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Thursday, August 1, 2019

इस्लाम में छूआछूत बनाम हिंदू वर्ण व्यवस्था

इस्लाम में छूआछूत बनाम हिंदू वर्ण व्यवस्था

सनातनपुत्र देवीदास विपुल "खोजी"


जातिगत भेद और वर्गीकरण सम्पूर्ण विश्व की सुरसा रूपी समस्या है। किंतु भारत एक हिंदू बाहुल्य और सनातन देश है अत: यह हमें अधिक दिखाई देती है। साथ ही हिंदुत्व के सिदांत बेहद मानवीय और सहिष्णु है अत: इस पर हमले अधिक होते हैं। आप देखें मुस्लिम से 72 फिकरे हैं। यहां तक शिया सुन्नी दोनों एक दूसरे के खून के प्यासे रहते हैं। 

भारत में दलित (जिन्हें पहले अछूत कहा जाता था) सबसे ख़राब स्थितियों में जीते हैं क्योंकि हिंदुओं की जाति व्यवस्था उन्हें समाज में सबसे निचले स्थान पर रखती है। हालांकि हिंदुओं में छुआछूत के बहुत सारे प्रमाण हैं और इस पर बहुत चर्चा भी हुई है लेकिन भारत के मुसलमानों के बीच छुआछूत पर बमुश्किल ही बात की गई है। इसकी एक वजह तो यह है कि इस्लाम में जाति नहीं है बल्कि एक सम्प्रदाय है।


भारत के 14 करोड़ मुसलमानों में से ज़्यादातर स्थानीय हैं जिन्होंने धर्मपरिवर्तन किया है.। अधिकतर ने हिंदू उच्च-जातियों के उत्पीड़न से बचने के लिए इस्लाम ग्रहण किया।

सामाजिक रूप से पिछड़े मुसलमानों के एक संगठन के प्रतिनिधि एजाज़ अली के अनुसार वर्तमान भारतीय मुसलमान की 75 फ़ीसदी दलित आबादी इन्हीं की है जिन्हें दलित मुसलमान कहा जाता है। इस विषय पर काम करने वाले राजनीति विज्ञानी डॉक्टर आफ़ताब आलम कहते हैं, "भारत और दक्षिण एशिया में रहने वाले मुसलमानों के लिए जाति और छुआ-छूत जीवन की एक सच्चाई है."


अध्ययनों से पता चलता है कि "छुआछूत इस समुदाय का सबसे ज़्यादा छुपाया गया रहस्य है।  शुद्धता और अशुद्धता का विचार;  साफ़ और गंदी जातियां" मुसलमानों के बीच मौजूद हैं.


अली अलवर की एक किताब के अनुसार हिंदुओं में दलितों को अस्पृश्य कहा जाता है तो मुसलमान उन्हें अर्ज़ाल (ओछा) कहते हैं। डॉक्टर आलम के साल 2009 में किए एक अध्ययन के अनुसार किसी भी प्रमुख मुस्लिम संगठन में एक भी 'दलित मुसलमान' नहीं था और इन सब पर 'उच्च जाति' के मुसलमानों ही प्रभावी थे।


अब कुछ शोधकर्ताओं के समूह के किए अपनी तरह के पहले बड़े अध्ययन से पता चला है कि भारतीय मुसलमानों के बीच भी छुआछूत का अभिशाप मौजूद है। प्रशांत के त्रिवेदी,  श्रीनिवास गोली,  फ़ाहिमुद्दीन और सुरेंद्र कुमार ने अक्टूबर 2014 से अप्रैल 2015 के बीच उत्तर प्रदेश के 14 ज़िलों के 7,000 से ज़्यादा घरों का सर्वेक्षण किया।


उनके अध्ययन के कुछ निष्कर्ष इस प्रकार हैः


• 'दलित मुसलमानों' के एक बड़े हिस्से का कहना है कि उन्हें गैर-दलितों की ओर से शादियों की दावत में निमंत्रण नहीं मिलता।  यह संभवतः उनके सामाजिक रूप से अलग-थलग रखे जाने के इतिहास की वजह से है.


