्रतिकृति हैं) ।

लेकिन वही वेद यह भी कहता है कि वही एक ईश्वर (ब्रह्म) ही चरों और जन्म ले रहे हैं, चारो और प्रकट हो रहे हैं, कि सृष्टि की हर रचना उसी एक ईश्वर (ब्रह्म) का ही स्वरुप है अतः सृष्टि की हर रचना को ब्रह्म स्वरुप मान कर पूजा भी किया जा सकता है.


एषो ह देव: प्रदिशोनु सर्वा: पूर्वो ह जात: स उ गर्भे अन्त:  ।

स एव जात: स जनिष्यमाण: प्रत्यङ् जनास्तिष्ठति सर्वतोमुख: ॥

यजुर्वेद- अध्याय-32 - मंत्र- 4


संधि विच्छेद के बाद –

एषःह देवः प्रऽदशिः अनु सर्वाःपूर्वः  ह जातः स उ गर्भे अन्त:  ।

सः एव जातः सः जनिष्यमाणः प्रत्यङ् जनाः तिष्ठति सर्वतोमुख: ।।

 

भावार्थ  –

यह उत्तम स्वरूप (सृष्टिकर्ता परमेश्वर) निश्चय से सब दिशा उपदिशाओं में व्याप्त हैं । भूतकाल में कल्प के आदि में निश्चय ही सर्व प्रथम  प्रकट हुए (थे) । वह ही (अभी) जन्म के लिए माता के गर्भ में अंदर हैं, वह ही (वर्त्तमान में भी) प्रकट (हो रहे) हैं (और) भविष्य में भी (सदा) वह (ही) प्रकट होने वाले हैं। हे मनुष्यों ! (वह) सबका द्रष्टा, प्रत्येक पदार्थों में (जड़-चेतन- प्राणी मात्र व मनुष्यों में भी) व्याप्त होकर अवस्थित है ।

अतः कैलाश पर्वत को ब्रह्म का स्वरुप होने के कारण पूजा किया जा सकता है, वट वृक्ष को पूजा किया जा सकता है, गंगा नदी को माता मान  कर पूजा किया जा सकता है, गाय को माता मान कर पूजा किया जा सकता है, गुरु को ब्रह्म का रूप मान कर पूजा किया जा सकता है और किसी मूर्ती को ब्रह्म का रूप मान कर पूजा किया जा सकता है.

वेदों के अनुसार वही एक ब्रह्म ही विभिन्न दैवी शक्तियों के रूप में प्रकट हुए हैं, सभी देव-देवियाँ उसी एक ब्रह्म के ही रूप हैं. वेद ही उसी एक ईश्वर (ब्रह्म) का अन्य ईश्वरीय शक्तियों के रूप में प्रकट होने की बात भी कहते हैं


जिस पर शायद आर्य समाज वाले ध्यान नहीं दे पाते.


तदेवाग्निस्तदादित्यस्तद्वायुस्तदु चन्द्रमाः। तदेव शुक्रं तद् ब्रह्म ता आपः स प्रजापतिः।।

यजुर्वेद- अध्याय-32 - मंत्र-1


संधि विच्छेद के बाद –

तत् एव अग्निःतत् आदत्यिः तत् वायुः तत् ऊँ इत्यूँ चन्द्रमाः ।

तत् एव शुक्रम् तत् ब्रह्म ताःआपःसः प्रजाऽपतिः इति  प्रजाऽपतिः।।


भावार्थ  –

वही एक सृष्टिकर्ता परमेश्वर  ही भिन्न भिन्न रूपों में हमारे सामने आते हैं, उस का ही नाम अग्नि है, वही सूर्य हैं, वही वायु हैं, वही चन्द्रमा हैं, वही शुक्र हैं, वही ब्रह्म हैं, वही जल हैं, वही प्रजापति हैं ।

वस्तुतः हम चाहे जिस भी पद्धति से ईश्वर की आराधना करें, चाहे आँख बंद कर मूर्ती पूजा करें, चाहे आँख बंद कर मस्जिद में नमाज पढ़ें, चाहे आँख बंद कर चर्च में प्रार्थना करें, चाहे आँख बंद कर मन्त्र जप करें या चाहे आँख बंद कर ध्यान करें, वस्तुतः हम हमारे शरीर में स्थित उसी एक ईश्वर (ब्रह्म) की ही आराधना कर रहे होते हैं.