• 'दलित मुसलमानों' के एक समूह ने कहा कि उन्हें गैर-दलितों की दावतो में अलग बैठाया जाता है. इसी संख्या के एक और समूह ने कहा कि वह लोग उच्च-जाति के लोगों के खा लेने के बाद ही खाते हैं।  बहुत से लोगों ने यह भी कहा कि उन्हें अलग थाली में खाना दिया जाता है।


• करीब 8 फ़ीसदी 'दलित मुसलमानों' ने कहा कि उनके बच्चों को कक्षा में और खाने के दौरान अलग पंक्तियों में बैठाया जाता है।


• कम से कम एक तिहाई ने कहा कि उन्हें उच्च जाति के कब्रिस्तानों में अपने मुर्दे नहीं दफ़नाने दिए जाते. वह या तो उन्हें अलग जगह दफ़नाते हैं या फिर मुख्य कब्रिस्तान के एक कोने में।


• ज़्यादातर मुसलमान एक ही मस्जिद में नमाज़ पढ़ते हैं लेकिन कुछ जगहों पर 'दलित मुसलमानों' को महसूस होता है कि मुख्य मस्जिद में उनसे भेदभाव होता है।


• 'दलित मुसलमानों' के एक उल्लेखनीय तबके ने कहा कि उन्हें ऐसा महसूस होता है कि उनके समुदाय को छोटे काम करने वाला समझा जाता है.


• 'दलित मुसलमानों' से जब उच्च जाति के हिंदू और मुसलमानों के घरों के अंदर अपने अनुभव साझा करने को कहा गया तो करीब 13 फ़ीसदी ने कहा कि उन्हें उच्च जाति के मुसलमानों के घरों में अलग बर्तनों में खाना/पानी दिया गया. उच्च जाति के हिंदू घरों की तुलना में यह अनुपात करीब 46 फ़ीसदी है।


• इसी तरह करीब 20 फ़ीसदी प्रतिभागियों को लगा कि उच्च जाति के मुसलमान उनसे दूरी बनाकर रखते हैं और 25 फ़ीसदी 'दलित मुसलमानों' के साथ को उच्च जाति के हिंदुओं ने ऐसा बर्ताव किया।


• जिन गैर-दलित मुसलमानों से बात की गई उनमें से करीब 27 फ़ीसदी की आबादी में कोई 'दलित मुसलमान' परिवार नहीं रहता था।


• 20 फ़ीसदी ने दलित मुसलमानों के साथ किसी तरह की सामाजिक संबंध होने से इनकार किया।  और जो लोग 'दलित मुसलमानों' के घर जाते भी हैं उनमें से 20 फ़ीसदी उनके घरों में बैठते नहीं और 27 फ़ीसदी उनकी दी खाने की कोई चीज़ ग्रहण नहीं करते।


• गैर-दलित मुसलमानों से पूछा गया था कि वह जब कोई दलित मुसलमान उनके घर आता है तो क्या होता है. इस पर 20 फ़ीसदी ने कहा कि कोई 'दलित मुसलमान' उनके घर नहीं आता।  और जिनके घऱ 'दलित मुसलमान' आते भी हैं उनमें से कम से कम एक तिहाई ने कहा कि 'दलित मुसलमानों' को उन बर्तनों में खाना नहीं दिया जाता जिन्हें वह आमतौर पर इस्तेमाल करते हैं।


भारत में जाति के आधार पर भेदभाव सभी धार्मिक समुदायों में मौजूद है- सिखों में भी।  पारसी ही शायद अपवाद हैं।

इससे सबक यह मिलता है कि भारत में भले ही आप जाति छोड़ दें लेकिन जाति आपको नहीं छोड़ती।

जाति (अंग्रेज़ी: species, स्पीशीज़) जीवों के जीववैज्ञानिक वर्गीकरण में सबसे बुनियादी और निचली श्रेणी होती है। जीववैज्ञानिक नज़रिए से ऐसे जीवों के समूह को एक जाति बुलाया जाता है जो एक दुसरे के साथ संतान उत्पन्न करने की क्षमता रखते हो और जिनकी संतान स्वयं आगे संतान जनने की क्षमता रखती हो। उदाहरण के लिए एक भेड़िया और शेर आपस में बच्चा पैदा नहीं कर सकते इसलिए वे अलग जातियों के माने जाते हैं। एक घोड़ा और गधा आपस में बच्चा पैदा कर सकते हैं (जिसे खच्चर बुलाया जाता है), लेकिन क्योंकि खच्चर आगे बच्चा जनने में असमर्थ होते हैं, इसलिए घोड़े और गधे भी अलग जातियों के माने जाते हैं। इसके विपरीत कुत्ते बहुत अलग आकारों में मिलते हैं लेकिन किसी भी नर कुत्ते और मादा कुत्ते के आपस में बच्चे हो सकते हैं जो स्वयं आगे संतान पैदा करने में सक्षम हैं। इसलिए सभी कुत्ते, चाहे वे किसी नसल के ही क्यों न हों, जीववैज्ञानिक दृष्टि से एक ही जाति के सदस्य समझे जाते हैं।


एक-दूसरे से समानताएँ रखने वाली ऐसी भिन्न जातियाँ को, जिनमें जीववैज्ञानिकों को यह विश्वास हो कि वे अतीत में एक ही पूर्वज से उत्पन्न होकर क्रम-विकास (इवोल्यूशन) के ज़रिये समय के साथ अलग शाखों में बंट गई हैं, एक ही जीववैज्ञानिक वंश में डाला जाता है। मसलन घोड़े, गधे और ज़ेब्रा अलग जातियों के हैं लेकिन तीनों एक ही 'एक्वस' (Equus) वंश के सदस्य माने जाते हैं।


आधुनिक काल में जातियों की परिभाषा अन्य पहलुओं को जाँचकर भी की जाती हैं। उदाहरण के लिए आनुवंशिकी (जेनेटिक्स) का प्रयोग करके अक्सर जीवों का डी एन ए परखा जाता है और इस आधार पर उन जीवों को एक जाति घोषित किया जाता है जिनकी डी एन ए छाप एक दूसरे से मिलती हो और दूसरे जीवों से अलग हो।


वास्तव में आप जिस प्रकार अन्न का वर्गीकरण करते हैं जैसे:


ऋतु आधारित फसलें:  रबी,  जायद, ख‍रीफ

जीवनचक्र पर आधारित फसलें: एकवर्षीय फसलें ,  द्विवर्षीय फसलें  बहुवर्षीय फसलें

उपयोगिता या आर्थिक आधार पर फसलें:  अन्‍न या धान्‍य,  तिलहन,  दलहन,  मसाला, रेशेदार,   चारा, फल, जड एवं कन्‍द,  उद्दीपक, शर्करा, औषधीय।


अब आप ने देखा के विभिन्न आधारों पर वर्गीकरण किया गया। कुछ इसी प्रकार मानव जाति का वर्गीकरण विभिन्न आधारों पर किया गया। भाषा, प्र्देश, रंग, व्यवहार और कर्म। अब चूंकि वैदिक काल में अन्य पूजा पद्द्ति नहीं थी मात्र सनातन ही था। अत: य्ह हिंदू वर्गीकरण कर्म के आधार पर हुआ।


जैसे जो बालक बचपन से ज्ञानी हो, पठन पाठन में रूचि रखे। पूजा पाठ करे और साथ ही ब्रह्म वरण हेतु प्रेरित हो या कर चुका हो। उस वर्ग को पठन पाठन हेतु लगा दो। वह मानव को आध्यात्म की शिक्षा दे। लेकिन जो आध्यात्मिक कार्यों से पेट भरे और वृत्ति करे उनका उप वर्गीकरण कर दो।


इसी भांति जिसको बचपन से अस्त्र शस्त्र कुश्ती का शौक हो शक्ति प्रदर्शन का मन करे। वह समाज की रक्षा अधिक अच्छी कर सकता है उसे क्षत्रिय बोलो। जिसे व्यापार में रुचि हो उसे वैश्य बनाओ। जिस बालक को किसी अन्य कर्म में मन न लगे। दूसरों की सेवा में आनन्द लगे। उसे शूद्र कहकर वर्गीकृत कर दो।