वेद ईश्वर को एक शक्ति के रूप में व्यक्त करते हैं (किसी व्यक्ति के रूप में नहीं) और ईश्वर कि आराधना से या ईश्वर के ध्यान से सिर्फ सद्बुद्धि मिलती है या सन्मार्ग कि ओर चलने कि प्रेरणा मिलती है.


वेद ईश्वर के साथ हमारा जन्मदाता और संतान जैसा स्नेह और विश्वास का संबंध बताते है. वेद कभी भी ईश्वर से डरने कि शिक्षा नहीं देते.

 

आ ते वत्सो मनो यमत्परमश्चित्सधस्यात् ।  अग्ने त्वांम् कामये गिरा ।।

सामवेद-प्रपाठक-1 दशति-1 - मंत्र-8


संधि विच्छेद के बाद -

आ ते वत्सो मना  यमत् परमात्  चित् सधस्यात् ।  अग्ने त्वांम् कामये गिरा ।।


भावार्थ  –

(हम) (तेरे) पुत्र तेरे मनन करने योग्य (सत्य ज्ञान को), परम् उत्कृष्ट स्थान से (हृदय से) (स्तुति करके) प्राप्त करते हैं, (हे) अग्नि देव, (हम) तुझे ही चाहते हैं ।

ईश्वर शुभ है अतः वोह कभी किसी का अशुभ कर ही नहीं सकता है.


जैसे माता शुभ होती है अतः पुत्र चाहे कितना भी अपराध कर ले माता अपने पुत्र का अशुभ कर ही नहीं सकती.  


वेद कि सबसे अच्छी बात यह है कि वे बताते हैं कि ईश्वर केवल शुभ हैं कोई अशुभ शक्ति नहीं होती सिर्फ हानिकारक  प्रवृत्ति या हानिकारक  विकार होते हैं.

कया नश्चित्रऽ आ भुवदूती सदावृधः सखा । कया शचिष्ठया वृता ।।

यजुर्वेद- अध्याय-36 - मंत्र- 4


संधि विच्छेद के बाद –

कया न चित्रः आ भुवत्  ऊती सदावृधः सखा । कया शचिष्ठया वृ॒ता ।।


भावार्थ  –

सदा से महान आश्चर्य रूप गुण कर्म स्वभावों से युक्त (परमेश्वर) हम सबके कल्याणमय रक्षण (के लिए), मित्र (की तरह) चारों ओर विद्यमान हैं, (वे) अत्यन्त शुभ शक्ति से कल्याणमय आवर्तन के द्वारा चारों ओर विद्यमान (हैं) ।

सर की सनातनी  बातें याद आतीं हैं

इस आद्यात्म के  मार्ग को सरल बनाना हो उसके सम्पूर्ण रहस्य को जानना हो तो


साकार से निराकार का अनुभव

मतलब एक से अनेक

पहले एक में ईश्वर मान सकते हैं जैसे मूर्तियों में

फिर वो साकार देव ही अपने रहस्य प्रकट करके सभी जड चेतन में अपने स्वरूप का अनुभव करा देगा

द्वैत से अद्वैत का अनुभव


इसे ऐसे समझें

निराकार का अनुभव करने वाला यदि  मूर्ति पूजा का विरोध करे

इसका मतलब है कि उसने अभी सम्पूर्ण संसार को ईश्वरमय नहीं देखा नहीं तो सभी के साथ साथ मूर्तियों में भी ईश्वर का आभास होना चाहिए था उसको


शायद इसीलिए सर कहते हैं कि सीधे निराकार का अनुभव अपूर्ण ज्ञान देता है

एक और वेद मन्त्र का उद्धरण देना चाहूंगा जो यह शिक्षा देता है कि उस एकमात्र ईश्वर (ब्रह्म) को ध्यान के द्वारा या समाधी के द्वारा जाना जा सकता है.