इन सभी वर्गों को कर्म के अनुसार उप वर्ग में बांट दो।


यहां तक पारंपरिक सिद्धांत के अनुसार ब्रह्मांड के निर्माता ब्रह्मा जी ने जाति व्यवस्था का निर्माण किया था। ब्रह्मा के जी के विभिन्न अंगों से जैसे उनके मुख से ब्राह्मणों का, हाथ से क्षत्रिय, वैश्य पेट से, शूद्र पैर से।


अब आप इसके अर्थ देखें। ब्राह्मण मुख से आजीविका चलाता है। यानि वह शिक्षक है। लोगों को मुख से उपदेश देकर ईश की ओर प्रेरित कर समाज में ज्ञान बांटता है। मुख से समाज सेवा करता है।


क्षत्रिय  बाहुबली होना अनिवार्य है। वह बाहुबल से समाज की रक्षा करता है। समाज सेवा करता है।


वैश्य समाज को आजीविका देता है। पेट भरता है। पेट भरने की समाज सेवा करता है।


इस शरीर का सारा भार पैर ही लेकर चलतें हैं। पैर ही हमें गति देते हैं। श्रम देते हैं। अत: शूद्र बेहद मह्त्वपूर्ण वर्ग है क्योकिं यह समाज की सेवा करता है इन पैरों की भांति।


यदि पैर न हो तो आप कोई कर्म नहीं कर सक्ते क्योंकि आप गतिहीन हो जायेगें।


किंतु दु:खद यह रहा कि मध्यकाल में कुछ लोग सत्ता का सहारा लेकर जन्म से वर्गीकरण करने लगे। जिसके कार्ण समाज बिखर गया।


वेद में, किसी भी उपनिषद में यहां तक शास्त्रों में भी जन्म से वर्गीकरण नहीं है कर्म से हैं।

राजनीतिक सिद्धांत के अनुसार ब्राह्मण समाज पर शासन करने के अलावा उन्हें पूर्ण नियंत्रण में रखना चाहते थे। इसलिए उनके राजनीतिक हित ने भारत में एक जाति व्यवस्था बनाई। जो जन्म आधारित रही।


धार्मिक सिद्धांतके अनुसार विभिन्न धार्मिक परंपराओं ने भारत में जाति व्यवस्था को जन्म दिया था। राजा और ब्राह्मण जैसे धर्म से जुड़े लोग उच्च पदों पर आसीन थे लेकिन अलग-अलग लोग शासक के यहां प्रशासन के लिए अलग-अलग कार्य करते थे जो बाद में जाति व्यवस्था का आधार बन गए थे। इसके साथ साथ, भोजन की आदतों पर प्रतिबंध लगाया जो जाति व्यवस्था के विकास के लिए प्रेरित हुआ। इससे पहले दूसरों के साथ भोजन करने पर कोई प्रतिबंध नहीं था क्योंकि लोगों का मानना था कि उनका मूल एक पूर्वज से था। लेकिन जब उन्होंने अलग-अलग देवताओं की पूजा शुरू की तो उनकी भोजन की आदतों में बदलाव आया। इसने भारत में जाति व्यवस्था की नींव रखी।


व्यावसायिक सिद्धांतके अनुसार भारत में जाति किसी व्यक्ति के व्यवसाय के अनुसार विकसित हुई थी। जिसमें श्रेष्ठ और निम्नतर जाति की अवधारणा भी इस के साथ आयी क्योंकि कुछ व्यक्ति बेहतर नौकरियां कर रहे थे और कुछ कमजोर प्रकार की नौकरियों में थे। जो लोग पुरोहितों का कार्य कर रहे थे, वे श्रेष्ठ थे और वे ऐसे थे जो विशेष कार्य करते थे। ब्राह्मणों में समूहीकृत समय के साथ उच्च जातियों को इसी तरह से अन्य समूहों को भी भारत में विभिन्न जातियों के लिए अग्रणी बनाया गया।


मूल जाति सिद्दांत यही था किंतु यह कर्म से बदलकर जन्म से हो गया। जो कि गलत है।

 


सत्य यह हे कि केवल जन्म से ब्राह्मण होना संभव नहीं है। कर्म से कोई भी ब्राह्मण बन सकता हे यह सत्य है।

इसके कई प्रमाण वेदों और ग्रंथो में मिलते हैं जैसे…..