यानि त्रीणि बृहन्ति  येषां  चतुर्थ वियुनक्ति वाचम् ।

ब्रह्मैनद्  विद्यात् तपसा विपश्चिद्  यस्मिनेकं  युज्यते यस्मिन्नेकम् ।।  

अथर्ववेद- कांड-8 सूक्त-9-मन्त्र-3


संधि विच्छेद के बाद –

यानि त्रीणि बृहन्ति  येषाम्  चतुर्थम् वियुनक्ति वाचम् ।

ब्रह्मैनद्  विद्यात् तपसा विपश्चित् यस्मिनेकं  युज्यते यस्मिन्नेकम् ।।  


भावार्थ –

जो तीन (प्रकृति के तीन गुण सत्व, रज और तम) हैं (जो इस चराचर संसार के रूप में) बढ़ते हैं जिनका चौथा (इन तीनों गुणों से बनी प्रकृति को धारण करने वाला प्रभु) वेदमयी वाणी को प्रकट करता है । कर्म और ज्ञान के संचयी विद्वान् ब्रह्मवेत्ता अपने तप द्वारा उनको ब्रह्म (ही) जानें, जिस में एकमात्र (वही ब्रह्म को) समाधि द्वारा साक्षात् किया जाता है, (और) जिस में एक (ब्रह्म ही) अद्वितीय है (ऐसा ही ज्ञान होता है) ।

यहां यह ध्यान देने वाली बात है कि वेदों में "कर्म और ज्ञान के संचयी विद्वान् ब्रह्मवेत्ता" का उल्लेख किया गया है.


अतः सच्चा ब्रह्म वेत्ता वही है जिसको सत्य का ज्ञान हो और साथ ही साथ वोह कर्म भी करे, वो सारे कर्म करे जो कि सत्य पर आधारित हों.

ऐसे ब्रह्मवेत्ता को ही समाधी के पश्चात् ब्रह्म का साक्षात्कार हो सकता है.

जैन धर्म में 10 दिन पर्युषण पर्व मनाये जाते हैं एवं 10 वें दिन सभी  से क्षमा मांगी जाती है लोग आपस में एक दूसरे से क्षमा मांगकर अपना आपसी बैर भूल जाते हैं, मुझे भी आप सभी से क्षमा माँगना चाहिए और आप लोग भी क्षमा करेंगे ये भी में जानता हूँ, में भी सभी को क्षमा करता हूँ, क्योंकि गलतियाँ तो इंसान से होती ही हैं क्योंकि अगर गलतियाँ न हों तो इंसान भगवान बन जायेगा, इसलिए क्षमा माँगना सबसे अच्छा कर्म हैं एवं क्षमा करना सर्वोच्च कर्म है।


*आज जैन धर्म की परंपरा के अनुसार क्षमा मांगने का दिन है मैं जैन तो नहीं हुं लेकिन किसी भी धर्म में कोई अच्छी चीज है तो उसका जरूर अनुसरण करना चाहिए ।*


 *मेरे अहंकार से....यदि मैने किसी को नीचा दिखाया हो...*

*मेरे क्रोध से.... यदि किसी को दुःख पहुचाया हो।*

*मेरे शब्दो से... किसी को कोई परेशानी हुई हो।*

*मेरे ना से.... किसी की सेवा में,दान में, बाधा आयी हो।*

*मेरे हर एक कण कण से जो मैने किसी को निराश किया हो।*

*मेरे शब्दों से.... जो किसी के हृदय को ठेस पहुचाई हो।*

*जाने अनजाने में यदि मैं आपके कष्ट का कारण बना हु।*

*तो मैं मेरा मस्तक झुकाकर,हाथ जोड़कर, सहृदय...*

*आप से क्षमा मांगता हूं..*

खमण खामणा। मिच्छामि दुक्खड़म

यह राजस्थानी भाषा मे क्षमा पर्व के शब्द है।

जो मैंने कहा उसे माफ करें।

मेरे द्वारा किये गए गलत कार्य को माफ करे। मुझे खेद है।

करचरण कृतं वाक्कायजं कर्मजं वा

श्रवननयंजं वा मानसं वापराधम् ।

विहितमविहितं वा सर्वमेततक्षमस्व

जय जय करुणाब्धे श्री महादेवशम्भो ।।

यह क्षमा प्रार्थना है। शिव से।

http://freedhyan.blogspot.com/2018/06/blog-post_20.html?m=0

 



2 comments:

  1. जो मुर्तियां पुजता है वह सिर्फ मुर्ति मे ही ईश्वर को देखता है लेकिन जो निराकार को मानते हैं वे ईश्वर को सर्वव्यापी मानते हैं। आपने उल्टी बात लिखी है।

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  2. मित्र मानो या मानो से कुछ नहीं मिलता। जानो तब मानो। जानने का प्रयास करो। वही पूर्ण जान पाता है जो साकार परिपक्य होने के बाद निराकार को जान पाता है। उसका अनुभव वेद महावाक्यों से ही होता है।

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