(1) ऐतरेय ऋषि दास अथवा अपराधी के पुत्र थे। परन्तु उच्च कोटि के ब्राह्मण बने और उन्होंने ऐतरेय ब्राह्मण और ऐतरेय उपनिषद की रचना की| ऋग्वेद को समझने के लिए ऐतरेय ब्राह्मण अतिशय आवश्यक माना जाता है।


(2) ऐलूष ऋषि दासी पुत्र थे। जुआरी और हीन चरित्र भी थे। परन्तु बाद में उन्होंने अध्ययन किया और ऋग्वेद पर अनुसन्धान करके अनेक अविष्कार किये। ऋषियों ने उन्हें आमंत्रित कर के आचार्य पद पर आसीन किया। (ऐतरेय ब्राह्मण २.१९)


(3)  सत्यकाम जाबाल गणिका (वेश्या) के पुत्र थे परन्तु वे ब्राह्मणत्व को प्राप्त हुए।


(4) राजा दक्ष के पुत्र पृषध शूद्र होगए थे, प्रायश्चित स्वरुप तपस्या करके उन्होंने मोक्ष प्राप्त किया। (विष्णु पुराण ४.१.१४)


(5) राजा नेदिष्ट के पुत्र नाभाग वैश्य हुए। पुनः इनके कई पुत्रों ने क्षत्रिय वर्ण अपनाया। (विष्णु पुराण ४.१.१३)


(6) धृष्ट नाभाग के पुत्र थे परन्तु ब्राह्मण हुए और उनके पुत्र ने क्षत्रिय वर्ण अपनाया | (विष्णु पुराण ४.२.२)


(6) आगे उन्हींके वंश में पुनः कुछ ब्राह्मण हुए | (विष्णु पुराण ४.२.२)


(7) भागवत के अनुसार राजपुत्र अग्निवेश्य ब्राह्मण हुए |


(8)  विष्णुपुराण और भागवत के अनुसार रथोतर क्षत्रिय से ब्राह्मण बने |


(9) हारित क्षत्रियपुत्र से ब्राह्मणहुए | (विष्णु पुराण ४.३.५)


(10) क्षत्रियकुल में जन्में शौनक ने ब्राह्मणत्व प्राप्त किया | (विष्णु पुराण ४.८.१) वायु, विष्णु और हरिवंश पुराण कहते हैं कि शौनक ऋषि के पुत्र कर्म भेद से ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र वर्ण के हुए| इसी प्रकार गृत्समद, गृत्समति और वीतहव्यके उदाहरण हैं |


(11) मातंग चांडालपुत्र से ब्राह्मण बने |



(12) ऋषि पुलस्त्य का पौत्र रावण अपनेकर्मों से राक्षस बना |



(13) राजा रघु का पुत्र प्रवृद्ध राक्षस हुआ |



(14) त्रिशंकु राजा होते हुए भी कर्मों से चांडाल बन गए थे |



(15) विश्वामित्र के पुत्रों ने शूद्रवर्ण अपनाया |



विश्वामित्र स्वयं क्षत्रिय थे परन्तु बाद उन्होंने ब्राह्मणत्व को प्राप्त किया |



(16) विदुर दासी पुत्र थे | तथापि वे ब्राह्मण हुए और उन्होंने हस्तिनापुर साम्राज्य का मंत्री पद सुशोभित किया |

 

MMSTM समवैध्यावि ध्यान की वह आधुनिक विधि है। कोई चाहे नास्तिक हो आस्तिक हो, साकार, निराकार कुछ भी हो बस पागल और हठी न हो तो उसको ईश अनुभव होकर रहेगा बस समयावधि कुछ बढ सकती है। आपको प्रतिदिन लगभग 40 मिनट देने होंगे और आपको 1 दिन से लेकर 10 वर्ष का समय लग सकता है। 1 दिन उनके लिये जो सत्वगुणी और ईश भक्त हैं। 10 साल बगदादी जैसे हत्यारे के लिये। वैसे 6 महीने बहुत है किसी आम आदमी के लिये।"  सनातन पुत्र देवीदास विपुल खोजी
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